________________ 164 ] [ स्थानाङ्गसूत्र प्रथम वर्गीकरण धर्म के आधार पर किया गया है / दूसरा वर्गीकरण ज्ञान के आधार पर किया गया है / यह वैशेषिक एवं सांख्यदर्शन-सम्मत तीन प्रमाणों की ओर संकेत करता हैसूत्रोक्त वर्गीकरण वैशेषिक एवं सांख्य-सम्मत प्रमाण 1. प्रत्यक्ष 1. प्रत्यक्ष 2. प्रात्ययिक-ग्रागम 2. अनुमान 3. आनुगामिक–अनुमान 3. आगम संस्कृत टीकाकार ने प्रत्यक्ष और प्रात्ययिक के दो-दो अर्थ किये हैं। प्रत्यक्ष के दो अर्थअवधि, मनःपर्याय और केवलज्ञान रूप मुख्य या पारमार्थिक प्रत्यक्ष और स्वयंदर्शन रूप स्वसंवेदन प्रत्यक्ष / प्रात्ययिक के दो अर्थ---१. इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाला ज्ञान (सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष) और 2. आप्तपुरुष के वचन से होने वाला ज्ञान (अागम ज्ञान)। तीसरा वर्गीकरण वर्तमान और भावी जीवन के आधार पर किया गया है। मनुष्य के कुछ व्यवसाय वर्तमान जीवन की दृष्टि से होते हैं, कुछ भावी जीवन की दृष्टि से और कुछ दोनों की दृष्टि से / ये क्रमशः ऐलौकिक, पारलौकिक और ऐहलौकिक-पारलौकिक व्यवसाय कहलाते हैं / चौथा वर्गीकरण विचार-धारा या शास्त्रों के आधार पर किया गया है। इसमें मुख्यतः तीन विचार-धाराएं वर्णित हैं-लौकिक, वैदिक और सामयिक / लौकिक विचार-धारा के प्रतिपादक होते हैं---अर्थशास्त्री, धर्मशास्त्री और कामशास्त्री। ये लोग अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र और कामशास्त्र के माध्यम से अर्थ, धर्म और काम के औचित्य एवं अनौचित्य का निर्णय करते हैं। सूत्रकार ने इसे लौकिक व्यवसाय माना है / इस विचार-धारा का किसी धर्म या दर्शन से सम्बन्ध नहीं होता / इसका सम्बन्ध लोकमत से होता है। ___ वैदिक विचारधारा के अाधारभूत ग्रन्थ तीन हैं—ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद / इस वर्गीकरण में व्यवसाय के निमित्तभूत ग्रन्थों को व्यवसाय ही कहा गया है। संस्कृत टीकाकार ने सामयिक व्यवसाय का अर्थ सांख्य श्रादि दर्शनों के समय या सिद्धान्त से होने वाला व्यवसाय किया है। प्राचीनकाल में सांख्यदर्शन श्रमण-परम्परा का ही एक अंग रहा है / उसी दृष्टि से टीकाकार ने यहां मुख्यता से सांख्य का उल्लेख किया है / सामयिक व्यवसाय के तीनों प्रकारों का दो नयों से अर्थ किया जा सकता है। एक नय के अनुसार 1. ज्ञान व्यवसाय-ज्ञान का निश्चय या ज्ञान के द्वारा होने वाला निश्चय / 2. दर्शन व्यवसाय-दर्शन का निश्चय या दर्शन के द्वारा होने वाला निश्चय / 3. चारित्र व्यवसाय-सदाचरण का निश्चय / दूसरे नय के अनुसार ज्ञान, दर्शन और चारित्र, ये श्रमण-परम्परा या जैनशासन के प्रधान व्यवसाय हैं और इनके समुदाय को ही रत्नत्रयात्मक धर्म-व्यवसाय या मोक्ष-पुरुषार्थ का कारणभूत धर्मपुरुषार्थ कहा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org