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आम नमो नमो निम्मलदसणस्स
..आजम आजम पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरुभ्यो नमः
आज भाग
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि
01
आगम - ०१ 'आचार' मूलं एवं वृत्ति: (१)
मूल संशोधक :- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब __अभिनव-संकलनकर्ता :- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D.. श्रुतमहर्षि।
पूज्य शासनप्रभावक आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से
'वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था' पालिताणा
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ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
श्री आगम मंदिर
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नमो नमो निम्मलदसणस्स
र सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि
मूल संशोधक
अभिनव-संकलनकर्ता
।
पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज
- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी
M.Com., M.Ed.. Ph.D., श्रुतमहर्षि] .
प्रत-प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका
मुद्रक : नवप्रभात प्रिटींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855/9825306275
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[भाग-०१] श्री आचाराङ्गसूत्रम् भाग-१
नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम:
“आचार" मूलं एवं वृत्ति:
[मूलं + भद्रबाहुस्वामी कृत् नियुक्ति; + शिलांकाचार्य रचित वृत्ति:]
श्रुतस्कन्ध- १, अध्ययन- १ एवं २
[आद्य संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ]
(किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता, मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.)
28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५
'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग-१
श्री आगमोद्धारक-वाचना-शताब्दी-वर्ष-निमित्त 'आगम-वृत्ति-मुद्रण-प्रोजेक्ट'
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सामाचारी-संरक्षक, ज्ञानधनी, आगम-संशोधक, तीव्र-मेधावी, समाधिमृत्यु-प्राप्त, बहुमुखीप्रतिभाधारक पज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसरीश्वरजी महाराज साहेब
• जिन्होने शुद्ध-श्रद्धा, सम्यक् श्रुत आराधना, यथाख्यातचारित्र के प्रति गति और अंत समय देह-ममत्व के त्याग के द्वारा कायोत्सर्ग नामक अभ्यंतर- : तप कि मिशाल कायम कि है ऐसे बहुश्रुत आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराज का परिचय कराना मेरे लिए नामुमकिन है, फ़िर भी गुरुभक्ति बुद्धि से | : श्रद्धांजली स्वरुप एक मामुली सी झलक पैस करने का यह प्रयास मात्र है।
.चारित्र-ग्रहण के बाद अल्प कालमे जो अपने गुरुदेव की छत्रछाया से दूर हो गये, तो भी गुरुदेव के स्वर्ग-गमन को सिर्फ कर्मो का प्रभाव मानकर अपने संयम के लक्ष्य प्रति स्थिर रहते हए अकेले ज्ञान-मार्ग कि साधना के पथ पर चले | पढाई के लिए ही कितने महिनो तक रोज एकासणा तप के साथ :बारह किल्लोमिटर पैदल विहार भी किया | लेकिन अपने मंझिल पे डटे रहे, और परिणाम स्वरुप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा का, प्राचीन लिपिओ का, व्याकरण| न्याय-साहित्य आदि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया | जैन आगमशास्त्रो के समुद्र को भी पार कर गए।
.एक अकेला आदमी भी क्या नहीं कर शकता? इस प्रश्न का उत्तर हमें इस महापुरुष के जीवन और कवन से मिल गया, जब वे चल पड़े देवगिणी : | क्षमाश्रमण के स्थापित पथ पर. बिना किसी सहाय लिए हए सिर्फ अकेले ही “जैन-आगम-शास्त्रो" को दीर्घजीवी बनाने के लिए अनेक हस्तप्रतो से शुद्ध-पाठ
तैयार किये | दो वैकल्पिक आगम, कल्पसूत्र और नियुक्तिओ को जोड़कर ४५ आगम-शास्त्रो को संशोधित कर के संपादित किया | फिर पालीताणामें आगम । । मंदिर बनवाकर आरस-पत्थर के ऊपर ये सभी आगम-साहित्य को कंडारा, सूरतमें तामपत्र पर भी अंकित करवाए और "आगम मंजषा' नाम से मुद्रण भी करवा के बड़ी बड़ी पेटीमें रखवा के गाँव गाँव भेज दिए | वर्तमानकालमे सर्व प्रथमबार ऐसा कार्य हुआ |
.सिर्फ मूल आगम के कार्य से ही उन के कदम रुके नहीं थे, उन्होंने आगमो की वृत्ति, चूर्णि, नियुक्ति, अवचूरी, संस्कृत-छाया आदि का भी | संशोधन-सम्पादन किया | उपयोगी विषयो के लिए उन्होंने एक लाख श्लोक प्रमाण संस्कृत-प्राकृत नए ग्रंथो की रचना भी की | कितने ही ग्रंथो की प्रस्तावना · भी लिखी | ये सम्यक्-श्रुत मुद्रित करवाने के लिए आगमोदय समिति, देवचंद लालभाई इत्यादि विभिन्न संस्था की स्थापना भी की |
.ज्ञानमार्ग के अलावा सम्मेतशिखर, अंतरीक्षजी, केशरियाजी आदि तीर्थरक्षा कर के सम्यक-दर्शन-आराधना का परिचय भी दिया | राजाओं को प्रतिबोध | : कर के और वाचनाओ द्वारा अपनी प्रवचन-प्रभावकता भी उजागर करवाई | बालदिक्षा, देवद्रव्य-संरक्षण, तिथि-प्रश्न इत्यादि विषयोमे सत्य-पक्षमें अंत तक दृढ़ रहे | जैनशासन के लिए जब जरुरत पड़ी तब अदालती कारवाईओ का सामना भी बड़ी निडरता से किया था |
• सागरानंदजी के नाम से मशहूर हो चुके पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजीने अपने परिवार स्वरुप ७०० साधू-साध्वीजी भी शासन को भेट किये | ...ये थे हमारे गुरुदेव "सागरजी"...
......मुनि दीपरत्नसागर... । ...-.
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संयमैकलक्षी, उपधान-तप-प्रेरक, चारित्र-मार्ग-रागी, प्रवचन-पटु, सुपरिवार-युक्त पूज्य गच्छाधिपतिआचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब
... परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हुए तिसरे गच्छाधिपति थे पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी, जो एक पून्यवान् : आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये | फ़िर क्या ! शिष्यो कि संख्या बढती चली, बढ़ते हए पुन्य के साथ-साथ वे आखिर
'गच्छाधिपति' पद पे आरुढ़ हो गए | इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान-तप' की प्रेरणा करते थे, तुरंत ही वहां । : 'उपधान' हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापुन्य के कारण उन के उपदेश-प्राप्त बहोत आत्माओने संयम-मार्ग का स्वीकार किया खुद भी संयमैकलक्षी होने के : कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था | आप कभी भी दुपहर को चले जाइए, वे खुद अकेले या शिष्य
परिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे | : ... ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेल दिखाए | एक और भी अनुसरणीय बात उन के जीवन में देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम'. कैसी भी | शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष)दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि आराधना कभी नहीं - छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम-आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के महमें एक ही रटण बारबार चाल हो गया
"अरिहंतनुं शरण, सिद्धनुं शरण, साधुनुं शरण, केवली भगवते भाखेला धर्मनु शरण इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे समाधि-मृत्यु-रूप सम्यक् निद्रा को : प्राप्त हुए थे | ऐसे महान् सूरिवर को भावबरी वंदना |
... मुनि दीपरत्नसागर... ... श्री वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था, पालिताणा... : पूज्यपाद आनंदसागर-सूरीश्वरजी की बौद्धिक-प्रतिभा का मूर्तिमंत स्वरुप ऐसी इस संस्था की स्थापना विक्रम संवत १९९९ मे महा-वद ५ को हुइ पूज्य | आचार्य हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से जिन की तरफ़ से इस सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि के लिए संपूर्ण द्रव्य-सहाय की प्राप्ति हुइ ।
शिल्प-स्थापत्य, शिलोत्कीर्ण आगम और समवसरण स्थित नयनरम्य ४५ चौमुख जिन-प्रतिमाजी से सुशोभित ऐसा ये 'आगममंदिर' है, जो शत्रुजय। गिरिराज कि तलेटीमे स्थित है | वर्तमान २४ जिनवर, २० विहरमान जिनवर और १ शाश्वत मिलाकर ४५ चौमुखजी यहा बिराजमान है | जहां ४० समवसरण की | | रचना मेरु पर्वत के तिनो काण्ड के वर्षों के अनुसार चार अलग-अलग रंगो के आरस-पत्थर से बना है, देवो द्वारा रचित समवसरण के शास्त्र वर्णन-अनुसार : आगम-मंदिर कि समवसरण का स्थापत्य है | ऐसी अनेक विशेषता से युक्त ये आगममंदिर है।
** मुनि दीपरत्नसागर... .-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..
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'सागर-समुदाय-एकता-संरक्षक, तीर्थ-उद्धार-कार्य-प्रवृत्त, गुणानुरागी' इस "सवृत्तिक-आगम-सत्ताणि' श्रेणि भाग १ से ४० के संपूर्ण अनदान के प्रेरणादाता पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी महाराज साहेब
पूज्यपाद स्व. गच्छाधिपति देवेन्द्रसागर-सूरीश्वरजी के विनयी शिष्य एवं दो गच्छाधिपतिओ के मुख्य सहायक के रुपमे 'सागर समुदाय' के सुचारु संचालक पूज्य हर्षसागरसूरिजी, जिन की प्रेरणा से ये "सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि" के मुद्रण के लिए संपूर्ण दव्यराशि प्राप्त हुई उनका अत्यल्प परिचय यहां करेंगे : । समुदाय-एकता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हुए ये महात्मा समुदाय के साधु-साध्वीजी की आवश्यकताओकी पूर्ती के लिए भी प्रवृत्त रहेते है, प्राचीन-अर्वाचीन तीर्थो के जीर्णोद्धार एवं विकाश के लिए भी उत्साहित रहेते है, ज्ञान-क्षेत्र अछूता न रहे इसीलिए अनुमोदना, अनुदान एवं समय मिलने पर शास्त्र-वांचनमें भी रूचि रखते है | समुदाय के जरूरतमंद साध्वीजी भगवंतो के आवास का विषय हो या साध्वीजी के विहारमें मजदूर का वेतन चुकाना हो, ऐसे छोटे-छोटे कार्यो के प्रति :भी उन का लक्ष्य रहेता है | दर्शन-शुद्धि के लिए जब उन्होंने समग्र भारतवर्ष के १०० साल तक के पुराने जिनालयो में १८ अभिषेक की प्रेरणा की, उस वक्त । | लगभग सभी अभिषेक-सामग्री की द्रव्य-शुद्धि का ख़याल रखते हुए अपनी मेधावी बुद्धि का परिचय दिया था, साथमे अनुकंपा भाव से पुजारी या विधि करानेवाले :
को यत्किंचित् बहमान प्रगट करते हए कुछ धन-राशि प्रदान करवाई। | ऐसे बहुगुण-संपन्न महात्मा पूज्य आचार्यश्री हर्षसागर-सूरिजी को हम भावभरी वंदना करते हुए इस श्रुतकार्य का प्रारंभ करने जा रहे है ।
* मुनि दीपरत्नसागर
[कात्रेजापूना, शंखेश्वर, कपडवंज, प्रभासपाटण आदि स्थानोमे आगममंदिर के प्रेरक, कर्मग्रंथ अभ्यासु, निस्पृह महात्मा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य श्री दौलतसागर-सूरीश्वरजी महाराज साहेब
(एवं) अजातशत्रु, स्वाध्याय-रसिक, प्रशांतमूर्ती और अपने गुरु के प्रीतिपात्र परम पूज्य आचार्य श्री नंदीवर्धनसागर-सूरिजी महाराज साहेब इस पवित्र श्रुत-कार्यमे दोनो सूरिवरो का स्मरण करते हुए कोटि कोटि वंदना के साथ
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-वचनं
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मूलाङ्का: ५५२ आचाराङ्ग सूत्रस्य विषयानुक्रम भाग-१ एवं २ नियुक्ति गाथा: ३५६ मलाक: विषय: | पृष्ठांक | मूलांक:
विषय: पृष्ठांक | मुलांक:
विषयः
पृष्ठांक: श्रुतस्कंध- १ ०१२ १४३ --उद्देशकः २ धर्मप्रवादीपरीक्षणं
| २२० ।--उद्देशक:३अंगचेष्टाभाषितः ** अध्ययनं १ शस्त्रपरिज्ञा ०३०
| -उद्देशक: ३ निरवदयतप:
२२४ -उद्देशक: ४ वेहासनादिमरणं ००१ --उद्देशक: १ जीवअस्तित्वं
०३२ १५० |--उद्देशक: ४ संयमप्रतिपादनं
२२९ --उद्देशक: ५ ग्लानभक्तपरिज्ञा ०१४ | --उद्देशकः २ पृथ्विकाय
२३१ --उद्देशक: ६ इंगितमरणं --उद्देशक:३अप्कायः | ०९२ ** | अध्ययनं ५ लोकसार:
२३६ । --उद्देशक:७ पादपोपगमनमरणं ०३२ | --उद्देशक: ४ अग्निकाय: १५४ | --उद्देशक: १ एकचर्या
२४० -उद्देशक: ८ उत्तममरणविधि: ०४० --उद्देशक: ५ वनस्पतिकाय: १५९ | --उद्देशक: २ विरतमुनि
अध्ययनं ९ उपधानश्रुतं ०४९ --उद्देशक: ६ त्रसकाय: | १६४ --उद्देशक: ३ अपरिग्रह
२६५ -उद्देशक: १ चर्या: ०५६ | --उद्देशकः ७ वायकायः १६९ --उद्देशक: ४ अव्यक्त:
૨૮૮ | --उद्देशक: २ शय्या: ** अध्ययनं २ लोकविजयः
|--उद्देशकः ५ हृदोपम:
| --उद्देशक: ३ परिषहः --उद्देशक: १ स्वजन: | --उद्देशक: ६ कमार्गत्याग:
--उद्देशक: ४ रोगातंक: ०७३ --उद्देशक: २ अदृढत्वम् ** अध्ययनं ६ दयुतं
श्रुतस्कंध-२ | --उद्देशक: ३ मदनिषेध: १८६ | --उद्देशक: १ स्वजनविधननं
चुडा-१ ०८४ | --उद्देशक: ४ भोगासक्ति :
|--उद्देशक: २ कर्मविधुननं
** | अध्ययनं १ पिण्डैषणा ०८८ |--उद्देशकः ५ लोकनिश्रा १९८ --उद्देशक: ३ उपकरण एवं
३३५ - (उद्देशका: १...११) ०९८ --उद्देशक: ६ अममत्वं
शरीर-विधननं
आहारग्रहण विधि: एवं निषेध: ** | अध्ययनं ३ शीतोष्णीयं २०१ |--उद्देशक: ४ गौरवत्रिकविधननं
आहारार्थे गमनविधि:,सइखडी१०९ --उद्देशक: १ भावस्प्त : २०७ | --उद्देशक: ५ उपसर्ग-सन्मान .
दोषः,पानकग्रहण विधि:,भोजन ११५ --उद्देशकः २ दुःखानुभव:
विधुननं
ग्रहण विधि:, इत्यादिः। १२५ --उद्देशक: ३ अक्रिया +-+ ___“अध्ययनं ७ व्यच्छिनम्"
| अध्ययनं २ शय्यैषणा १३४ --उद्देशक: ४ कषायवमनं ** | अध्ययनं ८ विमोक्षं
३९८ - (उद्देशका: १...३) ** अध्ययनं १ सम्यक्त्वं २१० --उद्देशक: १ कशीलपरित्याग: ।
शय्या-वसति ग्रहणे निषेध: व १३९ | --उद्देशकः १ सम्यकवादः २१५ --उद्देशक: अकल्प्य परित्याग:
| विधि:, संस्तारक प्रतिमा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
مواه
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मलाइका: ५५२
आचाराङ्ग सुत्रस्य विषयानुक्रम भाग-१ एवं २ निर्यक्ति गाथा: ३५६ मुलां |
विषय: | पृष्ठांक | | मूलांक:| विषय: पृष्ठांक | | मूलांक:| विषय: | पृष्ठांक: श्रुतस्कंध-२ चूडा-१ ** | अध्ययनं ६ पात्रैषणा
४९९ | सप्तैकक ३ उच्चार-प्रश्रवणं ** | अध्ययनं ३ इO ४८६ -- (उद्देशका: १, २)
५०२ । | सप्तैकक ४ शब्दः |--(उद्देशका: १...३) पात्रस्वरूपं, पात्रग्रहण विधि:
सप्तैकक ५ रूप: विहार निषेध: व विधि: वर्षा
निषेधश्च, पात्र पडिमा, पात्र
५०६ | सप्तैकक ६ परक्रिया वास:, गमनागमन विधि: व प्रमार्जना, पात्र परिग्रहणम्
| सप्तैकक ७ अन्योन्यक्रिया निषेधः,पथिना सह वार्ताविधि | अध्ययनं ७ अवग्रह प्रतिमा
चूडा-३ ** | अध्ययनं ४ भाषाजातं ४९५ |-- (उद्देशका: १, २)
५०९ भगवन महावीरस्य च्यवन,जन्म, ४६६ --उद्देशकः १ वचनविभक्तिः
अवग्रह आदि याचनाविधि:
दीक्षादि वर्णनम्, पंच महाव्रतस्य ४७० --उद्देशक: २ क्रोधोत्पतिवर्जनं
एवं अवग्रह पडिमा(७)
प्ररूपणा, तस्य पंच-पंच भावना ** | अध्ययनं ५ वस्त्रैषणा
चडा-२
चूडा-४ - ४७५ --उद्देशकः १ वस्त्रग्रहणविधि: ४९७ सप्तैकक १ स्थानं
अनित्यभावना, मुने:हस्ति आदि ४८३ ---उद्देशक: २ वस्त्रधारणविधि: ४९८ सप्तैकक २ निषिधिका:
-५५२ | उपमा,अन्त्कृत्+मोक्षगामी मनि० आचाराङ्ग सूत्रस्य संक्षिप्त विषयान्क्रम: परिसमाप्त: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-०१], अंग सूत्र-[१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
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[आचार- मूलं एवं वृत्ति:] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “आचाराङ्गसूत्र” के नामसे सन १९१६ (विक्रम संवत १९७२) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादकमहोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब |
इसी प्रत को फिर अपने नामसे 'जिनशासन आराधना ट्रस्ट' की तरफ से आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजीने छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, ऊपर अपना नाम एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. यह स्पष्ट रूपसे एक प्रकारसे अदत्तादान ही है, ऐसी अनेक प्रतो के अगले दो पेज पलटकर या नए डालकर उन्होंने अपने नामसे छपवाइ है, इस तरह वो अपने आपको बड़ा आगम संरक्षक साबित करनेकी अनुचित चेष्टा कर चुके है।
इसी आचारांग सूत्र की प्रत को ऑफसेट की मदद से आचार्य श्री नयचंद्रसागरसूरिजीने भी छपवाया है, समुदाय की वफादारी निभाते हुए इस पूज्यश्रीने पूज्य सागरानंदसूरीश्वरजी महाराजश्री का नाम बड़ी इज्जत के साथ अपनी जगह पे ही रखा है, और खुदका नाम पुन: संपादक रूप से पेश किया है | अपनी प्रस्तावनामें नयचंद्रसागरसूरिजी ने भी मेरी तरह उक्त बात का उल्लेख किया है।
इसी आचारांगसूत्र की प्रत को ऑफसेट की मदद से पूज्य जम्बविजयजी महाराजजीने श्री मोतीलाल बनारसीदास की तरफसे प्रकाशित करवाई है, जो की पुस्तक रूपसे बाईंडेड है, और परिशिष्टमें पूज्य श्री पन्यविजयजी संकलित शद्धि-वद्धि पत्रक दिया है।
- हमारा ये प्रयास क्यों? -* आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर श्रुतस्कंध-अध्ययन-उद्देशक-मूलसूत्र-नियुक्ति आदि के नंबर लिख दिए, ताकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन, उद्देशक आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके| हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस - दिए है और जहां गाथा है वहाँ |-|| ऐसी दो लाइन खींची है। हर पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट लिखी है |
शासनप्रभावक पूज्य आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी म.सा. की प्रेरणासे और श्री वर्धमान जैन आगममंदिर, पालिताणा की संपूर्ण द्रव्य सहाय से ये 'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' भाग-१ का मुद्रण हुआ है, हम उन के प्रति हमारा आभार व्यक्त करते है |
......मुनि दीपरत्नसागर.
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आगम
(०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१., अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-०१], अंग सूत्र-०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [-]
॥ अहम् ॥
श्रीसुधर्मस्वामिविरचित। श्रीश्रुतकेवलिभद्रबाहुखामिदृब्धनियुक्तियुतं । श्रीशीलाक्षाचार्यविहितविवरणसमन्वितं ।
श्रीआचाराङ्गसूत्रम्।
दीप अनुक्रम
[-]
ॐ नमः सर्वज्ञाय ॥ जयति समस्तवस्तुपर्यायविचारापास्ततीर्थिक, विहितैकैकतीर्थनयवादसमूहवशात्प्रतिष्ठितम् । बहुविधभनिसिद्धसिद्धान्तविधूनितमलमलीमसं, तीर्थमनादिनिधनगतमनुपममादिनतं जिनेश्वरैः ॥१॥ (स्कन्दकच्छन्दः) आचारशास्त्रं सुविनिश्चितं यथा, जगाद वीरो जगते हिताय यः। तथैव किञ्चिद्गदतः स एव मे, पुनातु धीमान् विनयार्पिता गिरः ॥२॥ शत्रपरिज्ञाविवरणमतिबहुगहनं च गन्धहस्तिकृतम् । तस्मात् सुखबोधार्थ गृह्णाम्यहमजसा सारम् ॥३॥
ForParaaEEDROIN
| वृत्तिकार रचित आरम्भिक गाथा:
[12]
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम [-]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र- १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ], उद्देशक [-], मूलं [–], निर्युक्ति: [-]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित .....आगमसूत्र - ०१], अंग सूत्र - ०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
॥ १ ॥
इह हि रागद्वेपमोहाद्यभिभूतेन सर्वेणापि संसारिजन्तुना शारीरमानसाने कातिकटुकदुःखोपनिपातपीडितेन तदपनयनाय हेयोपादेयपदार्थपरिज्ञाने यलो विधेयः, स च न विशिष्टविवेकमृते, विशिष्टविवेकश्च न प्राप्ताशेषातिशयकलापातोपदेशमन्तरेण, आप्तश्च रागद्वेषमोहादीनां दोषाणामात्यन्तिकप्रक्षयात् स चाहत एव, अतः प्रारभ्यतेऽर्हद्वचनानुयोगः, स च चतुर्धा, तद्यथा-धर्मकथानुयोगो गणितानुयोगो द्रव्यानुयोगश्चरणकरणानुयोगश्चेति, तत्र धर्मकथानुयोग उत्तराध्ययनादिकः, गणितानुयोगः सूर्यप्रज्ञत्यादिकः, द्रव्यानुयोगः पूर्व्वाणि सम्मत्यादिकश्च चरणकरणानुयोगश्चाचारादिकः, स च प्रधानतमः, शेषाणां तदर्थत्वात्, तदुक्तम्-चरणपडिवत्तिहेउं जेणियरे तिष्णि अणुओग"त्ति, तथा “चरणप डिवत्तिहेडं धम्मकहाकालदिक्खमादीया । दविए दंसणसोही दंसणसुद्धस्स चरणं तु ॥ १ ॥” गणधरैरप्यत एव तस्यैवादौ प्रणयनमकारि, अतस्तत्प्रतिपादकस्याचाराङ्गस्यानुयोगः समारभ्यते, स च परमपदप्राप्तिहेतुत्वात्सविघ्नः, तदुक्तम्“श्रेयांसि बहुविघ्नानि भवन्ति महतामपि । अश्रेयसि प्रवृत्तानां क्वापि यान्ति विनायकाः ॥ १ ॥" तस्मादशेषप्रत्यू| होपशमनाय मङ्गलमभिधेयं, तच्चादिमध्यावसानभेदात्रिधा, तत्रादिमङ्गलं 'सुयं मे आउसंतणं भगवया एवमक्खाय मि त्यादि, अत्र च भगवद्वचनानुवादो मङ्गलम्, अथवा श्रुतमिति श्रुतज्ञानं तच्च नन्द्यन्तः पातित्वान्मङ्गलमिति, एतच्चाविघ्नेनाभिलषितशास्त्रार्थपारगमनकारणं, मध्यमङ्गलं लोकसाराध्ययनपञ्चमोद्देशकसूत्रं 'से जहा केवि हरए पडिपुण्णे चिइ समंसि भोम्मे उवसन्तरए सारक्खमाणे' इत्यादि, अत्र च हृदगुणैराचार्य्यगुणोत्कीर्त्तनम् आचार्याश्च पश्ञ्चनमस्का
१ चरणप्रतिपत्तिहेतवो येनेतरे प्रयोऽनुयोगाः । चरणप्रतिपत्तिहेतो धर्मकथा कालदीक्षादिकाः । इन्ये दर्शनशुद्धिदर्शनशुद्धस्य चरणं तु ॥ १ ॥
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सूत्रस्य उपोद्घातः, चतुर् अनुयोगः
For Parts Onl
[13]
अध्ययनं १ उद्देशकः १
॥ १ ॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-०१], अंग सूत्र-०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
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रान्तःपातित्वान्मङ्गलमिति, एतच्चाभिलपितशास्त्रार्थस्थिरीकरणार्थम् , अवसानमङ्गलं नवमाध्ययनेऽवसानसूत्रम् 'अभिनिव्वुडे अमाई आवकहाए भगवं समियासी' अत्राभिनिवृतग्रहणं संसारमहातरुकन्दोच्छेद्यऽविप्रतिपच्या ध्यानकारित्वान्मङ्गालमिति, एतच्च शिष्यप्रशियसन्तानाव्यवच्छेदार्थमिति, अध्ययनगतसूत्रमङ्गलत्वप्रतिपादेने वाध्ययनानामपि मङ्गलत्वमुक्तमेवेति न प्रतन्यते, सर्वमेव वा शास्त्रं मङ्गल, ज्ञानरूपत्वात् , ज्ञानस्य च निर्जरार्थत्वात् , निर्जरार्थत्वेन च तस्याविप्रतिपत्तिः, यदुक्तम्-"जं अन्नाणी कर्म खवेइ बहुयाहिं वासकोडीहिं । तं नाणी तिहिँ गुत्तो खवेइ उस्सासमित्तेणं ॥१॥" मङ्गलशब्दनिरुक्तं च मां गालयत्यपनयति भवादिति मङ्गलं, मा भूगलो वियो गालो वा नाशः शास्त्रस्येति मङ्गलमित्यादि, शेषं त्वाक्षेपपरिहारादिकमन्यतोऽवसेयमिति ।
साम्प्रतमाचारानुयोगः प्रारभ्यते-आचारस्यानुयोगः-अर्थकथनमाचारानुयोगः, सूत्रादनु-पश्चादधस्य योगोऽनुयोगः, सूत्राध्ययनासश्चादर्थकथनमिति भावना, अणोर्वा लघीयसः सूत्रस्य महताऽर्थेन योगोऽनुयोगः, स चामीभिहारैरनुग-1 न्तव्यः, तद्यथा-निक्खेवेगहनिरुत्तिविहिपवित्ती य केण वा कस्स । तदारभेयलक्षण तदरिहपरिसा य सुत्तत्थो ॥ १ ॥ तब निक्षेपो-नामादिः सप्तधा, नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यानुयोगो द्वेधा-आगमतो नोआगमतश्च, तत्रागमतो ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तो, नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरतव्यतिरिक्तोऽनेकधा, द्रव्येण-सेटिकादिना द्रव्यस्य-आत्मपरमायादेद्रव्येनिषद्यादौ वा अनुयोगो द्रव्यानुयोगः, क्षेत्रानुयोगः क्षेत्रेण क्षेत्रस्य क्षेत्रे वाऽनुयोगः क्षेत्रानुयोगः, एवं कालेन कालस्य
* प्रतिशिष्येति प्र. १ यदज्ञानी कर्म क्षपति बहुकाभिर्वर्षकोटीभिः । तज्ज्ञानी त्रिभितः क्षपणत्युच्यासमात्रेण ॥१॥
दीप अनुक्रम
[-]
45-20
सूत्रस्य उपोद्घात:, आचारस्य अनुयोग:
[14]
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-०१], अंग सूत्र-०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्राक [-]
दीप अनुक्रम
श्रीआचा- काले वाऽनुयोगः कालानुयोगः, वचनानुयोग एकवचनादिना, भावानुयोगो देधा-आगमतो नोआगमतच, तत्राग-1 अध्ययन रावृत्तिःमतो ज्ञातोपयुक्तो, नोआगमतस्तु औपशमिकादिभावैः, तेषां चानुयोगोऽर्थकथनं भावानुयोगः, शेषमावश्यकानुसारेण| (शी०) ज्ञेयं, केवलमिहानुयोगस्य प्रस्तुतत्वात्तस्य चाचार्याधीनत्वात् केनेति द्वारं वित्रियते, तथोपक्रमादीनि च द्वाराणि प्रचुर
उद्देशकः१ तरोपयोगित्वादयन्ते, तत्र केनेति कथम्भूतेन ?, यथाभूतेन च सूरिणा व्याख्या कर्त्तव्या तथा प्रदश्यते-"देसकुलजाहरूबी संघयणी धिरजुओ अणासंसी । अविकत्थणो अमाई थिरपरिवाडी गहियवको ॥१॥ जियपरिसो जियनिहो
मज्झत्थो देसकालभावनू । आसन्नलद्धपइभो णाणाविहदेसभासण्णू ॥ २॥ पंचविहे आयारे जुत्तो सुत्तत्थतदुभयविपाहिन्नू । आहरणहेउकारणणयणिउणो गाहणाकुसलो ॥३॥ ससमयपरसमयविऊ गंभीरो दित्तिमं सिवो सोमो । गुण
सयकलिओ जुत्तो पवयणसारं परिकहे ॥ ४॥ आर्यदेशोद्भूतः सुखावबोधवचनो भवतीत्यतो देशग्रहणं, पैतृकं कुल-13 मिक्ष्वाकादि ज्ञातकुलश्च यथोक्षिप्तभारवहने न श्राम्यतीति, मातृकी जातिस्तसंपन्नो विनयादिगुणवान् भवति, 'यत्रा-3 कृतिस्तत्र गुणा वसन्ती'ति रूपग्रहणं, संहननधृतियुतो व्याख्यानादिषु न खेदमेति, अनाशंसी श्रोतृभ्यो न वस्त्राद्याकाति, अविकत्थनो हितमितभाषी, अमायी सर्वत्र विश्वास्यः, स्थिरपरिपाटिः परिचितग्रन्थस्य सूत्रार्थगलनासंभवात्, ग्राह्यवाक्यः सर्वत्रास्वलिताज्ञः, जितपर्षद् राजादिसदसि न क्षोभमुपयाति, जितनिद्रोऽप्रमत्तत्वान्निद्राप्रमादिनः शिष्यान् सुखेनैव प्रबोधयति, मध्यस्थः शिष्येषु समचित्तो भवति, देशकालभावज्ञः सुखेनैव गुणवद्देशादौ विहरिष्यति, आसन्नलब्धप्रतिभो द्राक् परवाद्युत्तरदानसमर्थों भवति, नानाविधदेशभाषाविधिज्ञस्य नानाविधदेशजाः शिष्याः व्याख्यानं सु-121
सूत्रस्य उपोद्घात:, आचारस्य अनुयोग:
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति : [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [-]
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खमवभोत्स्यन्ते, ज्ञानाद्याचारपश्चकयुक्तः श्रद्धेयवचनो भवति, सूत्रार्थतदुभयविधिज्ञ उत्सर्गापवादप्रपञ्च यथावद् ज्ञापयिष्यति, हेतूदाहरणनिमित्तनयमपञ्चज्ञः अनाकुलो हेत्वादीनाचष्टे, ग्राहणाकुशलो बहीभियुक्तिभिः शिष्यान् बोधयति, स्वसमयपरसमयज्ञः सुखेनैव तत्स्थापनोच्छेदी करिष्यति, गम्भीरः खेदसहर, दीप्तिमान् पराधृष्यः, शिवहेतुत्वात् शिवः, तदधिष्ठितदेशे मार्याद्युपशमनात्, सौम्यः सर्वजननयनमनोरमणीयः, गुणशतकलितः प्रश्रयादिगुणोपेतः, एवंविधः सूरिः प्रवचनानुयोगे योग्यो भवति ॥ तस्य चानुयोगस्य महापुरस्येव चत्वार्यनुयोगद्वाराणि-व्याख्याङ्गानि भवन्ति, तद्यथा -उपक्रमो निक्षेपोऽनुगमो नया, तत्रोपक्रमणमुपक्रमः उपक्रम्यतेऽनेनास्मादस्मिन्निति वोपक्रमः-व्याचिख्यासितशा
त्रस्य समीपानयनमित्यर्थः, स च शास्त्रीयलौकिकभेदाद् द्विधा, तत्र शास्त्रीयः आनुपूर्वी नाम प्रमाण वक्तव्यताऽर्था-| काधिकारः समवतारश्चेति षोढा, लौकिको नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात् षोदैव । निक्षेपणमनेनास्मादस्मिन्निति वा निक्षेपः, उपक्रमानीतस्य व्याचिण्यासितशाखस्य नामादिन्यसनमित्यर्थः, स च त्रिविधः, तद्यथा--ओघनिष्पन्नो नामनिष्पन्नः सूत्रालापकनिष्पन्नश्च, तत्रौघनिष्पन्नोऽङ्गाध्ययनादिसामान्याभिधानन्यासः, नामनिष्पन्न आचारशस्त्रपरिज्ञादि
विशेषाभिधाननामादिन्यासः, सूत्रालापकनिष्पन्नश्च सूत्रालापकानां नामादिन्यसनमिति । अनुगमनमनेनास्मादस्मिन्निति IS वाऽनगमः, अर्थकथनमित्यर्थः, स च द्विधा-निर्युक्त्यनुगमः सूत्रानुगमति, तत्र नियुक्त्यनुगमस्खिविधा, तद्यथा-18
निक्षेपनियुक्त्यनुगमः उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमः सूत्रसर्शिकनियुक्त्यनुगमश्चेति, तत्र निक्षेपनियुक्त्यनुगमो निक्षेप एव सामान्यविशेषाभिधानयोरोघनिष्पन्ननामनिष्पन्नाभ्यां निक्षेपाभ्यामनुगतः सूत्रापेक्षया वक्ष्यमाणलक्षणश्चेति, उपोद्घात
दीप अनुक्रम [-]
सूत्रस्य उपोद्घात:, चत्वारि अनुयोगद्वाराणि- उपक्रम आदि
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [१.] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
समाका
[-]
श्रीआचा
| निर्युक्त्यनुगमश्चाभ्यां द्वारगाथाभ्यामनुगन्तव्यः, तद्यथा-"उद्देसे णिदेसे य णिग्गमे खेत्तकालपुरिसे य । कारणपच्चयलराजवृत्तिः क्खण णए समोयारणाऽणुमए ॥ १॥ किं कतिविहं कस्स कहिं केसु कहं केचिरं हवइ कालं । कइ संतरमविरहियं भवा-12 (शी०) गरिस फासणणिरुत्ती ॥२॥" सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगमः सूत्रावयवानां नयैः साक्षेपपरिहारमर्थकथनं, स च सूत्रे सति 8
दिउद्देशकः१ भवति, सूत्रं च सूत्रानुगमे, स च सूत्रोच्चारणरूपः पदच्छेदरूपश्चेति । अनन्तधर्माध्यासितं वस्त्वेकेनैव धर्मेण नयन्ति
-परिच्छिन्दन्तीति ज्ञानविशेषा नयाः, ते च नैगमादयः सप्तेति । साम्प्रतमाचाराङ्गस्योपक्रमादीनामनुयोगद्वाराणां यथा18 योग किश्चिद् विभणिपुरशेषप्रत्यूहोपशमनाय मङ्गलार्थं प्रेक्षापूर्वकारिणां च प्रवृत्त्यर्थं सम्बन्धाभिधेयप्रयोजनप्रतिपादिकां3 है नियुक्तिकारो गाथामाह| वंदित्तु सब्वसिद्धे जिणे अ अणुओगदायए सब्वे । आयारस्स भगवओ निजुत्तिं कित्तइस्सामि ॥१॥
तत्र पन्दित्वा सर्वसिद्धान् जिनांश्चेति मङ्गलवचनम्, अनुयोगदायकानित्येतच सम्बन्धवचनमपि, आचार-1 हास्येत्यभिधेयवचनं, नियुक्किं करिष्ये इति प्रयोजनकथन मिति तात्पर्यार्थः, अवयवार्थस्तु 'वन्दित्वे'ति 'वदि अभि-
वादनस्तुत्यो'रित्यर्थद्वयाभिधायी धातुः, तत्राभिवादनं कायेन स्तुतिर्वाचा, अनयोक्ष मनःपूर्वकत्वात्करणत्रयेणापि नमस्कार आवेदितो भवति, सितं धमातमेषामिति सिद्धाः-प्रक्षीणाशेषकर्माणः, सर्वे च ते सिद्धाश्च सर्वसिद्धाः, सर्वन
१ उद्देशो निर्देषध निर्गमा क्षेत्र कालः पुरुषध । कारण प्रत्ययः लक्षणं नयाः समवतारः अनुमतम् ॥ १॥ कतिविध कसा क केषु कथं कियचिरं भवति कालम् । कति सान्तरमविरहितं भवाकर्षाः सर्शना निरुक्तिः ॥ २॥
दीप अनुक्रम
॥३
॥
awraturasurary.com
सूत्रस्य उपोद्घात:, नियुक्ति गाथाएँ- वंदन एवं प्रतिज्ञा गाथा
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
[-]
हणं तीर्थातीर्थानन्तरपरम्परादिसिद्धप्रतिपादक, ताम्वन्दित्वेति सम्बन्धः सर्वत्र योग्यः, रागद्वेषजितो जिना:-तीर्थकृतस्तानपि सर्वान अतीतानागतवर्त्तमानसर्वक्षेत्रगतानिति, अनुयोगदायिनः-सुधर्मस्वामिप्रभृतयो यावदस्य भगवतो नियुक्तिकारस्य भद्रबाहुस्वामिनश्चतुर्दशपूर्वधरस्याचार्योऽतस्तान् सर्वानिति, अनेन चाम्नायकथनेन स्वमनीषिकाव्युदासः कृतो भवति, 'वन्दित्वे ति क्त्वाप्रत्ययस्योत्तरक्रियासब्यपेक्षत्वादुत्तरक्रियामाह-'आचारस्य' यथार्थनाम्नः 'भगवत' इति अर्थधर्मप्रयत्नगुणभाजस्तस्यैवंविधस्य, निश्चयेनार्थप्रतिपादिका युक्तिनियुक्तिस्तां 'कीर्तयिष्ये' अभिधास्ये इति अन्तस्तत्वेन निष्पन्नां नियुक्फि बहिस्तत्त्वेन प्रकाशयिष्यामीत्यर्थः ॥१॥ यथाप्रतिज्ञातमेव विभणिनिक्षेपार्हाणि पदानि तावत् सुह-1 भृत्वाऽऽचार्यः संपिण्ड्य कथयति
आयार अंग सुयखंध बंभ चरणे तहेव सत्थे य । परिणाए संणाए निक्खेवो तह दिसाणं च ॥२॥ आचारअङ्गश्रुतस्कन्धब्रह्मचरणशस्त्रपरिज्ञासंज्ञादिशामित्येतेषां निक्षेपः कर्तव्य इति । तत्राचारब्रह्मचरणशस्त्रपरिज्ञा-16 शब्दा नामनिष्पन्ने निक्षेपे द्रष्टव्याः, अङ्गश्रुतस्कन्धशब्दा ओघनिष्पन्ने, संज्ञादिक्शब्दी सूत्रालापकनिष्पने निक्षेपे द्रष्टव्याविति ॥ २॥ एतेषां मध्ये कस्य कतिविधो निक्षेप इत्यत आहचरणदिसावजाणं निक्खेचो चउकओ य नायव्यो । चरणमि छविहो खलु सत्तविहो होइ उ दिसाणं ॥३॥8 १ चान्द्रमतेन णिज उभयपदभावात् ।
दीप अनुक्रम
CLA
-2-5-45%
84%-2250*50*5%%%
सूत्रस्य उपोद्घात:, नियुक्ति गाथाएँ- आयार, अंग, इत्यादि शब्दस्य निक्षेपा:
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक [-]
दीप
अनुक्रम
[-]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ], उद्देशक [-], मूलं [-], निर्युक्तिः [३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र- [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
चरणदिग्वजनां चतुर्विधो निक्षेपः, चरणस्य षड्रविधः, दिक्शब्दस्य सप्तविधो निक्षेपः, अत्र च क्षेत्रकालादिकं यथा| सम्भवमायोज्यम् ॥ ३ ॥ नामादिचतुष्टयं सर्वव्यापीति दर्शयितुमाह
॥ ४ ॥
जत्थ य जं जाणिज्जा निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं । जत्थविय न जाणिजा चकयं निक्खिवे तत्थ ॥ ४ ॥ 'यत्र' चरणदिक्शब्दादी यं निक्षेपं क्षेत्रकालादिकं जानीयात्तं तत्र निरवशेषं निक्षिपेद्, यत्र तु निरवशेषं न जानीयादा५ चाराङ्गादौ तत्रापि नामस्थापनाद्रव्यभावचतुष्कात्मकं निक्षेपं निक्षिपेदित्युपदेश इति गाथार्थः ॥ ४ ॥ प्रदेशान्तरप्रसिद्धस्यार्थस्य लाघवमिच्छता नियुक्तिकारण गाथाऽभ्यधायि
श्रीआचा
रानवृत्तिः (शी०)
आयारे अंगंमि यदिट्ठो चक्कनिक्स्वेवो । नवरं पुण नाणत्तं भावायारंमि तं वोच्छ्रं ॥ ५ ॥ क्षुल्लिकाचारकथायामाचारस्य पूर्वोद्दिष्टो निक्षेपः अङ्गस्य तु चतुरङ्गाध्ययन इति, यश्चात्र विशेषः सोऽभिधीयते - 'भावाचारविषय' इति ॥ ५ ॥ यथाप्रतिज्ञातमाह-
तस्सेग पवतण पढमंग गणी तहेव परिमाणे । समोयारे सारो य सतहि दारेहि नाणतं ॥ ६ ॥ 'तस्य' भावाचारस्य एकार्थाभिधायिनो वाच्याः, तथा केन प्रकारेण प्रवृत्तिः प्रवर्त्तनमाचारस्याभूत् तच वाच्यं तथा प्रथमाङ्गता च वाच्या, तथा गणी आचार्यस्तस्य कतिविधं स्थानमिदमिति च वाच्यं तथा 'परिमाणम्' इयत्ता वाच्या, तथा किं क समवतरतीत्येतश्च वाच्यं तथा सारश्च वाच्यः, इत्येभिर्द्धरिः पूर्वस्माद्भावाचारादस्य भेदो-नानात्वमिति पिण्डार्थः ॥ ६ ॥ अवयवार्थं तु निर्युक्तिकृदेवाभिधातुमाह
सूत्रस्य उपोद्घातः, निर्युक्ति गाथाएँ- भावाचार:
For Parts Only
[19]
अध्ययनं १ उद्देशकः १
॥ ४ ॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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प्रत
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सूत्राक
आयारो आचालो आगालो आगरो य आसासो । आयरिसो अंगति य आइण्णाऽऽजाइ आमोक्खा ॥७॥ आचर्यते आसेव्यत इत्याचारः, स च नामादिचतुर्दा, तत्र ज्ञशरीरभव्यशरीरतम्यतिरिको द्रव्याचारोऽनया गाथयाऽनुसतंब्या-णामणधोयणवासणसिक्खावणसुकरणाविरोहीणि । दब्वाणि जाणि लोए दवायारं वियाणाहि ॥१॥ भावाचारो द्विधा-लौकिको लोकोत्तरश्च, तत्र लौकिकः पाण्डिकादयः पञ्चरात्रादिकं यत् कुर्वन्ति |स विज्ञेयो, लोकोत्तरस्तु पञ्चधा ज्ञानादिका, तत्र ज्ञानाचारोऽष्टधा, तद्यथा-काले विणए बहुमाणे उवहाणे तहा अणिण्हवणे । वंजणअत्थतदुभए अहविहो णाणमायारो ॥१॥' दर्शनाचारोऽप्यष्टधैव, तद्यथा-'निस्सं| कियनिकंखिय निवितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य । उववूहथिरीकरणे वच्छल्लपभावणे अट्ठ ॥२॥' चारित्राचारो
|ऽप्यष्टधैव,-'तिन्नेव य गुत्तीओ पंच समिइओ अह मिलियाओ । पवयणमाईल इमा तासु ठिओ चरणसंपन्नो दि॥३॥' तपआचारो द्वादशधा, तद्यथा-'अणसणमूणोयरिया वित्तीसंखेवणं रसच्चाओ । कायकिलेसो संलीणया य
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दीप अनुक्रम [-]
नामनपावनवासनशिक्षणसुकरणाविरोधीनि । व्यानि यानि लोके द्रव्याचारं विजानीहि ॥१॥
२ कालो विनयः बहुमानः उपधानं राधा अनिहवः । व्यजनमर्थस्तबुभयस्मिन् अविधो शानाचारः ॥ १॥ निवाधितो निष्काहितो निर्विचिकित्सोऽमूढदृष्टिय । उपहा स्थिरीकरणं वात्सल्य प्रभावनाअष्टौ ॥ ३॥ तिल एव च गुप्तयः पश्च समितयोऽष्ट मिलिताः । प्रवचनमातर इमासामु स्थितधरणसंपन्नः ॥ ३ ॥ अनशन| मवमोदय वृतिसंक्षेपर्ण रसयागः । कायशः संलीनता बराचं तपो भवति ॥ ४ ॥ प्रायश्चित्तं विनयो चैयारय तथैव खाध्यायः । ध्यानमुत्सगोऽपि च अभ्यन्तरं | तपो भवति ॥ ५॥ बनिहितबलनीयः पराक्रमते यो यथोक्तमायुक्तः । युनक्ति च यथास्थाम हातव्यः स वीर्याचारः ॥५॥
सूत्रस्य उपोद्घातः, आचार शब्दस्य पर्यायाः, पंचाचार वर्णनम्
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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सूत्राक
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दीप अनुक्रम
श्रीआचा- बज्झो तयो होइ ॥४॥ पायच्छित्तं विणओ बेयावच्चं तहेव सज्झाओ । झाणं उस्सग्गोविय अम्भितरओ तवो होइअध्ययनं? राङ्गबृत्तिः ॥५॥" वीर्याचारस्वनेकधा-'अणिमूहियबलविरिओ परकमइ जो जहुत्तमाउत्तो । जुंजइ य जहाथामं नायब्धो वीरि-18
उद्देशकः१ (शी०) यायारो॥६॥ एष पश्चविध आचारः, एतत्प्रतिपादकश्चायमेव ग्रन्थविशेषो भावाचारः, एवं सर्वत्र योज्यम् । इदानी
माचालः, आचाल्यतेऽनेनातिनिविडं कर्मादीत्याचालः, सोऽपि चतुर्धा, व्यतिरिक्तो वायुः, भावाचालस्त्वयमेव ज्ञानादिः ॥५ ॥
पञ्चधा । इदानीमागालः, आगालनमागालः-समप्रदेशावस्थानं, सोऽपि चतुर्धा, व्यतिरिक्त उदकादेनिम्नप्रदेशावस्थानं, भावागालो ज्ञानादिक एव, तस्यात्मनि रागादिरहितेऽवस्थानमितिकृत्वा । इदानीमाकरः, आगत्य तस्मिन् कुर्वन्तीत्याकरः, नामादिः, तत्र व्यतिरिक्को रजतादिः, भावाकरोऽयमेव ज्ञानादिः, तत्प्रतिपादकश्चायमेव ग्रन्थो, निर्जरादिरलाना-13 मत्र लाभात् । इदानीमाश्वासः, आश्वसन्त्यस्मिन्निल्याश्वासो नामादिः, तत्र व्यतिरिक्तो यानपात्रद्वीपादिः, भावाश्वासो ज्ञानादिरेव । इदानीमादर्शः, आदृश्यते अस्मिन्नित्यादर्शों नामादिः, व्यतिरिक्तो दर्पणः, भावादर्श उक्त एव, यतोऽस्मिनितिकर्तव्यता दृश्यते । इदानीमङ्गम् , अज्यते-व्यक्तीक्रियते अस्मिन्नित्यङ्गं, नामायेब, तत्र व्यतिरिक्तं शिरोबाहादि, भावाङ्गमयमेवाचारः । इदानीमाचीर्णम्-आसेवितं, तच्च नामादिषोढा, तत्र व्यतिरिक्तं द्रव्याचीर्ण सिंहादेस्तृणादिपरि
हारेण पिशितभक्षणं, क्षेत्राचीर्ण वाल्हीकेषु सक्तवः कोङ्कणेषु पेया, कालाचीण विदं-'सरसो चंदणपंको अग्यद सरसा ४ाय गंधकासाई । पाडलिसिरीसमल्लिय पियाइँ काले निदाहमि ॥१॥ भावाचीर्ण तु ज्ञानादिपञ्चकं, तत्प्रतिपादकश्चाचा-18
१ सरसचन्दनपोऽर्षति सरसा च गन्धकाधायिकी । पाटलशिरीपमलिकाः प्रियाः काले निदापे ॥१॥
ACADAGA
सूत्रस्य उपोद्घात:, आचार शब्दस्य पर्याया:,
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
[-]
सरग्रन्थः । इदानीमाजातिः, आजायन्ते तस्यामित्याजातिः, साऽपि चतुर्दा, व्यतिरिक्ता मनुष्यादिजातिः, भावाजातिस्तु
ज्ञानाद्याचारप्रसूतिरयमेव ग्रन्थ इति । इदानीमामोक्षः, आमुच्यन्तेऽस्मिन्नित्यामोक्षणं वाऽऽमोक्षो, नामादिः, तत्र व्यतिरिक्तो निगडादेः, भावामोक्षः कर्माष्टकोद्वेष्टनमशेषमेतत्साधकश्चायमेवाचार इति । एते किश्चिद्विशेषादेकमेवार्थं विशिंपन्तः प्रवर्त्तन्त इत्येकार्थिकाः, शक्रपुरन्दरादिवत् , एकार्थाभिधायिनां च छन्दश्चितिबन्धानुलोम्यादिपतिपत्त्यर्थमुद्घट्टनम् , उक्तं च-"बंधाणुलोमया खलु सत्थंमि य लाघवं असम्मोहो । संतगुणदीवणाविय एगहगुणा हवंतेए ॥१॥" ॥७॥ इदानीं प्रवर्त्तनाद्वार, कदा पुनर्भगवताऽऽचारः प्रणीत इत्यत आह
सब्वेसिं आयारो तित्थस्स पवत्तणे पढ़मयाए । सेसाई अंगाई एकारस आणुपुब्बीए ॥८॥ सर्वेषां तीर्थडकराणां तीर्थप्रवर्त्तनादावाचारार्थः प्रथमतयाऽभवद्भवति भविष्यति च, ततः शेषाङ्गार्थ इति, गणधरा अप्यनयैवानुपूर्त्या सूत्रतया प्रश्नन्तीति ।। ८॥ इदानी प्रथमत्वे हेतुमाह
आयारो अंगाणं पढम अंग दुवालसण्हंपि । इत्थ य मोक्खोवाओ एस य सारो पवयणस्स ॥९॥ अयमाचारो द्वादशानामप्यङ्गानां प्रथममङ्गमित्यनूद्य कारणमाह-यतोऽत्र मोक्षोपाय:-चरणकरणं प्रतिपाद्यते, एष || च प्रवचनस्य सार प्रधानमोक्षहेतुप्रतिपादनाद्, अत्र च स्थितस्य शेषाङ्गाध्ययनयोग्यत्वाद् अस्य प्रथमतयोपन्यास इति ॥ulk| इदानी गणिद्वारं, साधुवर्गो गुणगणो वा गणः सोऽस्यास्तीति गणी, आचारायत्तं च गणित्वमिति प्रदर्शयन्नाह
१ अन्धानुलोमता सल शासनेच लाघवमसंमोहः । सगुणदीपनमपि च एकार्षगुणा भवन्त्येते ॥१॥
दीप अनुक्रम
2-%
94256
सूत्रस्य उपोद्घात:, 'आचार' अंगसूत्रस्य प्रथमत्वम्
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम [-]
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ], उद्देशक [-], मूलं [–], निर्युक्तिः [१०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र- [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः *
( शी०)
॥६॥
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः)
-
आयारम्मि अहीए जं नाओ होइ समणधम्मो उ । तम्हा आयारधरो भण्णइ पढमं गणिद्वाणं ॥ १० ॥ यस्मादाचाराध्ययनात् क्षान्त्यादिकश्चरणकरणात्मको वा श्रमणधर्म्मः परिज्ञातो भवति, तस्मात्सर्वेषां गणित्वकारणानामाचारधरत्वं प्रथमम् आयं प्रधानं वा गणिस्थानमिति ॥ १०॥ इदानीं परिमाणं किं पुनरस्याध्ययनतः पदतश्च परिमा णमित्यत आह
णवयंभचेरमइओ अट्ठारसपयसहस्सिओ वेओ । हवह य सपंचचूलो बहुबहुतरओ पयग्गेणं ॥ ११ ॥ तत्राध्ययनतो नवब्रह्मचर्य्याभिधानाध्ययनात्मकोऽयं पदतोऽष्टादशपदसहस्रात्मको 'वेद' इति विदन्त्यस्माद्धेयोपादेयपदार्थानिति वेदः क्षायोपशमिकभाववर्त्ययमाचार इति । सह पश्चभिक्षूडाभिर्वर्त्तत इति सपञ्चचूडश्च भवति, उक्तशेषानु
(0)
वादिनी चूडा, तत्र प्रथमा "पिंडेसण सेज्जिरियाभासज्जाया य वत्थपाएसा उग्गहपडिमत्ति' सप्ताध्ययनात्मिका, द्वितीया सत्तसत्तिकया, तृतीया भावना, चतुर्थी विमुक्तिः, पञ्चमी निशीथाध्ययनं, 'बहुबहुरओ पदग्गेणं'ति तत्र चतुश्चूलिकात्मकद्वितीय श्रुतस्कन्धप्रक्षेपाद्बहुः, निशीथाख्यपञ्च मचूलिकाप्रक्षेपाद्बहुतरोऽनन्तगमपर्य्यायात्मकतया बहुतमश्च पदाग्रेण पदपरिमाणेन भवतीति ॥ ११ ॥ इदानीमुपक्रमान्तर्गतं समयतारद्वारं, तत्रैताथूडा नवसु ब्रह्मचर्याध्ययनेष्ववतरन्तीति दर्शयितुमाह-
* पिडेसिज्जरिया भासा बाणा व पाएसा इति प्र.
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(1) (2) (2) (x)
सूत्रस्य उपोद्घातः, आचार सूत्रस्य अध्ययनानि एवं पद प्रमाणम्
For Parts Only
[23]
अध्ययनं १
उद्देशकः १
॥६॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति : [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
आयारग्गाणत्यो बंभचेरेसु सो समोयरइ । सोऽवि य सत्थपरिणाएँ पिंडिअत्यो समोयरइ ॥१२॥ सत्थपरिण्णाअत्थो छस्सुवि काएसु सो समोयरइ। छज्जीवणियाअत्थो पंचमुवि वएम ओयरइ ॥१३॥ पंच य महब्बयाई समोयरंते य सव्वदन्वेसुं। सव्वेसि पज्जवाणं अर्णतभागम्मि ओयरइ ॥१४॥
उत्तानार्थाः, नवरम् 'आचारामाणि'चूलिकाः द्रव्याणि-धर्मास्तिकायादीनि पर्याया-अगुरुलध्वादयः तेषामनन्तभागे |व्रतानामवतार इति ॥ १२-१३-१४ ॥ कथं पुनर्महात्रतानां सर्वद्रव्येष्ववतार इति?, तदाह
छज्जीवणिया पढमे बीए चरिमेय सब्वव्बाई । सेसा महव्वया खलु तदेकदेसेण दवाणं ॥१५॥ __ 'छज्जीवणिया इत्यादिस्सष्टा, कथं पुनर्महाव्रतानां सर्वद्रव्येष्ववतारो न सर्वपर्यायेष्विति उच्यते, येनाभिप्रायेण चोदितवांस्तमाविष्कर्तुमाह--"णणु सब्बणभपएसाणंतगुणं पढमसंजमहाणं । छविहपरिवुड्डीए छहाणासंखया सेढी॥१॥12 अन्ने के पजाया ? जेणुवउत्ता चरित्तविसयम्मि । जे तत्तोऽणतगुणा जेसि तमणंतभागम्मि ॥२॥ अन्ने केवलगम्मत्ति ते मई ते य के तदन्भहिया । एवंपि होज तुला णाणतगुणत्तणं जुत्तं ॥३॥ चो० सेढीसु णाणदंसणपज्जाया तेण तप्पमाणेसा । इह पुण चरित्तमेत्तोवोगिणो तेण ते थोवा ॥ ४ ॥ अयमासामर्थों लेशतः-नन्वित्यसूयायां, संयमस्थाना-2 न्यसंख्यातानि तावद्भवन्ति, तेषां यजघन्यं तदविभागपलिच्छेदेन बुद्धा खण्ड्यमानं पर्यायैरनन्ताविभागपलिच्छेदात्मक | भवति, तच्च पर्यायसंख्यया निर्दिष्टं सर्वाकाशप्रदेशसंख्याया अनन्तगुणं, सर्वनभम्प्रदेशवर्गीकृतप्रमाणमित्यर्थः, ततो द्विती
षड्जीवनि कामः प्रथमे द्वितीये चरमे च सर्वव्याणि । शेषाणि महामतानि खाल तदेकदेशेन व्याणाम् ।
.३
सूत्रस्य उपोद्घात:, महाव्रतानाम् सर्वद्रव्येषु अवतार:
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सत्रांक
[-]
CLOCACA
दीप अनुक्रम [-]
श्रीआचा- यादिस्थानैरसंख्यातगच्छगतैरनन्तभागादिकया वृद्ध्या षट्स्थानकानामसंख्येयस्थानगता श्रेणिर्भवति, एवं चैकमपि स्थान अध्ययनं १ राङ्गवृत्तिः। सर्वपर्यायान्वितं न शक्यते परिच्छेत्तुं, किं पुनः सर्वाण्यपीत्यतः केऽन्ये पर्यायाः येषामनन्तभागे प्रतानि वर्तेरनिति ।। (शी०) स्थान्मतिः, अन्ये केवलगम्या इति, इदमुक्तं भवति-केवलगम्याप्रज्ञापनीयपर्यायाणामपि तत्र प्रक्षेपाहत्वम्, एवमपि||
उद्देशकः | ज्ञानज्ञेययोस्तुल्यत्वाचल्या एव नानन्तगुणा इति । अत्रोचार्य आह-याऽसौ संयमस्थानश्रेणिनिरूपिता सा सर्वा चारि
पर्यायैर्ज्ञानदर्शनपर्यायसहितैः परिपूर्णा तत्प्रमाणा-सर्वाकाशप्रदेशानन्तगुणा, इह पुनश्चारित्रमात्रोपयोगित्वात्पर्यायानIMIन्तभागवृत्तित्वमित्यदोषः । इदानीं सारद्वार, कः कस्य सार इत्याह
__अंगाणं किं सारो? आयारो.तस्स हवह किं सारो? अणुओगत्थो सारो तस्सवि य परूवणा सारो॥१६॥ स्पष्टा, केवलमनुयोगार्थो-व्याख्यानभूतोऽर्थस्तस्य प्ररूपणा-यथास्वं विनियोग इति । अन्यच्च
सारो परूवणाए चरणं तस्सवि य होइ निब्चाणं । निव्वाणस्स उ सारो अब्बावाहं जिणा विति ॥१७॥
सप्टेव । इदानीं श्रुतस्कन्धपदयोर्नामादिनिक्षेपादिकं पूर्ववद्विधेयं, भावेन चेहाधिकारः, भावश्रुतस्कन्धश्च ब्रह्मचर्यादात्मक इत्यतो ब्रह्मचरणशब्दौ निक्षेप्तव्यावित्याह
बंभम्मी य चउकं ठवणाए होइ बंभणुप्पत्ती । सत्तण्हं वण्णाणं नवण्ह वण्णंतराणं च ॥१८॥ तत्र ब्रह्म नामादिचतुर्दा, तत्र नामब्रह्म ब्रह्मेत्यभिधानम् , असद्भावस्थापना अक्षादी सद्भावस्थापना प्रतिविशिष्टय| आचार्या आहुः प्र.
%ACESS
सूत्रस्य उपोद्घात:, सार द्वार
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति : [१८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सुत्राक [-]
CAKAR
दीप अनुक्रम
|ज्ञोपवीतायाकृतिमूलेप्यादी द्रव्ये, अथवा स्थापनायां व्याख्यायमानायां ब्राह्मणोसत्तिर्वक्तव्या, तत्प्रसङ्गेन च सप्तानां वर्णानां नवानां च वर्णान्तराणामुत्पत्तिणनीयेति । यथाप्रतिज्ञातमाह
एका मणुस्सजाई रजुप्पत्तीइ दो कया उसमे। तिण्णेव सिप्पणिए सावगधम्मम्मि चत्तारि ॥१९॥ ___ यावन्नाभेयो भगवान्नाद्यापि राजलक्ष्मीमध्यास्ते, तावदेकैव मनुष्यजातिः, तस्यैव राज्योत्सत्ती भगवन्तमेवाश्रित्य ये181 |स्थितास्ते क्षत्रियाः, शेषाश्च शोचनाद्रोदनाच्च शुदाः, पुनरझ्युत्पत्तावयस्कारादिशिल्पवाणिज्यवृत्त्या वेशनाद्वैश्याः, भग-| |वतो ज्ञानोत्पत्ती भरतकाकणीलाञ्छनाच्छ्रावका एव ब्राह्मणा जज्ञिरे, एते शुद्धाखयश्चान्ये गाथान्तरितगाथया प्रदर्श-1 | यिष्यन्ते ॥ साम्प्रतं वर्णवर्णान्तरनिष्पन्नं संख्यानमाह
संजोगे सोलसगं सत्त य वण्णा उ नव य अंतरिणो । एए दोवि विगप्पा ठवणा वंभस्स णायच्वा ॥२०॥ संयोगेन पोडश वर्णाः समुत्पन्नाः, तत्र सप्त वर्णा नव तु वर्णान्तराणि, एतच्च वर्णवर्णान्तरविकल्पद्वयं स्थापनाब्रह्मेति ज्ञातव्यम् ॥ साम्प्रतं पूर्वसूचितं वर्णत्रयमाह-यदि वा प्रागुद्दिष्टान् सप्त वर्णानाह
पगई चउक्कगाणंतरे य ते टुति सत्त चण्णा उ । आणंतरेसु चरमो वपणो खलु होइ णायब्चो ॥२१॥
१जे राय अस्सिता ते खतिआ जाया, अणस्सिया गिहवणी जाया, जया अग्गी उप्पणो तया पागभावस्सित्ता सिप्पिया पाणियगा जाया, तेहिं तेहिं सिष्यवाणिज्जेहिं विति विसंगीति बदस्सा उप्पण्णा । भट्टारए पच्चइए भरहे अभिसित्ते सावधम्मे उप्पण्ये बंभणा जाया, णिस्थिता बंभणा जावा, माहणत्ति उकस्सगभावा धम्मपि जं च किंचिति हणतं पिच्छंति तं निवारेंति मा हण भो मा इण, एवं ते जण सुकम्मनिव्वत्तितसण्णा बंभणा जाया । जे पुण अणसिता असिप्पिणो असावचा ते वयं मला इतिकाउं तेनु तेगु पोयणेसु हिंसायोरियादियासु दुभमाणा सोगदोदणसीला मुद्दा संनुत्ता (इति चूर्णिः),
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सूत्रस्य उपोद्घातः, मनुष्यजाती/वर्ण एवं वर्णान्तरम्
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
॥८॥
[-]
श्रीआचा- प्रकृतयश्चतम्रा-ब्राह्मणक्षत्रियवैश्वशूद्राख्या आसामेव चतसृणामनन्तरयोगेन प्रत्येकं वर्णत्रयोत्पत्तिः, तद्यथा-द्विजेन राङ्गवृत्तिः क्षत्रिययोपितो जातः प्रधानक्षत्रियः संकरक्षत्रियो वा, एवं क्षत्रियेण वैश्ययोषितो वैश्येन शूद्याः प्रधानसंकरभेदी वक्त-18 (शी०)18 च्यावित्येवं सप्त वर्णा भवन्ति, अनन्तरेषु भवा आनन्तरास्तेषु योगेषु चरमवर्णव्यपदेशो भवति-ब्राह्मणेन क्षत्रियायाः
उद्देशकः१ क्षत्रियो भवतीत्यादि, स च स्वस्थाने प्रधानो भवतीतिभावः ॥ इदानी वर्णान्तराणां नवानां नामान्याह
अंबटुग्गनिसाधा य अजोगवं मागहा य सूया य । खत्ता(य) विदेहाविय चंडाला नवमगा हुंति ॥ २२॥ अम्बष्ठ उग्रः निषादः अयोगवं मागधः सूतः क्षत्ता विदेहः चाण्डालश्चेति ॥ कथमेते भवन्तीत्याहएगंतरिए इणमो अंबडो चेव होइ उग्गो य । विइयंतरिअ निसाओ परासरं तं च पुण वेगे ॥२३॥ पडिलोमे सुबाई अजोगवं मागहो य सूओ अ । एगंतरिए खत्ता चेदेहा चेव नायब्वा ॥ २४ ॥ वितियंतरे नियमा चण्डालो सोऽनि होइ णायव्यो । अणुलोमे पडिलोमे एवं एए भवे भेया ॥२५॥ आसाम? यन्त्रकादवसेयः, तच्चेदम्ब्रह्मपुरुषः क्षत्रियः पुरुषः मानणः पुरुषः | शहः पुरुषः । वैश्यपुरुषः क्षत्रियः पुरुषः| शबः पुरुषः । श्यपुरुषः । परपुरुषः वैश्या श्री शुद्री श्री | वाहीनी | वैश्या स्त्री क्षत्रिया स्त्री ब्रह्मस्त्री क्षत्रियासी माहात्री
बानी अम्बष्ठः | उग्रः निषादः । अयोगवम् मागधः सूतः क्षता
याण्डासः पारासरो वा एतानि नव वर्णान्तराणि, इदानीं वर्णान्तराणां संयोगोत्पत्तिमाह
दीप अनुक्रम
CCCASEXREAKS
सूत्रस्य उपोद्घातः, मनुष्यजाती/वर्ण एवं वर्णान्तरम्
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गम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति : [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
[-]
दीप अनुक्रम
जग्गेणं खत्साए सोवागो वेणवो विदेहेणं । अंबडीए सुदीय बुफसो जो निसाएणं ॥ २६ ॥ सूएण निसाईए कुक्करओ सोवि होइ णायब्वो । एसो बीओ भेओ चउविहो होइ णायब्वो ॥२७॥ अनयोरप्यों यन्त्रकादवसेयः, तच्चेदम् । उग्रपुरुषः विदेहः पुरुषः
निषादः पुरुषः । शूद्रः पुरुषः क्षत्ता खी
क्षत्ता स्त्री अम्बष्ठी खी शूद्री स्त्री वा निषादस्त्री श्वपाका वैणवः बुक्कसः
कुकुरका गतं स्थापनाबा, इदानी द्रव्यब्रह्मप्रतिपादनाय आह
दब्वं सरीरभविओ अन्नाणी वस्थिसंजमो चेव । भावे उ चत्थिसंजम णायव्यो संजमो चेव ॥ २८ ॥ ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिकं शाक्यपरिव्राजकादीनामज्ञानानुगतचेतसां बस्तिनिरोधमात्रं विधवाप्रोषितभर्तृकादीनां च कुलव्यवस्था) कारितानुमतियुक्तं द्रव्यब्रह्म, भावब्रह्म तु साधूनां बस्तिसंयमः, अष्टादशभेदरूपोऽप्ययं संयम एव, सप्तदशविधसंयमाभिन्नरूपत्वादस्पेति, अष्टादश भेदास्त्वमी-दिव्यात्कामरतिसुखात् त्रिविधं त्रिविधेन विरतिरिति नवकम् । ट्र औदारिकादपि तथा तब्रह्माष्टादशविकल्पम् ॥१॥ चरणनिक्षेपार्थमाह
चरणमि होइ छर्फ गइमाहारोगुणो व चरणंचा खितमि जंमि खित्ते काले कालो जहिं जाओ(जो उ)॥२९॥ १ तब प्रथमचतुष्कोकादगम्तव्यम् प्र.
सूत्रस्य उपोद्घातः, मनुष्यजाती/वर्ण एवं वर्णान्तरम्, द्रव्यब्रह्म
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति : [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचा
अध्ययन
प्रत
(शी०)
दशकार
सुत्रांक
[-]
दीप अनुक्रम [-]
13152515256055
चरणं नामादिषोढा, व्यतिरिक्तं द्रव्यचरणं त्रिधा भवति-गतिभक्षणगुणभेदात् , तत्र गतिचरणं गमनमेव, आहारच- रणं मोदकादेः, गुणचरणं द्विधा-लौकिकं लोकोत्तरं च, लौकिक यत् द्रव्याथै हस्तिशिक्षादिक वैद्यकादिक वा शिक्षन्ते, लोकोत्तरं साधूनामनुपयुक्तचरणमुदायिनृपमारकादेर्वा, क्षेत्रचरणं यस्मिन् क्षेत्रे गत्याहारादि चर्यते व्याख्यायते वा, शब्दसामान्यान्तर्भावाद्वा शालिक्षेत्रादिचरणमिति, कालेऽप्येवमेव ॥ भावचरणमाह
भावे गइमाहारो गुणो गुणवओ पसत्यमपसस्था । गुणचरणे पसत्थेण बंभचेरा नव हवंति ॥३०॥
भावचरणमपि गत्याहारगुणभेदात् त्रिधा, तत्र गतिचरणं साधोरुपयुक्तस्य युगमात्रदत्तदृष्टेर्गच्छतः, भक्षणचरणमपि 8|शुद्धं पिण्डमुपभुजानस्य, गुणचरणमप्रशस्तं मिध्यादृष्टीनां सम्यग्दृष्टीनामपि सनिदानं, प्रशस्तं तेषामेव कर्मोद्वेष्टनार्थ |
मूलोत्तरगुणकलापविषयम् , इह चानेनैवाधिकारो, यतो नवाप्यध्ययनानि मूलोत्तरगुणस्थापकानि निजेरार्थेमनुशील्यन्ते । एतेषां चान्वार्थाभिधानानि दर्शयितुमाहसत्थपरिण्णा १ लोगविजओरय सीओसणिज्ज ३ सम्मत्तं तह लोगसारनामं५धुयं ६ तह महापरिणा७य ३१ अट्ठमए य विमोक्खो ८ उवहाणसुयं ९ च नवमर्ग भणियं । इचेसो आयारो आयारग्गाणि सेसाणि ॥ ३२॥
स्पष्टे, केवलमित्येष नवाध्ययनरूप आचारो, द्वितीयश्रुतस्कन्धाध्ययनानि तु शेषाणि-आचाराग्राणीति ॥ साम्प्रतमुपमान्तर्गतोऽर्थाधिकारी द्वेधा-अध्ययनार्थाधिकार उद्देशार्थाधिकारश्च, तत्राद्यमाह
॥
९
सूत्रस्य उपोद्घात:, चरण-निक्षेपाः, अध्ययन-नामानि
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति : [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सत्रांक
[-]
दीप अनक्रम
जिअसंजमोर अलोगोजह वज्झइ जह य तंपजहियव्वं ।सुहदुक्खतितिक्खावियसम्मत्तंश्लोगसारो ५य ३३ निस्संगया ६ य छठे मोहसमुत्था परीसहुवसग्गा ७ । निजाणं ८ अट्ठमए नवमे य जिणेण एवं ति ९॥३४॥
तत्र शस्त्रपरिज्ञायामयमर्थाधिकारो-'जियसंजमोत्ति जीवेषु संयमो जीवसंयम:-तेषु हिंसादिपरिहारः, स च जीवास्तित्वपरिज्ञाने सति भवत्यतो जीवास्तित्वविरतिप्रतिपादनमत्रार्थाधिकारः । लोकविजये तु 'लोगो जह बज्झइ जह य तं पजहिय'ति, विजितभावलोकेन संयमस्थितेन लोको यथा बध्यते अष्टविधेन कर्मणा यथा च तत्प्रहातव्यं तथा ज्ञातव्यमित्ययमाधिकारः । तृतीये स्वयम्-संयमस्थितेन जितकषायेणानुकूलप्रतिकूलोपसर्गनिपाते सुखदुःखतितिक्षा
विधेयेति । चतुर्थे त्वयम्-प्राक्तनाध्ययनार्थसंपनेन तापसादिकष्टतपासेविनामष्टगुणैश्वर्यमुदीक्ष्यापि दृढसम्यक्त्वेन भवि-IN दतव्यमिति । पञ्चमे त्वयम्-चतुरध्ययनार्थस्थितेनासारपरित्यागेन लोकसाररत्नत्रयोद्युक्तेन भाव्यमिति । षष्ठे त्वयम्-प्रा-18
गुक्तगुणयुक्तेन निसङ्गतायुक्तेनापतिबद्धेन भवितव्यम् । सप्तमे त्वयम्-संयमादिगुणयुक्तस्य कदाचिन्मोहसमुत्थाः परीपहा उपसर्गा वा प्रादुर्भवेयुस्ते सम्यक् सोढव्याः । अष्टमे त्वयम्-निर्याणम्-अन्तक्रिया सा सर्वगुणयुक्तेन सम्यग्विधेयेति । नवमे स्वयम्-अष्टाध्ययनप्रतिपादितोऽर्थः सम्यगेवं वर्द्धमानस्वामिना विहित इति, तत्मदर्शनं च शेपसाधूनामुत्साहाएं,
१ उदइओ भावो लोगा कसाया जाणियव्या (इति चूर्णिः).
T
अध्ययन-१ शस्त्रपरिज्ञा" आरब्धं अध्ययन-अर्थाधिकार: एवं उद्देशक-अर्थाधिकारः
[30]
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचा
तदुक्तम्-"तित्थयरो चउणाणी सुरमहिओ सिज्झियब्वयधुवंमि । अणिगूहियबलविरिओ सम्वत्थामेसु उज्जम ॥१॥8 अध्ययनं १ राङ्गवृत्तिः किं पुण अवसेसेहिं दुक्खक्खयकारणा सुविहिएहिं । होति न उजमियब्धं सपञ्चवायंमि माणुस्से ॥२॥" ॥ साम्प्रतमुद्दे-16 (शी०) शार्थाधिकारः शस्त्रपरिज्ञाया अयम्
उद्देशकः१ जीवो छक्कायपरुवणा य तेसिं वहे य बंधोत्ति । विरईए अहिगारो सत्थपरिणाएँ गायब्बो ॥ ३५ ॥ तत्र प्रथमोद्देशके सामान्येन जीवास्तित्वं प्रतिपाद्य, शेषेषु तु षट्सु विशेषेण पृथिवीकायाद्यस्तित्वमिति, सर्वेषां चावसाने बन्धविरतिप्रतिपादनमिति, एतच्चान्ते उपात्तत्वात्प्रत्येकमुद्देशार्थेषु योजनीय, प्रथमोद्देशके जीवस्तद्वधे बन्धो विरतिश्चेत्येवमिति ॥ तत्र शस्त्रपरिक्षेति द्विपदं नाम, शस्त्रस्य निक्षेपमाह
दव्वं सत्थग्गिविसन्नेहं बिलखारलोणमाईयं । भावो य दुप्पउत्तो वाया काओ अविरई या ।। ३६ ॥
शस्त्रस्य निक्षेपो नामादिश्चतुर्द्धा, व्यतिरिक्तं द्रव्यशत्रं खगाद्यग्निविषस्नेहाम्लक्षारलवणादिकं, भावशखं दुष्पयुक्तो दभावः-अन्तःकरणं तथा वाकायावविरतिश्चेति, जीवोपघातकारित्वादितिभावः ॥ परिज्ञापि चतुर्खेत्याहदब्वं जाणण पञ्चक्खाणे दविए सरीर उवगरणे । भावपरिण्णा जाणण पञ्चक्खाणं च भावेणं ॥ ३७॥
॥१०॥ १ तीर्थकरघांनी मुरमहितः ध्रुवं रोधितव्ये । अनिहितबलवीर्यः सर्वस्थाम्रोयच्छति ॥ १॥ किं पुनरवशेषैदुःखक्षयकारणात्सुविहितैः । भवति नोबन्तव्य सप्रखपाये मानुष्ये ॥१॥
SRA
अध्ययन-अर्थाधिकारः एवं उद्देशक-अर्थाधिकार:, शस्त्र-शब्दस्य निक्षेपा:
[31]
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम [-]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [–], निर्युक्ति: [३७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित
तत्र द्रव्यपरिज्ञा द्विधा ज्ञपरिज्ञा प्रत्याख्यानपरिज्ञा च ज्ञपरिज्ञा आगमनोआगमभेदाद्विधा, आगमतो ज्ञाताऽनुपयुक्तः, नोआगमतस्त्रिधा, तत्र व्यतिरिक्ता द्रव्यपरिज्ञा यो यत् द्रव्यं जानीते सचित्तादि सा परिच्छेद्यद्रव्यप्राधान्यात् द्रव्यपरिज्ञेति प्रत्याख्यानपरिज्ञाऽप्येवमेव तत्र व्यतिरिक्तद्रव्यप्रत्याख्यानपरिज्ञा देहोपकरणपरिज्ञानम्, उपकरणं च रजोहरणादि, साधकतमत्वात् भावपरिज्ञापि द्विधैव-ज्ञपरिज्ञा प्रत्याख्यानपरिज्ञा च तत्रागमतो ज्ञातोपयुक्तश्च, नोआगमतस्त्विदमेवाध्ययनं ज्ञानक्रियारूपं, नोशब्दस्य मिश्रवाचित्वात् प्रत्याख्यानभावपरिज्ञापि तथैव, आगमतः पूर्ववत्, नोआगमतस्तु प्राणातिपातनिवृत्तिरूपा मनोबा काय कृतकारितानुमतिभेदात्मिका ज्ञेयेति । गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतमाचारादिप्रदानस्य सुखप्रतिपत्तये दृष्टान्तोपन्यासेन विधिराख्यायते यथा कश्चिद्राजा अभिनवनगरनिवेशेच्छया भूखण्डानि विभज्य समतया प्रकृतिभ्यो दत्तवान् तथा कचवरापनयने शल्योद्धारे भूस्थिरीकरणे पक्केष्टकापीउप्रासादरचने रत्नाद्युपादाने चोपदेशं दत्तवान्, ताश्च प्रकृतयस्तदुपदेशानुसारेण तथैव कृत्वा यथाऽभिप्रेतान् भोगान् बुभुजिरे, अयमत्रार्थीपनयः- राजसदृशेन सूरिणा प्रकृतिसदृशस्य शिष्यगणस्य भूखण्डसदृशः संयमो मिध्यात्वकचवरायपनीय सर्वोपाधिशुद्धस्यारोपणीयः, तं च सामायिकसंयमं स्थिरीकृत्य पक्केष्टिकापीठतुल्यानि व्रतान्यारोपणीयानि, ततः प्रासादकल्पोऽयमाचारो विधेयः, तत्रस्थश्चाशेषशास्त्रादिरज्ञान्यादत्ते, निर्वाणभाक् भवति । साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणलक्षणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं लक्षणं त्विदम्- 'अप्पम्गंथमहत्थं बत्तीसादोसविरहियं जं च लक्खणजुत्तं
१ अल्पग्रन्थं महार्थं द्वात्रिंशद्दोषविरहितं यत्र उक्षणयुक्तं सूत्रमभिष गुणैरुपपेतम् ॥ १ ॥
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आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र- [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
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प्रथम अध्ययने प्रथम उद्देशक जीव अस्तित्व' आरब्धः अध्ययन-अर्थाधिकारः एवं उद्देशक- अर्थाधिकारः, परिज्ञा-शब्दस्य भेदा:
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गम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [१], नियुक्ति: [३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
अध्ययन
सत्राक
उद्दशका
4500-5545%
दीप
श्रीआचा- ॥सुयं मे आउस ! तेणं भगवया एवमक्खायं-इहमेगेसिं णो सण्णा भवइ (सू०१) राङ्गवृत्तिः (शी०)
सुत्तं अहहि य गुणेहि उववेयं ॥१॥ इत्यादि, तच्चेदं सूत्रम्-'सुर्य मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं-इहमेगेसिं णो| सण्णा भवति' अस्य संहितादिक्रमेण व्याख्या-संहितोच्चारितैव, पदच्छेदस्त्वयम्-श्रुतं मया आयुष्मन् ! तेन भगवता एवमाख्यातम्-इह एकेषां नो संज्ञा भवति । एक तिङन्तं शेषाणि सुवन्तानि, गतः सपदच्छेदः सूत्रानुगमः, साम्प्रतं सूत्रपदार्थः समुन्नीयते-भगवान् सुधर्मस्वामी जंबूनाम्न इदमाचष्टे यथा-'श्रुतम्' आकर्णितमवगतमवधारितमितियावद्, अनेन स्वमनीषिकाव्युदासो, 'मयेति साक्षान्न पुनः पारम्पर्येण 'आयुष्मन्निति जाल्यादिगुणसंभवेऽपि दीपोंयुष्कत्वगुणोपादानं दीर्घायुरविच्छेदेन शिष्योपदेशप्रदायको यथा स्यात्, इहाचारस्य व्याचिख्यासितत्वात्तदर्थस्य च तीर्थकृत्प्रणी
तत्वादिति सामर्थ्यप्रापितं तेनेति तीर्थकरमाह, यदि वा-आमृशता भगवत्पादारविन्दम्, अनेन विनय आवेदितो दभवति, आवसता वा तदन्तिक इत्यनेन गुरुकुलवासः कर्तव्य इत्यावेदितं भवति, एतच्चार्थद्वयं 'आमुसंतेण आवसंते-15 माणे'त्येतसाठान्तरमाश्रित्यावगन्तव्यमिति, भगवते'ति भगः-ऐश्वर्यादिषडर्धात्मकः सोऽस्यास्तीति भगवान् तेन, 'एव'मिति वक्ष्यमाणविधिना 'आख्यात'मित्यनेन कृतकत्वब्युदासेनार्धरूपतया आगमस्य नित्यत्वमाह, 'इहे'ति क्षेत्रे प्रवचने आचारे शस्त्रपरिज्ञायां वा आख्यातमितिसंबन्धो, यदि वा-'इहे'ति संसारे 'एकेषां' ज्ञानावरणीयावृतानां प्राणिनां 'नो संज्ञा
१ चूभिप्रायेण द्वितीयसूत्रावतरणमेतत्. २ पत्तेयं पत्तेयं (गणहरा) सित्सेहिं पजुवासिजमाणा एवं भगति-'सुर्य मे (इति चूर्णि:).
अनुक्रम [१]
११॥
सूत्राधिकारे प्रथमं सूत्रम्
[33]
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गम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [१], नियुक्ति: [३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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4
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पी
भवति' संज्ञानं संज्ञा स्मृतिरवबोध इत्यनर्थान्तरं, सा नो जायत इत्यर्थः, उक्तः पदार्थः, पदविग्रहस्य तु सामासिकपदा-18 भावादप्रकटनम् । इदानी चालना-ननु चाकारादिकप्रतिषेधकलघुशब्दसंभवे सति किमर्थ नोशन्देन प्रतिषेधः इति ?, अत्र प्रत्यवस्था, सत्यमेवं, किंतु प्रेक्षापूर्वकारितया नोशब्दोपादानं, सा चेयम्-अन्येन प्रतिषेधेन सर्वनिषेधः स्याद्, यथा न घटोऽघट इति चोक्त सर्वात्मना घटनिषेधः, स च नेष्यते, यतः प्रज्ञापनायां दश संज्ञाः सर्वप्राणिनामभिहितास्तासां/ सर्वासां प्रतिषेधः प्रामोतीतिकृत्वा, ताशेमाः-"काणं भंते ! सण्णाओ पणत्ताओ?, गोयमा! दस सण्णाओ पण्णताओ, तंजहा-आहारसण्णा भयसण्णा मेहुणसण्णा परिग्गहसण्णा कोहसण्णा माणसण्णा मायासण्णा लोभसण्णा ओहसण्णा लोगसपण"त्ति, आसां च प्रतिषेधे स्पष्टो दोषः, अतोनोशब्देन प्रतिषेधनमकारि, यतोऽयं सर्वनिषेधवाची देशनिषेधवाची च, तथा-13 शहि-नोघट इत्युक्ते यथा घटाभावमात्र प्रतीयते, तथा प्रकरणादिप्रंसक्तस्य विधानं, स पुनर्विधीयमानः प्रतिषेध्यावयवो
ग्रीवादिः प्रतिषेध्यादन्यो वा पटादिः प्रतीयत इति, तथा चोक्तम्-"प्रतिषेधयति समस्तं प्रसक्तमर्थं च जगति नोशब्दः। स पुनस्तदवयवो वा तस्मादर्थान्तरं वा स्याद् ॥१॥" इति, एवमिहापि न सर्वसंज्ञानिषेधः, अपितु विशिष्टसंज्ञानिषेधो, ययाऽऽत्मादिपदार्थस्वरूपं गत्यागत्यादिकं ज्ञायते तस्या निषेध इति । साम्प्रतं नियुक्तिकृत्सूत्रावयवनिक्षेपार्थमाह
१ कति भदन्त ! संज्ञाः प्राप्ताः १, गौतम! दश संक्षा प्राप्ताः, तद्यथा-आहारसंज्ञा भयसंज्ञा मधुनसंझा परिग्रहसंज्ञा कोवसंज्ञा मानसंज्ञा मायासंशा लोभसंज्ञा ओषसंज्ञा लोकसंज्ञा.
१. घटाभावमात्रं प्रतीयते अर्थप्रसकनिषेधेन चाप्रसकरय प्र.
