________________ 278 ] [ स्थानाङ्गसूत्र _इच्चेतेहि चहि ठाणेहिं णिगंथाण वा जिग्गंथीण वा जाव [अस्सि समयंसि प्रतिसेसे णाणदंसणे समुप्पज्जिउकामेवि] णो समुप्पज्जेज्जा। चार कारणों से निर्ग्रन्थ और निम्रन्थियों के इस समय में अर्थात् तत्काल अतिशय-युक्त ज्ञानदर्शन उत्पन्न होते-होते भी उत्पन्न नहीं होते, जैसे-- 1. जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी वार-वार स्त्रीकथा, भक्तकथा, देशकथा और राजकथा करता है। 2. जो निम्रन्थ या निग्रन्थी विवेक और व्युत्सर्ग के द्वारा आत्मा को सम्यक् प्रकार से भावित करने वाला नहीं होता। 3. जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी पूर्वरात्रि और अपररात्रिकाल के समय धर्म-जागरण करके जागृत नहीं रहता। 4. जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी प्रासुक, एषणीय, उञ्छ और सामुदानिक भिक्षा की सम्यक् प्रकार से गवेषणा नहीं करता (254) / ___ इन चार कारणों से निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को तत्काल अतिशय-युक्त ज्ञान-दर्शन उत्पन्न होते-होते भी रुक जाते हैं--उत्पन्न नहीं होते। विवेचन-साधु और साध्वी को विशिष्ट, अतिशय-सम्पन्न ज्ञान और दर्शन को उत्पन्न करने के लिए चार कार्यों को करना अत्यावश्यक है। वे चार कार्य हैं-१ विकथा का नहीं करना / 2. विवेक और कायोत्सर्गपूर्वक आत्मा को सम्यक् भावना करना। 3. रात के पहले और पिछले पहर में जाग कर धर्मचिन्तन करना। 4. तथा, प्रासुक, एषणीय, उच्छ और सामुदानिक गोचरी लेना / जो साधु या साध्वी उक्त कार्यों को नहीं करता, वह अतिशायी ज्ञान-दर्शन को प्राप्त नहीं कर पाता / इस सन्दर्भ में आये हुए विशिष्ट पदों का अर्थ इस प्रकार है 1. विवेक-अशुद्ध भावों को त्यागकर शरीर और आत्मा को भिन्नता का विचार करना। 2. व्युत्सर्ग-वस्त्र-पात्रादि और शरीर से ममत्व छोड़कर कायोत्सर्ग करना / 3. प्रासुक--असु नाम प्राण का है, जिस बीज, वनस्पति और जल आदि में से प्राण निकल गये हों ऐसी अचित्त या निर्जीव वस्तु को प्रासुक कहते हैं। 4. एषणीय-उद्गम आदि दोषों से रहित साधुओं के लिए कल्प्य आहार / 5. उञ्छ–अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा लिया जाने वाला भक्त-पान / 6. सामुदानिक-याचनावृत्ति से भिक्षा ग्रहण करना / २५५-चहिं ठाणेहि णिग्ग थाण वा णिग्गयोण वा [अस्सि समयसि ?] प्रतिसेसे गाणदसणे समुप्पज्जिउकामे समुप्पज्जेज्जा, तं जहा 1. इस्थिकहं भत्तकह देसकहं रायकहं णो कहेत्ता भवति / 2. विवेगण विउस्सगणं सम्ममप्पाणं भावेत्ता भवति / 3. पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरइत्ता भवति / 4. फासुयस्स एसणिज्जस्स उंछस्स सामुदाणियस्स सम्म गबेसित्ता भवति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org