________________ चतुर्थ स्थान-प्रथम उद्देश] [ 241 प्रमाण चार प्रकार का कहा गया है, जैसे१. द्रव्य-प्रमाण---द्रव्य का प्रमाण बताने वाली संख्या आदि / 2. क्षेत्र-प्रमाण-क्षेत्र का माप करने वाले दण्ड, धनुष, योजन आदि / 3. काल-प्रमाण--काल का माप करने वाले आवलिका मुहूर्त आदि / 4. भाव-प्रमाण–प्रत्यक्षादि प्रमाण और नैगमादिनय (125) / महत्तरि-सूत्र १२६-चत्तारि दिसाकुमारिमहत्तरियानो पण्णत्तानो, तं जहा–रूया, रूयंसा, सुरूवा, रूयावती। दिक्कुमारियों की चार महत्तरिकाएं कही गई हैं, जैसे 1. रूपा, 2. रूपांशा, 4. सुरूपा, 4. रूपवती / (ये चारों स्वयं महत्तरिका अर्थात् प्रधानतम हैं अथवा दिक्कुमारियों में प्रधानतम हैं (126) / ) १२७–चत्तारि विज्जुकुमारिमहत्तरियानो पग्णत्तानो, तं जहा-चित्ता, चित्तकणगा, सतेरा, सोयामणी। विद्युत्कुमारियों की चार महत्तरिकाएं कही गई हैं, जैसे--- 1. चित्रा, 2. चित्रकनका, 3. सतेरा, 4. सौदामिनी (127) / देवस्थिति-सूत्र १२८-सक्कस्स णं देविदस्स देवरण्णो मज्झिमपरिसाए देवाणं चत्तारि पलिप्रोवमाई ठिती पण्णत्ता। देवेन्द्र देवराज शक्रेन्द्र की मध्यम परिषद् के देवों की स्थिति चार पल्योपम की कही गई है (128) / १२६-ईसाणस्स णं देविदस्स देवरण्णो मज्झिमपरिसाए देवीणं चत्तारि पलिग्रोवमाई ठिती पण्णत्ता। देवेन्द्र देवराज ईशानेन्द्र की मध्यम परिषद् की देवियों की स्थिति चार पल्योपम की कही गई है (126) / संसार-सूत्र १३०–चउन्विहे संसारे पण्णत्ते, तं जहा-दव्वसंसारे, खेत्तसंसारे, कालसंसारे, भावसंसारे। संसार चार प्रकार का कहा गया है, जैसे१. द्रव्य-संसार-जीवों और पुदगलों का परिभ्रमण / 2. क्षेत्र-संसार-जीवों और पुद्गलों के परिभ्रमण का क्षेत्र / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org