________________ तृतीय स्थान चतुर्थ उद्देश प्रतिमा-सूत्र ४१६-पडिमापडिवण्णस्स णं अणगारस्स कप्पंति तनो उवस्सया पडिलेहित्तए, त जहाअहे आगमणगिहंसि वा, अहे वियडगिहंसि वा, अहे रुक्खमूलगिहंसि वा। प्रतिमा-प्रतिपन्न (मासिकी आदि प्रतिमाओं को स्वीकार करने वाले) अनगार को तीन प्रकार के उपाश्रयों (आवासों) का प्रतिलेखन (निवास के लिए देखना) करना कल्पता है / 1. आगमन-गृह-यात्रियों के आकर ठहरने का स्थान सभा, प्रपा (प्याऊ), धर्मशाला, सराय आदि। 2. विवृत-गृह-अनाच्छादित (ऊपर से खुला) या एक-दो अोर से खुला माला-रहित घर, वाड़ा आदि। 3. वृक्षमूल-गृह-वृक्ष का अधो भाग (416) / ४२०-[पडिमापडिवण्णस्स णं अणगारस्स करपंति तो उवस्सया अणुण्णवेत्तए, त जहाअहे आगमणगिहंसि वा, अहे वियडगिहंसि वा, अहे रुक्खमूलगिहंसि वा। [प्रतिमा-प्रतिपन्न अनगार को तीन प्रकार के उपाश्रयों की अनुज्ञा (उनके स्वामियों को आज्ञा या स्वीकृति लेना) लेनी चाहिए 1. आगमन-गह में ठहरने के लिए। 2. अथवा विवृत-गृह में ठहरने के लिए। 3. अथवा वृक्षमूल-गृह में ठहरने के लिए (420) / ४२१-पडिमापडिवण्णस्स णं अणगारस्स कप्पंति तो उवस्सया उवाइणित्तए, त जहाअहे प्रागमणगिहंसि वा, अहे वियडगिहंसि वा, अहे रुक्खमूलगिहंसि वा] / प्रतिमा-प्रतिपन्न अनगार को तीन प्रकार के उपाश्रयों में रहना कल्पता है१. प्रागमन-गृह में। 2. अथवा विवृत-गृह में। 3. अथवा वृक्षमूल-गृह में (421) / ] ४२२-पडिमापडिवण्णस्स णं अणगारस्स कप्पति तनो संथारगा पडिलेहित्तए, त जहापुढविसिला, कटुसिला, अहासंथडमेव / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org