________________ 222] [ स्थानाङ्गसूत्र ध्यान-सूत्र ६०--चत्तारि झाणा पण्णत्ता, तं जहा-अट्ट झाणे, रोद्दे झाणे, धम्मे झाणे, सुक्के झाणे / ध्यान चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे१. आत ध्यान-किसी भी प्रकार के दुःख पाने पर शोक तथा चिन्तामय मन की एकाग्रता। 2. रौद्रध्यान-हिंसादि पापमयी ऋ र मानसिक परिणति की एकाग्रता / 3. धर्म्यध्यान-श्रु तधर्म और चारित्रधर्म के चिन्तन की एकाग्रता / 4. शुक्लध्यान--कर्मक्षय के कारणभूत शुद्धोपयोग में लीन रहना (60) / ६१----अट्टझरणे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा ---- 1. श्रमणुण्ण-संपयोग-संपउत्ते, तस्स विप्पओग-सति-समण्णागते यावि भवति / 2. मणुण्ण-संपयोग-संपउत्ते, तस्स अविप्पप्रोग-सति-समण्णागते यावि भवति / 3. आतंक-संपयोग-संपउत्ते, तस्स विघ्पओग-सति-समण्णागते यावि भवति / 4. परिजुसित-काम-भोग-संपयोग संपउत्ते, तस्स अविष्योग-सति-समण्णागते यावि भवति / प्रात ध्यान चार प्रकार का कहा गया है, जैसे - 1. अमनोज्ञ (अप्रिय) वस्तु का संयोग होने पर उसके दूर करने का वार-बार चिन्तन करना। 2. मनोज्ञ (प्रिय) वस्तु का संयोग होने पर उसका वियोग न हो, ऐसा वार-वार चिन्तन करना। 3. अातंक (घातक रोग) होने पर उसके दूर करने का वार-वार चिन्तन करना / 4. प्रीति-कारक काम-भोग का संयोग होने पर उसका वियोग न हो, ऐसा वार-बार चिंतन करना (61) / ६२–अदृस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तं जहा—कंदणता, सोयणता, तिप्पणता परिदेवणता। आत ध्यान के चार लक्षण कहे गये हैं, जैसे१. क्रन्दनता--उच्च स्वर से बोलते हुए रोना। 2. शोचनता-दीनता प्रकट करते हुए शोक करना / 3. तेपनता-आंसू बहाना। 4. परिदेवनता- करुणा-जनक विलाप करना (62) / विवेचन–अमनोज्ञ, अप्रिय और अनिष्ट ये तीनों एकार्थक शब्द हैं। इसी प्रकार मनोज्ञ, प्रिय और इष्ट ये तीनों एकार्थवाची है। अनिष्ट वस्तु का संयोग या इष्ट का वियोग होने पर मनुष्य जो दुःख, शोक, सन्ताप, याक्रन्दन और परिदेवन करता है, वह सब आत ध्यान है। रोग को दूर करने के लिए चिन्तातुर रहना और प्राप्त भोग नष्ट न हो जावें, इसके लिए चिन्तित रहना भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org