________________ चतुर्थ स्थान-तृतीय उद्देश ] [ 345 3. गण-शोधिकर भी, अभिमानकर भी-कोई पुरुष गण की शुद्धि भी करता है और अभिमान भी करता है / 4. न गण-शोधिकर, न मानकर-कोई पुरुष न गण की शुद्धि ही करता है और न अभिमान ही करता है (418) / धर्म-सूत्र ४१६–चत्तारि पुरिसजाया पणत्ता, तं जहा–रूवं णाममेगे जहति णो धम्म, धम्मं णाममेगे जहति णो रूवं, एग रूबंपि जहति धम्मंपि, एग णो रूवं जहति णो धम्म / पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. रूप-जही, न धर्म-जही--कोई पुरुष वेष का त्याग कर देता है, किन्तु धर्म का त्याग नहीं करता। 2. धर्म-जही, न रूप-जही-कोई पुरुष धर्म का त्याग कर देता है, किन्तु वेष का त्याग नहीं करता। 3. रूप-जही, धर्म-जही-कोई पुरुष वेष का भी त्याग कर देता है और धर्म का भी त्याग __ कर देता है। 4. न रूप-जही, न धर्म-जही कोई पुरुष न वेष का ही त्याग करता है और न धर्म का ही त्याग करता है (416) / ४२०-चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-धम्म णाममेगे जहति णो गणसंठिति, गणसंठिति णाममेगे जहति णो धम्म, एग धम्मवि जहति गणसंठितिवि, एगे जो धम्मं जहति णो गणसंठिति / पुनः पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं / जैसे-- 1. धर्म-जही न गणसंस्थिति-जही-कोई पुरुष धर्म का त्याग कर देता है, किन्तु गण का निवास और मर्यादा नहीं त्यागता है / 2. गणसंस्थिति जही, न धर्म-जही-कोई पुरुष गण का निवास और मर्यादा का त्याग कर देता है, किन्तु धर्म का त्याग नहीं करता / 3. धर्म-जही, गणसंस्थिति-जही--कोई पुरुष धर्म का भी त्याग कर देता है और गण का निवास और मर्यादा का भी त्याग कर देता है। 4. न धर्म-जही न गणसंस्थिति-जही-कोई पुरुष न धर्म का ही त्याग करता है और न गण का निवास और मर्यादा का ही त्याग करता है (420) / ४२१–चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा—पियधम्मे णाममेग णो दढधम्मे, दढधम्मे णाममेग णो पियधम्मे, एग पियधम्मेवि दढधम्मेवि, एग णो पियधम्मे णो दढधम्मे / पुनः पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. प्रियधर्मा, न दृढधर्मा-किसी पुरुष को धर्म तो प्रिय होता है, किन्तु वह धर्म में दृढ नहीं रहता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org