________________ 84] [स्थानाङ्गसूत्र घनवात, तनुवात आदि वातों के स्कन्ध को वातस्कन्ध कहते हैं / घनवात आदि वातस्कन्धों के नीचे वाले आकाश को अवकाशान्तर कहते हैं। लोक के सर्व ओर वेष्टित वातों के समूह को वलय या वातवलय कहते हैं। लोकनाडी के भीतर गति के मोड़ को विग्रह कहते हैं / समुद्र के जल की वृद्धि को वेला कहते हैं। द्वीप या समुद्र के चारों ओर की सहज-निर्मित भित्ति को वेदिका कहते हैं। द्वीप, समुद्र और नगरादि में प्रवेश करने वाले मार्ग को द्वार कहते हैं। द्वारों के आगे बने हुए अर्धचन्द्राकार मेहरावों को तोरण कहते हैं / नारकों के निवासस्थान को नारकावास कहते हैं। वैमानिक देवों के निवासस्थान को वैमानिकावास कहते हैं। भरत आदि क्षेत्रों को वर्ष कहते हैं / हिमवान् आदि पर्वतों को वर्षधर कहते हैं / पर्वतों की शिखरों को कूट कहते हैं / कूटों पर निर्मित भवनों को कूटागार कहते हैं / महाविदेह के क्षेत्रों को विजय कहते हैं जो कि वहाँ के चक्रवत्तियों के द्वारा जीते जाते हैं। राजा के द्वारा शासित नगरी को राजधानी कहते हैं। ये सभी उपर्युक्त स्थान जीव और अजीव दोनों से व्याप्त होते हैं, इसलिए इन्हें जीव भी कहा जाता है और अजीव भी कहा जाता है। ३९१-छायाति वा आतवातिवादोसिणाति वा अंधकाराति वा प्रोमाणाति वा उम्माणाति वा अतियाणगिहाति वा उज्जाणगिहाति वा अलिबाति वा सणिप्पवाताति वा--जीवाति या अजीवाति या पबुच्चति / छाया और आतप, ज्योत्स्ना और अन्धकार, अवमान और उन्मान, अतियानगह और उद्यान गृह, अवलिम्ब और सनिष्प्रवात, ये सभी जीव और अजीव दोनों कहे जाते हैं (361) / विवेचन-वृक्षादि के द्वारा सूर्य-ताप के निवारण को छाया कहते हैं / सूर्य के उष्ण प्रकाश को आतप कहते हैं / चन्द्र की शीतल चांदनी को ज्योत्स्ना कहते हैं / प्रकाश के अभाव को अन्धकार कहते हैं / हाथ, गज आदि के माप को अवमान कहते हैं / तुला आदि से तौलने के मान को उन्मान कहते हैं। नगरादि के प्रवेशद्वार पर जो धर्मशाला, सराय या गृह होते है उन्हें अतियान-गृह कहते हैं / उद्यानों में निर्मित गृहों को उद्यानगृह कहते हैं। 'अलिबा' और सणिप्पवाया' इन दोनों का संस्कृत टीकाकार ने कोई अर्थ न करके लिखा है कि इनका अर्थ रूढि से जानना चाहिए / मुनि नथमल जी ने इन की विवेचना करते हुए लिखा है कि 'अलिब' का दूसरा प्राकृत रूप 'अरेलिब' हो सकता है / दीमक का एक नाम 'प्रोलिभा' है / यदि वर्ण-परिवर्तन माना जाय, तो 'अलिब' का अर्थ दीमक का डूह हो सकता है। और यदि पाठपरिवर्तन की संभावना मानी जाय तो 'पोलिद' पाठ की कल्पना की सकती हैं, जिसका अर्थ होगाबाहिर के दरवाजे का प्रकोष्ठ। अतियानगृह और उद्यानगृह के अनन्तर प्रकोष्ठ का उल्लेख प्रकरणसंगत भी है। 'सणिपवाय' के संस्कृत रूप दो किये जा सकते हैं- शनैःप्रपात और सनिष्प्रपात / शनैः प्रपात का अर्थ धीमी गति से गिरने वाला झरना और सनिष्प्रताप का अर्थ भीतर का प्रकोष्ठ (अपवरक) होता है / प्रकरण-संगति की दृष्टि से यहाँ सनिष्प्रपात अर्थ ही होना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org