________________ 18] [ स्थानाङ्गसूत्र की जाने वाली विक्रिया / 3. बाह्य और प्रान्तरिक दोनों प्रकार के पुद्गलों के ग्रहण और अग्रहण के द्वारा की जाने वाली विक्रिया (6) / संचित-पद ७–तिविहा णेरइया पण्णता, तजहा-कतिसंचिता, अकतिसंचिता, प्रवत्तव्वगसंचिता। ८–एवमेगिदियवज्जा जाय वेमाणिया। नारक तीन प्रकार के कहे गये हैं- 1. कतिसंचित, 2. अकतिसंचित, 3. प्रवक्तव्यसंचित (7) / इसी प्रकार एकेन्द्रियों को छोड़कर वैमानिक देवों तक के सभी दण्डक तीन-तीन प्रकार के कहे गये हैं (8) / विवेचन-'कति' शब्द संख्यावाचक है। दो से लेकर संख्यात तक की संख्या को कति कहा जाता है / अकति का अर्थ असंख्यात और अनन्त है / प्रवक्तव्य का अर्थ 'एक' है, क्योंकि 'एक' की गणना संख्या में नहीं की जाती है। क्योंकि किसी संख्या के साथ एक का गुणाकार या भागाकार करने पर वृद्धि-हानि नहीं होती / अतः 'एक' संख्या नहीं, संख्या का मूल है। नरक गति में नारक एक साथ संख्यात उत्पन्न होते हैं / उत्पत्ति की इस समानता से उन्हें कति-संचित कहा गया है / तथा नारक एक साथ असंख्यात भी उत्पन्न होते हैं, अतः उन्हें अकति-संचित भी कहा गया है। कभी-कभी जघन्य रूप से एक ही नारक नरकगति में उत्पन्न होता है अत: उसे प्रवक्तव्य-संचित कहा गया है, क्योंकि उसकी गणना न तो कति-संचित में की जा सकती है और न अकति-संचित में ही की जा सकती है। एकेन्द्रिय जीव प्रतिसमय या साधारण वनस्पति में अनन्त उत्पन्न होते हैं, वे केवल अकति-संचित ही होते हैं, अतः सूत्र में उनको छोड़ने का निर्देश किया गया है / परिचारणा-सूत्र E-तिविहा परियारणा पण्णत्ता, तं जहा 1. एगे देवे अण्णे देवे, अण्णास देवाणं देवीनो य अभिजिय-अभिजुजिय परियारेति, अप्पणिज्जियानो देवीमो अभिजु जिय-अभिजु जिय परियारेति, अप्पाणमेव अध्पणा विउवियविउव्विय परियारेति / 2. एगे देवे णो अण्णे देवे, णो असि देवाणं देवीप्रो अभिजुजिय-अभिजुजिय परियारेति, अप्पणिज्जियाओ देवीमो अभिजु जिय-अभिजुजिय परियारेति, अप्पाणमेव अप्पणा विउवियविउव्विय परियारेति / 3. एगे देवे णो अण्णे देवे, णो असि देवाणं देवीनो अभिजुजिय-अभिजिय परियारेति, णो अप्पणिज्जितानो देवीयो अभिजु जिय-अभिजुजिय परियारेति, अप्पाणमेव अप्पाणं विउवियविउम्विय परियारेति / परिचारणा तीन प्रकार की कही गई है-१. कुछ देव अन्य देवों तथा अन्य देवों की देवियों का प्रालिंगन कर-कर परिचारणा करते हैं, कुछ देव अपनी देवियों का वार-वार आलिंगन करके परिचारणा करते हैं और कुछ देव अपने ही शरीर से बनाये हुए विभिन्न रूपों से परिचारणा करते हैं। परिचार का अर्थ मैथुन-सेवन है (6) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org