सूत्राधिकारे प्रथमं सूत्रम्, संज्ञा शब्दस्य विविध भेदा:
[34]
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [१.], नियुक्ति: [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
ཙྪཱ ཟླ
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
॥१२॥
= པཎྞཾ ༔
दव्वे सञ्चित्ताई भावेऽणुभवणजाणणा सण्णा। मति होइ जाणणा पुण अणुभवणा कम्मसंजुत्ता॥३८॥ अध्ययनं १ संज्ञा नामादिभेदाचतुर्द्धा, नामस्थापने क्षुण्णे, ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्ता सचित्ताचित्तमिश्रभेदानिधा, सचित्तेन हस्तादिद्रव्येण पानभोजनादिसंज्ञा अचित्तेन ध्वजादिना मिश्रेण प्रदीपादिना संज्ञान-संज्ञा अवगम इतिकृत्वा, भाव
उद्देशकः१ | संज्ञा पुनर्विधा-अनुभवनसंज्ञा ज्ञानसंज्ञा च, तत्राल्पव्याख्येयत्वात्तावत् ज्ञानसंज्ञा दर्शयति-'मइ होइ जाणणा पुण'त्ति मननं मतिः-अवबोधः सा च मतिज्ञानादिः पञ्चधा, तत्र केवलसंज्ञा क्षायिकी शेषास्तु क्षायोपशमिक्या, अनुभवनसंज्ञा तु स्वकृतकर्मोदयादिसमुत्था जन्तोर्जायते, सा च षोडशभेदेति दर्शयति
आहार भय परिग्गह मेहुण सुख दुक्ख मोह वितिगिच्छा। कोह माण माय लोहे सोगे लोगे य धम्मोहे ॥३९॥ | आहाराभिलाष आहारसंज्ञा, सा च तैजसशरीरनामकर्मोदयादसातोदयाच्च भवति, भयसंज्ञा त्रासरूपा, परिग्रह8|संज्ञा मूर्छारूपा, मैथुनसंज्ञा ख्यादिवेदोदयरूपा, एताश्च मोहनीयोदयात्, सुखदुःखसंज्ञे सातासातानुभवरूपे वेदनीयो-ICI
दयजे, मोहसंज्ञा मिथ्यादर्शनरूपा मोहोदयात्, विचिकित्सासंज्ञा चित्तविष्ठतिरूपा मोहोदयात् ज्ञानावरणीयोदयाच्च, क्रोधसंज्ञा अप्रीतिरूपा, मानसंज्ञा गर्वरूपा, मायासंज्ञा वक्रतारूपा, लोभसंज्ञा गृद्धिरूपा, शोकसंज्ञा विप्रलापवैमनस्यरूपा, एता मोहोदयजा, लोकसंज्ञा स्वच्छन्दघटितविकल्परूपा लौकिकाचरिता, यथा-न सन्त्यनपत्यस्य लोकाः, श्वानो यक्षाः, विप्रा देवाः, काकाः पितामहाः, बहिणां पक्षवातेन गर्भ इत्येवमादिका ज्ञानावरणक्षयोपशमान्मोहोदयाच भ-IM॥१२॥ वति, धर्मसंज्ञा क्षमाद्यासेवनरूपा मोहनीयक्षयोपशमाज्जायते, एताश्चाविशेषोपादानापश्चेन्द्रियाणां सम्यग्मिथ्यादृशां15
सूत्राधिकारे प्रथमं सूत्रम्, 'संज्ञा' शब्दस्य विविध भेदा:
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [२], नियुक्ति: [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सुत्रांक
(२)
दीप
द्रष्टव्याः, ओघसंज्ञा तु अव्यक्तोपयोगरूपा बल्लिवितानारोहणादिलिङ्गा ज्ञानापरणीयाल्पक्षयोपशमसमुत्था द्रष्टव्येति । इह पुननिसंज्ञयाऽधिकारो, यतः सूत्रे सैव निषिद्धा 'इह एकेषां नो संज्ञा ज्ञानम्-अवबोधो भवतीति ॥१॥ प्रतिषिद्धज्ञानविशेषारगमार्थमाह सूत्रम्
तंजहा-पुरथिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, दाहिणाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, पञ्चत्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, उत्तराओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, उड्डाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, अहोदिसाओ वा आगओ अहमंसि, अण्णयरीओ वा दिसाओ अणुदिसाओ वा आगओ
अहमंसि, एवमेगेसिं णो णायं भवति (सू०२) "तंजहेत्यादि णो णायं भवतीति यावत्" तद्यथेति प्रतिज्ञातार्थोदाहरणं, 'पुरस्थिमाज'त्ति प्राकृतशैल्या मागधदेशीभाषानुवृत्त्या पूर्वस्या दिशोऽभिधायकात् पुरस्थिमशब्दासश्चम्यन्तात्तसा निर्देशः, वाशब्द उत्तरपक्षापेक्षया विकल्पार्थः, यथा लोके भोक्तव्यं का शयितव्यं वेति, एवं पूर्वस्या वा दक्षिणस्था वेति । दिशतीति दिक, अतिसृजति व्यपदिशति । द्रव्यं द्रव्यभागं वेति भावः ॥ तां नियुक्तिकृन्निक्षेप्नुमाह
अनुक्रम
[२]
RELIGunintentATHREE
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गम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [२], नियुक्ति: [४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचा-दा नामं ठवणा दविए खिसे तावे य पण्णवग भावे। एस दिसानिक्खेयो सत्तविहो होइ णायब्बो ॥४०॥ अध्ययनं १ राङ्गवृत्तिः नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रतापप्रज्ञापकभावरूपः सप्तधा दिग्निक्षेपो ज्ञातव्यः, तत्र सचित्तादेवेंन्यस्य दिगित्यभिधानं नाम-शानदेशक (शी०) || दिक, चित्रलिखितजम्बूद्वीपादेदि विभागस्थापनं स्थापनादिक । द्रव्यविग्निक्षेपार्थमाह॥१३॥
तेरसपएसियं खलु तावइएसुं भवे पएसेसुं। जं दब्वं ओगाई जहण्णयं तं दसदिसागं ॥४१॥ ॥ द्रव्यदिगू द्वेधा-आगमतो नोआगमतश्च, आगमतो शाताऽनुपयुक्तो, नोआगमतो शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्ता
त्वियम्-त्रयोदशप्रदेशिकं द्रव्यमाश्रित्य या प्रवृत्ता, खलुरवधारणे, त्रयोदशप्रदेशिकमेव दिक, न पुनईशप्रदेशिकं यत् * कैश्चिदुक्तमिति, प्रदेशाः-परमाणवस्तैर्निष्पादितं कार्यद्रव्यं तावत्स्वेव क्षेत्रप्रदेशेष्ववगाढं जघन्यं द्रव्यमाश्रित्य दशदिविभागपरिकल्पनातो द्रव्यदिगियमिति । तत्स्थापना (२)। त्रिबाहुक नवप्रदेशिकमभिलिख्य चतसृषु दिक्ष्वेकैकगृहवृद्धिः कार्या ॥ क्षेत्रदिशमाह
अट्ठ पएसो रुपगो तिरियं लोयस्स मज्झयारंमि । एस पभयो दिसाणं एसेव भवे अणुदिसाणं ॥ ४२ ॥ तिर्यग्लोकमध्ये रत्नप्रभापृथिव्या उपरि बहुमध्यदेशे मेज़न्तद्वौं सर्वक्षुल्लकातरौ तयोरुपरितनस्य चत्वारः प्रदेशा गोस्तनाकारसंस्थाना अधस्तनस्यापि चत्वारस्तथाभूता एवेत्येषोऽष्टाकाशप्रदेशात्मकश्चतुरस्रो रुचको दिशामनुदिशां च प्रभव-उत्पत्तिस्थानमिति । स्थापना (३)। आसामभिधानाम्याह
॥१३॥ इंदग्गेई जम्मा य नेरुती वारुणी य वायव्वा । सोमा ईसाणावि य विमला य तमा य बोद्धव्या ॥४३॥
दिशा शब्दस्य सप्त निक्षेपा:
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गम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [२], नियुक्ति: [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सुत्रांक
(२)
दीप
आसामायैन्द्री विजयद्वारानुसारेण शेषाः प्रदक्षिणतः सप्तावसेयाः, ऊ विमला तमा बोद्धव्या इति ॥ आसामेव स्वरूपनिरूपणायाह
दुपएसाइ दुरुत्तर एगपएसा अणुत्तरा चेव । चउरो चउरो य दिसा चउराइ अणुत्तरा दुण्णि ॥४४॥ चतस्रो महादिशो द्विपदेशाद्या द्विद्विपदेशोत्तरवृद्धाः, विदिशश्चतन एकप्रदेशरचनात्मिकाः 'अनुत्तरा'वृद्धिरहिताः, ऊद्रोधोदिगदयं त्वनुत्तरमेव चतुष्पदेशादिरचनात्मकम् । किश
अंतो साईआओ बाहिरपासे अपज्जवसिआओ। सव्वाणंतपएसा सव्वा य भवंति कडजुम्मा ॥४५॥ सर्वाऽप्यन्तः-मध्ये सादिका रुचकाद्या इतिकृत्वा बहिश्च अलोकाकाशाश्रयणादपर्यवसितार, 'सर्वोच' दशायनन्तम-15 देशास्मिका भवन्ति, 'सव्वा य हवंति कडजुम्म'त्ति सर्वासां दिशां प्रत्येकं ये प्रदेशास्ते चतुष्ककेनापहियमाणाश्चतुष्कावशेषा भवन्तीतिकृत्वा, तनदेशात्मिकाच दिश आगमसंज्ञया कडजुम्मत्तिशब्देनाभिधीयन्ते, तथा चागमः-"कई णं | भंते ! जुम्मा पण्णता ?, गोयमा! चत्वारि जुम्मा पण्णत्ता, तंजहा-कडजुम्मे तेउए दावरजुम्मे कलिओए। से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ ?, गोयमा! जे णं रासी चउक्कगावहारेणं अवहीरमाणे अवहीरमाणे चउपज्जवसिए सिया, से णं कडजुम्मे, एवं तिपज्जवसिए तेउए, दुपज्जवसिए दावरजुम्मे, एगपज्जवसिए कलिओए"त्ति । पुनरप्यासां संस्थानमाह
कति भदन्त ! युग्माः प्रज्ञता ?, गौतम । चत्वारो युग्माः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-कृतयुग्मः योजः द्वापर युग्मः कल्योजः । अथ केनार्थेन भदन्तवमुच्यते !, गौतम! योराशिचतुष्कफापहारेणापहियमाणोऽपहियमाणश्चतुष्पर्यवासितः स्यात् स कृतयुग्मः, एवं त्रिपर्यवसितम्योजः, द्विपर्ववसितो द्वापर युग्मः, एकपर्यवसितः कल्योजः.
अनुक्रम
[२]
दिशा शब्दस्य सप्त निक्षेपा:
[38]
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [२], नियुक्ति: [४६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
सूत्राक
॥१४॥
दीप अनुक्रम
सगडुद्धीसंठिआओ महादिसाओ हवंति चत्तारि । मुत्तावली य चउरो दो चेव हवंति रुपगनिभा ॥४६॥ अध्ययनं १
महादिशश्चतस्रोऽपि शकटोर्धिसंस्थानाः, विदिशश्च मुक्तावलिनिभाः, ऊर्ध्वाधोदिग्द्वयं रुचकाकारमिति ॥ तापदि-16/ शमाह
उद्देशकः१ जस्स जओ आइचो उदेह सा तस्स होइ पुब्बदिसा। जत्तो अ अस्थमेइ उ अवरदिसा सा उ णायब्वा ॥४७॥ दाहिणपासंमि य दाहिणा दिसा उत्तरा उ वामेणं । एया चसारि दिसा तावखित्ते उ अक्खाया ॥४८॥
तापयतीति तापः-आदित्यः, तदाश्रिता दिक् तापदिक् शेषं सुगम, केवलं दक्षिणपाादिव्यपदेशः पूर्वाभिमुखस्येति द्रष्टव्यः ॥ तापदिगङ्गीकरणेनान्योऽपि व्यपदेशो भवतीति प्रसङ्गात आह
जे मंदरस्स पुब्वेण मणुस्सा दाहिणेण अवरेण । जे आवि उत्तरेणं सब्वेसिं उत्तरो मेरू ॥४९॥ सब्वेसिं उत्तरेणं मेरू लवणो य होइ दाहिणओ। पुब्वेणं उढेई अवरेणं अस्थमइ सरो॥५०॥ ये 'मन्दरख' मेरोः पूर्वेण मनुष्याः क्षेत्रदिगङ्गीकरणेन, रुचकापेक्षं पूर्वादिदिक्त्वं वेदितव्यं, तेषामुत्तरो मेरुदक्षिणेन लवण इति तापदिगङ्गीकरणेन, शेष स्पष्टम् ॥ प्रज्ञापकदिशमाह-.. जत्थ य जो पण्णवओ कस्सवि साहह दिसासु य णिमित्तं । जत्तोमुहो य ठाई सा पुव्वा पच्छओ अवरा ॥५१॥ | प्रज्ञापको यत्र कचित् स्थितः दिशां बलात्कस्यचिन्निमित्तं कथयति स यदभिमुखस्तिष्ठति सा पूर्वा, पृष्ठतचापरेति, निमित्तकथनं चोपलक्षणमन्योऽपि व्याख्याता ग्राह्य इति ॥ शेषदिक्साधनार्थमाह
C
॥१४॥
SARELIEatininternational
दिशा शब्दस्य सप्त निक्षेपा:
[39]
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [२], नियुक्ति: [५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
दाप
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दाहिणपासंमि उ दाहिणा दिसा उत्तरा उ वामेणं । एयासिमन्तरेणं अण्णा चत्तारि विदिसाओ ॥५२॥ एयासिं चेव अट्ठण्हमंतरा अहहुंति अण्णाओ। सोलस सरीरउस्सयवाहल्ला सम्वतिरियदिसा ॥५३॥ हेडा पायतलाणं अहोदिसा सीसउवरिमा उड्डा । एया अट्ठारसवी पण्णवगदिसा मुणेयव्वा ॥५४॥ एवं पकप्पिआणं दसह अट्ठण्ह चेव य दिसाणं । नामाई वुच्छामी जहकर्म आणुपुच्चीए ॥५५॥ पुवा य पुव्वदक्खिण दक्षिण तह दक्षिणावरा चेव । अवरा य अवरउत्तर उत्तर पुखुत्तरा चेव ॥५६॥॥ सामुस्थाणी कविला खेलिजा खलु तहेव अहिधम्मा। परियाधम्मा य तहा सावित्ती पण्णवित्ती य ॥१७॥ हेट्टा नेरइयाणं अहोदिसा उवरिमा उ देवाणं । एयाई नामाइं पण्णवगस्सा दिसाणं तु ॥५८॥
एताः सप्त गाथाः कण्ठ्याः, नवरं द्वितीयगाथायां सर्वतिर्यग्दिशां पाहल्यं-पिण्डः शरीरोच्छ्यप्रमाणमिति ॥ साम्प्रतमासां संस्थानमाह
सोलस तिरिपदिसाओ सगदुद्धीसंठिया मुणेयब्वा। दो मल्लगमूलाओ उद्धे अ अहेवि य दिसाओ॥५९॥ षोडशापि तियंगदिशः शकटोद्धिसंस्थाना बोद्धव्याः, प्रज्ञापकपदेशे सङ्कटा बहिर्विशालाः, नारकदेवाण्ये द्वे एव उदोधोगामिन्यी शरावाकारे भवतः, यतः शिरोमूले पादमूले च स्वल्पत्वान्मल्लकबुनाकारे गच्छन्त्यी च विशाले भवत इति ।। आसां सर्वासां तात्पर्य यन्त्रकादवसेयं, तच्चेदम् (४) ॥ भावदिग्निरूपणार्थमाहमणुया तिरिया काया तहग्गवीया चउकगा चउरो । देवा नेरइया चा अट्ठारस होंति भावदिसा ॥६॥
अनुक्रम
२]
SARELaturintamatara
दिशा शब्दस्य सप्त निक्षेपा:
[40]
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गम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[२]
दीप
अनुक्रम
[२]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [२], निर्युक्ति: [६०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित......आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
मनुष्याश्चतुर्भेदास्तद्यथा—सम्मूर्च्छनजाः कर्मभूमिजा अकर्म्मभूमिजाः अन्तरद्वीपजाश्चेति, तथा तिर्यञ्चो द्वीन्द्रिया स्त्री- 2 अध्ययनं १ (2) (2) (२) (1) न्द्रियाश्चतुरिन्द्रियाः पञ्चेन्द्रियाश्चेति चतुर्द्धा, कायाः पृथिव्यप्तेजोवायवश्चत्वारः, तथाऽग्रमूलस्कन्धपर्वबीजाश्चत्वार एव, २ उद्देशकः १ एते षोडश देवनारकप्रक्षेपादष्टादश, एभिर्भावैर्भवनाज्जीवो व्यपदिश्यत इति भावदिगष्टादशभेदेति ॥ अत्र च सामान्यदिग्रहणेऽपि यस्यां दिशि जीवानामविगानेन गत्यागती स्पष्टे सर्वत्र सम्भवतस्तयैवेहाधिकार इति तामेव निर्युक्तिकॐ त्साक्षाद्दर्शयति, भावदिकाविनाभाविनी सामर्थ्यादधिकृतैव, यतस्तदर्थमन्या दिशञ्चिन्त्यन्त इत्यत आह
॥ १५ ॥
श्रीआचा
राङ्गवृत्तिः
(शी०)
पण्णवगदिसहारस भावदिसाओऽवि तत्तिया चेव । इक्विकं विंधेज्जा हवंति अट्ठारसद्वारा ॥ ६१ ॥ पण्णवगदिसाए पुर्ण अहिगारो एत्थ होड़ णायव्वो । जीवाण पुग्गलाण य एयासु गयागई अस्थि ।। ६२ । प्रज्ञापकापेक्षया अष्टादशभेदा दिशः, अत्र च भावदिशोऽपि तावत्प्रभाणा एव प्रत्येकं सम्भवन्तीत्यतः एकैकां प्रज्ञापकदिशं भावदिगष्टादशकेन 'विन्ध्येत्' ताडयेद्, अतोऽष्टादशाष्टादशकाः, ते च संख्यया त्रीणि शतानि चतुर्विंशत्यधिकानि भवन्तीति एतच्चोपलक्षणं तापदिगादावपि यथासम्भवमायोजनीयमिति । क्षेत्रदिशि तु चतसृष्वेव महादिक्षु सम्भवो न विदिगादिषु, तासामेकप्रदेशिकत्वाच्चतुष्पदेशिकत्वाच्चेति गाथाद्वयार्थः ॥ अयं च दिक्संयोगकलापः 'अण्णयरीओ दिसाओ आगओ अहमंसी' त्यनेन परिगृहीतः, सूत्रावयवार्थश्चायम्-इह दिगग्रहणात् प्रज्ञापकदिशश्चतस्रः पूर्वादिका ऊर्द्धाधोदिशौ च परिगृह्यन्ते, भावदिशस्त्वष्टादशापि, अनुदिग्रहणान्तु प्रज्ञापकविदिशो द्वादशेति, तत्रासंज्ञिनां नैषोऽयबो
Education Intention
दिशा शब्दस्य सप्त निक्षेपाः
For Parts Only
[41]
॥ १५ ॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [३], नियुक्ति: [६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
अनुक्रम
धोऽस्ति, संज्ञिनामपि केषाञ्चिद्भवति केषाश्चिन्नेति, यथाऽहममुष्या दिशः समागत इहेति । एवमेगेसि णो णायं भवइत्ति' एव' मित्यनेन प्रकारेण, प्रतिविशिष्टदिग्विदिगागमनं नैकेषां विदितं भवतीत्येतदुपसंहारवाक्यम् , एतदेव नियुक्तिकृदाहकेसिंचि नाणसण्णा अस्थि केसिंचि नत्थि जीवाणं । कोऽहं परंमि लोए आसी कयरा दिसाओ वा? ॥३३॥ केषाश्चिज्जीवानां ज्ञानावरणीयक्षयोपशमवतां ज्ञानसंज्ञाऽस्ति, केषाञ्चित्तु तदावृतिमतां न भवतीति । यादृग्भूता संज्ञा न भवति तां दर्शयति-कोऽहं परस्मिन् 'लोके' जन्मनि मनुष्यादिरासम्, अनेन भावदिग् गृहीता, कतरस्या वा दिशः समायात इत्यनेन तु प्रज्ञापकदिगुपात्तेति, यथा कश्चिन्मदिरामदघूर्णितलोललोचनोऽव्यक्तमनोविज्ञानो रथ्यामा-14 गनिपतितस्तच्छोकृष्टश्वगणापलिज़मानवदनो गृहमानीतो मदात्यये न जानाति कुतोऽहमागत इति, तथा प्रकृतो मनुप्यादिरपीति गाथार्थः ॥ न केवलमेषैव संज्ञा नास्ति अपराऽपि नास्तीति सूत्रकृदाह
अस्थि मे आया उववाइए, नत्थि मे आया उववाइए, के अहं आसी ? के वा इओ
चुए इह पेचा भविस्सामि ? (सू०३) , 'अस्ति' विद्यते 'ममे त्यनेन षष्ठ्यन्तेन शरीरं निर्दिशति, ममास्य शरीरकस्याधिष्ठाता, अतति-गच्छति सततगतिप्रवृत्त आत्मा-जीवोऽस्तीति, किंभूतः -'औपपातिक' उपपात:-प्रादुर्भावो जन्मान्तरसंक्रान्तिः, उपपाते भव औपपातिक इति,
१ औपपातिकवृत्यभिप्रागणेष तृतीयसूत्रावतरणभागः, चूर्व्यभिप्रायेण तु भविस्सामि' इति पर्यन्त उपसंहारः, 'भवति' इति 'तंजहा' इति चाधिका.
[३]
*AAKAR
आत्मा विषयक अज्ञानताया: निरूपणं
[42]
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[3]
दीप
अनुक्रम [3]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र- १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [३], निर्युक्ति: [६३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र - [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
॥ १६ ॥
श्रीआचा- ४ अनेन संसारिणः स्वरूपं दर्शयति, स एवंभूत आत्मा ममास्ति नास्तीति च एवंभूता संज्ञा केषाञ्चिदज्ञानावष्टब्धचेतसां राङ्गवृत्तिः न जायत इति । तथा 'कोऽहं' नारकतिर्यगूमनुष्यादिः पूर्व्वजन्मन्यासं १ को वा देवादिः 'इतो' मनुष्यादेर्जन्मनः (शी०) 2'च्युतो' विनष्टः 'इह' संसारे 'प्रेत्य' जन्मान्तरे 'भविष्यामि' उत्पत्स्ये इति, एषा च संज्ञा न भवतीति । इह च यद्यपि ४ सर्वत्र भावदिशाऽधिकारः प्रज्ञापकदिशा च, तथापि पूर्वसूत्रे साक्षात्मज्ञापक दिगुपाचाऽत्र तु भावदिगित्यवगन्तव्यम् । ननु चात्र संसारिणां दिग्विदिगागमनादिजा विशिष्टा संज्ञा निषिध्यते न सामान्यसंज्ञेति एतच्च संज्ञिनि धम्मिंण्यात्मनि सिद्धे सति भवति, 'सति धर्मिणि धर्म्माश्चिन्त्यन्त' इति वचनात् स च प्रत्यक्षादिप्रमाणगोचरातीतत्वाद्दुरुपपादः, तथाहि - नासावध्यक्षेणार्थसाक्षात्कारिणा विषयीक्रियते, तस्यातीन्द्रियत्वाद्, अतीन्द्रियत्वं च स्वभावविप्रकृष्टत्वाद्, अतीन्द्रियत्वादेव च तदव्यभिचारिकार्यादिलिङ्गसम्बन्धग्रहणासम्भवात् नाप्यनुमानेन तस्याप्रत्यक्षत्वे तत्सामान्यग्रह|णशक्त्यनुपपत्तेः नाप्युपमानेन, आगमस्यापि विवक्षायां प्रतिपाद्यमानायामनुमानान्तभावाद् अन्यत्र च बाह्येऽर्थे सम्बन्धाभावादप्रमाणत्वं प्रमाणत्वे वा परस्परविरोधित्वान्नाप्यागमेन, तमन्तरेणापि सकलार्थोपपत्तेर्नाप्यर्थापत्त्या, तदेवं | प्रमाणपश्च कातीतत्वात्षष्ठप्रमाणविषयत्वादभाव एवात्मनः । प्रयोगञ्चायम्- नास्त्यात्मा, प्रमाणपञ्चकविषयातीतत्वात्, खरविषाणवदिति, तदभावे च विशिष्टसंज्ञाप्रतिषेधाभावसम्भवेनानुत्थानमेव सूत्रस्येति एतत्सर्वमनुपासितगुरोर्वचः, तथाहि - प्रत्यक्ष एवात्मा, तद्गुणस्य ज्ञानस्य स्वसंवित्सिद्धत्वात्, स्वसंविन्निष्ठाश्च विषयव्यवस्थितयो, घटपटादीनामपि रूपादिगुणप्रत्यक्षत्वादेवाध्यक्षत्वमिति, मरणाभावप्रसङ्गाच्च न भूतगुणश्चैतन्यमाशङ्कनीयं तेषां सदा सन्निधानसम्भवादिति,
Educator International
आत्मा विषयक अज्ञानतायाः निरूपणं
For Parts Only
[43]
अध्ययनं १ उद्देशकः १
।। १६ ।।
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [३], नियुक्ति: [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
अनुक्रम
हेयोपादेयपरिहारोपादानप्रवृत्तेश्चानुमानेन परात्मनि सिद्धिर्भवतीति, एवमनयैव दिशोपमानादिकमपि स्वधिया स्वविषये यथासम्भवमायोज्यं, केवलं मौनीन्द्रेणानेनैवागमेन विशिष्टसंज्ञानिषेधद्वारेणाहमिति चामोल्लेखेनात्मसभावः प्रतिपादितः, | शेषागमानां चानाप्तप्रणीतत्वादप्रामाण्यमेवेति । अत्र चास्त्यात्मेत्यनेन क्रियावादिनः समभेदा नास्तीत्यनेन चाक्रियावादिन एतदन्तःपातित्वाचाज्ञानिकवैनयिकाश्च सप्रभेदा उपक्षिप्ताः, ते चामी-असियसयं किरियाणं अकिरियवाईण होइ| चुलसीई । अन्नाणिय सत्तठी वेणइयाणं च बत्तीसा॥१॥ तत्र जीवाजीवाश्रवबन्धपुण्यपापसंवरनिर्जरामोक्षाख्या नव पदार्थाः स्वपरभेदाभ्यां नित्यानित्यविकल्पद्वयेन च कालनियतिस्वभावेश्वरात्माश्रयणादशीत्युत्तरं भेदशतं भवति क्रियावादिनाम् , एते चास्तित्ववादिनोऽभिधीयन्ते, इयमत्र भावना-अस्ति जीवः स्वतो नित्यः कालतः १ अस्ति जीवः स्वतोऽनित्यः कालतः २ अस्ति जीवः परतो नित्यः कालतः ३ अस्ति जीवः परतोऽनित्यः कालतः ४ इत्येवं कालेन चत्वारो | भेदा लब्धाः, एवं नियतिस्वभावेश्वरात्मभिरप्येकैकेन चत्वारश्चत्वारो विकल्पा लभ्यन्ते, एते च पश्च चतुष्कका विंशतिर्भवति, इयं च जीवपदार्थेन लब्धा, एवमजीवादयोऽप्यष्टौ प्रत्येक विंशतिभेदा भवन्ति, ततश्च नव विंशतयः शतम| शीत्युत्तरं भवति १८० । तत्र स्वत इति स्वेनैव रूपेण जीवोऽस्ति, न परोपाध्यपेक्षया हस्वत्वदीर्घत्वे इव, नित्यः-शाश्वतो न क्षणिकः, पूर्वोत्तरकालयोरवस्थितत्वात् , कालत इति काल एव विश्वस्य स्थित्युत्पत्तिप्रलयकारणम् , उक्तं च"कालः पचति भूतानि, कालः संहरते प्रजाः । कालः सुप्तेषु जागर्ति, कालो हि दुरतिक्रमः॥१॥" स चातीन्द्रियो युगपच्चिरक्षिप्रक्रियाभिव्यङ्गयो हिमोष्णवर्षाव्यवस्थाहेतुः क्षणलवमुहूर्तयामाहोरात्रमासर्तुअयनसंवत्सरयुगकल्पपल्योपम
[३]
RELIEatunintentiaTATE
आत्मा विषयक अज्ञानताया: निरूपणं, क्रियावादि आदि विविध वादिनाया: मते आत्म स्वरूपं
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [३], नियुक्ति: [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥१७॥
5*5554
सागरोपमोत्सपिण्यवसप्पिणीपुद्गलपरावर्तातीतानागतवर्तमानसर्वाद्धादिव्यवहाररूपः १। द्वितीयविकल्पे तु कालादेवा- अध्ययनं१ त्मनोऽस्तित्वमभ्युपेयं, किं त्वनित्योऽसाविति विशेषोऽयं पूर्वविकल्पात् २ । तृतीयविकल्पे तु परत एवास्तित्वमभ्युपगम्यते, कथं पुनः परतोऽस्तित्वमात्मनोऽभ्युपेयते?, नन्वेतप्रसिद्धमेव सर्वपदार्थानां परपदार्थस्वरूपापेक्षया स्वरूपपरिच्छेदो, यथा दीर्घत्वापेक्षया इस्वत्वपरिच्छेदो इस्वत्वापेक्षया च दीर्घत्वस्येति, एवमेव चानात्मनः स्तम्भकुम्भादीन् समीक्ष्य तव्यतिरिक्त वस्तुन्यात्मबुद्धिःप्रवर्तत इति, अतो यदात्मनः स्वरूपं तत्परत एवावधार्यते न स्वत इति ३ । चतुर्थविकल्पोऽपि प्राग्वदिति चत्वारो विकल्पाः ४ तथाऽन्ये नियतित एवात्मनः स्वरूपमवधारयन्ति, का पुनरियं नियतिरिति, उच्यते, पदार्थानामवश्यंतया यद्यथाभवने प्रयोजककीं नियतिः, उक्तं च-"प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थः, सोऽ. वश्यं भवति तृणां शुभोऽशुभो वा । भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ले, नाभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः॥१॥" इयं च मस्करिपरिवाण्मतानुसारिणी प्राय इति । अपरे पुनः स्वभावादेव संसारव्यवस्थामभ्युपयन्ति, कः पुनरयं स्वभावः?, वस्तुनः खत एव तथापरिणतिभावः स्वभावः, उक्तं च-"क: कण्टकानां प्रकरोति तेक्ष्ण्यं, विचित्रभावं मृगपक्षिणां च । स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं, न कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः ॥ १॥ स्वभावतः प्रवृत्तानां, निवृत्तानां स्वभावतः । नाहं कर्तेति भूताना, यः पश्यति स पश्यति ॥२॥ केनाञ्जितानि नयनानि मृगाङ्गनानां, कोऽलङ्करोति रुचिराङ्गरुहान्मयूरान् । कश्चोत्पलेषु दलसन्निचयं करोति, को वा दधाति विनयं कुलजेषु पुस्सु ॥३॥" तथाऽन्येऽभि-
II॥१७॥ दधते-समस्तमेतज्जीवादीश्वरात्मसूतं, तस्मादेव स्वरूपेऽवतिष्ठते, कः पुनरयमीश्वरः?, अणिमाद्यैश्वर्ययोगादीश्वरः, उक्त
आत्मा विषयक अज्ञानताया: निरूपणं, क्रियावादि आदि विविध वादिनाया: मते आत्म स्वरूपं
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [३], नियुक्ति: [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
दीप
अनुक्रम
दाच-"अज्ञो जन्तुरनीशः स्यादात्मनः सुखदुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेच्छ्वं वा स्वर्गमेव वा ॥१॥" तथाऽन्ये अवते
-न जीवादयः पदार्थाः कालादिभ्यः स्वरूपं प्रतिपद्यन्ते, किं तर्हि ?, आत्मनः, कः पुनरयमात्मा ?, आत्माद्वैतवादिनां | || विश्वपरिणतिरूपः, उक्तश्च-"एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत् Mar" तथा-"पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्य"मित्यादि। एवमस्त्यजीवः, स्वतः नित्यः कालत इत्येवं सर्वत्र योग्यम् ॥
तथा अक्रियावादिनो-नास्तित्ववादिनः, तेषामपि जीवाजीवाश्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षाख्याः सप्त पदार्थाः स्वप-2 इरभेदद्वयेन तथा कालयहच्छानियतिस्वभावेश्वरात्मभिः पद्भिश्चिन्त्यमानाचतुरशीतिविकल्पा भवन्ति, तद्यथा-नास्ति
जीवः स्वतः कालतः नास्ति जीवः परतः कालत इति कालेन द्वौ लब्धौ, एवं यदृच्छानियत्यादिष्यपि द्वौ द्वौ भेदौ
प्रत्येकं भवतः, सर्वेऽपि जीवपदार्थे द्वादश भवन्ति, एवमजीवादिष्वपि प्रत्येकं द्वादशैते, सप्त द्वादशकाश्चतुरशीतिरिति १४। अयमत्रार्थः-नास्ति जीवः स्वतः कालत इति, इह पदार्थानां लक्षणेन सत्ता निश्चीयते कार्यतो वा, न चात्मन-13 हस्तादृगस्ति किञ्चिलक्षणं येन सत्ता प्रतिपद्येमहि, नापि कार्यमणूनामिव महीध्रादि सम्भवति, यच्च लक्षणकार्याभ्यां
नाभिगम्यते वस्तु तन्नास्त्येव, वियदिन्दीवरवत्, तस्मान्नास्त्यात्मेति । द्वितीयविकल्पोऽपि यच्च स्वतो नात्मानं विभर्ति गगनारविन्दादिक तत्सरतोऽपि नास्त्येव, अथवा सर्वपदार्थानामेव परभागादर्शनात्सर्वार्वाग्भागसूक्ष्मत्वाचोभयानुपलब्धेः| सर्वानुपलब्धितो नास्तित्वमध्यवसीयते, उक्तं च-"यावद् दृश्यं परस्तावद्भागः स च न दृश्यते" इत्यादि, तथा यहच्छातोऽपि नास्तित्वमात्मनः, का पुनर्यदृच्छा ?, अनभिसन्धिपूर्विकाऽर्थप्राप्तिर्यदृच्छा, “अर्कितोपस्थितमेव सर्वं, चित्रं
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आत्मा विषयक अज्ञानताया: निरूपणं, क्रियावादि आदि विविध वादिनाया: मते आत्म स्वरूपं
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [३], नियुक्ति: [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
[३]]
॥१८॥
अनुक्रम
जनानां सुखदुःखजातम् । काकस्य तालेन यथाऽभिघातो, न बुद्धिपूर्वोऽत्र वृथाऽभिमानः॥१॥ सत्यं पिशाचाः स्म अध्ययनं १ वने वसामो, भेरिं करात्रैरपि न स्पृशामः । यदृच्छया सिद्ध्यति लोकयात्रा, भेरी पिशाचाः परिताडयन्ति ॥ २॥" यथा काकतालीयमबुद्धिपूर्वक, न काकस्य बुद्धिरस्ति-मयि तालं पतिष्यति, नापि तालस्याभिप्राय:-काकोपरि पतिष्यामि, अथ ||
उद्देशकः१ |च तत्तथैव भवति, एवमन्यदप्यतर्कितोपनतमजाकृपाणीयमातुरभेषजीयमन्धकण्टकीयमित्यादि द्रष्टव्यम् , एवं सर्वं जाति--
जरामरणादिक लोके यादृच्छिक काकतालीयादिकल्पमवसेयमिति। एवं नियतिस्वभावेश्वरात्मभिरप्यात्मा निराकर्त्तव्यः ।। ___ तथाऽज्ञानिकानां सप्तषष्टिर्भेदाः, ते चामी-जीवादयो नव पदार्था उत्पत्तिश्च दशमी सत् असद् सदसत् अवक्तव्यः |सदवक्तव्यः असदवक्तव्यः सदसदवक्तव्य इत्येतैः सप्तभिः प्रकारैर्विज्ञातुं न शक्यन्ते न च विज्ञातैः प्रयोजनमस्ति, भावना चेयम्-सन् जीव इति को वेत्ति? किं वा तेन ज्ञातेन, असन् जीव इति को जानाति? किं वा तेन ज्ञातेनेत्यादि, एवमजीवादिष्वपि प्रत्येक सप्त विकल्पाः, नव सप्तकात्रिषष्टिः, अमी चान्ये चत्वारस्त्रिषष्टिमध्ये प्रक्षिप्यन्ते, तद्यथा-सती भावोत्पत्तिरिति को जानाति ? किं वाऽनया ज्ञातया? एवमसती सदसती अवक्तव्या भावोत्पत्तिरिति को वेत्ति ? किं वाऽनया ज्ञातयेति, शेषविकल्पत्रयमुत्पत्त्युत्तरकालं पदार्थावयवापेक्षमतोऽत्र न सम्भवतीति नोक्तम् , एतच्चतुष्टयप्रक्षेपात्सप्तपष्टिर्भवन्ति । तत्र सन् जीव इति को वेत्ति? इत्यस्यायमर्थः-न कस्यचिद्विशिष्टं ज्ञानमस्ति योऽतीन्द्रियान् जीवादीनवभोत्स्यते, न च तैज्ञातः किश्चित्फलमस्ति, तथाहि-यदि नित्यः सर्वगतोऽमूर्तों ज्ञानादिगुणोपेत||||॥१८॥ एतद्गुणव्यतिरिको वा ततः कतमस्य पुरुषार्थस्य सिद्धिरिति, तस्मादज्ञानमेव श्रेयः । अपि च-तुल्येऽप्यपराधे अका-1
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आत्मा विषयक अज्ञानताया: निरूपणं, क्रियावादि आदि विविध वादिनाया: मते आत्म स्वरूपं
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [३], नियुक्ति: [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
137
दीप
मकरणे लोके स्वल्पो दोषो, लोकोत्तरेऽपि आकुट्टिकानाभोगसहसाकारादिषु क्षुल्लकभिक्षुस्थविरोपाध्यायसूरीणां यथाक्र
ममुत्तरोत्तरं प्रायश्चित्तमित्येवमन्येष्वपि विकल्पेष्वायोज्यम् ॥ तथा वैनयिकानां द्वात्रिंशभेदाः, ते चानेन विधिना। TIभावनीयाः-सुरनृपयतिज्ञातिस्थविराधममातृपितृष्वष्टसु मनोवाक्कायप्रदानचतुर्विधविनयकरणात् , तद्यथा-देवानां विनय
करोति मनसा वाचा कायेन तथा देशकालोपपन्नेन दानेनेत्येवमादि । एते च विनयादेव स्वर्गापवर्गमार्गमभ्युपयन्ति, नीचैर्वृत्त्यनुत्सेकलक्षणो विनयः, सर्वत्र चैवंविधेन विनयेन देवादिषूपतिष्ठमानः स्वर्गापवर्गभाग भवति, उक्त च-"विणया णाणं णाणाओ दंसणं दसणाहि चरणं च । चरणाहिंतो मोक्खो मोक्खे सोक्वं अणाबाहं ॥१॥ अत्र च क्रियावादिनामस्तित्वे सत्यपि केषाश्चित्सर्वगतो नित्योऽनित्यः कर्ताऽकर्ता मूर्तोऽमूर्तः श्यामाकतण्डुलमात्रोऽङ्गुष्ठप-| मात्री दीपशिखोपमो हृदयाधिष्ठान इत्यादिकः, अस्ति चौपपातिकश्च, अक्रियावादिनां त्वात्मैव न विद्यते, कुतः पुनरौपपा-4 तिकत्वम्?, अज्ञानिकास्तु नात्मानं प्रति विप्रतिपद्यन्ते, किन्तु तज्ज्ञानमकिञ्चित्करमेषामिति, वैनयिकानामपि नात्माऽस्तित्वे विप्रतिपत्तिः, किन्त्वन्यन्मोक्षसाधनं विनयाहते न सम्भवतीति प्रतिपन्नाः । तत्रानेन सामान्यात्मास्तित्वप्रतिपादनेनाक्रियावादिनो निरस्ता द्रष्टव्याः, आत्मास्तित्वानभ्युपगमे च-"शास्ता शास्त्रं शिष्यः प्रयोजनं वचनहेतुदृष्टान्ताः। सन्ति न शून्यं बुवतस्तदभावाचाप्रमाणं स्यात् ॥१॥ प्रतिषेप्रतिषेधौ स्तश्चेच्छून्यं कथं भवेत्सर्वम् । तदभावेन तु सिद्धा अप्रतिषिद्धा जगत्यर्थाः ।।२॥" एवं शेपाणामप्यत्रैव यथासम्भवं निराकरणमुलप्रेक्ष्यमिति ॥ ३॥ गतमानुषङ्गिक,
१ विनयात् शानं ज्ञानानं दर्शनात (शानदाना-पां) चरणं च । चरणात (ज्ञानदर्शनचारित्रेभ्यः) मोक्षी मोशे सौरुषमनावाचम् ॥ १॥
*CCCCCCO-OPARGAONGC
अनुक्रम
HO
SAREastatinintennational
आत्मा विषयक अज्ञानताया: निरूपणं, क्रियावादि आदि विविध वादिनाया: मते आत्म स्वरूपं
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम [४]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र- १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [४], निर्युक्तिः [६३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र - [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचा
प्रकृतमनुस्रियते—- तत्रेह 'एवमेगेसिं णो णायं भवइ' इत्यनेन केषाञ्चिदेव संज्ञानिषेधात्केषाञ्चित्तु भवतीत्युक्तं भवति, राङ्गवृत्तिः ४ तत्र सामान्यसंज्ञायाः प्रतिप्राणि सिद्धत्वात्तत्कारणपरिज्ञानस्य चेहाकिशिरकरत्वाद्विशिष्टसंज्ञायास्तु केषाश्चिदेव भावात् (शी०) तस्याश्च भवान्तरगाम्यात्मस्पष्टप्रतिपादने सोपयोगित्वाद् सामान्यसंज्ञाकारणप्रतिपादनमनादृत्य विशिष्टसंज्ञायाः कारणं सूत्रकृद्दर्शयितुमाह
॥ १९ ॥
से जं पुण जाणेज्जा सह संमइयाए परवागरणेणं अण्णेसिं अंतिए वा सोच्चा तंजहा - पुरत्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि जाव अण्णयरीओ दिसाओ अणुदिसाओ वा आगओ अहमंसि, एवमेगेसिं जं णायं भवति अस्थि मे आया उवत्राइए, जो इमाओ (दिसाओ ) अणुदिसाओ वा अणुसंचरेइ, सव्वाओ दिसाओ अ-दिसाओ, सोऽहं ( सू० ४ )
'सेजं पुण जाणेजत्ति सूत्रं यावत् सोऽहमिति 'से' इति निर्देशो मागधशैल्या प्रथमैकवचनान्तः, स इत्यनेन च यः | प्राग्निर्दिष्टो ज्ञाता विशिष्टक्षयोपशमादिमान् स प्रत्यवमृश्यते, यदित्यनेनापि यत्प्राग्निर्दिष्टं दिग्विदिगागमनं, तथा कोहमभूवमतीतजन्मनि देवो नारकस्तिर्यग्योनो मनुष्यो वा ? स्त्री पुमान्नपुंसको वा ?, को वाऽमुतो मनुष्यजन्मनः प्रभ्रष्टो१ अणुसंसरइ ( इति पा० )
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विशिष्ट संज्ञादि कारणत्वात् पूर्वापरजन्मस्य ज्ञानं
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अध्ययनं १ उदेशकः १
॥ १९ ॥
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[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [४], नियुक्ति: [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
(४)
दीप
अनुक्रम
Kऽहं प्रेत्य देवादिर्भविष्यामीत्येतत्सरामृश्यते, 'जानीयाद्' अवगच्छेन्, इदमुक्तं भवति-न कश्चिदनादौ संसृतौ पर्यटन्नसुमान | दिगागमनादिकं जानीयात्, यः पुनर्जानीयात्स एवं 'सह सम्मइयाए'त्ति सहशब्दः सम्बन्धवाची, सदिति प्रशंसायां, मतिः-ज्ञानम् , अयमत्र वाक्यार्थः-आत्मना सह सदा या सन्मतिर्वर्तते तया सन्मत्या कश्चिजानीते, सहशब्दविशेषणाच सदाऽऽत्मस्वभावत्वं मतेरावेदितं भवति, न पुनर्यधा वैशेषिकाणां व्यतिरिक्ता सती समवायवृत्त्याऽऽत्मनि समवेतेति। यदि वा 'सम्मइए'त्ति स्वकीयया मत्या स्वमत्येति, तत्र भिन्नमप्यन्वादिकं स्वकीयं दृष्टमतः सहशब्दविशेषणं, सहशब्दश्वासमस्त इति, सत्यपि चात्मनः सदा मतिसन्निधाने प्रबलज्ञानाबरणावृतत्वान्न सदा विशिष्टोऽवबोध इति, सा पुनः स-IN न्मतिः स्वमतिर्वा अवधिमनःपर्यायकेवलज्ञानजातिस्मरणभेदाच्चतुर्विधा ज्ञेया, तत्रावधिमनःपर्यायकेवलानां स्वरू-2 पमन्यत्र विस्तेरणोक्तं, जातिस्मरणं त्वाभिनिवोधिकविशेषः, तदेवं चतुर्विधया मत्याऽऽत्मनः कश्चिद्विशिष्टदिग्गत्यागती जानाति, कश्चिच पर:-तीर्थकृत्सर्वज्ञः, तस्यैव परमार्थतः परशब्दवाच्यत्वात्परत्वं, तस्य तेन वा व्याकरणम्-उपदेशस्तेन जीवांस्तद्देदांश्च पृथिव्यादीन तद्गत्यागती च जानाति, अपरः पुनः 'अन्येषां' तीर्थकरव्यतिरिक्तानामतिशयज्ञानिनाम|न्तिके श्रुत्वा जानातीति, यच्च जानाति तत् सूत्रावयवेन दर्शयति-तद्यथा-पूर्वस्या दिश आगतोऽहमस्मि, एवं दक्षिणस्याः पश्चिमायाः उत्तरस्या ऊर्ध्वदिशोऽधोदिशोऽन्यतरस्या दिशोऽनुदिशो वाऽऽगतोऽहमस्मीत्येवमेकेषां विशिष्टक्षयोपशमादिमतां तीर्थकरान्यातिशयज्ञानिबोधितानां च ज्ञानं भवति, तथा प्रतिविशिष्टदिगागमनपरिज्ञानान्तरमेषामेतदपि ज्ञानं भवतियथा अस्ति मेऽस्य शरीरकस्याधिष्ठाता ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षण 'उपपादुकों' भवान्तरसंक्रातिभाग असर्वगतो भोक्का
विशिष्ट संज्ञादि कारणत्वात् पूर्वापरजन्मस्य ज्ञानं, आत्मस्वरूपं
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[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [४], नियुक्ति: [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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सारत्रवात्मि-
अध्ययन
श्रीआचा- रावृत्तिः (शी०)
..
मूतिरहितोऽविनाशी शरीरमात्रव्यापीत्यादिगुणवानात्मेति । स च द्रव्यकषाययोगोपयोगज्ञानदर्शनचारित्रवीर्यात्मभेदादष्टधा, तत्रोपयोगात्मना बाहुल्येनेहाधिकारः, शेषास्तु तदंशतयोपयुज्यन्त इति उपम्यस्ताः । तथा अस्ति च ममात्मा, | DIL योऽमुच्या दिशोऽनुदिशश्च सकाशाद् 'अनुसञ्चरति गतिप्रायोग्यकर्मोपादानादनु-पश्चात् सञ्चरत्यनुसञ्चरति, पाठान्तरं वा 'अणुसंसरईत्ति दिग्विदिशां गमनं भावदिगागमनं वा स्मरतीत्यर्थः । साम्प्रतं सूत्रावयवेन पूर्वसूत्रोक्कमेवार्थमुपसंहरति-सर्वस्या दिशः सर्वस्याश्चानुदिशो य आगतोऽनुसञ्चरति अनुसंस्मरतीति वा सः 'अहमित्यात्मोल्लेखः, अहंप्रत्ययग्राह्यत्वादात्मनः, अनेन पूर्वाधाः प्रज्ञापकदिशः सर्वा गृहीताः भावदिशश्चेति । इममेवा) नियुक्तिकृद्दर्शयितुमना गाथात्रितयमाह
जाणइ सयं मईए अनेसिं वाचि अन्तिए सोचा । जाणगजणपण्णविओ जीवं तह जीवकाए वा ॥३४॥ इत्थ य सह संमइअत्ति जं एवं तत्थ जाणणा होई । ओहीमणपज्जवनाणकेवले जाइस रणे य ॥६५॥ परवद वागरण पुण जिणवागरणं जिणा परं नत्थि । अण्णेसिं सोचंतिय जिणेहि सव्वो परो अपणो ॥६६॥
कश्चिदनादिसंसृतौ पर्यटन्नवध्यादिकया चतुर्विधया स्वकीयया मत्या जानाति । अनानुपूर्वीन्यायप्रकटनार्थ पश्चादुपात्तमप्यमन्येषामित्येतत्पदं तावदाचष्टे-'अन्येषां वा' अतिशयज्ञानिनामन्तिके श्रुत्वा जानाति, तथा 'जाणगजणपपणविओ' इत्यनेन परव्याकरणमुपातं, तेनायमों-ज्ञापकः-तीर्थकृत्तत्प्रज्ञापितश्च जानाति, यजानाति तत् स्वत एवम दर्शयति-सामान्यतो 'जीव'मिति, अनेन चाधिकृतोद्देशकस्यार्थाधिकारमाह, तथा 'जीवकायांश्च पृथ्वीकायादीन इत्य
| विशिष्ट संज्ञादि कारणत्वात् पूर्वापरजन्मस्य ज्ञानं, आत्मस्वरूपं
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अनुक्रम [४]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र- १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [१], मूलं [४], निर्युक्ति: [६६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित......आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
नेन चोत्तरेषां षण्णामप्युद्देशकानां यथाक्रममधिकारार्थमाहेति, अत्र च 'सह सम्मइए 'त्ति सूत्रे यत्पदं तत्र जाणणत्ति ज्ञानमुपात्तं भवति, 'मनि ज्ञाने' मननं मतिरितिकृत्वा तच्च किंभूतमिति दर्शयति- 'अवधिमनःपर्याय केवलजाति| स्मरणरूप' मिति, तत्रावधिज्ञानी संख्येयानसंख्येयान्वा भवान् जानाति, एवं मनःपर्यायज्ञान्यपि केवली तु नियमतोऽनन्तान्, जातिस्मरणस्तु नियमतः संख्येयानिति, शेषं स्पष्टम् । अत्र च सहसम्मत्यादिपरिज्ञाने सुखप्रतिपत्त्यर्थं त्रयो दृष्टान्ताः प्रदर्शयन्ते, तद्यथा-वसन्तपुरे नगरे जितशत्रू राजा, धारणी नाम महादेवी, तयोर्द्धर्मरुच्यभिधानः सुतः, स च राजाऽन्यदा तापसत्वेन प्रत्रजितुमिच्छुर्द्धर्मरुचिं राज्ये स्थापयितुमुद्यतः, तेन च जननी पृष्टा- किमिति तातो राज्यश्रियं त्यजति ?, तयोक्तम्-किमनया चपलया नारकादिसकलदुःखहेतुभूतया स्वर्गापवर्गमार्गार्गलया अवश्यमपायिन्या परमार्थत इहलोकेऽप्यभिमानमात्रफलयेत्यतो विहायैनां सकलसुखसाधनं धर्म कर्त्तुमुद्यतः, धर्मरुचिस्तदाकण्यक्तवान् यद्येवं किमहं तातस्यानिष्टो येनैवंभूतां सकलदोषाश्रयिणीं मयि नियोजयति, सकलकल्याणहेतोर्द्धर्मात्मच्यावयतीत्यभिधाय पित्राऽनुज्ञातस्तेन सह तापसाश्रममगात्, तत्र च सकलास्तापसक्रिया यथोक्ताः पालयन्नास्ते, अन्यदाऽमावास्यायाः पूर्वाह्ने केनचित्तापसेनोदघुष्टम् - यथा भो भोः तापसाः ! श्वोऽनाकुट्टिर्भविता, अतोऽचैव समित्कुसुमकुशकन्दफलमूलाद्याहरणं कुरुत, एतच्चाकर्ण्य धर्मरुचिना जनकः पृष्टः-तात ! केयमनाकुट्टिरिति तेनोक्तम्- पुत्र ! कन्दैफलादीनामच्छेदनं तद्ध्य१०या चेतो प्र०
२ एकेन प्र० ३ लतादीनामच्छे० प्र०
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विशिष्ट संज्ञादि कारणत्वात् पूर्वापरजन्मस्य ज्ञानं, आत्मस्वरूपं, जातिस्मरणज्ञाने 'धर्मरुचि:'-कथा
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [४], नियुक्ति: [६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
श्रीआचा
मावास्यादिके विशिष्टे पर्वदिवसे न वर्तते, सावद्यत्वाच्छेदनादिक्रियायाः, श्रुत्वा चैतदसावचिन्तयत्-यदि सर्वदाऽना- अध्ययनं१ राजवृत्तिः I|कुट्टिः स्याच्छोभनं भवेद् , एवमध्यवसायिनस्तस्थामावास्यायां तपोवनासन्नपथेन गच्छतां साधूनां दर्शनमभूत्, ते
चार (शी.)
TS| तेनाभिहिताः-किमद्य भवतामनाकुट्टिन सजाता येनाटवीं प्रस्थिताः, तैरप्यभिहितम्-'यथाऽस्माकं यावज्जीवमना-II ॥२१॥ कुट्टिरित्यभिधायातिक्रान्ताः साध्या, तस्य च तदाकार्येहापोहविमर्शन जातिमरणमुत्पन्न-यथाऽहं जन्मान्तरे प्रव्रज्यां
कृत्वा देवलोकसुखमनुभूयेहागत इति, एवं तेन विशिष्टदिगागमनं स्वमत्या-जातिस्मरणरूपया विज्ञातं, प्रत्येकबुद्धश्च जातः, एवमन्येऽपि वल्कलचीरिश्रेयांसप्रभृतयोऽत्र योज्या इति । परव्याकरणे विदमुदाहरणम्-गौतमस्वामिना भग-II वान्बर्द्धमानस्वामी पृष्टो-भगवन् ! किमिति मे केवलज्ञानं नोत्पद्यते ?, भगवता व्याकृत-भो गौतम ! भवतोऽतीव ममो-1|8| परि रहोऽस्ति, तद्वशात्, तेनोक्तम्-'भगवन्नेवमेवं, किंनिमित्तः पुनरसौ मम भगवदुपरि स्नेहः, ततो भगवता तस्य बहुषु भवान्तरेषु पूर्वसम्बन्धः समावेदितः 'चिरसंसिहोऽसि मे परिचिओऽसि मे गोयमेत्येवमादि, तच सीधेकृयाकरणमाकर्ण्य गौतमस्वामिनो विशिष्टदिगागमनादि विज्ञानमभूदिति । अन्यनवणे विदमुदाहरणम्-मलिस्वामिना षण्णां राजपुत्राणामुद्वाहार्थमागतानामवधिज्ञानेन तत्प्रतिबोधनार्थं यथा जन्मान्तरे सहितैरेव प्रव्रज्या कृता, यथा च तत्फलं| देवलोके जयन्ताभिधानविमानेऽनुभूतं तथाऽऽख्यातं, तञ्चाकर्ण्य ते लघुकर्मत्वात्प्रतिबुद्धा विशिष्टदिगागमनविज्ञानं च
ACEARSA
दीप अनुक्रम
ॐॐ455
॥२१॥
१.मेतत् प्र. २ विरसंराष्टोऽसि मया गौतम ! चिरपरिचितोऽसि मम गौतम !
| विशिष्ट संज्ञादि कारणत्वात् पूर्वापरजन्मस्य ज्ञानं, तत्र पर व्याकरणे गौतमस्वामी एवं अन्यश्रवणे मल्लिनाथस्य षण्णां पूर्वमित्राणाम्दाहरणं
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [५], नियुक्ति: [६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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सूत्रांक
USSAILS
दीप अनुक्रम
सञ्जातं, उक्तं च-'किं थे तैयं पम्हुई जं च तया भो ! जयंतपवरंमि । वुच्छा समयनिबद्धं देवा! तं संभरह जातिं ॥१ 8 इति गाथात्रयतात्पर्याः ॥४॥ है साम्प्रतं प्रकृतमनुम्रियते-यो हि सोऽहमित्यनेनाहकारज्ञानेनात्मोल्लेखेन पूर्वादेर्दिश आगतमात्मानमविच्छिन्नसंततिकापतितं द्रव्यार्थतया नित्यं पर्यायार्थतया त्वनित्यं जानाति स परमार्थतः आत्मवादीति सूत्रकृद्दर्शयति
से आयावादी लोयावादी कम्मावादी किरियावादी (सू०५) 'स' इति यो भ्रान्तः पूर्वं नारकतिर्यग्नरामराद्यासु भावदिक्षु पूर्वाद्यासु च प्रज्ञापकदिक्षु अक्षणिकामू दिलक्षणोपेतमात्मानमैवेति, स इत्थंभूतः 'आत्मवादी ति आत्मानं वदितुं शीलमस्येति, यः पुनरेवंभूतमात्मानं नाभ्युपगच्छति सोऽनात्मवादी नास्तिक इत्यर्थः । योऽपि सर्वव्यापिनं नित्यं क्षणिकं वाऽऽत्मानमभ्युपैति सोऽप्यनात्मवाद्येव, यतः सर्वव्यापिनो निष्क्रियत्वाद्भवान्तरसंक्रान्तिन स्यात्, सर्वधा नित्यत्वेऽपि 'अप्रच्युतानुसनस्थिरकस्वभाव नित्य'मितिकृत्वा मरणाभावेन भवान्तरसंक्रान्तिरेव न स्यात्, सर्वधा क्षणिकत्वेऽपि निर्मूलविनाशात्सोऽहमित्यनेन पूर्वोत्तरानुसन्धानं न स्यात् । य एव चात्मवादी स एव परमार्थतो लोकवादी, यतो लोकयतीति लोका-पाणिगणस्तै वदितुं शीलमस्येति, अनेन चात्माद्वैतवादिनिरासेनात्मबहुत्वमुक्त, यदिवा 'लोकापाती'ति लोकः-चतुर्दशरज्वात्मकः प्राणिगणो वा, तत्रापतितुं
१५.प्र. २ किमय तद्विस्मृतं यच तदा भो जयन्तप्रवरे । इपिताः नित्रद्धसमयं देवास्ता स्मरत जातिम् ॥ १॥ ३०नं वेति.
| आत्मवादिः अनात्मवादिश्च-स्वरूपं, आत्मवादेः लोकवादित्वं
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[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [५], नियुक्ति: [६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
दीप
अनुक्रम
श्रीआचा
शीलमस्येति, अनेन च विशिष्टाकाशखण्डस्य लोकसंज्ञाऽऽवेदिता, तत्र च जीवास्तिकायस्य सम्भवेन जीवानां गमना- अध्ययनर गमनमावेदितं भवति, य एव च दिगादिगमनपरिज्ञानेनात्मवादी लोकवादी च संवृत्तः, स एवासुमान् 'कर्मवादी' कर्म-IAL
उद्देशकः१ (शी०) ज्ञानावरणीयादि तद्वदितुं शीलमस्य, यतो हि प्राणिनो मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगैः पूर्व गत्यादियोग्यानि कर्मा
ण्याददते, पश्चात्तासु तासु विरूपपासु योनिषूत्पद्यन्ते, कर्म च प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशात्मकमवसेयमिति । अनेन च ॥२२॥
कालयदृच्छानियतीश्वरात्मवादिनो निरस्ता द्रष्टव्याः। तथा य एव कर्मवादी स एव क्रियावादी, यतः कर्म योगनिमित्त वध्यते, योगच व्यापारः, सच क्रियारूपः, अतः कर्मणः कार्यभूतस्य वदनात्तत्कारणभूतायाः क्रियाया अप्यसावेव परमार्थतो वादीति, क्रियायाश्च कर्मनिमित्तत्वं प्रसिद्धमागमे, स चायमागमः-"जाणं भंते ! एस जीवे सया समियं एयह वेयइ चलति फंदति घट्टति तिप्पति जाव तं तं भावं परिणमति तावं च णं अडविहबंधए वा सत्तविहबंधए वा
छब्बिबंधए वा एगविहबंधए वा णो णं अबंधए"त्ति, एवं च कृत्वा य एव कर्मवादी स एव क्रियावादीति, अनेन च 18 सांख्याभिमतमात्मनोऽक्रियावादित्वं निरस्तं भवति ॥ ५॥ साम्प्रतं पूर्वोक्ता क्रियामात्मपरिणतिरूपां विशिष्टकाला[भिधायिना तिड्प्रत्ययेनाभिदधदहंप्रत्ययसाध्यस्थात्मनस्तद्भव एवावधिमनःपर्यायकेवलज्ञानजातिस्मरण व्यतिरेकेणैव त्रिकालसंसर्शिना मतिज्ञानेन सद्भावावगर्म दर्शयितुमाह
१ यावद् भदन्त ! एष जीवः सदा समितमेजते म्येजते चलति पम्दते तिप्यति यावत् तं तं भावं परिणमति तापच अष्टविधयम्धको चा सप्त विधवन्धको दवा षड्धिबन्धको वा एक विषबन्धको बा, नाबन्धकः.
[
]
K
कर्मवादिः क्रियावादिश्च-स्वरूपं
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [६], नियुक्ति: [६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
(६)
दीप
अनुक्रम
अकरिस्सं चऽहं, कारवेसुं चाहं, करओ आवि समणुन्ने भविस्सामि (सू०६) इह भूतवर्तमानभविष्यकालापेक्षया कृतकारितानुमतिभिनव विकल्पाः संभवन्ति, ते चामी-अहमकार्षमचीकरमहं कुर्वन्तमन्यमनुज्ञासिषमहं करोमि कारयाम्यनुजानाम्यहमिति करिष्याम्यहं कारयिष्याम्यहं कुर्वन्तमन्यमनुज्ञास्याम्यह-18 मिति, एतेषां च मध्ये आद्यन्तौ सूत्रेणैवोपात्ती, तदुपादानाच्च तन्मध्यपातिनां सर्वेषां ग्रहणम् , अस्यैवार्थस्याविष्करणाय
द्वितीयो विकल्पः 'कारवेसुं चऽहमिति सूत्रेणोपात्तः, एते च चकारद्वयोपादानादपिशब्दोपादानाच्च मनोवाकायैश्चिदन्त्यमानाः सप्तविंशतिर्भेदा भवन्ति, अयमत्र भावार्थ:-अकार्षमहमित्यत्राहमित्यनेनात्मोलेखिना विशिष्टक्रियापरिणति
रूप आत्माऽभिहितः, ततश्चायं भावार्थो भवति स एवाहं येन मयाऽस्य देहादेः पूर्व यौवनावस्थायामिन्द्रियवशगेन विषयविषमोहितान्धचेतसा तत्तदकार्यानुष्ठानपरायणेनाऽऽनुकूल्यमनुष्ठितम् , उक्तं च-"विहेवावलेवनडिएहिं जाई कीरंति
जोव्वणमएणं । ययपरिणामे सरियाई ताई हियए खुडुकंति ॥ १ ॥" 'तथा अचीकरमह'मित्यनेन परोऽकार्यादी प्रवभर्तमानो मया प्रवृत्ति कारितः, तथा कुर्वन्तमन्यमनुज्ञातवानित्येवं कृतकारितानुमतिभिर्भूतकालाभिधानं, तथा 'करोमी'
त्यादिना वचनत्रिकेण वर्तमानकालोल्लेखः, तथा करिष्यामि कारयिष्यामि कुर्वतोऽन्यान् प्रति समनुज्ञापरायणो भविपाण्यामीत्यनागतकालोल्लेखः, अनेन च कालत्रयसंस्पर्शेन देहेन्द्रियातिरिक्तस्यात्मनो भूतवर्तमानभविष्यत्कालपरिणतिरू
१ चकारद्ववापिशब्दोपादानान्मनो• प्र. २ विभवावलेपनटितैर्यान्नि क्रियन्ते यौवनमदेन । पयःपरिणाम स्मृतानि तानि हृदये शल्यायन्ते ॥१॥
कृत्-कारित-अनुमित भेदेन २७-भेदा:, कर्मबंध परिज्ञा.
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आगम (०१)
“आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [७], नियुक्ति: [६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[७]
दीप
अनुक्रम
श्रीआचा- पस्यास्तित्वावगतिरावेदिता भवति, सा च नैकान्तक्षणिकनित्यवादिना सम्भवतीत्यतोऽनेन ते निरस्ता:, क्रियापरिणा- अध्ययनं१ राङ्गवृत्तिः । मेनात्मनः परिणामित्वाभ्युपगमादिति, एतदनुसारेणैव सम्भवानुमानादतीतानागतयोरपि भवयोरात्मास्तित्वमवसे यम् ।। (शी०) यदिवा-अनेन क्रियाप्रवन्धप्रतिपादनेन कर्मण उपादानभूतायाः क्रियायाः स्वरूपमावेदितमिति ॥ ६ ॥ अथ किमेतावत्याउद
उद्देशकः१ एव क्रिया उतान्या अपि सन्तीति, एता एवेत्याह॥२३॥
एयावंति सव्वावंति लोगसि कम्मसमारंभा परिजाणियव्वा भवंति (सू०७) एतावन्तः सर्वेऽपि 'लोके' प्राणिसङ्घाते 'कर्मसमारम्भाः' क्रियाविशेषा ये प्रागुक्ताः, अतीतानागतवर्तमानभेदेन || कृतकारितानुमतिभिश्च अशेषक्रियानुयायिना च करोतिना सर्वेषां सङ्ग्रहादिति, एतावन्त एव परिज्ञातव्या भवन्ति नान्य || इति । परिज्ञा च ज्ञप्रत्याख्यानभेदाद्विधा, तत्र ज्ञपरिज्ञयाऽऽत्मनो बन्धस्य चास्तित्वमेत्यवभिरेव सर्वैः कर्मसमारम्भैज्ञात भवति, प्रत्याख्यानपरिज्ञया च सर्वे पापोपादानहेतवः कर्मसमारम्भाः प्रत्याख्यातव्या इति । इयता सामान्येन जीवास्तित्वं प्रसाधितमधुना तस्यैवात्मनो दिगादिभ्रमणहेतूपदर्शनपुरस्सरमपायान् प्रदर्शितुमाह-यदिवा यस्तावदात्मकर्मा| दिवादी स दिगादिभ्रमणान्मोक्ष्यते, इतरस्य तु विपाकान् दर्शयितुमाहअपरिणायकम्मा खलु अयं पुरिसे जो इमाओ दिसाओ अणुदिसाओ अणुसंचरइ,
का॥२३॥ सब्बाओ दिसाओ सव्वाओ अणुदिसाओ साहेति (सू०८)
(७)
कर्मबंध परिज्ञा,
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आगम
(०१)
प्रत सूत्रांक
[<]
दीप
अनुक्रम
[4]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [१], मूलं [८], निर्युक्ति: [६६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित
योऽयं पुरं शयनात्पूर्णः सुखदुःखानां वा पुरुषो जन्तुर्मनुष्यो वा, प्राधान्याच्च पुरुषस्योपादानम्, उपलक्षणं चैतत् सर्वोऽपि चतुर्गत्यापन्नः प्राणी गृह्यते, दिशोऽनुदिशो वाऽनुसञ्चरति सः 'अपरिज्ञातकर्मा' अपरिज्ञातं कर्मानेनेत्यपरिज्ञातकर्म्मा, खलुरवधारणे, अपरिज्ञातकर्मैव दिगादौ भ्राम्यति नेतर इति, उपलक्षणं चैतद्, अपरिज्ञातात्मापरिज्ञातक्रियश्चेति, यश्चापरिज्ञातकर्मा स सर्वा दिशः सर्वाश्चानुदिशः 'साहेति' स्वयंकृतेन कर्मणा सहानुसञ्चरति सर्वग्रहणं सर्वासां प्रज्ञापकदिशां भावदिशां चोपसङ्ग्रहार्थम् ॥ ८ ॥ स यदाप्नोति तद्दर्शयति
आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र - [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
अगरूवाओ जोणीओ संधेइ, विरूवरूवे फासे पडिसंवेदेइ (सू०९ )
अनेकं संकटविकटादिकं रूपं यासां तास्तथा यौति - मिश्रीभवत्यौदारिकादिशरीरवर्गणापुद्गलैरसुमान् यासु ता योनयः - प्राणिनामुत्पत्तिस्थानानि, अनेकरूपत्वं चासां संवृतविवृतोभयशीतोष्णोभयरूपतया, यदिवा चतुरशीतिलक्षभेदेन, ते चामी चतुरशीतिर्लक्षा:- 'पुंढवीजलजलणमारुय एक्केके सत्त सत्त लक्खाओ । वण पत्तेय अणते दस चोद्दस जोणिलक्खाओ ॥ १ ॥ विगलिंदिए दो दो चउरो चउरो य णारयसुरेसुं । तिरिए हुति चउरो चोदस लक्खा य
१ पृथ्वी जलज्वलनमारुतेषु एकैकस्मिन् सप्त सप्त कक्षाः प्रत्येकपने अनन्ते दश चतुर्दश योनिलाः ॥ १ ॥ विकलेन्द्रियेषु द्वे द्वे तच नारकसुरेषु । तिरधि भवन्ति चतचतुर्दश लक्षा मनुष्येषु ॥ २॥
कर्मबंध परिज्ञा, 'अपरिज्ञातकर्मा' स्वरूपं, ८४ लक्ष जीव-योनि स्वरूपं
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [९], नियुक्ति: [६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
दमणुएसु ॥२॥ तथा शुभाशुभभेदेन योनीनामनेकरूपत्वं गाथाभिः प्रदर्यते-सीयादी जोणीओ चउरासीती य सय- अध्ययन राङ्गवृत्तिः सहस्साई । असुभाओ य सुभाओ तत्थ सुभाओ इमा जाण ॥१॥ अस्संखाउमणुस्सा राईसर संखमादिभाऊणं । ति-शिक (शी०) वास्थगरनामगोत्तं सव्यसुहं होइ नायन्वं ॥२॥ तत्थवि य जाइसंपन्नतादि सेसाउ हुंति असुभाओ। देवेसु किच्चिसादी
सेसाओ हुँति उ सुभाओ॥ ३ ॥ पंचिंदियतिरिएK हयगयरयणे हवंति उ सुभाओ । सेसाओ अ सुभाओ सुभवण्णे॥२४॥
गिदियादीया ॥४॥ देविंदचक्कवट्टित्तणाई मोनुं च तित्थगरभाव । अणगारभाविताविय सेसा उ अर्णतसो पत्ता
॥ ५ ॥” एताश्चानेकरूपा योनीदिंगादिषु पर्यटनपरिज्ञातकर्माऽसुमान् 'संधेईत्ति सन्धयति-सन्धि करोत्यात्मना, द सहाविच्छेदेन संघट्टयतीत्यर्थः, 'संधावईत्ति वा पाठान्तरं, 'सन्धावति' पौनःपुन्येन तासु गच्छतीत्यर्थः, तत्सन्धाने
च यदनुभवति तूदर्शयति-विरूपं-बीभत्सममनोज्ञं रूपं-स्वरूपं येषां स्पर्शानां दुःखोपनिपातानां ते तथा, स्पर्शाश्रिता दुःखोपनिपाताः स्पर्शा इत्युक्ताः, 'तास्थ्यात्तन्यपदेश' इतिकृत्वा, उपलक्षणं चैतन्मानस्योऽपि वेदना| ग्राह्याः, अतस्तानेवम्भूतान् स्पर्शान् 'प्रतिसंवेदयति' अनुभवति, प्रतिग्रहणात्मत्येक शारीरान्मानसांश्च दु:खो-|
॥२४॥
१ शीताद्या योनयश्चतुरशीतिश्च शतसहस्राणि । अशुभाः शुभाश्च तत्र शुभा इमा जानीहि ॥ १ ॥ असंख्यायुर्मनुष्याः संख्यायुम्कामां राजेवरायाः । तीर्थकरनामगोत्रं सर्वागं भवति ज्ञातव्यम् ॥ २ ॥ तत्रापि च जातिसम्पन्नताद्याः शेषा भवन्त्यशुभाः । देवेषु किल्विषायाः शेषा भवन्ति च शुभाः ॥ ३ ॥ पश्चेन्द्रियति । |हयगजरनयोभवति शुभा। शेषाश्च शुभाः शुभवर्ग केन्द्रिमायाः ॥४॥ देवेन्द्रचक्रवर्तिखे मक्त्वा तीर्थंकरभाषाभाषितानगारतामपि च शेषास्त्वनन्तशः प्राप्ताः।।५।।
२ताःप्र.
शुभाशुभ भेदेन जीव-योनि स्वरूपं, संसारपरिभ्रमणं
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [९], नियुक्ति: [६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सुत्रांक
पनिपाताननुभवतीत्युक्तं भवति, स्पर्शग्रहणं चेह सर्वसंसारान्तर्वर्तिजीवराशिसङ्ग्रहार्थ, स्पर्शनेन्द्रियस्य सर्वजीवच्या-| पित्वाद्, अत्रेदमपि वक्तव्यं-सर्वान्विरूपरूपान् रसगन्धरूपशब्दान् प्रतिसंवेदयतीति, विरूपरूपत्वं च स्पर्शानां कार्यभूतानां विचित्रकर्मोदयात्कारणभूताझवतीति वेदितव्यं, विचित्रकर्मोदयाच्चापरिज्ञातकमों संसारी पर्शादी- न्विरूपरूपास्तेषु तेषु योन्यन्तरेषु विपाकतः परिसंवेदयतीति, आह च-"तैः कर्मभिः स जीवो विवशः संसार|चक्रमुपयाति । द्रव्यक्षेत्राद्धाभावभिन्नमावर्त्तते बहुशः॥ १ ॥ नरकेषु देवयोनिषु तिर्यग्योनिषु च मनुजयोनिषु च । पर्य
टति घटीयन्त्रवदात्मा विचच्छरीराणि ॥ २ ॥ सततानुबद्धमुक्कं दुःखं नरकेषु तीनपरिणामम् । तिर्यक्षु भयक्षुत्तधा| दिदुःखं सुखं चाल्पम् ॥ ३ ॥ सुखदुःखे मनुजानां मनःशरीराश्रये बहुविकल्पे । सुखमेव हि देवानां दुःखं स्वल्पं च मनसि भवम् ॥ ४ ॥ कर्मानुभावदुःखित एवं मोहान्धकारगहनवति । अग्ध इव दुर्गमार्गे भ्रमति हि संसारकान्तारे| ॥ ५ ॥ दुःखप्रतिक्रियार्थ सुखाभिलाषाच पुनरपि तु जीवः । प्राणिवधादीन दोषानधितिष्ठति मोहसंछन्नः ॥६॥ बन्नाति ततो बहुविधमन्यत्पुनरपि नवं सुबहु कर्म । तेनाथ पच्यते पुनरग्नेरग्निं प्रविश्येव ॥ ७॥ एवं कर्माणि पुनः पुनः स | बभंस्तथैव मुचंच । सुखकामो बहुदुःखं संसारमनादिकं भ्रमति ॥ ८॥ एवं धमतः संसारसागरे दुर्लभ मनुष्यत्वम् । |संसारमहत्त्वाधार्मिकत्वदुष्कर्मबाहुल्यैः॥ ९ ॥ आर्यों देशः कुलरूपसम्पदायुश्च दीर्घमारोग्यम् । यतिसंसर्गः श्रद्धा धर्मश्रवणं च मतितक्ष्ण्यम् ॥ १० ॥ एतानि दुर्लभानि प्राप्तवतोऽपि दृढमोहनीयस्य । कुपथाकुलेऽहंदुक्तोऽतिदुर्लभो
१तने प्रक
अनुक्रम [९]]
A4%-84
| अपरिज्ञातकर्मा आत्मानाम् विविध जीव-योनि मध्ये परिभ्रमणं
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[S]
दीप
अनुक्रम [१०]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [१], मूलं [९], निर्युक्ति: [६६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र - [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीमाचा
राङ्गवृत्तिः
(शी० )
॥ २५ ॥
*
४
जगति सन्मार्गः ॥ ११ ॥” यदि वा योऽयं पुरुषः सर्वा दिशेोऽनुदिशश्चानुसञ्चरति तथाऽनेकरूपा योनीः सन्धावति विरूपरूपांश्च स्पर्शान् प्रतिसंवेदयति, सः 'अविज्ञातकर्मा' अविज्ञातम् - अविदितं कर्म क्रिया व्यापारो मनोवाक्कायलक्षणः, अकार्षमहं करोमि करिष्यामीत्येवंरूपः जीवोपमर्दात्मकत्वेन बन्धहेतुः सावद्यो येन सोऽयमविज्ञातकर्मा, अविज्ञातकर्मत्वेन च तत्र तत्र कर्मणि जीवोपमर्दादिके प्रवर्त्तते येन येनास्याष्टविधकर्म्मबन्धो भवति, तदुदयाच्चानेकरूपयोन्यनुसन्धानं विरूपरूपस्पर्शानुभवश्च भवतीति ॥ ९ ॥ यद्येवं ततः किमित्यत आह
तत्थ खलु भगवता परिण्णा पवेइआ (सू० १० )
'तत्र' कर्मणि व्यापारे अकार्षमहं करोमि करिष्यामीत्यात्मपरिणतिस्वभावतया मनोवाक्कायव्यापाररूपे 'भगवता' वीरवर्द्धमानस्वामिना परिज्ञानं परिज्ञा सा प्रकर्षेण प्रशस्ताऽऽदौ वा वेदिता प्रवेदिता, एतच्च सुधर्मस्वामी जम्बूस्वा मिनाम्ने कथयति सा च द्विधा ज्ञपरिज्ञा प्रत्याख्यानपरिज्ञा च तत्र ज्ञपरिज्ञया सावद्यव्यापारेण बन्धो भवतीत्येवं भगवता परिज्ञा प्रवेदिता, प्रत्याख्यानपरिज्ञया च सावद्ययोगा बन्धहेतवः प्रत्याख्येया इत्येवंरूपा चेति ॥ अमुमेवार्थ निर्युक्तिकृदाह
तत्थ अकारि करिस्संति बंधचिंता कया पुणो होइ । सहसम्मइया जाणइ कोइ पुण हेतुजत्तीए ॥ ६७ ॥ 'तत्र' कर्मणि क्रियाविशेषे, किम्भूत इत्याह- 'अकारि करिस्संति' अकारीति कृतवान् करिस्सन्ति करिष्यामीति, अनेनातीतानागतोपादानेन तन्मध्यवर्तिनो वर्त्तमानस्य कारितानुमत्योश्चोपसहान्नचापि भेदा आत्मपरिणामत्वेन यो
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अध्ययनं १
उद्देशकः १
॥ २५ ॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [१०], नियुक्ति: [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [१०]
-+
-+
दीप अनुक्रम [१०]
गरूपा उपात्ता द्रष्टव्याः, तत्रानेनात्मपरिणामरूपेण क्रियाविशेषेण 'बन्धचिन्ता कृता भवति' बन्धस्योपादानमुपातं भवति, 'कर्म योगनिमित्तं बध्यते' इति वचनात्, एतच्च कश्चिजानाति आत्मना सह या सन्मतिः स्वमति-अवधिमनापर्यायकेवलजातिस्मरणरूपा तया जानाति, कृश्चिच्च पक्षधर्मान्वयव्यतिरेकलक्षणया हेतुयुत्त्येति । अथ किमर्थमसी कटुकविपाकेषु कर्माश्रवहेतुभूतेषु क्रियाविशेषेषु प्रवत्तेत इत्याहइमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जाईमरणमोयणाए दुक्खपडिघायहेउं (सू०११)
तत्र जीवितमिति-जीवन्त्यनेनायुःकर्मणेति जीवित-प्राणधारणम् , तच्च प्रतिप्राणि स्वसंविदितमितिकृत्वा प्रत्यक्षास-III नवाचिनेदमा निर्दिशति, चशब्दो वक्ष्यमाणजात्यादिसमुच्चयार्थः, एवकारोऽवधारणे, अस्यैव जीवितस्यार्थे परिफल्गु-18 सारस्य तडिल्लताविलसितचञ्चलस्य बहपायस्य दीर्घसुखाई क्रियासु प्रवत्तेते, तथाहि-जीविष्याम्यहमरोगः सुखेन भो-13 गान् भोक्ष्ये ततो व्याध्यपनयनार्थ स्नेहापानलावकपिशितभक्षणादिषु क्रियासु प्रवर्तते, तथाऽल्पस्य सुखस्य कृते अभिमानग्रहाकुलितचेता बहारम्भपरिग्रहाद्बहशुभं कर्मादत्ते, उक्तं च-"वे वाससी प्रवरयोपिदपायशुद्धा, शय्याऽऽसने करिबरस्तुरगो रथो वा । काले भिपनियमिताशनपानमात्रा, राज्ञः पराक्यमिव सर्वमवेहि शेषम् ॥ १ ॥ पुष्यर्थमन्नमिह | यत्प्रणिधिप्रयोगैः, संत्रासदोषकलुपो नृपतिस्तु भुङ्क्ते। यनिर्भयः प्रशमसौख्यरतिश्च भैक्षं, तत् स्वादुतां भृशमुपैति न पार्थिवान्नम् ॥ २॥ भृत्येषु मन्त्रिषु सुतेषु मनोरमेषु, कान्तासु वा मधुमदाकरितेक्षणासु । विनम्भमेति न कदाचिदपि क्षितीशः, सर्वाभिशकित्तमतेः कतरत्तु सौख्यम् ॥ ३ ॥" तदेवमनवबुद्धतरुणकिशलयपलाशचञ्चलजीवितरतयः कर्मा-IN
MARNATAK
S
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कर्माश्रव-हेतुभूत क्रियाविशेषे प्रवर्तने जीवस्य हेतु:
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [११], नियुक्ति: [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११]
दीप अनुक्रम [११]
श्रीआचा-1 वेषु जीवितोपमर्दादिरूपेषु प्रवर्तन्ते, तथाऽस्यैव जीवितस्य परिवन्दनमाननपूजनार्थ हिंसादिषु प्रवर्तन्ते, तत्र 'परि- अध्ययनं १ रावृत्तिः
वन्दनं' संस्तवः प्रशंसा तदर्थमाचेष्टते, तथाहि-अहं मयूरादिपिशिताशनाद्बली तेजसा देदीप्यमानो देवकुमार इव (शी०) लोकानां प्रशंसास्पदं भविष्यामीति 'माननम्' अभ्युत्थानासनदानाञ्जलिपग्रहादिरूपं तदर्थं वा चेष्टमानः कमोचि
उद्देशकः१ नोति तथा पूजन पूजा-द्रविणवस्त्रानपानसत्कारप्रणामसेवाविशेषरूपं तदर्थं च प्रवर्त्तमानः क्रियासु कर्माश्रवैरात्मानं ॥२६॥
सम्भावयति, तथाहि-वीरभोग्या वसुन्धरे'ति मत्वा पराक्रमते, दण्डभयाच सर्वा प्रजा बिभ्यतीति दण्डयति, इत्येवं
राज्ञामन्येषामपि यथासम्भवमायोजनीयम् , अत्र च चन्दनादीनां द्वन्द्वसमासं कृत्वा तादर्थे चतुर्थी विधेया, परिव18/न्दनमाननपूजनाय जीवितस्य कर्माश्रयेषु प्रवर्तन्त इति समुदायार्थः । न केवलं परिवन्दनाद्यर्थमेव कर्मादत्ते, अन्या
र्थमप्यादत्त इति दर्शयति-जातिश्च मरणं च मोचनं च जातिमरणमोचनमिति समाहारद्वन्द्वात्तादर्थे चतुर्थी, एतदर्थे । च प्राणिनः क्रियासु प्रवर्त्तमानाः कर्माददते, तत्र जात्यर्थ क्रौञ्चोरिवन्दनादिकाः क्रिया विधत्ते, तथा यान् यान कामान् ब्राह्मणादिभ्यो ददाति तांस्तानन्यजन्मनि पुनर्जातो भोक्ष्यते, तथा मनुनाऽप्युक्तम्-“वारिदस्तृप्तिमामोति, सुख-I मक्षयमनदः । तिलप्रदः प्रजामिष्टामायुष्कमभयप्रदः ॥११॥" अत्र चैकमेव सुभाषितम्-अभयप्रदान'मिति तुषमध्ये कणिकावदिति, एवमादिकुमार्गोपदेशाद्धिसादौ प्रवृत्तिं विदधाति । तथा मरणार्थमपि पितृपिण्डदानादिषु क्रियासु प्रवतते , यदिवा भमानेन सम्बन्धी व्यापादितस्तस्य वैरनिर्यातनार्थ वघबन्धादौ प्रवर्त्तते, यदिवा मरणनिवृत्त्यर्थमात्मनो ॥२६॥
१ कार्तिकेयः, -
कर्माश्रव-हेतुभूत क्रियाविशेषे प्रवर्तने जीवस्य हेतुः, ते ते क्रिया:
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [११], नियुक्ति: [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११]
दीप अनुक्रम [११]
|दुर्गाद्युपयाचितमजादिना बलिं विधत्ते यशोधर इव पिष्टमयकुक्कुटेन, तथा मुक्त्यर्थमज्ञानावृतचेतसः पश्चाग्नितपोऽनुष्ठानादिकेषु प्राण्युपमईकारिषु प्रवर्त्तमानाः कर्माददते, यदिवा जातिमरणयोर्विमोचनाय हिंसादिकाः क्रियाः कुर्वते । 'जाइमरणभोयणाए'त्ति वा पाठान्तरं, तत्र भोजनार्थ कृष्यादिकर्मसु प्रवर्त्तमाना वसुधाजलज्वलनपवनवनस्पतिद्वित्रिचतुप्पश्चेन्द्रियव्यापत्तये व्याप्रियन्त इति । तथा दुःखप्रतिघातमुररीकृत्यात्मपरित्राणार्थमारम्भानासेवन्ते, तथाहि-व्याधिवेदना" लावकपिशितमदिराद्यासेवन्ते, तथा वनस्पतिमूलत्वपत्रनिर्यासादिसिद्धशतपाकादितैलार्धमझ्यादिसमारम्भेण पापं कुर्वन्ति स्वतः कारयन्त्यन्यैः कुर्वतोऽन्यान् समनुजानत इत्येवमतीतानागतकालयोरपि मनोवाकाययोगैः कर्मादानं | विदधतीत्यायोजनीयम् । तथा दुःखप्रतिघातार्थमेव सुखोपत्त्यर्थं च कलत्रपुत्रगृहोपस्करायाददते, तल्लाभपालनार्थं च तासु तासु क्रियासु प्रवर्त्तमानाः पापकर्मासेवन्त इति, उक्तं च "आदौ प्रतिष्ठाऽधिगमे प्रयासो, दारेषु पश्चाद्वृहिणः सुतेषु ।। कर्तुं पुनस्तेषु गुणप्रकर्ष, चेष्टा तदुचैःपदलहनाय ॥१॥" तदेवंभूतैः क्रियाविशेषः कर्मोपादाय नानादिश्वनुसञ्चरन्ति
अनेकरूपासु च योनिषु सन्धावन्ति विरूपरूपांश्च स्पर्शान् प्रतिसंवेदयन्ति, इत्येतज्ज्ञात्वा क्रियाविशेषनिवृत्तिर्विधेयेति । दा॥११॥ एतावन्त एव च क्रियाविशेषा इति दर्शयितुमाह
एयावंति सव्वावंति लोगसि कम्मसमारंभा परिजाणियव्वा भवंति (सू०१२) 'एआवन्ती सब्यावन्तीति एतौ द्वौ शब्दो मागधदेशीभाषाप्रसिद्ध्या एतावन्तः सर्वेऽपीत्येतपर्यायी, एतावन्त एव १मोक्षाया प्र.
