________________ [ स्थानाङ्गसूत्र मरना / इस प्रकार मरने से गिद्ध आदि पक्षी उस शव के साथ मरने वाले के शरीर को भी नोंच-नोंच कर खा डालते हैं। इस प्रकार से मरने को गृद्धस्पृष्टमरण कहते हैं। उक्त सूत्रों में आये हुए वर्णित आदि पदों का अर्थ इस प्रकार है१. वणित-उपादेयरूप से सामान्य वर्णन करना / 2. कीर्तित-उपादेय बुद्धि से विशेष कथन करना / 3. उक्त-व्यक्त और स्पष्ट वचनों से कहना। 4. प्रशस्त या प्रशंसित-श्लाघा या प्रशंसा करना / 5. अभ्यनुज्ञात-करने की अनुमति, अनुज्ञा या स्वीकृति देना। भगवान् महावीर ने किसी भी प्रकार के अप्रशस्त मरण की अनुज्ञा नहीं दी है। तथापि संयम एवं शील आदि की रक्षा के लिए वैहायस-मरण और गृद्धस्पृष्ट-मरण की अनुमति दी है, किन्तु यह अपवादमार्ग ही है। प्रशस्त मरण दो प्रकार के हैं---भक्तप्रत्याख्यान और प्रायोपगमन / भक्त-पान का क्रम-क्रम से त्याग करते हुए समाधि पूर्वक प्राण-त्याग करने को भक्तप्रत्याख्यान मरण कहते हैं। इस मरण को अंगीकार करने वाला साधक स्वयं उठ बैठ सकता है, दूसरों के द्वारा उठाये-बैठाये जाने पर उठताबैठता है और दूसरों के द्वारा की गई वैयावृत्त्य को भी स्वीकार करता है। अपने सामर्थ्य को देखकर साधु संस्तर पर जिस रूप से पड़ जाता है, उसे फिर बदलता नहीं है. किन्तु कटे हुए वृक्ष के समान निश्चेष्ट ही पड़ा रहता है, इस प्रकार से प्राण त्याग करने को प्रायोपगमन मरण कहते हैं। इसे स्वीकार करने वाला साधु न स्वयं अपनी वैयावृत्त्य करता है और न दूसरों से ही कराता है। इसी से भगवान महावीर ने उसे अप्रतिकर्म अर्थात् शारीरिक-प्रतिक्रिया से रहित कहा है। किन्तु भक्तप्रत्याख्यान मरण सप्रतिकर्म होता है। निर्हारिम का अर्थ है-मरण-स्थान से मृत शरीर को बाहर ले जाना। अनियरिम का अर्थ है...- मरण-स्थान पर ही मत-शरीर का पड़ा रहना / जब समाधिमरण वसतिकादि में होता है, तब शव को बाहर लेजाकर छोड़ा जा सकता है, या दाह-क्रिया की जा सकती है। किन्तु जब मरण गिरि-कन्दरादि प्रदेश में होता है, तब शव बाहर नहीं ले जाया जाता। लोक-पद ४१७-के अयं लोगे? जीवच्चेव, अजीवच्चेव / ४१५-के अणंता लोगे ? जीवच्चेव अजीवच्चेव / ४१६-के सासया लोगे ? जीवच्चेव अजीवच्चेव। ___ यह लोक क्या है ? जीव और अजीव ही लोक हैं (417) / लोक में अनन्त क्या है ? जीव और अजीव ही अनन्त हैं (418) ? लोक में शाश्वत क्या है ? जीव और अजीव ही शाश्वत हैं (416) / बोधि-पद ___ 420 - दुविहा बोधी पण्णत्ता, तं जहा–णाणबोधी चे ब, सणबोधी चे व / ४२१-दुविहा बुद्धा पण्णता, तं जहा--णाणबुद्धा चव, सणबुद्धा चव। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org