________________ द्वितीय स्थान-चतुर्थ उद्देश] कर्मों के क्षय, उपशम और क्षयोपशम से होती है। यथा-केवलिप्रज्ञप्त धर्म-श्रवण और बोध-प्राप्ति के लिए ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम और दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम आवश्यक है / मुण्डित होकर अनगारिता पाने, ब्रह्मचर्यवासी होने, संयम और संवर से युक्त होने के लिए--चारित्र मोहनीय कर्म का उपशम और क्षयोपशम आवश्यक है। विशुद्ध प्राभिनिबोधिक ज्ञान की प्राप्ति के लिए आभिनिबोधिक ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम, विशुद्ध श्र तज्ञान की प्राप्ति के लिए श्र तज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम, विशुद्ध अवधिज्ञान की प्राप्ति में लिए अवधिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम और विशुद्ध मनःपर्यवज्ञान की प्राप्ति के लिए मनःपर्यवज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम आवश्यक है। तथा इन सब के साथ दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्म के विशिष्ट क्षयोपशम की भी आवश्यकता है। __ यहाँ यह ज्ञातव्य है कि उपशम तो केवल मोहकर्म का ही होता है, तथा क्षयोपशम चार घातिकर्मों का ही होता है। उदय को प्राप्त कर्म के क्षय से तथा अनुदय-प्राप्त कर्म के उपशम से होने वाली विशिष्ट अवस्था को क्षयोपशम कहते हैं। मोहकर्म के उपशम का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही है। किन्तु क्षयोपशम का काल अन्तर्मुहूर्त से लगाकर सैकड़ों वर्षों तक का कहा गया है / औपमिक-काल-पद ___४०५-दुविहे श्रद्धोवमिए पण्णत्ते तं जहा-पलिनोवमे चेव, सागरोवमे चेव / से कि तं पलिपोवमे ? पलिग्रोवमेसंग्रहणी-गाथा जं जोयणविच्छिण्णं, पल्लं एगाहियप्परूढाणं / होज्ज णिरंतरणिचितं, भरितं वालग्गकोडीणं // 1 // वाससए वाससए, एक्केक्के अवहडंमि जो कालो। सों कालो बोद्धव्यो, उवमा एगस्स पल्लस्स // 2 // एएसि पल्लाणं, कोडाकोडी हवेज्ज दस गुणिता। तं सागरोवमस्स उ, एगस्स भवे परीमाणं // 3 // प्रौपमिक अद्धाकाल दो प्रकार का कहा गया है—पल्योपम और सागरोपम / भन्ते ! पल्योपम किसे कहते हैं ? संग्रहणी गाथा एक योजन विस्तीर्ण गड्ढे को एक दिन से लेकर सात दिन तक के उगे हुए (मेष के) वालाग्रों के खण्डों से ठसाठस भरा जाय / तदनन्तर सौ सौ वर्षों में एक-एक वालाग्रखण्ड के निकालने पर जितने काल में वह गड्ढा खाली होता है, उतने काल को पल्योपम कहा जाता है। दश कोड़ाकोड़ी पल्योपमों का एक सागरोपम काल कहा जाता है। पाप-पद ४०६-दुविहे कोहे पण्णत्ते, तं जहा-आयपइदिए चेव, परपइट्टिए चेव / 407. दुविहे माणे, दुविहा माया, दुविहे लोभे, दुविहे पेज्जे, दुविहे दोसे, दुविहे कलहे, दुविहे अभक्खाणे, दुविहे पेसुण्णे, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org