________________ तृतीय स्थान-तृतीय उद्देश ] [155 इन तीन कारणों से देवलोक में तत्काल उत्पन्न देव शीघ्र ही मनुष्यलोक में प्राना चाहता है, किन्तु पा नहीं पाता। ३६२--तिहि ठाणेहिं अहुणोववणे देवे देवलोगेसु इच्छेज्ज माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए, संचाएइ हन्धमागच्छित्तए 1. अहणोववण्णे देवे देवलोगेसु दिव्वेसु कामभोगेसू प्रमच्छिते अगिद्ध अगढिते अणझोववणे, तस्स णमेवं भवति-पत्थि णं मम माणुस्सए भवे प्रायरिएति वा उवज्झाएति वा पवत्तीति वा थेरेति वा गणीति वा गणधरेति वा गणावच्छेदेति वा, जैसि घमावेणं मए इमा एतारूवा दिवा देविड्डी दिव्वा देवजुती दिव्वे देवाणुमावे लद्ध पत्ते अभिसमण्णागते, तं गच्छामि णं ते भगवते वंदामि णमस्सामि सक्कारेमि सम्मामि कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामि। 2. अहणोववण्णे देवे देवलोगेसु दिवेसु कामभोगेसु प्रमुच्छिए [अगिद्ध प्रगढिते ] अणझोबवण्णे, तस्स णं एवं भवति–एस णं माणस्सए भवे जाणोति वा तवस्सोति वा अतिदकरटक्करकारगे. तं गच्छामि णं ते भगवते वंदामि णमंसामि [सक्कारेमि सम्मामि कल्लाण मंगल देवयं चेइयं] पज्जुवासामि। 3. अहुणोववण्णे देवे देवलोगेसु [दिव्वेसु कामभोगेसु प्रमुच्छिए अगिद्ध प्रगढिते] अणज्झोववण्णे, तस्स णमेवं भवति–अस्थि णं मम माणुम्सए भवे माताति वा [पियाति वा भायाति वा भगिणोति वा भज्जाति वा पुत्ताति वा धूयाति वा] सुहाति वा, तं गच्छामि णं तेसिमंतियं पाउन्भवामि, पासंतु ता मे इमं एतारूवं दिव्वं देविट्टि दिव्वं देवर्जुति दिव्वं देवाणुभावं लद्ध पत्तं अमिसमण्णागयं / ___ इच्चेतेहि तिहि ठाणेहिं पहुणोववण्णे देवे देवलोगेसु इच्छेज्ज माणुसं लोगं हवमागच्छित्तर, संचाएति हवमाच्छित्तए / तीन कारणों से देवलोक में तत्काल उत्पन्न देव शीघ्र ही मनुष्यलोक में पाना चाहता है. और आने में समर्थ भी होता है 1. देवलोक में तत्काल उत्पन्न, दिव्य काम-भोगों में अमूच्छित, अगद्ध, अबद्ध एवं अनासक्त देव सोचता है-मनुष्यलोक में मेरे मनुष्य भव के प्राचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी, गणधर और गणावच्छेदक हैं, जिनके प्रभाव से मुझे यह इस प्रकार की दिव्य देव-ऋद्धि, दिव्य देव-द्युति, और दिव्य देवानुभाव मिला है, प्राप्त हुआ है, अभिसमन्वागत (भोग्य-अवस्था को प्राप्त) हुया है। अतः मैं जाऊं और उन भगवन्तों को वन्दन करू, नमस्कार करू, उनका सत्कार करू', सन्मान करू / तथा उन कल्याणकर, मंगलमय, देव और चैत्य स्वरूप की पर्युपासना करू / 2. देवलोक में तत्काल उत्पन्न, दिव्य काम-भोगों में प्रमूच्छित (अगद्ध, अबद्ध) एवं अनासक्त देव सोचता है कि मनुष्य भव में अनेक ज्ञानी, तपस्वी और अतिदुष्कर तपस्या करने वाले हैं। अ मैं जाऊं और उन भगवन्तों को वन्दन करू, नमस्कार करू (उनका सत्कार करू सन्मान करू। तथा उन कल्याणकर, मंगलमय देवरूप तथा ज्ञानस्वरूप) भगवन्तों की पर्युपासना करू / 3. देवलोक में तत्काल उत्पन्न (दिव्य काम-भोगों में अमूच्छित, अगृद्ध, अबद्ध) एवं अना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org