________________ चतुर्थ स्थान--प्रथम उद्देश [ 216 एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, त जहा-अंबपलंबकोरवसमाणे, तालपलबकोरवसमाणे, वल्लिपलबकोरवसमाणे, मेंढविसाणकोरवसमाणे। कोरक (कलिका) चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे-- 1. आम्रप्रलम्बकोरक-ग्राम के फल की कलिका। 2. तालप्रलम्ब कोरक-ताड़ के फल की कलिका। 3. वल्लीप्रलम्ब कोरक - वल्ली (लता) के फल की कलिका। 4. मेढ़विषाणकोरक-मेढ़ के सींग के समान फल वाली वनस्पति-विशेष की कलिका। इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे 1. आम्रप्रलम्ब-कोरक समान-जो सेवा करने पर उचित अवसर पर उचित उपकार रूप फल प्रदान करे (प्रत्युपकार करे)। 2. तालप्रलम्ब-कोरक समान---जो दीर्घकाल तक खूब सेवा करने पर उपकाररूप फल प्रदान करे। 3. वल्ली प्रलम्ब-कोरक समान- जो सेवा करने पर शीघ्र और कठिनाई विना फल प्रदान करे। 4. मेढ़ विषाण-कोरक-समान–जो सेवा करने पर भी केवल मीठे वचन ही बोले, किन्तु कोई उपकार न करे (55) / मिक्षाक-सूत्र ५६-चत्तारि घुणा पण्णत्ता, त जहातयक्खाए, छल्लिक्खाए, कटुक्खाए, सारक्खाए / एवामेव चत्तारि भिक्खागा पण्णत्ता, तं जहा-तयक्खायसमाणे, जाव [छल्लिक्खायसमाणे फटुक्खायसमाणे] सारक्खायसमाणे / 1. तयक्खायसमाणस्य णं भिक्खागस्स सारक्खायसमाणे तवे पण्णते। 2. सारक्खायसमाणस्स णं भिक्खागस्स तयक्खायसमाणे तवे पण्णत्ते / 3. छल्लिक्खायसमाणस्स णं भिक्खागस्स कट्टक्खायसमाणे तवे पण्णत्ते / 4. कटुक्खायसमाणस्स णं भिक्खागस्स छहिलक्खायसमाणे तवे पण्णत्ते / धुण (काष्ठ-भक्षक कीड़े) चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. त्वक्-खाद-वृक्ष की ऊपरी छाल को खानेवाला। 2. छल्ली-खाद-छाल के भीतरी भाग को खानेवाला। 3. काष्ठ-खाद-काठ को खानेवाला। 4. सार-खाद-काठ के मध्यवर्ती सार को खानेवाला / इसी प्रकार भिक्षाक (भिक्षा-भोजी साधु) चार प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. त्वक्-खाद-समान- नीरस, रूक्ष अन्त-प्रान्त अाहार-भोजी साधु / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org