________________ 152] [ स्थानाङ्गसूत्र विवेचन-भगवान् महावीर के श्रमण-संघ में प्राचार्य, उपाध्याय और गणी ये तीन महत्त्वपूर्ण पद माने गये हैं। जो ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार तपाचार और वीर्याचार इन पांच प्रकार के आचारों का स्वयं आचरण करते हैं, तथा अपने अधीनस्थ साधुओं से इनका आचरण कराते हैं, जो प्रागम-सूत्रार्थ के वेत्ता और गच्छ के मेढीभूत होते हैं तथा दीक्षा-शिक्षा देने का जिन्हें अधिकार होता है, उन्हें आचार्य कहते हैं / जो आगम-सूत्र की शिष्यों को वाचना प्रदान करते हैं, उनका अर्थ पढ़ाते हैं, ऐसे विद्यागुरु साधु को उपाध्याय कहते हैं / गण-नायक को गणी कहते हैं। प्राचीन परम्परा के अनुसार ये तीनों पद या तो प्राचार्यों के द्वारा दिये जाते थे, अथवा स्थविरों के अनुमोदन (अधिकारप्रदान) से प्राप्त होते थे। यह अनुमोदन सामान्य और विशिष्ट दोनों प्रकार का होता था। सामान्य अनुमोदन को 'अनुज्ञा' और विशिष्ट अनुमोदन को समनुज्ञा कहते हैं / उक्त पद प्राप्त करने वाला व्यक्ति यदि उस पद के योग्य सम्पूर्ण गुणों से युक्त हो तो उसे दिये जाने वाले अधिकार को 'समनुज्ञा' कहा जाता है और यदि वह समन गुणों से युक्त नहीं है, तब उसे दिये जाने वाले अधिकार को 'अनुज्ञा' कहा जाता है / किसी साधु के ज्ञान-दर्शन-चारित्र की विशेष प्राप्ति के लिए अपने गण के आचार्य, उपाध्याय, या गणी छोड़कर दूसरे गण के प्राचार्य, उपाध्याय या गणी के पास जाकर उसका शिष्यत्व स्वीकार करने को 'उपसम्पदा' कहते हैं। किसी प्रयोजन-विशेष के उपस्थित होने पर प्राचार्य, उपाध्याय या गणो के अपने पद के त्याग करने को 'विहान' कहते हैं / (देखो ठाणं, पृ. 275) / वचन-सूत्र ३५५---तिविहे वयणे पण्णते, तं जहा-तन्वयणे, तदण्णवयणे, णोअवयणे। ३५६---तिविहे अवयणे पण्णत्ते, तं जहा—णोतव्वयणे, णोतदण्णवयणे, अवयणे / / वचन तीन प्रकार का कहा गया है१. तद्वचन--विवक्षित वस्तु का कथन अथवा यथार्थ नाम, जैसे ज्वलन (अग्नि)। 2. तदन्यवचन--विवक्षित वस्तु से भिन्न वस्तु का कथन अथवा व्युत्पत्तिनिमित्त से भिन्न अर्थ वाला रूढ शब्द।। 3. नो-प्रवचन-सार-हीन वचन-व्यापार (355) / अवचन तीन प्रकार का कहा गया है१. नो-तद्वचन-विवक्षित वस्तु का अकथन, जैसे घट की अपेक्षा से पट कहना / 2. नो-तदन्यवचन-विवक्षित वस्तु का कथन जैसे घट को घट कहना। 3. अवचन-वचन-निवृत्ति (356) / मन:-सूत्र ३५७-तिविहे मणे पण्णत्ते, तं जहा-तम्मणे, तयण्णमणे, णोप्रमणे / ३५८–तिविहे श्रमणे पण्णत्ते, तं जहा---णोतम्मणे, णोतयण्णमणे, प्रमणे। मन तीन प्रकार का कहा गया है-- 1. तन्मन--लक्ष्य में लगा हुआ मन / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org