________________ चतुर्थ स्थान--प्रथम उद्देश] [235 1. मनः-सुप्रणिधान, 2. वाक्-सुप्रणिधान, 3. काय-सुप्रणिधान, 4. उपकरण-सुप्रणिधान / ये चारों सुप्रणिधान संयम के धारक मनुष्यों के कहे गये हैं (105) / १०६~-वउविहे दुप्पणिहाणे पण्णत्ते, त जहा-मणदुप्पणिहाणे, जाव [वइदुप्पणिहाणे, कायदुप्पणिहाणे], उवकरणदुप्पणिहाणे / एवं-पंचिदियाणं जाव वेमाणियाणे / दुष्प्रणिधान (असंयम के लिए मन आदि का प्रवर्तन) चार प्रकार का कहा गया है। जैसे१. मनः-दुष्प्रणिधान, 2. वाक-दुष्प्रणिधान, 3. काय-दुष्प्रणिधान, 4. उपकरण-दुष्प्रणिधान / ये चारों दुष्प्रणिधान नारकों से लेकर वैमानिक तक के सभी पंचेन्द्रिय दण्डकों में कहे गये हैं (106) / आपात-संवास-सूत्र १०७-चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, त जहा~-आवातभद्दए णाममेगे णो संवासभद्दए, संवासभद्दए णाममेगे णो प्रावातभद्दए, एगे आवातभद्दएवि संवासभद्दएवि, एगे णो आवातभद्दए णो संवासभद्दए। पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं / जैसे 1. कोई पुरुष आपात-भद्रक होता है, संवास-भद्रक नहीं। (प्रारम्भ में मिलने पर भला दिखता है, किन्तु साथ रहने पर भला नहीं लगता)। 2. कोई पुरुष संवास-भद्रक होता है, पापात-भद्रक नहीं / (प्रारम्भ में मिलने पर भला नहीं दिखता, किन्तु साथ रहने पर भला लगता है।) 3. कोई पुरुष आपात-भद्रक भी होता है और संवास-भद्रक भी होता है। 4. कोई पुरुष न आपात-भद्रक होता है और न संवास-भद्रक ही होता है (107) / वयं-सूत्र १०८-चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, त जहा-अध्यणो णाममेगे वज्जं पासति णो परस्स, परस्स णाममेगे वज्ज पासति णो अपणो, एगे अप्पणोवि वज्ज पासति परस्सवि, एगे णो अपणो वज्जं पासति णो परस्स / पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. कोई पुरुष (पश्चात्तापयुक्त होने से) अपना वय॑ देखता है, दूसरे का नहीं / 2. कोई पुरुष दूसरे का वयं देखता है, (अहंकारी होने से) अपना नहीं / 3. कोई पुरुष अपना भी वयं देखता है और दूसरे का भी। 4. कोई पुरुष न अपना वयं देखता है और न दूसरे का ही देखता है (108) / विवेचन संस्कृत टीकाकार ने 'वज्ज' इस प्राकृत पद के तोन संस्कृत रूप लिखे हैं-१. वर्ण्यत्याग करने के योग्य कार्य, 2. वज्रवद् वा वज्र-वज्र के समान भारी हिंसादि महापाप / तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org