%AR
कर्माश्रव-हेतुभूत क्रियाविशेषे प्रवर्तने जीवस्य हेतुः, ते ते क्रिया:
[64]
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [१२], नियुक्ति: [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१]
दीप अनुक्रम [१२]
श्रीआचा- सर्वस्मिन् 'लोके' धर्माधर्मास्तिकायावच्छिन्ने नभःखण्डे ये पूर्व प्रतिपादिताः कर्मसमारम्भाः क्रियाविशेषाः, नैतेभ्यो- अध्ययन रावृत्तिःधिकाः केचन सन्तीत्येवं परिज्ञातव्या भवन्ति, सर्वेषां पूर्वत्रोपादानादिति भावः तथाहि-आत्मपरोभयहिकामुष्मिका
उद्देशकः (शी) तीतानागतवर्तमानकालकृतकारितानुमतिभिरारम्भाः क्रियन्ते, ते च सर्वेऽपि मागुपात्ता यथासम्भवमायोज्या इति
॥ १२॥ एवं सामान्येन जीवास्तित्वं प्रसाध्य तदुपमईकारिणां च क्रियाविशेषाणां बन्धहेतुत्वं प्रदश्योपसंहारद्वारेण ॥२७॥ विरतिं प्रतिपादयन्नाह
जस्सेते लोगसि कम्मसमारंभा परिणाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे
(सू०१३) तिबेमि ॥ प्रमथोद्देशकः १॥ भगवान् समस्तवस्तुवेदी केवलज्ञानेन साक्षादुपलभ्यैवमाह-'यस्य' मुमुक्षोः 'एते' पूर्वोक्ताः 'कर्मसमारम्भाः' क्रिया|| विशेषाः कमणो वा-ज्ञानावरणीयाधष्टप्रकारस्य समारम्भा-उपादानहेतवस्ते च क्रियाविशेषा एव, परि-समन्तात् ज्ञाताः। IN||-परिच्छिमाः कर्मबन्धहेतुत्वेन भवन्ति, हुरवधारणे, मनुते मन्यते वा जगतखिकालावस्थामिति मुनिः स एव मुनिज्ञे
परिज्ञया परिज्ञातकर्मा प्रत्याख्यानपरिजया च प्रत्याख्यातकर्मबन्धहेतुभूतसमस्तमनोवाक्कायव्यापार इति, अनेन पाच मोक्षाङ्गभूते ज्ञानक्रिये उपात्ते भवतो, न ह्याभ्यां विना मोक्षो भवति, यत उक्तम्-"ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष" इति । GU२७॥
इतिशब्द एतावानयमात्मपदार्थविचारः कर्मवन्धहेतुविचारश्च सकलोद्देशकेन परिसमापित इति प्रदर्शक, यदिवा
कर्मबंधस्य कारणभूत क्रियाविशेषा:
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१३], नियुक्ति: [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३]
दीप अनुक्रम [१३]
इति एतदहं ब्रवीमि यत्सागुक्तं यच्च वक्ष्ये तत्सर्वं भगवदन्तिके साक्षात् श्रुत्वेति शस्त्रपरिज्ञायां प्रशमोद्देशकः समाप्तः॥
उक्तः प्रथमोद्देशकः साम्प्रतं द्वितीयः प्रस्तूयते-अस्स चायमभिसम्बन्धः-प्रथमोद्देशके सामान्येन जीवास्तित्वं प्रसाहै धितम्, इदानीं तस्यैवेकेन्द्रियादिपृथिव्याद्यस्तित्वप्रतिपिपादयिषयाऽऽह-यदिवा प्राक् परिज्ञातकर्मत्वं मुनित्वकारण
मुपादेशि, यः पुनरपरिज्ञातकर्मत्वान्मुनिर्न भवति-विरतिं न प्रतिपद्यते स पृथिव्यादिषु बम्भ्रमीति, अथ क एते पृथिव्यादय इत्यतस्तद्विशेषास्तित्वज्ञापनार्थमिदमुपक्रम्यत इति । अनेनाभिसम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्य चत्वायनुयोगद्वाराणि वाच्यानि, यावन्नामनिष्पन्ने निक्षेपे पृथिव्युद्देशक इति, तत्रोद्देशकस्य निक्षेपादेरन्यत्र प्रतिपादितत्वान्नेह प्रदर्श्यते, पृथिव्यास्तु यन्निक्षेपादि सम्भवति तनियुक्तिकृद्दर्शयितुमाह
पुढचीए निकखेवो परूवणालक्खणं परीमाणं । उपभोगो सत्थं वेयणा य वहणा निवित्तीय ॥१८॥
प्राग् जीवोद्देशके जीवस्य प्ररूपणा किं न कृतेत्येतच नाशङ्कनीय, यतो जीवसामान्यस्य विशेषाधारत्वात् विशेषस्य शाच पृथिव्यादिरूपरवात् सामान्यजीवस्य चोपभोगादेरसम्भवात् पृथिव्यादिचर्चयैव तस्य चिन्तितत्वादिति । तत्र पृधिव्या
नामादिनिक्षेपो वक्तव्यः, प्ररूपणा-सूक्ष्मवादरादिभेदा, लक्षणं-साकारानाकारोपयोगकाययोगादिकं, परिमाण-संवर्ति
तलोकप्रतरासंख्येयभागमात्रादिकम् , उपभोगः-शयनासनचमणादिकः, शस्त्रं-हाम्लक्षारादि, वेदना-स्वशरीराव्यक्तकाचेतनानुरूपा सुखदुःखानुभवस्वभावा, वधा-कृतकारितानुमतिभिरुपमईनादिका, निवृत्ति-अप्रमत्तस्य मनोवाकायगु
प्याऽनुपमहादिकेति समासाथैः । व्यासार्थं तु नियुक्तिकृद्यथाक्रममाह
प्रथम अध्ययने द्वितीय: उद्देशक: 'पृथ्विकाय' आरब्धः, 'पृथ्वी' शब्दस्य निक्षेपा:,
[66]
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१३]
दीप
अनुक्रम [१३]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [२], मूलं [ १३...], निर्युक्ति: [६९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र - [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचा
नामंठवणापुढवी दव्यपुढवी व भावपुढवी य। एसो खलु पुढवीए निक्खेवो चउविहो होइ ॥ ६९ ॥ राङ्गवृत्तिः * स्पष्टा, नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्याह
दवं सरीरभविओ भावेण य होइ पुढविजीवो उ। जो पुढविनामगोयं कम्मं वेएइ सो जीवो ॥ ७० ॥ द्रव्यपृथिवी आगमतो नोआगमतश्च, आगमतो ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः, नोआगमतस्तु पृथिवीपदार्थज्ञस्य शरीरं + जीवापेतं तथा पृथिवीपदार्थज्ञत्वेन भव्यो वालादिस्ताभ्यां विनिर्मुक्तो द्रव्यपृथिवीजीयः- एकभविको बद्धायुष्कोऽभिमु खनामगोत्रश्च भावपृथिवीजीवः पुनर्यः पृथिवीनामादिकर्मोदीर्ण वेदयति । गतं निक्षेपद्वारं, साम्प्रतं प्ररूपणाद्वारम् -- दुविहाय पुढचिजीवा सुहुमा तह बायरा य लोगंमि । सुहुमा य सव्वलोए दो चैव य बाघरविहाणा ॥ ७१ ॥ पृथिवीजीवा द्विविधाः - सूक्ष्मा बादराश्च, सूक्ष्मनामकर्मोदयात् सूक्ष्माः, बादरनामकर्मोदयान्तु बादराः, कर्मोदयजनिते एवैषां सूक्ष्मवादरत्वे न त्वापेक्षिके बदरामलकयोरिव । तत्र सूक्ष्माः समुद्गकपर्याप्तप्रक्षिप्तगन्धावयववत् सर्वलोकव्यापिनः, बादरास्तु मूलभेदाद्विविधा इत्याह-
दुवा बारपुढवी समासओ सण्हपुढवि खरपुढवी । सण्हा य पंचवण्णा अवरा छत्तीसहविहाणा ॥ ७२ ॥ 'समासतः' संक्षेपाद्विविधा बादरपृथिवी श्लक्ष्णबादरपृथिवी खरबादरपृथिवी च तत्र श्लक्ष्णवादरपृथिवी कृष्णनीललोहितपीतशुक्लभेदासश्चधा, इह च गुणभेदाद्गुणिभेदोऽभ्युपगन्तव्यः, खरवादरपृथिव्यास्त्वन्येऽपि षटूत्रिंशद्विशेषभेदाः सम्भवन्तीति ॥ तानाह
(शी०)
॥ २८ ॥
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'पृथ्वी' शब्दस्य निक्षेपा, 'पृथ्व्या: भेदा:
For Pernal Use On
[67]
१ अध्ययनं १
उद्देशकः २
॥ २८ ॥
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१३]
दीप
अनुक्रम [१३]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१३...], निर्युक्तिः [७३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र - [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
पुढवी व सकरा बालुगा य उबले सिला य लोणूसे। अय तंब तउअ सीसग रुप्प सुवण्णे य बहरे य ॥ ७३ ॥ हरियाले हिंगुलए मनोसिला सासगंजण पवाले । अम्भपडलम्भवालुअ बायरकाए मणिविहाणा ॥ ७४ ॥ गोमेज य रुयगे अंको फलिहे य लोहियक्खे य । मेरगय मसारगल्ले भुयमोयग इंदनीले य ॥ ७५ ॥ चंद पह बेरुलिए जलकंते चैव सूरकन्ते य । एए खरपुढवीए नाम छत्तीस होइ ॥ ७६ ॥
अत्र च प्रथमगाथया पृथिव्यादयश्चतुर्द्दश भेदाः परिगृहीताः, द्वितीयगाथया त्वष्ट हरितालादयः, तृतीयगाथया दश गोमेदकादयः, तुर्यगाथया चत्वारश्चन्द्रकान्तादयः । अत्र च पूर्वगाथाद्वयेन सामान्यपृथिवीभेदाः प्रदर्शिताः, उत्तरगाथाद्वयेन मणिभेदाः प्रदर्शिताः, एताः स्पष्टा इति कृत्वा न विवृताः ॥ एवं सूक्ष्मवादरभेदान् प्रतिपाद्य पुनर्वर्णादिभेदेन पृथिवीभेदान् दर्शयितुमाह
वण्णरसगंधकासे जोणिप्पमुहा भवंति संखेज्जा । णेगाइ सहस्साई हुति बिहामि इक्किके ॥ ७७ ॥
तत्र वर्णाः शुक्लादयः पञ्च रसास्तिक्कादयः पञ्च गन्धौ सुरभिदुरभी स्पर्शाः मृदुकर्कशादयः अष्टी, तत्र वर्णादिके एकैकस्मिन् 'योनिप्रमुखा' योनिप्रभृतयः संख्येया भेदा भवन्ति, संख्येयस्यानेकरूपत्वाद्विशिष्टसंख्यार्थमाह-अनेकानि सहस्राणि एकैकस्मिन् वर्णादिके 'विधाने' भेदे भवन्ति, योनितो गुणतश्च भेदानामिति । एतच्च सप्तयोनिलक्षप्रमाणत्वात्
१ चंदण गेय इंसा भुयमोय मसारगले व प्र.
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'पृथ्व्या: भेदा:, (वर्ण-आदि भेदे)
For Parts Only
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१३]
दीप
अनुक्रम [१३]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [२], मूलं [ १३...], निर्युक्ति: [७७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र - [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचाराङ्गवृतिः
(शी०)
॥ २९ ॥
पृथिव्या एवं सम्भावनीयमिति । उक्तं च प्रज्ञापनायाम् - "तैत्थ णं जे ते पज्जत्तगा एएसि णं वण्णादेसेणं गंधादेसेणं रसादेसेणं फासादेसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई संखेज्जाई जोणिपमुहसयसहस्साई पज्जत्तयणिस्साए अपजत्तया वकमंति, तं जत्थेगो तत्थ नियमा असंखेजा, से तं खरबायरपुढ विकाइया" इह च संवृतयोनयः पृथिवीकायिका उक्ताः, सा पुनः सचित्ता अचित्ता मिश्रा वा, तथा पुनश्च शीता उष्णा शीतोष्णा वेत्येवमादिका द्रष्टव्येति ॥ एतदेव भूयो निर्युक्तिकृत्
स्पष्टतरमाह-
वर्णमि य इक्किके गंधमि रसंमि तह य फासंमि । नाणत्ती कायव्वा विहाणए होइ इकिकं ॥ ७८ ॥ वर्णादिके एकैकस्मिन् 'विधाने' भेदे सहस्राशो नानात्वं विधेयं, तथाहि कृष्णो वर्ण इति सामान्यं तस्य च भ्रमराङ्गार कोकिलगबलकज्जलादिषु प्रकर्षाप्रकर्षविशेषाद्भेदः कृष्णः कृष्णतरः कृष्णतम इत्यादि, एवं नीलादिष्वप्यायोज्यं, तथा रसगन्धस्पर्शेषु सर्वत्र पृथिवीभेदा वाच्याः, तथा वर्णादीनां परस्परसंयोगाद्धूसर केसर कर्बुरादिवर्णान्तरोत्पत्तिरेवमुत्प्रेक्ष्य वर्णादीनां प्रत्येकं प्रकर्षाप्रकर्षतया परस्परानुवेधेन च बहवो भेदा वाच्याः ॥ पुनरपि पर्याप्तकादिभेदाने
दमाह---
जे बायरे विहाणा पत्ता तत्तिआ अपलत्ता । सुहुमावि हुंति दुबिहा पत्ता चेव अपनन्ता ॥ ७९ ॥ १ भावनीयमिति प्र. २ तत्र ये ते पर्याप्तकाः एतेषां वर्णादेशेन सन्धादेशेन रसादेशेन स्पर्शादेशेन सहस्रा विधानानि संस्यानि योनिप्रमुखानि शतसहस्राणि पर्याप्तकनिश्रयाऽपर्यातका व्युत्क्रामन्ति तद् यत्रैकस्तत्र नियमादसंख्येयाः इत्येते सरबादरपृथ्वीकायिकाः.
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'पृथ्व्या: भेदा:, (वर्ण- आदि भेदे)
For Penal Use Only
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अध्ययनं१ उद्देशकः २
॥ २९ ॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१३...], नियुक्ति: [७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३]
यानि बादरपृथिवीकाये 'विधानानि' भेदाः प्रतिपादितास्तानि यावन्ति पर्याप्तकानां तावन्त्येवापर्याप्तकानामपि, अत्र। च भेदानां तुल्यत्वं द्रष्टव्यं न तु जीवाना, यत एकपर्याप्तकाश्रयेणासंख्येया अपर्याप्तका भवन्ति, सूक्ष्मा अपि पर्याप्तकापर्याप्तकभेदेन द्विविधा एव, किन्तु अपर्याप्तकनिश्रया पर्याप्तकाः समुत्पद्यन्ते, यत्र चैकोऽपर्याप्तकस्तत्र नियमादसंख्येयाः पर्याप्तकाः स्युः । पर्याप्तिस्तु 'आहारसरीरिन्दियऊसासवओमणोऽहिनिब्बती । होति जतो दलियाओ करणं पइ सा उ पज्जत्ती॥ १ ॥' जन्तुरुपद्यमानः पुद्गलोपादानेन करणं निर्वर्त्तयति तेन च करणविशेषेणाहारमवगृह्य पृथम् || खलरसादिभावेन परिणति नयति स तादृकरणविशेष आहारपर्याप्तिशब्देनोच्यते, एवं शेषपर्याप्तयोऽपि वाघ्याः, तत्रैकेन्द्रियाणामाहारशरीरेन्द्रियोच्यासाभिघानाश्चतस्रो भवन्ति, एताश्चान्तर्मुहन जन्तुरादत्ते, अनाप्तपर्याप्तिरपर्याप्तको-II ऽवातपोष्ठिस्तु पर्योष्ठक इति, अनच पृथिव्येव कायो येषामिति विग्रहः ॥ यथा सूक्ष्मवादरादयो भेदार सियन्ति | तथा प्रसिद्धभेदेनोदाहरणेन दर्शयितुमाहरुक्खाणं गुच्छाणं गुम्माण लयाण वल्लिवलयाणं । जह दीसह नाणत्तं पुढवीकाए तहा जाण ॥ ८॥
यथा वनस्पतेपेक्षाविभेदेन स्पष्टं नानात्वमुपलभ्यते, तथा कृथिवीकायिकेऽपि जानीहि, तत्र वृक्षाः-चूतादयो गुच्छा| वृन्ताकीसलकीकपोस्यादयः, गुल्मानि-नवमालिकाकोरण्टकादीनि, लता:-पुत्रागाशोकलताद्याः, कल्या-पुषीवालङ्कीकोशातक्याद्याः, क्लयानि केतकीकदवादीनि । पुनरपि कमसक्मेिददृष्टान्तेन पृषिव्या भेदमाह---
माहाः शरीरमिन्द्रियाणि उच्छ्रासो क्वः मनः (एषा) अभिनित्तिः । भवति यतो दलिकात् करणं प्रति सैव पर्याप्तिः ॥ १॥
दीप अनुक्रम [१३]
'पृथ्व्या :' भेदा:, वनस्पते: भेदा:
[70]
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१३...], नियुक्ति: [८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचा
प्रत सूत्रांक [१३]
राङ्गवृत्तिः (शी०)
अध्ययनं १ || उद्देशकः२
॥३०॥
दीप अनुक्रम [१३]
ओसहि तण सेवाले पणगविहाणे य कंद मूले य । जह दीसह नाणत्तं पुढवीकाए तहा जाण ॥ ८१॥ यथा हि वनस्पतिकायस्य ओषध्यादिको भेद एवं पृथिव्या अपि द्रष्टव्यः, तत्र ओषध्यः-शाल्याद्या, तृणानि-दर्भादीनि, सेवाल-जलोपरि मलरूपं, पनकः-काष्ठादावुल्लीविशेषः पञ्चवर्णः, कन्दः-सूरणकन्दादिः, मूलम्-उशीरादीति एते च सूक्ष्मत्वान्नकल्यादिकाः समुपलभ्यन्ते, यत्संख्यास्तूपलम्भ्यन्ते तदर्शयितुमाहइकस्स दुण्ह तिण्ह व संखिजाण वन पासि सका । दीसंति सरीराई पुढविजियाणं असंखाणं ॥८२॥
सष्टा ॥ कथं पुनरिदमवगन्तव्यम् , सन्ति पृथिवीकायिका इति, उच्यते, तदधिष्ठितशरीरोपलब्धः अधिष्ठातरि प्रतीतिर्गवावादाविव इति, एतदर्शयितुमाह
एपहिं सरीरेहिं पच्चक्खं ते परूविया हंति । सेसा आणागिज्झा चक्खुफासं नजं इंति ॥८॥ | 'एभिः' असंख्येयतयोपलभ्यमानः पृथिवीशर्करादिभेदभिन्नैः शरीरस्ते शरीरिणः शरीरद्वारेण 'प्रत्यक्ष साक्षात् 'प्ररूपिताः' ख्यापिता भवन्ति, शेषास्तु सूक्ष्मा आज्ञामाह्या एव द्रष्टव्याः, यतस्ते चक्षुःस्पर्श नागच्छन्ति, स्पर्शशब्दो विषयार्थः॥ प्ररूपणाद्वारानन्तरं लक्षणद्वारमाह| उवओगजोग अज्झवसाणे मइसुय अचक्खुदंसे य । अढविहोदयलेसा सन्नुस्सासे कसाया य ॥८४॥ | तत्र पृथिवीकायादीनां स्त्यानाद्युदयाद्या च यावती चोपयोगशक्तिरव्यक्ता ज्ञानदर्शनरूपेत्येवमात्मक उपयोगो लक्षणं, तथा योग:-कायाख्य एक एव, औदारिकतन्मिश्रकार्मणात्मको वृद्धयष्टिकल्पो जन्तोः सकर्मकस्यालम्बनाय
॥३०॥
वनस्पते: भेदाः, पृथिवी आदि कायिकानाम् लक्षणा:
[71]
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१३...], नियुक्ति: [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
%250
प्रत सूत्रांक [१३]
दीप अनुक्रम [१३]
%258D%%-55
व्याप्रियते, तथा अध्यवसायाः-सूक्ष्मा आत्मनः परिणामविशेषाः, ते च लक्षणम्, अव्यक्तचैतन्यपुरुषमनःसमुद्भूतचिताविशेषा इवानभिलक्ष्यास्तेऽभिगम्तव्याः, तथा साकारोपयोगान्तःपातिमतिश्रुताज्ञानसमन्विताः पृथिवीकायिका बोद्धव्याः, तथा स्पर्शनेन्द्रियेणाचक्षुर्दर्शनानुगता बोद्धव्याः, तथा ज्ञानावरणीयाद्यष्टविधकर्मोदयभाजस्तावद्वन्धभाजश्च, तथा लेश्या-अध्यवसायविशेषरूपाः कृष्णनीलकापोततेजस्यश्चतस्रः ताभिरनुगताः, तथा दशविधसंज्ञानुगताः, ताश्च आहारादिकाः प्रागुका एव, तथा सूक्ष्मोच्छासनिःश्वासानुगताः, उक्तं च "पुढविकाइया गं भंते! जीवा आणवन्ति वा पाणवन्ति वा ऊससन्ति का नीससंति वा ?, गोयमा! अविरहियं सतयं चेव आणवन्ति वा पाणवन्ति वा ऊससन्ति वा नीससन्ति चा" कषाया अपि सूक्ष्माः क्रोधादयः । एवमेतानि जीवलक्षणान्युपयोगादीनि कषायपर्यवसानानि पृथिवीकायिकेषु सम्भवन्तीति, ततश्चैवंविधजीवलक्षणकलापसमनुगतत्वात् मनुष्यवत्सचित्ता पृथिवीति । ननु च तदिदम| सिद्धमसिद्धेन साध्यते, तथाहि-न दुपयोगादीनि लक्षणानि पृथिवीकायेषु व्यक्तानि समुपलक्ष्यन्ते, सत्यमेतद्, अव्यतानि तु विद्यन्ते, यथा कस्यचित्पुंसः हृत्पूरकव्यतिमिश्रमदिरातिपानपित्तोदयाकुलीकृतान्तःकरणविशेषस्याव्यक्ता चेतना, न चैतावता तस्याचिद्रूपता, एवमत्राप्यव्यक्तचेतनासम्भवोऽभ्युपगन्तव्यः, ननु चात्रोच्छासादिकमव्यक्तचेतनालिङ्गामस्ति, न चेह तथाविधं किश्चिच्चेतनालिङ्गमस्ति, नैतदेवम् , इहापि समानजातीयलतोन्नेदादिकमर्शोमांसाङ्कुरवच्चेतना
पृथ्वीकायिका भदन्त ! जौवा आनन्ति या प्राणन्ति या उच्सन्ति वा निःश्वसन्ति वा १, गौतम ! अविरहितं सततमेव चानन्ति वा प्राणन्ति वा उच्नसन्ति वा निःश्वसन्ति वा.
...
पृथिवी आदि कायिकानाम् लक्षणा:
[72]
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१३...], नियुक्ति: [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३]
अध्ययन १ शकार
॥३१॥
दीप अनुक्रम [१३]
श्रीआचा-माचिह्नमस्त्येव, अव्यक्तचेतनानां हि सम्भावितैकचेतनालिङ्गानां वनस्पतीनामिव चेतनाऽभ्युपगन्तव्येति, वनस्पतेश्च चैतन्य राङ्गवृत्तिःविशिष्टर्नुपुष्पफलप्रदत्वेन स्पष्टं साधयिष्यते च, ततोऽव्यक्कोपयोगादिलक्षणसद्भावात् सचित्ता पृथिवीति स्थितम् ॥ (शी०) ननु चाश्मलतादेः कठिनपुद्गलात्मिकायाः कथं चेतनत्वमित्यत आह
अट्ठी जहा सरीरंमि अणुगयं चेयणं खरं दिहुँ । एवं जीवाणुगयं पुढविसरीरं खरं होइ ।। ८५॥ यथाऽस्थि शरीरानुगतं सचेतनं खरं दृष्टम् , एवं जीवानुगतं पृथिवीशरीरमपीति ॥ साम्प्रतं लक्षणद्वारानन्तरं परिमाणद्वारमाह
जे पायरपज्जत्ता पयरस्स असंखभागमित्ता ते । सेसा तिन्निवि रासी वीसुं लोया असंखिज्जा ॥८६॥
तत्र पृथिवीकायिकाश्चतुर्दा, तद्यधा-बादराः पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च तथा सूक्ष्मा अपर्याप्ताः पर्याप्ताच, तत्र ये बादराः पर्याप्तकास्ते संवर्तितलोकमतरासंख्येयभागमात्रवर्तिप्रदेशराशिप्रमाणा भवन्ति, शेषास्तु त्रयोऽपि राशयः प्रत्येकमसंख्येयानां लोकानामाकाशप्रदेशराशिप्रमाणा भवन्ति, यथानिर्दिष्टक्रमेण चैते यथोत्तरं बहुतराः, यत उक्तम्-"सब्बत्थोवा चादरपुढविकाइया पजत्ता, बादरपुढविकाइया अपज्जत्ता असंखेजगुणा सुहुमपुढविकाइया अपज्जत्ता असंखेज|गुणा सुहुमपुढविकाइया पज्जत्ता असंखेजगुणा" ॥ प्रकारान्तरेणापि राशित्रयस्य परिमाणं दर्शयितुमाह
सर्वस्तोका पादरपृथ्वी कायिकाः पर्याप्ताः पादरपृथ्वीकायिका अपर्याप्ता असंख्येयगुणाः सूक्ष्मपृथ्वीकाविकाः अपर्याप्ता असंख्येयगुणाः सूक्ष्मपृथ्वीकाविकाः पर्याप्ता असंख्येयगुणाः.
1॥३१॥
525
पृथिवी आदि कायिकानाम् लक्षणा:, पृथिवीकायिकस्य परिमाण:
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१३...], नियुक्ति: [८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३]
दीप अनुक्रम [१३]
पत्थेण व कुडवेण व जह कोइ मिणिज्ज सम्बधन्नाई। एवं मविजमाणा हवंति लोया असंखिज्जा ॥ ८७॥ l यथा प्रस्थादिना कश्चित्सर्वधान्यानि मिनुयाद, एवमसद्धावप्रज्ञापनाङ्गीकरणाल्लोकं कुडवीकृत्याजघन्योत्कृष्टावगाह-I नान् पृथिवीकायिकजीवान् यदि मिनोति ततोऽसंख्येयान् लोकान् पृथिवीकायिकाः पूरयन्ति ॥ पुनरपि प्रकारान्तरेण परिमाणमाह
____ लोगागासपएसे इकिकं निक्खिये पुढविजीवं । एवं मविजमाणा हवंति लोआ असंखिज्जा ॥८॥ | स्पष्टा ॥ साम्प्रतं कालतः प्रमाणं निर्दिदिक्षुः क्षेत्रकालयोः सूक्ष्मवादरत्वमाह
निउणो उ होइ कालो तत्तो निउणयरयं हवइ खित्तं । अंगुलसेढीमिते ओसप्पिणीओ असंखिज्जा ॥ ८९॥
'निपुणः' सूक्ष्मः कालः' समयात्मकः, ततोऽपि सूक्ष्मतरं क्षेत्रं भवति, यतोऽङ्गुलीश्रेणिमात्रक्षेत्रप्रदेशानां समयापहारे-13 kणासंख्येया उत्सपिण्यवसपिण्योऽपक्रामन्तीत्यतः कालात् क्षेत्रं सूक्ष्मतरम् ॥ प्रस्तुतं कालतः परिमाणं दर्शयितुमाह
| अणुसमयं च पवेसो निक्खमणं चेव पुढविजीवाणं । काए कायटिझ्या चउरो लोया असंखिज्जा ॥९॥ MI तत्र जीवाः पृथिवीकायेऽनुसमयं प्रविशन्ति निष्कामन्ति च, एकस्मिन् समये कियतां निष्क्रमः प्रवेशश्च १-२, तथा|| दिविवक्षिते च समये कियन्तः पृथिवीकायपरिणताः सम्भवन्ति ३, तथा कियती च कायस्थिति ४ रित्येते चत्वारो वि-1||
कल्पाः कालतोऽभिधीयन्ते, तत्रासंख्येयलोकाकाशप्रदेशपरिमाणाः समयेनोत्पद्यन्ते विनश्यन्ति च, पृथिवीत्वेन परि
पृथिवीकायिकस्य परिमाण:
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१३...], नियुक्ति: [९०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३]
श्रीआचा- रावृत्तिः (शी०)
दीप अनुक्रम [१३]
णता अप्यसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणाः, तथा कायस्थितिरपि मृत्वा मृत्वाऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेशपरिमाणं कालं तत्र
Cअध्ययन तत्रोपद्यन्त इति, एवं क्षेत्रकालाभ्यां परिमाणं प्रतिपाद्य परसरावगाहपतिपिपादविषयाऽऽह बायरपुढविकाइयपजत्ती अन्नमन्नमोगाढो । सेसा ओगाहंते सुहुमा पुण सब्बलोगंमि ॥९॥
& उद्देशकः२ बादरपृथिवीकायिकः पर्याप्तो यस्मिन्नाकाशखण्डे अवगाढः तस्मिन्नेवाकाशखण्डेऽपरस्यापि बादरपृथिवीकायिकस्य शरीरमवगाढमिति, शेषास्तु अपर्याप्तकाः पर्याप्तकनिश्रया समुत्पद्यमाना अनन्तरप्रक्रियया पर्याप्तकावगाढाकाशमदेशावगाढाः, सूक्ष्माः पुनः सर्वस्मिन्नपि लोकेऽवगाढा इति ॥ उपभोगद्वारमाह
चंकमणे य हाणे निसीयण तुपवणे य कयकरणे । उच्चारे पासवणे उबगरणाणं च निक्खिवणे ॥१२॥ आलेवण पहरण भूसणे य कयविक्कए किसीए य । भंडाणंपि य करणे उवभोगविही मणुस्साणं ।। ९३ ॥
चङ्गमणोद्धस्थाननिषीदनत्वग्वर्तनकृतकपुत्रककरणउच्चारप्रश्रवणउपकरणनिक्षेपआलेपनाहरणभूषणक्रयविक्रयकृषीकरणभण्डकपट्टनादिषूपभोगविधिर्मनुष्याणां पृथिवीकायेन भवतीति ॥ यद्येवं ततः किमित्यत आह
एएहिं कारणेहिं हिंसंति पुढविकाइए जीवे। सायं गवेसमाणा परस्स दुक्खं उदीरंति ॥९४ ॥ एभिश्चमणादिभिः कारणः पृथिवीजीवान हिंसन्ति, किमर्थमिति दर्शयति-सात' सुखमात्मनोऽन्वेषयन्तः परदुःखा-1 न्यजानानाः कतिपयदिवसरमणीयभोगाशाकर्षितसमस्तेन्द्रियग्रामा विमूढचेतस इति, परस्य' पृथिव्याश्रितजन्तुराशेः 'दुःखम्' असातलक्षणं तदुदीरयन्ति-उत्सादयन्तीति, अनेन भूदानजनितः शुभफलोदयः प्रत्युक्त इति ॥ अधुना शस्त्र
पृथिवीकायिकस्य परिमाणद्वारं एवं उपभोगद्वार
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१३...], नियुक्ति: [९४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३]
दीप अनुक्रम [१३]
द्वार-शस्यतेऽनेनेति शस्त्रं, तच्च द्विधा-द्रव्यशस्त्रं भावशस्त्रं च, द्रव्यशस्त्रमपि समासविभागभेदाविधैव, तत्र समासद्रव्य
शस्त्रप्रतिपादनायाहKI हलकुलियविसकुद्दालालित्तयमिगसिंगकट्ठमग्गी य । उच्चारे पासवणे एयं तु समासओ सत्यं ।।९५ ॥
तत्र हलकुलिकविपकुद्दालालित्रकमृगशृङ्गकाष्ठाग्म्युचारप्रश्रवणादिकमेतत् 'समासतः संक्षेपतो द्रव्यशस्त्रम् ॥ विभागद्रव्यशस्त्रप्रतिपादनायाहकिंची सकायसत्वं किंची परकाय तदुभयं किंचि । एयं तु दव्वसत्वं भावे अ असंजमो सत्धं ॥ ९६॥ किश्चित्स्वकायशस्त्रं पृथिव्येव पृथिव्याः, किञ्चित्परकायशस्वमुदकादि, तदुभयं किञ्चिदिति भूदकं मिलितं भुव इति । तच सर्वमपि द्रव्यशखं, भावे पुनः 'असंयमः' दुष्प्रयुक्ता मनोवाकायाः शस्त्रमिति ॥ वेदनाद्वारमाह
पायच्छेयण भेयण जंघोरु तहेव अंगुवंगेसुं । जह हुंति नरा दुहिया पुढविक्काए तहा जाण ॥ ९७॥
यथा पादादिकेष्वङ्गप्रत्यङ्गेषु छेदनभेदादिकया क्रियया नरा दुःखिताः, तथा पृथिवीकायेऽपि वेदनां जानीहि ॥ यद्यपि हापादशिरोग्रीवादीन्यङ्गानि पृथिवीकायिकानां न सन्ति तथापि तच्छेदनानुरूपा वेदनाऽस्त्येवेति दर्शयितुमाह
नधि य सि अंगुबंगा तयाणुरूवा य वेयणा तेसिं । केसिंचि उदीरंती केसिंचऽतिवायए पाणे ॥९८॥ पूर्वार्द्ध गतार्थ, केषाचित्पृथिवीकायिकानां तदारम्भिणः पुरुषा वेदनामुदीरयन्ति, केषाश्चित्तु प्राणानप्यतिपातयेयु-| रिति । तथा हि भगवत्या दृष्टान्त उपात्तो यथा-चतुरन्तचक्रवर्तिनो गन्धपेषिका यौवनवर्तिनी बलवती आमिलक
RELIGunintentATHREE
शस्त्रद्वारम् एवं शस्त्रस्य भेदा:, वेदना द्वार
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१३...], नियुक्ति : [९८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३]
अध्ययन उद्देशकः३
दीप अनुक्रम [१३]
श्रीआचा- प्रमाणं सचित्तपृथिवीगोलकमेकविंशतिकृस्खो गन्धपट्टके कठिनशिलापुत्रकेण पिंष्यात्, ततस्तेषां पृथिवीजीवानां कश्चिरावृत्तिःत्सट्टितः कश्चित्सरितापितः कश्चिद्व्यापादितोऽपरः किल तेन शिलापुत्रकेण न स्पृष्टोऽपीति ।। वधद्वारमाह(शी०) | पवयंति य अणगारा ण य तेहि गुणेहि जेहि अणगारा । पुढषि विहिंसमाणा नहु ते वायाहि अणगारा॥१९॥ ॥३३॥
इह ोके कुतीर्थिका यतिवेषमास्थाय एवं च प्रवदन्ति-वयम् 'अनगाराः' प्रनजिताः, न च तेषु गुणेषु' निरवद्यानुष्ठानरूपेषु प्रवर्त्तन्ते, येष्वनगाराः, यथा चानगारगुणेषु न प्रवर्त्तन्ते तद्दर्शयति-यतस्तेऽहर्निशं पृथिवीजन्तुविपत्तिकारिणो ठाश्यन्ते गुदपाणिपादप्रक्षालनार्थम्, अन्यथापि निलेपनिर्गन्धवं कर्तुं शक्यम्, अतश्च यतिगुणकलापशून्या न वाड्यात्रेण १ युक्तिनिरपेक्षेणानगारवं विभ्रतीति, अनेन प्रयोगः सूचितः, तत्र गाधापूर्वार्द्धन प्रतिज्ञा, पश्चार्डेन हेतुः, उत्तरगाथार्द्धन
साधर्म्यदृष्टान्तः, स चायं प्रयोग:-कुतीथिका यत्यभिमानवादिनोऽपि यतिगुणेषु न प्रवर्तन्ते, पृथिवीहिंसाप्रवृत्तत्वाद् , इह ये ये पृथिवीहिंसाप्रवृत्तास्ते ते यतिगुणेषु न प्रवर्तन्ते, गृहस्थवत् ॥ साम्प्रतं दृष्टान्तगर्भ निगमनमाहअणगारवाइणो पुढविहिंसगा निग्गुणा अगारिसमा । निहोसत्तिय मइला विरइदुगंछाइ महलतरा ॥१०॥ | 'अनगारवादिनों' वयं यतय इति वदनशीलाः पृथिवीकायविहिंसकास्सन्तो निर्गुणा यतोऽतः 'अगारिसमा' गृहस्थ
तुल्या भवन्ति, अभ्युचयमाह-सचेतना पृथिवीत्येवं ज्ञानरहितत्वेन तत्समारम्भवर्तिनः सदोषा अपि सन्तो वयं निदोषा| द इत्येवं मन्यमानाः स्वदोषप्रेक्षाविमुखत्वात् 'मलिनाः' कलुषितहृदया, पुनश्चातिप्रगल्भतया साधुजनाश्रिताया निरवद्या
नुष्ठानात्मिकाया विरतेः 'जुगुप्सया' निन्दया मलिनतरा भवन्ति, अनया च साधुनिन्दयाऽनन्तसंसारित्वं प्रदर्शितं भव
॥३३॥
वध द्वारं, अनगारवादी
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१३...], नियुक्ति : [१००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३]
दीप अनुक्रम [१३]
जातीति । एतच्च गाथाद्वयं सूत्रोपात्तार्थानुसार्यपि वधद्वाराषसरे नियुक्तिकृताऽभिहितं, तस्य स्वयमेवोपात्तत्वेन तव्याख्या
नस्य न्याय्यत्वात्, तच्चेदं सूत्रम् 'लज्जमाणा पुढो पास अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणे'त्यादि । अयं च वधः कृतका-४ रितानुमतिभिर्भवतीति तदर्थमाह
केई सयं वहंती केई अन्नेहिँ उ वहाविती । केई अणुमन्नंती पुढविकायं वहेमाणा ॥ १०१॥ सष्टा, तद्वधे अन्येषामपि तदाश्रितानां वधो भवतीति दर्शयितुमाहजो पुढवि समारंभइ अन्नेवि य सो समारभइ काए। अनियाए अनियाए दिस्से य तहा अदिस्से य॥१०॥ Bा यः पृथ्वीकार्य 'समारभते' व्यापादयति सः 'अन्यानपि' अप्कायद्वीन्द्रियादीन् 'समारभते' व्यापादयति उदुम्बरव-10 ६ टफलभक्षणप्रवृत्तः तत्फलान्त प्रविष्टत्रसजन्तुभक्षणवदिति, तथा 'अणियाए य नियाईत्ति अकारणेन कारणेन च,
यदिवाऽसङ्कल्पेन सङ्कल्पेन च पृथिवीजन्तून् समारभते तदारम्भवांश्च 'दृश्यान् दर्दुरादीन् 'अदृश्यान्' पनकादीन् । 8'समारभते' व्यापादयतीत्यर्थः । एतदेव स्पष्टतरमाह
पुढविं समारभंता हणंति तनिसिए य बहुजीवे । सुहुमे य बायरे य पज्जते या अपज्जत्ते ॥ १०३॥ सष्टा, अन्न च सूक्ष्माणां वधः परिणामाशुद्धत्वात्तद्विषयनिवृत्त्यभावेन द्रष्टव्य इति ॥ विरतिद्वारमाहएवं वियाणिऊणं पुढवीए निक्खिवंति जे दंडं। तिविहेण सव्वकालं मणेण वायाए कारणं ॥ १०४ ॥ 'एवमि'स्युक्तप्रकारानुसारेण पृथिवीजीवान् विज्ञाय तद्वधं बन्धं च विज्ञाय पृथिवीतो निक्षिपन्ति ये दण्ड-पृथिवी-14
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१३...], नियुक्ति : [१०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः
प्रत सूत्रांक [१३]
अध्ययनं १ उद्देशकः २
(शी०)
दीप अनुक्रम [१३]
समारम्भादयुपरमन्ति, ते ईदृक्षा अनगारा भवन्तीत्युत्तरगाथायां वक्ष्यति, 'त्रिविधेनेति कृतकारितानुमतिभिः 'सर्वकालं'| यावज्जीवमपि मनसा वाचा कायेनेति ॥ अनगारभवने उक्तशेषमाहगुत्ता गुत्तीहि सव्वाहिं समिया समिई हिं संजया । जयमाणगा सुविहिया एरिसया हुँति अणगारा ॥१०॥ | तिसृभिर्मनोवाकायगुप्तिभिर्गुप्ताः, तथा पञ्चभिरीर्यासमित्यादिभिस्समिताः, सम्यक्-उत्थानशयनचङ्कमणादिक्रियासु यताः संयताः 'यतमानाः' सर्वत्र प्रयत्नकारिणः, शोभनं विहित-सम्यग्दर्शनाद्यनुष्ठानं येषां ते तथा, ते ईदक्षा अनगारा भवन्ति, न तु पूर्वोक्तगुणाः पृथिवीकायसमारम्भिणः शाक्यादय इति ॥ गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, अधुना सूत्रानुगमे|ऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चार्यते, तच्चेदं सूत्रम्
अहे लोए परिजुण्णे दुस्संबोहे अविजाणए अस्सि लोए पव्वहिए तत्थ तस्थ पुढो
पास आतुरां परिताति (सू०१४) अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरसूत्रे परिज्ञातकर्मा मुनिर्भवतीत्युक्तं, यस्त्वपरिज्ञातकर्मा स भावात्ततॊ भवतीति, तथाऽऽदिसूत्रेण सह सम्बन्धः-सुधर्मस्वामी जम्बूनाम्ने इदमाचष्टे-'श्रुतं मया' किं तच्छुतं ? पूर्वोदेशकार्थ प्रदर्येदमपीति, 'अट्टे' इत्यादि, परम्परसम्बन्धस्तु 'इह एगेसिं णो सन्ना भवतीत्युक्तं, कथं पुनः संज्ञा न भवतीति, आतत्वात् , तदाह'अट्टे' इत्यादि, आत्तॊ नामादिश्चतुर्द्धा, नामस्थापने क्षुण्णे, ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो नोआगमतो द्रव्यातः शक
पृथिवीकायिकानाम् हिंसकाः
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१४], नियुक्ति: [१०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१४]
दीप
अनुक्रम
टादिचक्राणामुद्धिमूले वा यो लोहमयः पट्टो दीयते स द्रव्यातः, भावार्तस्तु द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, तत्रागमतो। ज्ञाता-आपदार्थज्ञस्तत्र चोपयुक्तो, नोआगमतस्तु औदयिकभाववर्ती रागद्वेषग्रहपरिगृहीतान्तरात्मा मियविप्रयोगादिदुःखसङ्कटनिमग्नो भावार्त्त इति व्यपदिश्यते, अथवा शब्दादिविषयेषु विषविपाकसदृशेषु तदाकाद्विस्वाद्धिताहितविचारशून्यमना भावार्तः कर्मोपचिनोति, यत उक्तम्-"सोइंदियवसट्टे णं भंते! जीवे किं बंधइ? किं चिणाइ! किं उवचिणाइ?, गोयमा! अह कम्मपगडीओ सिढिलबंधणवद्धाओ घणियबंधणबद्धाओ पकरेइ, जाव अणादियं च णं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरन्तसंसारकन्तारमणुपरियट्टई" एवं स्पर्शनादिप्वयायोजनीयम्, एवं क्रोधमानमायालोभदर्शनमोहनीयचारित्रमोहनीयादिभिर्भावार्ताः संसारिणो जीवा इति, उक्तं च-"रागहोसकसाएहिं, इंदिएहि य पञ्चहिं । दुहा वा मोहणिज्जेण, अट्टा संसारिणो जिया ॥१॥" यदिवा ज्ञानावरणीयादिना शुभाशुभेनाष्टप्रकारेण कर्मणाऽऽत्तेंः, कः पुनरेवंविध इत्यत्राह-लोकयतीति लोक-एकद्वित्रिचतुष्पञ्चेन्द्रियजीवराशिरित्यर्थः, अन लोकशब्दस्य नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्र-1 | कालभवभावपर्यायभेदादष्टधा निक्षेपं प्रदर्याप्रशस्तभावोदयवर्त्तिना लोकेनेहाधिकारो वाच्यः, यस्माद्यावानातः स सर्वोsपि परियूनो नाम परिपेलवो निस्सारः औपशमिकादिप्रशस्तभावहीनोऽव्यभिचारिमोक्षसाधनहीनो वेति, स च द्विधाद्रव्यभावभेदात् , तत्र सचित्तद्रव्यपरियूनो जीर्णशरीरः स्थविरका जीर्णवृक्षो वा, अचित्तद्रव्यपरिघुनो जीर्णपटादिः,
थोत्रेन्द्रियवशातौ भदन्त ! जीवः किं बध्नाति ? किं चिनोति ! किमुपचिनोति !, गौतम ! अ कर्मप्रकृतीः शिथिलबन्धनबद्धा गाडवन्धनश्रद्धाः प्रकरोति, पायावदनादिकमनवनवानं दीर्घावानं चातुरन्तसंसारकान्तारमनुपर्यटति. २ रागद्वेषकषायैरिन्द्रियैव पचभिः । द्विषा मोहनीवेन वा आततः संसारिणो जीवाः ॥ १॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१४], नियुक्ति : [१०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
१
प्रत सूत्रांक [१४]
उद्देशकः२
दीप अनुक्रम [१४]
श्रीआचा- भावपरियून औदयिकभावोदयात्प्रशस्तज्ञानादिभावविकला, कथं विकला?, अनन्तगुणपरिहाण्या, तथाहि पशचतुखियेकेराङ्गवृत्तिः न्द्रियाः क्रमशो ज्ञानविकलाः, तत्र सर्वनिकृष्टज्ञानाः सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तकाः प्रथमसमयोपन्ना इति, उक्तं च-"सर्वनिकृष्टो (शी०) जीवस्य दृष्ट उपयोग एष वीरेण । सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तकानां स च भवति विज्ञेयः॥ १॥ तस्मात्प्रभृति ज्ञानविवृद्धिद्देष्टा
जिनेन जीवानाम् । लब्धिनिमित्तैः करणैः कायेन्द्रियबाङमनोहगभिः ॥२॥" स च विषयकषायाः प्रशस्तज्ञान नः किमवस्थो भवतीति दर्शयति-'दुस्संबोध' इति, दुःखेन सम्बोध्यते-धर्मचरणप्रतिपत्ति कार्यत इति दुस्सम्बोधो, मेतायवदिति, यदिवा दुस्सम्बोधो यो बोधयितुमशक्यो ब्रह्मदत्तवत्, किमित्येवम्?, यतः 'अवियाणए'त्ति विशिष्टावबोध
रहितः, स चैवंविधः किं विदध्यादित्याह-अस्मिन् पृथिवीकायलोके 'प्रब्यथिते' प्रकर्षण व्यघिते, सर्वस्यारम्भस्य है तदाश्रयत्वादिति प्रकर्षार्थः, तत्तत्प्रयोजनतया खननादिभिः पीडिते नानाविधशस्त्रागीते वा 'व्यथ भयचलनयो'रिति
कृत्वा व्यथितं भीतमिति, 'तत्थ तत्थेति तेषु तेषु कृषिखननगृहकरणादिषु 'पृथग्'विभिन्नेषु कार्येपूत्पन्नेषु 'पश्यति विनेयस्य लोकाकार्यप्रवृत्तिः प्रदर्श्यते, सिद्धान्तशैल्या एकादेशेऽपि प्राकृते बलादेशो भवतीति, 'आतुरा' विषयकषायादिभिः | 'अस्मिन्' पृथिवीकाये विषयभूते सामर्थ्यात् पृथिवीकार्य 'परितापयन्ति' परि-समन्तात्तापयन्ति-पीडयन्तीत्यर्थः, बहुवच
ननिर्देशस्तु तदारम्भिणां बहुत्वं गमयति, यदिवा-लोकशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, कश्चिल्लोको विषयकषायादिभिरातोंRऽपरस्तु कायपरिजीर्णः कश्चिदुःखसम्बोधः तथाऽपरो विशिष्टज्ञानरहितः, एते सर्वेऽप्यातुरा विषयजीणेदेहादिभिः सुखा
१ कश्चित्तु प्र. अपरो दुःसम्बोधः नास्तीदं.
॥३५॥
[81]
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१४]
दीप
अनुक्रम [१४]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
-
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१४], निर्युक्तिः [१०५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित......आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
घयेऽस्मिन् पृथिवीकायलोके विषयभूते पृथिवीकायं नानाविधैरुपायैः 'परितापयन्ति' परि-समन्तात्तापयन्ति पीडय न्तीति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ ननु चैकदेवताविशेषावस्थिता पृथिवीति शक्यं प्रतिपत्तुं न पुनरसंख्येयजीवसङ्घातरूपेत्येतत्परिहर्त्तुकाम आह
संति पाणा पुढो सिया लज्जमाणा पुढो पास अणगारा मोति एगे पवयमाणा जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं पुढविकम्मसमारंभेणं पुढविसत्थं समारंभेमाणा अणेगरूवे पाणे विहिंसइ (सू० १५ )
‘सन्ति' विद्यन्ते ‘प्राणाः’ सत्त्वाः 'पृथग' पृथग्भावेन, अङ्गुला संख्येयभागस्वदेहावगाहनया पृथिव्याश्रिताः सिता वा-सम्बद्धा इत्यर्थः अनेनैतत्कथयति नैकदेवता पृथिवी, अपि तु प्रत्येकशरीरपृथिवीकायात्मिकेति तदेवं | सचेतनत्वमनेकजीवाधिष्ठितत्वं च पृथिव्या आविष्कृतं भवतीति । एतच्च ज्ञात्वा तदारम्भनिवृत्तान् दर्शयितुमाह - 'लजमाणा पुढो पासत्ति, लज्जा द्विविधा-लौकिकी लोकोत्तरा च तत्र लौकिकी खुषासुभटादेः श्वशुरसङ्गामविषया, लोकोत्तरा सप्तदशप्रकार: संयमः, तदुक्तम् - "लेजा दया संजम बंभचेर' मित्यादि, लज्जमानाः संयमानुष्ठानपराः, यदिवा
१ खादया संयमो मह्मचर्यम्
पृथ्विकायेषु जीवस्य अस्तित्वं
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आगम (०१)
“आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति©
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१५], नियुक्ति: [१०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५]
दीप अनुक्रम [१५]
श्रीआचा-1-पृथिवीकायसमारम्भरूपादसंयमानुष्ठानालज्जमानाः 'पृथगिति प्रत्यक्षज्ञानिनः परोक्षज्ञानिनश्च, अतस्तान् लज्जमानान अध्ययनं १ राङ्गवृत्तिः पश्येत्यनेन शिष्यस्य कुशलानुष्ठानप्रवृत्तिविषयः प्रदर्शितो भवतीति । कुतीथिकास्त्वन्यधावादिनोऽन्यथाकारिण इति दर्श-||
उद्देशक:२ (शी०) यितुमाह-'अणगारा' इत्यादि,नविद्यतेऽगारं-गृहमेषामित्यनगारा-यतयः स्मो वयमित्येवं प्रकर्षेण वदन्तः प्रवदन्त इति, 'एके
शाक्यादयो ग्राह्याः, ते च वयमेव जन्तुरक्षणपराः क्षपितकषायाज्ञानतिमिरा 'इति' एवमादि प्रतिज्ञामात्रमनर्थकमारटन्ति, ॥३६॥
यथा कश्चिदत्यन्तशुचिर्वोद्रश्चतुःषष्टिमृत्तिकास्नायी गोशवस्याशुचितया परित्यागं विधाय पुनः कर्मकरवाक्याचास्थिपिशितस्नाय्वादेर्यथास्वमुपयोगार्थ साहं कारितवान् , तथा च तेन शुच्यभिमानमुद्रहताऽपि किं तस्य परित्यक्तम् । एवमेतेऽपि || शाक्यादयोऽनगारवादमुद्वहन्ति, न पानगारगुणेषु मनागपि प्रवर्तन्ते, न च गृहस्थचर्या मनागप्यतिलहन्यन्तीति दर्शयति|'यद्' यस्माद् 'इममिति सर्वजनप्रत्यक्षं पृथिवीकार्य 'विरूपरूपैः' नानाप्रकारैः 'शस्त्रैः' हलकुद्दालखनित्रादिभिः पृथिव्या-12 श्रयं कर्म-क्रियां समारभमाणा विहिंसन्ति, तथाऽनेन च पृथिवीकर्मसमारम्भेण पृथिवीशस्त्रं 'समारभमाणो' व्यापा-18 रयन पृथिवीकार्य नानाविधैः शापादयन् 'अनेकरूपान्' तदाश्रितानुदकवनस्पत्यादीन् विविधं हिनस्ति, नानाविधैरुपायैापादयतीत्यर्थः, एवं शाक्यादीनां पार्थिवजन्तुवैरिणामयतित्वं प्रतिपाद्य साम्प्रतं सुखाभिलाषितया कृतकारितानुमतिभिर्मनोवाकायलक्षणां प्रवृत्ति दर्शयितुमाह
तत्थ खल्लु भगवया परिपणा पवेइया, इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूय१येषां ते प्र० २ सम्प्रति.
॥३६
पृथ्विकायजीवस्य हिंसाया: हेतु:
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१५], नियुक्ति: [१०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सत्राक
[१५]]
दीप अनुक्रम
णाए जाइमरणमोयणाए दुक्खपडिघायहेउं से सयमेव पुढविसत्थं समारंभइ अण्णेहिं
वा पुढविसत्थं समारंभावेइ अपणे वा पुढविसत्थं समारंभंते समणुजाणइ (सू०१५) तत्र पृथिवीकायसमारम्भे खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे 'भगवता' श्रीवर्द्धमानस्वामिना परिज्ञानं परिज्ञा सा प्रवेदितेति, इदमुक्तं भवति-भगवतेदमाख्यातं यथैभिर्वक्ष्यमाणैः कारणैः कृतकारितानुमतिभिः सुखैषिणः पृथिवीकार्य समारभन्ते, तानि चामूनि-अस्यैव जीवितस्य परिपेलवस्य परिवन्दनमाननपूजनार्थ, तथा जातिमरणमोचना) दुःखप्रतिघातहेतुं च स सुखलिप्युर्दुःखद्विट् स्वयमात्मनैव पृथिवीशर्ख समारभते, तथाऽन्यैश्च पृथिवीशस्त्रं समारम्भयति, पृथिवीशखं समारभमाणानन्यांश्च स एव समनुजानीते, एवमतीतानागताभ्यां मनोवाकायकर्मभिरायोजनीयम् । तदेवं प्रवृत्तमतेर्यद्भवति तद्दर्शयितुमाह--
तं से अहिआए तं से अबोहीए से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुद्राय सोच्चा खल्लु भगवओ अणगाराणं इहमेगेसिं णातं भवति-एस खलु गंथे एस खलु मोहे एस खल्लु मारे एस खलु णरए इच्चत्थं गड्डिए लोए जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं पुढविकम्मसमारंभेण पुढविसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ, से बेमि अप्पेगे
[१६]
CAR-4
भा. सू..
JAINEDuratim intimatsind
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अत्र 'तत्थ खलु भगवया०” सूत्रस्य क्रम-१५ मूल सम्पादकेन द्वी-वारान् लिखितम् तत् मुद्रणदोष: दृश्यते पृथ्विकायस्य हिंसाया:फलं,
[84]
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गम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१६]
दीप
अनुक्रम [१७]
“आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [२], मूलं [ १६ ], निर्युक्ति: [ १०५ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित......आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचा
राङ्गवृत्तिः
(शी०)
।। ३७ ।।
11-964
ucation internation
अंधमभे अप्पे अंधमच्छे अप्पेगे पायमध्ये अप्पेगे पायमच्छे अप्पेगे गुप्फमब्भे अप्पे गुप्फमच्छे अप्पेगे जंघमन्भे २ अप्पेगे जाणुमव्भे २ अप्पेगे ऊरुमभे २ अपेगे कडिमभे २ अप्पेगे णाभिमन्भे २ अप्पेगे उदरमन्भे २ अप्पेगे पासमभे २ अप्पेगे पिट्टमभे २ अप्पेगे उरमब्भे २ अप्पेगे हिययमब्भे २ अप्पेगे थणमब्भे २ अप्पेगे खंधमभे २ अप्पेगे बाहुमब्भे २ अप्येगे हत्थमन्भे २ अप्पेगे अंगुलिमब्भे २ अप्पे हम भे २ अप्पेगे गीवमब्भे २ अप्पेगे हणुमब्भे २ अप्पेगे होट्टमभे. २ अप्पे दंतमव्भे २ अप्पेगे जिब्भमन्भे २ अप्पेगे तालुमन्भे २ अप्पेगे गलम भे २ अप्पेगे गंडमभे २ अप्पेगे कण्णमभे २ अप्पे णासमवभे २ अप्पेगे अच्छिम मे २ अप्पे भमुहममे २ अप्पेगे णिडालमब्भे २ अप्पेगे सीसमन्भे २ अप्पेगे संपनारए मा अप्पेगे उद्दवए, इत्थं सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णांता भवंति ( सू० १६ )
पृथ्विकायस्य हिंसकानाम् वेदानायाः अज्ञानं
For Parts Only
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अध्ययनं १
उद्देशकः २
॥ ३७ ॥
wor
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१६]
दीप
अनुक्रम [१७]
“आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [२], मूलं [ १६ ], निर्युक्ति: [ १०५ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित......आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
'तं से अहियाए तं से अबोहीए' तत् पृथिवीकायसमारम्भणं 'से' तस्य कृतकारितानुमतिभिः पृथ्वीशस्त्रं समारभमा| णस्यागामिनि काले अहिताय भवति, तदेव चाबोधिलाभायेति, न हि प्राणिगणोपमर्दनप्रवृत्तानामणीयसाऽपि हितेनाssयत्यां योगो भवतीत्युक्तं भवति, यः पुनर्भगवतः सकाशात्तच्छिष्या नगारेभ्यो वा विज्ञाय पृथ्वीसमारम्भं पापात्मकं भावयति स एवं मन्यत इत्याह- 'से त'मित्यादि, 'सः' ज्ञातपृथिवीजीवत्वेन विदितपरमार्थः 'तं' पृथ्वी शस्त्रसमारम्भमहितं सम्यगवबुध्यमानः 'आदानीयं ग्राह्यं सम्यग्दर्शनादि सम्यगुत्थाय - अभ्युपगम्य, केन प्रत्ययेनेति दर्शयति- 'श्रुत्वा' अवगम्य साक्षाद्भगवतोऽनगाराणां वा समीपे ततः 'इह' मनुष्यजन्मनि 'एकेषां' प्रतिबुद्धतत्त्वानां साधूनां ज्ञातं भवतीति, यत् ज्ञातं भवति तद्दर्शयितुमाह - 'एसे' त्यादि, एष पृथ्वीशस्त्रसमारम्भः खलुरवधारणे कारणे कार्योपचारं कृत्वा 'नडूवलोदकं पादरोग' इति न्यायेनैष एवं ग्रन्थः - अष्टमकारकर्मबन्धः, तथैष एव पृथ्वीसमारम्भो मोहहेतुत्वान्मोहः| कर्मबन्धविशेषो दर्शनचारित्रभेदोऽष्टाविंशतिविधः, तथैष एव मरणहेतुत्वान्मारः- आयुष्ककर्मक्षयलक्षणः, तथैष एव नरकहेतुत्वान्नरकः-सीमन्तकादिर्भूभागः, अनेन श्वासातावेदनीयमुपात्तं भवति, कथं पुनरेकप्राणिव्यापादनप्रवृत्तावष्टविधकर्मबन्धं करोतीति, उच्यते, मार्यमाणजन्तुज्ञानावरोधित्वात् ज्ञानावरणीयं बनात्येवमन्यत्राप्यायोजनीयमिति, अन्यदपि तेषां ज्ञातं भवतीति दर्शयितुमाह – 'इच्चत्थमित्यादि, 'इत्येवमर्थम्' आहारभूषणोपकरणार्थ तथा परिवन्दनमाननपूजनार्थं दुःखप्रतिघात हेतुं च 'गृद्धी' मूर्छितो 'लोकः' प्राणिगणः, एवंविधेऽप्यतिदुरितनिचयविपाकफले पृथ्वीकायसमारम्भे अज्ञानवशान्मूच्छितस्त्वेतद्विधत्त इति दर्शयति- 'यद्' यस्माद् 'इमं' पृथ्वीकार्य विरूपरूपैः शस्त्रैः पृथ्वी
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१६]
दीप
अनुक्रम [१७]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१६], निर्युक्ति: [१०५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित......आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः
(शी०)
॥ ३८ ॥
कर्म समारभमाणो हिनस्ति, पृथिवीकायसमारम्भेण च पृथिव्येव शस्त्रं स्वकायादेः पृथिव्या वा शस्त्रं हलकुद्दालादि तत्समारभते, पृथिवीशस्त्रं समारभमाणश्चान्याननेकरूपान् 'प्राणिनो' द्वीन्द्रियादीन्विविधं हिनस्तीति । स्यादारेका, ये हि न पश्यन्ति न शृण्वन्ति न जियन्ति न गच्छन्ति कथं पुनस्ते वेदनामनुभवन्तीति ग्रहीतव्यम् ?, अमुष्यार्थस्य प्रसिद्धये दृष्टान्तमाह-' से बेमी' त्यादि, सोऽहं पृष्टो भवता पृथिवीकायवेदनां ब्रवीमि अथवा 'से' इति तच्छब्दार्थे वर्त्तते, यत्त्वया पृष्टस्तदहं ब्रवीमि अपिशब्दो यथानामशब्दार्थे, यथा नाम कश्चिज्जात्यन्धो बधिरो मूकः कुष्ठी पङ्गः अनभि| निर्वृत्तपाण्याद्यवयवविभागो मृगापुत्रवत् पूर्वकृताशुभकर्मोदयाद्धिताहितप्राप्तिपरिहारविमुखोऽतिकरुणां दशां प्राप्तः, तमेवंविधमन्धादिगुणोपेतं कश्चित्कुन्ताग्रेण 'अम्भे' इति आभिन्द्यात् तथाऽपरः कश्चिदन्धमाच्छिन्द्यात्, स च भिद्यमा नाद्यवस्थायां न पश्यति न शृणोति मूकत्वान्नोच्चै रारटीति, किमेतावता तस्य वेदनाऽभावो जीवाभावो वा शक्यो विज्ञातुम् ?, एवं पृथिवीजीवा अप्यव्यक्तचेतना जात्यन्धवधिरमूकपङ्गादिगुणोपेतपुरुषवदिति, यथा वा पञ्चेन्द्रियाणां परिस्पष्टचेतनानां 'अप्पेगे पायमन्भे' इति यथा नाम कश्चित्पादमाभिन्यादाच्छिन्द्याद्वेत्येवं गुल्फादिष्वप्यायोजनीयमिति दर्शयति, एवं जङ्गाजानूरुक टीना भ्युदरपार्श्वपृष्ठ उ रोहृदय स्तनस्कन्धवाहुहस्ताङ्गुलिनखग्रीवाहन काष्ठदन्तजिह्वाता लुगलगण्ड कर्णनासिकाक्षिभ्रूललाटशिरःप्रभृतिष्ववयवेषु भिद्यमानेषु छिद्यमानेषु वा वेदनोसत्तिर्लक्ष्यते, एवमेषामुत्कटमोहाज्ञानभाजां स्त्यानद्युदयादव्यक्तचेतनानामव्यक्तैव वेदना भवतीति ग्राह्यम् । अत्रैव दृष्टान्तान्तरं दर्शयितुमाह-'अप्पेगे
१ कार्य प्र.
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अध्ययनं १ उद्देशकः २
॥ ३८ ॥
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आगम (०१)
“आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१६], नियुक्ति: [१०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
XI
प्रत
सूत्रांक [१६]
दीप अनुक्रम [१७]
संपमारए अपेगे उद्दवए' यथा नाम कश्चित् 'सम्' एकीभावेन प्रकर्षण प्राणानां मारणम्-अव्यक्तरयापादनं कस्यचित || कुर्यात, मूर्छामापादयेदित्यर्थः, तथाऽवस्थं च यथा नाम कश्चिदपद्रापयेत् प्राणेभ्यो व्यपरोपयेत् न चासौ ता वेदना
स्फुटमनुभवति, अस्ति चाव्यक्ता तस्यासी वेदनेति, एवं पृथिवीजीवानामपि द्रष्टव्यमिति । पृथिवीकायिकानां जीवत्वं प्रसाध्य तथा नानाविधशस्त्रसंपाते वेदनां चाविर्भाव्य अधुना तद्वधे बन्धं दर्शयितुमाह
एत्थ सत्थं असमारभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिपणाता भवंति, तं परिणाय मेहावी नेव सयं पुढविसत्थं समारंभेजा णेवण्णेहिं पुढविसत्थं समारंभावेजा णेवण्णे पुढविसत्थं समारंभंते समणुजाणेजा, जस्सेते पुढविकम्मसमारंभा परिण्णाता भवंति से
हु मुणी परिपणातकम्मेत्ति बेमि (सू०१७) इति द्वितीय उद्देशकः ॥ 'अत्र' पृथिवीकाये 'शस्त्रं द्रव्यभावभिन्नं, तत्र द्रव्यशस्वं स्वकायपरकायोभयरूपं, भावशस्त्रं त्वसंयमो दुष्प्रणिहितमनोवाकायलक्षणः, एतद्विविधमपि शखं समारभमाणस्येति 'एते' खननकृष्याद्यात्मकाः समारम्भाः बन्धहेतुत्वेन 'अपरिज्ञाता' अविदिता भवन्ति, एतद्विपरीतस्य परिज्ञाता भवन्तीति दर्शयितुमाह-एत्थे' त्यादि, 'अत्र' पृथिवीकाये द्विविधमपि शस्त्रम् 'असमारभमाणस्य अव्यापारयत इति, 'एते' प्रागुक्ताः कर्मसमारम्भाः 'परिज्ञाता' विदिता भ
१ चेतनेति. २ प्रतिपादयन्तीति.
%%%%%2595%25453
पृथ्विकायानाम् ज्ञाता ही मुनि:
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [१७], नियुक्ति : [१०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१७]
दीप अनुक्रम [१८]
श्रीआचा- वन्ति, अनेन च विरत्यधिकारः प्रतिपादितो भवतीति, तामेव विरतिं स्वनामग्राहमाह-'त'मित्यादि, तं पृथिवीका- अध्ययन राङ्गवृत्तिः यसमारम्भे वन्धं परिज्ञाय असमारम्भे वाऽबन्धमिति 'मेधावी' कुशलः एतत् कुर्यादिति दर्शयति-नैव पृथिवीशस्त्रं (शी०) 8|| द्रव्यभावभिन्न समारभेत, नापि तद्विषयोऽन्यैः समारम्भः कारयितव्यः, न चान्यान् पृथिवीशखं समारभमाणान् सम-18
दाउद्देशकः३ नुजानीयात् इति, एवं मनोवाकायकर्मभिरतीतानागतकालयोरप्यायोजनीयमिति, ततश्चैवं कृतनिवृत्तिरसी मुनिरिति व्यपदिश्यते, न शेष इति दर्शयन्नुपसञ्जिहीपुराह-'यस्य' विदितपृथिवीजीववेदनास्वरूपस्य, 'एते' पृथिवीविषयाः कर्मसमारम्भाः खननकृष्याद्यात्मकाः कर्मबन्धहेतुत्वेन परिज्ञाता भवन्ति ज्ञपरिज्ञया तथा प्रत्याख्यानपरिजया च परिहता| | भवन्ति, हुरवधारणे, स एव मुनिर्द्विविधयाऽपि परिज्ञया परिज्ञातं कर्म-सावद्यानुष्ठानमष्टप्रकारं वा कर्म येन स परिज्ञा-1 तकर्मा, नापरः शाक्यादिः, ब्रवीमि पूर्ववदिति शस्त्रपरिज्ञायां द्वितीय उद्देशकः समाप्तः ॥
___गतः पृथिव्युदेशकः, साम्प्रतमप्कायोद्देशकः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोदेशके पृथिवीकाय-18 दिजीवाः प्रतिपादितास्तद्वधे बन्धो विरतिश्च, साम्प्रतं क्रमायातस्याप्कायस्य जीवत्वं तदधे बन्धो विरतिश्च प्रतिपाद्यते इति,
अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि वाच्यानि, तत्र नामनिष्पन्ने निक्षेपे अप्कायोद्देशकः, तत्र पृथिवीकायजीवस्वरूपसमधिगतये यानि नव निक्षेपादीनि द्वाराण्युक्तानि, अपकायेऽपि तान्येव समानतयाऽतिदेष्टुकामः कानिचिद्विशेषाभिधित्सयोद्धर्तुकामश्च नियुक्तिकारो गाथामाह
॥३९॥ आउस्सवि दाराई ताई जाई हवंति पुढवीए । नाणत्ती उ विहाणे परिमाणुचभोगसत्ये य ॥१०६ ॥
ACRECESSA
wereumstaram.org
| प्रथम अध्ययने तृतीय: उद्देशकः 'अप्काय' आरब्धः,
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [१७...], नियुक्ति : [१०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१७]]
दीप अनुक्रम [१८]
अपकायस्यापि तान्येव द्वाराणि भवन्ति यानि पृथिव्याः प्रतिपादितानीति, 'नानात्वं' भेदरूपं विधानपरिमाणोपभोगशस्त्रविपत्यं द्रष्टव्यं, चशब्दाल्लक्षणविषयं च, तुशब्दोऽवधारणार्थः, एतद्गतमेव नानात्वं नान्यगतमिति ॥ तत्र विधानं -प्ररूपणा, तद्गतं नानात्वं प्रदर्शयितुमाहदुविहा उ आउजीवा सुहुमा तह बायरा य लोगंमि । मुहमा य सव्वलोए पंचेव य बायरविहाणा ॥१०७॥
स्पष्टा ॥ तत्र पञ्च बादरविधानानि दर्शयितुमाहसुद्धोदए य उस्सा हिमे य महिया य हरतणू चेव । थायर आउविहाणा पंचविहा वणिया एए॥१०८॥ | शुद्धोदक' तडागसमुद्रनदीहदावटादिगतमवश्यायादिरहितमिति, 'अवश्यायो' रजन्यां यस्खेहः पतति, हिमं तु दाशिशिरसमये शीतपुद्गलसम्पोजलमेव कठिनीभूतमिति, गर्भमासादिषु सायं प्रातर्वा धूमिकापातो महिकेत्युच्यते, वर्षाशरत्कालयोहरिताङ्करमस्तकस्थितो जलबिन्दुभूमिस्नेहसम्पर्कोद्भूतो हरतनुशब्देनाभिधीयते, एवमेते पञ्च बादराप्कायविधयो व्यावर्णिताः। ननु च प्रज्ञापनायां बादराप्कायभेदा बहवः परिपठितार, तद्यथा-करकशीतोष्णक्षारक्षत्रकदम्ललवणवरुणकालोदपुष्करक्षीरघृतेक्षुरसादयः, कथं पुनस्तेषामत्र सङ्ग्रहः ?, उच्यते, करकस्तावत्कठिनत्वाद्धिमान्त:पाती, शेषास्तु स्पर्शरसस्थानवर्णमात्रभिन्नत्वान्न शुद्धोदकमतिवर्तन्ते, यद्येवं प्रज्ञापनायां किमर्थोऽपरभेदानां पाठः, उच्यते, स्त्रीबालमन्दबुद्ध्यादिप्रतिपत्त्यर्थमिति, इहापि कस्मान्न तदर्थ पाठः१, उच्यते, प्रज्ञापनाध्ययनमुपाङ्गत्वादा, तत्र युक्तः सकलभेदोपन्यासः ख्याद्यनुग्रहाय, नियुक्तयस्तु सूत्रार्थ पिण्डीकुर्वन्त्यः प्रवर्तन्त इत्यदोषः। त एते बादराप्कायाः
[90]
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [१७...], नियुक्ति : [१०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१७]
श्रीआचारावृत्तिः (शी०)
॥४०॥
दीप अनुक्रम [१८]
समासतो द्वेधाः- पर्याप्तका अपर्याप्तकाश्च, तत्रापर्याप्तका वर्णादीनसम्प्राप्ताः, पर्याप्तकास्तु वर्णगन्धरसस्पर्शादेशैः सहस्रा- अध्ययनं १
शो भिद्यन्ते, ततश्च सङ्ख्येयानि योनिप्रमुखानि शतसहस्राणि भवन्ति भेदानामित्यवगन्तव्यं, संवृतयोनयश्चैते, साच योनिः सचित्ताचित्तमिश्रभेदात् विधा, पुनश्च शीतोष्णोभयभेदात्रिविधव, एवं गण्यमानाः योनीनां सप्त लक्षा भव
उद्देशकः३ न्तीति ॥ प्ररूपणानन्तरं परिमाणद्वारमाह
जे वायरपजत्ता पयरस्स असंखभागमित्ता ते । सेसा तिन्निधि रासी वीसुं लोगा असंखिजा ॥ १०९। ये बादरापकायपर्याप्तकास्ते संवर्सितलोकप्रतरासङ्ख्येयभागप्रदेशराशिपरिमाणाः, शेषास्तु अयोऽपि राशयो 'विष्वक् । पृथगसद्धयेयलोकाकाशप्रदेशराशिपरिमाणा इति, विशेषश्चायम्-चादरपृथिवीकायपर्याप्तकेभ्यो बादराएकायपर्याप्तका||2 असङ्खचेयगुणाः बादरपृथ्वीकायापर्याप्तकेभ्यो बादराकायिकापर्याप्तका असंख्येयगुणाः सूक्ष्मपृथिवीकायापर्याप्तकेभ्यः सूक्ष्मा कायापर्याप्तका विशेषाधिकाः सूक्ष्मवृथ्वीकायपर्याप्तकेभ्यः सूक्ष्मापकायपर्याप्ता विशेषाधिकाः ॥ साम्प्रतं परिमाणद्वारानन्तरं चशब्दसूचितं लक्षणद्वारमाहजह हथिस्स सरीरं कललावत्थस्स अहुणोववन्नस्स । होइ उदगंडगस्स य एसुवमा सबजीवाणं ॥११॥
अथवा पर आक्षिपति-नापकायो जीवः, तल्लक्षणायोगात् प्रश्रवणादिवदित्यस्य हेतोरसिद्धतोद्भावनार्थं दृष्टान्तद्वारेण लक्षणमाह-जहेत्यादि, यथा हस्तिनः शरीरं कललावस्थायामधुनोत्पन्नस्य द्रवं चेतनं च दृष्टम् , एघमप्कायोऽपीति, ॥४०॥ यथा वा उदकप्रधानमण्डकमुदकाण्डकमधुनोसन्नमित्यर्थः, तन्मध्यव्यवस्थितं रसमात्रमसङ्गातावयवमनभिव्यक्तचश्वा-|
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [१७...], नियुक्ति : [११०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१७]]
AROO
दीप अनुक्रम [१८]
दिनविभागं चेतनावद् दृष्टम् , एषा एवोपमा अप्कायजीवानामपीति, हस्तिशरीरकललग्रहणं च महाकायत्वात्तद्वी टू भवतीत्यतः सुखेन प्रतिपद्यते, अधुनोपपन्नग्रहणं सप्ताहपरिग्रहार्थ, यतः सप्ताहमेव कललं भवति, परतस्त्वधंदादि, *अण्डकेऽप्युदकग्रहणमेवमर्थमेव, प्रयोगश्वायम्-सचेतना आपः, शस्त्रानुपहतत्वे सति द्रवत्वात्, हस्तिशरीरोपादानभू
तकललवत्, विशेषणोपादानात्प्रश्रवणादिव्युदासः, तथा सात्मकं तोयम्, अनुपहतद्रवत्वाद्, अण्डकमध्यस्थितकलल
वदिति, तथा आपो जीवशरीराणि, छेद्यत्वाऽद्यत्वादुत्क्षेप्यत्वाद्भोज्यत्वाद्धोग्यत्वात् प्रेयत्वासनीयत्वात् स्पर्शनीय-13 दत्वात् दृश्यत्वाद् द्रव्यत्वाद् एवं सर्वेऽपि शरीरधर्मा हेतुत्वेनोपन्यसनीयाः, गगनबर्जभूतधर्माश्च रूपवत्याकारवत्त्वादयः,
सर्वत्र चायं दृष्टान्तः-सानाविषाणादिसवातवदिति, ननु च रूपवत्त्वाकारवत्त्वादयो भूतधर्माः परमाणुष्वपि दृष्टा हा इत्यनैकान्तिकता, नैतदेवं, यदत्र छेद्यत्वादिहेतुत्वेनोपन्यस्तं तत्सर्वमिन्द्रियव्यवहारानुपाति, न च तथा परमाणवः ||
अतः प्रकरणादतीन्द्रियपरमाणुव्यवच्छेदः, यदिवा नैवासौ विपक्षः, सर्वस्य पुद्गलद्रव्यस्य द्रव्यशरीराभ्युपगमात्, जीवसहितासहितत्वं तु विशेषः, उकं च-"तणवोऽणम्भातिविगार मुत्तजाइत्तओऽणिलंता उ । सत्यासत्वहयाओ निजीवसजीवरुवाओ॥१॥" एवं शरीरत्वे सिद्धे सति प्रमाण-सचेतना हिमादयः, कचित् अपकायत्वाद् , इतरोदकवत् इति, तथा सचेतना आपा, कचित् खातभूमिस्वाभाविकसम्भवत्वाद्, दर्दुरवत्, अथवा · सचेतना अन्तरिक्षोद्भवा||
तनचोडण्याचादिविकारा मूर्तजातित्वतः अनिलान्तास्तु । शास्त्राशनहता निऑयसजीवरूपाः ॥१॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [१७...], नियुक्ति : [११०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१७]
दीप अनुक्रम [१८]
श्रीआचा- आपः, स्वाभाविकव्योमसम्भूतसम्पातित्वात् , मत्स्यवत् , अत एते एवंविधलक्षणभाक्त्वाज्जीवा भवन्त्यपकायाः ॥ सा- अध्ययन राङ्गवृत्तिः साम्प्रतमुपभोगद्वारमाह(शी०) Pण्हाणे पिअणे तह धोअणे य भत्तकरणे असेए अ। आउस्स उ परिभोगो गमणागमणे य जीवाणं ॥११॥
उद्देशकः३ ॥४१॥
| स्नानपानधावनभक्तकरणसेकयानपात्रोडुपगमनागमनादिरुपभोगः । ततश्च तत्परिभोगाभिलाषिणो जीवा एतानि कापारणाम्युद्दिश्याप्कायवधे प्रवर्तन्त इति प्रदर्शयितुमाह
एएहिं कारणेहिं हिंसंती आजकाइए जीवे । सायं गवेसमाणा परस्स दुक्खं उदीरंति ॥ ११२ ॥ | 'एभिः' स्नानावगाहनादिकैः कारणैरुपस्थितैः विषय विषमोहितात्मानो निष्करुणा अपूकायिकान् जीवान् 'हिंसन्ति' व्यापादयन्ति, किमर्थमित्याह-सातं' सुखं तदात्मनः 'अन्वेषयन्तः' प्रार्थयन्तः हिताहितविचारशून्यमनसः कतिपयदिवसस्थायिरम्ययौवनदध्मातचेतसः सन्तः सद्विवेकरहिताः तथा विवेकिजनसंसर्गविकलाः 'परस्य' अबादेर्जन्तुग४ाणस्य 'दुःखम्' असातलक्षणं तद् 'उदीरयन्ति' असातवेदनीयमुत्पादयन्तीत्यर्थः, उक्तं च-"एक हि चक्षुरमलं सहजो ||
विवेकस्तद्वद्भिरेव सह संवसतिर्द्वितीयम् । एतद्वयं भुवि न यस्य स तत्त्वतोऽन्धस्तस्यापमार्गेचलने खलु कोऽपराधः? Palu१॥ इदानीं शस्त्रद्वारमुच्यते
उस्सिचणगालणधोवणे य उवगरणमत्तभंडे य । बायरआउकाए एयं तु समासओ सत्थं ॥ ११३ । शस्त्रं द्रव्यभावभेदात् द्विधा-द्रव्यशस्नमपि समासविभागभेदात् द्विधैव, तत्र समासतो द्रव्यशस्वमिदम्-ऊ सेच
NIT॥४१॥
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम [१८]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [१७...], निर्युक्ति: [११३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित......आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
अनगार स्वरुप
नमुत्सेचनं - कूपादेः कोशादिनोत्क्षेपणमित्यर्थः, 'गालनं' घनमसृणवस्त्रार्द्धान्तेन 'घावनं' वस्त्राद्युपकरण चर्मकोशकटाहा दिभण्डकविषयम्, एवमादिकं बादराकाये 'एतत्' पूर्वोक्तं 'समासतः' सामान्येन शस्त्रं, तुशब्दो विभागापेक्षया विशे पणार्थः । विभागतस्त्विदम् —
किंची सकाय सत्थं किंची परकाय तदुभयं किंचि । एवं तु दव्वसत्थं भावे य असंजमो सत्थं ॥ ११४ ॥ किञ्चित् स्वकायशस्त्रं नादेयं तडागस्य, किश्चित्पर कायशस्त्रं मृत्तिकास्नेहक्षारादि किञ्चिञ्च्चोभयं उदकमिश्रा मृत्तिकोदकस्येति, भावशस्त्रमसंयमः प्रमत्तस्य दुष्प्रणिहितमनोत्राकायलक्षण इति ॥ शेषद्वाराणि पृथिवीकायवन्नेतव्यानि इति |दर्शयितुमाह
सेसाई दाराई ताई जाई हवंति पुढवीए। एवं आउछेसे निज्जुती कित्तिया एसा ( होइ ) ॥ ११५ ॥ 'शेषाणी' त्युक्तशेषाणि निक्षेपवेदनावधनिवृत्तिरूपाणि तान्येवात्रापि द्रष्टव्यानि यानि पृथिव्यां भवन्तीति, 'एवम्' उक्तप्रकारेणापकायोद्देशके 'निर्युक्तिः' निश्चयेनार्थघटना 'कीर्त्तिता' प्रदर्शिता भवतीति ॥ साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं तच्चेदम्---
से बेमि जहा अणगारे उज्जुकडे नियार्यपडिवपणे अमायं कुव्वमाणे विया - हिए (सू० १८ )
१ निकाय पडिव इति पा.
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [१८], नियुक्ति : [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१८]
दीप अनुक्रम [१९]]
श्रीआचा- से मेमी'त्यादि अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके परिसमाप्तिसूत्रे 'पृथिवीकायसमारम्भव्यावृत्तो । अध्ययनं १ राङ्गवृत्तिः मुनि रित्युक्त, न चैतावता सम्पूर्णो मुनिर्भवति, यथा च भवति तथा दर्शयति, तथाऽऽदिसूत्रेणायं सम्बन्धः-सुधर्म(शी०) स्वामी इदमाह-श्रुतं मया भगवदन्तिके यत् प्राक् प्रतिपादितमन्यच्चेदमित्येवं परम्परसूत्रसम्बन्धोऽपि प्राग्वद्वाच्यः।
उद्देशकः । सेशब्दस्तच्छब्दार्थो, स यथा पृथिवीकायसमारम्भव्यावृत्त्युत्तरकालं सम्पूर्णानगारव्यपदेशभाग् भवति तदहं ब्रवीमि, ॥४२॥
अपिः समुच्चये, स यथा वाऽनगारो न भवति तथा च ब्रवीमि 'अणगारा मो त्ति एगे पयवमाणे त्यादिनेति, न विद्यते अगारं-गृहमस्येत्यनगारः, इह च यत्यादिशब्दब्युदासेनानगारशब्दोपादानेनैतदाचष्टे-गृहपरित्यागः प्रधान मुदानित्वकारणं, तदाश्रयत्वात्सायद्यानुष्ठानस्य, निरवद्यानुष्ठायी च मुनिरिति दर्शयति-'उज्जुकडे'त्ति ऋजुः-अकुटिलः |
संयमो दुष्पणिहितमनोवाकायनिरोधः सर्वसत्वसंरक्षणप्रवृत्तत्वाद्दयैकरूपः, सर्वत्राकुटिलगतिरितियावत्, यदिया| ||मोक्षस्थानगमनर्जुश्रेणिप्रतिपत्तिः सर्वसंवरसंयमात्, कारणे कार्योपचारं कृत्वा संयम एव सप्तदशप्रकार ऋजुः तं करोतीति ऋजुकृत, ऋजुकारीत्यर्थः । अनेन चेदमुक्तं भवति-अशेषसंयमानुष्ठायी सम्पूर्णोऽनगार:, एवंविधश्चेदम् भवतीति दर्शयति-नियागपडियने'त्ति, यजनं यागः नियतो निश्चितो वा यागो नियागो मोक्षमार्गः, सङ्गतार्थत्वाद्धातोः ।
सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रात्मतया गतं सनातमिति, तं नियागं-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकं मोक्षमार्ग प्रतिपन्नो नियाग लिप्रतिपन्नः, पाठान्तरं वा निकायप्रतिपन्नो' निर्गतः कायः-औदारिकादिर्यस्माद्यस्मिन्वा सति स निकायो-मोक्षस्तं प्रतिपन्नो ॥४२॥
|निकायप्रतिपन्नः, तत्कारणस्य सम्यग्दर्शनादेः स्वशत्याऽनुष्ठानात्, स्वशत्याऽनुष्ठानं चामायाबिनो भवतीति दर्शयति
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [१८], नियुक्ति: [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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दीप अनुक्रम [१९]]
-'अमायं कुब्यमाणे'त्ति माया-सर्वत्र स्ववीर्यनिगूहनं, न माया अमाया तां कुर्वाणः, अनिगूहितबलवीर्यः संयमानुघाने पराक्रममाणोऽनगारो व्याख्यात इति, अनेन च तज्जातीयोपादानादशेषकपायापगमोऽपि द्रष्टव्य इति, उक्तंच --"सोही ये उज्जुयभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिहई"त्ति ॥ तदेवमसावुदृतसकलमायावल्लीवितानः किं कुर्यादित्याह- |
जाए सद्धाए निक्खंतो तमेव अणुपालिजा, वियहित्ता विसोत्तिय (सूत्र० १९) ol 'यया श्रद्धया' प्रवर्द्धमानसंयमस्थानकण्टकरूपया 'निष्क्रान्तः' प्रव्रज्या गृहीतवान् 'तामेव' श्रद्धामश्रान्तो यावज्जीवम् का अनुपालयेद् रक्षेदित्यर्थः, प्रव्रज्याकाले च प्रायशः प्रवृद्धपरिणाम एवं प्रव्रजति, पश्चात्तु संयमनेणी प्रतिपन्नो वर्द्धमा-18
नपरिणामो वा हीयमानपरिणामो वा अवस्थितपरिणामो वेति, तत्र वृद्धिकालो हानिकालो वा समयाद्युत्कर्षेणान्तमौहर्तिका, नातः परं सक्लेशविशुध्यद्धे भवतः, उक्तं च-"नान्तर्मुहूर्त्तकालमतिवृत्य शक्यं हि जगति सक्लेष्टम् । नापि विशोढुं शक्यं प्रत्यक्षो ह्यात्मनः सोऽर्थः॥ १ ॥ उपयोगद्वयपरिवृत्तिः सा निर्हेतुका स्वभावत्वात् । आत्मप्रत्यक्षो हि स्वभावो व्यर्थाऽत्र हेतूक्तिः ॥ २॥" अवस्थितकालश्च द्वयोवृद्धिहानिलक्षणयोर्यवमध्यवज्रमध्ययोरष्टौ समयाः, तत ऊर्द्वमवश्यं पातात्, अयं च वृद्धिहान्यवस्थितरूपः परिणामः केवलिनां निश्चयेन गम्यो न छद्मस्थानामिति । यद्यपि |च प्रत्रज्याभिगमोत्तरकालं श्रुतसागरमवगाहमानः संवेगवैराग्यभावनाभावितान्तरात्मा कश्चित्प्रवर्द्धमानमेव परिणाम ||
. शोभिधर्जुभूतस्य धर्मः शुद्धस्य तिति. २ पुषसंजोयं इति पा.
आ.सू.८
संयम-श्रद्धा वृद्धिकरणे उपदेश:
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [१९], नियुक्ति : [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
अध्ययन उद्देशकः३
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दीप अनुक्रम [२०]
श्रीआचा- भजते, तथा चोक्तम्-"जह जह सुयमवगाहइ अइसयरसपसरसंजुयमउवं । तह तह पल्हाद मुणी नवनवसंवेगसराङ्गवृत्तिः
दिखाए॥१॥" तथापि स्तोक एव तादृक् बहवश्च परिपतन्ति अतोऽभिधीयते 'तामेवानुपालयेदिति, कथं पुनः कृत्वा (शी०) श्रद्धामनुपालयेदित्याह-'बिजहे'त्यादि, 'विहाय' परित्यज्य 'विस्रोतसिकां'शङ्कां, सा च द्विधा-सर्वशङ्का देशशङ्का च,
तत्र सर्वशङ्का किमस्ति आहेतो मांगों नवेति, देशशङ्का तु किं विद्यन्ते अपकायादयो जीवाः, विशेष्य प्रवचनेऽभि॥४३॥
हितत्वात् सष्टचेतनात्मलिङ्गाभावान्न विद्यन्ते इति वा, इत्येवमादिकामारेको विहाय सम्पूर्णाननगारगुणान् पालयेत्,
यदिवा विस्रोतांसि द्रव्यभावभेदात् द्विधा-तत्र द्रव्यविस्रोतांसि नद्यादिस्रोतसां प्रतीपगमनानि, भावविस्रोतांसि तु 8 मोक्ष प्रति सम्यग्दर्शनादिस्रोतसा प्रस्थितानां विरूपाणि, प्रतिकूलानि गमनानि भावविस्रोतांसि, तानि विहाय सम्पूर्णा& नगारगुणभौगू भवति, श्रद्धा वाऽनुपालयेदिति, पाठान्तरं वा 'विजहित्ता पुब्यसंजोग' पूर्वसंयोगा-मातापित्रादिभिः, अस्य
चोपलक्षणार्थत्वात्पश्चात्संयोगोऽपि श्वशुरादिकृतो ग्राह्यस्तं 'विहाय' त्यक्त्वा 'श्रद्धामनुपालयेदिति मीलनीयं ।। तत्र यस्यायमुपदेशो दीयते यथा 'विहाय विस्रोतांसि तदनु श्रद्धानुपालनं कार्य' स एवाभिधीयते-न केवलं भवानेवापूर्वमिदमनुष्ठानमेवंविधं करिष्यति, किं त्वन्यैरपि महासत्त्वैः कृतपूर्वमिति दर्शयितुमाह
पणया वीरा महावीहिं (सू०२०)
CORCHAR
CSCAR
दा॥४३॥
१ यथा यथा शुलमवगाहतेऽतिशयरसपसरसंयुतगपूर्वम् । तथा तथा प्रहादसे मुनिनननवसंवेगवया ॥१॥
मार्ग उत नेति प्र.
