________________ चतुर्थ स्थान द्वितीय उद्देश प्रतिसंलीन-अप्रतिसंलीन-सत्र 160-- चत्तारि पडिसलीणा पण्णता, तं जहा-कोहपडिसंलोणे, माणपडिसंलोणे, मायापडिलीणे, लोभपडिसंलोणे / प्रतिसंलीन चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे१. क्रोध-प्रतिसंलीन, 2. मान-प्रतिसंलीन, 3. माया-प्रतिसंलीन, 4. लोभ-प्रतिसंलोन (160) / १९१–चत्तारि अपडिसंलोणा पण्णत्ता, तं जहा-कोहम्रपडिसंलीणे जाव (माणपडिसंलोणे, मायापडिसंलीणे,) लोभअपडिसंलीणे / अप्रतिसंलीन चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे: 1. क्रोध-अप्रतिसंलीन, 2. मान-अप्रतिसंलीन, 3. माया-अप्रतिसंलीन 4. लोभ-अप्रतिसंलीन (161) / विवेचन-किसी वस्तु के प्रतिपक्ष में लीन होने को प्रतिसलीनता कहते हैं। और उस वस्तु में लीन होने को अप्रतिसंलीनता कहते हैं। प्रकृत में क्रोध आदि कषायों के उदय होने पर भी उसमें लीन न होना, अर्थात् क्रोधादि कषायों के होने वाले उदय का निरोध करना और उदय-प्राप्त क्रोधादि को विफल करना क्रोध-आदि प्रतिसलीनता है / तथा क्रोध-आदि कषायों के उदय होने पर क्रोध आदि रूप परिणति रखना क्रोध आदि अप्रतिसलीनता है। इसी प्रकार आगे कही जाने वाली मनःप्रतिसंलीनता आदि का भी अर्थ जानना चाहिए / १६२–चत्तारि पडिसलीणा पण्णत्ता त जहा--मणपडिसंलोणे, वइपडिसंलोणे- कायपडिसंलोणे, इंदियपडिसंलोणे। पुनः प्रतिसंलीन चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे१. मनः-प्रतिसंलीन, 2. वाक्-प्रतिसलीन, 3. काय-प्रतिसंलीन, 4. इन्द्रिय-प्रतिसंलीन (162) / १९३–चत्तारि अपडिसंलोणा पण्णत्ता, त जहा-मणपडिसंलोणे, जाव (वइअपडिसंलीणे, कायअपडिसंलोणे) इंदियअपडिसंलोणे / अप्रतिसंलीन चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे 1. मन:-अप्रतिसलीन, 2. वाक्-प्रतिसलीन, 3. काय-अप्रतिसंलीन, 4. इन्द्रिय-अप्रतिसंलीन (163) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org