________________ चतुर्थ स्थान-द्वितीय उद्देश ] [ 277 पुनः पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे-- 1. कृश और कृशशरीर-कोई पुरुष भावों से कृश होता है और शरीर से भी कृश होता है। 2. कृश और दृढशरीर --कोई पुरुष भावों से कृश होता है, किन्तु शरीर से दृढ होता है। 3. दृढ और कृशशरीर- कोई पुरुष भावों से दृढ होता है, किन्तु शरीर से कृश होता है। 4. दृढ और दृढशरीर-कोई पुरुष भावों से भी दृढ़ होता है और शरीर से भी दृढ होता है (252) / २५३–चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, त जहा—किससरीरस्स णाममेगस्त णाणदसणे समुप्पज्जति णो दढसरीरस्स, दढसरीरस्स णाममेगस्स णाणसणे समुप्पज्जति णो किससरीरस्स, एगस्स किससरीरस्सविणाणदंसणे समुपज्जति दढसरीरस्सवि, एगस्स णो किससरीरस्स पाणदंसणे समुप्पज्जति णो दढसरीरस्स। पुनः पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे 1. किसी कृश शरीर वाले पुरुष के विशिष्ट ज्ञान-दर्शन उत्पन्न होते हैं, किन्तु दृढ शरीर वाले के नहीं उत्पन्न होते। 2. किसी दृढ़ शरीर वाले पुरुष के विशिष्ट ज्ञान-दर्शन उत्पन्न होते हैं, किन्तु कृश शरीर वाले के नहीं उत्पन्न होते। 3. किसी कृश शरीर वाले पुरुष के भी विशिष्ट ज्ञान-दर्शन उत्पन्न होते हैं और दृढ शरीर वाले के भी उत्पन्न होते हैं। 4. किसी कृश शरीर वाले पुरुष के भी विशिष्ट ज्ञान-दर्शन उत्पन्न नहीं होते और दृढशरीर वाले के भी उत्पन्न नहीं होते (253) / विवेचन--सामान्य ज्ञान और दर्शन तो सभी संसारी प्राणियों के जाति, इन्द्रिय आदि के तारतम्य से हीनाधिक पाये जाते हैं। किन्तु प्रकृत सूत्र में विशिष्ट क्षयोपशम से होने वाले अवधि ज्ञान-दर्शनादि और तदावरण कर्म के क्षय से उत्पन्न होने वाले केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन का अभिप्राय है। इनकी उत्पत्ति का सम्बन्ध कृश या दृढशरीर से नहीं, किन्तु तदावरण कर्म के क्षय और क्षयोपशम से है, ऐसा अभिप्राय जानना चाहिए / अतिशेष-ज्ञान-दर्शन-सूत्र २५४–चहि ठाणेहि गिरगंथाण वा णिग्गंथीण वा अस्सि समयंसि अतिसेसे पाणदंसणे समुप्पज्जिउकामेवि ण समुष्पज्जेज्जा, तं जहा 1. अभिक्खणं-अभिक्खणं इथिकह भत्तकहं देसकहं रायकहं कहेत्ता भवति / 2. विवेगण विउस्सग्गणं णो सम्ममप्पाणं भाविता भवति / / 3. पुन्वरत्तावरत्तकालसमयंसि णो धम्मजागरियं जागरइत्ता भवति / 4. फासुयस्स एसणिज्जस्स उंछस्स सामुदाणियस्स णो सम्म गवेसित्ता भवति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org