________________ चरिन द्वितीय स्थान-चतुर्थ उद्देश] [6 बोधि दो प्रकार की कही गई है-ज्ञानबोधि और दर्शनबोधि (420) / बुद्ध दो प्रकार के कहे गये हैं-ज्ञानबुद्ध और दर्शनबुद्ध (421) / मोह-पद ४२२-दुविहे मोहे पण्णत्ते, तं जहाणाणमोहे चेव, देसणमोहे चेव / ४२३-दुविहा मूढा पण्णता, तं जहा–णाणमूढा चे व, दंसणमूढा चे व / मोह दो प्रकार का कहा गया है-ज्ञानमोह और दर्शनमोह (422) / मूढ दो प्रकार के कहे गये हैं— ज्ञानमूढ और दर्शनमूढ (423) / कर्म-पद ४२४----णाणावरणिज्जे कम्मे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-देसणाणावरणिज्जे चे व, सम्वणाणावरणिज्जे चव / ४२५–दरिसणावरणिज्जे कम्मे दुविहे पण्णते, तं जहा-देसदरिसणावरणिज्जे चेव, सम्वदरिसणावर णिज्जे चव। ४२६–वेयणिज्जे कम्मे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-सातावेयणिज्जे चव, असाताबेणिज्जे चव। ४२७-मोडणिज्जे कम्मे दविहे पण्णते, तं जहा-दसणमोहणिज्जे चेव, हणिज्जे चेव / ४२८-पाउए कम्मे विहे पण्णत्ते, तं जहा-अद्धाउए चेव, भवाउए चेव। ४२६-णामे कम्मे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-सुभणामे च व, असुभणामे चव। ४३०-गोत्ते कम्मे दुबिहे पण्णत्ते, तं जहा- उच्चागोते चव, णीयागोते चेव। ४३१-अंतराइए कम्मे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-पडुप्पण्णविणासिए चे व, पिहितआगामिपहं च व।। ___ज्ञानावरणीय कर्म दो प्रकार का कहा गया है - देशज्ञानावरणीय (मतिज्ञानावरण आदि) और सर्वज्ञानावरणीय (केवलज्ञानावरण) (424) / दर्शनावरणीय कर्म दो प्रकार का कहा गया हैदेशदर्शनावरणीय और सर्वदर्शनावरणीय (केवलदर्शनावरण) (425) / वेदनीय कर्म दो प्रकार का कहा गया है—सातवेदनीय और असातवेदनीय (426) / मोहनीय कर्म दो प्रकार का कहा गया हैदर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय (427) / आयुष्यकर्म दो प्रकार का कहा गया है-श्रद्धायुष्य (कायस्थिति की आयु) और भवायुष्य (उसी भव की आयु) (428) / नामकर्म दो प्रकार का कहा गया है-शुभनाम और अशुभनाम (426) / गोत्रकर्म दो प्रकार का कहा गया है - उच्चगोत्र और नीचगोत्र (430) / अन्तरायकर्म दो प्रकार का कहा गया है---प्रत्युत्पन्नविनाशि (वर्तमान में प्राप्त वस्तु का विनाश करने वाला) और पिहित-आगामिपथ अर्थात् भविष्य में होने वाले लाभ के मार्ग को रोकने वाला (431) / मू -पद ४३२-दुविहा मुच्छा पण्णता, तं जहा-पेज्जवत्तिया चेव, दोसवत्तिया चव / 433 पेज्जवत्तिया मुच्छा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा—माया चेव, लोभे चेव / ४३४-दोसवत्तिया मुच्छा दुविहा पण्णता, तं जहा-कोहे चे व, माणे चव। मूर्छा दो प्रकार की कही गई है-प्रेयस्प्रत्यया (राग के कारण होने वाली मूर्छा) और द्वेषप्रत्यया (द्वष के कारण होने वाली मूर्छा) (432) / प्रेयस्प्रत्यया मूर्छा दो प्रकार की कही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org