महापुरुष आचरित मार्ग:
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [२०], नियुक्ति: [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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दीप
'प्रणताः' प्रह्लाः 'वीराः' परीपहोपसर्गकषायसेनाविजयात् वीथिः-पन्थाः महांश्चासौ वीथिश्च महावीथिः सम्यग्दर्शनादिरूपो मोक्षमार्गो जिनेन्द्रचन्द्रादिभिः सत्पुरुषैः ग्रहतः, तं प्रति प्रह्वाः-वीर्यवन्तः संयमानुष्ठानं कुर्वन्ति, ततश्चोत्तमपुरुषप्रहतोऽयं मार्ग इति प्रदर्य तजनितमार्गविनम्भो विनेयः संयमानुष्ठाने सुखेनैव प्रवर्त्तयिष्यते ॥ उपदेशान्तरमाह-लोक चेत्यादि, अथवा यद्यपि भवतो मतिर्ने क्रमतेऽप्कायजीवविषये, असंस्कृतत्वात्, तथापि भगवदाज्ञेयमिति श्रद्धातव्यमित्याह
लोगं च आणाए अभिसमेच्चा अकुओभयं (सू० २१) अत्राधिकृतत्वादकायलोको लोकशब्देनाभिधीयते, तमकायलोकं चशब्दादन्यांश्च पदार्थान् ‘आशया' मौनीन्द्रवचनेनाभिमुख्येन सम्यगित्वा-ज्ञात्वा, यथाऽप्कायादयो जीवाः, इत्येवमवगम्य न विद्यते कुतश्चिद्धेतोः केनापि प्रकारेण जन्तूनां भयं यस्मात् सोऽयमकुतोभयः-संयमस्तमनुपालयेदिति सम्बन्धः, यद्वा 'अकुतोभयः' अपकायलोको, यतोऽसौ न कुतश्चियमिच्छति, मरणभीरुत्वात्, तमाज्ञयाऽभिसमेत्यानुपालयेद्-रक्षेदित्यर्थः ॥ अपकायलोकमाज्ञया अभिसमेत्य यत्कर्त्तव्यं तदाह
से बेमि णेव सयं लोग अब्भाइक्खिज्जा व अत्ताणं अब्भाइक्खिज्जा, जे लोयं अ
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| अप्कायेषु जीवस्य अस्तित्वं
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [२२], नियुक्ति: [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२२]
दीप अनुक्रम [२३]
श्रीआचा- ब्भाइक्खइ से अत्ताणं अब्भाइक्खइ, जे अत्ताणं अब्भाइक्खइ से लोयं अब्भाइ
अध्ययन राङ्गवृत्तिः क्खइ (सू० २२)
उद्देशकः३ (शी०)
सोऽहं ब्रवीमि, सेशब्दस्य युष्मदर्थत्वात्वां वा ब्रवीमि, न 'स्वयम्' आत्मना 'लोक' अप्कायलोकोऽभ्याख्यातव्यः, ॥४४॥
अभ्याख्यानं नामासदभियोगा, यथाऽचौरं चौरमित्याह, इह तु जीवा न भवन्त्यापा, केवलमुपकरणमात्र, घृततैला-1 दिवत् , एषोऽसदभियोगः, हस्त्यादीनामपि जीवानामुपकरणत्वात, स्यादारेका-नन्वेतदेवाभ्याख्यानं यदजीवानां जी-| वत्वापादनं, नैतदस्ति, प्रसाधितमपां प्राक् सचेतनत्वं, यथा हि अस्य शरीरस्याप्रत्यादिभिर्हेतुभिरधिष्ठाताऽऽत्मा व्यतिरिक्तः प्राक् प्रसाधित एवमप्कायोऽप्यव्यक्तचेतनया सचेतन इति प्राक् प्रसाधितः, न च प्रसाधितस्याभ्याख्यान न्याय्यम् , अथापि स्याद् , आत्मनोऽपि शरीराधिष्ठातुरभ्याख्यानं कर्त्तव्यं, न च तक्रियमाणं घटामियतीति दर्शयति -'नेव अत्ताणं अब्भाइक्खेज्जा' नैव 'आत्मानं शरीराधिष्ठातारमहंप्रत्ययसिद्धं ज्ञानाभिन्नगुणं प्रत्यक्षं 'प्रत्याचक्षीत' अपहुवीत, ननु चैतदेव कथमवसीयते-शरीराधिष्ठाताऽऽत्माऽस्तीति, उच्यते, विस्मरणशीलो देवानां प्रिय उक्तमपि भाण-IN यति, तथाहि-आहृतमिदं शरीरं केनचिदभिसन्धिमता, कफरुधिराङ्गोपाङ्गादिपरिणतेः, अन्नादिवत्, तथोत्सृष्टमपि
केनचिदभिसन्धिमतैव, आहतत्वादू, अन्नमलवदिति, तथा न ज्ञानोपलब्धिपूर्वकः परिस्पन्दो भ्रान्तिरूपः, परिस्पन्द-1॥ ४४ ।। हात्वात् , त्वदीयवचनपरिस्पन्दवत्, तथा विद्यमानाधिष्ठातृव्यापारभाञ्जीन्द्रियाणि, करणत्वात्, दात्रादिवत्, एवं कुत-II
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [२२], नियुक्ति: [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
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दीप अनुक्रम [२३]
कमार्गानसारिहेतुमालोच्छेदः स्याद्वादपरशुना कार्य:, अत एवंविधोपपत्तिसमधिगतमात्मानं शुभाशुभफलभाज नM प्रत्या चक्षीत, एवं च सति यो ह्यज्ञः कुतर्कतिमिरोपहतज्ञानचक्षुरपूकायलोकमभ्याख्याति प्रत्याचष्टे स सर्वप्रमाणसिद्धमात्मानमभ्याख्याति, यश्चात्मानमभ्याख्याति-नास्म्यह, स सामर्थ्यादप्कायलोकमभ्याख्याति, यतो ह्यात्मनि पाण्याद्यवयवोपेतशरीराधिष्ठायिनि प्रस्सष्टलिङ्गेऽभ्याख्याते सत्यव्यक्तचेतनालिङ्गोऽप्कायलोकस्तेन सुतरामभ्याख्यातः ॥ एवमनेकदोषोपपत्तिं विदित्वा नायमकायलोकोऽभ्याख्यातव्य इत्यालोच्य साधवो नाकायविषयमारम्भं कुर्वन्तीति, शाक्या-12 दयस्त्वन्यथोपस्थिता इति दर्शयितुमाह
लजमाणा पुढो पास-अणगारा मो त्ति एगे पवयमाणा जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि उदयकम्मसमारंभेणं उदयसत्थं समारंभमाणे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ । तत्थ खल्ल भगवता परिणा पवेदिता । इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जाइमरणमोयणाए दुक्खपडिघायहेउं से सयमेव उदयसत्थं समारभति अण्णेहिं वा उदयसत्थं समारंभावेति अण्णे उदयसत्थं समारंभंते समणुजाणति । तं से अहियाए तं से अबोहीए । से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुद्राय सोच्चा भगवओ अ
अप्काय हिंसानाम् विरत: एव मुनि:'
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [२३], नियुक्ति : [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२३]
श्रीआचारावृत्तिः (शी)
अध्ययनं१ उद्देशकः३
॥४५॥
दीप अनुक्रम [२४]
PORN.
णगाराणं अंतिए इहमेगेसिं णायं भवति-एस खलु गंथे एस खलु मोहे एस खलुमारे एस खलु णरए, इच्चत्थं गड्डिए लोए जमिणं विरूवरूवहिं सत्थेहिं उदयकम्मसमारम्भेणं उदयसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ । से बेमि
संति पाणा उदयनिस्सिया जीवा अणेगे (सू० २३) 'लज्जमानाः' स्वकीयं प्रत्रज्याभासं कुर्वाणाः यदिवा सावधानुष्ठानेन लज्जमाना-लज्जां कुर्वाणाः 'पृथग विभिन्नाः शाक्योलूककणभुक्कपिलादिशिष्याः, पश्येति शिष्यचोदना, अविवक्षितकर्मका अपि अकर्मका भवन्ति, यथा-पश्य मृगो धावतीति, द्वितीयार्थे वा प्रथमा सुव्यत्ययेन द्रष्टव्या, ततश्चायमर्थः-शाक्यादीन् गृहीतप्रवज्यानपि सावद्यानुष्ठा-1 नरतान् पृथग्विभिन्नान् पश्य, किं तैरसदाचरितं ! येनैवं प्रदश्यन्त इति दर्शयति-अनगारा बयमित्येके शाक्यादयः प्रवदन्तो 'यदिदं' यदेतत्, काक्का दर्शयति-'विरूपरूपैः' उत्सेचनाग्निविध्यापनादिशस्त्रैः स्वकायपरकायभेदभिन्नैरुदककर्म समारभन्ते, उदककर्मसमारम्भेण च उदके शस्त्रं उदकमेव वा शस्त्रं समारभन्ते, तच्च समारभमाणोऽनेकरूपान्वनस्पतिद्वीन्द्रियादीन्थिविध हिनस्ति, तत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता, यथा अस्यैव जीवितव्यस्य परिवन्दनमानन-1 पूजनार्थ जातिमरणमोचनार्थ दुःखप्रतिघातहेतुं यत् करोति तदर्शयति-स स्वयमेवोदकशस्त्रं समारभते अन्यैश्चोदकशस्त्रं समारम्भयति अन्यांश्चोदकशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानीते, तच्चोदकसमारम्भणं तस्याहिताय भवति, तथा
अप्कायस्य हिंसात् अनेक जीवानाम् हिंसा
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [२३], नियुक्ति : [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२३]
दीप अनुक्रम [२४]
तदेवाबोधिलाभाय भवति, स एतत्सम्बुध्यमान आदानीयं-सम्यग्दर्शनादि सम्यगुत्थाय-अभ्युपगम्य श्रुत्वा भगवतोऽनगाराणां वाऽन्तिके इहकेषां साधूनां यत् ज्ञातं भवति तद्दर्शयति-'एषः' अप्कायसमारम्भो ग्रन्थ एष खलु मोह एष खलु मार एप खलु नरक इत्येवमर्थ गृद्धो लोको यदिदं विरूपरूपैः शस्त्रः उदककर्मसमारम्भेणोदकशस्त्रं समारभमाणोऽन्याननेकरूपान् प्राणिनो विविधं हिनस्तीत्येतनाग्वत् व्याख्येयं, पुनरप्याह-'से बेमी'त्यादि, सेशन्द आत्मनिर्देशे, सोऽहमेवमुपलब्धानेकापकायतत्त्ववृत्तान्तो ब्रवीमि-'सन्ति' विद्यन्ते प्राणिन उदकनिश्चिताः-पूतरकमत्स्यादयो| यानुदकारम्भप्रवृत्तो हन्यादिति, अथवाऽपरः सम्बन्धः-प्रागुक्तमुदकशखं समारभमाणोऽन्यानप्यनेकरूपान् जन्तून् | |विविधं हिनस्तीति, तत् कथमेतच्छक्यमभ्युपगन्तुमित्यत आह-सन्ति पाणा' इत्यादि पूर्ववत्, कियन्तः पुनस्त इति| दर्शयति-'जीवा अणेगा' पुनर्जीवोपादानमुदकाश्रितप्रभूतजीवभेदज्ञापनार्थ, ततश्चेदमुक्तं भवति-एकैकस्मिन् जीवभेदे उदकाश्रिता 'अनेके' असंख्येयाः प्राणिनो भवन्ति, एवं चाप्कायविषयारम्भभाजः पुरुषास्ते तनिश्रितप्रभूतसत्त्व-1 व्यापत्तिकारिणो द्रष्टव्याः॥ शाक्यादयस्तूदकाश्रितानेव द्वीन्द्रियादीन् जीवानिच्छन्ति नोदकमित्येतदेव दर्शयति
इहं च खल्लु भो! अणगाराणं उदयजीवा वियाहिया (सू०२४) MI खलुशब्दोऽवधारणे 'इहैव' ज्ञातपुत्रीये प्रवचने द्वादशाङ्गे गणिपिटके 'अनगाराणां' साधूनाम् 'उदकजीवा' उद-IN
करूपा जीवाश्चशब्दात्तदाश्रिताश्च पूतरकछेदनकलोहणकभ्रमरकमत्स्यादयो जीवा व्याख्याताः, अवधारणफलं च ना-3 न्येषामुदकरूपा जीवाः प्रतिपादिताः ॥ यद्येवमुदकमेव जीवास्ततोऽवश्यं तसरिभोगे सति प्राणातिपातभाजः साधव
CCCCCCC45-4
अप्कायिक जीवानाम् स्वरूप
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [२४], नियुक्ति: [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२४]
दीप अनुक्रम [२५+
श्रीआचा- इति, अत्रोच्यते, नैतदेवं, यतो वयं त्रिविधमकायमाचक्ष्महे-सचित्तं मित्रमचित्तं च, तत्र योऽचित्तोऽपकायस्तेनोपयो- अध्ययनं १ राङ्गवृत्तिः गविधिः साधूनां, नेतराभ्यां, कथं पुनरसी भवत्यचित्तः? किं स्वभावादेवाहोश्विच्छत्रसम्बन्धात् ?, उभयथाऽपीति, तन्त्र 8 (शी०) INया स्वभावादेवाचित्तीभवति न बाह्यशनसम्पर्कात्, तमचित्तं जानाना अपि केवलमनःपर्यायावधिश्रुतज्ञानिनो न परि
भुञ्जते, अनवस्थाप्रसङ्गभीरुतया, यतो नु श्रूयते-भगवता किल श्रीवर्धमानस्वामिना विमलसलिलसमुलसत्तरङ्गः शैव-10 ॥४६॥
लपटलत्रसादिरहितो महाइदो व्यपगताशेषजलजन्तुकोऽचित्तवारिपरिपूर्णः स्वशिष्याणां तृड्बाधितानामपि पानाय नानु||जज्ञे, तथा अचित्ततिलशकटस्थण्डिलपरिभोगानुज्ञा चानवस्थादोपसंरक्षणाय भगवता न कृतेति, श्रुतज्ञानप्रामाण्यज्ञा-14
पनार्थ च, तथाहि-सामान्य श्रुतज्ञानी बाह्येन्धनसम्पर्कारुषितस्वरूपमेवाचित्तमिति व्यवहरति जलं, न पुनर्निरिन्धनमे|| वेति, अतो यद्वाह्यशस्त्रसम्पर्कात् परिणामान्तरापन्न वर्णादिभिस्तदचित्तं साधुपरिभोगाय कल्पते, किं पुनस्तच्छस्त्रमित्यत आह
सत्थं चेत्थं अणुवीइ पासा, पुढो सत्थं पवेइयं (सू० २५) शस्यन्ते-हिंस्यन्तेऽनेन प्राणिन इति शख, तचोत्सेचनगालनउपकरणधावनादि स्वकायादि च वर्णाद्यापत्तयो वा|| पूर्वावस्थाविलक्षणाः शस्त्रं,(तथाहि-अग्निपुद्गलानुगतत्वादीपपिङ्गलं जलं भवत्युणं गन्धतोऽपि धूमगन्धि रसतो वि-I हारसं स्पर्शत उष्णं तच्चोत्तत्रिदण्डम् , एवंविधावस्थं यदि ततः कल्पते, नान्यथा, तथा कचवरकरीपगोमूत्रोषादीन्धनस- ४६ ।। रम्बन्धात् स्तोकमध्यबहुभेदात् , स्तोक स्तोके प्रक्षिपतीत्यादिचतुर्भङ्गिकाभावना कार्या, एवमेतत् त्रिविधं शखं, चशब्दो-||
२६)
अप्कायानाम् शस्त्रा:
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [२५], नियुक्ति: [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [२५]
दीप अनुक्रम [२५+
|वधारणार्थः, अन्यतमशनसम्पर्कविध्वस्तमेव ग्राह्य, नान्यथेति, 'एत्थति एतस्मिन् अपकाये प्रस्तुते 'अनुविचिन्त्य' विचार्य इदमस्य शस्त्रमित्येवं ग्राह्यं, 'पश्ये त्यनेन शिष्यस्य चोदनेति । तदेवं नानाविधं शस्त्रमप्कायस्यास्तीति प्रतिपादितम्, एतदेव दर्शयति-'पुढो सत्थं पवेदित' 'पृथग्' विभिन्नमुत्सेचनादिकं शस्त्रं 'प्रवेदितम्' आख्यातं भगवता, पाठान्तरं वा 'पुढोऽपासं पवेदितं' एवं पृथग्विभिन्नलक्षणेन शस्त्रेण परिणामितमुदकग्रहणमपाशं प्रवेदितम्-आख्यातं भगवता, अपाशः-अबन्धनं शस्त्रपरिणामितोदकग्रहणमवन्धनमाख्यातमितियावद् ।। एवं तावत्साधूनां सचित्तमिश्रापकायपरित्यागेनाचित्तपयसा परिभोगः प्रतिपादितः, ये पुनः शाक्यादयोऽप्कायोपभोगप्रवृत्तास्ते नियमत एवाप्कायं | विहिंसन्ति, तदाश्रितांश्चान्यानिति, तत्र न केवलं प्राणातिपातापत्तिरेव तेषां, किमन्यदित्यत आह
अदुवा अदिन्नादाणं (सू० २६) 'अथवे'ति पक्षान्तरोपन्यासद्वारेणाभ्युच्चयोपदर्शनार्थः, अशस्त्रोपहताप्कायोपभोगकारिणां न केवलं प्राणातिपातः, अपि त्वदत्तादानमपि तत्तेषां, यतो यैरप्कायजन्तुभिर्यानि शरीराणि निर्वतितानि तैरदत्तानि ते तान्युपभुञ्जते, यथा कश्चित् पुमान् सचित्तशाक्यभिक्षुकशरीरकात् खण्डमुत्कृत्य गृह्णीयाद्, अदत्तं हि तस्य तत्, परपरिगृहीतत्वात् , परकीयगवाद्यादानवत्, एवं तानि शरीराण्यब्जीवपरिगृहीतानि गृह्णतोऽदत्तादानमवश्यम्भावि, स्वाम्यनुज्ञानाभावादिति, ननु यस्य तत्तडागकूपादि तेनानुज्ञातं सकृत्तपय इति, ततश्च नादत्तादानं, स्वामिनाऽनुज्ञातत्वात्, परानुज्ञातपश्वादिघातवत्, नन्वेतदपि साध्यावस्थमेवोपन्यस्तं, यतः पशुरपि शरीरप्रदानविमुख एव भिन्नार्यमर्यादैरुच्चैरारटन्विशस्यते,
२६)
अप्कायस्य हिंसात् अदत्तादान-दोष:
[104]
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [२६], नियुक्ति : [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२६]
दीप अनुक्रम [२७]
श्रीआचा-1 ततश्च कथमिव नादत्तादानं स्यात्, न चान्यदीयस्यान्यः स्वामी दृष्टः परमार्थचिन्ताया, नन्वेवमशेषलोकप्रसिद्धगो-अध्ययनं १ राङ्गवृत्तिः । दानादिव्यवहारखुट्यति, त्रुध्यतु नामैवंविधः पापसम्बन्धः, तद्धि देयं यदुःखितं स्वयं न भवति दासीबलीवर्दादिवत् ,
उद्देशकः३ न चान्येषां दुःखोपत्तेः कारणं हलखगादिवत्, एतद्व्यतिरिक्त दातृपरिगृहीत्रोरेकान्तत एवोपकारक देयं प्रतिजानते| (शी०)
जिनेन्द्रमतावलम्बिनः, उक्तं च-"यत् स्वयमदुःखितं स्यान्न च परदुःखे निमित्तभूतमपि । केवलमुपग्रहकर धर्मकृते | ॥४७॥
तनवेदेयम् ॥१॥" इति, तस्मादवस्थितमेतत्-तेषां तददत्तादानमपीति ॥ साम्प्रतमेतद्दोषद्वयं स्वसिद्धान्ताभ्युपगमद्वारेण परः परिजिहीर्पराह
कप्पइ णे कप्पइ णे पाउं, अदुवा विभूसाए (२७ सू०) अशस्त्रोपहतोदकारम्भिणो हि चोदिताः सन्तं एवमाहुः-यथा नैतत् स्वमनीषिकातः समारम्भयामो वयं, किं वागमे निर्जीवत्वेनानिषिद्धत्वात् 'कल्पते' युज्यते 'नः' अस्माकं 'पातुम्' अभ्यवर्तुमिति, वीप्सया च नानाविधप्रयोजनविषय उपभोगोऽभ्यनुज्ञातो भवति, तथाहि-आजीविकभस्मस्नाय्यादयो बदन्ति-पातुमस्माकं कल्पते न स्नातुं वारिणा, शा-1 क्यपरिव्राजकादयस्तु स्नानपानावगाहनादि सर्व कल्पते इति प्रभाषन्ते, एतदेव स्वनामग्राई दर्शयति-अथवोदकं विभूषार्थमनुज्ञातं नः समये, विभूपा-करचरणपायूपस्थमुखप्रक्षालनादिका वस्त्रमण्डकादिप्रक्षालनात्मिका बा, एवं स्नानादि- ॥४७॥ शीचानुष्ठाथिनां नास्ति कश्चिदोष इति ॥ एवं ते परिफल्गुवचसः परिव्राजकादयो निजराद्धान्तोपन्यासेन मुग्धमतीबि-|| मोह्य किं कुर्वन्तीत्याह
अप्काय सम्बन्धे अन्य मत
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [२८], नियुक्ति: [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२८]
दीप अनुक्रम [२९]
पुढो सत्थेहिं विउद्दन्ति (सू०२८) "पृथग' विभिन्नलक्षणः नानारूपैरुत्सेचनादिशौस्ते अनगारायमाणाः 'विउदृन्ति'त्ति अप्कायजीवान् जीवनान्यावर्त्तयन्ति-व्यपरोपयन्तीत्यर्थः, यदिवा पृथग्विभिन्नैः शस्त्रैरप्कायिकान्विविधं कुट्टन्ति-छिन्दन्तीत्यर्थः, कुहेर्द्धातोः छेदनार्थत्वात् । अधुनैषामागमानुसारिणामागमासारत्वप्रतिपादनायाह
एत्थवि तेसिं नो निकरणाए (सू० २९) 'एतस्मिन्नपि प्रस्तुते स्वागमानुसारेणाभ्युपगमे सति 'कप्पइ णे कप्पइ णे पाउं, अदुवा विभूसाए'त्ति एवंरूपस्तेषा-1| मयमागमो यद्बलादप्कायपरिभोगे ते प्रवृत्ताः स स्याद्वादयुक्तिभिरभ्याहतः सन् 'नो निकरणाएत्ति नो निश्चयं कर्नु समों भवति, न केवलं तेषां युक्तयो न निश्चयायालम्, अपि वागमोऽपीत्यपिशब्दः, कथं पुनस्तदागमो निश्चयाय ४
नालमिति, अत्रोच्यते, त एवं प्रष्टव्याः-कोऽयमागमो नाम ? यदादेशात्कल्पते भवतामप्कायारम्भः, त आहुः-प्रतिविहाशिष्ठानुपुर्वी विन्यस्तवर्णपदवाक्यसङ्घात आप्तप्रणीत आगमः, नित्योऽकर्तृको वा । ततश्चैवमभ्युपगते यो येन प्रतिपन्न
आप्तः स निराकर्तव्यः, अनाप्तोऽसी अपकायजीवापरिज्ञानात् तद्वधानुज्ञानाद्वा भवानिव, जीवत्वं चापां प्राक् प्रसाधितमेव, ततस्तत्रणीतागमोऽपि सद्धर्माचोदनायामप्रमाणम् , अनाप्तप्रणीतत्वात् , रथ्यापुरुषवाक्यवत्, अथ नित्योऽकर्तृकः समयोऽभ्युपगम्यते ततो नित्यत्वं दुष्पतिपादं, यतः शक्यते वक्तुं भवदभ्युपगतः समयः सकर्तृको वर्णपदवा
अप्कायस्य हिंसकाः
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[२९]
दीप
अनुक्रम [३०]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [२९], निर्युक्ति: [११५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ... आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
(शी०)
।। ४८ ।।
श्री आचा- क्यात्मकत्वात्, विधिप्रतिषेधात्मकत्वात् उभयसम्मतसकर्तृकग्रन्थसन्दर्भवदिति, अभ्युपगम्य वा ब्रूमः- अप्रमाणमसौ, राङ्गवृत्तिः नित्यत्वादाकाशवत् यच्च प्रमाणं तदनित्यं दृष्टं प्रत्यक्षादिवदिति तथा विभूषासूत्रावयवेऽपि पृष्टा न प्रत्युत्तरदाने क्षमाः, यतियोग्यं स्नानं न भवति, कामाङ्गत्वात्, मण्डनवत्, कामाङ्गता च सर्वजनप्रसिद्धा, तथा चोक्तम्- "स्नानं मदद पेकरं, कामाङ्गं प्रथमं स्मृतम् । तस्मात्कामं परित्यज्य, नैव स्नान्ति दमे रताः ॥ १ ॥” शौचार्थोऽपि न पुष्कलो, वारिणा वाह्यमलापनयनमात्रत्वात् न ह्यन्तर्व्यवस्थितकर्ममलक्षालनसमर्थं वारि दृष्टं, तस्माच्छरीरवाङ्मनसामकुशलप्रवृत्तिनिरोधो भावशौचमेव कर्मक्षयायालं तच्च वारिसाध्यं न भवति, कुतः ?, अन्वयव्यतिरेकसमधिगम्यत्वात्सर्वभावानां न हि मत्स्यादयः तत्र स्थिता मत्स्यादित्यकर्मक्षयभाक्त्वेनाभ्युपगम्यन्ते, विना च वारिणा महर्षयो विचित्रतपोभिः कर्म क्षपयन्तीति, अतः स्थितमेतत्-तत्समयो न निश्चयाय प्रभवतीति ॥ तदेवं निःसपत्नमपां जीवत्वं प्रतिपाद्य तत्प्रवृत्तिनिवृत्तिविकल्पफलप्रदर्शनद्वारेणोपसंजिहीर्षुः सकलमुद्देशार्थमाह
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एत्थ सत्थं समारभमाणस्स इच्चेए आरंभा अपरिण्णाया भवंति, एत्थ सत्यं असमारभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाया भवंति तं परिण्णाय मेहावी णेव सयं उदयसत्थं समारम्भेज्जा णेवण्णेहिं उदयसत्थं समारंभावेजा उदयसत्थं समारंभंतेऽवि
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अध्ययनं १
उद्देशकः ३
॥ ४८ ॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [३०], नियुक्ति: [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३०]
दीप अनुक्रम [३१]
कलकर
अण्णे ण समणुजाणेज्जा, जस्सेते उदयसत्थसमारंभा परिणाया भवंति से हु मुणी
परिपणातकम्मे (सू०३०) त्ति बेमि ॥ इति तृतीयोऽप्कायोद्देशकः॥ 'एतस्मिन्' अपकाये 'शस्त्रं द्रव्यभावरूपं समारभमाणस्येत्येते समारम्भा बन्धकारणत्वेनापरिज्ञाता भवन्ति, अत्रैवाप्काये शस्त्रमसमारभमाणस्येत्येते आरम्भा ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाता भवन्ति प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिहृता भवन्ति, तामेव प्रत्याख्यानपरिज्ञां विशेषतो ज्ञपरिज्ञापूर्विकां दर्शयति-तद्' उदकारम्भणं बन्धायेत्येवं परिज्ञाय मेधावी-मर्यादाव्यवस्थितो नैव स्वयमुदकशखं समारभेत, नैवान्यैरुदकशस्त्रं समारम्भयेत्, नैवान्यानुदकशखं समारभमाणान्समनुजानीयात्, यस्यैते उदकशस्त्रसमारम्भाः द्विधा परिज्ञाता भवन्ति स एव मुनिः परिज्ञातकर्मा भवति । नवीमीति पूर्ववत् । इति शस्त्रपरिज्ञायां तृतीयोद्देशकः समाप्तः॥ | उक्तस्तृतीयोद्देशकः, साम्प्रतं चतुर्थ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोदेशके मुनित्वप्रतिपत्तये अपकायः प्रतिपादितः, तदधुना तदर्थमेव क्रमायातस्तेजस्कायप्रतिपादनायायमुदेशकः समारभ्यते-तस्य चोपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोगद्वाराणि वाच्यानि तावद्यावन्नामनिष्पन्ने निक्षेपे तेजउद्देशक इति नाम, तत्र तेजसो निक्षेपादीनि द्वाराणि वाच्यानि, अत्र च पृथिवीविकल्पतुल्यत्वात् केषाश्चिदतिदेशो द्वाराणामपरेषां तद्विलक्षणत्वात् अपोद्धार इत्येतत् द्वयमुररीकृत्य नियुकिकृद् गाथामाह
तेउस्सपि दाराई ताई जाई हवंति पुढवीए । नाणत्ती उ विहाणे परिमाणुवभोगसत्थे य ॥ ११ ॥
| प्रथम अध्ययने चतुर्थ: उद्देशकः 'अग्निकाय:' आरब्धः,
[108]
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [३०...], नियुक्ति: [११६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३०]
दीप अनुक्रम [३१]
श्रीआचा- 'तेजसोऽपि' अग्नेरपि 'द्वाराणि निक्षेपादीनि यानि पृथिव्याः समधिगमेऽभिहितानि तान्येव वाच्यानि, अपवादं अध्ययनं १ राङ्गवृत्तिः दर्शयितुमाह-'नानात्वं' भेदो विधानपरिमाणोपभोगशस्त्रेषु, तुरवधारणे, विधानादिष्वेव च नानात्वं नान्यत्रेति, च-16 (शी०) शब्दालक्षणद्वारपरिग्रहः ॥ यधाप्रतिज्ञातनिर्वहणार्थमादिद्वारव्याचिण्यासयाऽऽह
दुविहा य तेउजीवा मुहुमा तह घायरा य लोगंमि । सुहमा य सव्वलोए पंचेव य बायरविहाणा ॥१७॥ ॥४९॥
स्वष्टा ॥ बादरपञ्चभेदप्रतिपादनायाहइंगाल अगणि अची जाला तह मुम्मुरे य बोद्धब्वे । वायरतेउविहाणा पंचविहा वणिया एए ॥११८॥
दग्धेन्धनो विगतधूमज्वालोऽङ्गारः--, इन्धनस्थः प्लोषक्रियाविशिष्टरूपः तथा विद्युदुल्काऽशनिसवर्षसमुत्थितः सूर्यमणिसंसृतादिरूपश्चाग्निः, दाह्यप्रतिबद्धो ज्वालाविशेषोर्चः, ज्वाला छिन्नमूलाऽनङ्गारप्रतिबद्धा, प्रविरलाग्निकणानुविद्धं भस्म मुर्मुरः, एते बादरा अग्निभेदाः पञ्च भवन्तीति ॥ एते च बादराग्नयः स्वस्थानाङ्गीकरणान्मनुष्यक्षेत्रेऽर्द्धतृतीयेषु द्वीपसमुद्रेष्वव्याघातेन पञ्चदशसु कर्मभूमिषु व्याघाते सति पञ्चसु विदेहेषु, नान्यत्र, उपपाताङ्गीकरणेन लोकासङ्ख्येयभागवर्तिनः, तथा चागमः-"उववाएणं दोसु उइकबाडेसु तिरियलोयतद्दे (है) य" अस्थायमर्थः-अर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्र
बाहल्ये पूर्वापरदिक्षणोत्तरस्वयम्भूरमणपर्यन्तायते ऊोधोलोकप्रमाणे कपाटे तयोः प्रविष्टा बादराग्निपूरपद्यमानकास्तकाव्यपदेशं लभन्ते, तथा 'तिरियलोयतट्टे (हे) यत्ति तिर्यग्लोकस्थाल के च व्यवस्थितो बादराग्निपुत्पद्यमानो बादराग्निव्यप-10
IDI४९॥ देशभागू भवति । अन्ये तु व्याचक्षते-तयोस्तिष्ठतीति तत्स्थः, तिर्यग्लोकश्चासौ ततस्थश्च तिर्यग्लोकतत्स्था, तत्र च स्थित
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [३०...], नियुक्ति : [११८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३०]
दीप अनुक्रम [३१]
उसित्सुर्बादराग्निव्यपदेशमासादयति, अस्मिंश्च व्याख्याने कपाटान्तर्गत एव गृह्यते, स च द्वयोरूपीकपाटयोरित्यनेनैवोपात्त इति तद्व्याख्यानाभिप्रायं न विद्मः । कपाटस्थापना चेयम् । समुद्घातेन सर्वलोकवर्तिनः, ते च पृथिव्यादयो मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहता बादराग्निषूपद्यमानास्तव्यपदेशभाजः सर्वलोकव्यापिनो भवन्ति, यत्र च बादराः पर्याप्तकास्तत्रैव वादरा अपर्याप्तकाः, तन्निश्रया तेषामुत्पद्यमानत्वात्, तदेवं सूक्ष्मा बादराश्च पर्याप्तकापर्याप्तक| भेदेन प्रत्येक द्विधा भवन्ति, एते च वर्णगन्धरसस्पर्शादेशैः सहस्रायशो भिद्यमानाः सङ्ग्रेचयोनिप्रमुखशतसहस्रभेदपरि| माणा भवन्ति, तत्रैषां संवृता योनिरुष्णा च सचित्ताचित्तमिश्रभेदात् त्रिधा, सप्त चैषां योनिलक्षा भवन्ति ॥ साम्प्रतं चशब्दसमुचितं लक्षणद्वारमाह
जह देहप्परिणामो रतिं खजोयगस्स सा उवमा । जरियस्स य जह उम्हा तओवमा तेउजीवाणं ॥ ११९ ॥ 'यथे ति दृष्टान्तोपन्यासार्थः 'देहपरिणामः' प्रतिविशिष्टा शरीरशक्तिः 'रात्रा'विति विशिष्टकालनिर्देशः 'खद्योतक' | इति प्राणिविशेषपरिग्रहा, यथा तस्यासी देहपरिणामो जीवप्रयोगनिवृत्तशक्तिराविश्वकास्ति, एवमहारादीनामपि प्रतिविशिष्टा प्रकाशादिशक्तिरनुमीयते जीवप्रयोगविशेषाविर्भावितेति । यथा वा-ज्वरोष्मा जीवप्रयोगं नातिवर्त्तते, जीवाधिष्ठितशरीरकानुपात्येव भवति, एवोपमाऽऽग्नेयजन्तूनां, न च मृता ज्वरिणः क्वचिदुपलभ्यन्ते, एवमन्वयच्यतिरेकाभ्यामने सचित्तता मुक्तकग्रन्थोपपत्तिमुखेन प्रतिपादिता, सम्प्रति प्रयोगमारोप्यते अयमेवार्थ:-जीवशरीराण्यङ्कारादयः, छेद्यत्वादिहेतुगणान्वितत्वात् , सानाविषाणादिसङ्घातवत् , तथा आत्मसंयोगाविभूतोऽङ्गारादीनां प्रकाशपरिणामः,
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [३०...], नियुक्ति : [११९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचा-
प्रत सूत्रांक
(शी०)
[३०]
॥५०॥
दीप अनुक्रम [३१]
शरीरस्थत्वात् , खद्योतकदेहपरिणामवत् , तथा आत्मसम्प्रयोगपूर्वकोऽङ्गारादीनामूष्मा, शरीरस्थत्वात् , ज्वरोष्मवत् , अध्ययनं १ न चादित्यादिभिरनेकान्तः, सर्वेषामात्मप्रयोगपूर्वकं यत उष्णपरिणामभाक्त्वं तस्मान्नानेकान्तः, तथा सचेतनं तेजो, यथायोग्याहारोपादानेन वृद्धिविशेषतद्विकारवत्त्वात्, पुरुषवत्, एवमादिना लक्षणेनाग्नेया जन्तवो निश्चेया इति ॥ उक्तं
* उद्देशकः४ |लक्षणद्वारं, तदनन्तरं परिमाणद्वारमाह
जे बायरपजत्ता पलिअस्स असंखभागमित्ता उ । सेसा तिपिणवि रासी वीसुं लोगा असंखिज्जा ॥१२०॥ A ये बादरपर्याप्तानलजीवाः क्षेत्रपल्योपमासङ्घ-धेयभागमात्रवर्तिप्रदेशराशिपरिमाणाः भवन्ति, ते पुनर्वादरपृथिवीकायप-15
योप्तकेभ्योऽसङ्ख्यगुणहीनाः, शेषास्त्रयोऽपि राशयः पृथ्वीकायवद्भावनीयाः, किन्तु बादरपृथिवीकायापर्याप्तकेभ्यो बादराम्यपर्याप्तका असंख्येयगुणहीनाः सूक्ष्मपृथिवीकायापर्याप्तकेभ्यः सूक्ष्माग्नेयापर्याप्तका विशेषहीनाः सूक्ष्मपृथिवीकायपर्याप्तकेभ्यः सूक्ष्माग्नेयपर्याप्तका विशेषहीना इति ॥ साम्प्रतमुपभोगद्वारमाह
दहणे पयावण पगासणे य सेए य भत्तकरणे य । बायरतेउकाए उपभोगगुणा मणुस्साणे ॥ १२१॥ __ दहन-शरीराद्यवयवस्य वाताद्यपनयनार्थ प्रकृष्ट तापनं प्रतापन-शीतापनोदाय प्रकाशकरणमुद्योतकरणं-प्रदीपादिना भक्तकरणम्-ओदनादिरन्धनं स्वेदो-ज्वरविसूचिकादीनाम्, इत्येवमादिष्वनेकप्रयोजनेषूपस्थितेषु मनुष्याणां बादरतेजस्कायविषया उपभोगरूपा गुणा उपभोगगुणा भवन्तीति ॥ तदेवमेवमादिभिः कारणैः समुपस्थितैः सततमारम्भप्रवृत्ता ॥५०॥ गृहिणो यत्याभासा वा सुखैषिणस्तेजस्कायजन्तून् हिंसन्तीति दर्शयितुमाह
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [३०...], नियुक्ति : [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३०]
दीप अनुक्रम [३१]
एएहिं कारणेहिं हिंसंती तेउकाहए जीवे । सायं गवेसमाणा परस्स दुक्खं जदीरति ॥ १२२॥ 'एतैः' दहनादिभिः कारणैस्तेजस्कायिकान् जीवान् 'हिंसन्ती'ति सङ्घनपरितापनापद्रावणानि कुर्वन्ति 'सात' सुख तदात्मनोऽन्विष्यन्तः परस्य' बादराग्निकायस्य दुःखम् 'उदीरयन्ति' उत्पादयन्तीति ॥ साम्प्रतं शस्त्रद्वारं, तच्च द्रव्यभावशखभेदात् द्विधा, द्रव्यशस्वमपि समासविभागभेदात् द्विधैव, तत्र समासतो द्रव्यशस्त्रप्रतिपादनायाह
पुढची आउक्काए उल्ला य वणस्सई तसा पाणा । बायरतेउक्काए एयं तु समासओ सत्थं ॥ १२३ ॥ 'पृथिवी' धूलिः अप्कायश्च आर्द्रश्च धनसतिः त्रसाश्च प्राणिनः, एतद्वादरतेजस्कायजन्तूनां 'समासतः' सामान्येन शस्त्रमिति ॥ विभागतो द्रव्यशस्त्रमाहI किंची सकायसत्थं किंची परकाय तदुभयं किंची। एयं तु दवसत्थं भावे य असंजमो सत्थं ॥१२४ ॥ किञ्चिच्छत्रं स्वकाय एव-अग्निकाय एवं अग्निकायस्य, तद्यथा-तार्णोऽग्निः पार्णाग्नेः शस्त्रमिति, किञ्चिच्च परकायशस्त्रम्उदकादि, उभयशस्वं पुन:-तुषकरीपादिव्यतिमिश्रोऽग्निरपराग्नेः, तुशब्दो भावशस्त्रापेक्षया विशेषणार्थः, 'एतत्तु' पूर्वोक्तं समासविभागरूपं पृथिवीस्वकायादि द्रव्यशस्त्रमिति । भावशस्त्रं दर्शयति-भावे शस्त्रम् असंयमो-दुष्पणिहितमनोवाकायलक्षण इति ।। उक्तव्यतिरिक्तद्वारातिदेशद्वारेणोपसञ्जिहीनियुक्तिकृदाह
सेसाई दाराई ताई जाइं हवंति पुढवीए । एवं तेउद्देसे निवृत्ती कित्तिया एसा ॥ १२५॥ उक्तशेषाणि द्वाराणि तान्येव यानि पृथिव्युदेशकेऽभिहितानि 'एवम्' उक्तप्रकारेण तेजस्कायाभिधानोद्देशके
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [३१], नियुक्ति: [१२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
अध्ययनं १
प्रत सूत्रांक [३१]
उद्देशकः४
दीप अनुक्रम [३२]
श्रीआचा- नियुक्तिः 'कीर्तिता' व्यावर्णिता भवतीति ॥ साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम्- राजवृत्तिः
से बेमि णेव सयं लोग अब्भाइक्खेजा णेव अत्ताणं अब्भाइक्खेजा, जे लोयं अ(शी०)
ब्भाइक्खइ से अत्ताणं अब्भाइक्खइ, जे अत्ताणं अब्भाइक्खइ से लोयं अब्भाइ॥५१॥
क्खइ (सू०३१) अस्य च सम्बन्धः प्राग्वद्वाच्य इति, येन मया सामान्यात्मपदार्थपृथिव्यप्कायजीवप्रविभागव्यावर्णनमकारि स| एवाहमव्यवच्छिन्नज्ञानप्रवाहस्तेजोजीवस्वरूपोपलम्भसमुपजनितजिनवचनसम्मदो बचीमि, किं पुनस्तदिति दर्शयतिनैवेत्यादि, इह हि प्रकरणसम्बन्धाल्लोकशब्देनाग्निकायलोकोऽभिधित्सितः, अतस्तमग्निलोकं जीवत्वेन नैव 'स्वयम्' आत्मना|ऽभ्याचक्षीत-नैवापहुवीतेत्यर्थः, एतदभ्याख्याने ह्यात्मनोऽपि ज्ञानादिगुणकलापानुमितस्याभ्याख्यानमवाप्नोति, अथ च प्राक् प्रसाधितत्वादभ्याख्यानं नैवात्मनो न्याय्यम् , एवं तेजस्कायस्यापि प्रसाधितत्वात् अभ्याख्यानं क्रियमाणं न युक्ति
पथमवतरति, एवं चास्य युक्त्यागमबलप्रसिद्धस्याभ्याख्याने क्रियमाणे सत्यात्मनोऽप्यहंप्रत्ययसिद्धस्याभ्याख्यानं भवतम्माKIप्तम् । एवमस्त्विति चेत् , तन्नेति दर्शयति-'नेव अत्ताणं अन्भाइक्खेज्जा' नैवात्मानं-शरीराधिष्ठातारं ज्ञानगुणं प्रत्या-1 त्मिसंवेद्य प्रत्याचक्षीत, तस्य शरीराधिष्ठातृत्वेन आहृतमिदं शरीरं केनचिदभिसन्धिमता, तथा त्यक्तमिदं शरीरं केन-IC
चिदभिसन्धिमतैवेत्येवमादिभिर्हेतुभिः प्रसाधितत्वात्, न च प्रसाधितप्रसाधनं पिष्टपेषणवत् विद्वज्जनमनांसि रञ्जयति,
कडक
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [३१], नियुक्ति: [१२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३१]
दीप अनुक्रम [३३]
एवं च सत्यात्मवत्प्रसाधितमग्निलोकं यः प्रत्याचक्षीत सोऽतिसाहसिक आत्मानमभ्याख्याति-निराकरोति, यश्चात्माभ्याख्यानप्रवृत्तः स सदैवाग्निलोकमभ्याख्याति, सामान्यपूर्वकत्वाद्विशेषाणां, सति ह्यात्मसामान्ये पृथिव्याद्यात्मविभागः
सिद्ध्यति, नान्यथा, सामान्यस्य विशेषव्यापकत्वात् , व्यापकविनिवृत्तौ च व्याप्यस्याप्यवश्यंभाविनी विनिवृत्तिरिति18 कृत्वा । एवमयमग्निलोकः सामान्यात्मवन्नाभ्याख्यातव्य इति प्रदर्शितम्, अधुनाऽग्निजीवप्रतिपत्ती सत्यां तद्विषयसमारम्भकटुकफलपरिहारोपन्यासाय सूत्रमाह
जे दीहलोगसत्थस्स खेयपणे से असत्थस्स खेयपणे जे असत्थस्स खेयपणे से दीह
लोगसत्थस्स खेयण्णे (सू० ३२) | 'य' इति मुमुक्षुदीर्घलोको-वनस्पतिर्यस्मादसौ कायस्थित्या परिमाणेन शरीरोच्छ्रयेण च शेषेकेन्द्रियेभ्यो दी| वर्त्तते, तथाहि-कायस्थित्या तावत् 'वणस्सइकाइए णं भंते ? वणस्सइकाइएत्ति कालओ केवञ्चिरं होइ?, गोयमा ! अर्णतं कालं| अणंताओ उस्सप्पिणिअवसप्पिणिओ खेत्तओ अणंता लोया असंखेज्जा पोग्गलपरियडा, ते णं पुग्गलपरियट्टा आव-1 लियाए असंखेजहभागे' परिमाणतस्तु 'पर्डप्पन्नवणस्सइकाइयाणं भंते ! केवतिकालरस निलेवणा सिया?, गोयमा!!
वनस्पत्रिकायो भदन्त । वनस्पतिकाय इति कालतः कियविरं भवति ?, गौतम! अनन्त कालम् , अनन्ता उत्सपियवसर्पिण्या क्षेत्रतोऽनन्ता लोकाः। असण्येयाः पुरलपरावर्ताः, ते पुरलपरावा आवलिकाया असलये भागे. २ प्रत्युत्पन्नवनस्पतिकायिकानां भदन्त! किवता कालेन निपना स्थान , गौतम ।। प्रत्युत्पन्नबनस्पतिका विकानां नास्ति निर्लेपना.
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [३२], नियुक्ति: [१२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
अध्ययनं १ उद्देशका ४
[३२]
दीप अनुक्रम [३३]
श्रीआचा- पडुप्पन्नवणस्सइकाइयाणं नत्थि निलेवणा' तथा शरीरोच्छ्याच दीर्घो वनस्पतिः 'वणसइकाइयाणं भंते ! के महालिया राजवृत्तिःसरीरोगाहणा पण्णत्ता, गोयमा! साइरेगं जोयणसहस्सं सरीरोगाहणा' न तथाऽन्येषामेकेन्द्रियाणाम् , अतः स्थित-| (शी०) मेतत्-सर्वथा दीर्घलोको बनस्पतिरिति, अस्य च शस्त्रमग्निः, यस्मात्स हि प्रवृद्धज्यालाकलापाकुलः सकलतरुगणप्रध्वं
| सनाय प्रभवति, अतोऽसौ तदुत्सादकत्वाच्छखं, ननु च सर्वलोकप्रसिङ्ख्या कस्मादग्निरेव नोक्तः, किं वा प्रयोजनमुर-| रीकृत्योक्तं दीर्घलोकशस्त्रमिति, अत्रोच्यते, प्रेक्षापूर्वकारितया, न निरभिप्रायमेतत्कृतमिति, यस्मादयमुत्साद्यमानो ज्वाल्यमानो वा हव्यवाहः समस्तभूतग्रामघाताय प्रवर्तते, वनस्पतिदाहप्रवृत्तस्तु बहुविधसत्त्वसंहतिविनाशकारी विशे-| षतः स्थात्, यतो वनस्पती कृमिपिपीलिकाधमरकपोतश्वापदादयः सम्भवन्ति, तथा पृथिव्यपि तरुकोटरव्यवस्थिता स्यात्, आपोऽप्यवश्यायरूपाः, वायुरपीपचञ्चलस्वभावकोमलकिशलयानुसारी सम्भाव्यते, तदेवमग्निसमारम्भप्रवृत्तः। | एतावतो जीवान्नाशयति, अस्यार्थस्य सूचनाय दीर्घलोकशस्त्रग्रहणमकरोत् सूत्रकार इति, तथा चोक्तम्-"जायतेयं | न इच्छन्ति, पावर्ग जलइत्तए। तिक्खमन्नयरंसत्थं, सव्वओऽवि दुरासयं ॥ १ ॥ पाईणं पडिणं वावि, उहुं अणुदिसामवि । अहे दाहिणओ वावि, दहे उत्तरओऽपि य ॥२॥ भूयाणमसमाधाओ, हब्बवाहो न संसओ । तं पईवपयावठ्ठा,
वनस्पतिकायिकानां भदन्त ! का महती पारीरावगाहना प्राप्ता है, गौतम ! सातिरेक योजनसहसं शरीरावगाहना. २ जाततेजसं नेच्छन्ति पावकं ज्वलयितुम् । तीक्ष्णमभ्यतरत् शत्रं सर्वतोऽपि दुराश्रयम् ॥१॥ प्राचीनं प्रतीचीनं वापि कर्धमनुदिश्वपि । अधो दक्षिणतो पापि दहति उत्तरतोऽपि च ॥२॥ भूतानामेष आपातो हव्यवाहो न संशयः । तत् प्रदीपप्रतापार्थ खंयतः किश्चित्रारभेत ॥३॥
X
॥५२॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [३२], नियुक्ति: [१२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
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[३२]
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दीप अनुक्रम [३३]
संजओ किंचि नारभे॥ ३॥" अथवा वादरतेजस्कायाः पर्याप्तकाः स्तोकाः, शेषाः पृथिव्यादयो जीवकाया बहवः, भवस्थितिरपि बीण्यहोरात्राणि स्वल्पा इतरेषां पृथिव्यब्वायुवनस्पतीनां यथाक्रम द्वाविंशतिसप्तत्रिदशवर्षसहस्रपरिमाणा दीर्घा अवसेया इति, अतो दीर्घलोका-पृथिव्यादिस्तस्य शस्त्रम्-अग्निकायस्तस्य 'क्षेत्रज्ञो निपुणः अग्निकार्य वर्णादितो जानातीत्यर्थः, 'खेदज्ञो वा' खेदः-तद्व्यापारः सर्वसत्त्वानां दहनात्मकः पाकाद्यनेकशक्तिकलापोपचितः प्रवरमणिरिव जाज्वल्यमानो लब्धाग्निव्यपदेशः यतीनामनारम्भणीयः, तमेवंविधं खेदम्-अग्निव्यापार जानातीति खेदज्ञः, अतो य एव दीर्घलोकशस्त्रस्य खेदज्ञः स एव 'अशस्त्रस्य' सप्तदशभेदस्य संयमस्य खेदज्ञः, संयमो हि न कश्चिजीवं व्यापादयति अतोऽशस्त्रम् , एवमनेन संयमेन सर्वसत्त्वाभयप्रदायिनाऽनुष्ठीयमानेनाग्निजीवविषयः समारम्भः शक्यः परिहर्तुं पृथिव्यादिकायसमारम्भश्चेत्येवमसौ संयमे निपुणमतिर्भवति, ततश्च निपुणमतित्वाद्विदितपरमार्थोऽग्निसमारम्भान्यावृत्य संयमानुष्ठाने प्रवर्तते । इदानीं गतप्रत्यागतलक्षणेनाविनाभावित्वप्रदर्शनार्थ विपर्ययेण सूत्रावयवपरामर्श करोति-'जे असत्थस्से त्यादि, यश्चाशने-संयमे निपुणः स खलु दीर्घलोकशस्त्रस्य-अग्नेः क्षेत्रज्ञः खेदज्ञो वा, संयमपूर्वकं ह्यग्निविषय-12 | खेदज्ञत्वम्, अग्निविषयखेदज्ञतापूर्वकं च संयमानुष्ठानम्, अन्यथा तदसम्भव एवेत्येतद्गतप्रत्यागतफलमाविर्भावित भवति ॥ कैः पुनरिदमेवमुपलब्धमित्यत आह-वीरेही'त्यादि, अथवा सद्वक्तृप्रसिद्धौ सत्यां वाक्यप्रसिद्धिर्भवतीत्यत उपदिश्यते
वीरेहिं एवं अभिभूय दिलु, संजएहिं सया जत्तेहिं सया अप्पमत्तेहिं (सू० ३३)
SHAYARC5%25A
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [३३], नियुक्ति : [१२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३३]
दीप अनुक्रम [३४]
श्रीआचा- घनघातिकर्मसङ्घातविदारणानन्तरप्राप्तातुलकेवलचिया विराजन्त इति वीराः-तीर्थकरास्सैवीरैरर्थतो दृष्टमेतद्गण- अध्ययनं १ राजवृत्तिःधरैश्च सूत्रतोऽग्निशस्त्रं दृष्टम् अशस्त्र संयमस्वरूपं चेति । किं पुनरनुष्ठायेदं तैरुपलब्धमिति, अत्रोच्यते, 'अभि(शी०) भूये'ति अभिभवो नामादिश्चतुर्दा, द्रव्याभिभवो-रिपुसेनादिपराजयः आदित्यतेजसा वा चन्द्रग्रहनक्षत्रादितेजोऽभि- उद्देशकः ४
भवः, भावाभिभवस्तु परीषहोपसर्गानीकज्ञानदर्शनावरणमोहान्तरायकर्मनिईलनं, परीषहोपसर्गादिसेनाविजयाद्विमलं चरणं, चरणशुद्धेोनावरणादिकर्मक्षयः, तरक्षयान्निरावरणमप्रतिहतमशेषज्ञेयग्राहि केवलज्ञानमुपजायते, इदमुक्तं भवतिपरीपहोपसर्गज्ञानदर्शनावरणीयमोहान्तरायाण्यभिभूय केवलमुत्पाद्य तैरुपलब्धमिति । यथाभूतैस्तैरिदमुपलब्धं तहर्शयति-संजएहि' सम्यग् यताः संयताः प्राणातिपातादिभ्यस्तैः, तथा 'सदा सर्वकालं चरणप्रतिपत्ती मूलोत्तरगुण-18/ भेदायां निरतिचारत्वाचलवन्तस्तैः, तथा 'सदा सर्वकालं न विद्यते प्रमादो-मद्यविषयकपायविकथानिद्राख्यो येषांक
तेऽप्रमत्तास्तैः, एवंभूतैर्महावीरैः केवलज्ञानचक्षुषेदं दीर्घलोकशस्त्रम् अशस्त्रं च संयमो दृष्टम् उपलब्धमिति । अत्र च| हायलग्रहणादीयोसमित्यादयो गुणा गृह्यन्ते, अप्रमादग्रहणात्तु मद्यादिनिवृत्तिरिति । तदेवमेतताधानपुरुषप्रतिपादितमग्नि-18 ||शस्खमपायदर्शनादप्रमत्तैः साधुभिः परिहार्यमिति ॥ एवं प्रत्यक्षीकृतानेकदोपजालमप्यग्निशस्त्रमुपभोगलोभानमादवशगा ये न परिहरन्ति तानुद्दिश्य विपाकदर्शनायाह
जे पमत्ते गुणट्टीए से हु दंडेत्ति पवुच्चइ (सू० ३४) KI यो हि प्रमत्तो भवति मद्यविषयादिप्रमादैरसंयतो 'गुणार्थी' रन्धनपचनप्रकाशातापनाद्यग्निगुणप्रयोजनवान् स
॥५३
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [३४], नियुक्ति: [१२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३४]
दीप
अनुक्रम [३५]
दुष्पणिहितमनोवाकायोऽग्निशस्त्रसमारम्भकतया प्राणिनां दण्डहेतुत्वाद्दण्डः प्रकर्षणोच्यते प्रोच्यते, आयुघृतादिव्यपदेशवदिति ॥ यतश्चैवं ततः किं कर्त्तव्यमित्यत आह
त परिणाय मेहावी इयाणि णो जमहं पुब्वमकासी पमाएणं (सू० ३५) 'तम्' अग्निकायसमारम्भं दण्डफलं परिज्ञाय-ज्ञपरिज्ञाप्रत्याख्यानपरिज्ञाभ्यां 'मेधावी' मर्यादाव्यवस्थितो वक्ष्यमाWणप्रकारेण व्यवच्छेदमात्मन्याचिनोतीति । तमेव प्रकार दर्शयितुमाह-'इयाणी' त्यादि, यमहमग्निसमारम्भ विषयप्र
मादेनाकुलीकृतान्तःकरणः सन् पूर्वमका तमिदानीं जिनवचनोपलब्धानिसमारम्भदण्डतत्त्वः नो करोमीति ॥ अन्ये | वन्यथावादिनोऽन्यथाकारिण इति दर्शयितुमाह
लज्जमाणा पुढो पास-अणगारा मोत्ति एगे पवदमाणा जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं अगणिकम्मसमारम्भेणं अगणिसत्थं समारभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसंति । तत्थ खलु भगवता परिण्णा पवेदिता, इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जाइमरणमोयणाए दुक्खपडिघायहेडं से सयमेव अगणिसत्थं समारभइ अण्णेहिं वा अगणिसस्थं समारंभावेइ अण्णे वा अगणिसत्थं समारभमाणे समणुजा
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [३६], नियुक्ति: [१२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३६]
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
उद्देशकः४
॥ ५४॥
दीप अनुक्रम [३७]
णइ, तं से अहियाए तं से अबोहियाए से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाय अध्ययनं १ सोच्चा भगवओ अणगाराणं इहमेगेसिं णायं भवति-एस खलु गंथे एस खलु मोहे एस खलु मारे एस खलु णरए, इच्चत्थं गड्डिए लोए जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं
अगणिकम्मसमारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ (सू०३६) अस्य ग्रन्थस्योक्तार्थस्यायमों लेशतः प्रदश्यते-'लज्जमानाः' स्वागमोक्तानुष्ठानं कुर्वाणाः सावद्यानुष्ठानेन वा लज्जा कुर्वाणाः 'पृथग्' विभिन्नाः शाक्यादयः पश्येति संयमानुष्ठाने स्थिरीकरणाध शिष्यस्य चोदना, अनगारा वयमित्येके प्रवदमानाः, किं तैर्विरूपमाचरितं येनैवं प्रदर्यन्त इति दर्शयति-यदिदं विरूपरूपैः शखैरग्निकर्मसमारम्भेण अग्नि-IN शस्त्रं समारभमाणः सन्नन्याननेकरूपान् प्राणिनो विहिनस्ति, तत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता, यथाऽस्यैव परिफल्गु|जीवितस्य परिवन्दनमाननपूजनार्थं जातिमरणमोचनार्थ दुःखप्रतिघातहेतुं यत्करोति तद्दर्शयति-'स' परिवन्दनाचीं स्वत एवाग्निशखं समारभते तथा अन्यैश्चाग्निशस्त्रं समारम्भयति तथाऽन्यांश्च अग्निशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानीते, तच्चाग्नेः । समारम्भणं 'से' तस्य सुखलिप्सोरमुन्नान्यत्र चाहिताय भवति, तथा तदेव च तस्याबोधिलाभाय भवति, 'स' इति यस्यैतदसदाचरणं प्रदर्शित, स तु शिष्यस्तदग्निसमारम्भणं पापायेत्येवं सम्बुध्यमान 'आदानीय' ग्राह्यं सम्यग्दर्शनादि 'सम्य- ॥५४॥ गुत्थाय' अभ्युपगम्य श्रुत्वा भगवदन्तिकेऽनगाराणां वा इहैकेषां साधूनां ज्ञातं भवति, किम् ?, तदर्शयति-'एष।
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [३६], नियुक्ति: [१२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३६]
दीप
अनुक्रम [३८]
अग्निसमारम्भः ग्रन्थः-कर्महेतुत्वान् एष एव मोह एष एव मार एष एव नरकस्तद्धेतुत्वादिति भावः, इत्येवमर्थ च
गृद्धो लोको यत्करोति तद्दर्शयति-यदिदं विरूपरूपैः शखैरग्निकर्म समारभते तदारम्भेण चाग्निशस्त्रं समारभते तच्चाहरभमाणोऽन्याननेकरूपान् प्राणिनो विहिनस्तीति ॥ कथं पुनरग्निसमारम्भप्रवृत्ता नानाविधान् प्राणिनो विहिंसन्तीति दर्शयितुमाह
से बेमि-संति पाणा पुढवीनिस्सिया तणणिस्सिया पत्तणिस्सिया कटूनिस्सिया गोमयणिस्सिया कयवरणिस्सिया, संति संपातिमा पाणा आहच्च संपयंति, अगणिं च खलु पुट्टा एगे संघायमावजंति, जे तत्थ संघायमावजंति ते तत्थ परियावजंति, जे
तत्थ परियावजंति ते तत्थ उद्दायंति (सू० ३७) तदहं ब्रवीमि यथा नानाविधजीवहिंसनमग्निकायसमारम्भेण भवतीति । यथाप्रतिज्ञातार्थ दर्शयति-'सन्ति' विद्यन्ते 'प्राणा' जन्तवः, पृथिवीकायनिश्रिताः पृथिवीकायत्वेन परिणता इत्यर्थः, तदाश्रिता वा कृमिकुन्थुपिपीलिकागण्डूपदा-13 हिमण्डूकवृश्चिककर्कटकादयः, तथा वृक्षगुल्मलतावितानादयः, तथा तृणपत्रनिश्रिताः पतङ्गेलिकादयः, तथा काष्ठनिश्रिता-घुणोद्देहिकापिपीलिकाऽण्डादयः, गोमयनिश्रिताः-कुन्थुपनकादयः, कचवरः-पत्रतृणधूलिसमुदायस्तनिश्रिताः
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [३७], नियुक्ति: [१२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३७]
रावृत्तिः (शी०)
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दीप अनुक्रम [३८]
श्रीआचा- कृमिकीटपतङ्गादयः । तथा 'सन्ति' विद्यन्ते सम्पतितुमुत्प्लुत्योत्प्लुत्य गन्तुमागन्तुं वा शीलं येषां ते सम्पातिनः प्राणिनो अध्ययनं १
&I-जीवा मक्षिकाभ्रमरपतङ्गमशकपक्षिवातादयः, एते च सम्पातिनः 'आहत्य' उपेत्य स्वत एव, यदिवा अत्यर्थ कदाचिद्वा ...
अग्निशिखायां सम्पतन्ति च । तदेवं पृथिव्यादिनिश्रितानां जीवानां यद्भवति तद्दर्शयितुमाह-'अगणिं चे'त्यादि, रग्धनपचनतापनाद्यग्निगुणार्थिभिरवश्यमग्निसमारम्भो विधेयः, तत्समारम्भे च पृथिव्यादिनिश्रितानां जीवानामेता वक्ष्यमाणा अवस्था भवन्ति, छान्दसत्वात् तृतीयार्थे द्वितीया, ततश्चायमर्थः-अग्निना 'स्पृष्टाः'छुप्ता एके केचन सङ्घातम्अधिकं गात्रसङ्कोचनं मयूरपिच्छवदापद्यन्ते, चशब्दस्याधिक्यार्थत्वात्, खलुशब्दोऽवधारणे, अग्नेरेवार्य प्रतापो नापरस्येति, यदिवा सप्तम्यर्थे द्वितीया स्पृष्टशब्दश्च पतितवचनः, ततश्चायमर्थो भवति-अग्नावेव स्पृष्टाः-पतिता 'एके शलभादयः 'सङ्घात' समेकीभावेनाधिकं गात्रसङ्कोचनम् 'आपद्यन्ते' प्राप्नुवन्ति, ये च तत्र'अग्नौ पतिताः सङ्घातमापद्यन्ते ते प्राणिनः तत्र'अग्नी पर्यापद्यन्ते, पर्यापत्तिा-सम्मूर्छनम्, उष्माभिभूता मू मापद्यन्ते इत्यर्थः । अथ किमर्थं सूत्रकृता विभक्तिपरिणामोऽकारीति, उच्यते, मागधदेशीसमनुवृत्तेः व्याख्याविकल्पप्रदर्शनार्थं वा, अध्याहारादयोऽपि व्याख्याहाडानीत्यनेन शिष्यो ज्ञापितो भवति । अथ के पुनस्तेऽध्याहारादय इति ?, उच्यन्ते, अध्याहारो विपरिणामो व्यवहितक-18
ल्पना गुणकल्पना लक्षणा वाक्यभेदश्चेति, इह च द्वितीयाविभक्तः सप्तमीपरिणामः कृत इति । ये च तत्र'अग्नौ पर्यापधन्ते ते प्राणिनः कृमिपिपीलिकाभ्रमरनकुलादयस्तत्राग्नावपद्रावन्ति-प्राणान् मुश्चन्तीत्यर्थः, तदेवमग्निसमारम्भे सति न
IDIII ५५॥ केवलमग्निजन्तूनां विनाशः किं त्वन्येषामपि पृथिवीतृणपत्रकाष्ठगोमयकचवराश्रितानां सम्पातिनां च व्यापत्तिरवश्य
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [३७], नियुक्ति: [१२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३७]
दीप अनुक्रम [३८]
म्भाविनीति, अत एव च भगवत्यां भगवतोक्तम्-"दो पुरिसा सरिसवया अन्नमन्नेहिं सद्धिं अगणिकार्य समारंभंति, तत्थ ण एगे पुरिसे अगणिकार्य समुज्जालेति, एगे विझवेति, तत्थ णं के पुरिसे महाकम्मयराए? के पुरिसे अप्पकम्मयराए?, गोयमा! जे उज्जालेति से महाकम्मयराए, जे विज्झवेति से अप्पकम्मयराए"॥ तदेवं प्रभूतसत्त्वोपमईनकरमण्यारम्भ विज्ञाय मनोवाकायैः कृतकारितानुमतिभिश्च तपरिहारः कार्य इति दर्शयितुमाह
एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिणाया भवंति, तं परिणाय मेहावी व सयं अगणिसत्थं समारंभे नेवऽपणेहिं अगणिसत्थं समारंभावेजा अगणिसत्थं समारंभमाणे अण्णे न समणुजाणेजा, जस्सेते अगणिकम्मसमारंभा परिणाया
भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे (सू. ३८) त्ति बेमि ॥ इति चतुर्थ उद्देशकः ॥ 'अत्र' अग्निकाये 'शस्त्र' स्वकायपरकायभेदभिन्नं 'समारभभाणस्य' व्यापारयत इत्येते आरम्भाः पचनपाचनादयो पन्धहेतुत्वेनापरिज्ञाता भवन्ति, तथा अत्रैवाग्निकाये शस्त्रमसमारभमाणस्यैते आरम्भाः परिज्ञाता भवन्ति, यस्यैते अग्नि
द्वौ पुरुषी सदशमयसी अन्योऽन्य समकममिकार्य समारम्भवतः, तत्रैकः पुरुषोऽग्निकार्य समुज्ज्वलयति, एको विध्यापयति, तत्र कः पुरुषो महाकर्मा कपुरपोल्पकर्मा, गौतम! व उगवलयति स महाकर्मा यो विभ्यापयति सोऽल्पकर्मा.
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [9], मूलं [३८], नियुक्ति : [१२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
अध्ययनं १
सूत्रांक
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
उद्देशकः५
(३८
॥५६॥
दीप
अनुक्रम [३९]
कायसमारम्भा ज्ञपरिज्ञया ज्ञाता भवन्ति प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिहृता भवन्ति स एव मुनिः परमार्थतः परिज्ञातक- |म्मति अवीमीति पूर्ववत् । इति शस्त्रपरिज्ञायां चतुर्थोद्देशकटीका समाता ।।
उक्तश्चतुर्थीदेशकः, साम्प्रतं पञ्चमः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके तेजस्कायः प्रतिपादितः, तदनन्तरमविकलसुसाधुगुणप्रतिपत्तये कमायातवायुकायप्रतिपादनावसरे वनस्पतिकायजीवस्वरूपमाविर्भाव्यते, किं पुनः कमोलनकारणमिति, उच्यते, एप हि वायुरचाक्षुषत्वाहुःश्रद्धानः, अतः समधिगताशेषपृधिव्यायेकेन्द्रियमाणिगणस्वरूपः शिष्यः सुखमेव वायुजीवस्वरूपं प्रतिपत्स्यते, स एव च क्रमो येन शिष्याः जीवादितत्त्वं प्रति प्रोत्सहन्ते यथावत्पतिपत्नुमिति, वनस्पतिकायस्तु समस्तलोकप्रत्यक्षपरिस्फुटजीवलिङ्गाकलापोपेतः, अतः स एव तावत्प्रतिपाद्यते, इत्यनेन | सम्बन्धेनायातस्यास्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि वाच्यानि यावन्नामनिष्पन्ने निक्षेपे वनस्पत्युद्देशकः, तत्र वनसतेः स्वभेदकलापप्रतिपादनाय पूर्वप्रसिद्धार्थातिदेशद्वारेण नियुक्तिकृदाह
पुढवीए जे दारा वणसइकाएवि हुँति ते चेव । नाणत्ती उ विहाणे परिमाणुवभोगसत्थे य ॥१२६॥ यानि पृथवीकायसमधिगतये द्वाराण्युक्तानि तान्येव वनस्पती द्रष्टव्यानि, नानात्वं तु प्ररूपणापरिमाणोपभोगशस्त्रेषु चशब्दालक्षणे च द्रष्टव्यमिति ॥ तत्रादौ प्ररूपणास्वरूपनिपिनायाहदुविह वणस्सइजीचा मुहुमा तह वायरा य लोगमि । मुहमा य सब्बलोए दो चेव य वायरविहाणा ॥१२७॥
॥५६॥
SAREauraton international
| प्रथम अध्ययने पंचम उद्देशक: 'वनस्पतिकाय:' आरब्धः,
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [५], मूलं [३८...], नियुक्ति : [१२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
(३८
दीप अनुक्रम [३९]
CSSALSACCORDCROSAGADGADE
वनस्पतयो द्विविधा:-सूक्ष्मा बादराश्च, सूक्ष्माः सर्वलोकापन्नाश्चक्षुर्माह्याश्च न भवन्त्येकाकारा एव, बादराणां पुनā || विधाने ॥ के पुनस्ते वादरविधाने इत्यत आह
पत्तेया साहारण थायरजीवा समासओ दुविहा । वारसविहणेगविहा समासओ छविहा हुंति ॥१२८॥ बादराः समासतः द्विविधाः-प्रत्येकाः साधारणाश्च, तत्र पत्रपुष्पमूलफलस्कन्धादीन् प्रति प्रत्येको जीवो येषां ते प्रत्येकजीवाः, साधारणास्तु परस्परानुविद्धानन्तजीवसङ्गातरूपशरीरावस्थानाः, तत्र प्रत्येकशरीरा द्वादशविधानाः, साधारणास्वनेकभेदाः, सर्वेऽप्येते समासतः पोढा प्रत्येतन्याः। तत्र प्रत्येकतरुद्वादशभेदप्रत्यायनायाहरुक्खा गुच्छा गुम्मा लया य वल्ली य पव्वगा चेव । तणवलयहरियओसहिजलरुहकुहणा य योद्धब्बा ॥१२९॥
वृश्यन्त इति वृक्षाः, ते द्विविधाः-एकास्थिका बहुचीजकाच, तत्रैकास्थिकाः-पिचुमन्दानकोशम्बशालाकोलपीलुशल्ल-112 क्यादयः, बहुभीजकास्तु-उदुम्बरकपित्थास्तिकतिन्दुकबिल्वामलकपनसदाडिममातुलिकादयः, गुच्छास्तु-वृन्ताकीकों-IX सीजपाआडकीतुलसीकुसुम्भरीपिपलीनील्यादयः, गुल्मानि तु-नवमालिकासेरियककोरण्टकबन्धुजीवकबाणकरवीर|सिन्दुवारविचकिलजातियूथिकादया, लतास्तु-पद्मनागाशोकचम्पकचूतवासन्तीअतिमुक्तककुन्दलताद्याः, वल्यस्तु-कु
प्माण्डीकालिङ्गीत्रपुषीतुम्बीवालाकीएलालुकीपटोल्यादयः, पर्वमाः पुनः-इक्षुवीरणशुण्ठशरवेत्रशतपर्ववंशनलवेणुकादयः, olतृणानि तु-श्वेतिकाकुशदर्भपर्वकार्जुनसुरभिकुरुविन्दादीनि, वलयानि च-तालतमालतकलीशालसरलाकेतकीकदलीक
१ शतपत्री. प्र. २ वर्चका. प्र.
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [५], मूलं [३८...], नियुक्ति : [१२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः
प्रत सूत्रांक [३८]
अध्ययनं १ उद्देशकः५
(शी०)
॥५७॥
दीप अनुक्रम [३९]
न्दल्यादीनि, हरितानि-तन्दुलीयकाधूयारुहवस्तुलबदरकमार्जारपादिकाचिल्लीपालक्यादीनि, औषध्यस्तु-शालीव्रीहिगोधू- मयवकलममसूरतिलमुद्माषनिष्पावकुलत्थातसीकुसुम्भकोद्रवकब्वादयः, जलरुहा-उदकावकपनकशैवलकलम्बुकापावककशेरुकउसलपद्मकुमुदनलिनपुण्डरीकादयः, कुहुणास्तु-भूमिस्फोटकाभिधानाः आयकायकुहुणकुण्डुकोदेहलिकाशलाकासपच्छत्रादयः, एषां हि प्रत्येकजीवानां वृक्षाणां मूलस्कन्धकन्दत्वक्शालप्रवालादिष्वसंख्येयाः प्रत्येकं जीवाः, पत्राणि पुष्पाणि चैकजीवानि मन्तव्यानि, साधारणास्त्वनेकविधाः, तद्यथा-लोहीनिहुस्तुभायिकाअश्वकर्णीसिंहकणींशृङ्गाबेरमालुकामूलककृष्णकन्दसूरणकन्दकाकोलीक्षीरकाकोलीप्रभृतयः ॥ 'सर्वेऽप्येते संक्षेपात् षोढा भवन्ती'त्युक्तं, के पुनस्ते भेदा इत्याहअग्गषीया मूलबीया खंधषीया चेव पोरवीया य । बीयरुहा समुच्छिम समासओ वणसईजीवा ॥१३० ।। तत्र कोरिण्टकादयोऽयबीजाः, कदल्यादयो मूलबीजार, निहुशल्लक्कवरणिकादयः स्कन्धवीजाः, इक्षुवंशवेत्रादयः पर्वबीजाः, बीजरुहाः शालिनीह्यादयः, सम्मूर्छनजाः पद्मिनीशृङ्गाटकपाठशैवलादयः, एवमेते समासात्तरुजीवाः पोढा कथिताः, नान्ये सन्तीति प्रतिपत्तव्यं । किंलक्षणाः पुनः प्रत्येकतरवो भवन्तीत्यत आह
जह सगलसरिसवाणं सिलेसमिस्साण वत्तिया वट्टी। पत्तेयसरीराणं तह हुंति सरीरसंघाया ॥१३१॥ यथेति दृष्टान्तोपन्यासार्थः, यथा सकलसर्षपाणां श्लेषयतीति श्लेषः-सर्जरसादिस्तेन मिश्रितानां 'वर्तिता' वलिता वतिः १०त्रिलरी• प्र. २०पावाक० प्र. ३ कुरणेति नि.. .रा. प्र.
AACARKAR
॥ ५७॥
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[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [५], मूलं [३८...], नियुक्ति: [१३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
(३८
दीप अनुक्रम [३९]
तस्यां च बतौं प्रत्येकप्रदेशाः क्रमेण सिद्धार्थकाः स्थिताः, नान्योऽन्यानुवेघेन, चूर्णितास्तु कदाचिदन्योऽन्यानुवेधभाजोऽपि स्युरित्यतः सकलग्रहणं, यथाऽसौ पर्तिस्तथा प्रत्येकतरुशरीरसवातः, यथा च सर्षपास्तथा तदधिष्ठायिनो जीवाः, यथा श्लेषविमिश्रितास्तथा रागद्वेषमचितकर्मपुद्गलोदयमिश्रिताः जीवाः, पश्चिमान गाथाया उपम्यस्तदृष्टान्तेन सह साम्यं प्रतिपादितं, तथेति शब्दोपादानादिति ॥ अस्मिन्नेधार्थे दृष्टान्तान्तरमाह
जह वा तिलसकुलिया बहुएहिं तिलहि मेलिया संती । पत्तेयसरीराणं तह हुँति सरीरसंघाया ॥ १३२ ।। यथा वा तिलशकुलिका-तिलप्रधाना पिष्टमयपोलिका बहुभिस्ति लैर्निष्पादिता सती भवति, तथा प्रत्येकशरीराणां तरूणां शरीरसता भवन्तीति द्रष्टव्यमिति ॥ साम्प्रतं प्रत्येकशरीरजीयानामेकानेकाधिष्ठितत्वप्रतिपिपादयिषयाऽऽह
नाणाविहसंठाणा दीसंती एगजीविया पत्ता । खंधावि एगजीवा तालसरलनालिएरीणं ॥१३३॥ नानाविध-भिन्न संस्थानं येषां तानि नानाविधसंस्थानानि पत्राणि यानि चैवंभूतानि दृश्यन्ते तान्येकजीवाधिष्ठितान्यवगन्तव्यानि, तथा स्कन्धा अप्येकजीवाधिष्ठितास्तालसरलनालिकेर्यादीना, नात्रानेकजीवाधिष्ठितत्वं सम्भवतीति, अवशिष्टानां वनेकजीवाधिष्ठितत्वं सामर्थ्यात्प्रतिपादितं भवति ॥ साम्प्रतं प्रत्येकतरुजीवराशिपरिमाणाभिधित्सयाऽऽह
पत्तेया पज्जत्ता सेढी' असंखभागमित्ता ते । लोगासंखप्पज्जत्तगाण साहारणाणता ॥ १३४॥ प्रत्येकतरुजीवाः पर्याप्तकाः संवर्तितचतुरस्त्रीकृतलोकश्रेण्यसंख्येयभागवाकाशप्रदेशराशितुल्यप्रमाणाः, एते च पुन
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [५], मूलं [३८...], नियुक्ति : [१३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
अध्ययन उद्देशकः५
[३८
॥५८॥
दीप अनुक्रम [३९]
श्रीआचा- र्वादरतेजस्कायपर्याप्तकराशेरसङ्खधेयगुणाः, ये पुनरपर्याप्तकाः प्रत्येकतरुजन्तवः ते ह्यसङ्ख्येयानां लोकानां यावन्तः प्रदेराङ्गवृत्तिः
शास्तावन्त इति, एतेऽप्यपर्याप्तका बादरतेजस्कायजीवराशेरसङ्घचेयगुणाः, सूक्ष्मास्तु वनस्पतयः प्रत्येकशरीरिणः प-1 (शी०) यप्तिका अपर्याप्तका वा न सन्त्येव, साधारणास्त्वनन्ता इति विशेषानुपादानात्?, साधारणाः सूक्ष्मवादरपर्याप्तकापर्या
प्सकभेदेन चतुर्विधा अपि पृथक् पृथगनन्तानां लोकानां यावन्तः प्रदेशास्तावन्त इति, अयं तु विशेषः-साधारणबादरपप्तिकेभ्यो बादरा अपर्याप्तका असंख्येयगुणाः बादरापर्याप्तकेभ्यः सूक्ष्माः अपर्याप्तका असञ्जयगुणास्तेभ्योऽपि सूक्ष्माः पर्याप्तका असङ्ख्यगुणा इति ॥ सम्प्रत्येषां तरूणां यो जीवत्वं नेच्छति तं प्रति जीवत्वप्रतिपादनेच्छया नियुक्तिकृदाह
एएहिं सरीरेहिं पञ्चक्खं ते परूविया जीवा । सेसा आणागिज्झा चक्खुणा जे न दीसंति ॥ १३५॥ 'एतैः' पूर्वप्रतिपादितैस्तरुशरीरैः प्रत्यक्षप्रमाणविषयैः 'प्रत्यक्ष साक्षात् 'ते' वनस्पतिजीवाः 'प्ररूपिताः' प्रसाधिताः, तथाहि-न ह्येतानि शरीराणि जीवव्यापारमन्तरेणैवंविधाकारभाञ्जि भवन्ति, तथा च प्रयोगः-जीवशरीराणि वृक्षाः,
अक्षायुपलब्धिभावात्, पाण्यादिसङ्घातवत्, तथा कदाचित् सचित्ता अपि वृक्षा, जीवशरीरत्वात्, पाण्यादिसङ्घातवकादेव, तथा मन्दविज्ञानसुखादिमन्तस्तरवः, अव्यक्तचेतनानुगतत्वात्, सुप्तादिपुरुषवत्, तथा चोक्तम्-"वृक्षादयोऽक्षा
धुपलब्धिभावाखाण्यादिसातवदेव देहाः । तद्वत्सजीवा अपि देहतायाः, सुप्तादिवत् ज्ञानसुखादिमन्तः॥१॥"| दा'शेषा' इति सूक्ष्मास्ते च चक्षुषा नोपलभ्यन्त इत्याज्ञया ग्राह्या इति, आज्ञा च भगवद्वचनमवितधमरक्तद्विष्टमणीतमिति |
श्रद्धातव्यमिति ॥ साम्प्रतं साधारणलक्षणमभिधित्सुराह
G
॥५८॥
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सूत्रांक
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अनुक्रम [३९]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [५], मूलं [३८...], निर्युक्तिः [१३६ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र - [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
साहारणमाहारो साहारण आणपाणगहणं च । साहारणजीवाणं साहारणलक्खणं एयं ॥ १३६ ॥ समानम् एकं धारणम्-अङ्गीकरणं शरीराहारादेर्येषां ते साधारणाः तेषां साधारणानाम् अनन्तकायानां जीवानां 'साधारणं' सामान्यमेकमाहारग्रहणं तथा प्राणापानग्रहणं च साधारणमेव, एतत्साधारणलक्षणम्, एतदुक्तं भवतिएकस्मिन्नाहारितवति सर्वेऽप्याहारितवन्तस्तथैकस्मिन्नुच्छ्रसिते निःश्वसिते वा सर्वेऽप्युच्छ्रसिता निःश्वसिता वेति ॥ अमुमेवार्थ स्पष्टयितुमाह
एगस्स उ जं गहणं बहूण साहारणाण ते चेव । जं बहुयाणं गहणं समासओ तंपि एगस्स ॥ १३७ ॥ एको यदुच्छासनिःश्वासयोग्यपुद्गलोपादानं विधत्ते बहूनामपि साधारणजीवानां तदेव भवति, तथा यच्च बहवो | ग्रहणमकार्षुरेकस्यापि तदेवेति ॥ अथ ये बीजात्प्ररोहन्ति वनस्पतयस्तेषां कथमाविर्भाव इत्यत आह
जोणिभूए बीए जीवो वक्कमह सो व अन्नो वा । जोऽवि य मूले जीवो सो चिय पत्ते पढमयाए ॥ १३८ ॥ अत्र भूतशब्दोऽवस्थावचनः, योन्यवस्थे बीजे योनिपरिणाममजहतीत्यर्थः, वीजस्य हि द्विविधावस्था -योन्यवस्था अयोन्यवस्था च यदा योन्यवस्थां न जहाति बीजमुज्झितं च जन्तुना तदा योनिभूतमुच्यते, योनिस्तु जन्तोरुत्पत्तिस्थानमविनष्टमिति, तस्मिन् बीजे योनिभूते जीवो 'व्युत्क्रामति' उत्पद्यते स एव पूर्वको बीजजीवोऽन्यो वाऽऽगत्य तत्रोत्पद्यते एतदुक्तं भवति यदा जीवेनायुषः क्षयाद्वीजपरित्यागः कृतो भवति, तस्य च यदा वीजस्य क्षित्युदकादिसंयोगस्तदा कदाचित्स एव प्राक्तनो जीवस्तत्रागत्य परिणमते कदाचिदन्य इति, यश्च मूलतया जीवः परिणमते स एव प्रथम
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [५], मूलं [३८...], नियुक्ति : [१३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
अध्ययनं १ उद्देशकः५
[३८]
दीप अनुक्रम [३९]
श्रीआचा- पत्रतयाऽपीति, एकजीवकर्तृके मूलपत्रे इतियावत् , प्रथमपत्रकं च याऽसौ बीजस्य समुच्छूनावस्था भूजलकालापेक्षा सैवोरावृत्तिः तिच्यत इति, नियमप्रदर्शनमेतत् , शेषं तु किशलयादि सकलं न मूलजीवपरिणामाविर्भावितमेवेत्यवगन्तव्यमिति ॥ यत (शी०) उक्तम्-"सन्योऽवि किसलओखलु उग्गममाणो अणन्तओ भणिओ"इत्यादि ॥ तथाऽपरं साधारणलक्षणमभिधित्सुराह
चकागं भजमाणस्स गंठी चुण्णघणो भवे । पुढविसरिसभेएणं अणंतजीवं वियाणेहि ॥ १३९॥ ॥ ५९॥
यस्य मूलकन्दत्वपत्रपुष्पफलादेर्भज्यमानस्य चक्रकं भवति, चक्राकारः समच्छेदो भङ्गो भवतीतियावत्, यस्य च ग्रन्थिा-पर्व भङ्गस्थानं वा 'चूर्णेन' रजसा 'घनो' व्याप्तो भवति, यो वा भिद्यमानो वनस्पतिः पृथिवीसदृशेन भेदेन केदारोपरिशुष्कतरिकावत् पुटभेदेन भिद्यते, तमनन्तकार्य विजानीहि ॥ तथा लक्षणान्तरमाह
गूढसिराग पत्तं सच्छीरं जंच होइ निच्छीरं । जं पुण पणट्ठसंधिय अणंतजीवं वियाणाहि ॥ १४०।। स्पष्टार्था ॥ एवं साधारणजीवान् लक्षणतः प्रतिपाद्य सम्पति नामग्राहमनन्तान् वनस्पतीन् दर्शयितुमाहसेवालकत्वभाणियअवए पणए य किंनए य हढे । एए अणंतजीवा भपिया अपणे अणेगविहा ॥१४१ ।।
सेवालकत्थभाणिकाऽयकपनककिण्वहठादयोऽनन्तजीवा गदिता अनेकप्रकाराश्चान्येऽपीरधमवगन्तव्या इति ॥ सम्प्रति प्रत्येकतरूणामेकादिजीवपरिगृहीतशरीरदृश्यत्वं प्रतिपिपादयिषयाहएगस्स दुण्ह तिण्ह व संखिजाण व तहा असंखाणं । पत्तेयसरीराणं दीसंति सरीरसंघाया ।।१४२ ।। १ सर्वोऽपि किशलयः सलगच्छननन्तको भणितः.
