________________ तृतीय स्थान--चतुर्थ उद्देश ] [ 163 लेश्या-सूत्र ५१५---तम्रो लेसानो दुग्भिगंधानो पण्णत्तानो, त जहा–कण्हलेसा, णोललेसा, काउलेसा / ५१६---तम्रो लेसाप्रो सुम्मिगंधाम्रो पण्णताओ, त जहा तेउलेसा, पम्हलेसा, सुक्कलेसा / 517--- [तो लेसाप्रो-दोग्गतिगामिणोप्रो, संकिलिद्वानो, अमणुण्णाम्रो, अविसुद्धाओ, अप्पसत्थाप्रो, सोतलुक्खायो पण्णत्तामो, त जहा–कण्हलेसा, णोललेसा, काउलेसा। ५१८-तओ लेसानो-सोगतिगामिणीयो, असंकिलिट्ठामो मणुण्णाम्रो, विसुद्धामो, पसत्थाओ, णिद्धण्हानो पण्णत्तापो, त जहात उलेसा, पम्हलेसा, सुक्कलेसा।] ___ तीन लेश्याएँ दुरभि गंध (दुर्गन्ध) वाली कही गई हैं—कृष्णालेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या (515) / तीन लेश्यायें सुरभिगंध (सुगन्ध) वाली कही गई हैं—तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या (516) / (तीन लेश्यायें दुर्गतिगामिनी, संक्लिष्ट, अमनोज्ञ, अविशुद्ध, अप्रशस्त और शीतरूक्ष कही गई हैं-कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या (517) / तीन लेश्याएँ सुगतिगमिनी असंक्किष्ट, मनोज्ञ, विशुद्ध, प्रशस्त और स्निग्ध-उष्ण कही गई हैं- तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या (518) ) मरण-सूत्र ५१६-तिविहे मरणे पण्णते, तजहा-बालमरणे, पंडियमरणे, बालपंडियमरणे / 520--- बालमरणे तिविहे पण्णत्ते, त जहा-ठितलेस्से, संकिलिट्ठलेस्से, पज्जवजातलेस्से / ५२१--पंडियमरणे तिविहे पण्णते, त जहा--ठितलेस्से, असंकिलिट्रलेस्से पज्जवजातलेस्से / ५२२-बालडियमरणे तिविहे पण्णत्ते, त जहा—ठितलेस्से, असंकिलिट्टलेस्से, अपज्जवजातलेस्से। मरण तीन प्रकार का कहा गया है-बाल-मरण ( असंयमी का मरण ) पंडित-मरण (संयमी का मरण) और बाल-पंडित मरण (संयमासंयमो-श्रावक का मरण) (516) / बाल-मरण तीन प्रकार का कहा गया है--स्थितलेश्य (स्थिर संक्लिष्ट लेश्या वाला) संक्लिष्टलेश्य (संक्लेशवृद्धि से युक्त लेश्या बाला) और पर्यवजातलेश्य (विशुद्धि की वृद्धि से युक्त लेश्या वाला) (520) / पंडित-मरण तीन प्रकार का कहा गया है—स्थितलेश्य (स्थिर विशुद्ध लेश्या वाला) असंक्लिष्टलेश्य (संक्लेश से रहित लेश्या वाला) और पर्यवजात लेश्य-(प्रवर्धनमान विशुद्ध लेश्या वाला) (521) / बाल-पंडित-मरण तीन प्रकार का कहा गया है-स्थितलेश्य, असंक्लिष्टलेश्य, और अपर्यवजातलेश्य (हानि वृद्धि से रहित लेश्या वाला) (522) / विवेचन–मरण के तीन भेदों में पहला बालमरण है। वाल का अर्थ है अज्ञानी, असंयत या मिथ्यादृष्टि जीव / उसके मरण को बाल-मरण कहते हैं। उसके तीन प्रकारों में पहला भेद स्थितलेश्य है / जब जीव की लेश्या न विशुद्धि को प्राप्त हो और न संक्लेश को प्राप्त हो रही हो, ऐसी स्थितलेश्या वाली दशा को स्थितलेश्य कहते हैं। यह स्थितलेश्य मरण तब संभव है, जब कि कृष्णादि लेश्या वाला जीव कृष्णादि लेश्या वाले नरक में उत्पन्न होता है। बाल-मरण का दूसरा भेद संक्लिष्टलेश्य मरण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org