________________ 174 ] [ स्थानाङ्गसूत्र आराधना (434) / ज्ञान-पाराधना तीन प्रकार की कही गई है.-उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य (435) / [दर्शन-आराधना तीन प्रकार की कही गई है-उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य (436) / चारित्र-आराधना तीन प्रकार की कही गई है—उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य (437) / ] विवेचन आराधना अर्थात् मुक्ति के कारणों की साधना / अकाल-श्रताध्ययन को छोड़कर स्वाध्याय काल में ज्ञानाराधन के आठों अंगों का अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगपूर्वक निरतिचार परिपालन करना उत्कृष्ट ज्ञानाराधना है। किसी दो-एक अंग के विना ज्ञानाभ्यास करना मध्यम ज्ञानाराधना है / सातिचार ज्ञानाभ्यास करना जघन्य ज्ञानाराधना है। सम्यक्त्व के निःशंकित आदि आठों अंगों के साथ निरतिचार सम्यग्दर्शन को धारण करना उत्कृष्ट दर्शनाराधना है। किसी दो-एक अंग के विना सम्यक्त्व को धारण करना मध्यम दर्शनाराधना है। सातिचार सम्यक्त्व को धारण करना जघन्य दर्शनाराधना है। पांच समिति और तीन गुप्ति आठों अंगों के साथ चारित्र का निरतिचार परिपालन करना उत्कृष्ट चारित्राराधना है। किसी एकादि अंग से हीन चारित्र का पालन करना मध्यम चारित्राराधना है और सातिचार चारित्र का पालन करना जघन्य चारित्राराधना है। संक्लेश-असंक्लेश सूत्र ४३८—तिविधे संकिलेसे पण्णत्ते, त जहा–णाणसंकिलेसे, दंसणसंकिलेसे, चरित्तसंकिलेसे / ४३६-[तिविधे असंकिलेसे पण्णत्ते, त जहाणाणप्रसंकिलेसे. दंसणसंकिलेसे, चरित्तप्रसंकिलेसे / संक्लेश तीन प्रकार का कहा गया है-ज्ञान-संक्लेश, दर्शन-संक्लेश और चारित्र-संक्लेश (438) / [असंक्लेश तीन प्रकार का कहा गया है-ज्ञान-असंक्लेश, दर्शन-असंक्लेश और चारित्रअसंक्लेश (436)] / विवेचन--कषायों की तीव्रता से उत्पन्न होने वाली मन की मलिनता को संक्लेश कहते हैं। तथा कषायों की मन्दता से होने वाली मन की विशुद्धि को असंक्लेश कहते हैं। ये दोनों ही ज्ञान, दर्शन और चारित्र में हो सकते हैं, अतः उनके तीन-तीन भेद कहे गये हैं। ज्ञान, दर्शन और चारित्र से प्रतिपतन रूप संक्लिश्यमान परिणाम ज्ञानादिका संक्लेश है और ज्ञानादि का विशुद्धिरूप विशुद्धयमान परिणाम ज्ञानादि का असंक्लेश है। अतिक्रमादि-सूत्र ४४०-तिविधे प्रतिक्कमे पण्णत्ते, त जहाणाणप्रतिक्कमे, दसणअतिक्कमे, चरित्तअतिक्कमे / 441- तिविधे वहक्कमे पण्णत्ते, तं जहा—णाणवइक्कमे, सणवइक्कमे. चरित्तवइक्कमे / ४४२–तिविधे अइयारे पण्णते, तं जहा–णाणअइयारे, दंसणअइयारे, चरित्तअइयारे / ४४३-तिविधे अणायारे पण्णत्ते तं जहा–णाणणायारे, दंसणअणायारे, चरित्तप्रणायारे] / [अतिक्रम तीन प्रकार का कहा गया है-ज्ञान-अतिक्रम, दर्शन-अतिक्रम और चारित्र-अतिक्रम (440) / व्यतिक्रम तीन प्रकार का कहा गया है-ज्ञान-व्यतिक्रम, दर्शन-व्यतिक्रम और चारित्रव्यतिक्रम (441) / अतिचार तीन प्रकार का कहा गया है—ज्ञान-अतिचार, दर्शन-अतिचार और चारित्र-अतिचार (442) / अनाचार तीन प्रकार का कहा गया है-ज्ञान-अनाचार, दर्शन-अनाचार और चारित्र-अनाचार (443) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org