________________ चतुर्थ स्थान–प्रथम उद्देश] [ 231 मान चार प्रकार का कहा गया है / जैसे१. आभोगनिर्वतित बुद्धिपूर्वक किया गया मान / 2. अनाभोगनिर्वतित--अबुद्धिपूर्वक किया गया मान / 3. उपशान्त मान-उदय को अप्राप्त, किन्तु सत्ता में स्थित मान / 4. अनुपशान्त मान-उदय को प्राप्त मान / यह चारों प्रकार का मान नारकों से लेकर वैमानिक तक के सभी दण्डकों में पाया जाता है (86) / ९०-चउम्बिहा माया पण्णता, तं जहा-प्राभोगणिवत्तिता, अणाभोगणिवत्तिता, उवसंता, अणुवसंता / एवं-रइयाणं जाव वेमाणियाणं / माया चार प्रकार की कही गई है। जैसे१. आभोगनिर्वतित-बुद्धिपूर्वक की गई माया। 2. अनाभोगनिर्वतित-अबुद्धिपूर्वक की गई माया। 3. उपशान्त माया-उदय को अप्राप्त, किन्तु सत्ता में स्थित माया / 4. अनुपशान्त माया-उदय को प्राप्त माया। यह चारों प्रकार की माया नारकों से लेकर वैमानिक तक के सभी दण्डकों में पाई जाती है (60) / ६१-चउविहे लोभे पण्णत्ते, तं जहा–प्राभोगणिव्वत्तिते, अणाभोगणिन्वत्तिते, उवसंते, अणुवसंते / एवं---णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं।] लोभ चार प्रकार का गया है। जैसे१. आभोगनिर्वतित-बुद्धिपूर्वक किया गया लोभ / 2. अनाभोगनिर्वतित अबुद्धिपूर्वक उत्पन्न हुआ लोभ / 3. उपशान्त लोभ-उदय को अप्राप्त, किन्तु सत्ता में स्थित लोभ / 4. अनुपशान्त लोभ--उदय को प्राप्त लोभ (61) / कर्म-प्रकृति-सूत्र ६२-जीवा णं चहि ठाणेहि अटुकम्मपगडीयो चिणिसु, तं जहा–कोहेणं, माणेणं, मायाए, लोभेणं / एवं जाव वेमाणियाणं / एवं चिणंति, एस दंडो, एवं चिणिस्संति एस दंडनो, एवमेतेणं तिणि दंडगा। जीवों ने चार कारणों से आठों कर्मप्रकृतियों का भूतकाल में संचय किया है / जैसे१. क्रोध से, 2. मान से, 3. माया से और 4. लोभ से। इसी प्रकार वैमानिक तक के सभी दण्डक वाले जीवों ने भूतकाल में आठों कर्मप्रकृतियों का संचय किया है (62) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org