________________ तृतीय स्थान-चतुर्थ उद्देश ] [ 187 साधुओं के समुदाय को संघ कहते हैं / कुल, गण या संघ का अवर्णवाद करने वाला, उन्हें स्नानादि न करने से म्लेच्छ, या अस्पृश्य कहने वाला व्यक्ति समूह की अपेक्षा प्रत्यनीक कहा जाता है / मासोपवास आदि प्रखर तपस्या करने वाले को तपस्वी कहते हैं। रोगादि से पीड़ित साधु को ग्लान कहते हैं और नव-दीक्षित साधु को शैक्ष कहते हैं। ये तीनों ही अनुकम्पा के पात्र कहे गये हैं। उनके ऊपर जो न स्वयं अनुकम्पा करता है, न दूसरों को उनकी सेवा-सुश्र षा करने देता है, प्रत्युत उनके प्रतिकूल प्राचरण करता है, उसे अनुकम्पा की अपेक्षा प्रत्यनीक कहा जाता है। ज्ञान-दर्शन-चारित्रात्मक भाव, कर्म-मुक्ति एवं आत्मिक सुख-शान्ति के कारण हैं, उन्हें व्यर्थ कहने वाला और उनकी विपरीत प्ररूपणा करने वाला व्यक्ति भाव-प्रत्यनीक कहलाता है / श्रुत (शास्त्राभ्यास) के तीन अंग हैं-मूल सूत्र, उसका अर्थ तथा दोनों का समन्वित अभ्यास / इन तीनों के प्रतिकूल थ त की अवज्ञा करने वाले और विपरीत अभ्यास करने वाले व्यक्ति को श्रुतप्रत्यनीक कहते हैं। अंग-सूत्र ४६४-तो पितियंगा पण्णत्ता, त जहा-अट्ठी, प्रद्धिमिजा, केसमंसुरोमणहे। तीन पितृ-अंग (पिता के वीर्य से बनने वाले) कहे गये हैं—अस्थि, मज्जा और केश-दाढ़ीमूंछ, रोम एवं नख (464) / ४६५-तम्रो माउयंगा पण्णत्ता, त जहा--मसे, सोणिते, मलिगे। तीन मातृ-अंग (माता के रज से बनने वाले अंग) कहे गये हैं-मांस, शोणित (रक्त) और मस्तुलिंग (मस्तिष्क) (465) / मनोरथ-सूत्र ४६६–तिहि ठाणेहि समणे णिग्गथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवति, त जहा१. कया णं अहं अप्पं वा बहुयं वा सुयं अहिज्जिस्सामि ? 2. कया णं अहं एकल्लविहारपडिमं उवसंपज्जित्ता गं विहरिस्सामि ? 3. कया णं अहं अपच्छिममारणंतियसलेहणा-झूसणा-झूसिते भत्तपाणपडियाइक्खिते पाओवगते कालं अणवकखमाणे विहरिस्सामि ? ___एवं समणसा सवयसा सकायसा पागडेमाणे समणे निग्गथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवति / तीन कारणों से श्रमण निर्ग्रन्थ महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला होता है१. कब मैं अल्प या बहुत थ त का अध्ययन करूगा ? 2. कब मैं एकल विहार प्रतिमा को स्वीकार कर विहार करूगा? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org