________________ 362] [ स्थानाङ्गसूत्र 6. उदार तपःकर्म--प्राशंसा-प्रशंसा आदि की अपेक्षा न करके तपस्या करना। 7. कल्याण तपःकर्म-अात्मा को पापों से मुक्त कर मंगल करने वाली तपस्या करना / 8. विपुल तपःकर्म-बहुत दिनों तक की जाने वाली तपस्या। 6. प्रयत तपःकर्म-उत्कृष्ट संयम से युक्त तपस्या / / 10. प्रगृहीत तपःकर्म-आदरपूर्वक स्वीकार की गई तपस्या / 11. महानुभाग तपःकर्म-अचिन्त्य शक्तियुक्त ऋद्धियों को प्राप्त कराने वाली तपस्या। 12. आभ्युपगमिकी वेदना स्वेच्छापूर्वक स्वीकार की गई वेदना। 13. औपक्रमिकी वेदना--सहसा आई हुई प्राण-घातक वेदना / दुःखशय्याओं में पड़ा हुआ साधक वर्तमान में भी दुःख पाता है और आगे के लिए अपना संसार बढ़ाता है। ___ इसके विपरीत सुख-शय्या पर शयन करने वाला साधक प्रतिक्षण कर्मों की निर्जरा करता है और संसार का अन्त कर सिद्धपद पाकर अनन्त सुख भोगता है / अवाचनीय-वाचनीय-सूत्र ४५२-चत्तारि अवायणिज्जा पण्णता, तं जहा-प्रविणीए, विगइपडिबद्ध, अविनोसवितपाहुडे, माई। चार अवाचनीय (वाचना देने के अयोग्य) कहे गये हैं / जैसे--- 1. अविनीत--जो विनय-रहित हो, उद्दण्ड और अभिमानी हो / 2. विकृति-प्रतिबद्ध-जो दूध-घृतादि के खाने में आसक्त हो। 3. अव्यवशमित-प्राभृत—जिसका कलह और क्रोध शान्त न हुआ हो। 4. मायावी—मायाचार करने का स्वभाव वाला (452) / / विवेचन---उक्त चार प्रकार के व्यक्ति सूत्र और अर्थ की वाचना देने के अयोग्य कहे गये हैं, क्योंकि ऐसे व्यक्तियों को वाचना देना निष्फल ही नहीं होता प्रत्युत कभी-कभी दुष्फल-कारक भी होता है। ४५३--चत्तारि वायणिज्जा पण्णत्ता, तं जहा–विणीते, प्रविगतिपडिबद्ध, विप्रोसवितपाहुडे, अमाई। चार वाचनीय (वाचना देने के योग्य) कहे गये हैं। जैसे१. विनीत--जो अहंकार से रहित एवं विनय से संयक्त हो। 2. विकृति-अप्रतिबद्ध- जो दूध-घृतादि विकृतियों में आसक्त न हो। 3. व्यवशमित-प्राभूत-जिसका कलह-भाव शान्त हो गया हो। 4. अमायावी--जो मायाचार से रहित हो (453) / आत्म-पर-सूत्र ४५४–चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-आतंभरे गाममेगे णो परंभरे, परंभरे णाममेगे णो प्रातंभरे, एगे पातंभरेवि परंभरेवि, एगे णो प्रातंभरे णो परंभरे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org