________________ चतुर्थ स्थान-तृतीय उद्देश [ 353 4. अहुणोववण्णे देवे देवलोग सु जाव [दिव्येसु कामभोगसु अमुच्छिते अगिद्ध प्रगढिते] अणज्झोववणे, तस्स णमेवं भवति-अस्थि णं मम माणुस्सए भवे मित्तेति वा सहीति वा सुहोति वा सहाएति वा संगइएति वा, तेसिं च णं अम्हे अण्णमण्णस्स संगारे पडिसुते भवति--जो मे पुचि चयति से संबोहेतवे / इच्चेतेहि जाव [चहि ठाणेहि अहुणोक्वण्णे देवे देवलोएसु इच्छेज्ज माणुस लोग हव्वमागच्छित्तए] संचाएति हव्वमागच्छित्तए। चार कारणों से देवलोक में तत्काल उत्पन्न हुआ देव शीव्र मनुष्यलोक में पाने की इच्छा करता है और शीघ्र पाने के लिए समर्थ भी होता है / जैसे 1. देवलोक में तत्काल उत्पन्न हुआ, दिव्य काम-भोगों में अभूच्छित, अगृद्ध, अग्रथित और अनासक्त देव को ऐसा विचार होता है-मनुष्यलोक में मेरे मनुष्यभव के प्राचार्य हैं या उपाध्याय हैं या प्रवर्तक हैं या स्थविर हैं या गणी हैं या गणधर हैं या गणावच्छेदक हैं; जिनके प्रभाव से मैंने यह इस प्रकार की दिव्य देवधि, दिव्य देव-द्युति और दिव्य देवानुभाव लब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत (भोगने के योग्य दशा को प्राप्त किया है, अत: मैं जाऊं-उन भगवन्तों को वन्दना करू, नमस्कार करू, उनका सत्कार, सन्मान करू, और कल्याणरूप, मंगलमय देव चैत्यस्वरूप की पर्युपासना करू / 2. देवलोक में तत्काल उत्पन्न हुआ, दिव्य काम-भोगों में प्रमूच्छित, अगद्ध, अग्रथित और अनासक्त देव ऐसा विचार करता है-इस मनुष्यभव में ज्ञानी हैं, तपस्वी हैं, अतिदुष्कर घोर तपस्या-कारक हैं, अतः मैं जाऊं-उन भगवन्तों को वन्दना करू, नमस्कार करू, उनका सत्कार करू, सन्मान करू और कल्याणरूप, मंगलमय देव एवं चैत्यस्वरूप की पर्युपासना करू / 3 देवलोक में तत्काल उत्पन्न हुआ, दिव्य काम-भागों में अमूच्छित, अगृद्ध, अग्रथित और अनासक्त देव को ऐसा विचार होता है--मेरे मनुष्य भव के माता हैं, या पिता हैं, या भाई हैं, या बहिन हैं, या स्त्री है, या पुत्र है, या पुत्री है, या पुत्र-वधू है, अतः मैं जाऊं, उनके सम्मुख प्रकट होऊं, जिससे वे मेरो, इस प्रकार की, दिव्य देवधि, दिव्य देव-धु ति, और दिव्य देव-प्रभाव को--जो मुझे मिला है, प्राप्त हुया है और अभिसमन्वागत हुआ है, देखें। 4. देवलोक में तत्काल उत्पन्न हुआ, दिव्य काम-भोगों में अमूच्छित, अगृद्ध, अग्रथित और अनासक्त देव को ऐसा विचार होता है-मनुष्यलोक में मेरे मनुष्य भव के मित्र हैं, या सखा हैं, या सुहन् हैं. या सहायक हैं, या संगतिक हैं, उनका हमारे साथ परस्पर संगार (संकेतरूप प्रतिज्ञा) स्वीकृत है कि जो मेरे पहले मरणप्राप्त हो, वह दूसरे को संबोधित करे। इन चार कारणों से देवलोक में तत्काल उत्पन्न हुआ देव शीघ्र मनुष्यलोक में पाने की इच्छा करता है और शीघ्र पाने के लिए समर्थ होता है (434) / विवेचन इस सूत्र में पाये हए आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, गणी प्रादि पदों को व्याख्या तीसरे स्थान के सूत्र 362 में की जा चुकी है / मित्र आदि पदों का अर्थ इस प्रकार है-- 1. मित्र---जीवन के किसी प्रसंग-विशेष से जिसके साथ स्नेह हुआ हो। 2. सखा-बाल-काल में साथ खेलने-कूदने वाला। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org