________________ 182] / स्थानाङ्गसूत्र प्रवज्यादि-अयोग्य-सूत्र 474-- तो णो कप्पंति पवावेत्तए, तं जहा-पंडए, वातिए, कोवे / ___तीन को प्रवजित करना नहीं कल्पता है--नपुसक, वातिक' (तीव्र वात रोग से पीड़ित) और क्लीव (वीर्य-धारण में अशक्त) को (474) / ४७५-[तो णो कप्पति]---मुंडावित्तए, सिक्खावित्तए, उवट्ठावेत्तए, संभु जित्तए, संवासित्तए, तं जहा-पंडए, वातिए, कोवे / तीन को मुण्डित करना, शिक्षण देना,, महाव्रतों में आरोपित करना, उनके साथ संभोग करना (आहार आदि का संबंध रखना) और सहवास करना नहीं कल्पता है--नपुसक, वातिक और क्लीव को (475) / अवाचनीय-वाचनीय-सूत्र ४७६–तो अवायणिज्जा यण्णत्ता, तं जहा-प्रविणीए, विगतीपडिबद्ध, अविनोसवितपाहुडे। तीन वाचना देने के अयोग्य कहे गये हैं१. अविनीत–विनय-रहित, उद्दण्ड / 2. विकृति-प्रतिबद्ध-दूध, घी आदि रसों के सेवन में आसक्त / 3, अव्यवमितप्राभृत-कलह को शान्त नहीं करने वाला (476) / ४७७-तनो कप्पंति वाइत्तए, तं जहा-विणीए, अविगतीपडिबद्ध', विप्रोसवियपाहुडे / तीन को वाचना देना कल्पता है-विनीत, विकृति-अप्रतिबद्ध और व्यवशमितप्राभृत (477) / दुःसंज्ञाप्य-सुसंज्ञाप्य ४७८-तो दुसण्णप्पा पण्णत्ता, ते जहा-दु8, मूढे, बुग्गाहिते। तीन दुःसंज्ञाप्य (दुर्बोध्य) कहे गये हैं-दुष्ट, मूढ (विवेकशून्य) और व्युद्ग्राहित—कदाग्रही के द्वारा भड़काया हुअा (478) / ४७६-तमो सुसण्णप्पा पण्णत्ता, तं जहा-अदु?', अमूढे, अबुग्गाहिते / तीन सुसंज्ञाप्य (सुबोध्य) कहे गये हैं—अदुष्ट, अमूढ और अव्युद्ग्राहित (476) / माण्डलिक-पर्वत-सूत्र ४८०-तओ मंडलिया पव्वता पण्णता, तं जहा-माणुसुत्तरे, कुडलबरे, स्यगवरे / 1. किसी निमित्त से वेदोदय होने पर जो मैथुनसेवन किए विना न रह सकता हो, उसे यहां वातिक समझना चाहिए। 'बातित' के स्थान पर पाठान्तर है-'वाहिय' जिसक अर्थ है रोगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org