________________ 50] [ स्थानाङ्गसूत्र नारक दो प्रकार के कहे गये हैं----भव्यसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक / इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त सभी दण्डकों में दो-दो भेद जानना चाहिए (177) / पुनः नारक दो प्रकार के कहे गये हैं अनन्तरोपपन्नक और परम्परोपपन्नक / इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त सभी दण्डकों में दो-दो भेद जानना चाहिए (178) / पुनः नारक दो प्रकार के कहे गये हैं--गतिसमापन्नक (अपने उत्पत्तिस्थान को जाते हुए) और अगतिसमापनक (अपने भव में स्थित)। इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त सभी दण्डकों में दो-दो भेद जानना चाहिए (176) / पुनः नारक दो प्रकार के कहे गये हैं--प्रथमसमयोपपन्नक और अप्रथमसमयोपपन्नक / इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त सभी दण्डकों में दो-दो भेद जानना चाहिए (180) / पुनः नारक दो प्रकार के कहे गये हैं--आहारक और अनाहारक / इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त सभी दण्डकों में दो-दो भेद जानना चाहिए (181) / पुनः नारक दो प्रकार के कहे गये हैं-उच्छ्वासक (उच्छ्वास पर्याप्ति से पर्याप्त) और नोउच्छ्वासक (उच्छ्वास पर्याप्ति से अपूर्ण) (182) / पुन: नारक दो प्रकार के कहे गये हैं-- सेन्द्रिय (इन्द्रिय पर्याप्ति से पर्याप्त) और अनिन्द्रिय (इन्द्रिय पर्याप्ति से अपर्याप्त) इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त सभी दण्डकों में दो-दो भेद जानना चाहिए (183) / पुनः नारक दो प्रकार के कहे गये हैं-पर्याप्तक (पर्याप्तियों से परिपूर्ण) और अपर्याप्तक (पर्याप्तियों से अपूर्ण) / इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त सभी दण्डकों में दो-दो भेद जानना चाहिए (184) / १८५-दधिहा रइया पण्णत्ता, त जहा-सण्णी चे व, असण्णी चव। एवं पंचेंदिया सध्वे विलिदियवज्जा जाव वाणमंतरा। १८६-दुविहा रइया पण्णत्ता, तं जहा–भासगा चेव, प्रभासगा चेव / एवमेगिदियवज्जा सव्वे / १८७-दुविहा णेरइया पण्णत्ता, तं जहा--सम्मद्दिटिया चेव, मिच्छद्दिट्टिया चेव / एगिदियवज्जा सव्वे / १८८-दुविहा रइया पण्णत्ता, तं जहा---परित्तसंसारिया चे व, अणंतसंसारिया चेव / जाव वेमाणिया / १८६-दुविहा रइया पण्णता, तजहा-संखेज्जकालसमयट्टितिया चेव, असंखेज्जकालसमयदितिया चेव / एवं-पंचेंदिया एगिदियविलिदियवज्जा जाव वाणमंतरा। 190- दुविहा रइया पण्णत्ता, त जहा-सुलभबोधिया चेव, दुलभबोधिया चे व जाव वेमाणिया। १६१-दुविहा रइया पण्णत्ता, त जहा-कण्हपक्खिया चेव, सुक्कपक्खिया चेव जाव वेमाणिया। १९२-दुबिहा रइया पण्णत्ता, त जहा-चरिमा चव, प्रचरिमा चेव जाव वेमाणिया / पुन: नारक दो प्रकार के कहे गये हैं संज्ञी (मन:पर्याप्ति से परिपूर्ण) और असंज्ञी (जो असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच योनि से नारकियों में उत्पन्न होते हैं)। इसी प्रकार विकलेन्द्रिय जीवों को छोड़कर वान-व्यन्तर तक के सभी दण्डकों में दो-दो भेद जानना चाहिए (185) / पुनः नारक दो प्रकार के कहे गये हैं-भाषक (भाषा पर्याप्ति से परिपूर्ण) और अभाषक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org