________________ [226 चतुर्थ स्थान-प्रथम उद्देश ] चार कारणों से मान की उत्पत्ति होती है / जैसे१. क्षेत्र के कारण, 2. वास्तु के कारण, 3. शरीर के कारण, 4. उपधि के कारण / नारकों से लेकर वैमानिक तक के सभी दण्डकों में उक्त चार कारणों से मान की उत्पत्ति होती है। ८२-चहि ठाणेहि मायुष्पत्ती सिता, तं जहा-खेत्तं पडुच्चा, वत्थं पडुच्चा, सरोरं पडुच्चा, उहिं पडुच्चा / एवं–णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं / चार कारणों से माया की उत्पत्ति होती है / जैसे१. क्षेत्र के कारण, 2. वास्तु के कारण 3. शरीर के कारण, 4. उपधि के कारण / नारकों से लेकर वैमानिक तक के सभी दण्डकों में उक्त चार कारणों से माया की उत्पत्ति होती है। ८३-वहिं ठाह लोभुप्पत्ती सिता, तं जहा–खेतं पडुच्चा, वत्थु पडुच्चा, सरीरं पडुच्चा, उवहिं पडुच्चा / एवं गैरइयाणं जाव वेमाणियाणं] / चार कारणों से लोभ की उत्पत्ति होती है / जैसे१. क्षेत्र के कारण, 2. वास्तु के कारण, 3. शरीर के कारण, 4. उपधि के कारण। नारकों से लेकर वैमानिक तक के सभी दण्डकों में उक्त चार कारणों से लोभ की उत्पत्ति होती है। ८४–चउम्विधे कोहे पण्णत्ते, तं जहा–प्रणताणबंधी कोहे, अपच्चक्खाणकसाए कोहे, पच्चक्खाणावरणे कोहे, संजलणे कोहे / एवं-रइयाणं जाव वेमाणियाणं / क्रोध चार प्रकार का कहा गया है / जैसे१. अनन्तानुबन्धी क्रोध-संसार की अनन्त परम्परा का अनुबन्ध करने वाला। 2. अप्रत्याख्यानकषाय क्रोध-देश विरति का अवरोध करने वाला। 3. प्रत्याख्यानावरण क्रोध-सर्वविरति का अवरोध करने वाला। 4. संज्वलन क्रोध-यथाख्यात चारित्र का अवरोध करने वाला। यह चारों प्रकार का क्रोध नारकों से लेकर वैमानिक तक के सभी दण्डकों में पाया जाता है / ८५-[चउन्विधे माणे पण्णत्ते, तं जहा–अणंताणुबंधी माणे, अपच्चक्खाणकसाए माणे, पच्चक्खाणावरणे माणे, संजलणे माणे / एवं–णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं / / मान चार प्रकार का कहा गया है / जैसे१. अनन्तानुबन्धी मान, 2. अप्रत्याख्यानकषाय मान, 3. प्रत्याख्यानावरण मान, 4. संज्वलन मान / यह चारों प्रकार का मान नारकों से लेकर वैमानिक तक के सभी दण्डकों में पाया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org