________________ चतुर्थ स्थान-द्वितीय उद्देश ] [ 267 २६६-चउब्विहे णिकायिते पण्णते, त जहा-पगतिणिकायिते, ठितिणिकायिते, अणुभावणिकायिते, पएसणिकायिते। निकाचित चार प्रकार का कहा गया है / जैसे१. प्रकृति-निकाचित स्थिति-निकाचित, 3. अनुभाव-निकाचित, 4. प्रदेश-निकाचित / (296) विवेचन--सूत्र 260 से लेकर 266 तक के 10 सूत्रों में कर्मों की अनेक अवस्थानों का निरूपण किया गया है। कर्मशास्त्र में कर्मों को 10 अवस्थाएं बतलाई गई हैं-१, बन्ध, 2. उदय 3. सत्त्व, 4. उदीरणा, 5. उद्वर्तन या उत्कर्षण, 6. अपवर्तन या अपकर्षण, 7. संक्रम, 8. उपशम, 6. नित्ति और 10. निकाचित / इसमें से उदय और सत्त्व को छोड़कर शेष पाठ की 'करण' संज्ञा है / क्योंकि उनके सम्पादन के लिए जीव को अपनी योग-संज्ञक वीर्य-शक्ति का विशेष उपक्रम करना पड़ता है / उक्त 10 अवस्थाओं का स्वरूप इस प्रकार है 1. बन्ध---जीव और कर्म-पुद्गलों के गाढ़ संयोग को बन्ध कहते हैं / 2. उदय-बन्धे हुए कर्म-पुद्गलों के यथासमय फल देने को उदय कहते हैं। 3. सत्त्व-बंधे कर्मों का जीव में उदय आने तक अवस्थित रहना सत्त्व कहलाता है। 4. उदीरणा-बंधे कमों का उदयकाल पाने के पूर्व ही अपवर्तन करके उदय में लाने को उदीरणा कहते हैं। 5. उद्वर्तन-बंधे कर्मों की स्थिति और अनुभाव-शक्ति के बढ़ाने को उद्वर्तन कहते हैं। 6. अपवर्तन-बंधे कर्मों की स्थिति और अनुभाग-शक्ति के घटाने को अपवर्तन कहते हैं / 7. संक्रम-एक कर्म-प्रकृति के सजातीय अन्य प्रकृति में परिणमन होने को संक्रम कहते हैं / 8. उपशम--बंधे हुए कर्म को उदय-उदीरणा के अयोग्य करना उपशम कहलाता है / 6. निधत्ति-बंधे हुए जिस कर्म को उदय में भी न लाया जा सके और उद्वर्तन, अपवर्तन एवं संक्रम भी न किया जा सके, ऐसी अवस्था-विशेषको निधत्ति कहते हैं। 10. निकाचित-बंधे हुए जिस कर्मका उपशम, उदोरणा, उद्वर्तना, अपवर्तना और संक्रम आदि कुछ भी न किया जा सके, ऐसी अवस्था-विशेष को निकाचित कहते हैं। उक्त दशों ही प्रकृति, स्थिति, अनुभाव और प्रदेश के भेद से चार-चार प्रकार के होते हैं / उनमें से बन्ध, उदीरणा, उपशम, संक्रम, निधत्त और निकाचित के चार-चार भेदों का वर्णन सूत्रों में किया ही गया है। शेष उद्वर्तना और अपवर्तना का समावेश विपरिणामनोपक्रमण में किया गया है। सूत्र 266 में अल्प-बहुत्व का निरूपण किया गया है। कर्मों की प्रकृति, स्थिति, अनुभाव और प्रदेशों की हीनाधिकता को अल्प-बहुत्व कहते हैं / संख्या-सूत्र __३००–चत्तारि एक्का पण्णता, त जहा–दविएक्कए, माउएक्कए, पज्जवेक्कए, संगहेक्कए / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org