________________ [ स्थानाङ्गसूत्र 'वज्ज' पद में प्रकारका लोप मान कर उसका संस्कृत रूप 'अवद्य' भी किया है। जिसका अर्थ पाप या निन्द्य कार्य होता है / 'वर्य' पद में उक्त सभी अर्थ आ जाते हैं। १०६-चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा----अप्पणो णाममेगे वज्ज उदीरेइणो परस्स, परस्स णाममेगे वज्जं उदोरेइ णो अपणो, एगे अप्पणोवि वज्जं उदीरेइ परस्सवि, एगे णो अप्पणो वज्ज उदीरेइ णो परस्स। पुनः पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे 1. कोई पुरुष अपने अवद्य की उदीरणा करता है (कष्ट सहन करके उदय में लाता है अथवा मैंने यह किया, ऐसा कहता है) दूसरे के अवद्य की नहीं। 2. कोई पुरुष दूसरे के अवद्य की उदीरणा करता है, अपने अवद्य की नहीं। 3. कोई पुरुष अपने अवद्य की उदीरणा करता है और दूसरे के अवद्य की भी। 4. कोई पुरुष न अपने अवद्य की उदीरणा करता है और न दूसरे के अवद्य की (106) / ११०–चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, त जहा-अप्पणो णाममेगे वज्ज उवसामेति णो परस्स, परस्स णाममेगे वजं उवसामेति णो अपणो, एगे अप्पणोवि वज्ज उवसामेति परस्सवि, एगे णो प्रप्पणो बज्जं उवसामेति णो परस्स। पुनः पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. कोई पुरुष अपने अवयं को उपशान्त करता है, दूसरे के अवयं को नहीं। 2. कोई पुरुष दूसरे के अवयं को उपशान्त करता है, अपने अवयं को नहीं। 3. कोई पुरुष अपने भी अवयं को उपशान्त करता है और दूसरे के अवयं को भी। 4. कोई पुरुष न अपने अवयं को उपशान्त करता है और न दूसरे के अवयं को उपशान्त करता है (110) / लोकोपचार-विनय-सूत्र १११-चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, त जहा-अब्भुट्ठति णाममेगे णो अभट्टावेति, अब्भुटावेति णाममेगे णो अन्भुट्ठति, एगे अब्भुट्ठति वि अब्भुट्ठावेति वि, एगे णो अन्भुट्ठति णो अब्भुट्ठावेति। पुनः पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं / जैसे-- 1. कोई पुरुष (गुरुजनादि को देख कर) अभ्युत्थान करता है, किन्तु (दूसरों से) अभ्युत्थान करवाता नहीं। 2. कोई पुरुष (दूसरों से) अभ्युत्थान करवाता है, किन्तु (स्वयं) अभ्युत्थान नहीं करता। 3. कोई पुरुष स्वयं भी अभ्युत्थान करता है और दूसरों से भी अभ्युत्थान करवाता है / 4. कोई पुरुष न स्वयं अभ्युत्थान करता है और न दूसरों से भी अभ्युत्थान करवाता है(१११) / विवेचन–प्रथम भंग में संविग्नपाक्षिक या लघुपर्याय वाला साधु गिना गया है, दूसरे भंग . For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org