॥ ५९॥
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
[३८]
दीप
अनुक्रम [३९]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [५], मूलं [३८...], निर्युक्तिः [१४२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित .... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र- [ ०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
एकजीवपरिगृहीतशरीरं तालसरलनालिकेर्यादिस्कन्धः, स च चक्षुर्ब्राह्यः, तथा बिसमृणालकर्णिकाकुणककटाहानामेकजीवपरिगृहीतत्वं चक्षुर्दृश्यत्वं च द्वित्रिसङ्घयेयासङ्घयेयजीवपरिगृहीतत्वमप्येवं दृश्यतया भावनीयमिति ॥ किमनन्तानामप्येवं १, नेत्यत आह
इस दुण्ह तिन्ह व संखिजाण व न पासिउं सका। दीसंति सरीराई निओयजीवाणऽणंताणं ॥ १४३ ॥ नैकादीनामसङ्घ धेयावसानानामनन्ततरुजीवानां शरीराण्युपलभ्यन्ते, कुतः ?, अभावात् न होकादिजीवपरिगृहीतान्यनन्तानां शरीराणि सन्ति, अनन्तजीवपिण्डत्वादेव, कथं तद्युपलभ्यास्ते भवन्तीति दर्शयति-दृश्यन्ते शरीराणि बादरनिगोदानामनन्तजीवानां, सूक्ष्मनिगोदानां तु नोपलभ्यन्ते, अनन्तजीवसङ्घातत्वे सत्यप्यतिसूक्ष्मत्वादिति भावः, निगो| दास्तु नियमत एवानन्तजीवसङ्घाता भवन्तीति, उक्तं च- "गोला व असंखेज्जा हुति णिओआ असङ्ख्या गोले । एकेको य निओए अनंतजीवो मुणेयब्वो ॥ १ ॥” एवं वनस्पतीनां वृक्षादिप्रत्येकादिभेदात्तथा वर्णगन्धरसस्पर्शभेदात् सहस्राग्रशो विधानानि सङ्घधेयानि योनिप्रमुखानि शतसहस्राणि भेदानामवसेयानीति, तथाहि वनस्पतीनां संवृता योनिः, सा च सचित्ताचित्तमिश्रभेदात् त्रिधा, तथा शीतोष्णमिश्रभेदाच्च तथा प्रत्येकतरूणां दश लक्षा योनिभेदानां, साधारणानां च चतुर्दश, कुलकोटीनां द्वयोरपि पञ्चविंशतिकोटिशतसहस्राणीति ॥ उक्तं विधानद्वारम् इदानीं परिमाणमभिधीयतेतत्र प्रथमं सूक्ष्मानन्तजीवानां दर्शयितुमाह
गोसा भवन्ति निगोदा असङ्घयेवा गोले । एकैकध निगोदोऽनन्तजीयो मुनितव्यः ॥ १ ॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [५], मूलं [३८...], नियुक्ति : [१४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
[३८]
दीप अनुक्रम [३९]
पत्थेण व कुडवेण व जह कोइ मिणिज्ज सव्वधन्नाई । एवं मविजमाणा हवंति लोया अर्णता उ ॥ १४४ ॥ | अध्ययनं १ प्रस्थकुडवादिना यथा कश्चित्सर्वधान्यानि प्रमिणुयात्, मित्वा चान्यत्र प्रक्षिपेद्, एवं यदि नाम कश्चित्साधारणजीवराशि लोककुडवेन मित्वाऽन्यत्र प्रक्षिपेत् तत एवं मीयमाना अनन्ता लोका भवन्तीति ॥ इदानी वादरनिगोदपरि
उद्देशकः५ माणाभिधित्सयाऽऽह
जे वायरपज्जत्ता पयरस्स असंखभागमित्ता ते । सेसा असंखलोया तिन्निवि साहारणाणता ॥ १४५॥ ।
ये पर्याप्तकवादरनिगोदास्ते संवर्तितचतुरश्रीकृतसकललोकप्रतरासङ्ख्य भागवर्तिप्रदेशराशिपरिमाणा भवन्ति, एते ||5|| पुनः प्रत्येकशरीरबादरवनस्पतिपर्याप्तकजीवेभ्योऽसङ्खयेयगुणाः, शेषास्त्रयोऽपि राशयः प्रत्येकमसङ्खधेयलोकाकाशप्रदेशपरिमाणाः, के पुनस्रय इति ?, उच्यन्ते, अपर्याप्तकवादरनिगोदा अपर्याप्तकसूक्ष्मनिगोदाः पर्याप्तकसूक्ष्मनिगोदार, एते || च क्रमशो बहुतरका द्रष्टव्या इति, साधारणजीवास्तेभ्योऽनन्तगुणाः, एतच्च जीवपरिमाणं, प्राक्तनं तु राशिचतुष्टयं | निगोदपरिमाणमिति ।। परिमाणद्वारानन्तरमुपभोगद्वारमभिधित्सुराह
आहारे उवगरणे सयणासण जाण जुग्गकरणे य । आवरण पहरणेसु अ सत्वविहाणेसु अ बहुसुं॥१४६॥
आहार:-फलपत्रकिशलयमूलकन्दत्वगादिनिर्वर्त्यः, उपकरणं व्यजनकटककवलकार्गलादि, शयन-खदाफलकादि, आ-1 सनम्-आसन्दकादि, यानं-शिबिकादि, युग्य-गन्त्रिकादि, आवरणम्-फलकादि, प्रहरण-लकुटमुसुण्ठ्यादि, शस्त्रवि- ॥६ ॥ माधानानि च बहूनि तन्निर्वयोनि, शरदात्रखशक्षुरिकादिगण्डोपयोगित्वादिति ॥ तथाऽपरोऽपि परिभोगविधिः, तदर्शनायाह
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [५], मूलं [३८...], नियुक्ति : [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
(३८
दीप अनुक्रम [३९]
आउज कडकम्मे गंधंगे घस्थ मल्ल जोए य । झावणवियावणेसु अ तिल्लविहाणे अ उज्जोए ॥ १४७ ॥ - आतोद्यानि-पटहभेरीवंशवीणाझलादीनि, काष्ठकर्म-प्रतिमास्तम्भद्वारशाखादि, गन्धाङ्गानि-बालकप्रियङ्गपनकदम-| नकत्वक्कन्दनोशीरदेवदार्यादीनि, वस्त्राणि-वल्कलकार्पासमयादीनि, माल्ययोगा-नवमालिकाबकुलचम्पकपुन्नागाशोकमालतीविचकिलादयः, धमापन-दाहो भस्मसात्करणमिन्धनैः, वितापनं-शीताभ्यर्दितस्य शीतापनयनाय काष्ठप्रज्वा-2 लनात्, तैलविधान-तिलातसीसर्षपेङ्गदीज्योतिष्मतीकरञ्जादिभिः, उद्योतो-वर्तितृणचूडाकाष्ठादिभिरिति । एवमेतान्युपभोगस्थानानि प्रतिपाद्य तदुपसञ्जिहीपुराह
एएहिं कारणेहिं हिंसंति वणस्सई बहू जीवे । सायं गवेसमाणा परस्स दुक्खं उदीरंति ॥ १४८ ॥ MI 'एतैः' गाथाद्वयोपातः कारणः' प्रयोजनैः 'हिंसन्ति' व्यापादयन्ति प्रत्येकसाधारणवनस्पतिजीवान् बहून् बनस्पति-IN
समारम्भिणः पुरुषाः, किंभूतास्त इति दर्शयति–'सात' सुखं तदन्वेषिणः 'परस्य' वनस्पत्यायेकेन्द्रियादेः 'दुःखं बाधामुत्सादयन्ति । साम्प्रतं शस्त्रमुच्यते-तच्च द्विधा-द्रव्यभावभेदात्, द्रव्यशस्वमपि समासविभागभेदात् द्विव, तत्र ||| समासद्रव्यशस्त्राभिधित्सयाऽऽहकप्पणिकुहाणिअसियगदत्तियकुदालवासिपरसू अ । सत्थं वणस्सईए हत्था पाया मुहं अग्गी ॥ १४९ ॥
कल्प्यते-छिद्यते यया सा कल्पनी-शस्त्रविशेषः, कुठारी प्रसिद्धैव, असियर्ग-दात्रं, दात्रिका-प्रसिद्धा, कुद्दालकवा& सिपरशवश्च, एते वनसतेः शस्त्रं, तथा हस्तपादमुखाग्नयश्च इत्येतत्सामान्यशस्त्रमिति ॥ विभागशस्त्राभिधित्सयाऽऽह
था.सू.११
SAREastatinintennational
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [9], मूलं [३९], नियुक्ति: [१५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३९]
अध्ययन उद्देशकः५
॥६१॥
दीप अनुक्रम [४०]
श्रीआचा- किंची सकायसत्यं किंची परकाय तदुभयं किंचि । एयं तु व्वसत्यं भावे य असंजमो सत्यं ।। १५०॥ राङ्गवृत्तिःला किञ्चित् स्वकायशवं-लकुटादि किश्चिञ्च परकायशवं-पाषाणाम्यादि तथोभयशस्त्रं-दात्रदात्रिकाकुठारादि, एतद् द्रव्य(शी०) शखं, भावशखं पुनरसंयमः दुष्पणिहितमनोवाकायलक्षण इति ॥ सकलनियुक्त्यर्थपरिसमाप्तिप्रचिकटयिपयाऽऽह
॥ सेसाई दाराई ताई जाई हवंति पुढवीए । एवं वणस्सईए निज्जुत्ती कित्तिया एसा ॥१५१ ॥
उक्तव्यतिरिक्तशेषाणि तान्येव द्वाराणि यानि पृथिव्यामभिहितानि ततस्तद्वाराभिधानाद्वनस्पती नियुक्ति: 'कीर्तिता' व्यावर्णितेति ॥ साम्प्रतं सूत्रानुगमे अस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम्
तं णो करिस्सामि समुटाए, मत्ता मइमं, अभयं विदित्ता, तं जे णो करए, एसोवरण,
एत्थोवरए, एस अणगारेत्ति पवुच्चई (सू० ३९) अस्य चानन्तरपरम्परादिसूत्रः सम्बन्धः प्राग्वद्वाच्यः, उक्तं प्राक् 'सातान्वेपिणो हि वनस्पतिजन्तूनां दुःखमुदीरयन्ति, ततश्च तम्मूलमेव दुःखगहने संसारसागरे भ्राम्यन्ति सत्त्वाः' इत्येवं विदितकटुकविपाकः समस्तवनस्पतिसत्त्व| विषयविमर्दनिवृत्तिमात्यन्तिकीमात्मनि दर्शयन्नाह-'तत्' वनस्पतीनां दुःखमहं दृष्टप्रत्यपायो न करिष्ये, यदिवा तदु:खोत्पत्तिनिमित्तभूतं वनस्पतावारम्भ-छेदनभेदनादिरूपं नो करिष्ये मनोवाकायैः, तथाऽपरैर्न कारयिष्ये, तथा कुर्चतश्चान्यान्नानुमस्ये, किं कृत्वेति दर्शयति-सर्वज्ञोपदिष्टमार्गानुसृत्या सम्यक् प्रव्रज्योत्थानेनोत्थाय समुस्थाय, प्रव्रज्यां
lu६१॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [9], मूलं [३९], नियुक्ति: [१५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३९]
दीप अनुक्रम [४०]
प्रतिपद्येत्यर्थः, तदेवं वर्जितसकलसावद्यारम्भकलापः संस्तद्वनस्पतिदुःखं तदारम्भ वा नो करिष्यामीति, अनेन च संयमक्रिया दर्शिता, न च क्रियात एव मोक्षावाप्तिः, किं तहि , ज्ञानक्रियाभ्यां तदुक्तम्-'नाणं किरियारहियं किरियामेत्तं च दोऽवि एगन्ता । न समत्था दा जे जम्ममरणदुक्खदाहाई ॥१॥" यत एवमतो विशिष्टमोक्षकारणभूतज्ञानप्रतिपिपादयिषयाऽऽह-मत्ता मइम' मत्वा-ज्ञात्वा अवबुध्य यथावत् जीवान् , मतिरस्यास्तीति मतिमान, मतिमानेवोपदेशा) भवतीत्यतस्तद्वारेणैव शिष्यामन्त्रण हे मतिमन्! प्रवज्यां प्रतिपद्य जीवादिपदार्थांश्च ज्ञात्वा मोक्षमवाप्नोतीति, सम्यग्ज्ञानपूर्विका हि क्रिया फलवतीति दर्शितं भवति । पुनरत्रैवाह-अभयं विदित्ता' अविद्यमानं भयमस्मिन्सत्त्वानामित्यभयः-संयमः, स च सप्तदशविधानस्तं चाभयं-सर्वभूतपरिपालनात्मकं संसारसागरानिर्वाहकं विदित्वा वनसत्यारम्भान्निवृत्तिर्विधेयेति । एतदेव दर्शयितुमाह-'तं जे नो करए' इत्यादि, 'त' वनस्पत्यारम्भ 'यो विदिततदारम्भकटुकविपाकः नो कुर्यात् , तस्य प्रतिविशिष्टेष्टफलावाप्तिाम्यस्यान्धमूदया प्रवर्त्तमानस्य, अभिलपितविप्रकृष्टस्थानप्राप्तिप्रवृत्तान्धक्रियाव्याघातबदिति मन्तव्यं, ज्ञानमपि क्रियाहीनं न मोक्षाय, गृहान्तर्दह्यमाननिनक्षुपङ्गचक्षुज्ञानव-15 दिति, एवं ज्ञात्वाऽभ्युपेत्य च तत्परिहारः कर्त्तव्य इति दर्शितं भवति । एवं यः सम्यगज्ञानपूर्विकां निवृत्ति करोति स एवं समस्तारम्भनिवृत्त इति दर्शयति-'एसोवरए'त्ति एष एव सर्वस्मादारम्भावनस्पतिविषयादुपरतो यो यथावत् ज्ञात्वाऽऽरम्भ न करोतीति, स पुनरेवंविधनिवृत्तिभाकिं शाक्यादिष्वपि सम्भवत्युतेहैव प्रवचन इति दर्शयति-'एत्थोव
१ शानं क्रियारहितं क्रियामानं च द्वे अप्येकान्तात् । न समर्थे दातुं यानि जन्ममरणदुःखदाहकानि ॥१॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [9], मूलं [३९], नियुक्ति: [१५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३९]
॥६
॥
दीप अनुक्रम [४०]
श्रीआचा- रएत्ति एतस्मिन्नेव जैनेन्द्रे प्रवचने परमार्थत उपरतो नान्यत्र, यथाप्रतिज्ञातनिरवद्यानुष्ठायित्वादुपरतव्यपदेश-
Iअध्ययन १ राङ्गवृत्तिःभाग भवति न शेषाः शाक्यादयः, तद्विपरीतत्वाद्, एष एव च सम्पूर्णानगारव्यपदेशमश्नुते इति दर्शयति-'एस । (शी०) अणगारेत्ति पवुच्चई' 'एषः' अतिक्रान्तसूत्रार्थव्यवस्थितोऽविद्यमानागारोऽनगारः प्रकर्षेण उच्यते प्रोच्यते इति, किं-|
है उद्देशकः५ कृतः प्रकर्षः १, अनगारव्यपदेशकारणभूतगुणकलापसम्बन्धकृतः प्रकर्षः, इतिशब्दोऽनगारव्यपदेशकारणपरिसमाप्तिद्योती, एतावदनगारलक्षणं नान्यदिति, ये पुनः प्रोज्झितपारमार्थिकानगारगुणाः शब्दादीविषयानङ्गीकृत्य प्रवर्तन्ते ते तु नापेक्षन्ते वनस्पतीन् जीवान्, यतो भूयांसः शब्दादयो गुणा बनस्पतिभ्य एव निष्पद्यन्ते, शब्दादिगुणेष्वेव वर्समाना रागद्वेषविषमविषविघूर्णमानलोललोचना नरकादिचतुर्विधगत्यन्तःपातिनो बोद्धव्याः, तदन्तःपातिन एव च शब्दादिविषयाभिष्वङ्गिणो भवन्तीति ॥ अस्यार्थस्य प्रसिद्धये गतप्रत्यागतलक्षणमितरेतरावधारणफलं सूत्रमाह
जे गुणे से आवहे जे आवट्टे से गुणे (सू०४०) यो 'गुणः' शब्दादिकः स आवर्तः, आवर्तन्ते-परिभ्रमन्ति प्राणिनो यत्र स आवतः-संसारः, इह च कारणमेव कार्यत्वेन व्यपदिश्यते यथा नड्डलोदकं पादरोगः, एवं य एते शब्दादयो गुणाः स आवर्सः, तत्कारणत्वात् , अथवैकवचनोपादानारपुरुषोऽभिसम्बध्यते, यः शब्दादिगुणे वर्तते स आवः वर्तते, यश्चावः वर्तते स गुणे वर्तेत इति, अत्र कश्चिचोद्यचक्षुराह-यो गुणेषु वर्तते स आवर्ने वर्त्तत इति साधु, यः पुनरावर्ते वर्त्तते नासौ नियमत एव ॥१२॥ गुणेषु वर्तते, यस्मात्साधयो वर्तन्त आवर्ते न गुणेषु तदेतत्कथमिति, अनोच्यते, सत्यम् , आवर्ते यतयो वर्तन्ते न गुणेषु,
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[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [४०], नियुक्ति: [१५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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दीप
अनुक्रम [४१]
II किन्तु रागद्वेषपूर्वकं गुणेषु वर्तनमिहाधिक्रियते, तच्च साधूनां न सम्भवति, तदभावात् , आवर्तोऽपि संसरणरूपो दुः
खात्मको न सम्भवति, सामान्यतस्तु संसारान्त पातित्वं सामान्यशब्दादिगुणोपलब्धिश्च सम्भवत्येवातो नोपलब्धिः प्रतिषिध्यते, रागपरिणामो द्वेषपरिणामो वा यस्तत्र स प्रतिषिध्यते, तथा चोक्तम्-"कोणसोक्खेहिं सद्देहिं पेम्म नाभि-ट्रि निवेसए" इत्यादि, तथा-"न शक्य रूपमद्रष्टुं, चक्षुर्गोचरमागतम् । रागद्वेषौ तु यौ तत्र, तौ बुधः परिवर्जयेत् ॥ १॥" कथं पुनर्गुणभूयस्त्वं वनस्पतिभ्य इति प्रदर्श्यते-वेणुवीणापटहमुकुन्दादीनामातोद्यविशेषाणां वनस्पतेरुत्पत्तिः, ततश्च |
मनोहराः शन्दा निष्पद्यन्ते, प्राधान्यमत्र वनस्पतेर्विवक्षितं, अन्यथा तु तन्त्रीचर्मपाण्यादिसंयोगाच्छन्दनिष्पत्तिरिति, M||रूपं पुनः काष्ठकर्मखीप्रतिमादिषु गृहतोरणवेदिकास्तम्भादिषु च चत्रमणीयं, गन्धा अपि हि कर्पूरपाटलालवलीलव
झकेतकीसरसचन्दनागुरुककोलकेलाजातिफलपत्रिकाकेसरमांसीत्वपत्रादीनां सुरभयो गन्धेन्द्रियाह्लादकारिणः प्रादुभवन्ति, रसास्तु विसमृणालमूलकन्दपुष्पफलपत्रकण्टकमज्जरीत्वगङ्कुरकिसलयारविन्दकेसरादीनां जिह्वेन्द्रियप्रहादिनो निष्पद्यन्ते अतिवह्व इति, तथा स्पर्शाः पद्मिनीपत्रकमलदलमृणालवल्कलदुकूलशाटकोपधानतूलिकपच्छादनपटादीनां स्पर्शनेन्द्रियसुखाः प्रादुष्ष्यन्ति, एवमेतेषु वनस्पतिनिष्पन्नेषु शब्दादिगुणेषु यो वर्तते स आवत्त वर्तते, यश्च आवर्त्तवर्ती स रागद्वेषात्मकत्वात् गुणेषु वर्तत इति, स चावों नामादिभेदाच्चतुळ, नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यावत: स्वामित्वकरणाधिकरणेषु यथासम्भवं योज्या, स्वामित्वे नद्यादीनां कचित्तविभागे जलपरिभ्रमणं द्रव्यस्थावतः,
१ कर्णसौख्त्येषु शब्देषु प्रेम नाभिनिवेशयेत् .
HOSAR RS
[136]
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[४०]
दीप
अनुक्रम [४१]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [५], मूलं [४०], निर्युक्ति: [१५१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित......आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचा
द्रव्याणां वा हंसकारण्डवचक्रवाकादीनां व्योम्नि क्रीडतामावर्त्तनादावर्त्तः करणे तु तेनैव जलद्रव्येण भ्रमता यदम्यराङ्गवृत्तिः दावर्त्तते तृणकलियादि स द्रव्येणावर्त्तः, तथा त्रपुसीसकलोहरजत सुवर्णैरावर्त्यमानैर्यदन्यत्तदन्तःपात्यावर्त्यते स द्रव्यै(शी०) ७ रावर्त्तत इति, अधिकरणविवक्षायामेकस्मिन् जलद्रव्ये आवर्त्तस्तथा रजतसुवर्णरीतिकात्रपुसीस केष्वेकस्थीकृतेषु बहुषु * द्रव्येष्वावर्त्तः, भावावर्त्तो नामान्योऽन्यभावसङ्क्रान्तिः औदयिकभावोदयाद्वा नरकादिगतिचतुष्टयेऽसुमानावर्त्तते, इह च भावावर्त्तेनाधिकारो न शेषैरिति ॥ अथ य एते गुणाः संसारावर्त्तकारणभूताः शब्दादयो वनस्पतेरभिनिर्वृत्तास्ते किं नियतदिग्देशभाजः उत सर्व्वदिक्षु इत्यत आह
॥ ६३ ॥
उ अहं तिरियं पाईणं पासमाणे रूवाई पासति, सुणमाणे सदाई सुणेति, उहं अहं
पाईणं मुच्छ्रमाणे रूवेसु मुच्छति, सद्देसु आवि ( सू० ४१ )
प्रज्ञापकदिगङ्गीकरणादूर्द्धदिग्व्यवस्थितं रूपगुणं पश्यति प्रासादतलहर्म्यादिषु, 'अध' मित्यवाङ् अधस्तात् गिरिशिखरप्रासादाधिरूढोऽधोव्यवस्थितं रूपगुणं पश्यति, अधःशब्दार्थे अवाङित्ययं वर्त्तते, गृहभित्त्यादिव्यवस्थितं रूपगुणं |तिर्यक् पश्यति, तिर्यक्शब्देन चात्र दिशोऽनुदिशश्च परिगृह्यन्ते, ताश्चेमा :- 'प्राचीन' मिति पूर्वा दिग्, एतच्चोपलक्षणम्, | अन्या अप्येतदाद्यास्तिर्यग्दिशो द्रष्टव्या इति, एतासु दिक्षु पश्यन् चक्षुर्ज्ञानपरिणतो रूपादिद्रव्याणि चक्षुर्ग्राह्यतया परिणतानि पश्यति - उपलभत इत्यर्थः, तथा तासु च शृण्वन् शृणोति शब्दानुपयुक्तः श्रोत्रेण नान्यथेति ॥ अत्रोपलब्धिमात्रं
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अध्ययनं १
उद्देशक: ५
॥ ६३ ॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [४१], नियुक्ति: [१५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४१]
दीप अनुक्रम [४२]
प्रतिपादितं, न चोपलब्धिमात्रात्संसारप्रपातः, किन्तु यदि मूर्छा रूपादिषु करोति, ततोऽस्य बन्ध इति दर्शयितुमाह'उह'मित्यादि पुनरूद्वादेर्मू सम्बन्धनार्थमुपादानं, मूर्छन् रूपेषु मूर्छति, रागपरिणाम यान् रज्यते रूपादिष्वित्यर्थः, एवं शब्देष्वपि मूर्छति, अपिशब्दः सम्भावनायां समुच्चये वा, रूपशब्दविषयग्रहणाच्च शेषा अपि गन्धरसस्पशों| गृहीता भवन्ति, 'एकग्रहणे तज्जातीयानां ग्रहणाद्, आद्यन्तग्रहणाद्वा तन्मध्यग्रहणमवसेयमिति ॥ एवं विषयलोकमाख्याय विवक्षितमाह___एस लोए वियाहिए एत्थ अगुत्ते अणाणाए (सू० ४२)
'एप' इति रूपरसगन्धस्पर्शशब्दविषयाख्यो लोको व्याख्यातः, लोक्यते परिच्छिद्यते इतिकृत्वा, एतस्मिंश्च प्रस्तुते शब्दादिगुणलोकेऽगुप्तो यो मनोवाकायैः मनसा द्वेष्टि रज्यते वा वाचा प्रार्थनं शब्दादीनां करोति कायेन शब्दादि| विषयदेशमभिसर्पति, एवं यो गुप्तो भवति सोऽनाज्ञायां वर्तते, न भगवत्प्रणीतवचनानुसारीतियावदिति ॥ एवंगुणश्च यत्कुर्यात्तदाह
पुणो पुणो गुणासाए, वंकसमायारे (सू०४३) ततश्चासावसकृच्छब्दादिगुणलुब्धो न शक्नोत्यात्मानं शब्दादिगृद्धेनिवर्त्तयितुम् , अनिवर्तमानश्च पुनः पुनर्गुणास्वादो दि भवति, क्रियासातत्येन शब्दादिगुणानास्वादयतीत्यर्थः, तथा च यादृशो भवति तद्दर्शयति-वक्र:-असंयमः कुटिलो
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [५], मूलं [४३], नियुक्ति: [१५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४३]
श्रीआचा- रावृत्तिः (शी०)
उहेशका५
॥६४॥
दीप
अनुक्रम
नरकादिगत्याभिमुख्यप्रवणत्वात् , समाचरणं समाचारः-अनुष्ठान, वक्रः समाचारो यस्यासौ चक्रसमाचारः, असंयमानुष्ठायीत्यर्थः, अवश्यमेव शब्दादिविषयाभिलाषी भूतोपमईकारीत्यतो वक्रसमाचारः, प्राक् शब्दादिविषयलवसमास्वादनाद्वृद्धः पुनरात्मानमाचारयितुमसमर्थत्वादपथ्याम्रफलभोजिराजबद्धिनाशमाशु संश्रयत इति ॥ एवं चासौ नितरां जितः शब्दादिविषयसमास्वादनात् 'खंतपुत्तोच' इदमाचरति
पमत्तेऽगारमावसे (सू०४४) प्रमत्तो विषयविषमूर्छितः 'अगारं' गृहमावसति, योऽपि द्रव्यलिङ्गसमन्वितः शब्दादिविषयप्रमादवान् असावपि [विरतिरूपभावलिङ्गरहितत्वात् गृहस्थ एवेति ॥ अन्यतीर्थिकाः पुनः सर्वदा सर्वथाऽन्यथावादिनोऽन्यथाकारिण इति दर्शयितुमाह
लजमाणा पुढो पास, अणगारा मोत्ति एगे पवदमाणा जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वणस्सइकम्मसमारंभेणं वणस्सइसत्थं समारभमाणा अपणे अणेगरूवे पाणे विहिंसंति, तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेदिता, इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जातीमरणमोयणाए दुक्खपडिघायहेउं से सयमेव वणस्सइसत्थं समारंभइ अण्णेहिं वा वणस्सइसत्थं समारंभावेइ अपणे वा वणस्सइसत्थं समारभमाणे
[४४]
ACCCCESANSADS
x
॥१४॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [9], मूलं [४५], नियुक्ति: [१५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[४५]
दीप
अनुक्रम [४६]
समणुजाणइ, तं से अहियाए तं से अवोहीए, से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्टाए सोच्चा भगवओ अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेसिं णायं भवति-एस खलु गंथे एस खलु मोहे एस खलु मारे एस खलु णरए, इच्चत्थं गड्डिए लोए, जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वणस्सइकम्मसमारंभेणं वणस्सइसत्थं समारंभमाणे अपणे अणेगरूवे पाणे
विहिंसंति (सू०४५) प्राग्वत् ज्ञेयं, नवरं बनस्पत्यालापो विधेय इति ॥ साम्प्रतं वनस्पतिजीवास्तित्वे लिङ्गमाह__ से बेमि इमपि जाइधम्मयं एयपि जाइधम्मयं इमंपि वुड्डिधम्मयं एयपि वुविधम्मयं
इमंपि चित्तमंतयं एयंपि चित्तमंतयं इमंपि छिपणं मिलाइ एयंपि छिपणं मिलाइ इमंपि आहारगं एयपि आहारगं इमंपि अणिच्चयं एयपि अणिच्चयं इमंपि असासयं एयपि असासयं इमपि चओवचइयं एयंपि चओवचइयं इमंपि विपरिणामधम्मयं एयपि विपरिणामधम्मयं (सू०४६)
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [9], मूलं [४६], नियुक्ति: [१५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[४६]
॥६५॥
दीप अनुक्रम [४७]
श्रीआचा- सोऽहमुपलब्धतत्त्वो ब्रवीमि, अथवा वनस्पतिचैतन्यं प्रत्यक्षप्रमाणसमधिगम्यमानस्वरूपं यत्तदहं ब्रवीमि, यथा-1 अध्ययनं १ राङ्गवृत्तिः प्रतिज्ञातमर्थ दर्शयति–'इमपि जाइधम्मय'ति इहोपदेशदानाय सूत्रारम्भस्तद्योग्यश्च पुरुषो भवत्यतस्तस्य सामर्थ्येन सन्निहितत्वात्तच्छरीरं प्रत्यक्षासन्नवाचिनेदमा परामृशति, इदमपि-मनुष्य शरीरं, जनन-जातिरुत्पत्तिस्तद्धर्मकम्, एत
उद्देशक: ५ (शी०)
दपि वनस्पतिशरीरं तद्धर्मक-तत्स्वभावमेव, इतिपूर्वकोऽपिशब्दः सर्वत्र यथाशब्दार्थे द्वितीयस्तु समुच्चये व्याताख्येयः, ततश्चायमर्थः-यथा मनुष्यशरीरं बालकुमारयुववृद्धतापरिणामविशेषवत् चेतनावत्सदाधिष्ठितं प्रस्पष्टचेतनाक
मुपलभ्यते, तथेदमपि वनस्पतिशरीरं, यतो जातः केतकतरुर्बालको युवा वृद्धश्च संवृत्त इति, अतस्तुल्यत्वादेतदपि जातिधर्मक, न च कश्चिद्विशेषोऽस्ति, येन सत्यपि जातिधर्मत्वे मनुष्यादिशरीरमेव सचेतनं न वनस्पतिशरीरमिति, ननु च जातिधर्मत्वं केशनखदन्तादिष्वप्यस्ति, अव्यभिचारि च लक्षणं भवत्यस्ति च व्यभिचारः, तस्मादयुक्तं कल्प-12 यितुं जातिधर्मत्वं जीवलिङ्गामिति, उच्यते, सत्यमस्ति जननमात्रं, किन्तु मनुष्यशरीरप्रसिद्धबालकुमारकाद्यवस्थानामसम्भवः केशादिष्वस्ति स्फुटः, तस्मादसमञ्जसमेतद् , अपि च-केशनखं चेतनावपदार्थाधिष्ठितशरीरस्थं जातमित्युच्यते, वर्द्धते इति वा, न पुनस्त्वयैवं तरवोऽपि चेतनावत्सदार्थाधारस्था इष्यन्ते, वन्मते भुवोऽचेतनत्वात्तस्मादयुक्तमिति । अथवा जातिधर्मत्वादीनि समुदितानि सूत्रोक्तान्येक एव हेतुः, न पृथक् हेतुता, न च समुदायहेतुः केशादिष्वस्ति || | तस्माददोष इति । तथा यथेदं मनुष्यशरीरकमनवरतं बालकुमाराद्यवस्थाविशेषैर्वर्धते, तथैतदपि वनस्पतिशरीरमङ्कुर-13 किशलयशाखाप्रशाखादिभिर्विशेषैर्वर्द्धत इति, तथा यथेदं मनुष्यशरीरं चित्तवदेवं वनस्पतिशरीरमपि चित्तवत् ,
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [9], मूलं [४६], नियुक्ति: [१५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४६]
दीप अनुक्रम [४७]
कथम् !, चेतयति येन तच्चित्तं-ज्ञानं, ततश्च यथा मनुष्यशरीरं ज्ञानेनानुगतमेवं वनस्पतिशरीरमपि, यतो धात्री पुन्नाटादीनां स्वापविबोधसद्भावः तथाऽधोनिखातदविणराशेः स्वप्ररोहणावेष्टनं प्रावृड्जलधरनिनादशिशिरवायुसंस्पर्शादकुरोझेदः, तथा मदमदनसङ्गस्खलद्गतिविघूर्णमानलोललोचनविलासिनीसन्नूपुरसुकुमारचरणताडनादशोकतरोः पल्लवकुसुमोगमः, तथा सुरभिसुरागण्डूपसेकाद्वकुलस्य स्पृष्टप्ररोहिकादीनां च हस्तादिसंपर्शात्सङ्कोचादिका परिस्फुटा क्रियोपलब्धिः, न चैतदभिहिततरुसम्बन्धि क्रियाजालं ज्ञानमन्तरेण घटते, तस्मात्सिद्धं चित्तवत्वं वनस्पतेः इति । तथा यथेदं छिन्नं म्लायति तथैतदपि छिन्नं म्लायति, मनुष्यशरीरं हि हस्तादि छिन्न म्लायति-शुष्यति, तथा तरुशरीरमपि पल्लवफलकुसुमादि छिन्नं शोषमुपगच्छत् दृष्टं, न चाचेतनानामयं धर्म इति । तथा यथेदं मनुष्यशरीरं स्तनक्षीरव्यञ्जनौदनाद्याहाराभ्यवहारादाहारक तथैतदपि वनस्पतिशरीरं भूजलाद्याहाराभ्यवहारकं, न चैतदाहारकत्वमचेतनानां दृष्टम् , अतस्तद्भावात्सचेतनत्वमिति । तथा यथेदं मनुष्यशरीरमनित्यक-न सर्वदाऽवस्थायि तथैतदपि वनस्पतिशरीरमनित्यं नियतायुष्कत्वात् , तथाहि-अस्य दश वर्षसहस्राणि उत्कृष्टमायुः । तथा यथेदं मनुष्यशरीरमशाश्वत-प्रतिक्षणमावीचीमरणेन मरणात् तथैतदपि वनस्पतिशरीरमिति । तथा यथेदमिष्टानिष्टाहारादिप्राप्त्या 'चयापचयिक' वृद्धिहान्यास्मकं तथैतदपि इति । तथा यथेदं मनुष्यशरीरं विविधपरिणामः-तत्तद्रोगसम्पकोत् पाण्डुत्वोदरवृद्धिशोफकृशत्वाङ्गलिनासिकाप्रवेशादिरूपो बालादिरूपो वा, तथा रसायनस्नेहाद्युपयोगाद्विशिष्टकान्तिवलोपचयादिरूपो विपरिणामः तद्धर्मकतत्स्वभावकं तथैतदपि वनस्पतिशरीरं तथाविधरोगोद्भवात्पुष्पपत्रफलत्वगाद्यन्यथाभवनात् तथा विशिष्टदौहृदप्रदानेन
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [9], मूलं [४६], नियुक्ति: [१५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
अध्ययन
प्रत सूत्रांक
उद्देशकः ५
रावृत्तिः (शी०)
[४६]
दीप अनुक्रम [४७]
पुष्पफलाद्युपचयाद्विपरिणामधर्मकम् । एवमनन्तरोक्तधर्मकलापसद्भावादसंशयं गृहाणैतत्-सचेतनास्तरव इति ॥ एवं वनस्पतेश्चैतन्यं प्रदर्य तदारम्भे बन्धं तत्परिहाररूपविरत्यासेवनेन च मुनित्वं प्रतिपादयशुपसञ्जिहीर्षराह
पत्थ सत्थं समारभमाणस्स इच्छेते आरंभा अपरिष्णाता भवंति, एत्थ सत्थं असमारभमाणस्स इच्छेते आरंभा परिणाया भवंति, तं परिणाय मेहावी व सर्य वणस्सइसत्थं समारंभेजा णेवण्णेहि वणस्सइसत्थं समारंभावेजा णेवणे वणस्सइसत्थं समारंभंते समणुजाणेजा, जस्सेते वणस्सतिसत्थसमारंभा परिणाया भवंति से हु
मुणी परिषणायकम्मे (सू०४७)त्ति बेमि ॥ पञ्चम उद्देशकः समाप्तः॥ 'एतस्मिन्' वनस्पती शस्त्रं द्रव्यभावाख्यमारभमाणस्येत्येते आरम्भा अपरिज्ञाता-अप्रत्याख्याता भवन्ति, एतस्मिंश्च वनस्पती शस्त्रमसमारभमाणस्येत्येते आरम्भाः परिज्ञाता:-प्रत्याख्याता भवन्तीति पूर्ववचर्च:, यावत् स एव मुनिः परिज्ञातकर्मेति ब्रवीमि पूर्ववदिति । शत्रपरिज्ञाध्ययने पञ्चमोद्देशकटीका परिसमाप्तेति । । उक्तः पञ्चमोद्देशकः, साम्प्रतं षष्ठः समारभ्यते-अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके वनस्पतिकायः प्रतिपादितः, तदनन्तरं च त्रसकायस्यागमे परिपठितत्वात् तत्स्वरूपाधिगमायायमुद्देशकः समारभ्यते, तस्य चोपक्रमादीनि चत्वार्य
| प्रथम अध्ययने षष्ठम् उद्देशक: 'त्रसकाय:' आरब्धः,
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [६], मूलं [४७...], नियुक्ति : [१५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४७]
दीप
अनुक्रम [४८]
नुयोगद्वाराणि चाच्यानि, यावन्नामनिष्पन्ने निक्षेपे बसकायोद्देशकः, तत्र त्रसकायस्य पूर्वप्रसिद्धद्वारकमातिदेशाय तद्विभिन्नलक्षणद्वाराभिधानाय च नियुक्तिकृदाह
तसकाए दाराई ताई जाई हवंति पुढवीए । नाणत्ती उ विहाणे परिमाणुवभोगसत्थे य ॥१५२॥
वस्यन्तीति प्रसास्तेषां कायस्त्रसकायस्तस्मिंस्तान्येव द्वाराणि भवन्ति यानि पृथिव्यां प्रतिपादितानि, नानात्वं तु विधा|नपरिमाणोपभोगशस्त्रद्वारेषु, चशब्दालक्षणे च प्रतिपत्तव्यमिति ॥ तत्र विधानद्वारमाह--
दुविहा खलु तसजीवा लद्धितसा चेव गइतसा चेव । लद्धीय तेउवाऊ तेणऽहिगारो इहं नत्थि ॥१५३ ।। 'द्विविधा' विभेदाः, खलुरवधारणे, त्रसत्वं प्रति द्विभेदत्वमेव, बसनातू-स्पन्दनात् त्रसाः, जीवनात्माणधारणाजीवाः, वसा एव जीवास्त्रसजीवाः, लब्धिनसा गतित्रसाश्च, लब्ध्या तेजोवायू असौ, लब्धिस्तच्छक्तिमात्रं, लब्धित्रसाभ्यामिहाधिकारो नास्ति, तेजसोऽभिहितत्याद्वायोश्चाभिधास्यमानत्वाद्, अतः सामर्थ्यागतिवसा एवाधिक्रियन्ते ॥ के पुनस्ते ४ कियझेदा वेत्यत आह--
नेरइयतिरियमणुया सुरा य गइओ चउब्विहा चेव । पज्जत्ताऽपज्जत्ता नेरहयाई अ नायव्वा ॥ १५४ ॥ नारका-रत्नप्रभादिमहातम पृथ्वीपर्यन्तनरकावासिनः सप्तभेदार, तिर्यश्चोऽपि द्वित्रिचतुष्पश्चेन्द्रियाः, मनुष्याः सम्मूर्छनजाः गर्भव्युत्क्रान्तयश्च, सुरा भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकाः, एते गतित्रसाश्चतुर्विधाः, नामकर्मोदया
SAGAR
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [६], मूलं [४७...], नियुक्ति : [१५४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४७]]
अध्ययन उद्देशक
दीप
अनुक्रम [४८]
श्रीआचा- भिनिवृत्चगतिलाभाद्गतित्रसत्वम्, एते च नारकादयः पर्याप्तापर्याप्तभेदेन द्विविधा ज्ञातव्याः, तत्र पर्याप्तिः पूर्वोक्तव राङ्गवृत्तिःपोढा, तया यथासम्भवं निष्पन्नाः पर्याप्ताः, तद्विपरीतास्त्वपर्याप्तका अन्तर्मुहुर्त्तकालमिति ॥ इदानीमुत्तरभेदानाह(शी०) तिविहा तिविहा जोणी अंडापोअअजराउआ चेव । बेईदिय तेइन्दिय चउरो पंचिंदिया चेव ॥१५५॥ दारं ॥
___ अत्र हि शीतोष्णमिश्रभेदात्तथा सचित्ताचित्तमिश्रभेदात्तथा संवृतविवृततदुभयभेदात्तथा खीऍनपुंसकभेदाचेत्या॥६७॥
दीनि बहूनि योनीनां त्रिकाणि सम्भवन्ति, तेषां सर्वेषां सङ्ग्रहार्थं त्रिविधा त्रिविधेति वीप्सानिर्देशः, तत्र नारकाणामाद्यासु तिसृषु भूमिषु शीतैव योनिः चतुर्थ्यामुपरितननरकेषु शीता अधस्तननरकेषूष्णा पञ्चमीषष्ठीसप्तमीपूष्णव नेतरे, गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यमनुष्याणामशेषदेवानां च शीतोष्णा योनिर्नेतरे, द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियसंमूर्छनजतिर्यड्मनुष्याणां त्रिविधाऽपि योनिः शीता उष्णा शीतोष्णा चेति, तथा नारकदेवानामचित्ता नेतरे, द्वीन्द्रियादिसम्मूर्छनजपञ्चेन्द्रिय|तिर्यअनुष्याणां त्रिविधाऽपि योनिः सचित्ताचित्ता मिश्रा च, गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यमनुष्याणां मिश्रा योनिर्नेतरे, तथा देवनारकाणां संवृता योनिर्नेतरे, द्वित्रिचतुरिन्द्रियसम्मूर्छनजपञ्चेन्द्रियतिर्यमनुष्याणां विवृता योनिर्नेतरे, गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यग्मनुष्याणां संवृतविवृता योनिर्नेतरे, तथा नारका नपुंसकयोनय एव, तिर्यश्चस्त्रिविधाः-खीपुनपुंसकयोनयोऽपि, मनुष्या| अप्येवं त्रैविध्यभाजः, देवाः खीयोनय एव, तथाऽपरं मनुष्ययोनेजैविध्यं, तद्यथा-कूमोन्नता, तस्यां चाहेतूचक्रवत्यों
शीता शीतोष्णेति । तत्र नारकाणामाद्यासु तिमधु भूमिपूष्णेन योनिः चतुर्थ्यामुपरितननरकेषूणाऽचन्तननरकेषु शीता पणनीषष्ठीसप्तमीषु शीतैच नेतरे इति पा., मतान्तराभिप्रायकवायं पाठः, अस्ति सङ्ग्रहणीयत्तावेवं मतद्वयमपि.
॥
७॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [६], मूलं [४७...], नियुक्ति : [१५५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४७]
%2594
दीप
अनुक्रम [४८]
दिसत्पुरुषाणामुत्पत्तिः, तथा शङ्कावर्ता, सा च स्त्रीरलस्यैव, तस्यां च प्राणिनां सम्भवोऽस्ति न निष्पत्तिः, तथा वंशी-18 पत्रा, सा च प्राकृतजनस्येति, तथाऽपरं त्रैविध्यं नियुक्तिकृद्दर्शयति-तद्यथा-अण्डजाः पोतजाः जरायुजाश्चेति, तत्रा
ण्डजाः पक्ष्यादयः, पोतजाः बल्गुलीगजकलभकादयः, जरायुजा गोमहिषीमनुष्यादयः, तथा द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियभे-10 पदाच भिद्यन्ते, एवमेते प्रसाखिविधयोन्यादिभेदेन प्ररूपिताः, एतद्योनिसङ्क्राहिण्यौ च गाथे-'पुढेविदगअगणिमारुय
पत्तेयनिओयजीवजोणीणं । सत्तग सत्तग सत्तग सत्तग दस चोद्दस य लक्खा ॥१॥ विगलिंदिएमु दो दो चउरो चउरो ४ाय नारयसुरेसु । तिरियाण होम्ति चउरो चोद्दस मणुआण लक्खाई ॥२॥ एवमेते चतुरशीतियोनिलक्षा भवन्ति, तथा
कुलपरिमाणं 'कुर्लकोडिसयसहस्सा बत्तीसढनव य पणवीसा । एगिदियवितिइंदियचरिंदियहरियकायाणं ॥१॥ अद्धत्तेरस बारस दस दस नव चेव कोडिलक्खाई। जलयरपक्खिचउप्पयउरभुयपरिसप्पजीवाणं ॥२॥ पणुवीसं छव्वीसं च सयसहस्साई नारयसुराणं । बारस य सयसहस्सा कुलकोडीणं मणुस्साणं ॥ ३ ॥ एगा कोडाकोडी सत्ताण| उतिं च सयसहस्साई । पञ्चासं च सहस्सा कुलकोडीणं मुणेयव्वा ॥४॥ अङ्कतोऽपि १९७५००००००००००० सकलकुलसङ्घहोऽयं बोद्धव्य इति ॥ उक्ता परूपणा, तदनन्तरं लक्षणद्वारमाह
१ पृष्युदकानिमारतप्रत्येकनिमोदजीवयोनीनाम् । सप्त सप्त सप्त सप्त दश चतुर्दश च लक्षाः ॥१॥ विकलेन्द्रियेषु देदे चतनवतखध नारकारयोः । तिरां भवन्ति चतलचतुदेश मनुष्याणां लक्षाः ॥२॥ २कुलकोटिशतसहस्राणि द्वात्रिंशत् अष्टाएनन च पक्षविंशतिः । एकेन्द्रिय द्वितीन्द्रियचतुरिन्द्रियहरितकायानाम् ॥१॥ अत्रयोदश द्वादमा दश दवा नव व कोरीलक्षाः । जलचरपक्षिचतुष्पदोरोभुजपरिसपंजीचानाम् ॥२॥ पचविंशतिः पविशतिष शतसहस्राणि नारकमुरयोः । द्वादश च शतसहस्राणि कुलकोटीमा मनुष्याणाम् ॥३॥ एका कोटी कोटी सप्तनपतिश्च पातसहखाणि । पचापाच सहवाणि कुलकोटीनां भुमितव्यानि ॥४॥ सत्तद्वय नव य अहवीसं च । बेइन्दियतेन्दिय. प्र.
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150-
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[४७]
दीप
अनुक्रम
[४८]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [६], मूलं [४७...], निर्युक्तिः [१५६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित......आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचा राङ्गवृत्तिः
(शी०)
।। ६८ ।।
दंसणनाणचरिते चरियाचरिए अ दाणलाभे अ । उबभोग भोगबीरिय इंदियविसए य लद्धी व ॥ १५६ ॥ उवओगजोगअज्झवसाणे वीसुं च लद्धि ओदइया (णं उदया)। अट्ठविहोदय लेसा सन्नुसासे कसाए अ १५७ 'दर्शनं' सामान्योपलब्धिरूपं चक्षुरचक्षुरवधिकेचलाख्यं मत्यादीनि ज्ञानानि स्वपरपरिच्छेदिनो जीवस्य परिणामाः ज्ञानावरणविगमव्यक्तास्तत्त्वार्थपरिच्छेदाः, सामायिकच्छेदोपस्थाप्यपरिहारविशुद्धि सूक्ष्मसम्पराययथाख्यातानि चारित्रं, चारित्राचारित्रं देशविरतिः स्थूलप्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणं श्रावकाणां, तथा दानलाभभोगोपभोगवीर्यश्रोत्रचक्षुर्घाणरसनशनाख्याः दश उब्धयः जीवद्रव्याव्यभिचारिण्यो लक्षणं भवन्ति, तथोपयोगः- साकारोऽनाकारश्चाष्टचतुर्भेदः, योगो मनोवाक्कायाख्यस्त्रिधा, अध्यवसायाश्चानेकविधाः सूक्ष्माः मनःपरिणामसमुत्थाः, विष्त्रम् - पृथग् लब्धीनामुदयाःप्रादुर्भावाः क्षीरमध्वास्रवादयः, ज्ञानावरणाद्यन्तरायावसानकर्माष्टकस्य स्वशक्तिपरिणाम उदयः, लेश्याः- कृष्णादिभेदा | अशुभाः शुभाश्च कषाययोगपरिणामविशेषसमुत्थाः, संज्ञास्त्वाहारभयपरिग्रहमैथुनाख्याः, अथवा दशभेदाः अनन्तरोकाश्चतस्रः क्रोधाद्याश्च चतस्रस्तथैौघसंज्ञा लोकसंज्ञा च, उच्छ्रासनिःश्वासौ प्राणापानौ, कषायाः कषः - संसारस्तस्यायाः क्रोधादयोऽनन्तानुबन्ध्यादिभेदात् षोडशविधाः । एतानि गाथाद्वयोपन्यस्तानि द्वीन्द्रियादीनां लक्षणानि यथासम्भवमवगन्तव्यानीति, न चैवंविधलक्षणकलापसमुच्चयो घटादिष्वस्ति, तस्मात्तत्राचैतन्यमध्यवस्यन्ति विद्वांसः ॥ अभिहितलक्षणकलापोपसजिहीर्षया तथा परिमाणप्रतिपादनार्थ गाथामाह
लक्खणमेवं चेव उ पयरस्स असंखभागमित्ता उ । निक्खमणे य पवेसे एगाईयावि एमेव ॥ १५८ ॥
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अध्ययनं १ उद्देशकः ६
॥ ६८ ॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [६], मूलं [४७...], नियुक्ति : [१५८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४७]
दीप
अनुक्रम [४८]
तुशब्दः पर्याप्तिवचना, द्वीन्द्रियादिजीवानां लक्षणं-लिङ्गमेतावदेव दर्शनादि परिपूर्ण, नातोऽन्यदधिकमस्तीति । परिमाणं पुनः क्षेत्रतः संवर्तितलोकप्रतरासङ्कवेयभागवर्तिप्रदेशराशिपरिमाणात्रसकायपर्याप्तकाः, एते च पादरतेज-11 स्कायपर्याप्तकेभ्योऽसहायगुणाः, सकायपर्याप्तकेभ्यस्त्रसकायिकापर्याप्तकाः असवयेयगुणाः, तथा कालतः प्रत्युत्त-1 त्रसकायिकाः सागरोपमलक्षपृथक्त्वसमयराशिपरिमाणा जघन्यपदे, उत्कृष्टपदेऽपि सागरोपमलक्षपृथक्त्वपरिमाणा ए. वेति, तथा चागमः-"पडुप्पन्नतसकाइया केवतिकालस्स निलेवा सिया?, गोयमा! जहन्नपए सागरोवमसयसहस्सपुहुत्तस्स उकोसपदेऽवि सागरोवमसयसहस्सपुत्तस्स" । उद्वर्त्तनोपपाती गाथाशकलेनाभिदधाति-निष्क्रमणम्-उद्वर्तनं प्रवेश:उपपातः जघन्येनैको द्वौ त्रयो वा उत्कृष्टतस्तु 'एवमेवे ति प्रतरस्यासङ्खयेयभागप्रदेशपरिमाणा एवेत्यर्थः । साम्प्रतमविरहितप्रवेशनिर्गमाभ्यां परिमाणविशेषमाहनिक्खमपचेसकालो समयाई इत्थ आवलीभागो । अंतोमुहुत्तविरहो उदहिसहस्साहिए दोन्नि ॥१५९॥ दारं।
जघन्येन अविरहिता संतता त्रसेषु उत्पत्तिनिष्क्रमो वा जीवानामेकं समयं द्वौ त्रीन् वेत्यादि, उत्कृष्टेनात्रावलिकाऽसवधेयभागमात्रं कालं सततमेव निष्क्रमः प्रवेशो वा, एकजीवाङ्गीकरणेनाविरहश्चिन्त्यते गाथापश्चिमार्डेन-अविरहः सात-18 त्येनावस्थानम्, एकजीवो हि त्रसभावेन जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमासित्वा पुनः पृथिव्यायेकेन्द्रियेषूत्पद्यते, प्रकर्षणाधिकं सागरोपमसहस्रद्वयं च वसभावेनावतिष्ठते सन्ततमिति । उक्त प्रमाणद्वारं, साम्प्रतमुपभोगशत्रवेदनाद्वारत्रयप्रतिपादनायाह
१ प्रत्युत्पन्नत्रसकायिकाः क्रियता कालेन निर्लेपाः स्युः १, गौतम ! जघन्यपदे सागरोपमशतसहस्रपृषकत्वेन उत्कृष्टपदेऽपि सागरोपमशतसहस्रपृषक्वेन ।
आगम
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [६], मूलं [४७...], नियुक्ति : [१६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४७]
दीप
अनुक्रम [४८]
श्रीआचा- मसाईपरिभोगो सत्यं सत्धाइयं अणेगविहं । सारीरमाणसा वेयणा य दुविहा बहुविहा य ॥ १६० ॥ दारं अध्ययन राङ्गवृत्तिःला मांसचर्मकेशरोमनखपिच्छदन्तस्त्रावस्थिविषाणादिभिस्त्रसजीवसम्बन्धिभिरुपभोगो भवति, शस्त्रं पुनः 'शस्त्रादिक
18 उद्देशक (शी०) मिति' (शस्त्र) खड्गतोमरक्षुरिकादि तदादिर्यस्य जलानलादेस्तच्छस्त्रादिकमनेकविध-स्वकायपरकायोभयद्रव्यभावभेदभिन्न
मनेकप्रकारं त्रसकायस्येति, वेदना चात्र प्रसङ्गेनोच्यते-सा च शरीरसमुत्था मनःसमुत्था च द्विविधा यथासम्भव, ॥ १९॥
तत्राद्या शल्यशलाकादिभेदजनिता, इतरा प्रियविप्रयोगाप्रियसम्प्रयोगादिकृता, बहुविधा च ज्वरातीसारकासश्वासभगन्दरशिरोरोगशूलगुदकीलकादिसमुत्था तीब्रेति ॥ पुनरप्युपभोगप्रपश्चाभिधित्सयाऽऽह
मंसस्स केइ अट्ठा केइ चम्मस्स केइ रोमाणं । पिच्छाणं पुच्छाणं दंताणटा वहिजंति ॥ १६१॥
केई वहति अट्ठा केइ अणट्ठा पसंगदोसेणं । कम्मपसंगपसत्ता बंधंति बहंति मारंति ॥ १२॥ मांसाथै मृगशूकरादयो वध्यन्ते, चर्मार्थं चित्रकादयः, रोमार्थं मूपिकादयः, पिच्छार्थ मयूरगृद्धकपिञ्चुरुदुकादयः, पुच्छार्थ चमर्यादयः, दन्तार्थ वारणवराहादयः, वध्यन्त इति सर्वत्र सम्बध्यते इति ॥ तत्र केचन पूर्वोक्तप्रयोजनमुद्दिश्य [प्रन्ति, केचित्तु प्रयोजनमन्तरेणापि क्रीडया नन्ति, तथा परे प्रसङ्गदोपात् मृगलक्षक्षिप्तेपुलेलुकादिना तदन्तरालव्यवस्थिता अनेके कपोतकपिञ्जलशुकसारिकादयो हन्यन्ते, तथा कर्म-कृष्याघनेकप्रकारं तस्य प्रसङ्गः-अनुष्ठान तत्र प्रसक्ताः-सन्निष्ठाः सन्तस्त्रसकायिकान् बहून् प्रन्ति रज्ज्वादिना, प्रन्ति-कशलकुटादिभिः ताडयन्ति, मारयन्तिमाणैर्वियोजयन्तीति । एवं विधानादिद्वारकलापमुपवयें सकल नियुक्त्यर्थोपसंहारायाह---
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [६], मूलं [४८], नियुक्ति : [१६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४८]
दीप अनुक्रम
सेसाई दाराई ताई जाई हवंति पुढवीए । एवं तसकार्यमी निजुत्ती कित्तिया एसा ॥ १३ ॥ उक्तव्यतिरिक्तानि शेषाणि द्वाराणि तान्येव वाच्यानि यानि पृथ्वीस्वरूपसमधिगमे निरूपितानि, अत एवमशेषद्वाराभिधानात्रसकाये नियुक्तिः कीर्तितैषा सकला भवतीत्यवगन्तव्येति ॥ साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम्
से बेमि संतिमे तसा पाणा, तंजहा-अंडया पोयया जराउआ रसया संसेयया
संमुच्छिमा उब्भियया उववाइया, एस संसारेत्ति पवुच्चई (सू०४८) अस्य चानन्तरपरम्परादिसूत्रसम्बन्धः प्राम्बद्वाच्यः, सोऽहं ब्रवीमि येन मया भगवद्वदनारविन्द विनिसृतार्थजाताव-| धारणात् यथावदुपलब्धं तत्त्वमिति, 'सन्ति' विद्यन्ते त्रस्यन्तीति त्रसाः-प्राणिनो द्वीन्द्रियादयः, ते च कियझेदाः किंप्रकाराश्चेति दर्शयति-तद्यथेति वाक्योपन्यासार्थः, यदिवा 'तत् प्रकारान्तरमर्थतो यथा भगवताऽभिहितं तथाऽहं भणामीति, अण्डाजाताः अण्डजाः-पक्षिगृहकोकिलादयः, पोता एव जायन्ते पोतजाः 'अन्येष्वपि दृश्यते'
(पा-३-२-१०१) इति जनेर्डप्रत्ययः, ते च हस्तिवल्गुलीचर्मजलूकादयः, जरायुवेष्टिता जायन्त इति जरायुजाः, पूर्व द वत् डप्रत्ययः, गोमहिष्यजाविकमनुष्यादयः, रसाजाता रसजाः-तकारनालदधितीमनादिषु पायुकृम्याकृतयोऽतिसूक्ष्मा
भवन्ति, संस्वेदाज्जाताः संस्वेदजा:-मत्कुणयूकाशतपदिकादयः, सम्मुर्छनाजाताः सम्मूर्छनजा:-शलभपिपीलिकामक्षिकाशालिकादयः, उद्भेदनमुद्भित्ततो जाता उद्भिजाः, पृषोदरादित्वाइलोपः, पतङ्गखजरीटपारीप्लवादयः, उपपाताजाता
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [६], मूलं [४८], नियुक्ति : [१६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
अध्ययन
प्रत सूत्रांक [४८]
उद्दशकाय
दीप अनुक्रम
श्रीआचा-1 उपपातजाः, अथवा उपपाते भवा औपपातिका:-देवा नारकाच, एवमष्टविधं जन्म यथासम्भव संसारिणो नातिवर्तन्ते, राङ्गवृत्तिः
एतदेव शास्त्रान्तरे त्रिविधमुपन्यस्तं "सम्मूर्छनगर्भोपपाता जन्म" (तत्त्वार्थ०अ०२ सू० ३२) रसस्वेदजोद्भिजाना (शी०) सम्मूर्चनजान्तःपातित्वात् अण्डजपोतजजरायुजानां गर्भजान्तःपातित्वात् देवनारकाणामीपपातिकान्तःपातित्वात
इति त्रिविधं जन्मेति, इह चाष्टविधं सोत्तरभेदत्वादिति । एवमेतस्मिन्नष्टविधे जन्मनि सर्वे त्रसजन्तवः संसारिणो निप॥७०॥
तन्ति, नैतद्व्यतिरेकेणान्ये सन्ति, एते चाष्टविधयोनिभाजोऽपि सर्वलोकप्रतीता बालाङ्गनादिजनप्रत्यक्षप्रमाणसमधिगम्याः, 'सन्ति च' अनेन शब्देन त्रैकालिकमस्तित्वं प्रतिपाद्यते त्रसानां, न कदाचिदेतैविरहितः संसारः सम्भवतीति, एतदेव दर्शयति-'एस संसारोत्ति पवुञ्चति' एषः-अण्डजादिप्राणिकलापः संसारः प्रोच्यते, नातोऽन्यखसानामुसत्तिप्रकारोऽस्तीत्युक्तं भवति ॥ कस्य पुनरत्राष्टविधभूतग्रामे उत्सत्तिर्भवतीत्याह___ मंदस्सावियाणओ (सू०४९)
मन्दो द्विधा द्रव्यभावभेदात, तत्र द्रव्यमन्दोऽतिस्थलोऽतिकृशो वा, भावमन्दोऽप्यनुपचितबुद्धियोलः कुशास्त्रवासितबुद्धिवा, अयमपि सद्बुद्धेरभावाद्वाल एव, इह भावमन्देनाधिकारः, मन्दस्खेति बालस्याविशिष्टबुद्धेः अत एव अविजानतो-हिताहितप्राप्तिपरिहारशून्यमनसः इत्येषोऽनन्तरोकः संसारो भवतीति ॥ यद्येवं ततः किमित्याह
निज्झाइत्ता पडिलेहिता पत्तेयं परिनिव्वाणं सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसि
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [६], मूलं [५०], नियुक्ति: [१६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५०]
दीप
अनुक्रम [५१]
जीवाणं सब्वेसि सत्ताणं अस्सायं अपरिनिव्वाणं महब्भयं दुक्खं तिबेमि, तसंति पाणा पदिसो दिसासु य (सू० ५०) एवमिमं त्रसकायमागोपालाङ्गनादिप्रसिद्ध निश्चयेन ध्यात्वा निाय चिन्तयित्वेत्यर्थः, क्त्वाप्रत्ययस्योत्तरक्रियापे-18 क्षत्वाद् ब्रवीमीत्युत्तरक्रिया सर्वत्र योजनीयेति । पूर्व च मनसाऽऽलोच्य ततः प्रत्युपेक्षणं भवतीति दर्शयति-पडिलेहेत्त'त्ति प्रत्युपेक्ष्य-दृष्ट्वा यथावदुपलभ्येत्यर्थः, किं तदिति दर्शयति-'प्रत्येक मित्येकमेकं बसकार्य प्रति परिनिर्वाणसुखं प्रत्येकसुखभाजः सर्वेऽपि प्राणिनः, नान्यदीयमन्य उपभुक्रे सुखमित्यर्थः, एष च सर्वप्राणिधर्म इति दर्शयति-सर्वेषां प्राणिनां-द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां, तथा सर्वेषां भूतानां-प्रत्येकसाधारणसूक्ष्मवादरपयोप्तकापर्याप्तकतरूणामिति, तथा सर्वेषां जीवानां-गर्भव्युत्क्रान्तिकसम्मूर्छनजौषपातिकपञ्चेन्द्रियाणां, तथा सर्वेषां सत्त्वानां-पृथिव्यायेकेन्द्रियाणामिति, इह च प्राणादिशब्दानां यद्यपि परमार्थतोऽभेदस्तथापि उक्तन्यायेन भेदो द्रष्टव्यः, उक्तं च-'प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः, भूतास्तु तरवः स्मृताः । जीवाः पञ्चेन्द्रियाः प्रोक्ताः, शेषाः सत्त्वा उदीरिताः॥१॥” इति, यदिवाशब्दव्युत्पत्तिद्वारेण समभिरूढनयमतेन भेदो द्रष्टव्यः, तद्यथा-सततप्राणधारणामाणाः कालत्रयभवनाद् भूताः त्रिकालजीवनात् जीवाः सदाऽस्तित्वात्सत्त्वा इति, तदेवं विचिन्त्य प्रत्युपेक्ष्य च यथा सर्वेषां जीवानां प्रत्येक परिनिवोण-सुखं तथा प्रत्येकमसातम्-अपरिनिर्वाणं महाभयं दुःखमहं ब्रवीमि, तत्र दुःखयतीति दुःखं, तद्विशिष्यते-किं
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [६], मूलं [५०], नियुक्ति: [१६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रीआचारावृत्तिः (शी०) ॥७१॥
अध्ययन उद्देशका ६
[५०]
दीप अनुक्रम [५१]
विशिष्टम् ?-'असातम्' असवेद्यकशिविषाकजमित्यर्थः, तथा 'अपरिनिर्वाण मिति समन्तात् सुखं परिनिर्वाणं न परि- निर्वाणमपरिनिर्वाणं समन्तात् शरीरमनःपीडाकरमित्यर्थः, तथा 'महाभय मिति महच तद्भयं च महाभयं, नातः परमन्यद् भयमस्तीति महाभयं, तथाहि-सर्वेऽपि शारीरान्मानसाच दुःखादुद्विजन्ते प्राणिन इति, इति शन्दएवमर्थे, एवमहं ब्रवीमि सम्यगुपलब्धतत्त्वो यत्प्रागुक्तमिति । एतच्च ब्रवीमीत्याह-'तसंती' त्यादि, एवं विधेन च असातादिविशेपणविशिष्टेन दुःखेनाभिभूतात्रस्यन्ति-उद्विजन्ति प्राणा इति प्राणिनः, कुतः पुनरुद्विजन्तीति दर्शयति-प्रगता दिक् प्रदिग्विदिक् इत्यर्थः, ततः प्रदिशः सकाशादुद्विजन्ति, तथा प्राच्यादिषु च दिक्षु व्यवस्थितास्त्रस्यन्ति, एताश्च प्रज्ञापकविधिविभक्ता दिशोऽनुदिशश्च गृह्यन्ते, जीवव्यवस्थानश्रवणात्, ततश्चायमर्थः प्रतिपादितो भवति काका-न काचिदिगनुदिग्वा यस्यां न सन्ति प्रसाः त्रस्यन्ति वा यस्यां स्थिताः कोशिकारकीटवत्, कोशिकारकीटो हि सर्वदिग्भ्योऽनु|दिग्भ्यश्च बिभ्यदात्मसंरक्षाणार्थं वेष्टनं करोति शरीरस्येति, भावदिगपि न काचित्तादृश्यस्ति यस्यां वर्तमानो जन्तुने वस्येत्, शारीरमानसाभ्यां दुःखाभ्यां सर्वत्र नरकादिषु जंघन्यन्ते प्राणिनोऽतस्वासपरिगतमनसः सर्वदाऽवगन्तव्याः॥ एवं सर्वत्र दिश्वनुदिक्षु च वसाः सन्तीति गृहीमः, दिग्विदिग्व्यवस्थितास्त्रसास्त्रस्यन्तीत्युक्तं, कुतः पुनस्वस्यन्ति । यस्मा|त्तदारम्भवनिस्ते व्यापाद्यन्ते, किं पुनः कारणं, ते तानारम्भन्त इत्यत आह
तत्थ तत्थ पुढो पास आतुरा परितावंति, संति पाणा पुढो सिया (सू०५१) 'तत्र तत्र' तेषु तेषु कारणेपूत्पन्नेषु वक्ष्यमाणेषु अर्चाजिनशोणितादिषु च पृथग्विभिन्नेषु प्रयोजनेषु, पश्येति शिष्य-|
KANGA
॥७१॥
[153]
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [६], मूलं [५१], नियुक्ति: [१६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[५१]
दीप अनुक्रम [१२]
चोदना, किं तत्पश्येति दर्शयति-मांसभक्षणादिगृद्धा आतुरा:-अस्वस्थमनसः परि-समन्तात्तापयन्ति-पीडयन्ति नानाविधवेदनोत्पादनेन प्राणिव्यापादनेन वा तदारम्भिणखसानिति, येन केनचिदारम्भेण प्राणिनां सन्तापनं भवतीति दर्शयन्नाह-'संती'त्यादि, 'सन्ति' विद्यन्ते प्रायः सर्वत्रैव प्राणा:-प्राणिनः 'पृथक्' विभिन्नाः द्वित्रिचतुःपश्चेन्द्रियाः ‘श्रिताः पृथिव्यादिश्रिताः, एतच्च ज्ञात्वा निरवद्यानुष्ठायिना भवितव्यमित्यभिप्रायः ॥ अन्ये पुनरन्यथावादिनोऽन्यथाकारिण इति दर्शयन्नाह
लजमाणा पुढो पास अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहि तसकायसमारंभेण तसकायसत्थं समारभमाणा अपणे अणेगरूवे पाणे विहिंसति, तत्थ खल्लु भगवया परिषणा पवेइया, इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जाईमरणमोयणाए दुक्खपडिघायहेउं से सयमेव तसकायसत्थं समारभति अण्णेहिं वा तसकायसत्थं समारंभावेइ अण्णे वा तसकायसत्थं समारभमाणे समणुजाणइ, तं से अहियाए तं से अबोहीए, से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाय सोचा भगवओ अणगाराणं अंतिए इहमेगेसिं णायं भवति-एस खलु गंथे एस खलु
[154]
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [६], मूलं [१२], नियुक्ति: [१६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२]
श्रीआचारावृत्तिः (शी०)
अध्ययनं १ उद्देशकः६
RECA
॥७२॥
दीप
अनुक्रम [५३]
मोहे एस खलु मारे एस खलु णरए, इच्चत्थं गहिए लोए जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहिं तसकायसमारंभेण तसकायसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे
विहिंसति (सू० ५२) पूर्ववत् व्याख्येय, यावत् 'अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइत्ति ॥ यानि कानिचित्कारणान्युद्दिश्य वसवधः क्रियते तानि दर्शयितुमाह
से बेमि अप्पेगे अच्चाए हणंति, अप्पेगे अजिणाए वहति, अप्पेगे मंसाए वहति, अप्पेगे सोणियाए वहंति, एवं हिययाए पित्ताए वसाए पिच्छाए पुच्छाए वालाए सिंगाए विसाणाए दंताए दाढाए णहाए पहारुणीए अट्ठीए अटिर्मिजाए अट्ठाए अणटाए, अप्पेगे हिंसिंसु मेत्ति वा वहति अप्पेगे हिंसंति मेत्ति वा वहति अप्पेगे
हिंसिस्संति मेत्ति वा वहति (सू० ५३) । तदहं ब्रवीमि यदर्थं प्राणिनस्तदारम्भप्रवृत्तव्योपाद्यन्त इति, अप्येकेऽयै मन्ति, अपिरुत्तरापेक्षया समुच्चयार्थः, 'एके' केचन तदर्थित्वेनातुराः, अर्च्यतेऽसावाहारालङ्कारविधानरित्यर्चा-देहस्तदर्थं व्यापादयन्ति, तथाहि-लक्षणवत्पुरु
RE
॥७२॥
*श्र
[155]
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [६], मूलं [५३], नियुक्ति: [१६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[५३]
दीप अनुक्रम [१४]
दापमक्षतमव्यक्तं व्यापाद्य तच्छरीरेण विद्यामन्त्रसाधनानि कुर्वन्ति उपयाचितं वा यच्छन्ति दुर्गादीनामप्रतः, अथवा विषं येन भक्षितं स हस्तिनं मारयित्वा तच्छरीरे प्रक्षिप्यते पश्चाद्विर्ष जीयति, तथा अजिनार्थ-चित्रकव्याघ्रादीन च्यापादयन्ति, एवं मांसशोणितहृदयपित्तवसापिच्छपुच्छवालशृङ्गविषाणदन्तदंष्ट्रानखस्नाय्वस्थ्यस्थिमिजादिष्वपि वाच्यं, मांसार्थ सूकरादया, त्रिशूलालेखार्थ शोणितं गृह्णन्ति, हृदयानि साधका गृहीत्वा मन्ति, पित्ता) मयूरादयः, साथ। व्याघ्रमकरवराहादयः, पिच्छार्थ मयूरगृध्रादयः, पुच्छार्थ रोझादयः, वालार्थ चमर्यादयः, शृङ्गार्थ रुरुखगादयः, तस्किल शृङ्गं पवित्रमिति याज्ञिका गृहणन्ति, विषाणार्थ हस्त्यादयः, दन्तार्धं शृगालादय: तिमिरापहत्वात्तद्दन्तानां, | दंष्ट्रा) वराहादयः, नखार्थ व्याघ्रादयः, स्नायवर्थ गोमहिष्यादयः, अस्थ्यर्थं शङ्खशुक्त्यादया, अस्थिमिजार्थं महिषवराहा-IN दयः, एवमेके यथोपदिष्टप्रयोजनकलापापेक्षया प्रन्ति, अपरे तु कृकलासगृहकोकिलादीन् विना प्रयोजनेन व्यापादयन्ति, अन्ये पुनः 'हिंसिसु मेति' हिंसितवानेपोऽस्मत्वजनान्सिहः सोऽरिर्वाऽतो प्रन्ति, मम वा पीडां कृतवन्त इत्यतो हन्ति, तथा अन्ये वर्तमानकाल एव हिनस्ति अस्मान् सिंहोऽन्यो वेति नन्ति, तथाऽन्येऽस्मानयं हिंसिष्यतीत्यनागतमेव सादिकं व्यापादयन्ति । एवमनेकप्रयोजनोपन्यासेन हननं त्रसविषयं प्रदश्य उद्देशकार्थमुपसमिहीराह
एस्थ सत्थं समारभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिणाया भवंति, एस्थ सत्थं असमारभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिणाया भवन्ति, तं परिपणाय मेहावी व सयं तस१ विषाणार्थ भृगालादयः, यन्तार्थ हस्त्यादयः इति प्र०, परं 'विषार्ग तु सड्ने कोलेभदन्तयोः' इत्यनेकार्थवचनानायमसुन्दरः,
--45CALERS
[156]
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [६], मूलं [५४], नियुक्ति : [१६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
शख.परि
प्रत सूत्रांक [१४]
उद्देशकः७
दीप
अनुक्रम [५५]
श्रीआचा- IDIL कायसत्थं समारंभेजा णेवऽपणेहिं तसकायसत्थं समारंभावेजा णेवऽण्णे तसकायसत्थं राङ्गवृत्तिः
समारंभंते समणुजाणेजा, जस्सेते तसकायसमारंभा परिणाया भवंति से हु मुणी (शी०)
परिणायकम्मे (सू० ५४) तिबेमि ॥ इति षष्ठ उद्देशकः ॥ ॥७३॥ प्राग्वद्वाच्य, यावत्स एव मुनित्रसकायसमारम्भविरतत्वात् परिज्ञातकर्मत्वात्प्रत्याख्यातपापकर्मत्वादिति ब्रवीमि |
भगवतः त्रिलोकबन्धोः परमकेवलालोकसाक्षात्कृतसकलभुवनप्रपञ्चस्योपदेशादिति षष्ठोद्देशकः समाप्तः ॥ | उक्तः पष्ठोद्देशकः, साम्प्रतं सप्तमः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्ध:-अभिनवधर्माणां दुःश्रद्धानत्वादल्पपरिभोगत्वादुत्क्रमायातस्योक्तशेषस्य वायोः स्वरूपनिरूपणार्थमिदमुपक्रम्यते-तदनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्योपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोगद्वाराणि वाच्यानि यावन्नामनिष्पन्ने निक्षेपे वायूद्देशक इति, तत्र वायोः स्वरूपनिरूपणाय कतिचिट्ठारातिदेशगी नियुक्तिकृद्गाथामाह
वाउस्सऽवि दाराई ताई जाई हवंति पुढवीए । नाणत्ती उ विहाणे परिमाणुवभोगसत्धेय ॥ १६४ ॥ वातीति वायुस्तस्य वायोरपि तान्येव द्वाराणि यानि पृथिव्यां प्रतिपादितानि, नानात्वं-भेदा, तच्च विधानपरिमाणोप|भोगशस्त्रेषु, चशब्दालक्षणे च द्रष्टव्यमिति ॥ तत्र विधानप्रतिपादनायाह
१वद्रावनीयं प्र.
| प्रथम अध्ययने सप्तमं उद्देशक: 'वायुकाय:' आरब्धः,
[157]
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [१४...], नियुक्ति : [१६५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४]
।
दीप
दुविहा उ वाउजीवा सुहुमा तह वायरा उ लोगंमि । सुहुमा य सम्बलोए पंचेव य वाघरविहाणा ॥१६॥ वायुरेव जीवा वायुजीवाः, ते च द्विविधाः-सूक्ष्मवादरनामकर्मोदयात् सूक्ष्मा बादराश्च, तत्र सूक्ष्माः सकललोकव्यापितया अवतिष्ठन्ते, दत्तकपाटसकलवातायनद्वारगेहान्तर्दूमवत् व्याप्त्या स्थिताः, बादरभेदास्तु पञ्चैवानन्तरगाथया वक्ष्यमाणा इति ।। बादरभेदप्रतिपादनायाह| उक्कलिया मंडलिया गुंजा घणवाय सुद्धवाया य । बायरवाउविहाणा पंचविहा वणिया एए ॥ १६६ ॥
स्थित्वा स्थित्वोत्कलिकाभियों याति स उत्कलिकावातः, मण्डलिकावातस्तु बातोलीरूपः, गुजा-भम्भा तद्वत् गुञ्जन ||3|| यो वाति स गुञ्जावातः, घनवातोऽत्यन्तधनः पृथिव्याद्याधारतया व्यवस्थितो हिमपटलकल्पो, मन्दस्तिमितः शीतकालादिषु शुद्धवातः, ये त्वन्ये प्रज्ञापनादौ प्राच्यादिवाता अभिहितास्तेषामेष्वेव यथायोगमन्तर्भावो द्रष्टव्य इति, एवमित्येते बादरवायुविधानानि-भेदाः 'पञ्चविधाः' पश्चप्रकारा व्यावर्णिता इति ॥ लक्षणद्वाराभिधित्सयाऽऽह
जह देवस्स सरीरं अंतद्धाणं व अंजणाईसुं । एओवम आएसो वाएऽसंतेऽपि रूबंमि ॥ १६७॥ यथा देवस्य शरीरं चक्षुषाऽनुपलभ्यमानमपि विद्यते चेतनावच्चाध्यवसीयते, देवाः स्वशक्तिप्रभावात्तथाभूतं रूपं कुर्च|न्ति यच्चक्षुषा नोपलभ्यते, न चैतद्वक्तुं शक्यते-नास्त्यचेतनं चेति, तद्वद्वायुरपि चक्षुषो विषयो न भवति, अस्ति च चित्तवांपाश्चेति, यथा वाऽन्तर्धानमन्जन विद्यामन्त्रैर्भवति मनुष्याणां, न च नास्तित्वमचेतनत्वं चेति, एतदुपमानो वायावपि भवति
१ एतदुरमानेन प्र.
अनुक्रम [५५]
[158]
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [१४...], नियुक्ति : [१६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४]
श्रीआचारावृत्तिः (शी०)
1७४
दीप
अनुक्रम [५५]
आदेशो' व्यपदेशोऽसत्यपि रूप इति, अत्र चासच्छब्दो नाभाववचना, किं त्वसद्रूपं वायोरिति चक्षुर्गाद्यं तद्रूपं न शशस्त्र परि१ भवति, सूक्ष्मपरिणामात्, परमाणोरिव, रूपरसस्पर्शात्मकश्च वायुरिष्यते, न यथाऽन्येषां वायुः सर्शवानेवेति, प्रयोगार्थश्च
उद्देशक | गाथया प्रदर्शितः, प्रयोगश्चार्य-चेतनावान् वायुः, अपरप्रेरिततिर्यगनियमितगतिमश्चात्, गवाश्वादिवत्, तियेगेव गमननियमाभावात् अनियमितविशेषणोपादानाच परमाणुनाऽनेकान्तिकासंभवः, तस्य नियमितगतिमत्त्वात् , जीवपुद्गलयोः 'अनुश्रेणिगति' (तस्वा० अ०२ सू०२७) रिति वचनात्, एवमेष वायुः-घनशुद्धवातादिभेदोऽशखोपहतश्चेतनावानवगन्तव्य इति ॥ परिमाणद्वारमाहजे वायरपजत्ता पयरस्स असंखभागमित्ता ते । सेसा तिन्निवि रासी वीसुं लोगा असंखिजा ॥ १६८ ॥ (दार)
ये वादरपर्याप्तका धायबस्ते संवर्तितलोकप्रतरासङ्खधेयभागवर्तिप्रदेशराशिपरिमाणाः, शेषास्त्रयोऽपि राशयो विष्वक्पृथगसङ्गधेयलोकाकाशप्रदेशपरिमाणा भवन्ति, विशेषश्चायमत्रावगन्तव्यः-बादरापकायपर्याप्तकेभ्यो बादरवायुपयोप्तका असलचेयगुणाः बादरापकायापर्याप्तकेभ्यो बादरवायुकायापर्याप्तका असङ्खयेयगुणाः सूक्ष्मापूकायापर्याप्तकेभ्यः सूक्ष्मवाय्वपर्याप्तका विशेषाधिकाः सूक्ष्मापकायपर्याप्तकेभ्यः सूक्ष्मवायुपर्याप्तका विशेषाधिकाः॥ उपभोगद्वारमाहवियणघमणाभिधारण उस्सिचणफुसणआणुपाण अ। बायरवाक्काए उवभोगगुणा मणुस्साणं ॥१९॥ व्यजनभखाध्माताभिधारणोसिञ्चनफूत्कारप्राणापानादिभिर्वादरवायुकायेन उपभोग एव गुण उपभोगगुणो मनुष्याणामिति ॥ शस्त्रद्वाराभिधित्सयाऽऽह, तत्र शस्त्रं द्रव्यभावभेदाद्विविध, द्रव्यशस्त्राभिधित्सयाऽऽह
॥॥७४॥
[159]
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [१४...], नियुक्ति : [१७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [५४]
दीप
विअणे अ तालवंटे सुप्पसियपत्त चेलकण्णे य । अभिधारणा य बाहिं गंधग्गी वाउसवाइं ॥१७॥ व्यजन-तालवृन्तं सूर्पसितपत्रचेलकर्णादयः द्रव्यशस्त्रमिति, तत्र सितमिति चामर, प्रविन्नो यदहिरवतिष्ठते वाताग-12 मनमागें साऽभिधारणा, तथा गन्धाः-चन्दनोशीरादीनां अग्निाला प्रतापश्च, तथा प्रतिपक्षवातश्च शीतोष्णादिका, प्रतिपक्षवायुग्रहणेन स्वकायादिशखं सूचितमिति, एवं भावशस्त्रमपि दुष्पणिहितमनोवाकायलक्षणमवगन्तव्यमिति ॥ | अधुना सकलनियुक्त्यर्थोपसञ्जिहीधुराह
सेसाई दारारं ताई जाई हवंति पढवीए । एवं वाउद्देसे निजत्ती कित्तिया एसा ॥ १७१॥ 'शेषाणि उक्तव्यतिरिक्तानि तान्येव द्वाराणि पृधिवीसमधिगमे यान्यभिहितानीति, एवं सकलद्वारकलापव्यावर्णनाद् वायुकायोद्देशके नियुक्तिः कीर्तितैषाऽवगन्तव्येति ॥ गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम्-'पहू एजस्स दुगुंछणाए'त्ति, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके पर्यन्तसूत्रे त्रसकायपरिज्ञानं तदारम्भवर्जनं च मुनित्वकारणमभिहितम् , इहापि तदेव द्वयं वायुकायविषयं मुनित्वकारणमेवोच्यते, तथा परम्परसूत्रसम्बन्धः 'इहमेगेसिं णो णायं भवइ'त्ति, किं तत् ज्ञातं भवति !, 'पहु एजस्स दुगुंछणाए'त्ति, तथा आदिसूत्रसम्बन्धश्च 'सुयं मे आउसंतेण' मित्यादि, किं तत् श्रुतं ?, यत्प्रागुपदिष्टं, तथैतच
पहू एजस्स दुगुंछणाए (सू० ५५) 'दुगुञ्छण'त्ति जुगुप्सा प्रभवतीति प्रभुः-समर्थः योग्यो वा, कस्य वस्तुनः समर्थ इति ?, 'एजृ कम्पने एजतीत्येजो
-%CC%ECXCXटर
अनक्रम
[160]
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [१४], नियुक्ति: [१७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचा- रागवृत्तिः (शी०)
सूत्रांक
[५५]
॥७५॥
दीप
वायुः कम्पनशीलत्वात् तस्यैजस्य जुगुप्सा-निन्दा तदासेवनपरिहारो निवृत्तिरितियावत् तस्या-तद्विषये प्रभुर्भवति, वा- शस्त्र परि१ युकायसमारम्भनिवृत्ती शक्तो भवतीतियावत्, पाठान्तरं वा 'पहू य एगस्स दुगुंछणाए' उद्रेकावस्थावर्त्तिनैकेन गुणेन स्पोख्येनोपलक्षित इत्येको-वायुस्तस्यैकस्य एकगुणोपलक्षितस्य वायोर्जुगुप्सायां प्रभुः, चशब्दात् श्रद्धाने च प्रभुर्भव-II
उद्देशक तीति, अर्थात् यदि श्रद्धाय जीवतया जुगुप्सते ततः॥ योऽसौ वायुकायसमारम्भनिवृत्ती प्रभुरुक्तस्तं दर्शयति
आयंकदंसी अहिंयंति णचा, जे अज्झत्थं जाणइ से बहिया जाणइ, जे बहिया जा
णइ से अज्झत्थं जाणइ, एयं तुलमन्नेसिं (सू०५६) 'तकि कृच्छ्रजीवन' इत्यातङ्कनमातङ्क:-कृच्छ्जीवन-दुःखं, तच्च द्विविध-शारीरं मानसं च, तत्राचं कण्टकक्षारशखगण्डलूतादिसमुत्थं, मानसं प्रियविप्रयोगाप्रियसम्प्रयोगेप्सितालाभदारियदौर्मनस्यादिकृतम्, एतदुभयमातङ्कः, एनमातङ्क पश्यति तच्छीलश्चेत्यातङ्कादशी, अवश्यमेतदुभयमपि दुःखमापतति मय्यनिवृत्तवायुकायसमारम्भे, ततश्चैतद्वायुका|यसमारम्भणमातङ्कहेतुभूतमहितमिति ज्ञात्वैतस्मान्निवर्त्तने प्रभुर्भवतीति । यदिवाऽऽतको द्वेधा-द्रव्यभावभेदात्, तत्र
द्रव्यातङ्के इदमुदाहरणम्-जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासंमि अस्थि सुपसिद्धं । बहुणयरगुणसमिद्धं रायगिहं णाम जयरंति 8॥१॥ तत्वासि गरुषदरियारिमद्दणो भुयणनिग्गयपयावो । अभिगयजीवाजीवो राया णामेण जियसत्तू ॥२॥ अण-|
१०मापतितमध्यनिवृत्त प्र. अत्रायोति सम्बोधनेऽन्यस्याश्चर्य वा. २ जम्बूद्वीपे द्वीपे भरते वर्षेऽस्ति सुप्रसिद्धम् । बहुनगरगुणसमृदं राजगृहं नाम नगरमिति ।। १॥ तत्रासीत् गुरुदप्तारिमर्दनो भुवननिर्गतप्रतापः । अभिगतजीवाजीयो राजा नान। जितशत्रः ॥३॥
अनक्रम
५६
॥७५॥
SAREauratonintamational
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [१६], नियुक्ति: [१७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [५६]
R-45225%
दीप
वरयगरुयसंवेगभाविओ धम्मघोसपामूले । सो अन्नया कयाई पमाइणं पासए सेहं ॥३॥ चोइजतमभिक्खं अवराह तं पुणोऽवि कुणमाणं । तस्स हियई राया सेसाण य रक्खणहाए ॥ ४॥ आयरिणाणुण्णाए आणावह सो उणिययपुरि
सेहि । तिब्बुकडदव्येहिं संधियपुव्वं तहिं खारं ॥ ५॥ पक्खित्तो जत्थ णरो णवरं गोदोहमेत्तकालेणं । णिज्जिण्णमंससो. [णिय अद्वियसेसत्तणमुवेइ ॥६॥ दो ताहे पुवमए पुरिसे आणावए तहिं राया। एगं गिहत्थवेस बीयं पासंडिणेवत्थं
॥७॥ पुच्वं चिय सिक्खविए ते पुरिसे पुच्छए तहिं राया। को अवराहो एसिं? भणति आणं अइक्कमइ ॥८॥ पार्सडिओ जहुत्ते ण वट्टइ अत्तणो य आयारे । पक्खिवह खारमझे खित्ता गोदोहमेत्तस्स ॥९॥ दणऽहिवसेसे ते पुरिसे 5 अलियरोसरत्तच्छो । सेहं आलोयंतो राया तो भणइ आयरियं ॥ १०॥ तुम्हवि कोऽवि पमादी? सासेमि य तंपि णस्थि भणइ गुरू । जइ होही तो साहे तुम्हे चिय तस्स जाणिहिह ॥११॥ सेहो गए णिवमी भणई ते साहुणो उ ण पुणत्ति । होई पमायसीलो तुम्हं सरणागओ धणियं ॥ १२ ॥ जइ पुण होज पमाओ पुणो मर्म सहुभावरहियस्स । तुम्ह गुणेहिं
१ अनवरतगुरुसंवेगभावितो धर्मघोषपादमूले । सोऽन्यदा कदाचित्प्रमादिनं पश्यति शिष्यम् ॥ ३॥ योद्यमानमभीक्ष्णमपरावं तं पुनरपि कुर्वन्तम् । तस्य हितार्थ रामा शेषाणां च रक्षणार्थाय ॥ ४ ॥ आचार्यानुज्ञया आनयति स तु निजपुरुषैः । तीनोत्कटायन्यैः संयुक्तपूर्ण तत्र क्षारम् ॥ ५॥ प्रक्षिप्तो पत्र नरो नवरं गोदो. हमात्रकालेन । निजीमांसशोणितोऽस्थिशेषत्वमुपैति ॥ ६॥ द्वौ तदा पूर्वमृती पुरुषावानयति तत्र राजा । एक गृहस्थवेयं द्वितीयं पापम्बिनेपथ्यम् ॥ ७॥ पूर्वमेव शिक्षितान् तान् पुरुषान् पृच्छति रात्र राजा। कोऽपराधोऽनयो। भणन्ति आज्ञामतिकामति ॥४॥ पाखन्छिको मधोके म वर्तते आत्ममधाचारे । प्रक्षिपत क्षारमध्ये क्षिातौ गोवोहमात्रेण ॥९॥ष्ट्रास्यवशेषी ती पुरुषी अलिबरोवरक्ताक्षः। शैक्षकमालोकयन् राजा ततो गणत्याचार्यम् ॥ १०॥ युध्माकमपि कोऽपि प्रमादी शासयामि च तमपि नास्ति भणति गुरुः । यदि भविष्यति तदा कथयिष्यामि यूयमेव तं ज्ञास्यथ ॥ ११॥ शैक्षको गते नृपे भणति तान् साधूंस्तु न पुनरिति । भविष्यामि प्रमादशीलो युष्माकं शरणागतोऽयम् ॥ १२ ॥ यदि पुनर्भवेत्प्रमादः पुनर्मम शाय) भावरहितस्य । युष्माकं गुणैः
अनक्रम
kookG ANG
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[162]
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [१६], नियुक्ति : [१७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[५६]
दीप
श्रीआचा-18 सुविहिय! तो साबगरक्खसा मुच्चे ॥१३॥ आयंकमओविग्गो ताहे सो णिचउज्जुओ जाओ। कोबियमती य समए रण्णा शस्त्र-परि१ राङ्गवृत्तिः मरिसाविओ पच्छा ॥ १४ ॥ दब्वायंकादंसी अत्ताणं सब्बहा णियत्तेइ । अहियारंभाउ सया जह सीसो धम्मघोसस्स (शी०) ॥१५॥ भावातङ्कादर्शी तु नरकतियङमनुष्यामरभवेषु प्रियविप्रयोगादिशारीरमानसातङ्कभीत्या न प्रवर्तते वायुसमा
18| उद्देशका रम्भे, अपि त्वहितमेतद्वायुसमारम्भणमिति मत्वा परिहरति, अतो य आतङ्कदी भवति विमलविवेकभावात् स वायुस॥७६ ।।
मारम्भस्य जुगुप्सायां प्रभुः, हिताहितप्राप्तिपरिहारानुष्ठानप्रवृत्तेः, तदन्यैवंविधपुरुषवदिति । वायुकायसमारम्भनिवृत्तेः
कारणमाह-जे अज्झत्थ'मित्यादि, आत्मानमधिकृत्य यद्वर्तते तदध्यात्म, तच्च सुखदुःखादि, तद्यो जानाति-अवबुसध्यते स्वरूपतोऽवगच्छतीत्यर्थः, स बहिरपि प्राणिगणं वायुकायादिकं जानाति, यथैपोऽपि हि सुखाभिलापी दुःखाचो
द्विजते, यथा मयि दुःखमापतितमतिकटुकमसद्यिकर्मोदयादशुभफलं स्वानुभवसिद्धं एवं यो वेत्ति स्वात्मनि सुखं च | भासद्वेद्यकर्मोदयात् शुभफलमेवं च योऽवगच्छति स खल्वध्यात्म जानाति, एवं च योऽध्यात्मवेदी स बहिव्यवस्थितवायु
कायादिप्राणिगणस्यापि नानाविधोपक्रमजनितं स्वपरसमुत्थं च शरीरमनःसमाश्रयं दुःखं सुखं वा वेत्ति, स्वप्रत्यक्षतया परत्राप्यनुमीयते, यस्य पुनः स्वात्मन्येव विज्ञानमेवंविधं न समस्ति कुतस्तस्य पहिर्व्यवस्थितवायुकायादिष्वपेक्षा, यश्च बहिजोनाति सोऽध्यात्म यथावदवैति, इतरतराव्यभिचारादिति । परात्मपरिज्ञानाच्च यद्विधेयं तदर्शयितुमाह-'एयं
१ सुविहिताः ततः श्रावकराक्षसात् मुबेयम् ॥ १३ ॥ आतभयाद्विशतदा स नित्यमुगुको जातः । कोबिदमतिय समये राज्ञा क्षमितः पश्चात् ॥ १४ ॥ दव्यातहादी आत्मानं सर्वथा निवत्तयति । अहितारम्भात् सदा यथा शिष्यो धर्मघोषस्य ।। १५॥
अनक्रम
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [१६], नियुक्ति: [१७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५६]
RRC
दीप
तुलमन्नेसिमित्यादि, एतां तुला यथोक्तलक्षणाम् अन्वेषयेद्वे षयेदिति, का पुनरसी तुला ?, यथाऽऽत्मानं सर्वथा सु-13 खाभिलाषितया रक्षसि तथाऽपरमपि रक्ष, यथा परं तथाऽऽत्मानमित्येतां तुला तुलितस्वपरसुखदुःखानुभवोऽन्वेषयेद्एवं कुर्यादित्यर्थः, उक्तं च-"कडेणं कंटएण व पाए विद्धस्स वेयणट्टस्स । जह होइ अनिव्वाणी सव्वत्थ जिएसुतं जाण ॥१॥" तथा "मरिष्यामीति यद् दुःखं, पुरुषस्योपजायते । शक्यस्तेनानुमानेन, परोऽपि परिरक्षितुम् ॥१॥" |अतश्च यथाऽभिहिततुलातुलितस्वपरा नैराः स्थावरजङ्गमजन्तुसङ्घातरक्षणायैव प्रवर्त्तन्ते, कथमिति दर्शयति
इह संतिगया दविया णावकंखंति जीविङ (सू० ५७) 'इह' एतस्मिन् दयैकरसे जिनप्रवचने शमनं शान्तिः-उपशमः प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणसम्यग्दर्शनज्ञानचरणकलापः शान्तिरुच्यते, निराबाधमोक्षाख्यशान्तिप्राप्तिकारणत्वात् , तामेवंविधां शान्ति गताः-प्राप्ताः शान्तिगताः, शान्तौ वा स्थिताः शान्तिगताः, द्रविका नाम रागद्वेषविनिर्मुक्ताः, द्रवः-संयमः सप्तदशविधानः कर्मकाठिन्यद्रवणकारित्वाद्-विलयहेतुत्वात् स येषां विद्यते ते द्रविकाः, नावकाङ्कन्ति-न वाञ्छन्ति नाभिलषन्तीत्यर्थः, किं| नावकाङ्क्षन्ति ?-'जीवितुं' प्राणान् धारयितुं, केनोपायेन जीवितुं नाभिकामन्ति ?, वायुजीवोपमर्दनेनेत्यर्थः, शेषपृधिव्यादिजीवकायसंरक्षणं तु पूर्वोक्तमेव, समुदायाधस्त्वयम्-इहैव जैने प्रवचने यः संयमस्तद्व्यवस्थिता एवोन्मूलितातितुङ्गरा
१ काप्टेन कष्टकेन वा पादे विद्धस्य वेदनातस्य । यथा भवत्यनिर्वाणी (असाता) सर्वत्र जीवेषु ता जानीहि ॥ १॥ २ सपरान्तराः. प्र.
