________________ तृतीय स्थान-चतुर्थ उद्देश] _ [ 161 ५०४-गणिड्ढी तिविहा पण्णता, त जहा-णाणिड्ढी, दंसणिड्ढी, चरित्तिड्ढी। अहवा-गणिड्ढी तिविहा पण्णत्ता, त जहा--सचित्ता, अचित्ता, मीसिता। गणि-ऋद्धि तीन प्रकार की कही है--- 1. ज्ञान-ऋद्धि--विशिष्ट श्रुत-सम्पदा की प्राप्ति / 2. दर्शन ऋद्धि-प्रवचन में निःशंकितादि, एवं प्रभावक प्रवचनशक्ति प्रादि / 3. चारित्र-ऋद्धि--निरतिचार चारित्र प्रतिपालना आदि / अथवा गणि-ऋद्धि तीन प्रकार की कही गई है--- 1. सचित्त-ऋद्धि-शिष्य-परिवार आदि / 2. अचित्त-ऋद्धि-वस्त्र, पात्र, शास्त्र-संग्रहादि / 3. मिश्र-ऋद्धि-वस्त्र-पात्रादि से युक्त शिष्य-परिवारादि (504) / मौरव-सूत्र ५०५-तओ गारवा पण्णता, तजहा-इड्ढीगारवे, रसगारवे, सातागारवे / गौरव तीन प्रकार के कहे गये हैं१. ऋद्धि-गौरव-राजादि के द्वारा पूज्यता का अभिमान / 2. रस-गौरव-दूध, घृत, मिष्ट रसादि की प्राप्ति का अभिमान / 3. साता-गौरव-सुखशीलता, सुकुमारता संबंधी गौरव (505) / करण-सूत्र ५०६-तिविहे करणे पण्णते, त जहा-धम्मिए करणे, अधम्मिए करणे, धम्मियाधम्मिए करणे। करण तीन प्रकार का कहा गया है१. धार्मिककरण-संयमधर्म के अनुकूल अनुष्ठान / 2. अधार्मिक-करण--संयमधर्म के प्रतिकूल प्राचरण / 3. धार्मिकाधार्मिक-करण-कुछ धर्माचरण और कुछ अधर्माचरणरूप प्रवृत्ति (506) / स्वाख्यातधर्म-सूत्र ५०७--तिविहे भगवता धम्म, पण्णत्ते, त जहा-सुअधिज्झिते, सुज्झाइते, सुतवस्सिते / जया सुप्रधिज्झित भवति तदा सुज्झाइत भवति, जया सुज्झाइत भवति तदा सुतवस्सित भवति, से सुप्रधिज्झिते सुज्झिाइत सुतवस्सित सुयक्खाते णं भगवता धम्मे पण्णत्ते / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org