________________ चतुर्थ स्थान--द्वितीय उद्देश ] [ 265 ___ २८६-चउबिहे पाहारे पण्णत्त, तं जहा-उवक्खरसंपण्णे, उबक्खउसंपण्णे, सभावसंपण्णे, परिजसियसंपण्णे। पुन: आहार चार प्रकार का कहा गया है, जैसे-- 1. उपस्कार-सम्पन्न--घी तेल आदि के वघार से युक्त मसाले डालकर तैयार किया आहार। 2. उपस्कृत-सम्पन्न--पकाया हुअा भात आदि / 3. स्वभाव-सम्पन्न--स्वभाव से पके फल आदि / 4. पर्यु षित-सम्पन्न-रात-वासी रखने से तैयार हुआ आहार, जैसे- कांजी-रस में रक्खा __ आम्रफल (286) / कर्मावस्था-सूत्र ६०-चउब्धिहे बंधे पण्णत्त, त जहा–पगतिबंध, ठितिबंधे, अणुभावबंधे, पदेसबंध / बन्ध चार प्रकार का कहा गया है, जैसे१. प्रकृतिबन्ध-बन्धनेवाले कर्म-पुद्गलों में ज्ञानादि के रोकने का स्वभाव उत्पन्न होना। 2. स्थितिबन्ध-बंधनेवाले कर्म-पुदगलों की काल-मर्यादा का नियत होना। 3. अनुभावबन्ध-बंधनेवाले कर्म-पुद्गलों में फल देने की तीव्र-मन्द आदि शक्ति का उत्पन्न होना / 4. प्रदेशबन्ध-बंधनेवाले कर्म-पुद्गलों के प्रदेशों का समूह (260) / २६१–चउबिहे उवक्कमे पण्णत्त, त जहा–बंधणोवक्कम, उदीरणोवक्कमे, उवसमणोवक्कम, विप्परिणामणोवक्कमे। उपक्रम चार प्रकार का कहा गया है / जैसे१. बन्धनोपक्रम-कर्म-बन्धन में कारणभूत जीव के वीर्य विशेष का प्रयत्न / 2. उदीरणोपक्रम-कर्मों की उदीरणा में कारणभूत जीव के वीर्य विशेष का प्रयत्न / 3. उपशामनोपक्रम-कर्मों के उपशमन में कारणभूत जीव के वीर्य विशेष का प्रयत्न / 4. विपरिणामनोपक्रम–कर्मों की एक अवस्था से दूसरी अवस्था रूप परिणमन कराने में __ कारणभूत जीव के वीर्य विशेष का प्रयत्न (261) / २६२–बंधणोवक्कम चउविहे पण्णत्त, त जहा–पगतिबंधणोवक्कम, ठितिबंधणोवक्कम, अणुभावबंधणोवक्कम, पदेसबंधणोवक्कम। बन्धनोपक्रम चार प्रकार का कहा गया है / जैसे१. प्रकृतिबन्धनोपक्रम, 2. स्थितिबन्धनोपक्रम, 3. अनुभावबन्धनोपक्रम और 4. प्रदेशबन्धनोपक्रम / २९३–उदीरणोवक्कम चउबिहे पण्णते, त जहा-पगतिउदीरणोवक्कम, ठितिउदीरणोवक्कम, अणुभावउदीरणोरक्कम, पदेसउदोरणोवक्कमे / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org