अनक्रम
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [१७], नियुक्ति: [१७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
शख.परिर
प्रत
उद्देशका
सूत्रांक
[५७]]
दीप
श्रीआचा- गद्वेषद्रुमाः परभूतोपमर्दनिष्पन्नसुखजीविकानिरभिलाषा साधवो, नान्यत्र, एवंविधक्रियावयोधाभावादिति ॥ एवं व्यव- रावृत्तिःला स्थिते सति(शी०) लजमाणे पुढो पास अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं
वाउकम्मसमारंभेणं वाउसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति । तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया । इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणतयणाए जाईमरणमोयणाए दुक्खपडिघायहेउं से सयमेव वाउसत्थं समारभति अण्णेहिं वा वाउसत्थं समारंभावेइ अण्णे वाउसत्थं समारंभंते समणुजाणति, तं से अहियाए तं से अबोहीए, से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुद्राए सोचा भगवओ अणगाराणं अंतिए इहमेगेसिं णायं भवति-एस खल्लु गंथे एस खलु मोहे एस खलु मारे एस खल्ल णिरए, इच्चत्थं गड्डिए लोए जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वाउकम्मसमारंभेणं वाउसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति (सू०५८)
अनक्रमा
॥७७॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [१९], नियुक्ति: [१७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५९]
दीप
से बेमि संति संपाइमा पाणा आहच्च संपयंति य फरिसं च खलु पुट्टा एगे संघायमावजंति, जे तत्थ संघायमावजंति ते तत्थ परियावजंति, जे तत्थ परियावर्जति ते तत्थ उद्दायंति, एत्थ सत्थं समारभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिणाया भवंति, एत्थ सत्थं असमारभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिणाया भवंति, तं परिणाय मेहावी णेव सयं वाउसत्थं समारंभेजा णेवऽपणेहिं वाउसत्थं समारंभावेजा णेवऽपणे वाउसत्थं समारंभंते समणुजाणेजा, जस्सेते वाउसत्थसमारंभा परिणाया भवंति
से हु मुणी परिणायकम्मे (सू०५९) तिमि पूर्ववन्नेयं । सम्पति षड्जीवनिकायविषयवधकारिणामपायदिदर्शयिषया तन्निवृत्तिकारिणां च सम्पूर्णमुनिभावप्रदर्शनाथ सूत्राणि प्रक्रम्यन्ते
एत्थंपि जाणे उवादीयमाणा, जे आयारे ण रमंति, आरंभमाणा विणयं वयंति, छंदो
वणीया अज्झोववण्णा, आरंभसत्ता पकरंति संगं (सू०६०) एतस्मिन्नपि-प्रस्तुते वायुकाये, अपिशब्दात् पृथिव्यादिषु च समाश्रितमारम्भ ये कुर्वन्ति ते उपादीयन्ते-कर्मणा
अनक्रम
६०
SAREauraton international
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [६०], नियुक्ति: [१७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[६०]
दीप
श्रीआचा- वध्यन्त इत्यर्थः, एकस्मिन् जीवनिकाये वधप्रवृत्तः शेषनिकायवधजनितेन कर्मणा बध्यते, किमिति ?-यतो न ह्येकजीव- शस्त्र.परिश राङ्गवृत्तिः
|निकायविषय आरम्भः शेषजीवनिकायोपमर्दमन्तरेण कर्तुं शक्यत इत्यतस्वमेवं जानीहि, श्रोतुरनेन परामर्शः, अत्र च (शी०)
द्वितीयार्थे प्रथमा, ततश्चैवमन्वयो लगयितव्यः-पृधिव्याधारम्भिणः शेषकायारम्भकर्मणा उपादीयमानान् जानीहि, के उद्देशक ७
पुनः पृथिव्याद्यारम्भिणः शेषकायारम्भकर्मणोपादीयन्ते ? इति, आह-जे आयारे ण रमंति' ये ह्यविदितपरमार्था । ॥७८ ॥ ज्ञानदर्शनचरणतपोवीर्याख्ये पञ्चप्रकाराचारे 'न रमन्ते'न धृतिं कुर्चन्ति, तदधृत्या च पृथिव्याद्यारम्भिणः, तान् कर्म-113
भिरुपादीयमानान् जानीहि, के पुनराचारे न रमन्ते, शाक्यदिगम्बरपाईस्थादयः। किमिति, यत आह-आरंभ* माणा विणयं वयंति' आरम्भमाणा अपि पृथिव्यादीन् जीवान् विनयं-संयममेव भाषन्ते, कर्माष्टकविनयनाद्विनयः-संकायमः, शाक्यादयो हि वयमपि विनयव्यवस्थिता इत्येवं भाषन्ते, न च पृथिव्यादिजीवाभ्युपगमं कुर्वन्ति, तदभ्युपगमे | दावा तदाश्रितारम्भित्वात् ज्ञानाद्याचारविकलत्वेन नष्टशीला इति । किं पुनः कारणं ?, येनैवं ते दुष्टशीला अपि विनय-1
व्यवस्थितमात्मानं भाषन्ते इत्यत आह-'छन्दोवणीया अज्झोववण्णा' छन्दः-स्वाभिप्रायः इच्छामात्रमनालोचितपूर्वा-1 परं विषयाभिलाषो वा, तेन छन्दसा उपनीताः-प्रापिता आरम्भमार्गमविनीता अपि विनयं भाषन्ते, अधिकमत्यर्थमुपपन्ना तच्चित्तास्तदात्मका: अध्युपपन्नाः-विषयपरिभोगायत्तजीविता इत्यर्थः, य एवं विषयाशाकर्षितचेतसस्ते किं कुर्युरि-IX | त्याह-आरंभसत्ता पकरंति संग'आरम्भणमारम्भ:-सावद्यानुष्ठानं तस्मिन् सक्ताः-तसराः प्रकर्षण कुन्वन्ति, सज्यन्ते
१ छन्देनोपनीताः प्र. 'अभिप्रायवपी छन्दी' इत्यमरोको 'छन्दो वशेऽभिप्राये च' इति सकारान्तेऽनेकार्थोके यमसाधुः.
अनक्रम
६१)
॥ ७८
SARERainintenatana
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [६०], नियुक्ति: [१७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
+
सूत्रांक
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+CR
दीप
येन संसारे जीवाः स सजा-अष्टविधं कर्म विषयसङ्गो वा तं सङ्गं प्रकुर्वन्ति, साच्च पुनरपि संसारः, आजवजवीभावरूपः, एवंप्रकारमपायमवासोति पजीवनिकायघातकारीति ॥ अथ यो निवृत्तस्सदारम्भात्स किंविशिष्टो मवतीत्यत आह
से वसुमं सव्वसमण्णागयपण्णाणेणं अप्पाणेणं अकरणिज पावं कम्मं णो अपणेसिं, परिणाय मेहावी व सयं छज्जीवनिकायसत्थं समारंभेजा णेवऽण्णेहिं छजीवनिकायसत्थं समारंभावेजा णेवऽण्णे छज्जीवनिकायसत्यं समारंभंते समणुजाणेज्जा, जस्सेते छज्जीवनिकायसत्थसमारंभा परिणाया भवंति से हु मुणी परिणायकम्मे (सू०६१)
तिबेमि ॥ इति सप्तमोदेशकः । इति प्रथममध्ययनम् ॥ 'से' इति पृथिव्युद्देशकाद्यभिहितनिवृत्तिगुणभाक् षड़जीवनिकायहनननिवृत्तो 'वसुमान्' वसूनि द्रव्यभावभेदाविधाद्रव्यवसूमि-मरकतेन्द्रनीलबज्रादीनि भाववसूनि-सम्यक्त्वादीनि तानि यस्य यस्मिन्वा सन्ति स वसुमान् द्रव्यवानित्यर्थः, इह च भाववसुभिर्वसुमत्त्वमङ्गीक्रियते, प्रज्ञायन्ते यैस्तानि प्रज्ञानानि यथावस्थितविषयमाहीणि ज्ञानानि,सर्वाणि समन्यागतानि प्रज्ञानानि यस्यात्मनः स सर्वसमन्वागतप्रज्ञान:-सर्वावबोधविशेषानुगतः सर्वेन्द्रियज्ञानैः पटुभिर्यधावस्थितविषयमाहिभिरविपरीतैरनुगत इसियावत् , तेन सर्वसमन्वागतप्रज्ञानेनात्मना, अथवा सर्वेषु द्रव्यपर्यायेषु सम्यगनुगत प्रज्ञान
१इतः प्राक् 'पुना पुनस्तत्रैवोत्पत्ति' इति प्र. न च युक्तः, २ पुनः पुनस्तत्रैव सनः कोत्पत्तिरूपा
अनक्रम
६१
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [६१], नियुक्ति : [१७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६१]
दीप
श्रीआचा-हायस्यात्मनः स सर्वसमन्वागतप्रज्ञान आरमा, भगवद्वचनप्रामाण्यादेवमेतत् द्रव्यपर्यायजातं नान्यथेति सामान्यविशेषपरि- शस्त्र परि१ राजवृत्तिःच्छेदानिश्चिताशेषज्ञेयमपञ्चस्वरूपः सर्वसमन्वागतप्रज्ञान आत्मेत्युच्यते, अथवा-शुभाशुभफलसकलकलापपरिज्ञानान्नर
उद्देशक कतिर्यक्नरामरमोक्षसुखस्वरूपपरिज्ञानाचापरितुष्यन्ननैकान्तिकादिगुणयुक्ते संसारसुखे मोक्षानुष्ठानमाविष्कुर्वन् सर्व(शी०)
समन्वागतप्रज्ञान आत्माऽभिधीयते, तेनैवंविधनात्मना ' अकरणीयम्' अकर्त्तव्यमिहपरलोकविरुद्धत्वादकार्यमिति मत्वा | ॥७९॥
नान्वेषयेत्-न तदुपादानाय यनं कुर्यादित्यर्थः, किं पुनः तदकरणीयं नान्वेषणीयमिति , उच्यते, 'पापं कर्म' अधःपतनकारित्वासापं क्रियत इति कर्म, तच्चाष्टादशविध प्राणातिपातमृपावादादत्तादानमैथुनपरिग्रहकोधमानमायालोभमेमद्वेपकलहाभ्याख्यानपैशून्यपरपरिवादरत्यरतिमायामृषामिथ्यादर्शनशल्याख्यमिति, एवमेतत् पापमष्टादशभेदं नान्वेषयेत्-ना कुर्यात् स्वयं न चाम्यं कारयेत् न कुर्वाणमन्यमनुमोदेत । एतदेवाह--'तं परिणाय मेहावी'त्यादि 'तत्' पापम-| टादशप्रकारं परिः-समन्तात् ज्ञात्वा मेधावी-मर्यादावान् नैव स्वयं षड्जीवनिकायशस्त्रं स्वकायपरकायादिभेदं समा
रभेत नैवान्यैः समारम्भयेत् न चान्यान् समारभमाणान् समनुजानीयात्, एवं यस्यैते सुपरीक्ष्यकारिणः पजीवहै निकायशस्त्रसमारम्भाः तद्विषयाः पापकर्मविशेषाः परिज्ञाता ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया च, स एव मुनिः प्रत्याख्यातकर्मत्वात्-प्रत्याख्याताशेषपापागमत्वात् , तदन्यैवंविधपुरुषवदिति । इतिशब्दोऽध्ययनपरिसमाप्तिप्रदर्शनाय, ब्रवी
॥७९॥ मीति सुधर्मस्वाम्याह स्वमनीषिकाच्यावृत्तये, भगवतोऽपनीतघनघातिकर्मचतुष्टयस्य समासादिताशेषपदार्थाविर्भाव-18 कदिव्यज्ञानस्य प्रणताशेषगीर्वाणाधिपतेश्चतुस्त्रिंशदतिशयसमन्वितस्य श्रीवर्द्धमानस्वामिन उपदेशात्सर्वमेतदाख्यातं
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [६१], नियुक्ति: [१७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
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यदतिकान्त मयेति । उक्तः सूत्रानुगमः निक्षेपश्च ससूत्रस्पर्शनियुक्तिः । सम्प्रति नया नैगमादयः, ते चान्यत्र सुविचारिताः, सहेपतस्तु सर्वेऽपि एते द्वेधा भवन्ति, ज्ञाननयाश्चरणनयाश्च, तत्र ज्ञाननया ज्ञानमेव प्रधान मोक्षसाधनमित्यध्यवस्यन्ति, हिताहितप्राप्तिपरिहारकारित्वात् ज्ञानस्य, तत्पूर्वकसकलदुःखप्रहाणाच ज्ञानमेव न तु क्रिया, चरणनयास्तु चरणस्य प्राधान्यमभिदधति, अन्वयव्यतिरेकसमधिगम्यत्वात्सकलपदार्थानां, तथाहि-सत्यपि ज्ञाने सकलवस्तुग्राहिणि समुल्लसिते न चरणमन्तरेण भवधारणीयकर्मोच्छेदः, तदनुच्छेदाच मोक्षालाभः, तस्मान्न ज्ञानं प्रधान, चरणे पुनः सति सर्वेमूलोत्तरगुणाख्ये घातिकर्मोच्छेदः, तदुच्छेदात् केवलावबोधप्राप्तिा, ततश्च यथाख्यातचारित्रवहिज्वालाक-द लापप्रतापितसकलकर्मकन्दोच्छेदः, तदुच्छेदाव्याबाधसुखलक्षणमोक्षावाप्तिरिति, तस्माचरणं प्रधानमित्यध्यवस्थामः ।
अत्रोच्यते, उभयमप्येतन्मिथ्यादर्शनं, यत उक्तम्-"हयं नाणं कियाहीणं, या अन्नाणओ किया । पासंतो पंगुलो दड्डो, ४ दि धावमाणो य अंधओ॥१॥" तदेवं सर्वेऽपि नयाः परस्परनिरपेक्षा मिथ्यात्वरूपतया न सम्यग्भावमनुभवन्ति, समु
दितास्तु यथावस्थितार्थप्रतिपादनेन सम्यक्त्वं भवन्ति, यत उक्तम्-"ऐवं सब्वेवि णया मिच्छादिही सपक्खपडि
बद्धा । अण्णोण्णणिस्सिया पुण हवंति ते चेव सम्मत्तं ॥१॥" तस्मादुभयं परस्परसापेक्षं मोक्षप्राप्तये अलं, न प्रत्येकं ज्ञानं टाचरणं चेति, निर्दोषः खल्वेष पक्ष इति व्यवस्थितं । तथा चोभयप्राधान्यदिदर्शयिषयाह-सव्वेसिपि णयाणं बहुविधवत्त
१हतं शाम कियाहीनं हताशामतः किया । पश्यन् पार्दग्धो धाश्चान्धः ॥१॥२एवं सर्वेऽपि नवाः मिथ्यारटयः सपक्षप्रतिवद्धाः । अभ्योऽन्यनि४ श्रिताः पुनर्भवन्ति त एव सम्यक्त्वम् ॥१॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [६१], नियुक्ति: [१७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचारामवृत्तिः (शी.) ॥८ ॥
शस्त्र.परिर उद्दश उद्देशक
सूत्रांक
[६१]
दीप
SARAN
व्वयं णिसामेत्ता । तं सब्वणयविसुद्धं जं चरणगुणहिओ साहू ॥१॥ चरणं च गुणश्च चरणगुणौ तयोः स्थितश्च- रणगुणस्थितः, गुणशब्दोपादानात् ज्ञानमेव परिगृह्यते, यतो न कदाचिदात्मनो गुणिनस्तेन ज्ञानास्येन गुणेन वियोगोऽस्ति, ततोऽसौ सहभावी गुणः, अतो बहुविधवक्तव्यं नयमार्गमवधार्यापि सङ्केपात् ज्ञानचरणयोरेव स्थातव्यमिति निश्चयो विदुषां न चाभिलषितप्राप्तिः केवलेन चरणेन, ज्ञानहीनत्वात् , अन्धगमिक्रियाप्रतिविशिष्टप्रदेशप्राप्तिवत्, न च। ज्ञानमात्रेणाभीष्टप्राप्तिः, क्रियाहीनत्वात् , चक्षुर्ज्ञानसमन्वितपनुपुरुषअर्धदग्धनगरमध्यावस्थितयधावस्थितदर्शिज्ञानवत् , तस्मादुभयं प्रधान, नगरदाहनिर्गमे पड्नबन्धसंयोगक्रियाज्ञानवत् ॥ एवमिदमाचारागसन्दोहभूतं प्रथमाध्ययनं षड्जीवनिकायस्वरूपरक्षणोपायगर्भमादिमध्यावसानेषु दयैकरसमेकान्तहितापत्तिकारि मुमुक्षुणा बदाऽधीतं भवति सूत्रतः शिक्ष
केणार्थतश्चावधृतं भवति श्रद्धामसंवेगाभ्यां च यथावदात्मीकृतं भवति ततोऽस्य महावतारोपणमुपस्थापनं परीक्ष्य दानिशीथायभिहितक्रमेण सचित्तपृथिवीमध्यगमनादिना श्रद्दधानस्य सर्वं यथाविधि कार्यम् । कः पुनरुपस्थापने विधि
रिति !, अत्रोच्यते, शोभनेषु तिथिकरणनक्षत्रमुहूर्तेषु द्रव्यक्षेत्रभावेषु च भगवतां प्रतिकृतीरभिवन्ध प्रवर्द्धमानाभिः स्तुतिभिः अथ पादपतितोत्थितः सूरिः सह शिक्षकेण महाव्रतारोपणप्रत्ययं कायोत्सर्गमुत्साउँकैकं महानतमादित आरभ्य विरुधारयेत् यावशिशिभुक्तिविरतिरविकला त्रिरुच्चारिता, पश्चादिदं त्रिरुचरितव्यम्-इवेश्याई पंच महब्बयाइं राइभोयणवेरमणछडाई अत्तहियड्याए उपसंपज्जित्ता णं विहरामि' पश्चाद्वन्दनकं दत्त्वोत्थितोऽभिधत्ते अवनताङ्ग
इत्येतानि पान महानतानि रात्रिभोजनविरमणपठानि आत्मदिताायोपसंपद्य विरहागि.
अनक्रम
॥
८.
[171]
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[६१]
दीप
अनुक्रम [६२]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [६१], निर्युक्ति: [१७१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित......आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
यष्टिः - 'संदिशत किं भणामी 'ति ?, सूरिः प्रत्याह- ' वन्दित्वाऽभिधत्स्वे' त्येवमुक्तोऽभिवन्द्योत्थितो भणति -- 'युष्मा - भिर्मम महाव्रतान्यारोपितानि इच्छाम्यनुशिष्टि' मिति, आचार्योऽपि प्रणिगदति - 'निस्तारकपारगो भवाचार्यगुणैर्व र्द्धस्व' वचनविरतिसमनन्तरं च सुरभिवासचूर्णमुष्टिं शिष्यस्य शिरसि किरति, पश्चाद्वन्दनकं दत्त्वा प्रदक्षिणीकरोत्याचार्य नमस्कारमावर्त्तयन् पुनरपि वन्दते, तथैव च करोति सकलक्रियानुष्ठानम्, एवं त्रिप्रदक्षिणीकृत्य विरमति शिष्यः, शेषाः साधवश्चास्य मूर्ध्नि युगपद्वासमुष्टिं विमुञ्चन्ति सुरभिपरिमलां बतिजनसुलभकेसराणि वा पश्चात्कारित कायोत्सर्गः सूरिरभिदधाति - गणस्तव कोटिकः स्थानीयं कुलं वैराख्या शाखा अमुकाभिधान आचार्य उपाध्यायश्च साध्व्याः प्रवसिंनी तृतीयोदेष्टव्या यथाऽऽसन्नं चोपस्थाप्यमाना रत्नाधिका भवन्ति, पश्चादाचाम्लं निर्विकृतिकं वा स्वगच्छसन्ततिसमायातमाचरन्तीति । एवमेतदध्ययनमादिमध्यान्तकल्याणकलापयोगि भव्यजनतामनःसमाधानाधायि प्रियविप्रयोगादिदुःखावर्त्तबहुलकषायक्षषादिकुलाकुलविषमसंसृतिसरित्सारणसमर्थममलदयैकरसमसकृदभ्यसितव्यं मुमुक्षुणेति ॥ आचार्यश्रीशीलाङ्कविरचिता शस्त्रपरिज्ञाध्ययनटीका समाप्तेति (ग्रन्थामं श्लोकाः २२२१ ) ॥
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war
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [६१], नियुक्ति: [१७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
NKNXKXKNEXKXCXKUXKUXXKXXXKXXXXX ___ इत्याचाराङ्गे शस्त्रपरिज्ञाध्ययनम् ॥१॥
FAIRNEYMENTS
MLA
NION ESSAHITRA
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति : [१७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [६१]
दीप
नमः श्रीवर्धमानाय, वर्द्धमानाय पर्ययैः । उक्ताचारप्रपञ्चाय, निष्प्रपञ्चाय तायिने ॥१॥
शत्रपरिज्ञाविवरणमतिगहनमितीव किल वृतं पूज्यैः । श्रीगन्धहस्तिमिर्विवृणोमि ततोऽहमवशिष्टम् ॥ २॥ उक्तं प्रथमाध्ययनं, साम्प्रतं द्वितीयमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इह हि मिथ्यात्योपशमक्षयक्षयोपशमान्यतरावाप्तसम्यग्दर्शनज्ञानकार्यस्यात्यन्तिकैकान्तानाबाधपरमानन्दस्वतत्त्वसुखानावरणज्ञानदर्शनलक्षणलक्षितमोक्षकारणस्याश्रवनिरोधनिर्जरारूपस्य मूलोत्तरगुणभेदभिन्नस्य चारित्रस्यापराशेषत्रतवृतिकल्पनिष्पादितनिष्प्रत्यूहसकलपाणिगणसङ्घटनपरितापनापद्रावणनिवृत्तिरूपस्य संसिद्धये मरणाभावप्रसङ्गादभूतगुणात्मधर्मज्ञानोपलब्धेार्हस्पत्यमतनिरासेन सामान्यतो जीवास्तित्वं प्रतिपाद्य विशेषतश्च बौद्धादिमतनिरासेनैकेन्द्रियावनिवनानलपवनवनस्पतिभेदांश्च जीवान् प्रकटय्य यथाक्रम 2 समानजातीयाश्मलताबु ददर्शनादर्शीमांसाङ्गुरवत् अविकृतभूमिखननोपलब्धेर्मण्डूकवत् विशिष्टाहारोपचयापचयशरीराभिवृद्धिक्षयान्वयव्यतिरेकगतेरर्भकशरीरवत् अपरप्रेरिताप्रतिहतानियततिरश्चीनगमनागवाश्वाविवत् सालक्तकनूपुरालङ्का
रकामिनीचरणताडनविकाराधिगतेः कामुकवदित्यादिभिः प्रयोगैः तथोच्चैः शिर उद्घाव्य सूक्ष्मवादरद्वित्रिचतुष्पञ्चेन्द्रियद संज्ञीतरपर्याप्तकअपर्याप्तकभेदांश्च प्रदय शस्त्रं च स्वकायपरकायभेदभिन्नं तद्वधे बन्धं विरतिं च प्रतिपाद्य पुनरपि तदेव
चारित्रं यथा सम्पूर्णभावमनुभवति तथाऽनेनाध्ययनेनोपदिश्यते, तथाहि-अधिगतशत्रपरिज्ञासूत्रार्थस्य तत्प्रतिपादितैकेन्द्रियपृथिवीकायादि श्रद्दधानस्य सम्यक् तद्रक्षापरिणामवतः सर्वोपाधिशुद्धस्य तद्योग्यतयाऽऽरोपितपश्चमहाव्रतभारस्य साधोर्यथा रागादिकषायलोकस्य शब्दादिविषयलोकस्य वा विजयो भवति तथाऽनेनाध्ययनेन प्रतिपाद्यते ।
अनक्रम
मुद्रण दोषात् अत्र नियुक्ति-क्रम पुन: लिखितम्, तत् कारणत्वात् मया 'R' संज्ञा दत्वा नियुक्ति: १६३-R' निर्देशित: दवितीयं अध्ययनं "लोकविजय"आरब्ध:,
[174]
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति: [१६३-R.] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६१]
(शी०)
टीप
श्रीआचा-3 तथा च नियुक्तिकारेणाध्ययनार्थाधिकारः शस्त्रपरिज्ञायां प्राग्निरदेशि-" लोओ जह बज्झइ जह य तं विजहियवं"ति, लोक.वि.२ रागावृत्तिः
इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्थाध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति । तत्र सूत्रार्थकथनमनुयोगः, तस्य द्वाराणि उपाया व्याख्यानानीत्यर्थः, तानि चोपक्रमादीनि, तत्रोपक्रमो द्वेधा-शास्त्रानुगतः शास्त्रीयः लोकानुगतो लौकिक इति,
उद्देशका निक्षेपस्त्रिधा-ओघनामसूत्रालापकनिष्पन्नभेदात्, अनुगमो द्वेधा-सूत्रानुगमो नियुक्त्यनुगमश्च, नया-नैगमादयः । ॥८२॥
तत्र शास्त्रीयोपक्रमान्तर्गतोऽर्थाधिकारी द्वेधा-अध्ययनार्थाधिकार उद्देशार्थाधिकारश्च, तत्राध्ययनार्थाधिकारोऽध्ययनसम्बन्धे शस्त्रपरिज्ञायां प्रागेव निरदेशि, उद्देशार्थाधिकारं तु स्वयमेव नियुक्तिकारः प्रचिकटयिपुराहसयणे य अददत्तं बीयगंमि माणो अ अत्थसारो अ । भोगेसु लोगनिस्साइ लोगे अममिजया चेव ॥१६॥ | तत्र प्रथमोद्देशकार्थाधिकारः 'स्वजने मातापित्रादिके अभिष्वङ्गोऽधिगतसूत्रार्थेन न कार्य इत्यध्याहारः, तथा च सूत्रम्-'माया मे पिया में इत्यादि १, 'अदबत्तं बीयगंमि'त्ति द्वितीय उद्देशके अहढत्वं संयमे न कार्यमिति शेषा, विषयकषायादौ चाहहत्वं कार्यमिति, वक्ष्यति च-'अरई आउट्टे मेहावी' २, तृतीय उद्देशके 'माणो अ अत्थसारो अत्ति जात्याद्युपेतेन साधुना कर्मवशाद्विचित्रतामवगम्य सर्वमदस्थानानां मानो न कार्य:, आह च-के गोआवादी? के माणावादी'त्यादि, अर्थसारस्य च निस्सारता वयेते, तथा च-'तिविहेण जाऽवि से तत्थ मत्सा अप्पा वा बहुगा वेत्यादि ३, चतुर्थे तु 'भोगेसु'त्ति भोगेष्वभिष्वजोन कार्य इति शेषः, यतो भोगिनामपायान् पक्ष्यति, सूत्र च-थी-180८२॥ हिं लोए पम्वहिए' ४, पश्चमे तु 'लोगणिस्साए'त्ति त्यतस्वजनधनमानभोगेनापि साधुना संयमदेहप्रतिपालनाय स्वार्था
अनक्रम
मुद्रण दोषात् अत्र नियुक्ति-क्रम पुन: लिखितम्, तत् कारणत्वात् मया 'R' संज्ञा दत्वा नियुक्ति: १६३-R' निर्देशितः
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति: [१६३-R.] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
[६१]
दीप
रम्भप्रवृत्तलोकनिश्नया विहर्तव्यमिति शेषः, तथा च सूत्रम्-'समुडिए अणगारे इत्यादि जाव परिग्वए' ५, पष्ठोद्देशके तु-'लोए अममिजया चेव' लोकनिश्रयाऽपि विहरता साधुना तस्मिन् लोके पूर्वापरसंस्तुतेऽसंस्तुते च न ममत्वं कार्य, पङ्कजवत्तदाधारस्वभावानभिष्वक्षिणा भाव्यमिति, तथा च सूत्रम्-जे ममाईयमई जहाति से जहाति ममातिय' गाथाता-1 पर्यार्थः ॥ नामनिष्पन्ने तु निक्षपे लोकविजय इति द्विपदं नाम, तत्र लोकविजययोनिक्षेपः कार्यः, सूत्रालापकनिष्पन्ने च निक्षेपे यानि निक्षेपार्हाणि सूत्रपदानि तेषां च निक्षेपः कार्यः, सूत्रपदोपन्यस्तमूलशब्दस्य च कषायाभिधायकत्वात कपायाश्च निक्षेप्तच्याः, तदेवं नामनिष्पन्न भविष्यत्सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेपोपक्षिप्त सामर्थ्यायातं च यन्निक्षेप्तव्यं तन्नियु-14] |क्तिकारो गाथया सम्पिण्ड्याऽऽचष्टे
लोगस्स य विजयस्स य गुणस्स मूलस्स तह य ठाणस्स । निक्खेबो कायब्चो जमूलागं च संसारो ॥१६४॥ MI कठ्या, केवलं 'जंमूलागं च संसार' इति यन्मूलका संसारस्तस्य च निक्षेपः कार्यः, तच्च मूलं कषायाः, यतः नार
कतिर्यग्नरामरगतिस्कन्धस्य गर्भनिषेककललार्बुदमांसपेश्यादिजन्मजरामरणशाखस्य दारियाद्यनेकव्यसनोपनिपातपत्रगहनस्य प्रियविप्रयोगामियसम्प्रयोगार्थनाशानेकव्याधिशतपुष्पोपचितस्य शारीरमानसोपचिततीव्रतरदुःखोपनिपातफलस्य सं-18
सारतरोर्मूलम्-आद्य कारणं कषायाः-कपः-संसारस्तस्याऽऽया इतिकृत्वा ॥ तदेवं यान्यत्र नामनिष्पन्ने यानि च सूत्रा-11 ISIलापकनिष्पन्ने निक्षेप्तव्यपदानि सम्भवन्ति तानि नियुक्तिकारः सुहृत्वा विवेकेनाऽऽचष्टे
लोगोसि य विजअत्ति य अज्झयणे लक्खणं तु निष्फपणं । गुणमूलं ठाणंति य मुत्तालावे य निप्पणं ॥१६॥
अनक्रम
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति: [१६५-R.] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६१]
दीप
श्रीआचा- कण्ठ्या, तत्र 'यथोद्देशस्तथा निर्देश'इति न्यायालोकविजययोनिक्षेपमाह
लोक.वि.२ राङ्गवृत्तिःलोगस्स य निक्खेवो अट्ठविहो छब्बिहो उ विजयस्स । भावे कसायलोगो अहिगारो तस्स विजएणं ॥१६६ ॥ (शी०) 8
उद्देशकः१ तत्र लोक्यत इति लोकः, 'लोक दर्शन' इत्यस्माद्धातोः 'अकर्तरि च कारके संज्ञाया (पा. ३-३-१९) मिति घञ्,8 स च धर्माधर्मास्तिकायव्यवच्छिन्नमशेषद्रव्याधारं वैशाखस्थानस्थकटिन्यस्तकरयुग्मपुरुषोपलक्षितमाकाशखण्डं पश्चास्तिकायात्मको वेति, तस्य निक्षेपोऽष्टधा-नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभवभावपर्यवभेदात्, 'छबिहो उ विजयस्स'त्ति विजयः अभिभवः पराभवः पराजय इति पर्यायाः, तस्य निक्षेपः षड़िधो वक्ष्यते, तत्राष्टप्रकारे लोके येनात्राधिकारस्तमाह-'भावे कसायलोगो'त्ति भावलोकेनात्राधिकारः, स च भावः पट्मकार औदयिकादिः, तत्राप्यौदयिकभावकषायलोकेनाधिकारः, तन्मूलत्वात् संसारस्य, यद्येवं ततः किमत आह-'अहिगारो तस्स विजएणं'ति अधिकारो-व्यापारः, तस्य-औदयिकभावकषायलोकस्य 'विजयेन' पराजयेनेति गाथार्थः ॥ तत्र लोकोऽष्टधा निक्षेपार्थ प्रागुपादेशि विजयश्च पोढा, तन्निक्षेपार्थमाहलोगो भणिओ दवं खित्तं कालो अभावविजओ अभिव लोग भावविजओ पगयं जह वहई लोगो १६७ | तत्र लोकश्चतुर्विंशतिस्तवे विस्तरतोऽभिहितः, ननु च केयं वाचो युक्तिः? 'लोकश्चतुर्विंशतिस्तवेऽभिहित' इति, किमत्रानुपपन्नम् , उच्यते, इह पूर्वकरणप्रक्रमाधिरूढक्षपकणिध्यानाग्निदग्धघातिकर्मेन्धनेनोपन्ननिरावरणज्ञानेन विपच्य|मानतीर्थकरनामाविर्भूतचतुर्विंशदतिशयोपेतेन श्रीवर्धमानस्वामिना हेयोपादेयार्थाविर्भावनाय सदेवमनुजायां परिषद्याचा
अनक्रम
॥८३॥
मुद्रण दोषात् अत्र नियुक्ति-क्रम पुन: लिखितम्, तत् कारणत्वात् मया 'R' संज्ञा दत्वा नियुक्ति: १६५-R' निर्देशित:
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[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति: [१६७-R.] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
AIR
प्रत
सूत्रांक [६१]
-
दीप
रार्थों वभाषे, गणधरैश्च महामतिभिरचिन्त्यशक्त्युपेतैगौतमादिभिः प्रवचनार्थमशेषासुमदुपकाराय स एवाचाराङ्गतया दहभे, आवश्यकान्तर्भूतश्चतुर्विंशतिस्तवस्त्वारातीयकालभांविना भद्रबाहुस्वामिनाऽकारि, ततश्चायुक्तः पूर्वकालभाविन्याचाराङ्गे व्याख्यायमाने पश्चात्कालभाविना चतुर्विशतिस्तवेनातिदेश इति कश्चित् सुकुमारमतिः, अत्राह-नैष दोषो, यतो भद्रबाहुस्वामिनाऽयमतिदेशोऽभ्यधायि, स च पूर्वमावश्यकनियुक्ति विधाय पश्चादाचाराङ्गनियुक्तिं चक्रे, तथा चोक्तम्-"आवस्सयरस दसकालियस्स तह उत्तरज्झमायारे"त्ति सूक्तम् । विजयस्य तु निक्षेपं नामस्थापने क्षुण्णत्वादनाहत्य द्रव्यादिकमाह-'दब्ब'मित्यादिना, द्रव्यविजयो व्यतिरिक्तो द्रव्येण द्रव्यात् द्रव्ये वा विजयः कटुतिक्तकषायादिना श्लेष्मादे पतिमल्लादेवा, क्षेत्रविजयः षट्खण्डभरतादेर्यस्मिन् वा क्षेत्रे विजयः प्ररूप्यते, कालविजय इति कालेन विजयो यथा षष्टिभिर्वर्षसहस्रैर्भरतेन जितं भरतं, कालस्य प्राधान्यात् , भृतककर्मणि वा मासोऽनेन जित इति, यस्मिन् | हवा काले विजयो व्याख्यायत इति, भावविजय औदयिकादेर्भावस्य भावान्तरेण औपशमिकादिना विजयः । तदेवं लो-16
कविजययोः स्वरूपमुपदर्य प्रकृतोपयोग्याह-'भवेत्यादि, अत्र हि भवलोकग्रहणेन भावलोक एवाभिहितः, छन्दोभङ्गभीत्या ह्रस्व एवोपादायि, तथा चावाचि-"भावे कसायलोगो अहिगारो तस्स विजएणं'ति, तस्य औदयिकभावकपायलोकस्य औपशमिकादिभावलोकेन विजयो यत एतदत्र प्रक्रतम, इदमत्र हृदयम्-अष्टविधलोकपड़िधविजययोः प्रा
आवश्यकस्य दशकालिकस्य तथोत्तराध्ययनेवाचारे
अनक्रम
मुद्रण दोषात् अत्र नियुक्ति-क्रम पुन: लिखितम्, तत् कारणत्वात् मया 'R' संज्ञा दत्वा नियुक्ति: १६७-R' निर्देशितः
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[६१]
दीप
अनुक्रम
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[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [१], मूलं [ ६१...], निर्युक्ति: [१६७-R.] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित......आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
*
श्रीआचाग्व्यावर्णितस्वरूपयोर्भावलोकभाव विजयाभ्यामत्रोपयोग इति, यथा चाष्टप्रकारेण कर्म्मणा लोकः - प्राणिगणो वध्यते, राङ्गवृत्तिः *बन्धस्योपलक्षणत्वाद्यथा च मुच्यत इत्येतदप्यत्राध्ययने प्रकृतमिति गाथार्थः ॥ तेनैव भावलोकविजयेन किं फलमित्याह४ विजिओ कसायलोगो सेयं खु तओ नियत्तिउं होइ । कामनियत्तमई खलु संसारा मुबई विप्पं ॥ १६८ ॥ (शी०) व्याख्या- 'विजितः' पराजितः कोऽसौ ?-कपायलोकः औदयिकभावकषायलोक इतियावत्, विजितकषायलोकः सन् किमवामोतीत्याह- संसारान्मुच्यते क्षिप्रम्, अतस्तस्मान्निवर्त्तितुं श्रेयः, खुर्वाक्यालङ्कारे अवधारणे वा, निवर्त्तितुं श्रेय एव किं कषायलोकादेव निवृत्तः संसारान्मुच्यते आहोश्विदन्यस्मादपि पापोपादानहेतोरिति दर्शयति- 'कामे' त्यादि गाथार्द्ध सुगमम् । गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेपावसरः, स च सूत्रे सति भवति, तत्रास्खलितादिगुणोपेतं सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारयितव्यं, तच्चेदम्- 'जे गुणे से मुलद्वाणे जे मूलद्वाणे से गुणे' इत्यादि ॥
॥ ८४ ॥
अस्य व निक्षेपनिर्युक्त्यनुगमेन प्रतिपदं निक्षेपः क्रियते, तत्र गुणस्य पञ्चदशधा निक्षेपः
| दवे खित्ते काले फल पञ्चव गणण करण अन्भासे । गुणअगुणे अगुणगुणे भव सीलगुणे य भावगुणे ॥ १६९॥ • नामगुणः स्थापनागुणः द्रव्यगुणः क्षेत्रगुणः कालगुणः फलगुणः पर्यवगुणः गणनागुणः करणगुणः अभ्यासगुणः गुणागुणः अगुणगुणः भवगुणः शीलगुणः भावगुणश्चेति गाथासमासार्थः ॥ तदेवं सूत्रानुगमेन सूत्रे समुच्चरिते निक्षेपनिर्युक्त्यनुगमेन तदवयवे निक्षिप्ते सत्युपोद्घातनिर्युक्तेरवसरः, सा च 'उद्देसे' त्यादिना द्वारगाथाद्वयेनानुगन्तव्या । साम्प्रतं सूत्रस्पर्शिक निर्युक्तेरवसरः, तत्रापि सुगमनामस्थापनाव्युदासेन द्रव्यादिकमाह
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मुद्रण दोषात् अत्र निर्युक्ति-क्रम पुनः लिखितम्, तत् कारणत्वात् मया 'R' संज्ञा दत्वा निर्युक्तिः '१६७-२' निर्देशितः
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लोक.बि. २ उद्देशकः १
॥ ८४ ॥
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[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति: [१७०-R.] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
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दीप
ब्बगुणो ब्वं चिय गुणाण जं तमि संभवो होइ । सचित्ते अचित्ते मीसंमि य होइ दवंमि ॥१७॥
तत्र द्रव्यगुणो नाम द्रव्यमेव, किमिति !, गुणानां यतो गुणिनि तादात्म्येन सम्भवात् (क), ननु च द्रव्यगुणयोर्लक्षणहाविधानभेदाभेदः, तथाहि-द्रव्यलक्षण-गुणपर्यायवद् द्रव्यं, विधानमपि-धर्माधर्माकाशजीवपुद्गलादिकमिति, गुणल-IIM
क्षण-द्रव्याश्रयिणः सहवर्तिनो निर्गुणा गुणा इति, विधानमपि-ज्ञानेच्छाद्वेषरूपरसगन्धस्पर्शादयः स्वगतभेदभिन्ना इति, नैष दोषो, यतो द्रव्ये सचित्ताचित्तमिश्रभेदभिन्ने स गुणस्तादात्म्येन स्थितः, तत्राचित्तद्रव्यं द्विधा-अरूपि रूपि च, तत्रारूपिद्व्यं त्रिधा-धर्माधर्माकाशभेदभिन्न, तच्च गतिस्थित्यवगाहदानलक्षणं, गुणोऽप्यस्यामूर्तत्वागुरुलघुपयोंयलक्षणः, तत्रामूर्तत्वं त्रयस्यापि स्वं रूपं न भेदेन व्यवस्थितम् , अगुरुलघुपर्यायोऽपि, तत्पर्यायत्वादेव, मृदो मृत्पिण्ड
स्थासकोशकुशूलपर्यायवत् , रूपिद्रव्यमपि स्कन्धतद्देशप्रदेशपरमाणुभेदं, तस्य च रूपादयो गुणाः अभेदेन व्यवस्थिताः, साभेदेनानुपलब्धेः, संयोगविभागाभावात् , स्वात्मवत् । तथा सचित्तमप्युपयोगलक्षणलक्षितं जीवद्रव्यं, न च तस्माद्भिन्ना
ज्ञानादयो गुणाः, तद्देदे जीवस्याचेतनत्वप्रसङ्गात् , तत्सम्बन्धादविष्यतीति चेत्, अनुपासितगुरोरिदं वचो, यतो न हि स्वतोऽसती शक्तिः कर्तुमन्येन पार्यते, न ह्यन्धः प्रदीपशतसम्बन्धेऽपि रूपावलोकनायालमिति । अनयैव दिशा मिश्रद्रव्येsप्येकत्वसंयोजना स्वबुद्ध्या कार्येति गाथार्थः ॥ तदेवं द्रव्यगुणयोरेकान्तेनैकत्वे प्रतिपादिते सत्याह शिष्यः-तत्किमिदानीमभेदोऽस्तु !, नैतदप्यस्ति, यतः सर्वथाऽभेदेऽभ्युपगम्यमाने सत्येकेनैवेन्द्रियेण गुणान्तरस्याप्युपलब्धेरपरेन्द्रियवैफल्यं स्यात्, तथाहि-चूतफलरूपादौ चक्षुराद्युपलभ्यमाने रूपाद्यात्मभूतावयविद्रव्याव्यतिरिक्तरसादेरप्युपलब्धिः स्थाद्, रू
अनक्रम
मुद्रण दोषात् अत्र नियुक्ति-क्रम पुन: लिखितम्, तत् कारणत्वात् मया 'R' संज्ञा दत्वा नियुक्ति: १७०-R' इति निर्देशित:
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति : [१७०-R.] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचा- रावृत्तिः (शी०)
सूत्रांक [६१]
दीप
पादिस्वरूपवत्, एवं ह्यभेदः स्याद्-यदि रूपादौ समुपलभ्यमानेऽन्येऽपि समुपलभ्येरन् , अन्यथा विरुद्धधर्माध्यासाद्विधरन् घटपटवदिति । तदेवं भेदाभेदोपपत्तिभिर्व्याकुलितमतिः शिष्यः पृच्छति-उभयथाऽपि दोषापत्तिदर्शनात्कथं || गृहीमः, आचार्य आह-अत एव भेदाभेदोऽस्तु, तत्राभेदपक्षे द्रव्यं गुणो भेदपक्षे तु भावो गुण इति, तथाहि-गुणगु-18
उद्देशकः१ णिनोः पर्यायपर्यायिणोः सामान्यविशेषयोरवयवावयविनोर्मेदाभेदव्यवस्थानेनैवात्मभावसद्भावात्, आह हि-"दव्वं पज्जवविजुयं दबविउत्ता य पज्जवा णस्थि । उप्पायटिइभंगा हंदि दवियलक्खणं एयं ॥ १ ॥ नयास्तव स्यासदला|छिता इमे, रसोपविद्धा इव लोहधातवः । भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो, भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः ॥२॥"इहा त्यादि स्वयूध्यरत्र बहु विजृम्भितमित्यले विस्तरेण । एतदेव नियुक्तिकारः समस्तद्रव्यप्रधाने जीवद्रव्ये गुणभेदेन व्यवस्थितमाह__संकुचियवियसियत्तं एसो जीवस्स होइ जीवगुणो। पूरेइ हंदि लोग बहुप्पएसत्तणगुणेणं ॥ १७१ ॥
जीवो हि सयोगिवीर्यसद्व्यतया प्रदेशसंहारविसर्गाभ्यामाधारवशात् प्रदीपवत् सङ्कुचति विकसति च, एष जीवस्यात्मभूतो गुणो, भेदं विनाऽपि षष्ठ उपलब्धेः, तद्यथा-राहोः शिरः शिलापुत्रकस्य शरीरमिति, तद्भव एव वा सप्तसमुद्घातवशात् सङ्घचति विकसति च, सम्यक्-समन्ततः उत्-प्राबल्येन हननम् -इतश्वेतश्चात्मप्रदेशानां प्रक्षेपणं समु
॥८५॥ घातः, स च कषायवेदनामारणान्तिकवैक्रियतैजसाहारककेवलिसमुधातभेदात् सप्तधा, तत्र कषायसमुद्घातोऽनन्तापदव्यं पर्यायवियुतं द्रव्यनियुताय पर्थवा न सन्ति । उत्पादस्थितिमा हन्दि द्रव्यलक्षणमेतत् ॥ १ ॥
अनक्रम
मुद्रण दोषात् अत्र नियुक्ति-क्रम पुन: लिखितम्, तत् कारणत्वात् मया 'R' संज्ञा दत्वा नियुक्ति: १७०-R' इति निर्देशित:
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति: [१७१-R.] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
[६१]
दीप
नुबन्धिक्रोधायुपहतचेतस आत्मप्रदेशानामितश्वेतश्च प्रक्षेपः, इत्येवं तीव्रतरवेदनोपहतस्यापि वेदनासमुद्घातः, मारणान्तिकसमुद्घातो हि मुमूर्षारसुमत आदित्सितोत्पत्तिप्रदेशे आलोकान्तादात्मप्रदेशानां भूयो भूयः प्रक्षेपसंहाराविति, वैक्रियसमुद्घातो वैकियलब्धिमतो वैक्रियोसादनाय बहिरात्मप्रदेशप्रक्षेपः, तैजससमुद्घातस्तैजसशरीरनिमित्तं तेजोलेश्यालब्धिमतस्तेजोलेश्याप्रक्षेपावसरे इति, आहारकसमुद्घातश्चतुर्दशपूर्वविद आहारकलब्धिमतः कचित्सन्देहापगमनाय तीर्थ
रान्तिकगमनार्थमाहारकशरीरं समुपादातुं बहिरात्मप्रदेशप्रक्षेपः, केवलिसमुद्घातं तु समस्तलोकव्यापितयाऽन्तनींताहै न्यसमुद्घातं नियुक्तिकारः स्वत एवाचष्टे-'पूरयति' व्याप्नोति हन्दीत्युपप्रदर्शने, किम्-'लोक' चतुर्दशरज्वात्मकमाकाशखण्डं, कुतो, बहुप्रदेशगुणत्वात्, तथाहि-उत्पन्नदिव्यज्ञान आयुषोऽल्पत्वमवधार्य वेदनीयस्य च प्राचुर्य दण्डादिक्रमेण लोकप्रमाणत्वादात्मप्रदेशानां लोकमापूरयति, तदुक्तम्-“दंड कवाडे मथुतरे यत्ति गाथार्थः ॥ गतो द्रव्यगुणः, क्षेत्रादिकमाह
देवकुरु सुसमसुसमा सिद्धी निम्भय दुगादिया चेव । कल भोअणुजु वंके जीवमजीवे य भावंमि ॥१७२।।
क्षेत्रगुणः देवकुर्वादिः, कालगुणे सुषमसुषमादिः, फलगुणे सिद्धिः, पर्यवगुणे निर्भजना, गणनागुणे द्विकादि, करणागुणे कलाकौशल्यम् , अभ्यासगुणे भोजनादि, गुणागुणे ऋजुता, अगुणगुणे वक्रता, भवगुणशीलगुणयोर्भावगुणार्थमुपात्तेन जीवग्रहणेन गतार्थत्वान्नाथायां पृथगनुपादानं, भवगुणो जीवस्य नारकादिर्भवः, शीलगुणो जीवः क्षान्त्याधु
१ दण्डः कपाटो मन्था अन्तराणि च.
अनक्रम
मुद्रण दोषात् अत्र नियुक्ति-क्रम पुन: लिखितम्, तत् कारणत्वात् मया 'R' संज्ञा दत्वा नियुक्ति: १७०-R' निर्देशित:
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[६१]
दीप
अनुक्रम [६२]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [१], मूलं [६१...], निर्युक्तिः [१७२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र - [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
॥ ८६ ॥
पेतो, भावगुणो जीवाजीवयोः, इति संयोज्यैकैको व्याख्यायते तत्र देवकुरूत्तरकुरु हरिवर्षरम्यक हैमवत हैरण्यवतषट्पञ्चा शदन्तरद्वीपकाकर्म्मभूमीनामयं गुणो, यदुत तत्रत्यमनुजा देवकुमारोपमाः सदावस्थितयौवना निरुपक्रमायुषो मनोज्ञशदादिविषयोपभोगिनः स्वभावमाद्देवार्जवप्रकृतिभद्रकगुणासन्नदेवलोकगतयश्च भवन्ति । कालगुणोऽपि भरतैरावतयोॐ स्तिसृष्वप्येकान्तसुषमादिषु समास स एव सदावस्थितयौवनादिरिति । फलमेव गुणः फलगुणः फलं च क्रियाया भवति, तस्याश्च क्रियायाः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररहिताया ऐहिकामुष्मिकार्थं प्रवृत्ताया अनात्यन्तिकोऽनैकान्तिको भवन 5. फलगुणोऽप्यगुण एव भवति, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रक्रियायास्त्वैकान्तिकात्यन्तिकानाबाधसुखाख्यसिद्धिफलगुणोऽवाप्यते एतदुक्तं भवति सम्यग्दर्शनादिकैव क्रिया सिद्धिफलगुणेन फलवती, अपरा तु सांसारिक सुखफलाभास एव, फलाध्यारोपान्निष्फलेत्यर्थः । पर्यायगुणो नाम द्रव्यस्यावस्थाविशेषः पर्यायः स एव गुणः पर्यायगुणः, गुणपर्याययोर्नयवादान्तरेणाभेदाभ्युपगमात् स च निर्भजनारूपो, निश्चिता भजना निर्भजना निश्चितो भाग इत्यर्थः तथाहि--स्कन्ध द्रव्यं देशप्रदेशेन भिद्यमानं परमाण्वन्तं भेदं ददाति परमाणुरप्येकगुण कृष्ण द्विगुणकृष्णादिना अनन्तशोऽपि भिद्यमानो | भेददायीति । गणनागुणो नाम द्विकादिकः, तेन च सुमहतोऽपि राशेर्गणनागुणेनेयत्ताऽवधार्यते । करणगुणो नाम कलाकौशलं, तथाहि उदकादी करणपाटवार्थ गात्रोत्क्षेपादिकां क्रियां कुर्वन्ति । अभ्यासगुणो नाम भोजनादिविषयः, तद्यथा तदहर्जातबालकोऽपि भवान्तराभ्यासात् स्तनादिकं मुख एव प्रक्षिपति उपरतरुदितश्च भवति, यदिवाऽभ्यासवशात् सन्तमसेऽपि कवलादेर्मुखविवरप्रक्षेपाया (पो व्याकुलित चेत सोऽपि च तुदद्गात्र कण्डूयनमिति । गुणागुणो नाम गुण
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लोक.वि. २ उद्देशकः १
॥ ८६ ॥
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[६१]
दीप
अनुक्रम
[६२]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [१], मूलं [६१...], निर्युक्तिः [१७२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र - [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
एव कस्यचिदगुणत्वेन विपरिणमते, यथाऽऽर्जवोपेतस्यर्जुत्वाख्यो गुणो मायाविनः प्रत्यगुणो भवति, उक्तं च-- "शाठ्यं हीमति गण्यते व्रतरुचौ दम्भः शुची कैतवं शूरे निर्घृणता ऋजी विमतिता दैन्यं प्रियाभाषिणि । तेजस्विन्यवलिप्तता मुखरता वक्तर्यशक्तिः स्थिरे, तत्को नाम गुणो भवेत् स विदुषां यो दुर्जनैर्नाङ्कितः १ ॥ १ ॥" । अगुणगुणो नामागुण एव च कस्यचित् गुणत्वेन विपरिणमते, स च वक्रविषयो, यथा गौर्गलिरसञ्जातकिणस्कन्धो गोगणस्य मध्ये सुखेनैवास्ते, तथा च " गुणानामेव दौर्जन्याहुरि धुर्यो नियुज्यते । असञ्जातकिणस्कन्धः, सुखं जीवति गौर्गलिः ॥ १ ॥ । भवगुणो नाम भवन्ति- उत्पद्यन्ते तेषु तेषु स्थानेष्विति नारकादिर्भवः, तत्र तस्य वा गुणो भवगुणः, स च जीवविषयः, तद्यथानारकास्तीव्रतरवेदनासहिष्णवस्तिलशश्छिन्नसन्धानिनोऽवधिमन्तश्च भवगुणादेव भवन्ति, तिर्यञ्चश्च सदसद्विवेकविकला अपि सन्तो गगनगमनलब्धिमन्तो, गवादीनां च तृणादिकमप्यशनं शुभानुभावेनापद्यते, मनुजानां चाशेषकर्मक्षयो, देवानां च सर्वशुभानुभावो भवगुणादेवेति । शीलगुणो नाम परैराकुश्यमानोऽपि शीलगुणादेव न क्रोधवशो भवति, अथवा शब्दादिके शोभने अशोभने वा स्वभावादेव विदितवेद्यवन्माध्यस्थ्यमवलम्बते । भावगुणो नाम भावाः-औद विकादयस्तेषां गुणो भावगुणः, स च जीवाजीवविषयः, तत्र जीवविषय औदयिकादिः पोढा, तत्रौदयिकः प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च तीर्थकराहारकशरीरादिः प्रशस्तः, अप्रशस्तस्तु शब्दादिविषयोपभोगहास्यरत्यरतीत्यादिः, औपशमिक उपशमश्रप्यन्तर्गतायुष्कक्षयानुत्तरविमानप्राप्तिलक्षणस्तथा सत्कर्म्मानुदयलक्षणश्चेति, क्षायिकभावगुणश्चतुर्द्धा तद्यथा- क्षीणसस
१ . २ दौरात्म्यात् प्र.
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति : [१७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
लोक-वि.२
प्रत
(शी०)
सूत्रांक [६१]
दीप
श्रीआचा- कस्य पुनर्मिथ्यात्वागमनं १क्षीणमोहनीयस्यावश्यंभाविशेषघातिकर्मक्षयः २ क्षीणघातिकर्मणोऽनावरणज्ञानदर्शनावि- राङ्गवृत्तिःर्भावः ३ अपगताशेषकर्मणोऽपुनर्भवस्तथाऽऽत्यन्तिकैकान्तिकानाबाधपरमानन्दलक्षणसुखावाप्ति ४ श्चेति, क्षायोप
दशमिकः क्षायोपशमिकदर्शनाद्यवाप्तिरिति, पारिणामिको भव्यत्वादिरिति, सान्निपातिकस्वौदयिकादिपश्चभावसमकाल-|
निष्पादितः, तद्यथा-मनुष्यगत्युदयादौदयिकः सम्पूर्णपञ्चेन्द्रियत्वावाप्तेः क्षायोपशमिकः दर्शनसप्तकक्षयात् क्षायिकः ॥८७॥
चारित्रमोहनीयोपशमादीपशमिकः भव्यत्वासारिणामिक इति, उक्तो जीवभावगुणः । साम्प्रतमजीवभावगुणः, स चौद|यिकपारिणामिकयोरेव सम्भवति, नान्येषां, तत्रौदयिकस्तावद् उदये भव औदयिका, स चाजीवाश्रयोऽनया विवक्षया,
यदुत-काश्चित् प्रकृतयः पुद्गलविपाकिन्य एव भवन्ति, काः पुनस्ताः ?, उच्यन्ते, औदारिकादीनि शरीराणि पश्च षट् 8 संस्थानानि वीण्यङ्गोपाङ्गानि षट् संहननानि वर्णपञ्चकं गन्धद्वयं पञ्च रसा अष्टौ स्पर्शा अगुरुलधुनाम उषघातनाम पराघातनाम उद्योतनाम आतपनाम निर्माणनाम प्रत्येकनाम साधारणनाम स्थिरनाम अस्थिरनाम शुभनाम अशुभनाम, एताः सर्वा अपि पुनलविपाकिन्या, सत्यपि जीवसम्बन्धित्वे पुद्गलविषाकित्वादासामिति, पारिणामिकोऽजीवगुणस्तु द्वेषा-अनादिपारिणामिकः सादिपारिणामिकश्चेति, तत्रानादिपारिणामिको धर्माधर्माकाशानां गतिस्थित्यवगाहलक्षणः, सादिपारिणामिकस्त्वज्ञेन्द्रधनुरादीनां परमाणूनां च वर्णादिगुणान्तरापत्तिरिति गाथातासयार्थः ॥ उक्तो गुणो, मूल-| निक्षेपार्थमाह
मूले छकं दब्वे ओदइउचएस आइमूलं च । खित्ते काले मूलं भावे मूलं भवे तिचिहं ॥१७३ ।।
%*5
अनक्रम
%
KA5
%
॥८७॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति : [१७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
%A
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सूत्रांक [६१]
दीप
SAASANGARORADABAISASES
मूलस्य पोढा निक्षेपो, नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात्, नामस्थापने गतार्थे, द्रव्यमूल शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त त्रिधा-औदयिकमूलमुपदेशमूलमादिमूलं चेति, तत्रौदयिकद्रव्यमूलं वृक्षादीनां मूलत्वेन परिणतानि यानि द्रव्याणि,
उपदेशमूलं यचिकित्सको रोगप्रतिघातसमर्थ मूलमुपदिशत्यातुरायेति, तच्च पिप्पलीमूलादिकं, आदिमूलं नाम यदृक्षाG||दिमूलोसत्तावाद्य कारणं, तद्यत् स्थावरनामगोत्रप्रकृतिप्रत्ययान्मूलनिवर्तनोत्तरप्रकृतिप्रत्ययाच मूलमुत्सद्यते, एतदुक्तं ||
भवति-तेषामौदारिकशरीरत्वेन मूलनिर्वर्तकानां पुद्गलानामुदयिष्यतां कार्मणं शरीरमाचं कारणं, क्षेत्रमूलं यस्मिन् क्षेत्रे मूलमुखद्यते व्याख्यायते वा, एवं कालमूलमपि, यावन्तं वा कालं मूलमास्ते, भावमूलं तु विधेति गाथार्थः ॥ तथाहि
ओदइयं उवदिट्ठा आइ तिगं मूलभाव ओदइअं। आयरिओ उवदिहा विणयकसायादिओ आई ॥१७॥ भावमूलं त्रिविधम्-औदायिकभावमूलम् उपदेष्टुमूलम् आदिमूल चेति, तत्रौदयिकभावमूलं वनस्पतिकायमूलत्वमनुभवन्नामगोत्रकर्मोदयात् मूलजीव एव, उपदेष्ट्रभावमूलं त्वाचार्य उपदेष्टा-यैः कर्मभिः प्राणिनो मूलत्वेनोपद्यन्ते, तेषामपि मोक्षसंसारयोर्वा यदादिभावमूलं तस्य चोपदेष्टेत्येतदेव दर्शयति-'विणयकसाआइओ आई तत्र मोक्षस्यादि
मूलं ज्ञानदर्शनचारित्रतपऔपचारिकरूपः पञ्चधा विनयः, तन्मूलत्वान्मोक्षावाप्ले, तथा चाह-"विर्णया णाणं णाणाउ हादसणं दसणाहि चरणं तु । घरणाहितो मोक्खो मुक्खे सुक्खं अणाबाहं ॥१॥ विनयफलं शुश्रूषा गुरुशुश्रूषाफलं श्रुतज्ञानम् । ज्ञानस्य फलं विरतिविरतिफलं चाश्रवनिरोधः ॥२॥ संवरफलं तपोवलमथ तपसो निर्जरा फलं दृष्टम् ।
१ विनयात् ज्ञानं शानादर्शनं ज्ञानदर्शनाभ्यो चरणं तु । ज्ञानदर्शनचरणेभ्यस्तु गोक्षो मोक्षे सौख्यमनायाधम् ॥१॥
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4AESA-45
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[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति : [१७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६१]
दीप
श्रीआचा- तस्माक्रियानिवृत्तिः क्रियानिवृत्तेरयोगित्वम् ॥ ३॥ योगनिरोधाद् भवसन्ततिक्षयः सन्ततिक्षयान्मोक्षः । तस्मात्कल्या
लोक.वि.२ राजवृत्तिः णानां सर्वेषां भाजनं विनयः॥ ४ ॥” इत्यादि, संसारस्य त्वादिमूलं विषयकषाया इति ॥ मूलमुक्तमिदानीं स्थानस्य
उद्देशका (शी०) पश्चदाधा निक्षेपमाह
णामंठवणादविए खित्तद्धा उह उवरई वसही। संजम परगह जोहे अयल गणण संधणा भावे ॥१७५ ॥ 1८८॥
तत्र द्रव्यस्थानं ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्याणां सचित्ताचित्तमिश्राणां स्थानम्-आश्रयः, क्षेत्रस्थानं भरतादि। ऊर्भाधस्तिर्यग्लोकादिति, यत्र वा क्षेत्रे स्थानं व्याख्यायते, अद्धा-कालः तत्स्थानं द्विधा-कायस्थितिभवस्थितिभेदात्, दतत्र कायस्थितिः पृथिव्यप्तेजोवायूनामसवधेया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः, वनस्पत्तेस्तु ता एवानन्ता, विकलेन्द्रियाणाम(णां)-11
सङ्ख्या वर्षसहस्राः, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुजानां सप्ताष्टौ वा भवाः । भवस्थितिस्तु वायूदकवनस्पतिपृथिवीनां त्रिसप्तदशद्वाविंशतिवर्षसहस्रात्मिका, तेजसखीण्यहोरात्राणि, द्वीन्द्रियाणां शङ्कादीनां द्वादश वर्षाणि, बीन्द्रियाणां पिपीलिकादी-| |नामेकोनपञ्चाशदहोरात्राणि, चतुरिन्द्रियाणां अमरादीनां पण्मासाः, पथेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याणां त्रीणि पल्योपमानि, देवानां नारकाणां च कायस्थितेरभावाद्भवस्थितिः त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणीति, इयमुत्कृष्टा द्विरूपापि, जघन्या तु सर्वेपामन्तर्मुहर्तात्मिका, नवरं देवनारकयोर्दश वर्षसहस्राणीति, अथवा अद्धास्थान-समयावलिकामुहतोहोरात्रपक्षमासत्वेमायनसंवत्सरयुगपल्योपमसागरोपमोत्सप्पिण्यवसप्पिणीपुद्गलपरावर्सातीतानागतसर्वाद्धारूपमिति । ऊस्थानं तु कायोत्स-1||
X ॥८८॥ र्गादिकम् , अस्योपलक्षणत्वान्निषण्णाद्यपि गृह्यते । उपरतिः-विरतिः, तत्स्थानं देशे सर्वत्र च श्रावकसाधुविषयं । वसति
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[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [१], मूलं [६१...], निर्युक्तिः [१७५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित......आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
स्थानं यो यत्र ग्रामगृहादौ वसति । संयमस्थानं संयमः - सामायिकच्छेदोपस्थापनीयपरिहार विशुद्धिसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातरूपः, तस्य पञ्चविधस्याप्यसङ्घयेयानि संयमस्थानानि, कियदसङ्ख्यमिति चेत् अतीन्द्रियत्वादर्थस्य न साक्षान्निर्देष्टुं शक्यते, आगमानुसारोपमया तूच्यते-इहैकसमयेन सूक्ष्माग्निजीवा असङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणा उत्पद्यन्ते, तेभ्योशिकायत्वेन परिणता असङ्ख्येयगुणाः, ततोऽपि तत्कायस्थितिरसङ्घयेयगुणाः, ततोऽप्यनुभागबन्धाध्यवसायस्थानान्यसङ्घ धेयगुणानि, संयमस्थानान्यप्येतावन्त्येवेति सामान्यतः, विशेषतस्तूच्यते-सामायिकच्छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धीनां प्रत्येकमसङ्घयेयलोकाकाशप्रदेशतुल्यानि संयमस्थानानि, सूक्ष्मसम्परायस्य त्वान्तर्मुहर्त्तिकत्वादन्तर्मुहूर्त्तसमय तुल्यान्यसङ्ख्येयानि संयमस्थानानि, यथाख्यातस्य त्वेकमेवाजघन्योत्कृष्टं संयमस्थानम्, अथवा संयमश्रेण्यन्तर्गतानि संयमस्थानानि ग्राह्याणि, सा चानेन क्रमेण भवति, तद्यथा-अनन्तचारित्रपर्यायनिष्पादितमेकं संयमस्थानम्, असङ्खयेयसंयमस्थाननिर्वर्त्तितं कण्डकं, तैश्चासङ्घयेयैर्जनितं षट्स्थानकं, तदसङ्घयेयात्मिका श्रेणीति । प्रग्रहस्थानं तु प्रकर्षेण गृह्यते | वचोऽस्येति प्रग्रहः- ग्राह्यवाक्यो नायक इत्यर्थः, स च लौकिको लोकोत्तरथ, तस्य स्थानं प्रग्रहस्थानं, लौकिकं तावत्यश्वविधं तद्यथा-राजा युवराजो महत्तरः अमात्यः कुमारश्चेति, लोकोत्तरमपि पञ्चविधं तद्यथा - आचार्योपाध्यायप्रवृतिस्थविरगणावच्छेदकभेदादिति । योधस्थानं पञ्चधा, तद्यथा-आलीढप्रत्यालीढवैशाखमण्डलसमपादभेदात् । अचलस्थानं तु चतुर्द्धा सादिसपर्यवसानादिभेदात्, तद्यथा-सादिसपर्यवसानं परमाण्वादेर्द्रव्यस्यैकप्रदेशादाववस्थानं जघन्यत एक समयमुत्कृष्टत्तश्चासङ्खधेयकालमिति, साधपर्यवसानं सिद्धानां भविष्यदद्धारूपम्, अनादिसपर्यवसानमतीताद्धारु
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[६१]
दीप
अनुक्रम [६२]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [१], मूलं [ ६१...], निर्युक्ति: [ १७५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित......आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
॥ ८९ ॥
| पस्य शैलेश्यवस्था त्यसमये कार्म्मणतैजसशरीर भव्यत्वानां चेति, अनाद्यपर्यवसानं धर्माधर्म्माकाशानामिति । गणनास्थानमेकल्यादिकं शीर्षप्रहेलिकापर्यन्तं । सन्धानस्थानं द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च, पुनरप्येकैकं द्विधा छिन्नाच्छिन्नभेदात्, तत्र द्रव्यच्छिन्नसन्धानं कशुकादेः, अच्छिशसन्धानं तु पक्ष्मोत्पद्यमानतन्त्वादेरिति, भावसन्धानमपि प्रशस्ताप्रशस्त भेदात् द्वेधा, तत्र प्रशस्ताच्छिन्नभावसन्धानमुपशमक्षपक श्रेण्यामारोहतो जन्तोरपूर्वसंयम स्थानान्यच्छिन्नान्येव भवन्ति, श्रेणिव्यतिरेकेण वा प्रवर्द्धमानकण्डकस्येति, छिन्नप्रशस्तभावसन्धानं पुनरौपशमिकादिभावादौदयिकादिभावान्तरगतस्य पुनरपि शुद्धपरिणामवतः तत्रैव गमनम् अप्रशस्ताच्छिन्न भावसन्धानमुपशमश्रेण्याः प्रतिपततोऽविशुद्ध्यमानपरिणामस्यानन्तानुबन्धिमिथ्यात्वोदयं यावत्, उपशमश्रेणिमन्तरेणापि कषायवशात् बन्धाध्यवसाय स्थानान्युत्तरोत्तराण्यवगाहमानस्य वा इति, अप्रशस्तच्छिन्नभावसन्धानं पुनरौदयिकभावादीपशमिकादिभावान्तरसङ्क्रान्तौ सत्यां पुनस्तत्रैव गमन मिति इह द्वारद्वयं यौगपद्येन व्याख्यातं, तत्र सन्धानस्थानं द्रव्यविषयमितरत्तु भावविषयमित्युक्तं स्थानम् ॥ अथवा भावस्थानं कपायाणां यत् स्थानं तदिह परिगृह्यते, तेषामेव जेतव्यत्वेनाधिकृतत्वात् तेषां किं स्थानं?, यदाश्रित्य च ते भवन्ति, शब्दादिविषयानाश्रित्य च ते भवन्तीति तद्दर्शयति
पंचसु कामगुणेसु य सद्दष्फरिसरसरूवगंधेसुं । जस्स कसाया वहति मूलद्वाणं तु संसारे ॥ १७६ ॥ तत्रेच्छानङ्गरूपः कामस्तस्य गुणा यानाश्रित्यासी चेतसो विकारमादर्शयति ते च शब्दस्पर्शरसरूपगन्धास्तेषु पश्चस्वपि व्यस्तेषु समस्तेषु वा विषयभूतेषु 'यस्य' जन्तोर्विषयसुखपिपासोन्मुखस्यापरमार्थदर्शिनः संसाराभिष्वङ्गिणो राग
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लोक.वि. २ उद्देशकः १
॥ ८९ ॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति : [१७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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[६१]
दीप
द्वेषतिमिरोपप्लुतदृष्टेमनोज्ञेतरविषयोपलब्धौ सत्यां कषाया 'वर्तन्ते' प्रादुर्भवन्ति, तन्मूलश्च संसारपादपः प्रादुर्भवतीत्यतः शब्दादिविषयोद्भूत(ताः)कषायाः 'संसार संसारविषयं मूलस्थानमेवेति, एतदुक्तं भवति-रागाद्युपहतचेताः परमार्थमजाना
नोऽतत्स्वभावेऽपि तत्स्वभावारोपणेनान्धादयन्धतमः कामी मोदते, यत आह-"दृश्य वस्तु परं न पश्यति जगदत्यन्धः पुरोऽवस्थितं, रागान्धस्तु यदस्ति तत्सरिहरन् यन्नास्ति तत् पश्यति । कुन्देन्दीवरपूर्णचन्द्रकलशश्रीमलतापल्लवा
नारोग्याशुचिराशिषु प्रियतमागात्रेषु यन्मोदते ॥१॥" द्वेष वा कर्कशशब्दादौ बजतीति, ततश्च मनोज्ञेतरशब्दादिविपयाः कषायाणां मूलस्थानं, ते च संसारस्येति गाथातात्पर्यार्थः ॥ यदि नाम शब्दादिविषयाः कषायाः कथं तेभ्यः संसार इति ?, उच्यते, यतः कर्मस्थितेः कषाया मूलं, साऽपि संसारस्य, संसारिणश्चावश्यंभाविनः कषाया इति, एतदेवाह| -जह सव्वपायवाणं भूमीए पइडियाई मूलाई । इय कम्मपायवाणं संसारपइडिया मूला ॥ १७७॥
यथा सर्वपादपानां भूमौ प्रतिष्ठितानि मूलानि, एवं कर्मपादपानां संसारे कषायरूपाणि मूलानि प्रतिष्ठितानीति गाथार्थः ॥ ननु च कथमेतच्छ्रद्धेयं-कर्मणः कषाया मूल मिति?, उच्यते, यतो मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकपाययोगा बन्धहेतवः, तथा चागम:-"जीवे णं भंते! कतिहिं ठाणेहिं णाणावरणिज कम्मं बंधइ, गोयमा! दोहिं ठाणेहिं, तंजहारागेण व दोसेण व । रागे दुविहे-माया लोभे य, दोसे दुविहे-कोहे य माणे य । एएहिं चउहि ठाणेहिं वीरिओवगूहिएहिं
जीवो मदन्त । कतिभिः स्थान नावरणीयं कर्म बनाति !, गौतम। द्वाभ्यां स्थानाभ्या, तद्यथा-रागेण वा द्वेषेण वा । रागो द्विगिधो-माया लोभन, द्वेषो द्विविधः-कोषध मानक्ष, एतैश्चतुर्मिः स्थानवार्योपगूदानावरणीयं कम बनाति.
