________________ तृतीय स्थान-तृतीय उद्देश ] [146 पुन: नहीं करने के लिए अभ्युद्यत नहीं होता और यथायोग्य प्रायश्चित्त एवं तपःकर्म अंगीकार नहीं करता 1. मेरी कीति (एक दिशा में प्रसिद्धि) कम होगी। 2. मेरा यश (सब दिशाओं में व्याप्त प्रसिद्धि) कम होगा। 3. मेरा पूजा-सत्कार कम होगा। 341 --तिहि ठाणेहि मायी मायं कट्ट प्रालोएज्जा, पडिक्कमेज्जा, [णिदेज्जा, गरिहेज्जा, विउदृज्जा. विसोहेज्जा, अकरणयाए प्रभुट्ठज्जा, प्रहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं] पडिवज्जेज्जा, तं जहा-~-माइस्स णं अस्सि लोगे गरहिए भवति, उवदाए गरहिए भवति, प्रायाती गरहिया भवति / तीन कारणों से मायावी माया करके उसकी आलोचना करता है, प्रतिक्रमण करता है, (निन्दा करता है, गर्दा करता है, व्यावर्तन करता है, उसकी शुद्धि करता है, उसे पुनः नहीं करने के लिए अभ्युद्यत होता है और यथायोग्य प्रायश्चित्त एवं तपःकर्म) अंगोकार करता है 1. मायावी का यह लोक (वर्तमान भव) गहित हो जाता है। 2. मायावी का उपपात (अग्रिम भव) हित हो जाता है। 3. मायावी की आजाति (अग्रिम भव से आगे का भव) गर्हित हो जाता है। ३४२—तिहि ठाणेहि मायो मायं कटु प्रालोएज्जा, [पडिक्कमेज्जा णिदेज्जा, गरिहेज्जा, विउज्जा, विसोहेज्जा, प्रकरणयाए प्रभुट्ठज्जा, अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म] पडिवज्जेज्जा, तं जहा–अमाइस्स णं अस्सि लोगे पसत्थे भवति, उववाते पसत्थे भवति, श्राघातो पसत्था भवति / तीन कारणों से मायावी माया करके उसकी ग्रालोचना करता है, (प्रतिक्रमण करता है, निन्दा करता है, गर्दी करता है, व्यावर्तन करता है, उसकी शुद्धि करता है, उसे पुनः नहीं करने के लिए अभ्युद्यत होता है, और यथायोग्य प्रायश्चित्त एवं तपःकर्म) अंगीकार करता है 1. अमायावी (मायाचार नहीं करने वाले) का यह लोक प्रशस्त होता है। 2. अमायावी का उपपात प्रशस्त होता है। 3. अमायावी की आजाति प्रशस्त होती है। ३४३-तिहि ठाहिं मायी मायं कट्ट प्रालोएज्जा, [पडिक्कमेज्जा, णिदेज्जा, गरिहेज्जा, विउट्ट ज्जा, विसोहेज्जा, अकरणयाए अब्भुट्ठज्जा, अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म] पडिवज्जेज्जा, तं जहा–णाणट्ठयाए, सणट्टयाए, चरित्तट्टयाए / तीन कारणों से मायावी माया करके उसकी आलोचना करता है, (प्रतिक्रमण करता है, निन्दा करता है, गर्दा करता है, व्यावर्तन करता है, उसकी शुद्धि करता है, उसे पुनः नहीं करने के लिए अभ्युद्यत होता है और यथायोग्य प्रायश्चित्त एवं तपःकर्म) अंगीकार करता है 1. ज्ञान की प्राप्ति के लिए। 2. दर्शन की प्राप्ति के लिए। 3. चारित्र की प्राप्ति के लिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org