________________ 344] [स्थानाङ्गसूत्र विवेचन-यहां 'गण' पद से साधु-संघ और श्रावक-संघ ये दोनों अर्थ ग्रहण करना चाहिए / यतः शास्त्रों के रचयिता साधुजन रहे हैं, अतः उन्होंने साधुगण को लक्ष्य कर के ही इसकी व्याख्या की है। फिर भी श्रावक-गण को भी 'गण' के भीतर गिना जा सकता है। यदि इनका ग्रहण अभीष्ट न होता, तो सूत्र में 'पुरुषजात' इस सामान्य पद का प्रयोग न किया गया होता। ४१६--चत्तारि पुरिसजाया पणता, तं जहा—गणसंगहकरे णाममेगे णो माणकरे, माणकरे णाममेगे णो गणसं गहकरे, एगे गणसंगहकरेवि माणकरेवि, एगे णो गणसंगहकरे णो माणकरे। पुनः पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. गणसंग्रहकर, न मानकर--कोई पुरुष गण के लिये संग्रह करता है, किन्तु अभिमान नहीं करता। 2. मानकर, न गणसंग्रहकर--कोई पुरुष अभिमान करता है, किन्तु गण के लिए संग्रह नहीं करता। 3. गणसंग्रहकर भी, मानकर भी--कोई पुरुष गण के लिए संग्रह भी करता है और अभिमान भी करता है। 4. न गणसंग्रहकर, न मानकर-कोई पुरुष न गण के लिए संग्रह ही करता है और न अभिमान ही करता है / (416) ४१७---चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा—गणसोभकरे गाममेगे जो माणकरे, माणकरे णाममेगे जो गणसोभकरे, एग गणसोभकरेवि माणकरेवि, एगे जो गणसोमकरे णो माणकरे। पुनः पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे--- 1. गणशोभाकर, न मानकर--कोई पुरुष अपने विद्यातिशय आदि से गण की शोभा बढ़ाता है, किन्तु अभिमान नहीं करता। 2. मानकर, न गणशोभकर--कोई पुरुष अभिमान तो करता है, किन्तु गण की कोई शोभा नहीं बढ़ाता। 3. गणशोभाकर, मानकर--कोई पुरुष गण की शोभा भी बढ़ाता है और अभिमान भी करता है। 4. न गणशोभाकर, न मानकर--कोई पुरुष न गण की शोभा ही बढ़ाता है और न अभिमान ही करता है (417) / ४१८--चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा- गणसोहिकरे गाममेगे णो माणकरे, माणकरे णाममेगे णो गणसोहिकरे, एगे गणसोहिकरेवि माणकरेवि, एगे णो गणसोहिकरे जो माणकरे / पुन: पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे-- 1. गणशोधिकर न मानकर-कोई पुरुष गण की प्रायश्चित्त आदि के द्वारा शुद्धि करता है, किन्तु अभिमान नहीं करता। 2. मानकर, न गणशोधिकर-कोई पुरुष अभिमान करता है, किन्तु गण को शुद्धि नहीं करता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org