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति : [१७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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दीप
श्रीआचा-याणाणावरणिज कम्मं बंधई" एवमष्टानामपि कर्मणां योज्यमिति । ते च कषाया मोहनीयान्तःपातिनोऽष्टमकारस्य च
लोक.वि.२ राङ्गवृत्तिः |कर्मणः कारणं, मोहनीय कामगुणानां च (इति) दर्शयति(शी०) अट्टविहकम्मरुक्खा सव्वे ते मोहणिजमूलागा | कामगुणमूलगं वा तम्मूलागं च संसारो ॥१७८ ।।
हा उद्देशकः१ यदवादि प्राक्-'इय कम्मपायवाण' तत्र कतिप्रकाराः ते कर्मपादपाः किंकारणाश्चेति ?, उच्यते, अष्टविधकर्म॥९०॥
वृक्षाः, ते सर्वेऽपि मोहनीयमूलाः, न केवलं कषायाः, कामगुणा अपि मोहनीयमूलाः, यस्माद्वेदोदयात् कामाः, वेदश्च | मोहनीयान्तःपातीत्यतस्तन्मोहनीयं मूलम्-आधं कारणं यस्य संसारस्य स तथा इति गाथार्थः ॥ तदेवं पारम्पर्येण |संसारकपायकामानां कारणत्वान्मोहनीय प्रधानभावमनुभवति, तत्क्षये चावश्यम्भावी कर्मक्षयः, तथा चाभाणि-18 |"जह मत्थयसूईए, हयाए हम्मए तलो। तहा कम्माणि हम्मंति, मोहणिजे खयं गए ॥ १॥" तञ्च द्विधा-दर्शनचारित्रमोहनीयभेदात्, एतदेवाह
दुविहो अ होइ मोहो दसणमोहो चरित्तमोहो अ । कामा चरित्तमोहो तेणऽहिगारो इहं सुत्ते ॥ १७९॥ मोहनीयं कर्म द्वेधा भवति, दर्शनमोहनीयं चारित्रमोहनीयं चेति, बन्धहेतो?विध्यात्, तथाहि-अहेरिसद्धचैत्यतपःश्रुतगुरुसाधुसहप्रत्यनीकतया दर्शनमोहनीयं कर्म वभाति, येन चासावनन्तसंसारसमुद्रान्तःपात्येवावतिष्ठते, तथा तीनकषायबहुरागद्वेषमोहाभिभूतः सन् देशसर्वविरत्युपघाति चारित्रमोहनीयं कर्म बन्नाति, तत्र मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वस
R ९०॥ १ यथा मस्तकसूच्या हतायां इन्वते तालः । तथा कानि हन्यन्ते मोहनीय क्षयं गते ॥ १ ॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति : [१७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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सूत्रांक [६१]
म्यक्त्वभेदात्रेधा दर्शनमोहनीय, तथा षोडशकषायनवनोकपायभेदाच्चारित्रमोहनीयं पञ्चविंशतिधा, तत्र कामाः शब्दादयः पञ्च चारित्रमोहः, तेन चान सूत्रेऽधिकारो, यतः कषायाणां स्थानमत्र प्रकृतं, तच शब्दादिकपञ्चगुणात्मकमिति गावार्थः । तत्र चारित्रमोहनीयोत्तरप्रकृतिस्त्रीपुंनपुंसकवेदहास्यरतिलोभाश्रितकामाश्रयिणः कपायाः संसारमूलस्य च कर्मणः प्रधानं कारणमिति प्रचिकटयिषुराह
संसारस्स उ मूलं कम्मं तस्सवि हुंति य कसाया। 'संसारस्य' नारकतिर्यनरामरगतिसंसृतिरूपस्य(मूल)कारणमष्टप्रकारं कर्म,तस्यापि कर्मणः कषायाः-क्रोधादयो निमित्त भवन्ति । तेषां च प्रतिपादितशब्दादिस्थानानां प्रचुरस्थानत्वप्रतिपादनाय पुनरपि स्थानविशेष गाथाशकलेनाह
ते सयणपेसअस्थाइएसु अज्झत्थओ अ ठिआ ॥१८॥ स्वजन:-पूर्वापरसंस्तुतो मातापितॄश्वशुरादिकः प्रेष्यो-भृत्यादिरों-धनधान्यकुष्यवास्तुरतभेदरूपः ते स्वजनादयः कृतद्वन्द्वा आदिर्येषां मित्रादीनां तेषु स्थिताः कषाया विषयरूपतया, अध्यात्मनि च विषयिरूपतया प्रसन्नचन्द्रैकेन्द्रियादीनामिति गाथार्थः॥ तदेवं कषायस्थानप्रदर्शनेन सूत्रपदोपात्तं स्थानं परिसमाप्य तेषामेव कषायाणां सूत्रमूलपदोपात्तानां जेतव्यत्वाधिकृतानां निक्षेपमाह
-णामंठवणादविए उप्पत्ती पच्चए य आएसो। रसभावकसाए या तेण य कोहाइया चउरो ॥ १८१॥ यथाभूतार्थनिरपेक्षमभिधानमानं नाम, सद्भावासद्भावरूपा प्रतिकृतिः स्थापना, कृतभीमधूकुट्युत्कटललाट(पट)घटितत्रि
२-%EXTRA
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आगम
(०१)
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सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम [६२]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [१], मूलं [ ६१...], निर्युक्ति: [ १८१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित......आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
॥ ९१ ॥
श्रीआचा-* शूलरक्तास्यनयनसन्दष्टाधरस्यन्द्मानस्वेदसलिलचित्र पुस्ताञ्चक्षवराटकादिमतेति द्रव्यकषाया शशरीर भव्यशरीराभ्यां व्यतिराङ्गवृत्तिः १ रिक्ताः कर्म्मद्रव्यकषायाः नोकर्म्मद्रव्यकपायाश्चेति, स्वादित्सिता सानुदीर्णोदीर्णाः पुद्गला द्रव्यप्राधान्यात् कर्मद्रव्यक(शी० ) ( पायाः, नोकर्म्मद्रव्यकपायास्तु विभीतकादयः, उत्पत्तिकषायाः शरीरोपधिक्षेत्र वास्तुस्थाण्वादयो यदाश्रित्य तेषामुत्पत्तिः, * तथा चोक्तम्- 'किं ऐतो कइयरं जं मूढो धाणुअम्मि आवडिओ । धाणुस्स तस्स रूसइ न अप्पणो दुप्पओगस्स ॥ १शा" ५ प्रत्ययकषायाः कषायाणां ये प्रत्ययाः- यानि बन्धकारणानि, ते चेह मनोज्ञेतरभेदाः शब्दादयः, अत एवोसत्तिप्रत्यययोः * कार्यकारणगतो भेदः, आदेशकषायाः कृत्रिमकृतभ्रुकुटीभङ्गादयः रसतो रसकपायः कटुतिक्तकषायपञ्चकान्तर्गतः, भावकषायाः शरीरोपधिक्षेत्र वास्तुस्व जनप्रेष्याचादिनिमित्ताविर्भूताः शब्दादिकामगुणकारणकार्यभूत कषायकर्मोदयात्मपरिणामविशेषाः क्रोधमानमायालोभाः, ते चैकैकशोऽनन्तानुवन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसञ्ज्वलनभेदेन भिद्यमानाः पोडशविधा भवन्ति तेषां च स्वरूपानुबन्धफलानि गाथाभिरभिधीयन्ते, ताश्चेमाः- “जलैरेणुपुढ विपब्वयराईसरिसो चउब्विहो कोहो । तिणिसल्याकडहियसेलत्थंभोवमो माणो ॥ १ ॥ मायावलेहिगोमुत्ति मेंढ सिंगघणवंसमूलसमा । लोभो हलिद्दकद्दमखंजण किमिराय सामाणो ॥ २ ॥ पक्खचउमासवच्छर जावज्जीवाणुगामिणो कमसो । देवणरतिरियणारयगहसाहणहेयवो भणिया ॥ ३ ॥ एषां च नामाद्यष्टविधकषायनिक्षेपाणां कतमो नयः कमिच्छतीत्येतदभिधीयते तत्र नैग
१ किमेतस्मात्कष्टकर बन्मूढः स्थाणावापतितः । स्थाणवे तस्मै यति नात्मनो दुष्प्रयोगाय ॥ १ ॥ २ जवरेपृथ्वी पर्वतराजी सरशधतुर्विधः क्रोधः । तिनिशलताकाष्ठास्थि शैलखम्भोपो मानः ॥ १ ॥ मायाऽवलेखिका गोमूत्रिकामेष पनवंशी मूलसमा । लोभो हरिदाक मखजनकृनिरागसमानः ॥ २ ॥ पक्ष चतुर्मासकसस्यावज्जीवानुगामिनः क्रमशः देवननतिर्यभारकगतिसाधनको अणिताः ॥ ३ ॥
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लोक.वि. २ उद्देशकः १
॥ ९१ ॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति: [१८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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|मस्य सामाग्यविशेषरूपत्वान्नैकगमत्वाच्च तदभिप्रायेण सर्वेऽपि साधवो नामादया, सत्रहव्यवहारी तु कायसम्बाधाभावादादेशसमुत्पत्ती नेच्छता, ऋजुसूत्रस्तु वत्तेमानार्थनिष्ठत्वादादेशसमुत्पत्तिस्थापना मेच्छति, शब्दस्तु मानोऽपि कथशिन्दावान्तर्भावानामभावाविच्छतीति गाथातासर्यार्थः ॥ तदेवं कषायाः कर्मकारणत्वेनोक्तार, तदपि संसारस्य, सच कतिविध इति दर्शयति
दव्वे खित्ते काले भवसंसारे अ भाषसंसारे। पंचविहो संसारो जत्थेते संसरंति जिआ॥१८२॥ द्रव्यसंसारो व्यतिरिक्तो द्रव्यसंसृतिरूपः, क्षेत्रसंसारो येषु क्षेत्रेषु द्रव्याणि संसरन्ति, कालसंसारः यस्मिन् काल इति, नारकतिर्यनरामरगतिचतुर्विधानुपू[दयानवान्तरसङ्गमणं भवसंसारः, भावसंसारस्तु संसृसिस्वभाव औदयिकादिभावपरिणतिरूपः, तत्र च प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबन्धानां प्रदेशविपाकानुभवनम्, एवं द्रव्यादिकः पञ्चविधः संसारः, अथवा द्रव्यादिकश्चतुर्धा संसारः, तद्यथा-अश्वाद्धस्तिनं ग्रामानगरं वसन्तान भीम औदविकादौपशमिकमिति गाथार्थः ॥ तस्मिंश्च संसारे कर्मवनगाः प्राणिनः संसरन्तीत्यतः कर्मनिदर्शनार्थमाह
णामंठवणाकम्मं दबकम्मं पओगकम्मं च । समुदाणिरियावहिवं आहाकम्मं तवोकम्मं ॥ १८३ ॥ किहकम्म भावकम्मं दसविह कम्मं समासओ होइ। नामकर्म कम्आर्थशून्यमभिधानमात्र, स्थापनाकर्म पुस्तकपत्रादौ कर्मवर्गणानां सद्भावासद्भावरूपा स्थापना, द्रव्य-18 कर्म व्यतिरिक्तं द्विधा-द्रव्यकर्म नोद्रव्यकर्म च, तत्र द्रव्यकर्म कर्मवर्गणान्तापातिना पुगला बन्धयोग्या बध्यमाना
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति : [१८३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६१]
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श्रीआचा- बद्धाश्चानुदीर्णा इति, नोद्रव्यकर्म कृपीवलादिकर्म । अथ कर्मवर्गणान्तःपातिनः पुद्गला द्रव्यकर्मेत्यवाचि, काः पु-लोक.वि.२ रागवृत्तिः |नस्ता वर्गणा इति सङ्कीर्त्यन्ते ?, इह वर्गणाः सामान्येन चतुर्विधाः-द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात्, तत्र द्रव्यत एकत्यादि-I (शी०) सख्येयासख्येयानन्तप्रदेशिकाः क्षेत्रतोऽवगाढद्रव्यैकद्व्यादिसङ्ख्येयासङ्ख्येयप्रदेशारिमकाः कालत एकद्वयादिस
ख्येयासख्येयसमयस्थितिकाः भावतो रूपरसगन्धस्पर्शस्वगतभेदारिमकाः सामान्यतः, विशेषतस्तूच्यन्ते-तत्र पर॥९॥
माणूनामेका वर्गणा, एवमेकैकपरमाणूपचयात् सख्येयप्रदेशिकानां स्कन्धानां सख्येयाः असङ्ख्येयप्रदेशिकाना|मसख्येयाः, पताश्चौदारिकादिपरिणामाग्रहणयोग्याः, अनन्तप्रदेशिकानामप्यनन्ता अग्रहणयोग्याः, ता उल्लङ्गय औदारिकग्रहणयोग्यास्त्वनन्तानन्तप्रदेशिकाः खल्वनन्ता एव भवन्ति, तत्रायोग्योत्कृष्टवर्गणायां रूपे प्रक्षिप्ते औदारिकशरीरग्रहणयोग्या जघन्या वर्गणा भवति, पुनरेकैकप्रदेशवृद्ध्या प्रवर्द्धमाना औदारिकयोग्योत्कृष्टवर्गणा यावदनन्ता भवन्ति, अब जघन्योत्कृष्टयोः को विशेषः, जघन्यात् उत्कृष्टा विशेषाधिकाः, विशेषस्त्वस्या एवीदारिकजघन्यवर्गणाया। अनन्तभागः, तस्य चानन्तपरमाणुमयत्वादेकैकोत्तरप्रदेशोपचये सत्यप्यौदारिकयोग्यवर्गणानां जघन्योत्कृष्टमध्यवर्तिनी-11 नामानन्त्य, तत औदारिकयोग्योत्कृष्टवर्गणायां रूपप्रक्षेपेणायोग्यवर्गणा जघन्या भवन्ति, एता अप्येकैकप्रदेशवृद्ध्यो-| भास्कृष्टान्ता अनन्ता भवन्ति, जघन्योत्कृष्टवर्गणानां को विशेषः?, जघन्याभ्योऽसख्येयगुणा उत्कृष्टाः, ताश्च बहुप्रदे|शत्वादतिसूक्ष्मपरिणामत्वाच्चीदारिकस्यानन्ता एवाग्रहणयोग्या भवन्ति, अल्पप्रदेशस्वाद्वादरपरिणामत्वाच्च वैक्रियस्या-| ॥९२॥ पीति, अत्र च यथा यथा प्रदेशोपचयस्तथा तथा विश्रसापरिणामवशार्गणानां सूक्ष्मतरत्वमवसेयम् । एतदेवोत्कृष्टोपरि
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति : [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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सूत्रांक [६१]
दीप
रूपप्रक्षेपयोग्यायोग्यादिक वैक्रियशरीरवर्गणानां जघन्योत्कृष्टविशेषलक्षणं चावसेयं, तथा बैक्रियाहारकान्तरालवय॑योग्यवर्गणानां जघन्योत्कृष्टविशेषासङ्ख्येयगुणत्वमिति, पुनरप्ययोग्यवर्गणोपरि रूपप्रक्षेपात् जघन्याहारकशरीरयोग्यवगणा भवन्ति, ताश्च प्रदेशवृद्ध्या वर्द्धमाना उत्कृष्टां यावदनन्ता भवन्ति, अथ जघन्योत्कृष्टयोः किवदन्तरमिति? उच्यते, जघन्याभ्य उत्कृष्टा विशेषाधिकाः, को विशेष इति चेत्?, जघन्यवर्गणाया एवानन्तभागः, तस्याप्यनन्तपरमाणुत्वादाहारकशरीरयोग्यवर्गणानां प्रदेशोत्तरवृद्धानामानन्त्यमिति भावना, तस्यामेवोत्कृष्टवर्गणायां रूपे प्रक्षिप्ते जघन्या आहा|रकाग्रहणयोग्यवर्गणाः, ततः प्रदेशवृद्ध्या वर्द्धमाना उत्कृष्टां यावदनन्ता एव आहारकस्य सूक्ष्मत्वाद् बहुप्रदेशत्वाञ्चायोग्या एव भवन्ति, बादरत्वादल्यप्रदेशत्वाच्च तैजसस्येति, जघन्योत्कृष्टयोः कियदन्तरमिति ? उच्यते, जघन्याभ्य उत्कृष्टा अनन्तगुणाः, केन गुणकारेणेति चेत्, अभव्येभ्योऽनन्तगुणाः सिद्धानामनन्तभाग इति, तदुपरि रूपे प्रक्षिप्ते तैजसशरीरवर्गणा जघन्याः, एता अपि प्रदेशवृद्ध्या वर्धमाना उत्कृष्टां यावदनन्ता भवन्ति, अथ जघन्योत्कृष्टयोः कियदन्तरं?, जघन्याभ्य उत्कृष्टा विशेषाधिका, विशेषस्तु जघन्यवर्गणानन्तभागः, तस्याप्यनन्तप्रदेशत्वाजघन्योत्कृष्टान्तरालवर्गणानामानन्त्यं भवति, तैजसोत्कृष्टवर्गणोपरि रूपे प्रक्षिप्ते सत्यग्रहणवर्गणा भवन्ति, एवमेकादिवृद्धयोत्कृष्टान्ता अनन्ताः, ताश्चातिसूक्ष्मत्वाद् बहुप्रदेशत्वाच तैजसस्याग्रहणयोग्याः, बादरत्वात् अल्पप्रदेशत्वाच भाषाद्रव्यस्यापीति, जघ
न्योत्कृष्टयोरनन्तगुणत्वेन विशेषो, गुणकारश्चाभव्येभ्योऽनन्तगुणः सिद्धानामनन्तभाग इति, तस्यामयोग्योत्कृष्टवर्गहाणायां रूपे प्रक्षिप्ते जघन्या भाषाद्रव्यवर्गणा भवति, तस्याश्च प्रदेशवृद्ध्या उत्कृष्टवर्गणापर्यन्तान्यनन्तानि स्थानानि
अनक्रम
[196]
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[६१]
दीप
अनुक्रम
[६२]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], निर्युक्ति: [१८३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र - [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
॥ ९३ ॥
भवन्ति, जघन्योत्कृष्टयोविंशेषो जघन्यवर्गणानन्तभागाधिकोत्कृष्टवर्गणा भवति, अत्राप्यनन्तभागस्यानन्तपरमाण्यात्मकत्वाद्भाषाद्रव्ययोग्य वर्गणानामानन्त्यमवसेयं, तदनेनैकादिप्रदेशवृद्धिप्रक्रमेणायोग्यवर्गणानां जघन्योत्कृष्टादिकं ज्ञातव्यं, ॐ नवरं जघन्योत्कृष्टयोर्भेदोऽयम् अभव्यानन्तगुणः सिद्धानन्तभागात्मकः, तासां च पूर्व्वहेतुकदम्बकादेव भाषाद्रव्यानापानद्रव्ययोर योग्यत्वमवसेयम्, अयोग्योत्कृष्टवर्गणायां रूपे प्रक्षिप्ते आनापानवर्गणा जघन्या, ततो रूपोत्तरवृड्योकृष्टवर्गणान्ता अनन्ता भवन्ति, जघन्यातउत्कृष्टा जघन्यानन्तभागाधिका, तदुपरि रूपोसरवृद्ध्या जघन्योत्कृष्टभेदे४ नाग्रहणवर्गणा, विशेषस्त्वभव्येभ्योऽनन्तगुणः सिद्धानामनन्तभागः, पुनरप्ययोग्योत्कृष्टवर्गणोपरि प्रदेशादिवृद्धया जघ| म्योत्कृष्टभेदा मनोद्रव्यवर्गणा, जघन्य वर्गणानन्तभागो विशेषः, पुनरपि प्रदेशोत्तरक्रमेणाग्रहणवर्गणा, विशेषश्चाभव्यानन्तगुणादिकः, ताश्च प्रदेशबहुत्वादतिसूक्ष्मत्वाच्च मनोद्रव्यायोग्याः, अल्पप्रदेशत्वाद् वादरत्वाच्च कार्म्मणस्यापि तदुपरि रूपे प्रक्षिसे जघन्याः कार्म्मणशरीरवर्गणाः, पुनरप्येकैकप्रदेशवृद्धया वर्द्धमाना उत्कृष्टा यावदनम्ता भवन्ति, अथ जघन्योत्कृष्टयोः कः प्रतिविशेष इति १, उच्यते, जघन्यवर्गणानन्तभागाधिकोत्कृष्टवर्गणा, स चानन्तभागोऽनन्तानन्तपरमाण्वा| रमकोऽत एवानन्तभेदभिन्नाः कर्म्मद्रव्यवर्गणा एवं भवन्ति, अभिश्वात्र प्रयोजनं द्रव्यकर्म्मणो व्याचिख्यासितत्वादिति । शेषा अपि वर्गणाः क्रमायाताः विनेयजनानुग्रहार्थं व्युपाद्यन्ते- पुनरप्युत्कृष्टकर्म्मवर्गणोपरि रूपादिप्रक्षेपेण जघन्योत्कृष्टभेदभिन्ना ध्रुववर्गणाः, जघन्याम्य उत्कृष्टाः सर्व्वजीवेभ्योऽनन्तगुणाः, तदुपरि रूपप्रक्षेपादिक्रमेणानन्ता एव जघन्योत्कृष्टभेदा अनुवषर्गणाः, अध्रुवत्वादनुवाः, पाक्षिक सद्भावादनुवत्वं, जघम्वोत्कृष्टभेदोऽनन्तरोक्त एव, तदुत्कृष्टो
श्रीचा राङ्गवृत्तिः
(शी०)
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[197]
छोक.वि. २
उद्देशकः १
॥ ९३ ॥
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[६१]
दीप
अनुक्रम [६२]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [१], मूलं [६१...], निर्युक्ति: [ १८३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र - [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
परि रूपादिप्रवृत्या जघन्योत्कृष्टभेदा अनन्ता एव शून्या वर्गणा भवन्ति, जघन्योत्कृष्टविशेषः पूर्ववत्, तासां संसारेऽप्यभावात् शून्यवर्गणा इत्यभिधानम्, एतदुक्तं भवति - अध्रुववर्गणोपरि प्रदेशवृद्धयाऽनन्ता अपि न सम्भवन्तीति प्रथमा शून्यवर्गणा, तदुपरि रूपादिवृद्ध्या जघन्योत्कृष्टभेदाः प्रत्येकशरीरवर्गणा भवन्ति, जघन्यातः क्षेत्रपल्योपमासख्येय भागप्रदेशगुणोत्कृष्टा, तदुपरि रूपोत्तरादिवृद्ध्या जघन्योत्कृष्टभेदा अनन्ता एव शून्यवर्गणा भवन्ति, जघन्यवगणात उत्कृष्टा स्वसङ्ख्येयभागप्रदेशगुणा, तदसङ्ख्येय भागोऽप्यसङ्ख्येयलोकात्मक इति द्वितीया शुभ्यवर्गणा, तदुपरि रूपादिवृद्ध्या बादरनिगोदशरीरवर्गणा जघन्यातः क्षेत्रपल्योपमासइख्येय भागप्रदेशगुणोत्कृष्टा, तदुपरि रूपादिवृद्धया जघन्योत्कृष्टभेदा तृतीया शून्यवर्गणा, उत्कृष्टा जघन्यातोऽसङ्ख्येयगुणा, को गुणकार इति ?, उच्यते, अङ्गुला सख्येयभागप्रदेशराशेरावलिकाकाला सङ्ख्येयभागसमवप्रमाणकृतपौनःपुन्यवर्गमूलस्यासङ्ख्येय भागप्रदेशप्रमाण इति, तदुपरि रूपोत्तरवृद्ध्या जघन्योत्कृष्टभेदा सूक्ष्मनिगोदशरीरवर्गणा, जघन्यात उत्कृष्टा आवलिकाकालासंख्येयभागसमयगुणा, तदुपरि रूपोत्तरवृद्ध्या जघन्योत्कृष्टभेदा चतुर्थी शून्यवर्गणा, जघम्यात उत्कृष्टा चतुरस्रीकृतलोकस्यासङ्|ख्येयाः श्रेण्यः, ताश्च प्रतरासङ्ख्येयभागतुल्या इति, तदुपरि रूपादिवृद्ध्या जघन्योत्कृष्टभेदा महास्कन्धवर्गणा, जघन्यात उत्कृष्टा क्षेत्रपल्योपमस्या सख्येयगुणा संख्येयगुणा वेति । उक्ताः समासतो वर्गणाः, विशेषार्थिना तु कर्मप्रकृतिरवलोकनीयेति । साम्प्रतं प्रयोगकर्म, वीर्यान्तरायक्षयोपशमाविर्भूतवीर्येणात्मना प्रकर्षेण युज्यत इति प्रयोगः, स च मनोवाक्कायलक्षणः पञ्चदशधा, कथमिति १, उच्यते, तत्र मनोयोगः सत्यासत्यमिश्रानुभयरूपश्चतुर्द्धा एवं वाग्योगोऽपि, काय
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति : [१८३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६१]
(शी०)।
दीप
श्रीआचा- योगः सप्तधा-औदारिकौदारिकमिश्रवैक्रियवैक्रियमिश्राहारकाहारकमिश्रकामणयोगभेदात् , तंत्र मनोयोगो मनःपर्याप्त्या
लोक.वि.२ रागावृत्तिः पर्याप्तस्य मनुष्यादेः, वाग्योगोऽपि द्वीन्द्रियादीनाम् , औदारिकयोगस्तियंग्मनुजयो शरीरपयोप्तेरूई, तदारतस्तु मिश्रः,C शकार
केवलिनो वा समुद्घातगतस्य द्वितीयषष्ठसप्तमसमयेषु, वैक्रियकाययोगो देवनारकबादरवायूनाम्, अन्यस्य वा वैक्रिय
लब्धिमतः, तन्मिनस्तु देवनारकयोरुत्पत्तिसमयेऽन्यस्य वा वैक्रियं निवर्तयता, आहारककाययोगश्चतुर्दशपूर्वविद आहा॥९४॥
रकशरीरस्थस्य, तन्मिश्रस्तु निर्वसनाकाले, कार्मणयोगो विग्रहगतौ केवलिसमुद्धाते वा तृतीयचतुर्थपश्चमसमयेष्विति । तदनेन पञ्चदशविधेनापि योगेनात्माऽष्टौ प्रदेशान् विहायोत्तप्तभाजनोदकवदुद्वर्तमानैः सर्वैरेवात्मप्रदेशैरात्मप्रदेशावष्टग्धाकाशदेशस्थं कार्मणशरीरयोग्यं कर्मदलिकं यद् बनाति तत्प्रयोगकर्मेत्युच्यते, उक्तं च-"जाव णं एस जीवे एयइ
वेयइ चलइ फंदईत्यादि ताव णं अहबिहबंधए वा सत्तविहबंधए वा छब्बिहबंधए वा एगविबंधए वा नो णं अबंधए"। ठा समुदानको सम्पूर्वोदाइपूर्वाश ददातेल्युडन्तात् पृषोदरादिपाठेन आकारस्योकारादेशेन रूप भवति, तत्र प्रयोगकर्म-II दाणेकरूपतया गृहीतानां कर्मवर्गणानां सम्यग्मूलोत्तरप्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशबन्धभेदेनाइ-मर्यादया देशसर्वोपघातिरूपया)
तथा स्पृष्टनिधत्तनिकाचितावस्थया च स्वीकरणं समुदानं तदेव कर्म समुदानकर्म, तत्र मूलप्रकृतिबन्धो ज्ञानावरणीयादिः, उत्तरप्रकृतिबन्धस्तूच्यते-उत्तरप्रकृतिवन्धो ज्ञानावरणीयं पञ्चधा-मतिश्रुतावधिमनःपयोयकेवलावरणभेदात्, तत्र केवलावारकं सर्वघाति शेषाणि तु देशसर्वघातीन्यपि, दर्शनावरणीयं नवधा-निद्रापञ्चकदर्शनचतुष्टयभेदात्, तत्र
M ॥९४॥ १ यावदेष जीव एजते व्येजते चलति स्पन्दते, तापदविधवन्धको वा सप्तविधबन्धको वा षधिबन्धको वा एकविधबन्धको वा, नैवाबन्धकः,
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति : [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
ॐ55*
[६१]
निद्रापञ्चकं प्राप्तदर्शनलब्ध्युपयोगोपघातकारि, दर्शनचतुष्टयं तु दर्शनलब्धिप्राप्तेरेव, अत्रापि केवलदर्शनावरणं सर्वघाति शेषाणि तु देशतः, वेदनीयं द्विधा-सातासातभेदात्, मोहनीयं द्विधा-दर्शनचारित्रभेदात्, तत्र दर्शनमोहनीयं त्रिधामिथ्यात्वादिभेदात् , बन्धतस्त्वेकविध, चारित्रमोहनीयं पोडैशकषायनवनोकषायभेदासञ्चविंशतिविधम् , अत्रापि मिथ्यात्वं सचलनवर्जा द्वादश कषायाश्च सर्वघातिन्या, शेषास्तु देशघातिन्य इति, आयुष्कं चतुर्द्धा-नारकादिभेदात्, नाम द्विचत्वारिंशदं गत्यादिभेदात्, बिनवतिभेदं चोत्तरोत्तरप्रकृतिभेदात, गतिश्चतुर्डा जातिरेकेन्द्रियादिभेदात्प-15 श्वधा शरीराणि औदारिकादिभेदात्पञ्चधा औदारिकवैक्रियाहारकभेदादङ्गोपाङ्गं त्रिधा निर्माणनाम सर्वजीवशरीरावयवनिष्पादकमेकधा बन्धननाम औदारिकादिकर्मवर्गणैकत्वापादकं पञ्चधा सङ्घातनामौदारिकादिकर्मवर्गणारचनाविशेपसंस्थापकं पञ्चधा संस्थाननाम समचतुरस्रादि पोढा संहनननाम वज्रऋषभनाराचादि पोव सर्शोऽष्टधा रसः पञ्चधा
गन्धो द्विधा वर्णः पश्चधा आनुपूर्वी नारकादिश्चतुर्दा विहायोगतिः प्रशस्ताप्रशस्तभेदात् द्विधा अगुरुलघूपघातपराघा| तातपोद्योतोच्छ्रासप्रत्येकसाधारणत्रसस्थावरशुभाशुभसुभगदुर्भगसुस्वरदुःस्वरसूक्ष्मवादरपर्याप्तकापर्याप्तकस्थिरास्थिरादे| यानादेययश-कीर्तिअयश कीर्तितीर्थकरनामानि प्रत्येकमेकविधानीति, गोत्रमुच्चनीचभेदात् द्विधा, अन्तरायं दानलाभभोगोपभोगवीयभेदात् पञ्चधेत्युक्तः प्रकृतिबन्धो, बन्धकारणानि तु गाथाभिरुच्यन्ते-"पंडिणीयमंतराइय उवघाए
दीप
अनक्रम
१ सप्तधा-अनन्तानुबन्धिमिध्यात्वादिभेदात, पन्यतस्तु पञ्चधा प्र. २ द्वादश प्र. ३ एकविंशतिविधम् प्र. ४ अत्यनीकरपेऽन्तराब उपपाते.
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति : [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचा
लोक.वि.२
प्रत सूत्रांक [६१]
(शी०)
%%95
उद्देशकः १
A5%%%
तर्पओस णिण्हवणे । आवरणदुर्ग बन्धइ भूओ अञ्चासणाए य ॥१॥ भूयाणुकंपवयजोगउज्जुओ खंतिदाणगुरु- भत्तो । बन्धइ भूओ सायं विवरीए बन्धई इयरं ॥२॥ अरहंतसिद्धचेइयतवसुअगुरुसाधुसंघपडिणीओ। बंधइ दसण| मोहं अर्णतसंसारिओ जेणं ॥३॥ तिब्वकसाओ बहुमोहपरिणतो रागदोससंजुत्तो । बंधह चरित्तमोहं दुविहंपि चरि- *त्तगुणघाई ॥४॥ मिच्छद्दिडी महारंभपरिग्गहो तिब्वलोभ णिस्सीलो । निरआउयं निबंधइ पावमती रोदपरिणामो ॥५॥
उम्मग्गदेसओ मम्गणासओ गूढहिथय माइलो । सढसीलो अससल्लो तिरिआ बंधई जीवो ॥६॥ पगतीएँ तणुकसाओ दागरओ सीलसंजमविहूणो । मज्झिमगुणेहिँ जुत्तो मणुयाई बन्धई जीवो ॥ ७ ॥ अणुब्बयमहब्वएहि य बालतवोऽकामनिजराए य । देवाउयं णिबंधइ सम्महिडी उ जो जीवो ॥ ८॥ मणवयणकायवंको माइलो गारवेहि पडि-] बद्धो । असुभं बंधइ नाम तप्पडिपक्खेहि सुभनामं ॥९॥ अरिहंतादिसु भत्तो सुत्तरुई पयणुमाण गुणपेही । बन्ध
%
टीप
4%
अनक्रम
CASSESSMS
__१ तत्वद्वेषे निहपगे। बावरणद्विकं बध्नाति भूतोऽत्याशातनया च ॥१॥ भूतानुकम्पावतयोगोधुक्तः शान्ति (मान) दानी गुरुभक्तः । वनाति भूतः सा विपरीतो बामातीतरत् अहस्सिदखत्याभूतमुस्साहप्रवचीकः । बनाचि दर्शनमोहमनन्तसंसारिको येन ॥३॥ तीनकषायो बह चारित्रमोहं द्विविधमपि चारित्रगुणाति ॥ ४ ॥ मिथ्याष्टिमंडारम्भपरिग्रहस्तीनलोगो निसीतः । नरकायुकं निबध्नाति अपयती रौनपरिणामः ॥ ५॥ सन्मार्ग-1 देशको मार्गनाशको गूढदयो मायावी । शाम्यशीलश्च सशल्य तिर्यगायुधानि जीवः ॥ ६॥ प्रकृया तनुकषायो दानरतः शीलसंयमविहीमः । मध्यमगुणैर्युसो मनुजायुर्वभाति जीवः ॥ ॥ अणुव्रतमहावतैष बालतपोऽकामनिर्जरया च । देवायुर्निबध्नाति सम्यगृहष्टिय यो जीवः ॥ ८॥ मनीषचनकायबचो मायावी और प्रतिषसः । अशुभ बनाति नाम तत्प्रतिपक्षैः शुभनाम ॥ ९॥ अईदादिषु भक्तः सूत्ररुचिः प्रतनुमानो गुणप्रेक्षी।
॥९५॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति : [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
[६१]
दीप
उधागोयं विवरीए बंधई इयरं ॥ १०॥ पाणवहादीसु रतो जिणपूयामोक्खमग्गविग्धयरो । अजेइ अंतराय ण लइइ जेणिच्छिय लाभं ॥११॥" स्थितिबन्धो मूलोत्तरप्रकृतीनामुत्कृष्टजघन्यभेदः, तत्रोत्कृष्टो मूलप्रकृतीनां ज्ञानावरणीय-द
दर्शनावरणीयवेदनीयान्तरायाणां त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोव्यः, यस्य च यावत्यः कोटीकोव्यः स्थितिस्तस्य लावन्त्येव ४ वर्षशतान्यबाधा, तदुपरि प्रदेशतो विपाकतो बा अनुभषः, एसदेव प्रतिकर्मस्थिति योजनीयं, सप्ततिम्मोहनीयस्य
नामगोत्रयोविंशतिः, त्रयविंशत्सागरोपमाण्यायुषः पूर्वकोटीत्रिभागोबाधा । जघन्यो ज्ञानदर्शनावरणमोहनीयान्तरा
याणामन्तर्मुहूर्त, नामगोत्रयोरष्टौ मुहाः , वेदनीयस्य द्वादश, आयुषः क्षुल्लकभवः, स थानापानसप्तदशभागः । साम्प्र१ तमेतदेव बन्धद्वयमुत्तरप्रकृतीनामुच्यते-तत्रोत्कृष्टो मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलावरणनिद्रापश्चकचक्षुर्दर्शनादिचतु-18 &कासद्वेधदानाद्यन्तरायपञ्चकभेदानां विंशतेरुत्तरप्रकृतीनां त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोव्यः, खीवेदसातवेदनीयमनुजगत्या-ट
नुपूर्वीणां चतसृणां पञ्चदश, मिथ्यात्वस्यौधिकमोहनीयवत् , कषायपोडशकस्य चत्वारिंशत् कोटीकोट्यः, नपुंसकवेदारतिशोकभयजुगुप्सानरकतिर्यग्गत्येकेन्द्रियपञ्चेन्द्रियजात्यौदारिकवैक्रियशरीरतदङ्गोपाङ्गद्वयतैजसकार्मणहुण्डसंस्थानान्त्य|संहननवर्णगन्धरसस्पर्शनरकतिर्यगानुपूर्वीअगुरुलघूपघातपराधातोच्छासातपोद्योताप्रशस्तविहायोगतित्रसस्थावरवादरपर्याशप्तकप्रत्येकास्थिराशुभदुर्भगदुःस्वरानादेयायशःकीर्तिनिर्माणनीचैर्गोत्ररूपाणां त्रिचत्वारिंशत उत्तरप्रकृतीनां विंशतिः, पुंवेदहास्यरतिदेवगत्यानुपूर्वीद्वयाद्यसंस्थानसंहननप्रशस्तविहायोगतिस्थिरशुभसुभगसुस्वरादेययशःकीयुश्चैर्गोत्ररूपाणां 4-5
बभात्युचैर्गोत्रं विपरीतो बनातीतरत् ॥ १० ॥ प्राणवधादिप रतो जिनपूजामोक्षमार्गविघ्नकरः । अर्जयसन्तरायं न लभते येनेसित लाभम् ॥११॥
अनक्रम
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति : [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः (शी०)
लोक.वि.२ उद्देशकः१
प्रत सूत्रांक [६१]
दीप
श्वदशानामुत्तरप्रकृतीनां दश, न्यग्रोधसंस्थानद्वितीयसंहननयोदश तृतीयसंस्थाननाराचसंहननयोश्चतुर्दश कुब्जसं- स्थानार्धनाराचसंहननयोः षोडश वामनसंस्थानकीलिकासंहननद्वित्रिचतुरिन्द्रियजातिसूक्ष्मापर्याप्तकसाधारणानामष्टाना| मुत्तरप्रकृतीनामष्टादश, आहारकतदङ्गोपाङ्गतीर्थकरनाम्नां सागरोपमकोटीकोटिर्भिन्नान्तर्मुहर्तमबाधा, देवनारकायुपोरीपिकवत्, तिर्यग्मनुष्यायुषः पल्योपमत्रयं पूर्वकोटित्रिभागोऽवाधा । उक्त उत्कृष्टः स्थितिबन्धो, जघन्य उच्यते-मत्यादि। पञ्चकचक्षुर्दर्शनाद्यावरणचतुष्कसज्वलनलोभदानाद्यन्तरायपञ्चकभेदानां पञ्चदशानामन्तर्मुहर्तमन्तर्मुहूर्तमेवाबाधा, निद्रापञ्चकासातावेदनीयानां पण्णां सागरोपमस्य त्रयः सप्तभागाः पल्योपमासङ्घन्धेयभागन्यूनाः, सातावेदनीयस्य द्वादश मुहूर्ता| अन्तर्मुहर्त्तमवाधा, मिथ्यात्वस्य सागरोपमं पल्योपमासङ्ख्येयभागन्यूनम् , आद्यकषायद्वादशकस्य चत्वारः सप्तभागाः सागरोपमस्य पल्योपमासन्ख्येयभागन्यूनाः, सवलनक्रोधस्य मासद्वर्य, मानस्य मासः, तदधैं मायाया, पुवेदस्याष्टी संवत्सराः, सर्वत्रान्तर्मुहूर्तमवाधा, शेषनोकषायमनुष्यतिर्यग्गतिपश्चेन्द्रियजात्यौदारिकतदङ्गोपाङ्गतैजसकार्मणषट्संस्थानर्सहननवर्णगन्धरसस्पर्शतिर्यग्मनुजानुपूर्वी अगुरुलघूपघातपराघातोच्छासातपोद्योतप्रशस्ताप्रशस्तविहायोगतियश-कीर्तिवजेत्रसादिविंशतिकनिर्माणनीचेगोत्रदेवगत्यानुपूर्वीद्वयनरकगत्यानुपूर्वीद्वयवैक्रियशरीरतदङ्गोपाङ्गरूपाणामष्टषट्युत्तरप्रकतीनां सागरोपमस्य द्वी सप्तभागी पल्योपमासख्येयभागन्यूनौ अन्तर्मुहुर्तमबाधा, वैक्रियषट्कस्य तु सागरोपमसह-।
१ग्गतिजातिपश्चकौदा प्र. २ देवद्विकनरकद्विकपैकियविकआहारकद्विकयशःकीर्तितीर्थकरनामकमरहिताना शेषनामप्रकृतीनां तथा नीचर्गोत्रस्य चेत्यासामु
अनक्रम
॥९
॥
त्तिरप्रकृतीनों प्र.
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[६१]
दीप
अनुक्रम [६२]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [१], मूलं [६१...], निर्युक्तिः [१८३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र - [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
स्रस्य द्वौ सप्तभागौ पल्योपमासङ्ख्येयभागन्यूनाबन्तर्मुहूर्त्तमबाधा, आहारकतदङ्गोपाङ्गतीर्थकर नाम्नां सागरोपमकोटीकोटिर्भिन्नान्तर्मुहूर्त्तमबाधा, ननु चोत्कृष्टोऽप्येतावन्मात्र एवाभिहितस्ततः कोऽनयोर्भेद इति १, उच्यते, उत्कृष्टात् सख्येयगुणहीनो जघन्य इति, यशः कीर्त्त्य वर्गोत्रयोरष्टमुहूर्त्ताम्यन्तर्मुहूर्तमबाधा, देवनारकायुषोर्दश वर्षसहस्राण्यन्तर्मुहूर्तमबाधा, तिर्यग्मनुजायुषोः क्षुल्लकभवोऽन्तर्मुहूर्त्तमचाधेति, बन्धनसङ्घातयोरीदारिकादिशरीर सङ्घ चरितत्वात्तद्गत एवो त्कृष्टजघन्यभेदोऽवगन्तव्य इति । उक्तः स्थितिबन्धः, अनुभाववन्धस्तूच्यते तत्र शुभाशुभानां कर्मप्रकृतीनां प्रयोगकर्मणोपात्तानां प्रकृतिस्थितिप्रदेशरूपाणां तीव्रमन्दानुभावतयाऽनुभवनमनुभावः, स चैकद्वित्रिचतुःस्थानभेदेनानुगन्तव्यः, तत्राशुभप्रकृतीनां कोशातकीरससमक्कथ्यमानार्द्धत्रिभागपादावशेषतुल्यतया तीव्रानुभावोऽवगन्तव्यो मन्दानुभावस्तु जातिरसै कद्वित्रिचतुर्गुणोदकप्रक्षेपास्वादतुल्यतयेति, शुभानां तु क्षीरेक्षुरसदृष्टान्तः पूर्ववद्योजनीयः अत्र च कोशातकी क्षुरसादावुदकविन्द्रादिप्रक्षेपात् व्यत्ययाद्वा भेदानामानन्त्यमवसेयमिति । अत्र चायूंषि भवविपाकीनि आनुपूर्व्यः क्षेत्रविपाकिन्यः शरीर संस्था नाङ्गोपाङ्गसङ्घातसंहननवर्णगन्धरसस्पर्शागुरुलधूपघातपराघातोद्योतातपनिर्माणप्रत्येकसाधारणस्थिरास्थिरशुभाशुभरूपाः पुद्गलविपाकिन्यः, शेषास्तु ज्ञानावरणादिका जीवविपाकिन्य इत्युक्तोऽनुभावबन्धः । | प्रदेश बन्धस्त्वेकविधादिवन्धकापेक्षया भवति, तत्र यदैकविधं बनाति तदा प्रयोगकर्मणैकसमयोपात्ताः पुद्गलाः साताबेदनीयभावेन विपरिणमन्ते, षड्धिबन्धकस्य त्वायुम्मोहनीयवज्र्जः पोढा, सप्तविधबन्धकस्य सप्तधा, अष्टविधबन्धकस्याष्टधेति, तत्राद्यसमयप्रयोगात्ताः पुद्गलाः समुदानेन द्वितीयादिसमयेष्वल्पबहुप्रदेशतयाऽनेन क्रमेण व्यवस्थापयति-तत्रा
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति : [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६१]
(सी०)
॥१७॥
दीप
श्रीआचा- युषः स्तोकाः पुद्गलाः, तद्विशेषाधिकाः प्रत्येक नामगोत्रयोः, परस्परं तुल्याः, तद्विशेषाधिकाः प्रत्येक ज्ञानदर्शनावरणाराङ्गवृत्तिः सन्तरायाणां, तेभ्यो विशेषाधिका मोहनीये । ननु च तेभ्यो विशेषाधिका इत्यत्र निर्धारणे पञ्चमी, सा च "पश्चमी विभक्ते"
उद्देशका (पा०२-३-४२) इत्यनेन सूत्रेण विधीयते, अस्य चायमों-विभागो विभक्तं तत्र पञ्चमी विधीयमाना यत्रात्यन्तविभागस्तत्रैव भवति, यथा माथुरेभ्यः पाटलिपुत्रका अभिरूपतराः, इह च कर्मपुद्गलानां सर्वदैकत्वं, तथावस्थानामेव च बुझ्या बहुप्रदेशादिगुणेन पृथकरणं चिकीर्पितं, तत्र षष्ठी सप्तमी वा न्याय्या, तद्यथा-गवां गोषु वा कृष्णा सम्पन्नक्षीरतमेति,
नैष दोषो, यत्रावध्यवधिमतोः सामान्यवाची शब्दः प्रयुज्यते तत्रैव षष्ठीसप्तम्यौ, “यतश्च निर्धारण (पा०२-३-४१) मित्यकानेन सूत्रेण विधीयेते, यथा गवां कृष्णा सम्पन्नक्षीरतमा, मनुष्येषु पाटलिपुत्रकाः आस्थतरा, कम्र्मवर्गणापुद्गलानां | K| वेदनीये बहुतरा इति, यत्र पुनर्विशेषवाची शब्दोऽवधित्वेनोपादीयते तत्र पञ्चम्येव, यथा खण्डमुण्डशबलशावलेयध-पद्र
वलधावलेयव्यक्तिभ्यः कृष्णा सम्पन्नक्षीरतमेति, अतो नात्र विभागः कारणमविभागो वा, यतो माथुरपाटलिपुत्र
कादिविभागेन विभक्तानामपि सामान्यमनुष्यादिशब्दोच्चारणे षष्ठीसप्तम्यौ भवतो, यत्र तु पुनम्मोधुरादिविशेषोऽय||धित्वेनोपादीयते तत्र कार्यवशादेकस्थानामपि पञ्चम्येव, तदिह सत्यपि कम्मैवर्गणानामेकत्वे तद्विशेषस्थावधित्वेनोपादा
नात्पश्चम्येव न्याय्येति, तद्विशेषाधिका वेदनीये । उक्तः प्रदेशबन्धः समुदानकर्मापीति । साम्प्रतमीयोपथिक, "ईर गति-IN प्रेरणयोः" अस्माद्धावे ण्यत् , ईरणमीर्या तस्याः पन्था ईर्यापथस्तत्र भवमीर्यापथिक, कश्चर्यायाः पन्धा भवति?, यदा-15 Mil॥९७॥ |श्रिता सा भवतीति !, एतच्च व्युत्पत्तिनिमित्तं यतस्तिष्ठतोऽपि तद्भवति, प्रवृत्तिनिमित्तं तु स्थित्यभावः, तच्चोपशान्तक्षीण
अनक्रम
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[६१]
दीप
अनुक्रम [६२]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], निर्युक्ति: [१८३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित......आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
मोहसयोगकेवलिनां भवति, सयोगकेवलिनोऽपि हि तिष्ठतोऽपि सूक्ष्मगात्रसञ्चारा भवन्ति, उक्तं च – “केवली णं भंते! अस्सि समयंसि जेसु आगासपदेसेसु हत्थं वा पायं वा ओगाहित्ता णं पडिसाहरेजा, पभू णं भंते! केवली तेसु चैवागासपदेसेसु पडिसाहरित्तए ?, णो इणडे समट्ठे, कहं ?, केवलिस्स णं चलाई सरीरोवगरणाई भवंति चलोवगरणत्ताए केवली णो सञ्चापति तेसु चेवागासपदेसेसु हृत्थं वा पायं वा पडिसाहरित्तए" तदेवं सूक्ष्मतरगात्रसञ्चाररूपेण योगेन यत्कर्म्म बध्यते तदीर्य्यापथिकम् - ईर्याप्रभवं ईर्याहेतुकमित्यर्थः तच्च द्विसमयस्थितिकम् एकस्मिन् समये बद्धं द्वितीये वेदितं, तृतीयसमये तदपेक्षया चाकर्म्मतेति, कथमिति १, उच्यते, यतस्तत्प्रकृतितः सातावेदनीयमकषायत्वात् स्थित्यभावेन बध्यमानमेव परिशटति, अनुभावतोऽनुत्तरोपपातिक मुखातिशायि प्रदेशतः स्थूलरूक्षशुक्लादिबहुप्रदेशमिति, उक्तं च – “अपं बायरमजयं बहुं च लुक्खं च सुक्किलं चैव । मंदं महब्बतंतिय साताबहुलं च तं कम्मं ॥ १ ॥" अल्पं स्थितितः स्थितेरेवाभावात्, बादरं परिणामतोऽनुभावतो मृद्वनुभावं, बहु च बहुप्रदेशः, रूक्षं स्पर्शतो, वर्णेन शुक्ल, मन्दं लेपतः, स्थूलचूर्णमुष्टिमृष्टकुयापतितलेपवत् महाव्ययमेकसमयेनैव सर्वापगमात् साताबहुलमनुत्तरोपपातिकमुखातिशायीति । उक्तमीर्यापथिकम् अधुना आधाकर्म्म, यदाधाय- निमित्तत्वेनाश्रित्य पूर्वोक्तमष्टप्रकारमपि कर्म्म बध्यते तदाधाकर्मेति, तच्च शब्दस्पर्शरसरूपगन्धादिकमिति, तथाहि शब्दादिकामगुणविषयाभिष्वङ्गवान् सुखलिप्सुमहोपहतचेताः परमार्था
१ केवली भदन्त । अस्मिन् समये येण्याकाशप्रदेशेषु इस या पादं वाऽवगाह्य प्रतिसंहरेत् प्रभुर्भदन्त केवली तेष्वेवाकाशप्रदेशेषु प्रतिसंहर्तुम् १, नैयोऽर्थः समर्थः कथम् ?, केवलिनश्वलानि शरीरोपकरणानि भवन्ति, बलोपकरणतया केवली न शक्नोति तेष्वेवाकाशप्रदेशेषु हस्तं वा पादं वा प्रतिसंह
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति : [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६१]
दीप
श्रीआचा- सुखमयेष्वपि सुखाध्यारोपं विदधाति, तदुक्तम्-“दुःखात्मकेषु विषयेषु सुखाभिमानः, सौख्यात्मकेषु नियमादिषु दुःख- लोक.वि.२ राङ्गवृत्तिः बुद्धिः । उत्कीर्णवर्णपदपतिरिवान्यरूपा, सारूप्यमेति विपरीतगतिप्रयोगात् ॥ १॥" एतदुक्तं भवति-कर्मनिमित्तभूता (शी०) मनोज्ञेतरशब्दादय एवाधाकर्मेत्युच्यन्ते इति । तपकर्म तस्यैवाष्टप्रकारस्य कर्मणो बद्धस्पृष्टनिधत्तनिकाचितावस्थ
उद्देशकः १ ४ स्थापि निर्जराहेतुभूतं बाह्याभ्यन्तरभेदेन द्वादशप्रकारं तपःकर्मेत्युच्यते । कृतिकर्म तस्यैव कर्मणोऽपनयनकारकमई-18 ॥९८॥
सिद्धाचार्योपाध्यायविषयमवनामादिरूपमिति । भावकर्म पुनरवाधामुल्लङ्गय स्वोदयेनोदीरणाकरणेन चोदीणोंः पुइला: प्रदेशविपाकाभ्यां भवक्षेत्रपुद्गलजीवेष्वनुभाव ददतो भावकर्मशब्देनोच्यन्त इति । तदेवं नामादिनिक्षेपेण दशधा कर्मोकम् , इह तु समुदानकर्मोपात्तेनाष्टविधकर्मणाऽधिकार इति गाथाशकलेन दर्शयति
अट्ठविहेण उ कम्मेण एस्थ होई अहीगारो॥१८४॥ . गाथाई कण्ठ्यमिति गाथाद्वयपरमार्थः ॥ तदेवं सूत्रानुगमेन सूत्रे समुच्चारिते निक्षेपनियुक्त्यनुगमेन प्रतिपदं निक्षिप्ते नामादिनिक्षेपे च व्याख्याते सत्युत्तरकालं सूत्रं विनियते
जे गुणे से मूलटाणे, जे मूलट्राणे से गुणे । इति से गुणट्री महया परियावेणं पुणो पुणो रसे पमत्ते-माया मे पिया मे भजा मे पुत्ता मे धूआ मे ण्हुसा मे सहिसयणसंगंथसंथुआ मे विवित्तुवगरणपरिवहणभोयणच्छायणं मे । इच्चत्थं गतिए लोए
अनक्रम
॥ ९८॥
REarathimthimanand
| द्वितीय-अध्ययने प्रथमं उद्देशक: 'स्वजन' आरब्धः,
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६२], नियुक्ति: [१८४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६२]
दीप
अहो य राओ य परितप्पमाणे कालाकालसमुहाई संजोगट्टी अट्टालोभी आलुपे सहसाकारे विणिविटुचित्ते, एत्थ सत्थे पुणो पुणो, अप्पं च खलु आउयं इहमेगेसिं माण
वाणं तंजहा-॥ ६२॥ अस्य चानन्तरपरम्परादिसूत्रैः सम्बन्धो वाच्यः, तत्रानन्तरसूत्रसम्बन्धः-'से हु मुणी परिण्णायकम्मे'ति, स मुनिः परिज्ञातकर्मा भवति यस्यैतद्गुणमूलादिकमधिगतं भवति, परम्परसूत्रसम्बन्धस्तु 'से जं पुण जाणिज्जा सहसंमुइयाए बापरवागरणेणं अण्णेसिं था सोचा' स्वसम्मत्या परव्याकरणेन तीर्थंकरोपदेशादन्येभ्यो वाऽऽचायोंदिभ्यः श्रुत्वा जानी-15
यात्-परिच्छिन्द्यात्, किं तदित्युच्यते-'जे गुणे से मूलठाणे', आदिसूत्रसम्बन्धस्तु 'सुयं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खाय' किं तत् श्रुतं भवता यद्भगवता आयुष्मताऽऽख्यातमिति?, उच्यते, 'जे गुणे से मूलढाणे, 'य' इति सर्वनाम प्रथमान्तं मागधदेशीवचनत्वादेकारान्तं सामान्योद्देशार्थाभिधायीति, गुण्यते-भिद्यते विशेष्यतेऽनेन द्रव्यमिति गुणः, स चेह शब्दरूपरसगन्धस्पर्शादिकः, 'स' इति सर्वनाम प्रथमान्तमुद्दिष्ट निर्देशार्थाभिधायीति, 'मूल'मिति निमित्तं कारणं प्रत्यय इति पर्यायाः, तिष्ठन्त्यस्मिन्निति स्थानं, मूलस्य स्थानं मूलस्थानं, 'व्यवच्छेदफलत्वाद् वाक्याना'मिति न्यायात् य एव शब्दादिकः कामगुणः स एव संसारस्य-नारकतिर्यग्नरामरसंसृतिलक्षणस्य यन्मूलं कारणं कषायास्तेषां स्थानम्आश्रयो वर्तते, यस्मान्मनोज्ञेतरशब्दाधुपलब्धौ कषायोदयः, ततोऽपि संसार इति, अथवा मूलमिति-कारणं, तच्चा
HTRANSKRIT
अनक्रम
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६२], नियुक्ति: [१८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचा- रावृत्तिः (शी०)
१
प्रत सूत्रांक [६२]
प्रकारं कर्म, तस्य स्थानम्-आश्रयः कामगुण इति, अथवा मूलं-मोहनीयं तद्भेदो वा कामस्तस्य स्थानं शब्दादिको लोक.वि.२ विषयगुणः, अथवा मूलं-शब्दादिको विषयगुणस्तस्य स्थानमिष्टानिष्टविषयगुणभेदेन व्यवस्थितो गुणरूपः संसार एव, आत्मा घा शब्दाधुपयोगानन्यवाद् गुणः, अथवा मूल-संसारस्तस्य शब्दादयः स्थानं कषाया वा, गुणोऽपि शब्दादिकः
उद्देशक कषायपरिणतो वाऽऽत्मेति, यदिवा मूलं संसारस्य शब्दादिकषायपरिणतः सन्नात्मा तस्य स्थानं शब्दादिकं, गुणोऽप्यसावेवेति, ततश्च सर्वथा य एव गुणः स एव मूलस्थानं वर्तते । ननु च वर्तनक्रियायाः सूत्रेऽनुपादानात् कथं प्रक्षेप इति !, उच्यते, यत्र हि काचिद्विशेषक्रिया नैवोपादायि तत्र सामान्यक्रियामस्ति भवति विद्यते वर्तत इत्यादिकामुपा-दि दाय वाक्यं परिसमाप्यते, एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यमिति । अथवा मूलमित्याचं प्रधानं वा, स्थानमिति कारणं, मूलं च तत्कारणं चेति विगृह्य कर्मधारयः, ततश्च य एव शब्दादिको गुणः स एव मूलस्थानं संसारस्य आय प्रधान वा कारणमिति, शेषं पूर्ववदिति । साम्प्रतमनयोरेव गुणमूलस्थानयोर्नियम्यनियामकभावं दर्शयंस्तदुपात्तानां विषयकषायादीनां बीजाङ्करन्यायेन परस्परतः कार्यकारणभावं सूत्रेणैव दर्शयति-'जे मूलढाणे से गुणे'त्ति, यदेव संसारमूलानां कर्ममूलानां । वा कषायाणां स्थानम्-आश्रयः शब्दादिको गुणोऽप्यसावेव, अथवा कषायमूलानां शब्दादीनां यत् स्थानं कम्में संसारो वा तत्तत्स्वभावापत्तेः गुणोऽप्यसावेवेति, अथवा शब्दादिकषायपरिणाममूलस्य संसारस्य कर्मणो वा यत् स्थान-मोहनीयं कर्म शब्दादिकपायपरिणतो वाऽऽत्मेति तद्गुणावाः गुणोऽप्यसावेव, यदिवा-संसारकषायमूलस्यात्मनो यत् स्थान- ॥९९॥ विषयाभिष्वङ्गोऽसावपि शब्दादिविषयत्वाद् गुणरूप एवेति । अत्र च विषयोपादानेन विषयिणोऽप्याक्षेपात् सूचनार्थ
दीप अनुक्रम
[६३]
SARERatinintenmarana
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६२], नियुक्ति: [१८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६२]
दीप
त्वाच सूत्रस्येत्येवमपि द्रष्टव्यं यो गुणे गुणेषु वा वर्त्तते स मूलस्थाने मूलस्थानेषु वा वर्त्तते, यो मूलस्थानादौ वर्तते स एव गुणादौ वर्त्तत इति, य एव जन्तुः शब्दादिके प्राग्व्यावर्णितस्वरूपे गुणे वर्त्तते स एव संसारमूलकषायादिस्थानादौन वर्त्तते, एतदेव द्वितीयसूत्रापेक्षया व्यत्ययेन प्राग्वदायोज्यम्, अनन्तगमपर्यायत्वात् सूत्रस्यैवमपि द्रष्टव्यं-यो गुणः स एव मूलं स एव च स्थानं, यन्मूलं तदेव गुणः स्थानमपि तदेव, यत् स्थानं तदेव गुणो मूलमपि तदेवेति, यो गुणः शब्दादिकोऽसावेव संसारस्य कषायकारणत्वान्मूलं स्थानमप्यसावेव इत्येवमन्येष्वपि विकल्पेषु योज्यं, विषयनिर्देशे च |
विषय्यप्याक्षिप्तो, यो गुणे वर्चते स मूले स्थाने चेत्येवं सर्वत्र द्रष्टव्यम्, इह च सर्बज्ञप्रणीतत्वादनन्तार्थता सूत्रस्यावग-16 हन्तव्या, तथाहि-मूलमत्र कषायादिकमुपन्यस्त, कषायाश्च क्रोधादयश्चत्वारः, कोधोऽप्यनन्तानुवन्ध्यादिभेदेन चतुझे,
अनन्तानुबन्धिनोऽप्यसङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि बन्धाध्यवसायस्थानान्यनन्ताश्च तत्पर्यायास्तेषां च प्रत्येक स्थान
गुणनिरूपणेनानन्तार्थता सूत्रस्य सम्पद्यते, सा च छद्मस्थेन सर्वायुषाऽप्यविषयत्वा(दनन्तत्वा)च्चाशक्या दर्शयितुं, दिग्दर्शनं ४ातु कृतमेवातोऽनया दिशा कुशाग्रीयशेमुष्या गुणमूलस्थानानां परस्परतः कार्यकारणभावः संयोजना च कार्येति । तदेवं
य एव गुणः स एव मूलस्थानं यदेव मूलस्थानं स एव गुण इत्युक्तं, ततः किमित्यत आह 'इति से गुणही महया
इत्यादि, इतिहेती यस्माच्छब्दादिगुणपरीत आत्मा कषायमूलस्थाने वर्तते, सर्वोऽपि च प्राणी 'गुणार्थी' गुणप्रयोजनी| Rगुणानुरागीत्यतस्तेषां गुणानामप्राप्ती प्राप्तिनाशे वा कालाशोकाभ्यां स प्राणी 'महता' अपरिमितेन परि-समन्तात्तापः
परितापस्तेन-शारीरमानसस्वभावेन दुःखेनाभिभूतः सन् पौनःपुन्येन तेषु तेषु स्थानेषु 'वसेत्' तिष्ठेदुत्पधेत, किम्भूतः
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[६२]
दीप
अनुक्रम [६३]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६२], निर्युक्ति: [१८४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित......आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
॥ १०० ॥
श्रीआचासन् ? - प्रमत्तः । प्रमादश्च रागद्वेपात्मको, द्वेषश्च प्रायो न रागमृते, रागोऽप्युत्पत्तेरारभ्यानादिभवाभ्यासान्मातापित्रा - राङ्गवृत्तिः | दिविषयो भवतीति दर्शयति- 'माया में' इत्यादि, तत्र मातृविषयो रागः संसारस्वभावादुपकार कर्तृत्वा द्वोपजायते, रागे (शी०) ४ च सति मदीया माता क्षुत्पिपासादिकां वेदनां मा प्रापदित्यतः कृषिवाणिज्य सेवादिकां प्राण्युपघातरूपां क्रियामारभते, तदुपघातकारिणि वा तस्यां वाऽकार्यप्रवृत्तायां द्वेष उपजायते, तद्यथा-अनन्तवीर्यप्रसक्कायां रेणुकायां रामस्येति, एवं पिता मे, पितृनिमित्तं रागद्वेषौ भवतो, यथा रामेण पितरि रागात्तदुपहन्तरि च द्वेषात् सप्तकृत्वः क्षत्रिया व्यापादिताः, सुभूमेनापि त्रिसप्तकृत्वो ब्राह्मणा इति, भगिनीनिमित्तेन च केशमनुभवति प्राणी, तथा भार्यानिमित्तं रागद्वेषोद्भवः, तद्यथा - चाणाक्येन भगिनीभगिनीपत्याद्यवज्ञातया भार्यया चोदितेन नन्दान्तिकं द्रव्यार्थमुपगेतन कोपान्नन्दकुलं क्षयं निम्ये, तथा पुत्रा मे न जीवन्तीति आरम्भे प्रवर्त्तते, एवं दुहिता मे दुःखिनीति रागद्वेषोपहतचेताः परमार्थमजानानस्ततद्विधत्ते येन ऐहिकामुष्मिकान् अपायान् अवाप्नोति, तद्यथा-जरासन्धो जामातरि कंसे व्यापादिते स्वबलावलेपादपसृतवासुदेवपदानुसारी सबलवाहनः क्षयमगात्, स्नुषा मे न जीवन्तीत्यारम्भादौ प्रवर्त्तते, 'सखिस्वजनसंग्रन्थसंस्तुता मे' सखा-मित्रं स्वजन:- पितृव्यादिः संग्रन्थः स्वजनस्यापि स्वजनः पितृव्यपुत्रशालादिः संस्तुतो भूयो भूयो दर्शनेन परिचितः, अथवा पूर्वसंस्तुतो मातापित्रादिरभिहितः पञ्चात्संस्तुतः शालकादिः स इह ग्राह्यः, स च मे दुःखित इति परितप्यते, विविक्तं शोभनं प्रचुरं वा उपकरणं- हस्त्यश्वरथासनमञ्चकादि परिवर्त्तनं द्विगुणत्रिगुणादिभेदभिनं तदेव, भोजनं मोदकादि आच्छादनं - पट्टयुग्मादि तच मे भविष्यति नष्टं वा । 'इचत्थ' मिति इत्येवमर्थं गृद्धो लोकः तेष्वेव
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लोक.वि. २ उद्देशकः१
॥ १०० ॥
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दीप
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[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [१], मूलं [६२], निर्युक्तिः [१८४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित......आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
मातापित्रादिरागादिनिमित्तस्थानेष्वामरणं प्रमत्तो ममेदमहमस्य स्वामी पोषको वेत्येवं मोहितमना 'वसेत्' तिष्ठेदिति, उक्तं च- "पुत्रा मे भ्राता मे स्वजना मे गृहकलत्रवर्गो मे । इति कृतमेमेशब्दं पशुमित्र मृत्युर्जमं हरति ॥ | पुत्रकलत्रपरिग्रहममत्वदोषैर्नरो व्रजति नाशम् । कृमिक इव कोशकारः परिग्रहाद्दुःखमाप्नोति ॥ २ ॥” अमुमेवार्थं निर्युचिकारो गाथाद्वयेनाह -
संसारं छेतुमणो कम्मं उम्मूलए तदट्ठाए । उम्मूलिज्ज कसाया तम्हा उ चहल सयणाई ॥ १८५ ॥ माया मेति पिया मे भगिणी भाया य पुत्तद्वारा मे । अत्थंमि चेव गिद्धा जम्मणमरणाणि पार्श्वति ॥ १८६॥ 'संसारं' नारकतिर्यग्नरामरलक्षणं मातापितृभार्यादिस्नेहलक्षणं वा 'छेत्तुमना' उन्मुमूलयिषुरष्टप्रकारं कम्र्मोन्मूलयेत्, तदुन्मूलनार्थं च तत्कारणभूतान् कषायानुन्मूलयेत्, कषायापगमनाय च मातापित्रादिगतं स्नेहं जह्यात्, यस्मान्मातापित्रा - | दिसंयोगाभिलाषिणोऽर्थे - रत्नकुप्यादिके गृद्धाः -अध्युपपन्ना जन्मजरामरणादिकानि दुःखान्यसुभृतः प्राशुवन्तीति गाथाद्वयार्थः ॥ तदेवं कषायेन्द्रियप्रमत्तो मातापित्राद्यर्थमर्थोपार्जनरक्षणतखरो दुःखमेव केवलमनुभवतीत्याह-'अहो' इत्यादि, अहश्च सम्पूर्ण रात्रिं व चशब्दात्पक्षं मासं च निवृत्तशुभाध्यवसायः परि-समन्तात्तप्यमानः परितप्यमानः सन् तिष्ठति, तद्यथा - "कइया वञ्च सत्यो? किं भण्डं कत्थ कित्तिया भूमी को कयविकयकालो निव्विसइ किं कहिं केण ? || १|| "
१ कदा जति सार्थः किं भाडं कुत्र किती भूमिः कः क्रियकाल निर्विषयति ( निर्विशति) क क केन ? ॥१॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६२], नियुक्ति: [१८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचा- राजवृत्तिः (शी०) ॥१०१॥
सूत्रांक [६२]
उहशका१
दीप
इत्यादि, सच परितप्यमानः किम्भूतो भवतीत्याह-काले'त्यादि, कालः-कर्त्तव्यावसरस्तद्विपरीतोऽकालः सम्य- लोक.वि. गुत्थातुम्-अभ्युद्यन्तुं शीलमस्येति समुत्थायीति पदार्थः, वाक्यार्थस्तु-काले कर्त्तव्यावसरे अकालेन तद्विपर्यासेन समुत्तिष्ठते-अभ्युद्यतमनुष्ठानं करोति तच्छीलश्चेति, कर्त्तव्यावसरे न करोत्यन्यदा च विदधातीति, यथा वा काले करोत्यवमकालेऽपीति, यथा वाऽनवसरे न करोत्येवमवसरेऽपीति, अन्यमनस्कत्वादपगतकालाकालविवेक इति भावना, यथा. प्रद्योतेन मृगापतिरपगतर्भतृका सती ग्रहणकालमतिवाह्य कृतप्राकारादिरक्षा जिघृक्षितेति, यस्तु पुनः सम्यक्कालोत्थायी भवति स यथाकालं परस्परानाबाधया सर्वाः क्रियाः करोतीति, तदुक्तम्-"मासैरष्टभिरहा च, पूर्वेण वयसाऽऽयुषा।तत् कर्त्तव्यं मनुष्येण, येनान्ते सुखमेधते ॥१॥" धर्मानुष्ठानस्य च न कश्चिदकालो मृत्योरिवेति । किमर्थं पुनः कालाकालसमुत्थायी भवतीत्याह-संजोगही' संयुज्यते संयोजनं वा संयोगोऽर्थः-प्रयोजनं संयोगार्थः सोऽस्यास्तीति संयोगार्थी, तत्र धनधान्यहिरण्यद्विपदचतुष्पदराज्यभार्यादिः संयोगस्तेनार्थी-तत्प्रयोजनी, अथवा शब्दादिविषयः संयोगो मातापित्रादिभिर्वा तेनार्थी कालाकालसमुत्थायी भवतीति । किं च–'अडालोभी' अर्थो-रलकुष्यादिस्तत्र आ-सम-18 न्ताहोभोऽधोलोभः स विद्यते यस्येत्यसावपि कालाकालसमुत्थायी भवति, मम्मणवणिग्वत्, तथाहि-असावतिक्रान्ता-I आर्थोपार्जनसमर्थयौवनवया जलस्थलपथप्रेषितनानादेशमाण्डभृतबोहित्थगन्त्रीकोष्ट्रमण्डलिकासम्भृतसम्भारोऽपि प्रावृषि ||
सप्तरात्रावच्छिन्नमुशलप्रमाणजलधारावर्षनिरुद्धसकलपाणिगणसञ्चारमनोरथायां महानदीजलपूरानीतकाष्ठानि जिघृक्षुरु
अनक्रम
[६३
R
१०१॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६२], नियुक्ति: [१८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६२]
दीप
पभोगधर्मावसरे निवृत्तापराशेषशुभपरिणामः केवलमर्थोपार्जनप्रवृत्त इति, उक्तं च-"उखणइ खणइ निहणइ रत्तिं ण सुअति दियावि य ससको । लिंपइ ठएइ सथयं लंछियपडिलंछियं कुणइ ॥१॥ भुंजसु न ताव रिको जेमेङ नविय अज मज्जीहं । नवि य वसीहामि घरे कायब्वमिणं बहुँ अजं ॥२॥" पुनरपि लोभिनोऽशुभव्यापारानाह-'आलुपे' आ-समन्तातुम्पतीत्यालुम्पः, स हि लोभाभिभूतान्तःकरणोऽपगतसकलकर्तव्याकर्तव्यविवेकोऽर्थलोभैकदत्तदृष्टिरहिकामु-1 ष्मिकविपाककारिणीनिलाञ्छनगलकर्तनचौर्यादिकाः क्रियाः करोति, अन्यच्च-सहसक्कारें करणं कारः, असमीक्षितपूर्वापरदोषं सहसा करणं सहसाकारः स विद्यते यस्येत्यर्श आदिभ्योऽच, (पा०५-२-१२७)अथवा छाग्दसत्वात्कतर्येव घञ् , करोतीति कारः, तथाहि-लोभतिमिराच्छादितदृष्टिरथैकमनाः शकुन्तवच्छराघातमनालोच्य पिशिताभिलाषितया सन्धिच्छेदनादितो विनश्यति, लोभाभिभूतो ह्यर्थंकदृष्टिस्तन्मनास्तदर्थोपयुक्तोऽर्थमेव पश्यति नापायान् , आह च-विणिविद्वचित्ते | विविधम्-अनेकधा निविष्ट-स्थितमवसाहमर्थोपार्जनोपाये मातापित्राद्यभिष्वझे वा शब्दादिविषयोपभोगे वा चित्तम्-अन्तःकरणं यस्य स तथा, पाठान्तरं वा विणिविडचिडे'त्ति, विशेषेण निविष्टा कायवाग्मनसां परिस्पदात्मिकाऽर्थोपार्जनोपायादी चेष्टा यस्य स विनिविष्टचेष्टः । तदेवं मातापित्रादिसंयोगार्थी अर्थालोभी आलुम्पः सहसाकारो विनिविष्टचित्तो विनिविष्टचेष्टो वा किम्भूतो भवतीत्याह-'इत्थ' इत्यादि, 'अत्र' अस्मिन्मातापित्रादौ शब्दादिविषयसंयोगे वा विनिविष्टचित्तः
१ सत्खनति सनति निदधाति (इन्ति ) रात्रौ न खपिति दिवाऽपि च सशः । लिम्पति स्थगयति सततं लाञ्चित्तप्रतिलाञ्छितं करोति ॥ १॥ मुहरूष न ताबभिव्यापारी जिमितुं नापि चाय महक्ष्यामि । नापि च वत्स्यामि गृहे कर्तव्यमिदं बाय ॥२॥
अनक्रम
[६३
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[६२]
दीप
अनुक्रम [ ६३ ]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६२], निर्युक्ति: [१८६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ... आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः
(शी०)
॥ १०२ ॥
सन् पृथिवीकायादिजन्तूनां यच्छस्त्रम् उपघातकारि तत्र पुनः पुनः प्रवर्त्तते, एवं पौनःपुन्येन शस्त्रे प्रवृत्तो भवति यदि पृथिवीकायादिजन्तूनामुपघाते वर्त्तते, तथाहि - 'शसु हिंसायामित्यस्माच्छस्यते हिंस्यत इति करणे ष्टुम्विहितः तच्च | स्वकायपरकायादिभेदभिन्नमिति । पाठान्तरं वा 'एत्थ सत्ते पुणो पुणो,' 'अत्र' मातापितृशब्दादिसंयोगे लोभार्थी सन् 'सक्तो' गृद्धः अध्युपपन्नः पौनःपुन्येन विनिविष्टचेष्ट आलुम्पकः सहसाकारः काठाकालसमुत्थायी वा भवतीति । एतच्च साम्प्रतेक्षिणामपि युज्येत यद्यजरामरत्वं दीर्घायुष्कं वा स्यात्, तच्चोभयमपि नास्तीत्याह - 'अप्पं च' इत्यादि, अल्पंस्तोकं चशब्दोऽधिकवचनः, खलुरवधारणे, आयुरिति भवस्थितिहेतवः कर्म्मपुद्गलाः 'इहे'ति संसारे मनुष्यभवे वा 'एकेषां' केषाञ्चिदेव 'मानवानां' मनुजानामिति पदार्थः, वाक्यार्थस्तु - इह अस्मिन् संसारे केषाञ्चिन्मनुजानां क्षुल्लकभवो| पलक्षितान्तर्मुहूर्त्त मात्रमल्पं - स्तोकमायुर्भवति, चशब्दादुत्तरोत्तरसमयादिवृद्ध्या पल्योपमत्र्यावसानेऽप्यायुषि खलुशब्द| स्यावधारणार्थत्वात्संयम जीवितमल्पमेवेति, तथाहि अन्तर्मुहूर्तादारभ्य देशोनपूर्वकोटिं यावत्संयमायुष्कं तच्चाल्पमेवेति, अथवा त्रिपल्योपमस्थितिकमप्यायुरल्पमेव, यतस्तदप्यन्तर्मुहूर्त्तमपहाय सर्वमपवर्त्तते, उक्तं च- “अद्धा जोगुकोसे बंधित्ता भोगभूमिएसु लहुं । सब्वप्पजीवियं वज्जइतु उब्वट्टिया दोन्हं ॥ १ ॥” अस्या अयमर्थः -- उत्कृष्टे योगे-बन्धाध्यवसायस्थाने आयुषो यो बन्धकालोऽद्धा उत्कृष्ट एवं तं बद्धा, क? - 'भोगभूमिकेषु' देवकुब्र्व्वादिजेषु, तस्य क्षिप्रमेव सर्वाल्पमायुर्वर्जयित्वा 'द्वयोः' तिर्यग्मनुष्ययोरपवृत्तिका - अपवर्त्तनं भवति, एतञ्चापर्यातकान्तर्मुहर्त्तान्तर्द्रष्टव्यं तत ऊर्ध्वमनपवर्त्तनमेवेति । सामान्येन वाऽऽयुः सोपक्रमायुषां सोपक्रमं निरुपक्रमायुषां निरुपक्रमं यदा ह्यस्मान् स्वायुषस्त्र
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लोक.वि. २ उद्देशकः १
॥ १०२ ॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६२], नियुक्ति : [१८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६२]
दीप
४ाभागे विभागत्रिभागे वा जघन्यत एकेन द्वाभ्यां वोत्कृष्टतः सप्तभिरष्टभिर्वा वरन्तर्मुहूर्तप्रमाणेन कालेनात्मप्रदेशरचना
नाडिकान्तर्वर्तिन आयुष्ककर्मवर्गणापुद्गलान् प्रयत्नविशेषेण विधत्ते तदा निरुपक्रमायुर्भवतीति, अन्यदा तु सोपक्रमायुष्क इति, उपक्रमश्चोपक्रमणकारणैर्भवति, तानि चामूनि-“दंडेकससत्थरजू अग्गी उदगपडणं विसं वाला । सीउण्हं अरइ भयं खुहा पिवासा य वाही य ॥१॥ मुत्तपुरीसनिरोहे जिण्णाजिण्णे य भोयणे बहुसो । घंसणघोलणपीलण| आउस्स उवक्कमा एते ॥२॥” उक्तं च-"स्वतोऽम्यत इतस्ततोऽभिमुखधावमानापदामहो निपुणता नृणां क्षणमपीह यज्जीव्यते । मुखे फलमतिक्षुधा सरसमल्पमायोजितं, कियच्चिरमचर्वितं दशनसङ्कटे स्थास्यति ॥ १ ॥ उच्छासावधयः |प्राणाः, स चोरट्टासः समीरणः । समीरणाचलं नान्यत् , क्षणमप्यायुरद्भुतम् ॥ २॥” इत्यादि । येऽपि दीर्घायुष्कस्थितिका उपक्रमणकारणाभावे आयुःस्थितिमनुभवन्ति तेऽपि मरणादयधिको जराभिभूतविग्रहां जघन्यतमामवस्थामनुभवन्तीति तद्यथेत्यादिना दर्शयति
तंजहा-सोयपरिणाणेहिं परिहायमाणेहिं चक्खुपरिणाणेहि परिहायमाणहिं घाणपरिणाणेहिं परिहायमाणेहिं रसणापरिणाणेहिं परिहायमाणेहिं फासपरिणाणेहिं
१ दण्डः कक्षा शस्त्रं रज्वमिद पतनं विषं ब्यालाः। शीतमुष्णमरतिभयं क्षुत्पिपासा च व्याधिध ॥ १॥ मूत्रपुरीषनिरोधः जीर्णेऽजीणे च भोजने बहुशः । Kाधर्षणं घोलनं पीदनमायुष उपकमा एते ॥२॥
अनक्रम
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SAREasatan international
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[६३]
दीप
अनुक्रम [६४]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [१], मूलं [६३], निर्युक्ति: [१८६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित......आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचा
राङ्गवृत्तिः
(शी०)
॥ १०३ ॥
परिहायमाणेहिं अभिकंतं च खलु वयं स पेहाए तओ से एगदा मूढभावं जणयंति ॥ ६३ ॥
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शृणोति भाषापरिणतान् पुद्गलानिति श्रोत्रं तच्च कदम्बपुष्पाकारं द्रव्यतो भावतो भाषाद्रव्यग्रहण लब्ध्युपयोगस्वभावमिति, तेन श्रोत्रेण परिः समन्ताद् घटपटशब्दादिविषयाणि ज्ञानानि परिज्ञानानि तैः श्रोत्रपरिज्ञानैर्जरा प्रभावात्परिहीयमानैः सद्भिस्ततोऽसौ प्राणी 'एकदा' वृद्धावस्थायां रोगोदयावसरे वा 'मूहभावं' मूढतां कर्त्तव्या कर्त्तव्या ज्ञतामिन्द्रियपाटवाभावादात्मनो जनयति, हिताहितप्राप्तिपरिहारविवेकशून्यतामापद्यत इत्यर्थः, जनयन्तीति चैकवचनावसरे 'तिडां तिङने भवन्तीति बहुवचनमकारि, अथवा तानि वा श्रोत्रविज्ञानानि परिक्षीयमाणान्यात्मनः सदसद्विवेक विकलतामापादयन्तीति, श्रोत्रादिविज्ञानानां च तृतीया प्रथमार्थे सुब्व्यत्ययेन द्रष्टव्येति, एवं चक्षुरादिविज्ञानेष्वपि योज्यम्, अत्र च करणत्वादिन्द्रियाणामेवं सर्वत्र द्रष्टव्यं श्रोत्रेणात्मनो विज्ञानानि चक्षुषाऽऽत्मनो विज्ञानानीति, ननु च तान्येव द्रष्टृणि कुतो न भवन्ति ?, उच्यते, अशक्यमेवं विज्ञातुं तद्विनाशे तदुपलब्धार्थस्मृत्यभावात् दृश्यते च हृषीकोपघातेऽपि तदुपलब्धार्थस्मरणं, तद्यथा-धवलगृहान्तर्वर्त्ति पुरुषपञ्चवातायनोपलब्धार्थस्य तदन्यतरस्थगनेऽपि तदुपपत्तिरिति, तथाहिअहमनेन श्रोत्रेण चक्षुषा वा मन्दमर्थमुपलभे, अनेन च स्फुटतरमिति स्पष्टैव करणत्वायगतिरक्षाणां यद्येवमन्यान्यपि ॥ १०३ ॥ करणानि सन्ति तानि किं नोपात्तानि ?, कानि पुनस्तानि ?, उच्यन्ते, वाक्पाणिपादपायूपस्थमनांसि वचनादानविहरणो
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लोक.वि. २ उद्देशकः १
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६३], नियुक्ति : [१८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६३]
दीप
सर्गानन्दसङ्कल्पव्यापाराणि, ततश्चैतेषामात्मोपकारकत्वेन करणत्वं, करणत्वादिन्द्रियत्वमिति, एवं चैकादशेन्द्रियसद्भावे सति पञ्चानामेवोपादानं किमर्थमिति, आहाचार्यो-नैष दोषः, इह ह्यात्मनो विज्ञानोत्पत्ती यत् प्रकृष्टमुपकारकं तदेव करणत्वादिन्द्रियम् , एतानि तु वाक्पाण्यादीनि नैवात्मनोऽनन्यसाधारणतया करणत्वेन व्याप्रियन्ते, अथ यां काञ्चन |क्रियामुपादाय करणत्वमुच्यते एवं तर्हि भूदरादेरप्युत्क्षेपादिसम्भवात्करणत्वं स्यात् , किं च-इन्द्रियाणां स्वविषये निय-ही तत्वात् नान्येन्द्रियकार्यमन्यदिन्द्रियं कर्तुमलं, तथाहि-चक्षुरेव रूपावलोकनायालं न तदभावे श्रोत्रादीनि, यस्तु रसा-| धुपलम्भे शीतस्पोदेरप्युपलम्भः स सर्वव्यापित्वात् स्पर्शनेन्द्रियस्येत्यनाशकनीयम्, इह तु पुनः पाणिच्छेदेऽपि तत्का-11 यस्यादानलक्षणस्य दशनादिनाऽपि निवर्त्यमानत्वाद्यत्किश्चिदेतत्, मनसस्तु सर्वेन्द्रियोपकारकत्वादन्तःकरणत्वमिष्यत | एव, तस्य च बाह्येन्द्रियविज्ञानोपघातेनैव गतार्थत्वान्न पृथगुपादानमिति, प्रत्येकोपादानं च क्रमोत्पत्तिविज्ञानोपलक्ष-1
णार्थ, तथाहि-येनैवेन्द्रियेण सह मनः संयुज्यते तदेवात्मीयविषयगुणग्रहणाय प्रवर्तते नेतरदिति, ननु च दीर्घशष्कुली-| ४ भक्षणादौ पञ्चानामपि विज्ञानानां योगपद्येनोपलब्धिरनुभूयते, तदस्ति, केवलिनोऽपि द्वावुपयोगौ न स्तः, आस्तां
तावदारातीयभागदर्शिनः पञ्चोपयोगा इति, एतच्चान्यत्र न्यक्षेण प्रतिपादितमिति नेह प्रतायते, यस्तु योगपद्येनानुभवाभासः स द्राग्वृत्तित्वान्मनसो भवतीति, उक्तं च-"आत्मा सहेति मनसा मन इन्द्रियेण, स्वार्थेन चेन्द्रियमिति क्रम | एष शीघ्रः । योगोऽयमेव मनसः किमगम्यमस्ति?, यस्मिन्मनो ब्रजति तत्र गतोऽयमात्मा ॥१॥"। इह चायमात्मेन्द्रि
१खपक्षे भावमनो व्याप्रियते इत्यर्थः.
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आगम
(०१)
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अनुक्रम [६४]
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[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६३], निर्युक्ति: [१८६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित......आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
॥ १०४ ॥
श्रीआचा- लब्धिमान् आदित्सितजन्मोत्पत्तिदेशे समयेनाहारपर्याप्तिं निर्वर्त्तयति, तदनन्तरमन्तर्मुहूर्तेन शरीरपर्याप्तिं, ततोऽपीराङ्गवृत्तिः केन्द्रियपर्याप्तं तावतैव कालेन तानि च पञ्चेन्द्रियाणि - स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुः श्रोत्राणीति, तान्यपि द्रव्यभावभेदात् प्रत्येकं (शी०) द्विविधानीति, तत्र द्रव्येन्द्रियं निर्वृत्त्युपकरणभेदात् द्विधा, निर्वृत्तिरप्यान्तरबाह्यभेदात् द्विधैव, निर्वर्त्यत इति निवृत्तिः, केन निर्वर्त्यते ?, कर्म्मणा, तत्रोत्सेधाङ्गलास इख्येयभागप्रमितानां शुद्धानामात्मप्रदेशानां प्रतिनियतचक्षुरादीन्द्रियसंस्थानेनावस्थिता या वृत्तिरभ्यन्तरा निर्वृत्तिः तेष्वेवात्मप्रदेशेष्विन्द्रियव्यपदेशभाक् यः प्रतिनियतसंस्थानो निर्मा णनाम्ना पुद्गलविपाकिना बर्द्धकिसंस्थानीयेन आरचितः कर्णशष्कुल्यादिविशेषः अङ्गोपाङ्गनाम्ना च निष्पादित इति बाह्या निवृत्तिः, तस्या एव निर्वृत्तेर्द्विरूपायाः येनोपकारः क्रियते तदुपकरणं तच्चेन्द्रिय कार्यसमर्थ, सत्यामपि निर्वृत्तावनुपहतायां मसूराकृतिरूपायां निर्वृत्तौ तस्योपघातान्न पश्यति, तदपि निर्वृत्तिवद् द्विधा, तत्राभ्यन्तरमक्ष्णस्तावत् कृष्णशुक्लमण्डलं बाह्यमपि पत्रपक्ष्मद्वयादि, एवं शेषेष्वप्यायोजनीयमिति भावेन्द्रियमपि लब्ध्युपयोगभेदात् द्विधा, तत्र लब्धिशनिदर्शनावरणीय क्षयोपशमरूपा यत्सन्निधानादात्मा द्रव्येन्द्रियनिर्वृत्तिं प्रति व्याप्रियते, तन्निमित्त आत्मनो मनस्साचिव्यादर्थग्रहणं प्रति व्यापार उपयोग इति, तदत्र सत्यां लब्धौ निर्वृत्युपकरणोपयोगाः, सत्यां च निर्वृत्तावुपकरणोपयोगी, सत्युपकरण उपयोग इति, एतेषां च श्रोत्रादीनां कदम्बकमसूर कलम्बुकापुष्पक्षुरप्रनानासंस्थान ताऽवगन्तव्येति, विषयश्च श्रोत्रेन्द्रियस्य द्वादशभ्यो योजनेभ्य आगतं शब्दं गृह्णाति चक्षुरप्येकविंशतिषु लक्षेषु सातिरेकेषु व्यवस्थितं प्रकाशकं प्रकाश्यं तु सातिरेकयोजनलक्षस्थितं रूपं गृह्णाति, शेषाणि तु नवभ्यो योजनेभ्य आगतं स्वविषयं गृहन्ति,
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लोक.बि. २
उद्देशक १
॥ १०४ ॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६३], नियुक्ति : [१८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [६३]
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जघन्यतस्त्वङ्गालासख्येयभागविषयत्वं सर्वेषाम्, अत्र च 'सोयपरिण्णाणेहिं परिहायमाणेही त्यादि य उत्पत्तिं प्रति व्यत्ययेनेन्द्रियाणामुपन्यासः स एवमर्थ द्रष्टव्यः-इह संजिनः पश्चेन्द्रियस्य उपदेशदानेनाधिकृतत्वादुपदेशश्च श्रोत्रेन्द्रिय
विषय इतिकृत्वा तत्सर्याप्ती च सर्वेन्द्रियपर्याप्तिः सूचिता भवति । श्रोत्रादिविज्ञानानि च वयोऽतिकमे परिहीयन्ते, तदेदावाह-'अभिकत'मित्यादि, अथवा श्रोत्रादिविज्ञानरपचितैः करणभूतैः सद्भिः 'अभिकतं च खलु वयं स पेहाए' तन्त्र
प्राणिनां कालकृता शरीरावस्था यौवनादिर्वयः तज्जरामभि-मृत्यु वा क्रान्तमभिकान्तम् , इह हि चत्वारि वयांसि-कुमार-2 यौवनमध्यमवृद्धत्वानि, उक्तंच-"प्रथमे वयसि नाधीतं, द्वितीये नार्जितं धनम् । तृतीये न तपस्तप्तं, चतुर्थे कि करिष्यति ? ॥१॥" तत्राद्यवयोद्वयातिकमे जराभिमुखमभिक्रान्तं वयो भवति, अन्यथा वा श्रीणि वयांसि-कौमारयौवनस्थविरत्वभेदादू, उक्तं च-"पिता रक्षति कौमारे, भत्ता रक्षति यौवने । पुत्राश्च स्थाविरे भावे, न स्त्री स्वातन्त्र्यमहति ॥१॥” अन्यथा वा त्रीणि वयांसि, बालमध्यवृद्धत्वभेदात् , उक्तं च-आषोडशाद्भवेद्वालो, यावत्क्षीरानवर्तकः । मध्यमः सप्ततिं यावत्परतो वृद्ध उच्यते ॥१॥" एतेषु वयस्सु सर्वेष्वपि योपचयवत्यवस्था तामतिकान्तोऽतिक्रान्तवया इत्युच्यते, चः समुच्चये, न केवलं श्रोत्रचक्षुर्माणरसनस्पर्शनविज्ञानैर्व्यस्तसमस्तैर्देशतः सर्वतो वा परिहीयमाणैर्वा मौव्यमापद्यते, वयश्चातिकान्तं 'प्रेक्ष्य' पर्यालोच्य 'स' इति प्राणी खलुरिति विशेषणे विशेषेण-अत्यर्थं मौल्यमापद्यत इति, आह च-ततो से' इत्यादि, 'तत' इति तस्मादिन्द्रियविज्ञानापचयादयोऽतिक्रमणाद्वा स इति प्राणी 'एकदेति वृद्धाव
१ चक्षुषः संख्येयभागे यद्यपि तथापि सर्वेषां विषयस्य सामान्येन विवक्षणादित्यमुक्त
अनक्रम
*55 -
45-4
*
[220]
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६३], नियुक्ति: [१८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
राङ्गवृत्तिः
(शी०)
[६३]
दीप
स्थायां मूढभावो मूढत्वं-किंकर्तव्यताभावमात्मनो जनयति, अथवा 'से'तस्यासुभृतः श्रोत्रादिविज्ञानानि परिहीयमा- लोक.वि.२ दाणानि मूढभावं जनयन्तीति ।। स एवं वार्द्धक्ये मूढस्वभावः सन् प्रायेण लोकावगीतो भवतीत्याह
उद्देशकः१ जेहिं वा सद्धिं संवसति ते वि णं एगदा णियगा पुब्बि परिवयंति, सोऽवि ते णियए ॥१०५॥ पच्छा परिवएज्जा, णालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमंपि तेसिं णालं ताणाए
वा सरणाए वा, से ण हासाय ण किड्डाए ण रतीए ण विभूसाए (सू०६४)
वाशब्दः पक्षान्तरद्योतका, आस्तां तावदपरो लोको 'यैः पुत्रकलबादिभिः 'साई' सह संवसति, त एव भार्याटिपुत्रादयो णमिति वाक्यालङ्कारे 'एकदेति वृद्धावस्थायां 'नियगा' आत्मीया ये तेन समर्थावस्थायां पूर्वमेव पोषिताः ते
तं 'परिवदंति' परि-समन्ताद्वदन्ति-यथाऽयं न बियते नापि मञ्चकं ददाति, यदिवा परिवदन्ति-परिभवन्तीत्युक्त भवति, अथवा किमनेन वृद्धेनेत्येवं परिवदन्ति, न केवलमेषां, तस्यात्मापि तस्यामवस्थायामवगीतो भवतीति, आहह |च-"वलिसन्ततमस्थिशेषितं, शिथिलस्नायुधतं कडेवरम् । स्वयमेव पुमान् जुगुप्सते, किमु कान्ता कमनीयविग्रहा। ॥१॥" गोपालवालाङ्गनादीनां च दृष्टान्तद्वारेणोपन्यस्तोऽर्थों बुद्धिमधितिष्ठतीत्यतस्तदाविर्भावनाय कथानकम् कौशाम्ब्यां नगर्या अर्थवान् बहुपुत्रो धनो नाम सार्थवाहा, तेन चैकाकिना नानाविधैरुपायैः स्वापतेयमुपार्जितं, तच्चाशेषदुःखितब-14 न्धुजनस्वजनमित्रकलत्रपुत्रादिभोग्यतां निन्ये, ततोऽसौ कालपरिपाकवशाबृद्धभावमुपगतः सन् पुत्रेषु सम्यपालनो
CREACHERECECEKACKS
अनक्रम
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६४], नियुक्ति : [१८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[६४)
दीप
पचितकलाकुशलेषु समस्तकार्यचिन्ताभारं निचिक्षेप । तेऽपि वयमनेनेदृशीमवस्थां नीताः सर्वजनाग्रेसरा विहिता इति
कृतोपकाराः सन्त कुलपुत्रतामवलम्बमानाः स्वतः कचित् कार्यव्यासङ्गात् स्वभार्याभिस्तमकल्पं वृद्धं प्रत्यजजागरन् , &ाता अप्युद्वर्तनसानभोजनादिना यथाकालमक्षुण्णं विहितवत्यः। ततो गच्छत्सु दिवसेषु वर्धमानेषु पुत्रभाण्डेषु प्रौढी
भवत्सु भर्तृषु जरद्वृद्धे च विवशकरणपरिचारे सर्वाङ्गकम्पिनि गलदशेषश्रोतसि सति शनैः शनैरुचितमुपचार शिथिलतां | |निन्युः । असावपि मन्दप्रतिजागरणतया चित्ताभिमानेन विनसया च सुतरां दुःखसागरावगाढः सन् पुत्रेभ्यः स्नुषाक्षुण्णान्याचचक्षे, ताश्च स्वभर्तृभिश्चेखिद्यमानाः सुतरामुपचारं परिहतवत्यः, सर्वाश्च पर्यालोच्यैकवाक्यतया स्वभर्तन
भिहितवत्यः-क्रियमाणेऽप्ययं प्रतिजागरणे वृद्धभावाद्विपरीतबुद्धितयाऽपडते, यदि भवतामप्यस्माकमुपर्यविस्रम्भस्ततो8ऽन्येन विश्वसनीयेन निरुपयत, तेऽपि तथैव चक्रुः, तास्तु तस्मिन्नवसरे सर्वो अपि सर्वाणि कार्याणि यथाऽवसरं विहि-18
तवत्यः, असावपि पुत्रैः पृष्टः पूर्वविरुक्षितचेतास्तथैव ता अपवदति, नैता मम किञ्चित्सम्यक् कुर्वन्ति, तैस्तु प्रत्ययिकवचनादवगततत्वैर्यथाऽयमुपचर्यमाणोऽपि वार्द्धक्याद्रोरुद्यते, ततस्तैरप्यवधीरितोऽन्येषामपि यथावसरे तद्भण्डनवभावतामाचचक्षिरे । ततोऽसौ पुत्रैरवधीरितः स्नुषाभिः परिभूतः परिजननावगीतो वाङ्मात्रेणापि केनचिदप्यननुवय॑मानः सुखितेषु दुःखितः कष्टतरामायुःशेषामवस्थामनुभवतीति । एवमन्योऽपि जराभिभूतविग्रहस्तृणकुब्जीकरणेऽप्यसमर्थः | सन् कार्येकनिष्ठलोकात्परिभवमानोतीति, आह-"गात्रं सङ्कचितं गतिविगलिता दन्ताश्च नाशं गता, दृष्टिश्यति रूपमेव
१ स्मृतोपकाराः २ असमर्थ.
