________________ तृतीय स्थान -प्रथम उद्देश ] [ 113 বৰিয়ং-মুন্স ___६५-तिविहे परिगहे पण्णत्ते, त जहा–कम्मपरिग्गहे, सरीरपरिग्गहे, बाहिरभंडमत्तपरिग्गहे / एवं असुरकुमाराणं / एवं-एगिदियणेरइयवज्ज जाव वेमाणियाणं / ___ अहवा-तिविहे परिग्गहे पण्णत्ते, त जहा-सचित्ते, प्रचित्ते, मोसए / एवं-णेरइयाणं णिरंतरं जाव वेमाणियाणं / परिग्रह तीन प्रकार का कहा गया है—कर्मपरिग्रह, शरीरपरिग्रह और वस्त्र-पात्र आदि बाह्य परिग्रह। यह तीनों प्रकार का परिग्रह एकेन्द्रिय और नारकों को छोड़कर सभी दण्डकवाले जीवों के होता है। अथवा तीन प्रकार का परिग्रह कहा गया है-सचित्त, अचित्त और मिश्र / यह तीनों प्रकार का परिग्रह सभी दण्डकवाले जीवों के होता है / प्रणिधान-सूत्र ६६–तिविहे पणिहाणे पण्णत्ते, त जहा–मणपणिहाणे, वयपणिहाणे, कायपणिहाणे / एवंपंचिदियाणं जाव वेमाणियाणं। ६७–तिविहे सुप्पणिहाणे पण्णत्ते, त जहा-मणसुप्पणिहाणे, वयसुप्पणिहाणे कायसुप्पणिहाणे। १८-संजयमणुस्साणं तिविहे सुप्पणिहाणे पण्णत्ते, त जहामणसुष्पणिहाणे, वयसुप्पणिहाणे, कायसुप्पणिहाणे। ६६—तिविहे दुप्पणिहाणे पण्णत्ते, त जहामणदुप्पणिहाणे, वयदुप्पणिहाणे, कायदुप्पणिहाणे / एवं-पंचिदियाणं जाव वेमाणियाणं / प्रणिधान तीन प्रकार का कहा गया है—मनःप्रणिधान, वचनप्रणिधान और कायप्रणिधान (66) / ये तीनों प्रणिधान पंचेन्द्रियों से लेकर वैमानिक देवों तक सभी दण्डकों में जानना चाहिए / सुप्रणिधान तीन प्रकार का कहा गया है-मनःसुप्रणिधान, वचनसुप्रणिधान और कायसुप्रणिधान (67) / संयत मनुष्यों के तीन सुप्रणिधान कहे गये हैं- मनःसुप्रणिधान, वचनसुप्रणिधान और कायसुप्रणिधान (18)1 दुष्प्रणिधान तीन प्रकार का कहा गया है-मन:दुष्प्रणिधान, वचनदुष्प्रणिधान और कायदुष्प्रणिधान / ये तीनों दुष्प्रणिधान सभी पंचेन्द्रियों में यावत् वैमानिक देवों में पाये जाते हैं (66) / विवेचन–उपयोग की एकाग्रता को प्रणिधान कहते हैं। यह एकाग्रता जब जीव-संरक्षण आदि शुभ व्यापार रूप होता है, तब उसे सुप्रणिधान कहा जाता है और जीव-घात आदि अशुभ व्यापार रूप होती है, तब उसे दुष्प्रणिधान कहा जाता है। यह एकाग्रता केवल मानसिक ही नहीं होती, बल्कि वाचनिक और कायिक भी होती है, इसीलिए उसके भेद बतलाये गये हैं / योनि-सूत्र १००-तिविहा जोणी पण्णत्ता, तं जहा-सीता, उसिणा, सीग्रोसिणा / एवं-एगिदियाणं विलिदियाणं तेउकाइयवज्जाणं संमच्छिमपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं संमुच्छिममणुस्साण य। १०१–तिविहा जोणी पण्णत्ता, त जहा–सचित्ता, अचित्ता, मीसिया। एवं एगिदियाणं विलिंदियाणं समुच्छिमचिदियतिरिक्खजोणियाणं संमुच्छिममणुस्साण य / 102 -तिविहा जोणी पण्णत्ता, त जहा–संबुडा, वियडा, संवुड-वियडा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org