________________ 226] [ स्थानाङ्गसूत्र अन्तराय कर्म की सर्व प्रकृतियों को भस्म कर अनन्त ज्ञान, दर्शन और बल-वीर्य का धारक सयोगी जिन बन कर तेरहवें गुणस्थान में प्रवेश करता है। 3. तीसरे शुक्लध्यान का नाम सूक्ष्मक्रिय-अनिवृत्ति है। तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोगी जिन का आयुष्क जब अन्तर्मुहूर्त प्रमाणमात्र शेष रहता है और उसी की बराबर स्थितिवाले वेदनीय, नाम और गोत्रकर्म रह जाते हैं, तब वे सयोगी जिन-बादर तथा सूक्ष्म सर्व मनोयोग और वचनयोग का निरोध कर सूक्ष्म काययोग का आलम्बन लेकर सूक्ष्मक्रिय अनिवृत्ति ध्यान ध्याते हैं / इस समय श्वासोच्छ्वास जैसी सूक्ष्म क्रिया शेष रहती है और इस अवस्था से निवृत्ति या वापिस लौटना नहीं होता है, अतः इसे सूक्ष्मक्रिय-अनिवृत्ति कहते हैं / 4. चौथे शुक्लध्यान का नाम समुच्छिन्नक्रिय-अप्रतिपाती है। यह शुक्लध्यान सूक्ष्म काययोग का निरोध होने पर चौदहवें गुणस्थान में होता है और योगों की प्रवृत्ति का सर्वथा अभाव हो जाने से आत्मा अयोगी जिन हो जाता है। इस चौथे शुक्लध्यान के द्वारा वे अयोगी जिन अघातिया कर्मों की शेष रही 85 प्रकृतियों की प्रतिक्षरण असंख्यात गुणितक्रम से निर्जरा करते हुए अन्तिम क्षण में कर्म-लेप से सर्वथा विमुक्त होकर सिद्ध परमात्मा बन कर सिद्धालय में जा विराजते हैं। अत: इस शुक्लध्यान से योग-क्रिया समुच्छिन्न (सर्वथा विनष्ट) हो जाती है और उससे नीचे पतन नहीं होता, अतः इसका समुच्छिन्नक्रिय अप्रतिपाती यह सार्थक नाम है। ७०-सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, त जहा-अब्बहे, असम्मोहे, विवेगे, विउस्सगे। शुक्लध्यान के चार लक्षण कहे गये हैं। जैसे-- 1. अव्यथ–व्यथा से परिषह या उपसर्गादि से पीड़ित होने पर भी क्षोभित नहीं होना। 2. असम्मोह-देवादिकृत माया से मोहित नहीं होना / 3. विवेक सभी संयोगों को प्रात्मा से भिन्न मानना। 4. व्युत्सर्ग-शरीर और उपधि से ममत्व का त्याग कर पूर्ण निःसंग होना। ७१-सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि श्रालंबणा पण्णता, त जहा-खंती, मुत्ती, प्रज्जवे, मद्दवे। शुक्लध्यान के चार आलम्बन कहे गये हैं / जैसे१. क्षान्ति (क्षमा) 2. मुक्ति (निर्लोभता) 3. आर्जव (सरलता) 4. मार्दव (मृदुता)। ७२–सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाम्रो पण्णत्तानो, त जहा–अणंतवत्तियाणुप्पेहा, विष्परिणामाणुप्पेहा, असुभाणुप्पेहा, अवायाणुप्पेहा। शुक्लध्यान की चार अनुप्र क्षाएं कही गई हैं / जैसे--- 1. अनन्तवृत्तितानुक्षा-संसार में परिभ्रमण की अनन्तता का विचार करना / 2. विपरिणामानुप्रेक्षा-वस्तुओं के विविध परिणमनों का विचार करना / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org