________________ 234 ] [ स्थानाङ्गसूत्र 3. कोई पुरुष पक्व (आयु और श्र ताभ्यास से परिपुष्ट) होने पर भी प्राम-मधुर फल के समान अल्प-उपशम भाववाला और अल्प-मधुर स्वभावी होता है। 4. कोई पुरुष पक्व (आयु और श्रु ताभ्यास से परिपुष्ट) होकर पक्व मधुर-फल के समान प्रकृष्ट उपशम वाला और अत्यन्त मधुर स्वभावी होता है (101) / सत्य-मृषा-सूत्र १०२-चउविहे सच्चे पण्णत्ते, त जहा-काउज्जुयया, भासुज्जुयया, भावुज्जुयया. अविसंवायणाजोगे। सत्य चार प्रकार का कहा गया है / जैसे१. काय-ऋजता-सत्य-काय के द्वारा सरल सत्य वस्तु का संकेत करना। 2. भाषा-ऋजता-सत्य-वचन के द्वारा यथार्थ वस्तु का प्रतिपादन करना। 3. भाव-ऋजुता-सत्य--मन में सरल सत्य कहने का भाव रखना / 4. अविसंवादना-योग-सत्य–विसंवाद-रहित, किसी को धोखा न देने वाली मन, वचन, काय की प्रवृत्ति रखना (102) / १०३..चउठिवहे मोसे पण्णत्ते, तं जहा–कायअणुज्जुयया, भासप्रणुज्जुयया, भाव अणुज्जुयया, विसंवादणाजोगे। मृषा (असत्य) चार प्रकार का कहा गया है / जैसे१. काय-अनजुकता-मृषा- काय के द्वारा असत्य (सत्य को छिपाने वाला) संकेत करना / 2. भाषा-अनजुकता-मृषा-वचन के द्वारा अयथार्थ वस्तु का प्रतिपादन करना / 3. भाव-अनजकता-मषा-मन में कुटिलता रख कर असत्य कहने का भाव रखना। 4. विसंवादना-योग-मृषा-विसंवाद-युक्त, दूसरों को धोखा देने वाली मन, वचन, काय की प्रवृत्ति रखना (103) / प्रणिधान-सूत्र १०४---चउबिहे पणिधाणे पण्णत्ते, तं जहा-मणपणिधाणे, वइपणिधाणे, कायपणिधाणे, उवकरणपणिधाणे / एवं–णेरइयाणं पंचिदियाणं जाव वेमाणियाणं / प्रणिधान (मन आदि का प्रयोग) चार प्रकार का कहा गया है / जैसे१. मनः-प्रणिधान 2. वाक्-प्रणिधान, 3. काय-प्रणिधान, 4. उपकरण-प्रणिधान (लौकिक तथा लोकोत्तर वस्त्र-पात्र आदि उपकरणों का प्रयोग) ये चारों प्रणिधान नारकों से लेकर वैमानिक तक के सभी पंचेन्द्रिय दण्डकों में कहे गये हैं (104) / १०५–चउविहे सुप्पणिहाणे पण्णत्ते, त जहा–मणसुप्पणिहाणे, जाव [वइसुप्पणिहाणे, कायसुप्पणिहाणे], उवगरणसुप्पणिहाणे / एवं संजयमणुस्साणवि / सुप्रणिधान (मन आदि का शुभ प्रवर्तन) चार प्रकार का कहा गया है / जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org