________________ तृतीय स्थान----चतुर्थ उद्देश] [186 1. एकाकीविहार प्रतिमा-स्वीकार करने पर / 2. जिनकल्प-प्रतिमा स्वीकार करने पर / 3. मासिक आदि भिश्र -प्रतिमाएं स्वीकार करने पर / एकाकीविहार-प्रतिमा वाले के लिए 1. श्रद्धावान, 2. सत्यवादी, 3. मेधावी, 4. बहुश्रु त, 5. शक्तिमान 6. अल्पाधिकरण, 7. धृतिमान और 8. वीर्यसम्पन्न होना आवश्यक है। इन आठों गुणों का विवेचन पाठवें स्थान के प्रथम सूत्र की व्याख्या में किया जावेगा। पुद्गल-प्रतिघात-सूत्र ४६८–तिविहे पोग्गलपडियाते पण्णत्ते, त जहा–परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गलं पप्प पडिहणिज्जा, लुक्खत्ताए वा पडिहणिज्जा, लोगते वा पडिहणिज्जा। तीन कारणों से पुद्गलों का प्रतिघात (गति-स्खलन) कहा गया है१. एक पुद्गल-परमाणु दूसरे पुद्गल-परमाणु से टकरा कर प्रतिघात को प्राप्त होता है। 2. अथवा रूक्षरूप से परिणत होकर प्रतिघात को प्राप्त होता है। 3. अथवा लोकान्त में जाकर प्रतिघात को प्राप्त होता है क्योंकि आगे गतिसहायक धर्मास्तिकाय का अभाव है (568) / चक्षः-सूत्र ४६६-तिविहे चक्खू पण्णते, त जहा—एगचक्खू, बिचक्ख, तिचक्छु / छउमत्थे णं मणुस्से एगचक्खू, देवे बिचक्खू, तहारूवे सभणे वा माहणे वा उप्पणणाणदसणधरे तिचक्खुत्ति वत्तन्वं सिया। चक्षुष्मान् (नेत्रवाले) तीन प्रकार के कहे गये हैं—एकचक्ष , द्विचा और त्रिचक्ष / 1. छद्मस्थ (अल्पज्ञानी बारहवें गुणस्थान तक का) मनुष्य एक चक्षु होता है। 2. देव द्विचक्ष होता है, क्योंकि उसके द्रव्य नेत्र के साथ अवधिज्ञान रूप दूसरा भी नेत्र होता है। 3. द्रव्यनेत्र के साथ केवलज्ञान और केवलदर्शन का धारक श्रमण-माहन त्रिचक्ष कहा गया है (466) / अभिसमागम सूत्र ५००—तिविधे अभिसमागमे पण्णते, त जहा-उड, अहं, तिरियं / जया णं तहारुवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अतिसेसे णाणदंसणे समुप्पज्जति, से णं तप्पढमताए उड्डमभिसमेति, ततो तिरियं, ततो पच्छा अहे। अहोलोगे गं दुरभिगमे पण्णत्ते समणाउसो! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org