________________ द्वितीय स्थान--प्रथम उद्देश ] [41 रागसंजमे चे व, अचरिमसमयसजोगिकेवलिखोणक सायवीयरागसंजमे चव। १२२-अजोगिकेवलिखोणकसायवीयरागसंजमे दुविहे पण्णत्ते, त जहा-पढमसमयमजोगिकेवलिखीणकसायवीयरागसंजमे चव, अपढमसमयग्रजोगिकेवलिखीणकसायवीयरागसंजमे चव। अहवा-चरिमसमयअजोगिकेवलिखीणकसायवीयरागसंजमेचव, अचरिमसमयप्रजोगिकेवलिखीणकसायवीयरागसंजमे चव। केवलि-क्षीणकषाय वीतरागसंयम दो प्रकार का कहा है-सयोगिकेवलि-क्षीणकषाय वीतरागसंयम और अयोगिकेवलि-क्षीणकषाय वीतराग संयम (120) / सयोगिकेवलि क्षीणकषाय वीतराग संयम दो प्रकार का कहा गया है-प्रथम समय सयोगिकेवलि क्षीण संयम और अप्रथम समय सयोगिकेवलि क्षीणकषाय वीतरागसंयम / अथवा -चरमसमय सयोगिकेवलि क्षीणकषाय वीतरागसंयम और अचरमसमय सयोगिकेवलि क्षीणकषाय वीतरागसंयम (121) / अयोगिकेवलिक्षीणकषाय वीतरागसंयम दो प्रकार का कहा गया है--प्रथम समय अयोगिकेवलि क्षीणकषाय वीतरागसंयम और अप्रथम समय अयोगिकेवलि क्षीणकषायवीतरागसंयम / अथवा-चरम समय अयोगिकेवलि क्षीणकषाय संयम और अचरम समय अयोगिकेवलिक्षीणकषाय वीतरागसंयम (122) / विवेचन-अहिंसादि पंच महाव्रतों के धारण करने को, ईर्यादि पंच समितियों के पालने को, कषायों का निग्रह करने को, मन, वचन, कायके वश में रखने को और पांचों इन्द्रियों के विषय जीतने को संयम कहते हैं। आगम में अन्यत्र संयम के सामायिक, छेदोपस्थापनादि पांच भेद कहे गये हैं, किन्तु प्रकृत में द्विस्थानक के अनुरोध से उसके दो मल भेद कहे हैं. सरागसंयम संयम / दशवें गुणस्थान तक राग रहता है, अतः वहां तक के संयम को सरागसंयम और उससे ऊपर के गुणस्थानों में राग के उदय या सत्ता का अभाव हो जाने से वीतरागसंयम होता है। राग भी दो प्रकार का कहा गया है - सूक्ष्म और बादर (स्थूल) / दशवें गुणस्थान में सूक्ष्मराग रहता है, अत: वहाँ के संयम को सूक्ष्मसाम्परायसंयम (सूक्ष्म कषाय वाले मुनि का संयम) और नवम गुणस्थान तक के संयम को बादरसाम्परायसंयम (स्थूल कषायवान् मुनि का संयम) कहते हैं। नवम गुणस्थान के अन्तिम समय में बादर राग का अभाव कर दशम गुणस्थान में प्रवेश करने वाले जीवों के प्रथम समय के संयम को प्रथमसमय-सूक्ष्मसाम्पराय सरागसंयम कहते हैं और उसके सिवाय शेष समयवर्ती जीवों के संयम को अप्रथम समय सूक्ष्मसाम्परायसरागसंयम कहते हैं। इसी प्रकार दशम गुणस्थान के अन्तिम समय के संयम को चरम और उससे पूर्ववर्ती संयम कोत्र / सूक्ष्म साम्परायसरागसंयम कहते हैं। आगे के सभी सूत्रों में प्रतिपादित प्रथम और अप्रथम, तथा चरम और अचरम का भी इसी प्रकार अर्थ जानना चाहिए। कषायों का अभाव दो प्रकार से होता है-उपशम से और क्षय से / जब कोई जीव कषायों का उपशम कर ग्यारहवें गुणस्थान में प्रवेश करता है, तब उसके प्रथम समय के संयम को प्रथम समय उपशन्त कषाय वीतरागसंयम और शेष समयों के संयम को अप्रथम समय उपशान्त कषाय वीतराग संयम कहते हैं / इसी प्रकार चरम-अचरम समय का अर्थ जान लेना चाहिए। . कषायों का क्षय करके बारहवें गणस्थान में प्रवेश करने के प्रथम समय में और शेष समयों, तथा चरम समय और उससे पूर्ववर्ती अचरम समयवाले वीतराग छद्मस्थजीवों के वीतराग संयम को जानना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org