________________ 220 ] [ स्थानाङ्गसूत्र 2. छल्ली-खाद-समान-अलेप आहार-भोजी साधु / 3. काष्ठ-खाद-समान-दूध, दही, धृतादि से रहित (विगयरहित) आहार-भोजी साधु / 4. सार-खाद-समान–दूध, दही, घृतादि से परिपूर्ण आहार-भोजी साधु / 1. त्वक्-खान-समान भिक्षाक का तप सार-खाद-घुण के समान कहा गया है। 2. सार-खाद-समान भिक्षाक का तप त्वक्-खाद-धुण के समान कहा गया है / 3. छल्ली-खाद-समान भिक्षाक का तप काष्ठ-खाद घुण के समान कहा गया है। 4. काष्ठ खाद-समान भिक्षाक का तप छल्ली-खाद घुण के समान कहा गया है। विवेचन-जिस घुण कीट के मुख की भेदन-शक्ति जितनी अल्प या अधिक होती है, उसी के अनुसार वह त्वचा, छाल, काठ या सार को खाता है / जो भिक्षु प्रान्तवर्ती (बचा-खुचा) स्वल्प रूखासुखा पाहार करता है, उसके कर्म-अप करने के समान सबसे अधिक होती है। जो भिक्षु दूध, दही आदि विकृतियों से परिपूर्ण आहार करता है, उसके कर्मक्षपण (तप) की शक्ति त्वचा को खाने वाले घुण के समान अत्यल्प होती है। जो भिक्षु विकृति-रहित पाहार करता है, उसकी कर्म-क्षपण-शक्ति काठ को खाने वाले घुण के समान अधिक होती है। जो भिक्षु दूध, दही आदि विकृतियों को नहीं खाता है, उसकी कर्म-क्षपण-शक्ति छाल को खाने वाले घुण के समान अल्प होती है। उक्त चारों में त्वक्-खाद-समान भिक्षु सर्वश्रेष्ठ उत्तम है। छल्ली-खादसमान भिक्षु मध्यम है। काष्ठ-खाद-समान भिक्षु जघन्य है और सार-खाद-समान भिक्षु जघन्यतर श्रेणी का है। श्रेणी के समान ही उनके तप में भी तारतम्य-हीनाधिकता जाननी चाहिए। पहले का तप प्रधानतर, दूसरे का अप्रधानतर, तीसरे का प्रधान और चौथे का अप्रधान तप है, ऐसा टीकाकार का कथन है। तणवनस्पति-सूत्र ५७–चउब्धिहा तणवणस्सतिकाइया पण्णत्ता, तं जहा–अग्गबीया, मूलबीया, पोरबीया, खंधबीया। तृणवनस्पतिकायिक जीव चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे१. अग्रबीज-जिस वनस्पति का अग्रभाग बीज हो जैसे-कोरण्ट आदि / 2. मूलबीज-जिस वनस्पति का मूल बीज हो। जैसे-कमल, जमीकन्द आदि / 3. पर्वबीज-जिस बनस्पति का पर्व बीज हो / जैसे----ईख-गन्ना आदि / 4. स्कन्धबीज -जिस वनस्पति का स्कन्ध बीज हो / जैसे---सल्लकी वृक्ष प्रादि (57) / अधुनोपपन्न नैरयिक-सूत्र ५८-चहि ठाणेहि अहुणोववण्णे णेरइए णिरयलोगंसि इच्छेज्जा माणुसं लोग हव्वमागच्छित्तए, णो चेव णं संचाएति हव्वमागच्छित्तए--- 1. अहुणोववण्णे णेरइए णिरयलोगंसि समुन्भूयं वेधणं वेयमाणे इच्छेज्जा माणुसं लोग हन्वमागच्छित्तए, णो चेव णं संचाएति हव्वमागच्छित्तए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org