________________ द्वितीय स्थान-प्रथम उद्देश ] | 37 गया है- एक अनन्तर सिद्ध का केवलज्ञान और अनेक अनन्तर सिद्धों का केवलज्ञान (63) / परम्परसिद्ध केवलज्ञान भी दो प्रकार का कहा गया है-एक परम्पर सिद्ध का केवलज्ञान और अनेक परम्पर सिद्धों का केवलज्ञान (64) / ६५--णोकेवलणाणे दुविहे पण्णत्त, त जहा-प्रोहिणाणे चव, मणपज्जवणाणे चव। ६६-ओहिणाणे दुविहे पण्णत्त, त जहा-भवपच्चइए चेव, खोवसमिए चव। ६७-दोण्हं भवपच्चइए पण्णत्त, तजहा-देवाणं चेव, रइयाणं चेव / १८–दोण्हं खओवसमिए पण्णत्त, तं जहा-मणुस्साणं चव, पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं चेव / ६६--मणपज्जवणाणे दुविहे पण्णत्त, त जहा-उज्जुमती चव, विउलमती चव / नोकेवलप्रत्यक्षज्ञान दो प्रकार का कहा गया है—अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान (65) / अवधिज्ञान दो प्रकार का कहा गया है-भवप्रत्ययिक (जन्म के साथ उत्पन्न होने वाला) और क्षायोपशमिक (अवधिज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से तपस्या आदि गुणों के निमित्त से उत्पन्न होने वाला) (66) / दो गति के जीवों को भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान कहा गया है-देवताओं को और नारकियों को (67) दो गति के जीवों को क्षायोपमिक अवधिज्ञान कहा गया है--मनुष्यों को और पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकों को (18) | मनःपर्यवज्ञान दो प्रकार का कहा गया है-ऋजुमति (मानसिक चिन्तन के पुद्गलों को सामान्य रूप से जानने वाला) मनःपर्यवज्ञान / तथा विपुलमति (मानसिक चिन्तन के पुद्गलों की नाना पर्यायों को विशेष रूप से जानने वाला) मनःपर्यवज्ञान (66) / 100--- परोक्खे णाणे विहे पण्णते, त जहा-प्राभिणिबोहियणाणे चव, सुयणाणे चव / १०१-प्राभिणिबोहियणाणे दुविहे पण्णत्त, त जहा--सुयणिस्सिए च व, असुयणिस्सिए चेव / १०२-सुयणिस्सिए दुविहे पण्णत्ते, त जहा–अत्थोग्गहे चेव, वंजणोग्गहे चेव / १०३-प्रसुयणिस्सिए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-अत्थोग्गहे चव, वंजणोग्गहे चेव / १०४---सुयणाणे दुविहे पण्णत्ते, त जहाअंगपविट्ठ चेव, अंगबाहिरे चेव / १०५---अंगबाहिरे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा—प्रावस्सए चेव, प्रावस्सयवतिरित्ते चेव / १०६-प्रावस्सयतिरित्ते दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-कालिए चेव, उक्कालिए चेव / परोक्षज्ञान दो प्रकार का कहा गया है—ाभिनिबोधिक ज्ञान और श्र तज्ञान (100) / आभिनिवोधिक ज्ञान दो प्रकार का कहा गया है-श्र तनिश्रित और अश्र तनिश्रित (101) / श्रुतनिश्रित दो प्रकार का कहा गया है-- अर्थावग्रह और व्यञ्जनावग्रह (102) / अश्रु तनिश्रित दो प्रकार का कहा गया है अर्थावग्रह और व्यञ्जनावग्रह (103) / श्र तज्ञान दो प्रकार का कहा गया है-अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य (104) / अंगबाह्य श्र तज्ञान दो प्रकार का कहा गया हैआवश्यक और आवश्यकव्यतिरिक्त (105) / आवश्यकव्यतिरिक्त दो प्रकार का कहा गया हैकालिक (दिन और रात के प्रथम और अन्तिम प्रहर में पढ़ा जाने वाला) श्रु त / और उत्कालिक (अकाल के सिवाय सभी प्रहरों में पढ़ा जाने वाला) श्रत (106) / विवेचन--वस्तुस्वरूप को जानने वाले आत्मिक गुण को ज्ञान कहते हैं / ज्ञान के पांच भेद कहे गये हैं—प्राभिनिबोधिक या मतिज्ञान, श्रु तज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवल. ज्ञान / इन्द्रिय और मन के द्वारा होने वाले ज्ञान को आभिनिबोधिक या मतिज्ञान कहते हैं / मतिज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org