________________ चतुर्थ स्थान-तृतीय उद्देश ] [ 356 लणाई णो लभामि। से णं संवाहण जाव [परिमहण-गातम्भंग] गातुच्छोलणाई प्रासाएति जाव [पोहेति पत्थेति] अभिलसति, से णं संवाहण जाव (परिमद्दण-गातम्भंग गातुच्छोलाणाई प्रासाएमाणे जाव [पीहेमाणे पत्थेमाणे अभिलसमाणे] मणं उच्चावयं णियच्छति, विणिघातमावज्जति-चउत्था दुहसेज्जा। चार दुःखशय्याएं कही गई हैं / जैसे 1. उनमें पहली दुःखशय्या यह है कोई पुरुष मुण्डित होकर अगार से अनगारिता में प्रवजित हो निर्ग्रन्थ-प्रवचन में शंकित, कांक्षित, विचिकित्सित, भेदसमापन्न और कलुषसमापन्न होकर निर्ग्रन्थप्रवचन में श्रद्धा नहीं करता, प्रतीति नहीं करता, रुचि नहीं करता। वह निम्रन्थप्रवचन पर अश्रद्धा करता हुआ, अप्रतीति करता हुआ, अरुचि करता हुआ, मन को ऊंचा-नीचा करता है और विनिघात (धर्म-भ्रंशता) को प्राप्त होता है / यह उसकी पहली दुःखशय्या है। 2. दूसरी दुःखशय्या यह है-कोई पुरुष मुण्डित होकर अगार से अनगारिता में प्रवजित हो, अपने लाभ से (भिक्षा में प्राप्त भक्त-पानादि से) सन्तुष्ट नहीं होता है, किन्तु दूसरे को प्राप्त हुए लाभ का आस्वाद करता है, इच्छा करता है, प्रार्थना करता है और अभिलाषा करता है। वह दूसरे के लाभ का आस्वाद करता हुआ, इच्छा करता हुया, प्रार्थना करता हुया और अभिलाषा करता हुआ मन को ऊंचा-नीचा करता है और विनिघात को प्राप्त होता है / यह उसकी दूसरी दुःखशय्या है। 3. तीसरी दुःखशय्या यह है—कोई पुरुष मुण्डित होकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हो देवों के और मनुष्यों के काम-भोगों का प्रास्वाद करता है, इच्छा करता है, प्रार्थना करता है, अभिलाषा करता है / वह देवों के और मनुष्यों के काम-भोगों का आस्वाद करता हुआ, इच्छा करता हुया, प्रार्थना करता हुआ और अभिलाषा करता हुया मन को ऊंचा-नीचा करता है और विनिधात को प्राप्त होता है / यह उसकी तीसरी दुःखशय्या है। 4. चौथो दुःखशय्या यह है--कोई पुरुष मुण्डित होकर अगार से अनगारिता में प्रवजित हुआ। उसको ऐसा विचार होता है-जब मैं गृहवास में रहता था, तब मैं संबाधन, परिमर्दन, गात्राभ्यंग और गात्रोत्क्षालन करता था। परन्तु जबसे मैं मुण्डित होकर अगार से अनगारिता में प्रवजित हुआ हूं, तब से मैं संबाधन, परिमर्दन, गात्राध्यंग और गात्रप्रक्षालन नहीं कर पा रह ऐसा विचार कर वह संबाधन, परिमर्दन, गात्राभ्यंग और गात्रप्रक्षालन का आस्वाद करता है, इच्छा करता है, प्रार्थना करता है और अभिलाषा करता है। संबाधन, परिमर्दन, गात्राभ्यंग और गात्रोरक्षालन का आस्वाद करता हना, इच्छा करता हुन्मा, प्रार्थना करता हुआ और अभिलाषा करता हुआ वह अपने मन को ऊंचा-नीचा करता है और विनिघात को प्राप्त होता है / यह उस मुनि की चौथी दुःखशय्या है (450) / विवेचन-चौथी दुःखशय्या में आये हुए कुछ विशिष्ट पदों का अर्थ इस प्रकार है१. संबाधन–शरीर की हड़-फूटन मिटाकर उनमें सुख पैदा करने वाली मालिश करना / 2. परिमर्दन-वेसन-तेल मिश्रित पीठी से शरीर का मर्दन करना / 3. गात्राभ्यंग-तेल आदि से शरीर की मालिश करना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org