________________ 186] [ स्थानाङ्गसूत्र ४८६-गति पडच्च तम्रो पडिणीया पण्णत्ता, त जहा- इहलोगपडिणीए, परलोगपडिणीए, दुहोलोगपडिणीए। गति की अपेक्षा से तीन प्रत्यनीक कहे गये हैं--इहलोक-प्रत्यनीक (इन्द्रियार्थ से विरुद्ध करने वाला, यथा-पंचाग्नि तपस्वी) परलोक-प्रत्यनीक (इन्द्रियविषयों में तल्लीन) और उभय-लोक-प्रत्यनीक (चोरी आदि करके इन्द्रिय-विषयों में तल्लीन) (486) / ४६०-समूहं पडुच्च तम्रो पडिणीया पण्णत्ता, त जहा–कुलपडिणीए, गणपडिणीए, संघपडिणीए। समूह की अपेक्षा से तीन प्रत्यनीक कहे गये हैं---कुल-प्रत्यनीक, गरण-प्रत्यनीक और संघप्रत्यनीक (460) / ४६१----अणुकंपं पडुच्च तो पडिणीया पण्णत्ता, त जहा-तवस्सिपडिणीए, गिलाणपडिणीए, सेहपडिणोए। अनुकम्पा की अपेक्षा से तीन प्रत्यनीक कहे गये हैं-तपस्वी-त्प्रयनीक, ग्लान-प्रत्यनीक और शैक्ष-प्रत्यनीक (461) / ____४६२-भावं पडुच्च तनो पडिणीया पण्णत्ता, त जहा–णाणपडिणीए, दंसणपडिणीए, चरित्तपडिणोए। भावकी अपेक्षा से तीन प्रत्यनीक कहे गये हैं-ज्ञान-प्रत्यनीक, दर्शन-प्रत्यनीक और चारित्रप्रत्यनीक (462) / __४६३-सुयं पडुच्च तो पडिणीया पण्णत्ता, तजहा-सुत्तपडिणीए, अस्थपडिणीए, तदुभय. पडिणीए। श्रत की अपेक्षा से तीन प्रत्यनीक कहे गये हैं-सूत्र-प्रत्यनीक, अर्थ-प्रत्यनीक और तदुभयप्रत्यनीक (463) / विवेचन–प्रत्यनीक शब्द का अर्थ प्रतिकूल आचरण करने वाला व्यक्ति है। प्राचार्य और उपाध्याय दीक्षा और शिक्षा देने के कारण गुरु हैं, तथा स्थविर वयोवृद्ध, तपोवृद्ध एवं ज्ञान-गरिमा की अपेक्षा गुरु तुल्य हैं / जो इन तीनों के प्रतिकूल प्राचरण करता है, उनकी यथोचित विनय नहीं करता, उनका अवर्णवाद करता और उनका छिद्रान्वेषण करता है वह गुरु-प्रत्यनीक कहलाता है। जो इस लोक सम्बन्धी प्रचलित व्यवहार के प्रतिकूल प्राचरण करता है वह इह-लोक प्रत्यनीक है। जो परलोक के योग्य सदाचरण न करके कदाचरण करता है, इन्द्रियों के विषयों में आसक्त रहता और परलोक का निषेध करता है वह परलोक-प्रत्यनीक कहलाता है। दोनों लोकों के प्रतिकूल प्राचरण करने वाला व्यक्ति उभयलोक-प्रत्यनीक कहा जाता है। साध के लघु-समुदाय को कुल कहते हैं, अथवा एक प्राचार्य की शिष्य-परम्परा को कुल कहते हैं / परस्पर-सापेक्ष तीन कुलों के समुदाय को गण कहते हैं। तथा संयम की साधना करने वाले सभी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org