________________ द्वितीय स्थान-चतुर्थ उद्देश ] [85 सूत्रोक्त छाया आतप आदिजीवों से सम्बन्ध रखने के कारण जीव और पुद्गलों की पर्याय होने के कारण अजीव कहे गये हैं। ३६२--दो रासी पण्णत्ता, तं जहा--जीवरासी चव, अजीवरासी चेव / राशि दो प्रकार की कही गई है—जीवराशि और अजीवराशि (362) / कर्म-पद ___363 - दुविहे बंधे पण्णत्ते, तं जहा पेज्जबंधे चेव, दोसबंधे चेव / ३६४–जीवा णं दोहि ठाणेहिं पावं कम्म बंधंति, तं जहा-रागेण चव, दोसेण चेव / ३६५–जीवा णं दोहि ठाणेहि पावं कम्मं उदीरेंति, तं जहा--प्रभोवमियाए चेव वेयणाए, उवक्कमियाए चेव वेयणाए। 396 --जीवा णं दोहि ठाणेहि पावं कम्मं वेदेति, तं जहा—अभोवगमियाए चेव वेयणाए, उवक्कमियाए चेव वेयणाए। ३६७--जीवा णं दोहि ठाणेहिं पावं कम्मं णिज्जरेंति, तं जहा-अब्भोवगमियाए चेव बेयणाए, उवक्कमियाए चेव वेयणाए। बन्ध दो प्रकार का कहा गया है-प्रयोबन्ध और द्वेषबन्ध (363) / जीव दो स्थानों से पाप कर्म का बन्ध करते हैं- राग से और द्वेष से (364) / जीव दो स्थानों से पाप-कर्म की उदीरणा करते हैं--प्राभ्युपगमिको बेदना से और औपक्रमिकी वेदना से (365) / जीव दो स्थानों से पापकर्म का वेदन करते हैं-आभ्युपगमिकी वेदना से और औपक्रमिकी वेदना से (366) / जीव दो स्थानों से पाप कर्म की निर्जरा करते हैं-आभ्युगमिकी वेदना से और औपक्रमिकी वेदना से (367) / विवेचन-कर्म-फल के अनुभव करने को वेदन या वेदना कहते हैं / वह दो प्रकार की होती है-आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी। अभ्युपगम का अर्थ है स्वयं स्वीकार करना / तपस्या किसी कर्म के उदय से नहीं होती, किन्तु युक्ति-पूर्वक स्वयं स्वीकार की जाती है / तपस्या-काल में जो वेदना होती है, उसे आभ्युपगमिकी वेदना कहते हैं। उपक्रम का अर्थ है- कर्म की उदीरणा का कारण / शरीर में उत्पन्न होने वाले रोगादि की वेदना को औपक्रमिकी वेदना कहते हैं / दोनों प्रकार की वेदना निर्जरा का कारण है / जीव राग और द्वेष के द्वारा जो कर्मबन्ध करता है, उसका उदय, उदीरणा या निर्जरा उक्त दो प्रकारों से होती है। आत्म-निर्याण-पद ३९८-दोहि ठाणेहि आता सरीरं फुसित्ता णं णिज्जाति, तं जहा-देसेणवि आता सरीरं फुसित्ता गं णिज्जाति, सम्वेणवि आता सरीरगं फुसित्ता णं णिज्जाति / ३९६-दोहि ठाणेहिं प्राता सरीरं फुरित्ता णं णिज्जाति, तं जहा-देसेणवि प्राता सरीरं फुरित्ता णं णिज्जाति, सवेणवि प्राता सरीरगं फुरित्ता णं णिज्जाति / 400-- दोहि ठाणेहि आता सरीरं फुडित्ता णं णिज्जाति, तं जहा-- देसेणवि प्राता सरोरं फुडित्ता णं णिज्जाति, सम्वेणवि प्राता सरीरगं फुडित्ता गं णिज्जाति / 401 - दोहि ठाणेहि आता सरीरं संवट्टइत्ता णं णिज्जाति, तं जहा–देसेणवि प्राता सरीरं संवट्टइत्ता णं णिज्जाति, सम्वेणवि आता सरीरगं संवट्टइत्ता णं णिज्जाति। ४०२--दोहि ठाणेहि प्राता सरीरं णिवट्टइत्ता णं णिज्जाति, तं जहा-देसेणवि प्राता सरीरं णिवइत्ता णं णिज्जाति, सम्वेणवि प्राता सरीरगं णिवट्टइत्ता णं णिज्जाति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org