अनक्रम
[222]
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६४], नियुक्ति : [१८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
लोक.वि.२ उद्देशका
सूत्रांक
[६४]
।१०६॥
दीप
श्रीआचा- हसते वक्रं च लालायते । वाक्यं नैव करोति बान्धवजनः पत्नी न शुश्रूषते, धिक्कष्टं जरयाऽभिभूतपुरुषं पुत्रोऽप्यय- रावृत्तिः
| ज्ञायते ॥१॥" इत्यादि । तदेवं जराभिभूतं निजाः परिवदन्ति, असावपि परिभूयमानस्तद्विरक्तचेतास्तदपवादाजना( शीयाचष्टे, आह च-'सो वा' इत्यादि, वाशब्दः पूर्वापेक्षया पक्षान्तरं दर्शयति, ते वा निजास्तं परिवदन्ति, स वा जराज
जरितदेहस्तान्निजाननेकदोषोघट्टनतया परिवदेत्-निन्देद्, अथवा खिंद्यमानार्थतया तानसाववगायति-परिभवतीत्यर्थः। येऽपि पूर्वकृतधर्मवशात्तं वृद्धं न परिवदन्ति तेऽपि तदुःखापनयनसमर्था न भवन्ति, आह च-नाल'मित्यादि, नालंन समर्थाः ते-पुत्रकलत्रादयः, तवेति प्रत्यक्षभावमुपगतं वृद्धमाह, त्राणाय शरणाय वेति, तत्रापत्तरणसमर्थं त्राणमुच्यते, यथा महाश्रोतोभिरुह्यमानः सुकर्णधाराधिष्ठितं प्लवमासाद्यापस्तरतीति, शरणं पुनर्यदवष्टम्भानिर्भयैः स्थीयते तदुच्यते, तत् पुनर्दुर्ग पर्वतः पुरुषो वेति, एतदुक्तं भवति-जराभिभूतस्य न कश्चित् त्राणाय शरणाय वा, त्वमपि तेषां नालं त्राणाय
शरणाय वेति, उक्तं च-"जन्मजरामरणभयैरभिद्रुते व्याधिवेदनाग्रस्ते । जिनवरवचनादन्यत्र नास्ति शरणं कचिल्लोके | P॥१॥" इत्यादि, स तु तस्यामवस्थायां किम्भूतो भवतीत्याह-से ण हस्साए' इत्यादि, 'स' जराजीणविग्रहो न हास्याय
भवति, तस्यैव हसनीयत्वात् न परान् हसितुं योग्यो भवतीत्यर्थः, स च समक्ष परोक्षं वा एवमभिधीयते जनः-किं &ाकिलास्य हसितेन हास्यास्पदस्पेति, न च क्रीडायै-न च लखनवल्गनास्फोटनक्रीडानां योग्योऽसौ भवति, नापि रत्यै भवति, रतिरिह विषयगता गृह्यते, सा पुनर्ललनावगृहनादिका, तथाभूतोऽप्यवजुगूहिषुः स्त्रीभिरभिधीयते-न लजते
१ तव्यतिरिक्त प्र. २ विद्यमाना०प्र.
अनक्रम
॥१०६।।
[223]
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[६४]
दीप
अनुक्रम [ ६५ ]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
-
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६४], निर्युक्ति: [१८६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित......आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
भवान् न पश्यति आत्मानं नावलोकयति शिरः पलित भस्मावगुण्डितं मां दुहितृभूतमेवं गूहितुमिच्छसीत्यादिवचसामास्पदत्वान्न रत्यै भवति, न विभूषायै, यतो विभूषितोऽपि प्रततचर्म्मवलीकः स नैव शोभते, उक्तं च- "न विभूषणमस्य युज्यते, न च हास्यं कुत एव विभ्रमः । अथ तेषु च वर्त्तते जनो, ध्रुवमायाति परां विडम्बनाम् ॥ १ ॥ जं 'जं करेइ तं तं न सोहए जोन्वणे अतिकंते । पुरिसस्स महिलियाइ व एक्कं धम्मं पमुत्तूर्णं ॥ २ ॥ गतमप्रशस्तं मूलस्थानं, साम्प्रतं प्रशस्तमुच्यते
इच्चेवं समुट्ठिए अहोविहाराए अंतरं च खलु इमं सपेहाए धीरे मुहुत्तमवि णो पमायए वओ अचेति जोव्वणं व ( सू० ६५ )
अथवा यत एवं ते सुहृदो नालं त्राणाय शरणाय वा अतः किं विदध्यादित्याह 'इच्छेव' मित्यादि, 'इतिः' उपप्रदर्शने, अप्रशस्तमूलगुणस्थाने वर्तमानो जराभिभूतो न हास्याय न क्रीडायै न रत्यै न विभूपायै प्रत्येकं च शुभाशुभकर्म्मफलं प्राणिनामित्येवं मत्वा समुत्थितः - सम्यगुत्थितः शस्त्रपरिज्ञोक्तं मूलगुणस्थानमधितिष्ठन् अहो - इत्याश्चर्ये विहरणं बिहारः आश्चर्यभूतो विहारो अहोबिहारो - यथोक्तसंयमानुष्ठानं तस्मै अहोविहारायोस्थितः सन् क्षणमपि नो प्रमादयेदित्युत्तरेण सण्टङ्कः, किंच- 'अंतरं चेत्यादि, अन्तरमित्यवसरः, तच्चार्यक्षेत्र सुकुलोत्पत्तिबोधिलाभ सर्व विरत्यादिकं, चः समुच्चये, खलु
१ यत्करोति तत्तन शोभते यौवनेऽतिक्रान्ते पुरुषस्य महिलाया वा एक धर्म्म प्रमुख्य ॥ २ ॥
For Parts Only
[224]
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६५], नियुक्ति: [१८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६५]
दीप
श्रीआचा- रवधारणे, 'इम'मित्यनेनेदमाह-विनेयस्तपःसंयमादाववसीदन् प्रत्यक्षभावापन्नमार्यक्षेत्रादिकमन्तरमवसरमुपदाभिधीयते-ट्र लोक.वि.२ राङ्गवृत्तिः तवायमेवम्भूतोऽवसरोऽनादौ संसारे पुनरतीव सुदुर्लभ एवेति, अतस्तमवसरं 'संप्रेक्ष्य पर्यालोच्य धीरः सन्मुहूर्तमप्येक
उद्देशकः१ (शी०) नो 'प्रमादयेत्' प्रमादवशगो भूयादिति, सम्प्रेक्ष्येत्यत्र अनुस्वारलोपश्चान्दसत्वादिति, अन्यदप्यलाक्षणिकमेवंजातीयमस्मा
दिदेव हेतोरवगन्तव्यमिति, आन्तमौहर्तिकत्वाच छाझस्थिकोपयोगस्य मुहर्त्तमित्युक्तम् , अन्यथा समयमप्येकं न प्रमादये-द ॥१०॥
दिति वाच्यं, तदुक्तम्-"सम्प्राप्य मानुषत्वं संसारासारतां च विज्ञाय । हे जीव ! किं प्रमादान चेष्टसे शान्तये सततम् |॥१॥ ननु पुनरिदमतिदुर्लभमगाधसंसारजलधिविभ्रष्टम् । मानुष्यं खद्योतकतडिल्लताविलसितप्रतिमम् ॥ २॥" इत्यादि, | किमर्थं च नो प्रमादयेदित्याह-वयो अच्चेइ'त्ति, वयः-कुमारादि अत्येति-अतीव एति-याति अत्येति, अन्यच्च-'जोव्वणं वत्ति अत्येत्यनुवर्तते, यौवनं वाऽत्येति-अतिक्रामति, वयोग्रहणेनैव यौवनस्य गतत्वात्तदुपादानं प्राधान्यख्यापनार्थ, धमाकामानां तन्निवन्धनत्वात्सर्ववयसां यौवनं सांधीयः, तदपि त्वरितं यातीति, उक्त च-"नइवेगसमं चवलं च | जीवियं जोब्वर्ण च कुसुमसमं । सोक्खं च ज अणिचं तिण्णिवि तुरमाणभोजाई ॥१॥" तदेवं मत्वा अहोविहारायोस्थानं श्रेय इति ।। ये पुनः संसाराभिष्वशिणोऽसंयमजीवितमेव बहु मन्यन्ते ते किंभूता भवतीत्याह
जीविए इह जे पमत्ता से हंता छेत्ता भेत्ता लुपित्ता विलंपित्ता उद्दवित्ता उत्तासइत्ता,
CASSESSAGE
अनुक्रम
[६६]
॥१०७॥
१नदीवेगसमं चपलमेव जीवितं यौवनं च कुसुमसमम् । सौख्यं च यदनिखं त्रीष्मपि त्वरमागभोज्यानि ॥१॥
[225]
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६६], नियुक्ति : [१८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६६]
दीप
अकडं करिस्सामित्ति मण्णमाणे, जेहिं वा सद्धिं संवसइ ते वा णं एगया नियगा तं पुचि पोसेंति, सो वा ते नियगे पच्छा पोसिज्जा, नालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा,
तुमंपि तेसिं नालं ताणाए वा सरणाए वा (सू०६६) ये तु वयोऽतिक्रमणं नावगच्छन्ति, ते 'इहे'त्यस्मिन्नसंयमजीविते 'प्रमत्ताः' अध्युपपन्ना विषयकषायेषु प्रमाद्यन्ति, प्रमत्ताश्चहनिशं परितप्यमानाः कालाकालसमुत्थायिनः सन्तः सत्त्वोपघातकारिणीः क्रियाः समारम्भत इति, आह च-से | हंता' इत्यादि, 'से'इत्यप्रशस्तगुणमूलस्थानवान्विषयाभिलाषी प्रमत्तः सन् स्थावरजङ्गमानामसुमतां हन्ता भवतीति, अत्र च बहुवचनप्रक्रमेऽपि जात्यपेक्षयैकवचननिर्देश इति, तथा छेत्ता कर्णनासिकादीनां भेत्ता शिरोनयनोदरादीनां लुम्पयिता ग्रन्थिच्छेदादिभिः विलुम्पयिता ग्रामघातादिभिः अपद्रावयिता प्राणव्यपरोपको विषशस्त्रादिभिः अवद्रापयिता वा, उत्रासको लोष्टप्रक्षेपादिभिः। स किमर्थं हननादिकाः क्रियाः करोतीत्याह-अकर्ड' इत्यादि, अकृतमिति, यदन्येन नानुष्ठितं तदहं करिष्यामीत्येवं मन्यमानोऽर्थोपार्जनाय हननादिषु प्रवर्त्तते । स एवं क्रूरकोतिशयकारी समु
द्रलखनादिकाः क्रियाः कुर्वन्नष्यलाभोदयादपगतसर्वस्वः किंभूतो भवतीत्याह-'जेहिं वा' इत्यादि, वाशब्दो भिन्नक्रमः द पक्षान्तरद्योतकः 'यैः'मातापितृस्वजनादिभिः सार्द्ध संवसत्यसो त एव वाण'मिति वाक्यालङ्कारे 'एकदे'त्यर्थनाशाद्या
पदि शैशवे वा निजाः' आत्मीया बान्धवाः सुहृदो वा 'पुचि' पूर्वमेव 'त' सर्वोपायक्षीणं पोषयन्ति, स पा प्राप्तेष्टमनो
अनक्रम
[६७
For P
OW
[226]
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[६६ ]
दीप
अनुक्रम [६७ ]
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६६], निर्युक्ति: [१८६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र - [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचा
राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ १०८ ॥
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
-
रथलाभः संस्तान्निजान् पश्चात् 'पोषयेद्' अर्थदानादिना सन्मानयेदिति । ते च पोषकाः पोष्या वा तव आपद्गतस्य न त्राणाय भवन्तीत्याह- 'नालं' इत्यादि, 'ते' निजा मातापित्रादयः, तवेत्युपदेशविषयापन्न उच्यते, 'त्राणाय' आपद्रक्षणार्थ 'शरणाय 'निर्भयस्थित्यर्थ 'ना' न समर्थः त्वमपि तेषां त्राणशरणे कर्त्तुं नालमिति ॥ तदेवं तावत्स्वजनो न त्राणाय भवतीत्येतत्प्रतिपादितं, अर्थोऽपि महता क्लेशेनोपात्तो रक्षितश्च न त्राणाय भवतीत्येत्प्रतिपिपादयिषुराह
Education Internation
उवाईयसेसेण वा संनिहिसंनिचओ किज्जई, इहमेगेसिं असंजयाण भोयणाए, तओ से एगया रोगसमुप्पाया समुप्पज्जंति, जेहिं वा सद्धिं संवसह ते वा णं एगया नियगा तं पुवि परिहरंति, सो वा ते नियगे पच्छा परिहरिज्जा, नालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमपि तेसिं नालं ताणाए वा सरणाए वा (सू० ६७ )
‘उपादितेति ‘अद भक्षणे' इत्येतस्मादुपपूर्वान्निष्ठाप्रत्ययः, तत्र 'बहुलं छन्दसी' तीडागमः, उपादितम्-उपभुक्तं, तस्य शेषमुपभुक्तशेषं, तेन वा, वाशब्दादनुपभुक्तशेषेण वा सन्निधानं - सन्निधिस्तस्य संनिचयः सन्निधिसन्निचयः, अथवा सम्यग् निधीयते अवस्थाप्यत उपभोगाय योऽर्थः स सन्निधिस्तस्य सन्निचयः - प्राचुर्य्यमुपभोग्यद्रव्यनिचय इत्यर्थः, स 'इह' अस्मिन्संसारे 'एकेषाम्' असंयतानां संयताभासानां वा केषाविद् 'भोजनाय' उपभोगार्थ 'क्रियते' विधीयत
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[227]
लोक.वि.२ उदेशकः १
॥ १०८ ॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६७], नियुक्ति: [१८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
N
प्रत सूत्रांक
S -450-%
[६७]
दीप
इति, असावपि यदर्थमनुष्ठितोऽन्तरायोदयात्तत्संपत्तये न प्रभवतीत्याह-'तओ से' इत्यादि, 'ततो' द्रव्यसनिधिसन्नि|चयादुत्तरकालमुपभोगावसरे 'से'तस्य बुभुक्षोः 'एकदेति द्रव्यक्षेत्रकालभावनिमित्ताविर्भावितवेदनीयकम्र्मोदये 'रोगसकामपादाः ज्वरादिप्रादुर्भावाः 'समुत्पद्यन्त' इत्याविर्भवन्ति । स च तैः कुवराजयक्ष्मादिभिरभिभूतः सन्मग्ननासिको
गलत्पाणिपादोऽविच्छेदप्रवृत्तश्वासाकुलः किंभूतो भवति इत्याह-'जेहिं' इत्यादि, 'य'मातापित्रादिभिर्निजैः सार्द्ध संवसति त एव वा निजाः 'एकदा'रोगोत्पत्तिकाले पूर्वमेव तं परिहरन्ति, स वा तामिजान्पश्चात्परिभवोत्थापितविवेकः 'परिहरेत्' त्यजेत् , तन्निरपेक्षः सेडुकवत् स्यादित्यर्थः, ते च स्वजनादयो रोगोत्पत्तिकाले परिहरन्तोऽपरिहरन्तो वान त्राणाय
भवन्तीति दर्शयति'नाल'मित्यादि, पूर्ववद्, रोगाद्यभिभूतान्तःकरणेन चापगतत्राणेन च किमालम्ब्य सम्यक्करणेन है रोगवेदनाः सोढन्याः? इत्याह
जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं (सू०६८) ज्ञात्वा प्रत्येक प्राणिनां दुःखं तद्विपरीतं सातं वाऽदीनमनस्केन ज्वरादिवेदनोत्पत्तिकाले स्वकृतकर्मफलमवश्यमनुभवनीयमिति मत्वा न वैक्लव्यं कार्यमिति, उक्तं च-"सह कलेवर! दुःखमचिन्तयन्, स्ववशता हि पुनस्तव दुर्लभा । सा बहुतरं च सहिष्यसि जीव हे !, परवशो न च तत्र गुणोऽस्ति ते ॥१॥" यावच्च श्रोत्रादिभिर्विज्ञानैः परिहीयमानः जरा
जीर्ण न निजाः परिवदन्ति यावच्चानुकम्पया न पोषयन्ति रोगाभिभूतं च न परिहरन्ति तावदात्मार्थोऽनुष्ठेय || इत्येतद्दर्शयति
%
अनक्रम
%
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६९], नियुक्ति: [१८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६९]
(शी०)
दीप
श्रीआचाअणभिकंतं च खलु वयं संपेहाए (सू०६९)
लोक.वि.२ राजवृत्तिः चशब्द आधिक्ये खलुशब्दः पुनरर्थे पूर्वमभिक्रान्तं वयः समीक्ष्य मूहभावं बजतीति प्रतिपादितम् , अनभिकान्तं देशका
ताच पुनर्वयः संप्रेक्ष्य “आयई समणुवासेज्जासि" इत्युत्तरेण सम्बन्धः, 'आत्मार्थम्' आत्महितं 'समनुवासयेत्' कुर्यादित्यर्थः।। ॥१०९॥
|किमनतिक्रान्तवयसैवात्महितमनुष्ठेयमुतान्येनापि इति', परेणापि लब्धावसरेणात्महितमनुष्ठेयमित्येतदर्शयति
खणं जाणाहि पंडिए (सू०७०) क्षण:-अवसरो धर्मानुष्ठानस्य, स चार्यक्षेत्रसुकुलोत्पत्त्यादिका, परिवादपोषणपरिहारदोषदुष्टानां जराबालभावरोगा-16 Mणामभावे सति, तं क्षणं 'जानीहि' अवगच्छ 'पण्डित' आत्मज्ञ!| अथवाऽवसीदन् शिष्यः प्रोत्साह्यते-हे अनतिका-11
न्तयौवन ! परिवादादिदोषत्रयास्पृष्ट! पण्डित! द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदभिन्नं 'क्षणम्' अवसरमेवंविधं 'जानीहि अवबुध्यस्व, तथाहि-द्रव्यक्षणो द्रव्यात्मकोऽवसरो जगमत्वपश्चेन्द्रियत्वविशिष्टजातिकुलरूपवलारोग्यायुष्कादिको मनुष्यभावः संसारोत्तरणसमर्थचारित्रावाप्तियोग्यस्त्वयाऽवाप्तः, स चानादौ संसारे पर्यटतोऽसुमतो दुरापो भवति, अन्यत्र तु नैतच्चारित्रमवाप्यते, तथाहि-देवनारकभवयोः सम्यक्त्वश्रुतसामायिके एव, तिर्यक्षु च कस्यचिद्देशविरतिरेवेति । क्षेत्रक्षणः क्षेत्रा-IK त्मकोऽवसरो यस्मिन् क्षेत्रे चारित्रमवाप्यते, तत्र सर्वविरतिसामायिकस्याधोलौकिकयामसमन्वितं तिर्यक्षेत्रमेव, तत्राप्य-IN तृतीयद्वीपसमुद्राः, तत्रापि पञ्चदशसु कर्मभूमिषु, तत्रापि भरतक्षेत्रमपेक्ष्य अर्द्धपड़िशेषु जनपदेष्वित्यादिकः क्षेत्रक्षण:-18||
।। १०९॥ क्षेत्ररूपोऽवसरोऽधिगन्तव्यः, अन्यस्मिंश्च क्षेत्र आये एवं सामायिके । कालक्षणस्तु कालरूपः क्षणोऽवसरः, स चावसर्पिण्यां|
अनक्रम
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [७०], नियुक्ति : [१८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[७०]
दीप
तिसृषु समासु सुषमदुष्षमादुष्षमसुषमादुष्षमाख्यासु उत्सर्पिण्या तु तृतीयचतुर्थारकयोः सर्वविरतिसामायिकस्य भवति, एतच्च प्रतिपद्यमान प्रत्यभ्यधायि, पूर्वप्रतिपन्नास्तु सर्वत्र तिर्यगू धोलोके सर्वासु च समासु द्रष्टव्याः, भावक्षणस्तु द्वेधा-कर्मभावक्षणो नोकर्मभावक्षणश्च, तत्र कर्मभावक्षणः कर्मणामुपशमक्षयोपशमक्षयान्यतरावाप्ताववसर उच्यते, तत्रोपशमश्रेण्या चारित्रमोहनीय उपशमितेऽन्तम्मौहूर्तिक औपशमिकश्चारित्रक्षणो भवति, तस्यैव मोहनीयस्य क्षयेणा|न्तम्मौहूर्तिक एव छद्मस्थयथाख्यातचारित्रक्षणो भवति, क्षयोपशमेन तु क्षायोपशमिकचारित्रावसरः, स चोत्कृष्टतो
देशोनां पूर्वकोटिं यावदवगन्तव्यः, सम्यक्त्वक्षणस्त्वजघन्योत्कृष्टस्थितावायुषो वर्तमानस्य, शेषाणां तु कर्मणां पल्योप-15 ८ मासख्येयभागन्यूनान्तःसागरोपमकोटिकोटीस्थितिकस्य जन्तोर्भवति,स चानेन क्रमेणेति, ग्रन्थिकसत्त्वेभ्योऽभव्येभ्योऽ-14
नन्तगुणया शुद्ध्या विशुज्यमानो मतिश्रुतविभङ्गान्यतरसाकारोपयुक्तः शुद्धलेश्यात्रिकान्यतरलेश्योऽशुभकर्मप्रकृतीनां चतुःस्थानिक रसं द्विस्थानिकतामापादयन् शुभानां च द्विस्थानिकं चतुःस्थानिकतां नयन वर्भश्च ध्रुवप्रकृतीः परिवर्त्तमानाश्च भवप्रायोग्या बभन्निति, ध्रुवकर्मप्रकृतयश्चमा:-पञ्चधा ज्ञानावरणीयं नवधा दर्शनावरणीय मिथ्यात्वं कषायषोडशकं भयं जुगुप्सा | तैजसकार्मणशरीरे वर्णगन्धरसस्पर्शागुरुलघूपघातनिर्माणनामानि पञ्चधाऽन्तरायः, एताः सप्तचत्वारिंशद् ध्रुवप्रकृतयः, आसां सर्वदा वध्यमानत्वात् , मनुष्यतिरश्चोरन्यतरः प्रथमं सम्यक्त्वमुत्पादयन्नेता एकविंशतिः(म्)परिवर्तमाना बनाति, तद्यथा-देवगत्यानुपूर्वीद्वयपश्वेन्द्रियजातिवैक्रियशरीराङ्गोपाङ्गद्वयसमचतुरस्रसंस्थानपराधातोच्छासप्रशस्तविहायोगतिप्रशस्तत्रसादिदशकसातावेदनीयोचर्गोत्ररूपा इति, देवनारकास्तु मनुष्यगत्यानुपूर्वीद्वयौदारिकद्वयप्रथमसंहननसहितानि
अनक्रम
७१
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OW
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [७०], नियुक्ति: [१८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचा- रावृत्तिः
सूत्रांक
(शी०)
[७०]
दीप
शुभानि बध्नन्ति, तमतमानारकास्तु तिर्यग्गत्यानुपूतियनीचर्गोत्रसहितानीति, तदध्यवसायोपपन्नः सन्नायुष्कमवघ्नन् लोक.वि.२ यथाप्रवृत्तेन करणेन ग्रन्थिमासाद्यापूर्वकरणेन भित्त्वा मिथ्यात्वस्यान्तरकरणं विधायानिवृत्तिकरणेन सम्यक्त्वमवाप्नोति, तत ऊर्दू क्रमेण क्षीयमाणे कर्मणि प्रवर्द्धमानेषु कण्डकेषु देशविरत्यादेरवसर इति । नोकर्मभावक्षणस्त्वालस्यमोहावर्णवादस्तम्भाद्यभावे सम्यक्त्वाद्यवाप्त्यवसर इति, आलस्यादिभिस्तूपहतो लब्ध्वाऽपि संसारलनक्षम मनुष्यभवं बोध्यादिकं नामोतीति, उक्तंच-"आलस्समोहऽवन्ना थंभा कोहा पमाय किविणत्ता । भयसोगा अन्नाणा विक्खेव कुऊला रमणा ॥१॥ एएहि कारणेहिं लण सुदुलहपि माणुस्सं । न लहइ सुई हिअकरि संसारुत्तारणिं जीवो ॥२॥" तदेवं चतुर्विधोऽपि क्षण उक्ता, तद्यथा-द्रव्यक्षणो जङ्गमत्वादिविशिष्टं मनुष्यजन्म क्षेत्रक्षण आर्यक्षेत्र कालक्षणो धर्मचरणकालो भावक्षणः क्षयोपशमादिरूपः । इत्येवंभूतमवसरमवाप्यात्मार्थं समनुवासयेदित्युत्तरेण सम्बन्धः। किं च
जाव सोयपरिपणाणा अपरिहीणा नेत्तपरिणाणा अपरिहीणा घाणपरिणाणा अपरिहीणा जीहपरिणाणा फरि०, इच्चेएहिं विरूवरूवेहिं पण्णाणेहिं अपरिहीणेहिं आयटुं संमं समणुवासिज्जासि (सू०७१ ) तिबेमि ॥ प्रथमोद्देशः॥
आलस्य मोहोऽवर्णः त्वम्भः क्रोधः प्रमादः कृपणता। भयशोको अज्ञावं विक्षेपः कौतूहलं रमणम् ॥ १॥ एवैः कारगर्लम्वा सुदुर्लभमपि मानुष्यं । न र श्रुति हितकरी संसारोत्तारिणी जीवः ॥ २ ॥
अनक्रम
७१
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [७१], नियुक्ति : [१८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[७१]
दीप
यावदस्य विशरारोः कायापशदस्य श्रोत्रविज्ञानानि जरसा रोगेण वा अपरिहीनानि भवन्ति, एवं नेत्रवाणरसनस्पर्श-| || विज्ञानानि न विषयग्रहणस्वभावतया मान्ध प्रतिपद्यन्ते, इत्येतेः 'विरूपरूपैः' इष्टानिष्टरूपतया नानारूपैः 'प्रज्ञानैः' प्रकृटैज्ञानरपरिक्षीयमाणः सद्भिः किं कुर्याद ? इत्याह-आयर्ड' इत्यादि, आत्मनोऽथे आत्मार्थः, सच ज्ञानदर्शन-12 चारित्रात्मका, अन्यस्वनर्थ एव, अथवाऽऽत्मने हित-प्रयोजनमात्माई, तच चारित्रानुष्ठानमेव, अथवा आयतः
अपर्यवसानान्मोक्ष एव, स चासावर्थश्चायतार्थोऽतस्तै, यदि वाऽऽयत्तो-मोक्षः अर्थः-प्रयोजनं यस्य दर्शनादित्रयस्य तत्तथा Sell'समनुवासयेत्' इति 'बस निवासे' इत्येतस्माद्धेतुमण्णिजन्ताछिट्सि सं-सम्यग् यथोक्तानुष्ठानेन अनु-पश्चादनभि
कान्तं वयः संप्रेक्ष्य क्षणम्-अवसरं प्रतिपद्य श्रोत्रादिविज्ञानानां वा-प्रहीणतामधिगम्य तत आत्मार्थ 'समनुवासयेर आत्मनि विदध्याः । अथवा 'अर्थवशाद विभक्तिपुरुषपरिणाम'इतिकृत्वा तेन वा आत्मार्थेन ज्ञानदर्शनचारित्रात्मकेनात्मानं 'समनुवासयेद्'भावयेद्रञ्जयेत्, आयतार्थ वा मोक्षाख्यं सम्यग्-अपुनरागमनेनान्विति-यथोक्तानुष्ठानासश्चादात्मना 'समनुवासयेद् अधिष्ठापयेद् । 'इतिः' परिसमाप्ता, अधीमीति सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनमिदमाह, यद्भगवता श्रीवर्द्धमानस्वामिनाऽर्थतोऽभ्यधायि तदेवाहं सूत्रात्मना वच्मीति । द्वितीयाध्ययनस्य प्रथम उद्देशकः समाप्तः॥
अनक्रम
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [७१], नियुक्ति: [१८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचा
राङ्गवृत्तिः (शी०)
॥१११॥
ཟླ པཎྞཾ ༔ ཀྵ བློ
उक्तः प्रथमोद्देशकः, साम्प्रतं द्वितीयस्य व्याख्या प्रतन्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इह विषयकषायमातापित्रादिलो- लोक.वि.२ कविजयेन मोक्षावाप्तिहेतुभूतं चारित्रं यथा सम्पूर्णभावमनुभवत्येवंरूपोऽध्ययनार्थाधिकारः प्राज्ञिरदेशि, तत्र माता-नाशकार |पित्रादिलोकविजयेन रोगजराधनभिभूतचेतसाऽऽत्मार्थः-संयमोऽनुष्ठेय इत्येतत्प्रथमोद्देशकेऽभिहितम् : इहापि तस्मि
नेव संयमे वर्तमानस्य कदाचिन्मोहनीयोदयादरतिः स्याद् , अज्ञानकर्मलोभोदयाद्वाऽध्यात्मदोषेण संयमे न दृढत्वं भवे|दित्यतोऽरत्यादिव्युदासेन यथा संयमे दृढत्वं भवति तथाऽनेन प्रतिपाद्यते, अथवा यथाऽष्टप्रकारं कापहीयते तथा अस्मिन्नध्ययने प्रतिपाद्यते इत्यध्ययनार्थाधिकारेऽभ्यधायि, तच्च कथं क्षीयत इत्याह
अरइं आउट्टे से मेहावी, खणंसि मुक्के (सू०७२) - अस्य चानन्तरसूत्रेण सम्बन्धो वाच्यः, स चायम्-'आयई समणुवासेन्जासि आत्मार्थ संयम सम्यक्तया कुर्यात्,12 तत्र कदाचिदरत्युभयो भवेत्तदर्थमाह-'अरई' इत्यादि, परम्परसूत्रसम्बन्धस्तु 'खणं जाणाहि पंडिए' क्षण-चारित्रा-| वसरमवाप्यारतिं न कुर्यादित्याह-'अरई' इत्यादि, आदिसूत्रसम्बन्धस्तु 'सु मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खाय' किं तच्छुतमित्याह-'अरई आउट्टे से मेहावी' रमणं रतिस्तदभावोऽरतिस्तां पञ्चविधाचारविषयां मोहोदयात् कषायाभिष्वङ्गजनितां मातापितकलत्राद्युत्थापितां 'स' इत्यरतिमान् 'मेधावी' विदितासारसंसारस्वभावः सन् आवर्तेत अपवतेत निवर्तयेदित्युक्तं भवति, संयमे चारतिर्न विषयाभिष्वङ्गरतिमृते कण्डरीकस्वेत्यत इदमुक्तं भवति-विषयाभिष्वङ्गे रति निवर्तेत, निवर्त्तनं चैवमुपजायते यदि दशविधचक्रवालसामाचारीविषया रतिरुत्पद्यते पौण्डरीकस्यैवेति, ततश्चेदमुक्तं
द्वितीय-अध्ययने द्वितीय-उद्देशक: 'अदृढता' आरब्धः,
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [७२], नियुक्ति : [१८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[७२]
दीप
६ भवति-संयमे रति कुब्बींत, तद्विहितरतस्तु न किश्चिद्वाधायै, नापीहापरसुखोत्तरबुद्धिरिति, आह च-"क्षितितलशयनं
वा प्रान्तभैक्षाशनं वा, सहजपरिभवो वा नीचदुर्भाषितं वा । महति फलविशेषे नित्यमभ्युचतानां, न मनसि न शरीरे| दुःखमुत्पादयन्ति ॥ १॥ तणसंथारनिसण्णोऽवि मुणिवरो भट्टरागमयमोहो । जं पावइ मुत्तिसुहं तं कत्तो चक्कवट्टीवि? ॥२॥” इत्यादि च । अत्र हि चारित्रमोहनीयक्षयोपशमादवाप्तचारित्रस्य पुनरपि तदुदयादवदिधाविषोरनेन सूत्रेणोपदेशो दीयते, तच्चावधावनं संयमात् यैहेतुभिर्भवति तान्नियुक्तिकारो गाथयाऽऽचष्टेबिइउद्देसे अढो उ संजमे कोइ हुज अरईए । अन्नाणकम्मलोभाइएहिं अज्झत्थदोसेहिं ।। १९७ ॥
इह हि प्रथमोद्देशके बढ्यो नियुक्तिगाथा आमंस्त्वियमेवैकेत्यतो मन्दबुद्धेः स्यादारेका यथा इयमपि तत्रत्यैवेत्यतो विनेयसुखप्रतिपत्त्यर्थ द्वितीयोदेशकग्रहणमिति, कश्चित्कण्डरीकदेशीयः 'संयमे सप्तदशभेदभिन्ने 'अदृढः' शिथिलो | मोहनीयोदयादरत्युद्भवाद्भवेत् , मोहनीयोदयोऽप्याध्यात्मिकैदोषैर्भवेत्, ते चाध्यात्मदोषा अज्ञानलोभादयः, आदि
शब्दादिच्छामदनकामानां परिग्रहो, मोहस्याज्ञानलोभकामाद्यात्मकत्वात्तेषां चाध्यात्मिकत्वादिति गाथार्थः॥ [द्वितीयाध्ययने द्वितीयोद्देशकनियुक्तिः] ॥ ननु चारतिमतो मेधाविनोऽनेन सूत्रेणोपदेशो दीयते यथा-संयमारतिमपवर्तेत, मेधावी
चात्र विदितसंसारस्वभावो विवक्षितो, यश्चैवभूतो नासावरतिमान् तद्वांश्चेन्न विदितवेद्य इत्यनयोः सहानवस्थानलक्षदाणेन विरोधेन विरोधाच्छायातपयोरिव नैकत्रावस्थानम् , उक्तं च-"तज्ज्ञानमेव न भवति यस्मिन्नुदिते विभाति रागगणः ।
१ तृणसंस्तारनियष्णोऽपि मुनिवरो भ्रष्टरागमदमोहः । यत्प्राप्नोति मुक्तिसुखं कुतखन चक्रवर्त्यपि ॥१॥
अनक्रम
करून
पुन: अत्र नियुक्ति क्रमे मुद्रण-दोष: (१८६ के बजाय सीधा १९७ क्रम दे दिया है, इसके पूर्व क्रम १६३ से १७१ दो बार दिये थे)
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [७२], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[७२]
दीप
श्रीआचा- तमसः कुतोऽस्ति शक्तिर्दिनकरकिरणाग्रतः स्थातुम् ॥१॥” इत्यादि, यो यज्ञानी मोहोपहतचेताः स विषयाभिष्वङ्गारसं- लोक.वि.२ राङ्गवृत्तिःशयमे सर्वद्वन्द्वप्रत्यनीके रत्यभावं विदध्यात्, आह च-अज्ञानान्धाश्चटुलवनितापाङ्गविक्षेपितास्ते, कामे सक्तिं दधति (शी०) विभवाभोगतुङ्गार्जने वा । विद्वचित्तं भवति हि महम्मोक्षमागकतानं, नाल्पस्कन्धे विटपिनि कपत्यंसभित्ति गजेन्द्रः
du१॥" नैतन्मृष्यामहे, यतो ह्यवाप्सचारित्रस्यायमुपदेशो दित्सितः, चारित्रावाप्तिश्च न ज्ञानमृते, तत्कार्यत्वाच्चारित्रस्य, ॥११२॥
न च ज्ञानारत्योर्विरोधः, अपि तु रत्यरत्योः, ततश्च संयमगता रतिरेवारत्या वाध्यते न ज्ञानम्, अतो शानिनोऽपि चारित्रमोहनीयोदयात्संयमे स्यादेवारतिः, यतो ज्ञानमप्यज्ञानस्यैव वाधक, न संयमारतेः, तथा चोक्तम्-ज्ञानं भूरि यथा-15 र्थवस्तुविषयं स्वस्य द्विषो बाधकं, रागारातिशमाय हेतुमपरं युङ्क्ते न कर्तृ स्वयम् । दीपो यत्तमसि व्यनक्ति किमु नो रूपं स एवेक्षता, सर्वः स्वं विषयं प्रसाधयति हि प्रासङ्गिकोऽन्यो विधिः ॥१॥" तथेदमपि भवतो न कर्णविवरमगा-3 द्यथा-'बलवानिन्द्रियग्रामः, पण्डितोऽप्यत्र मुह्यती'त्यतो यत्किञ्चिदेतत्, अथवा नारत्यापन एवैवमुच्यते, अपि त्वयमुपदेशो मेधावी संयमविषये मा विधादरतिमिति । संयमारतिनिवृत्तश्च सन् के गुणमवामोतीत्याह-खणंसि मुके'परम|निरुद्धः कालः क्षणः जरत्पदृशाटिकापाटनदृष्टान्तसमयप्रसाधितः तत्र मुक्तो विभक्तिपरिणामाद्वा क्षणेन-अष्टप्रकारेण 3 कर्मणा संसारबन्धनैर्वा विषयाभिष्वङ्गस्नेहादिभिर्मुक्तो भरतवदिति, ये पुनरनुपदेशवर्तिनः कण्डरीकाद्यास्ते चतुर्ग-1 तिकसंसारान्तर्वतिनो दुःखसागरमधिवसन्तीत्याह च
| ॥११ अणाणाय पुढावि एगे नियहति, मंदा मोहेण पाउडा, अपरिग्गहा भविस्सामो समु
अनक्रम
॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [७३], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[७३]
SAA%ESSADOROS
दीप
ट्राय लद्धे कामे अभिगाहइ, अणाणाए मुणिणो पडिलेहंति, इत्थ मोहे पुणो पुणो ।
सन्ना नो हव्वाए नो पाराए (सू०७३)... आज्ञाप्यत इत्याज्ञा-हिताहितप्राप्तिपरिहाररूपतया सर्वज्ञोपदेशस्तद्विपर्ययोऽनाज्ञा तया अनाज्ञया सत्या 'स्पृष्टाः परीषहोपसग्गैः, अपिशब्दः सम्भावनायां स च भिन्नक्रमो निवन्त इत्यस्मादनन्तरं द्रष्टव्यः, 'एके' मोहनीयोदयास्कण्डरीकादयो न सर्वे संयमात्समस्तद्वन्द्वोपशमरूपात् निवर्तन्ते अपीति, सम्भाव्यत एतन्मोहोदयस्येत्यपिशब्दार्थः, किंभूताः सन्तो निवर्तन्त इत्याह-'मन्दा' जडा अपगतकर्तव्याकर्तव्यविवेकाः, कुत एवंभूता!, यतो 'मोहेन प्रावृता' मोहः-अज्ञानं मिथ्यात्वमोहनीयं वा तेन प्रावृता-गुण्ठिताः, उक्तं च-"अज्ञानं खलु कष्टं क्रोधादिभ्योऽपि सर्वपापेभ्यः। अर्थ हितमहितं वा न वेत्ति येनावृतो लोकः॥१॥" इत्यादि, तदेवमवाप्तचारित्रोऽपि कर्मोदयात्परीषहोदयेऽङ्गीकृतलिङ्गः पश्चानावतामालम्बत इत्युक्तम् । अपरे तु स्वरुचिविरचितवृत्तयो नानाविधैरुपायैलोंकादर्थं जिघृक्षवः किल वयं |संसारोद्विमा मुमुक्षवस्तेषु तेषु आरम्भविषयाभिष्वङ्गेषु प्रवर्तत इति दर्शयति-'अपरिग्गहा' इत्यादि, परि:-समन्तात् मनो-1 |वाकायकर्मभिर्गृह्यत इति परिग्रहः स येषां नास्तीत्यपरिग्रहा एवंभूता वयं भविष्याम इति शाक्यादिमतानुसारिणः| |स्वयूथ्या वा 'समुत्थाय चीवरादिग्रहणं प्रतिपद्य, ततो लब्धान् कामान् 'अभिगाहन्ते' सेवन्ते, तिव्यत्ययेन चैकवचनमिति, अत्र चान्त्यव्रतोपादानात् शेषाण्यपि ग्राह्याणि, अहिंसका बयं भविष्याम एवममृषावादिन इत्याद्यप्यायोज्यम् । तदेवं शैलूषा इवान्यथावादिनोऽन्यथाकारिणः कामार्थमेव तांस्तान् प्रत्रज्याविशेषान्बिन्नति, उक्कं च-"खेच्छाविरचितशास्त्रैः
अनक्रम
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[७३]
दीप
अनुक्रम [७४]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [७३], निर्युक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित......आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
(शी०)
॥ ११३ ॥
श्री आचा- २ प्रव्रज्यावेषधारिभिः क्षुद्रेः । नानाविधैरुपायैरनाथवन्मुष्यते लोकः ॥ १ ॥" इत्यादि । तदेवं प्रवज्यावेषधारिणो लब्धाराङ्गवृत्तिः कामानवगाहन्ते तल्लाभार्थं च तदुपायेषु प्रवर्त्तन्ते इत्याह- 'अणाणाए' इत्यादि, 'अनाज्ञया' स्वैरिण्या बुद्ध्या 'मुनय' इति मुनिवेषविडम्बिनः कामोपायान् 'प्रत्युपेक्षन्ते' कामोपायारम्भेषु पौनःपुन्येन उगन्तीति, आह च- 'एत्थ' इत्यादि, 'अत्र' अस्मिन् विषयाभिष्वङ्गाज्ञानमये भावमोहे पौनःपुन्येन 'सन्नाः' विषण्णा निमग्नाः पङ्कायमा नागा इवात्मानमात्रष्टुं नालमिति, आह च- 'नो हब्वाए नो पाराए' यो हि मध्येमहानदीपूरं निमग्नो भवत्यसौ नारातीयतीराय नापि पारेमहा★ नदीपूरमिति, एवमत्रापि कुतश्चिन्निमितात्त्य त गृहगृहिणीपुत्र धनधान्यहिरण्यरलकुप्यदासीदासादिविभव आकिञ्चन्यं प्रतिज्ञायारातीय तीरदेश्यागृहवाससौख्यान्निर्गतः सन् नो हव्वापत्ति भवति, पुनरपि चान्तभोगाभिलाषितया यथोक्तसंयमाभावेन तत्क्रियाया विफलत्वात् नो पाराए त्ति भवति, उभयतो मुक्तबन्धना मुक्तोलीवोभयस्वष्टो न ग्रहस्थो नापि प्रत्रजित इत्युक्तं भवति, उक्तं च- "इन्द्रियाणि न गुप्तानि, लालितानि न चेच्छया । मानुष्यं दुर्लभं प्राप्य, न भुक्तं नापि शोषितम् ॥ १ ॥” इति । ये पुनरप्रशस्तरतिनिवृत्ताः प्रशस्तरतिमधिशयानास्ते किंभूता भवन्तीत्याह
विमुत्ता हु ते जणा जे जणा पारगामिणो, लोभमलोभेण दुर्गुछमाणे लद्धे कामे नाभिगाहइ ( सू० ७४ )
विविधम्- अनेकप्रकारं द्रव्यतो धनस्वजनानुषङ्गाद्भावतो विषयकपायादिभ्योऽनुसमयं मुच्यमाना एव भाविनि भूतवदुपचारान्मुक्ता विमुक्ताः ते जना ये जनाः सर्वस्वजनभूता निर्ममत्वाः पारगामिनो भवन्ति, पारो मोक्षः संसाराणंवतट
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लोक.वि. २ उद्देशकः २
॥ ११३ ॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [७४], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्र
प्रत
सूत्रांक
[७४]
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वृत्तित्वात्तत्कारणानि ज्ञानदर्शनचारित्राण्यपि पार इति, भवति हि तादात्ताच्छन्द्यं यथा तन्दुलान् वर्षति पर्जन्यः, अतस्तत्पारं-ज्ञानदर्शनचारित्राख्यं गन्तुं शीलं येषां ते पारगामिनः, ते मुक्ता भवन्तीति पूर्वेण सम्बन्धः । कथं पुनः
सम्पूर्णपारगामित्वं भवतीत्याह-'लोभं' इत्यादि, इह हि लोभः सर्वसङ्गानां दुस्त्यजो भवति, तथाहि-क्षपकश्रेण्यन्तर्गततस्यापगताशेषकषायस्यापि खण्डशः क्षिष्यमाणोऽप्यनुबध्यत इति, अतस्तै लोभ, तद्विपक्षेण अलोभेन 'जुगुप्समानो
निन्दम्परिहरन् किं करोतीत्याह-लद्धे' इत्यादि, 'लब्धान्' प्राप्तानिच्छामदनरूपान् कामान 'नाभिगाहते' न सेवते, यो हि शरीरादावपि निवृत्तलोभः स कामाभिव्यङ्गवान्न भवति, ब्रह्मदत्तामन्त्रितचित्रवदिति, प्रधानान्त्यलोभपरित्यागेन चोपसर्जनाधस्तनपरित्यागो द्रष्टव्यः, तद्यथा-क्रोधं शान्त्या जुगुप्समानो मान माईवेन मायामार्जवेनेत्याचप्यायोज्यं, लोभोपादानं तु सर्वकषायप्राधान्यख्यापनार्थमुपाददे, तथाहि-ततावृत्तः साध्यासाध्यविवेकविकलः कार्याकार्य-। विचाररहितः सन्नर्थकदत्तदृष्टिः पापोपादानमास्थाय सर्वाः क्रियाः अधितिष्ठतीति, तदुक्तम्-"धोवेइरोहणं तरह सायरं भमइ गिरिणिगुंजेसुं। मारेइ बंधवंपिहु पुरिसो जो होइ धणलुद्धो ॥१॥ अडइ बहुं वहइ भरं सहइ छुहं पावमायरइ धिहो । कुलसीलजाइपञ्चयधिई च लोभहुओ चयइ ॥२॥” इत्यादि, तदेवं कुतश्चिन्निमित्तात्सहापि लोभादिना निष्क्रम्य पुनर्लोभादिपरित्यागः कार्यः, अन्यस्तु लोभ विनापि प्रवज्यां प्रतिपद्यत इति दर्शयति
पावति रोहणं तरति सागर भ्राम्यति गिरिनिकुशेषु । मारयति वान्धवमपि पुरुषो यो भवधि धनलुब्धः ॥1॥ अति बहु बहति भार सहते सुधा पापमाचरति पृधः । कुलशीलजातिप्रायतीच लोभामिहतस्त्यजति ॥२॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [७५], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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[७५]
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श्रीआचा- विणावि लोभ निक्खम्म एस अकम्मे जाणइ पासइ, पडिलेहाए नावकखइ, एस लोक.वि.२ रावृत्तिः अणगारित्ति पवुच्चइ, अहो य राओ परितप्पमाणे कालाकालसमुट्ठाइ संजोगट्टी अट्टा(शी०)
उद्देशक लोभी आलंपे सहकारे विणिविटुचित्ते इत्थ सत्थे पुणो पुणो से आयबले से नाइबले ॥११४॥
से मित्तबले से पिच्चबले से देवबले से रायबले से चोरबले से अतिहिबले से किविणबले से समणबले, इच्चेपहिं विरूवरूवेहिं कजेहिं दंडसमायाणं संपेहाए भया
कजइ, पावमुक्खुत्ति मन्नमाणे, अदुवा आसंसाए (सू०७५)
कश्चिदरतादिनिःशेषतो लोभापगमाद्विनापि लोभ 'निष्क्रम्य' प्रव्रज्यां प्रतिपद्य, पाठान्तरं वा 'विणइत्तु लोभ' सञ्च-12 दालनसंज्ञकमपि लोभं 'विनीय'निर्मूलतोऽपनीय एष एवंभूतः सन् 'अकर्मा'अपगतघातिकर्मचतुष्टयाविभूतानावरण-18
ज्ञानो विशेषतो जानाति सामान्यतः पश्यति, एतदुक्तं भवति-एवंभूतो लोभो येन तत्क्षये मोहनीयक्षये चावश्यं घातिकर्मक्षयस्तस्मिंश्च निरावरणज्ञानसद्भावस्ततोऽपि भवोपग्राहिकर्मापगम इत्यतो लोभापगमे अकर्मेत्युक्तम् । यतश्चैव-15 म्भूतो लोभो दुरन्तस्तद्धानी चावश्यं कर्मक्षयस्ततः किं कर्त्तव्यमित्याह-'पडिलेहाए इत्यादि, प्रत्युपेक्षणया-गुणदोषपोलो-15 चनयोफ्पन्नः सन्नथवा लोभविपाकं प्रत्युपेक्ष्य-पर्यालोच्य तदभावे गुणं च लोभ 'नावकाङ्क्षति' नाभिलषतीति, यश्चाज्ञानो- ॥११४॥ पहतान्तःकरणोऽप्रशस्तमूलगुणस्थानवी विषयकषायाद्युपपन्नस्तस्य पूर्वोक्तं विपरीततया सर्व संतिष्ठते, तथाहि-अलोभं ।
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [७५], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७५]
दीप
लोभेन जुगुप्समानो लब्धान कामानवगाहते, लोभमनपनीय निष्क्रम्य पुनरपि लोभैकमनाः सका न जानाति नापि| पश्यति, अपश्यश्चाप्रत्युपेक्षणयाऽभिकाङ्गति । यच्च प्रथमोद्देशकेऽप्रशस्तमूलगुणस्थानमवाचितच वाच्यमिति, आह च-'अहो य राओ' इत्यादि, अहोरात्रं परितप्यमानः कालाकालसमुत्थायी संयोगार्थी अर्थालोभी आलुम्पः सहसाकारो विनिविएचित्तः अत्र-शस्खे पृथिवीकायायुपधातकारिणि पौनःपुन्येन वर्तते । किं च-'से आयबले' आत्मनो बलं-शक्त्युपचय आत्मबलं तन्मे भावीतिकृत्वा नानाविधैरुपायैरात्मपुष्टये तास्ताः क्रियाः ऐहिकामुभिकोपघातकारिणीविधत्ते, तथाहि'मांसेन पुष्यते मांसमितिकृत्वा पञ्चेन्द्रियघातादावपि प्रवर्तते, अपराश्च लुम्पनादिकाः सूत्रेणैवाभिहिताः, एवं च 'ज्ञातिवलं' स्वजनवलं मे भावीति, तथा तन्मित्रवलं मे भविष्यति येनाहमापदं सुखेनैव निस्तरिष्यामि, तत्मेत्यबलं भविप्यतीति बस्तादिकमुपहन्ति, तद्वा देवबलं भावीति पचनपाचनादिकाः क्रिया विधत्ते, राजबलं वा मे भविष्यतीति राजानमुपचरति, चौरमामे वा वसति चौरभार्ग वा प्राप्स्यामीति चौरानुपचरति, अतिथिवलं वा मे भविष्यतीत्यतिथीनुपचरति, अतिथिहि निःस्पृहोऽभिधीयते इति, उक्तं च-"तिथिपर्वोत्सवाः सर्वे, त्यक्ता येन महात्मना। अतिथि |तं विजानीयाच्छेषमभ्यागतं विदुः ॥ १ ॥" एतदुक्तं भवति-तलार्थमपि प्राणिषु दण्डो न निक्षेप्तव्यः इति, एवं कृपणश्रमणार्थमपि वाच्यमिति, एवं पूर्वोक्तः 'विरूपरूपैः'नानाप्रकारैः पिण्डदानादिभिः कार्यैः 'दण्डसमादान'मिति दण्ड्यन्ते-व्यापाद्यन्ते प्राणिनो येन स दण्डस्तस्य सम्यगादान-प्रहणं समादानं, तदात्मबलादिकं मम नाभविष्यत् । यद्यहमेतनाकरिष्यमित्येवं 'संप्रेक्षया' पर्यालोचनया एवं संप्रेक्ष्य वा भयात् क्रियते, एवं तावदिहभवमाश्रित्य दण्ड
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [७५], नियुक्ति : [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥११५॥
लोक.वि.२ उद्देशकः२
सूत्रांक
[७५]
समादानकारणमुपन्यस्तम् , आमुष्मिकार्थमपि परमार्थमजानानैर्दण्डसमादानं क्रियत इति दर्शयति-पावमोक्खो'त्ति इत्यादि, पातयति पासयतीति वा पापं तस्मान्मोक्षः पापमोक्षः, 'इति' हेतौ, यस्मात्स मम भवीष्यतीति मन्यमानः दण्डसमादानाय प्रवर्तत इति, तथाहि-हुतभुजि पडूजीवोपधातकारिणि शस्त्रे नानाविधोपायप्राण्युपघातात्तपापविर्वसनाय पिप्पलशमीसमित्तिलाज्यादिकं शठव्युद्राहितमतयो जुह्वति, तथा पितृपिण्डदानादी बस्तादिमांसोपस्कृतभोजनादिकं द्विजातिभ्य उपकल्पयन्ति तद्भुक्तशेषानुज्ञातं स्वतोऽपि भुञ्जते, तदेवं नानाविधैरुपायैरज्ञानोपहतबुद्धयः पापमोक्षार्थ दण्डोपादानेन तास्ताः क्रियाः पाण्युपघातकारिणीः समारभमाणाः अनेकभवशतकोटीदुर्मोचमघमेवोपाददत इति । किश्च'अदुवा' इत्यादि, पापमोक्ष इति मन्यमानो दण्डमादत्त इत्युक्तम् , अथवा आशंसनम् आशंसा-अप्राप्तप्रापणाभिलाषस्तदर्थं दण्डसमादानमादत्ते, तथाहि-ममैतत् परुपरारि वा प्रेत्य वोपस्थास्यते इत्याशंसया क्रियासु प्रवर्तते, राजानं वाऽर्थाशाविमोहितमना अवलगति, उक्तं च-"आराध्य भूपतिमवाप्य ततो धनानि, |भोक्ष्यामहे किल वयं सततं सुखानि । इत्याशया धनविमोहितमानसाना, कालः प्रयाति मरणावधिरेव पुंसाम् ॥१॥ एहि गच्छ पतोत्तिष्ठ, बद मौनं समाचर । इत्याद्याशाग्रहनस्तैः, क्रीडन्ति घनिनोऽथिभिः ॥२॥" इत्यादि ॥ तदेवं ज्ञात्वा किं कर्त्तव्यमित्याह
दीप
अनक्रम
॥११५॥
. तं परिपणाय मेहावी नेव सयं एएहिं कजेहिं दंडं समारंभिजा नेव अन्नं एएहिं
For P
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [७६], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [७६]]
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कजेहिं दंडं समारंभाविजा एएहिं कजेहिं दंडं समारंभंतंपि अन्नं न समणुजाणिज्जा, एस मग्गे आरिएहिं पवेइए, जहेत्थ कुसले नोवलिंपिज्जासि तिबेमि (सू०७६)
लोगविजयस्स बितिओ उद्देसो ॥२॥ 'तदिति सर्वनाम प्रक्रान्तपरामर्शि, 'तत् शत्रपरिज्ञोक्तं स्वकायपरकायादिभेदभिन्न शत्रम्, इह वा यदुक्कम् अप्रशस्तगुणमूलस्थानं-विषयकषायमातापित्रादिकं, तथा कालाकालसमुत्थानक्षणपरिज्ञानश्रोत्रादिविज्ञानप्रहाणादिकं तथाऽऽत्मवलाधानाद्यर्थं च दण्डसमादानं ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेत् 'मेधावी' मर्यादावर्ती, ज्ञातहेयोपादेयः सन् किं कुर्यादित्याह-'नेव सयं' इत्यादि, नैव 'स्वयम्' आत्मना एतैः-आत्मबलाधानादिका 'कार्यैः कर्त्तव्यैः समुपस्थितैः सद्भिः 'दण्ड' सत्त्वोपघातं समारभेत्, नाप्यन्यमपरमेभिः काहिंसानृतादिक दण्ड
समारम्भयेत् , तथा समारभमाणमप्यपरं योगत्रिकेण न समनुज्ञापयेत् । एष चोपदेशस्तीर्घकृद्भिरभिहित इत्येतत् सुधकर्मस्वामी जम्बूस्वामिनमाहेति दर्शयति-'एस' इत्यादि, 'एप' इति ज्ञानादियुक्तो भावमार्गो योगत्रिककरणत्रिकेण|
दण्डसमादानपरिहारलक्षणो वा 'आय' आराद्याताः सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्याः-संसारार्णवतटवर्तिनः क्षीणधातिक-13 Cौशाः संसारोदरविवरवर्तिभावविदः तीर्थकृतस्तैः 'प्रकर्षण' सदेवमनुजायां पर्षदि सर्वस्वभाषानुगामिन्या वाचा
योगपद्याशेषसंशीतिच्छेच्या प्रकर्षण वेदित:-कधितः प्रतिपादित इतियावत्, एवम्भूतं च मार्ग ज्ञात्वा किं कर्तव्य
अनक्रम
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [७६], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
लोक.वि.२ उद्देशका
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श्रीआचा-8 मित्याह-'जहेत्थ' इत्यादि, तेषु तेष्वात्मबलोपधानादिकेषु कार्येषु समुपस्थितेषु सत्सु दण्डसमुपादानादिकं परिहरन रावृत्तिःकुशलों निपुणः अवगततत्त्वो यथैतस्मिन् दण्डसमुपादाने स्वमात्मानं 'नोपलिम्पयेः' न तत्र संश्लेषं कुर्या इति, (सी) विभक्तिपरिणामाद्वा एतेन दण्डसमुपादानजनितकर्मणा यथा नोपलिप्यसे तथा सर्वैः प्रकारैः कुर्यास्त्वम् । इति
शब्दः परिसमाप्ती, ब्रवीमीति पूर्ववत् । लोकविजये द्वितीय उद्देशकः समाप्तः॥ ॥११६॥
उक्तो द्वितीयोदेशकः, साम्प्रतं तृतीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके संयमे दृढत्वं कार्य-| मसंयमे चादृढत्वमुक्तं, तच्चोभयमपि कषायव्युदासेन सम्पद्यते, तत्रापि मान उसत्तेरारभ्य उचैर्गोत्रोत्थापितः स्यात् | । अतस्तद्वयुदासार्थमिदमभिधीयते । अस्य चानन्तरसूत्रेण सम्बन्धः-'जहेत्थ कुसले नोवलिंपेज्जासि' कुशलो निपुणः सन्नस्मिनुर्गोत्राभिमाने यथाऽऽत्मानं नोपलिम्पयेस्तथा विदध्यास्त्वं, किं मत्वा ?, इत्यतस्तदभिधीयते
से असई उच्चागोए असई नीआगोए, नो हीणे नो अइरित्ते, नोऽपीहए, इय संखाय को गोयावाई को माणावाई?, कंसि वा एगे गिज्झा, तम्हा नो हरिसे नो कुप्पे,
भूएहिं जाण पडिलेह सायं (सू०७७) 'से असई उच्चागोए असई नीआगोएत्ति' 'स' इति संसार्यसुमान् 'असकृद्' अनेकशः उच्चगोत्रे मानसत्काराहे,
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॥११६॥
द्वितीय-अध्ययने तृतीय-उद्देशक: 'मदनिषेध' आरब्धः,
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [७७], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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उसन्न इति शेषः, तथा असकृनीचैर्गोत्रे सर्वलोकावगीते, पौनापुन्येनोपन्न इति, तथाहि-नीचैर्गोत्रोदवादनम्तमपि कालं तिर्यवास्ते, तव च पर्यटन द्विनवतिनामोत्तरप्रकृतिसत्कर्मा संस्तथाविधाध्यवसायोपपन्नः आहारकशरीरतत्सछातबन्धनाङ्गोपाङ्गदेवगत्यानुपूर्वीद्वयनरकगत्यानुपूर्वीद्वयवैक्रियचतुष्टयरूपा एता द्वादशकर्मप्रकृतीनिर्लेप्याशीतिसका तेजोवायुपूत्पन्नः सन् मनुजगत्यानुपूर्वीद्वयमपि निर्लेप्य तत उच्चैर्गोत्रमुद्धलयति पल्योपमासंख्येयभागेन, अतस्लेजोवायुष्वाद्य एव भजका, तद्यथा-नीचैर्गोत्रस्य बन्ध उदयोऽपि तस्यैव सत्कर्मताऽपीति, ततोऽप्युद्वत्तस्यापरैकेन्द्रियगतस्थायमेव भङ्गा, बसेष्वप्यपर्याप्तकावस्थायामयमेव, अनिलेपिते तूच्चैगोत्रे द्वितीयचतुर्थों भङ्गी, तयथा-नीचैर्गोत्रस्य। बन्ध उदयोऽपि तस्यैव सत्कर्मता तूभयरूपस्यैवेति द्वितीयः, तथा उच्चैर्गोत्रस्य बन्धो नीचस्योदयः सत्कर्माता तुभयरू-4 पस्येति चतुर्थः, शेषास्तु चत्वारो न सम्त्येव, तिर्यशूच्चैर्गोत्रस्योदयाभावादिति भावः तदेवमुच्चर्गोत्रोद्वलनेन कलंकली-II भावमापन्नोऽनन्त कालमेकेन्द्रियेष्वास्ते, अनुदलिते वा तिर्यश्वास्तेऽनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिणीः, आवलिकाकालासरूये
स्यान्यत्रापि आदाबय प्र. २ अनिलंपिते तूबौने द्वितीयो भङ्गकः, कस्यचित् प्रथमसमय एवापरल्यान्तमुहूतांदोमुवे[त्रसम्बन्धसद्भावे चतुर्वभाका, सधया-नीचैर्योत्रस्य बन्ध उदयोऽपि तस्यैव सत्कर्मता नूभयरूपस्य वेति द्वितीयः, तथोचैर्गोत्रस्य बन्धो नीचस्योदयः सतर्मता तूभयरूपस्येति चतुः, शेषास्तु चत्वारो न सन्त्येव, तिर्यक्षुबैर्गोत्रस्योदयाभावादिति भावः । तदेवमुञ्चैर्गोत्रोदलनेन कलंकलीभावसापनोऽसंख्येयमपि कालं सूक्ष्मत्रसेप्यास्ते, ततोऽप्युदत्त उगोत्रोदयाभाये सति द्वितीयचतुर्षभनकस्थोऽनन्तमपि काले तिर्यवास्ते इति, सच अनन्ता उत्सपिण्यवसर्पिणीः, आपलिकाकालासंख्येयभागसमयसंख्यान् पुद्गलपरावानिति प्र. ३ नीचैर्गोत्रस्य बन्ध उच्चैर्गोत्रस्योदयः उच्चनीच! सती ३ उचै गोत्रस्य बन्ध उगोत्रस्योदय उमनीचे गोत्रे सती ५ उच्चगाँत्रस्योदय [उचनीचेगोने सती ६ उगोत्रस्योदय उगोत्रं सत् ७ इत्येवंरूपाः शेषास्तृतीयपत्रमषष्ठसप्तमभनरूपाचत्वारः, प्र.
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [७७], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
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॥११७॥
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यभागसमयसंख्यान पुद्गलपरावर्तीनिति, कीदृशः पुनः पुद्गलपरावर्त इति ? उच्यते, यदौदारिकवैक्रियतैजसभाषानापा- लोक.वि.२ |नमनःकर्मसप्तकेन संसारोदरविवरवर्तिनः पुद्गलाः आत्मसात्परिणामिता भवन्ति तदा पुगलपरावर्त इत्येके, अन्ये तु।
उद्देशका३ द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदाच्चतुर्दा वर्णयन्ति, प्रत्येकमसावपि बादरसूक्ष्मभेदात् दैविध्यमनुभवति, तत्र द्रव्यतो बादरो यदौदारिकवैक्रियतैजसकार्मणचतुष्टयेन सर्वपुद्गला गृहीत्वोज्झितास्तदा भवति, सूक्ष्मः पुनर्यदैकशरीरेण सर्वपुद्गलाः पर्शिता भवन्ति तदा द्रष्टव्यः १, क्षेत्रतो बादरो यदा क्रमोत्कमाभ्यां म्रियमाणेन सर्वे लोकाकाशप्रदेशाः स्पृष्टा भवन्ति तदा | विज्ञेयः, सूक्ष्मस्तु तदा विज्ञेयो यदैकस्मिन् विवक्षिताकाशखण्डके मृतः पुनर्यदा तस्यानन्तरप्रदेशवृक्ष्या सर्व लोकाकाशं || व्याप्नोति तदा ग्राह्यः २, कालतो बादरो यदोत्सर्पिण्यवसर्पिणीसमयाः क्रमोत्क्रमाभ्यां श्रियमाणेनालिङ्गिता भवन्ति || तदा विज्ञेयः, सूक्ष्मस्तूत्सर्पिणीप्रथमसमयादारभ्य क्रमेण सर्वसमया बियमाणेन यदा छुप्ता भवन्ति तदाऽवगन्तव्यो ३, |भावतो बादरो यदाऽनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानि क्रमोत्क्रमाभ्यां नियमाणेन व्याप्तानि भवन्ति तदाऽभिधीयते, | अनुभागबन्धाध्यवसायप्रमाणं तु संयमस्थानावसरे प्रागेवाभ्यधायीति, सूक्ष्मस्तु जघन्यानुभागवन्धाध्यवसायस्थानादारभ्य यदा सर्वेष्वपि क्रमेण मृतो भवति तदाऽवसेय इति । तदेवं कलंकलीभावमापन्नोऽन्यो वा नीचैर्गोत्रोदयादनन्तमपि कालं तिर्यक्ष्वास्ते, मनुष्येष्वपि तदुदयादेव चावगीतेषु स्थानेषूत्पद्यते, तथा कलंकलीसत्त्वोऽपि द्वीन्द्रियादिषूत्पन्नः सन् प्रथमसमये एव पर्याप्त्युत्तरकालं वोच्चैर्गोत्रं बवा मनुष्येष्वसकृदुच्चैर्गोत्रमास्कन्दति, तर कदाचितृतीयभङ्गकस्थः ॥११७॥ पञ्चमभङ्गोपपन्नो वा भवति, ताविमौ-नीचेर्गोत्रं बनात्युच्चैर्गोत्रस्योदयः सत्कर्मता तूभयस्य तृतीयः, पञ्चमस्तूच्चैर्गोत्रं
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[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
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श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [७७], निर्युक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ... आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
विभाति तस्यैवोदयः सत्कर्म्मता तूभयस्य षष्ठसप्तमभङ्गौ तूपरतबन्धस्य भवतः, अविषयत्वान्न ताभ्यामिहाधिकारः, तौ चेमौबन्धोपरमे उच्चैर्गोत्रोदयः सत्कर्म्मता तूभयस्येति षष्ठः, सप्तमस्तु शैलेश्यवस्थायां द्विचरमसमये नीचैर्गोत्रे क्षपिते उच्चगोत्रोदयस्तस्यैव सत्कर्म्मतेति, तदेवमुच्चावचेषु गोत्रेषु असकृदुत्पद्यमानेनासुमता पञ्चभङ्गकान्तर्वर्त्तिना न मानो विधेयो नापि दीनतेति । तयोश्चोच्चावचयोः गोत्रयोर्बन्धाध्यवसायस्थानकण्डकानि तुल्यानीत्याह- 'णो हीणे णो अइरिते' यावन्त्युच्चैर्गोत्रे ऽनुभावबन्धाध्यवसाय स्थानकण्डकानि नीचैर्गोत्रेऽपि तावन्त्येव, तानि च सर्वाण्यप्यसुमताऽनादिसंसारे भूयो भूयः स्पर्शितानि तत उच्चैर्गोत्रकण्डकार्थतयाऽसुभृन्न होनो नाप्यतिरिक्तः, एवं नीचैर्गोत्र कण्डकार्थतयाऽपीति । नागार्जुनीयास्तु पठन्ति - "एगमेगे खलु जीवे अईअद्धाए असई उच्चागोए असई नीआगोए, कंडगट्टयाए नो हीणे नो अइरित्ते" एकैको जीवः खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे अतीते कालेऽसकृदुच्चावचेषु गोत्रे प्रसन्नः, स चोच्चावचानुभागकण्डकापेक्षया न हीनो नाप्यतिरिक्त इति, तथाहि उच्चैर्गोत्रकण्डकेभ्य एकभविकेभ्योऽनेकभविकेभ्यो वा नीचैर्गोत्रकण्डकानि न हीनानि नाप्यतिरिक्तानीत्यतोऽवगम्योत्कर्षापकर्षो न विधेयो, अस्य चोपलक्षणार्थत्वात् सर्वेष्वपि मदस्थानेष्वेतदायोज्यं । यतञ्चोच्चावचेषु स्थानेषु कर्म्मवशादुद्यन्ते, चलरूपलाभादिमदस्थानानां चासमञ्जसतामवगम्य किं कर्त्तव्यमित्याह - 'नोऽपीहए' अपिः सम्भावने स च भिन्नक्रमो जात्यादीनां मदस्थानानामन्यतमदपि नो 'ईहेतापि' नाभिलषेदपि अथवा नो स्पृहयेत्-नावकाङ्क्षदिति । तत्र यद्युच्चावचेषु स्थानेष्वसकृदुत्पन्नोऽसुमांस्ततः किमित्याह - 'इय संखाय' इत्यादि, इतिरुपप्रदर्शने 'इति' एतत्पूर्वोक्तनीत्योच्चावच स्थानोत्पादादिकं 'परिसंख्याय' ज्ञात्वा 'को गोत्रवादी
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [७७], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचारावृत्तिः (शी०)
सूत्रांक
[७७]]
॥११८॥
दीप
भवेद् ? यथा ममोचैर्गोत्रं सर्वलोकमाननीयं नापरस्थेत्येवंवादी को बुद्धिमान् भवेत् ?, तथाहि-मयाऽन्यैश्च जन्तुभिः लोक.वि.२ सर्वाण्यपि स्थानान्यनेकशः प्राप्तपूर्वाणीति, तथोच्चैर्गोत्रनिमित्तमानवादी वा को भवेत् !, न कश्चित्संसारस्वरूपपरिच्छेदी-| त्यर्थः, किंच-'कंसि वा एगे गिज्झे अनेकशोऽनेकस्मिन् स्थानेऽनुभूते सति तन्मध्ये कस्मिन्बा एकस्मिनुच्चैर्गोत्रादिकेड-18
उद्देशका नवस्थितस्थानके रागादिविरहादेकः कथं गृध्येत् ?, तापर्यम्-आसेवां विदितकर्मपरिणामो विदध्यात्, युज्येत गाी यदि तत्स्थान प्राप्तपूर्व नाभविष्यत् , तच्चानेकशः प्राप्तपूर्वम्, अतस्तल्लाभालाभयोः नोत्कर्षापकों विधेयाविति, आह च'तम्हा' इत्यादि, यतोऽनादौ संसारे पर्यटताऽमुमताऽदृष्टायत्तान्यसकृदुच्चावचानि स्थानान्यनुभूतानि तस्मात्कथशिवुचावचादिकं मदस्थानमवाप्य 'पण्डितो' हेयोपादेयतत्त्वज्ञो 'न हृष्येत्' न हर्ष विदध्याद्, उक्तं च-"सर्वसुखान्यपि बहुशः प्राप्तान्यटता मयाऽत्र संसारे । उच्चैःस्थानानि तथा तेन न मे विस्मयस्तेषु ॥१॥ जइ सोऽवि णिज्जरमओ पडिसिद्धो अहमाणमहणेहिं । अवसेस मयहाणा परिहरिअव्वा पयत्तेणं ॥२॥" नाप्यवगीतस्थानावाप्ती वैमनस्यं विदध्याद्, आह च-नो कुष्पे' अदृष्टवशात्तथाभूतलोकासम्मतं जातिकुलरूपबललाभादिकमधममवाप्य 'न कुप्येत्' न क्रोध कुर्यात, कतरनीचस्थानं शब्दादिक वा दुःखं मया नानुभूतमित्येवमवगम्य नोद्वेगवशगेन भाव्यम्, उक्तं च-"अवमानापरिवंशाधवन्धधनक्षयात् । प्राप्ता रोगाश्च शोकाश्च, जात्यन्तरशतेष्वपि ॥ १॥ संते ये अविम्हइ असोइड पंडिएण
यदि सोऽपि निबरामदः प्रतिषिद्धोऽष्टमानमयनैः । भवशेषाणि मदस्थानानि परिहर्त्तव्यानि प्रयत्नेन ॥ १॥ २ सत्सु च बिस्मेनुमशोचितु पण्डितेन चासत्सु । शक्यं हि मोपमितहृदयेन हितं धरता ॥१॥ भूत्वा चक्रवर्ती पृथ्वीपतिमिलपाण्डुरच्चनः । स एव नाम भूयोऽनावशालाल्यो भवति ॥ १ ॥
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आगम
(०१)
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[1969]
दीप
अनुक्रम [ ७८ ]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [७७], निर्युक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित......आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
य असंते । सक्का हु दुमोवमिअहिअएण हिअं घरंतेण ॥ २ ॥ होऊण चकवट्टी पुहइबई विमलपंडरच्छतो । सो चेव नाम भुजो अणाहसालालओ होइ ॥ ३ ॥” एकस्मिन् वा जन्मनि नानाभूतावस्था उच्चावचाः कर्म्मवशतोऽनुभवि तदेवमुञ्चनीचगोत्रनिर्विकल्पमनाः अन्यदपि अविकल्पेन किं कुर्यादित्याह - 'भूएहिं' इत्यादि, भवन्ति भविष्यन्त्यभूवन्निति च भूतानि - असुभृतस्तेषु 'प्रत्युपेक्ष्य' पर्यालोच्य विचार्य कुशाग्रीयया शेमुष्या जानीहि अवगच्छ, किं जानीहि ?'सातं सुखं तद्विपरीतमसातमपि जानीहि किं च कारणं सातासातयोः ? एतज्जानीहि किं चाभिलषन्त्यविगानेन प्राणिन 6 इति, अत्र जीवजन्तुप्राण्यादिशब्दानुपयोगलक्षणद्रव्यस्य मुख्यान् वाचकान्विहाय सत्तावाचिनो भूतशब्दस्योपादानेनेदमाविर्भावयति यथाऽयमुपयोगलक्षण पदार्थोऽवश्यं सत्तां विभर्त्ति साताभिलाप्यसातं च जुगुप्सते, साताभिलाषश्च शुभप्रकृतित्वाद् अतोऽपरासामपि शुभप्रकृतीनामुपलक्षणमेतदवसेयम्, अतः शुभनामगोत्रायुराद्याः कर्म्मप्रकृतीरनुधावत्यशुभाश्च जुगुप्सते सर्वोऽपि प्राणी । एवं च व्यवस्थिते सति किं विधेयमित्याह-
समिए एयाणुपस्सी, तंजहा-अन्धत्तं बहिरत्तं मूयत्तं काणतं कुंटतं खुज्जत्तं वडभत्तं सामत्तं सबलत्तं सह पमाएणं अणेगरूवाओ जोणीओ संधायइ विरूवरूवे फासे परिसंवेयइ (सू०७८)
१ कर्मदशगो प्र. २ बुध्वस.
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [७८], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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सूत्रांक
[७८]
॥११॥
दीप
श्रीआचा-या अथषा भूतेषु शुभाशुभरूपं कर्म प्रत्युपेक्ष्य यत्तेषामप्रियं तन्न विदध्यात् इत्ययमुपदेशो, नागार्जुनीयास्तु पठन्ति-1 लोक.वि.२ राङ्गवृत्तिः "पुरिसेणं खलु दुक्खुव्वेअसुहेसए" 'पुरुषों' जीवः णमिति वाक्यालङ्कारे 'खलुः' अवधारणे दुःखात् उद्वेगो यस्य | (शी०) 18स दुःखोद्धेगा, सुखस्यैषकः मुखेपका, याजकादित्वात्समासश्छाम्दसत्वाद्वा, दुःखोद्वेगश्वासी सुखैषकच दुःखोद्वेगसुख
उद्देशकः३ पकः, सर्वोऽपि प्राणी दुःखोद्वेगसुखैषक एव भवत्यतो जीवनरूपणं कार्य, तच्चावनिवनपचनानलवनस्पतिसूक्ष्मबादर|विकलपञ्चेन्द्रियसंज्ञीतरपर्याप्तकापर्याप्तकरूपं शस्त्रपरिज्ञायामकार्येव, तेषां च दुःखपरिजिहीर्पणां सुखलिप्सूनामात्मौपम्यमाचरता तदुपमर्दकानि हिंसादिस्थानानि परिहरताऽऽत्मा पञ्चमहाव्रतेष्वास्थेयः, तत्परिपालनार्थं चोत्तरगुणा अप्यनुशीलनीयाः, तदर्थमुपदिश्यते-'समिए एयाणुपस्सी' पञ्चभिः समितिभिः समितः सन् एतत्-शुभाशुभं कर्म वक्ष्यमाणं चान्धत्वादिकं द्रष्टुं शीलं यस्येत्येतदनुदशी भूतेषु सातं जानीहीति सण्टङ्कः, तत्र 'समिति'रिति 'इण गता' वित्यस्मात्सम्पूर्वात् क्तिन्नन्ताद्भवति, सा च पश्चधा, तद्यथा-इर्याभाषैषणाऽऽदाननिक्षेपोत्सर्गरूपाः, तत्रैर्यासमितिः प्राणव्यपरोपणनतपरिपालनाय, भाषासमितिरसदभिधाननियमसंसिद्धये, एषणासमितिरस्तेयत्रतपरिपालनाय, शेषद्वयं तु समस्तवतप्रकृष्टस्याहिंसावतस्य संसिद्धये व्याप्रियते इति तदेवं पञ्चमहाव्रतोपपेतस्तद्वत्तिकल्पसमितिभिः समितः सन् भावत एतद्भूतसा-IN तादिकमनुपश्यति, अथवा यदनुदय॑सी भवति तद्यधेत्यादिना सूत्रेणैव दर्शयति 'अन्धत्वमित्यादिना यावत् विरूपरूपे ।
ID११९॥ फासे परिसंवेपइ' संसारोदरे पर्यटन् प्राणी अन्धत्वादिका अवस्था बहुशः परिसंवेदयते, स चान्धो द्रव्यतोभावतच, तत्रैकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रिया द्रव्यभावान्धाः, चतुरिन्द्रियादयस्तु मिथ्यादृष्टयो भावान्धाः, उक्तं च-"एकं हि चक्षुरमलं सहजो
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [७८], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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[७८]
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विवेकस्तद्वद्भिरेव सह संवसतिद्धितीयम् । एतयं भुवि न यस्य स तत्त्वतोऽन्धस्तस्यापमार्गचलने खलु कोऽपराधः॥१॥" सम्यग्दृष्टयस्तूपहतनयना द्रव्यान्धाः, त एवानन्धा न द्रव्यतो न च भावतः, तदेवमन्धरवं द्रव्यभावभिन्नमेकान्तेन दुःखजननमवाप्नोतीति, उक्तं च-"जीवन्नेव मृतोऽन्धो यस्मात्सर्वक्रियासु परतन्त्रः । नित्यास्तमितदिवाकरस्तमोऽन्धकारार्णवनिमग्नः॥१॥ लोकदयव्यसनवह्रिविदीपिताङ्गमन्धं समीक्ष्य कृपणं परयष्टिनेयम् । को नोद्विजेत भयकृजनना-3 दिवोग्रात्कृष्णाहिनैकनिचितादिव चान्धगर्तात्? ॥२॥" एवं बधिरत्वमयदृष्टवशादनेकशः परिसंवेदयते, तदावृतश्च सदसद्विवेकविकलत्वादैहिकामुष्मिकेष्टफल क्रियानुष्ठानशून्यतां विभर्ति इति, उक्तं च-"धर्मश्रुतिश्रवणमङ्गलवर्जितो| | हि, लोकश्रुतिश्रवणसंव्यवहारबाह्यः । किं जीवतीह बधिरो भुवि यस्य शब्दाः, स्वमोपलब्धधननिष्फलतां प्रयान्ति ? है॥१॥ स्वकलत्रबालपुत्रकमधुरवचःश्रवणबाह्यकरणस्य । बधिरस्य जीवितं किं जीवन्मृतकाकृतिधरस्य ॥२॥" एवं
मूकत्वमप्येकान्तेन दुःखावह परिसंवेदयते, उक्तं च-"दुःखकरमकीर्तिकरं मूकत्वं सर्वलोकपरिभूतम् । प्रत्यादेश मूढाः कर्मकृतं किं न पश्यन्ति ? ॥१॥” तथा काणत्वमप्येवंरूपमिति, आह च-"काणो निमग्नविषमोन्नतदृष्टिरेकः, शक्को विरागजनने जननातुराणाम् । यो नैव कस्यचिदुपैति मनःप्रियत्वमालेख्यकर्मलिखितोऽपि किमु स्वरूपः ||१| एवं 'कुण्टत्वं' पाणिवक्रत्वादिकं 'कुब्जत्व' वामनलक्षणं 'वडभत्व' विनिर्गतपृष्ठीवडभलक्षणं 'श्यामवं' कृष्णलक्षणं 'शबलत्वं' श्वित्रलक्षणं सहज पश्चादावि वा कर्मवशगो भूरिशो दुःखराशिदेशीय परिसंवेदयते । किं च-सह 'प्रमादेन' विषयक्रीडाभिष्वङ्गरूपेण श्रेयस्यनुद्यमात्मकेन 'अनेकरूपाः' सङ्कटविकटशीतोष्णादिभेदभिक्षा योनीः 'संदधाति'संधत्ते
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [७८], नियुक्ति : [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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श्रीआचा- चतुरशीतियोनिलक्षसम्बन्धाविच्छेदं विदधातीति भावः, सम्यग् घावतीति वा, तासु तास्वायुष्कबन्धोत्तरकालं गच्छ- लोक.वि.२ राङ्गवृत्तिःतीत्यर्थः, तासु च नानाप्रकारासु योनिषु 'विरूपरूपान्नानाप्रकारान् 'स्पर्शान' दुःखानुभवान् परिसंवेदयते, अनुभवती-|| त्यर्थः ॥ तदेवमुच्चैर्गोत्रोत्थापितमानोपहतचेता नीचैर्गोत्रविहितदीनभावो वाऽन्धवधिरभूयं वा गतः सन्नावबुध्यते कर्चव्यं
उद्देशकः३ न जानाति कर्मविपाकं नावगच्छति संसारापसदतां नावधारयति हिताहिते न गणयति औचित्यमित्यनवगततत्त्वो ॥ १२०॥
मूढस्तत्रैवोच्चैर्गोत्रादिके विपर्यासमुपैति, आह च
से अबुज्झमाणे हओबहए जाईमरणं अणुपरियहमाणे, जीवियं पुढो पियं इहमेगेसिं माणवाणं खित्तवत्थुममायमाणाणं, आरत्तं विरत्तं मणिकुंडलं सह हिरणेण इत्थियाओ परिगिज्झति तत्थेव रत्ता, न इत्थ तवो वा दमो वा नियमो वा दिस्सइ,
संपुषणं बाले जीविउकामे लालप्पमाणे मूढे विपरियासमुवेइ (सू०७९) _ 'से' इत्युच्चैर्गोत्राभिमानी अन्धबधिरादिभावसंवेदको वा कर्मविपाकमनवबुध्यमानो हतोपहतो भवति, नानाच्याधिसभद्रावक्षतशरीरत्वाद्धतः समस्तलोकपरिभूतत्वादुपहता, अधवोचैर्गोत्रगर्षाध्मातत्यक्कोचितविधेयविद्वज्जनवदनसमुद्भूतश
ब्दायशःपटहहतत्वाद्धतः अभिमानोत्पादितानेकभवकोटिनीचेगोत्रोदयादुपहता, भूढो विपर्यासमुपैतीत्युत्तरेण सम्बन्धः, IA॥१२०॥ तथा जातिश्च मरणं च समाहारद्वन्द्वस्तद् 'अनुपरिवर्त्तमान' पुनर्जन्म पुनर्मरणमित्येवमरहट्टघटीयन्त्रन्यायेन संसारोदरे
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [७९], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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[७९]
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विवर्तमाना, आवीचीमरणाद्वा प्रतिक्षणं जन्मविनाशावनुभवन् दुःखसागरावगाढो विशरारुण्यपि नित्यताकृतमतिः हितेऽप्यहिताध्यवसायो विपर्यासमुपैति, आह च-'जीवितम् आयुष्कानुपरमलक्षणमसंयमजीवितं वा 'पृथग्' इति प्रत्येक प्रतिप्राणि 'प्रिय' दयितं वल्लभम् इहेति अस्मिन् संसारे 'एकेषाम् अविद्योपहतचेतसां मानवानामिति, उपल-|| क्षणार्थत्वात् प्राणिनां, तथाहि-दीर्घजीवनाथ तास्ता रसायनादिकाः क्रियाः सत्वोपपातकारिणीः कुर्वते, तथा क्षेत्र शालिक्षेत्रादि 'वास्तु' धवलगृहादि मम इदमित्येवमाचरतां सतां तत्क्षेत्रादिक प्रेयो भवति, किं च-'आरक्तम्' ईषद्रकं वस्त्रादि 'विरक्त' विगतराग विविधराग वा 'मणिः' इति रत्नवैडूर्येन्द्रनीलादि 'कुण्डलं' कणोंभरणं हिरण्येन सह खीः परिगृह्य 'तत्रैव क्षेत्रवास्त्वारक्तविरक्तवस्त्रमणिकुण्डलख्यादौ 'रका' गृद्धा अध्युपपन्ना मूढा विपर्यासमुपयान्ति, वदन्ति चनात्र 'तपो वा' अनशनादिलक्षणं 'दमो वा' इन्द्रियनोइन्द्रियोपशमलक्षणो 'नियमो वा' अहिंसावतलक्षणः फलवान् दृश्यते, | तथाहि-तपोनियमोपपेतस्यापि कायक्लेशभोगादिवञ्चनां विहाय नान्यत्फलमुपलभ्यते, जन्मान्तरे भविष्यतीति 'चेन्खुद्रासाहितस्योल्लापः, किं च-दृष्टहानिरदृष्टकल्पना च पापीयसीति, तदेवं साम्प्रतेक्षी भोगसङ्गविहितैकपुरुषार्थबुद्धिः सम्पूर्ण | यथावसरसम्पादितविषयोपभोग 'बालः' अज्ञः 'जीवितुकामः' आयुष्कानुभवनमभिलषन् 'लालप्यमानः' भोगार्धमत्यर्थ
लपन् वाग्दण्डं करोति, तद्यथा-अत्र तपो दमो नियमो वा फल वान्न दृश्यत इत्येवमर्थ ब्रुवन् मूढः अबुध्यमानो Bाहतोपहतो जातिमरणमनुपरिवर्त्तमानो जीवितक्षेत्रख्यादिलोभपरिमोहितमनाः 'विपर्यासमुपैति' तत्त्वेऽतत्त्वाभिनिवेशम्
अतत्त्वे च तत्त्वाभिनिवेशं हितेऽहितबुद्धिमित्येवं सर्वत्र विपर्ययं विदधाति, उक्तं च-"दाराः परिभवकारा बन्धुजनो
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [७९], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
लोक.वि.२ उद्देशकः३
པཎྞཾ ༔ ༔ ཀྵ ཟླ
श्रीआचा- बन्धनं विष विषयाः। कोऽयं जनस्य मोहो?, ये रिपवस्तेषु सुहृदाशा ॥ १॥” इत्यादि ॥ ये पुनरुन्मजत्शुभकर्मापादि- राङ्गवृत्तिःताध्यवसायपुरस्कृतमोक्षास्ते किंभूता भवन्तीत्याह(शी०)
इणमेव नावखंति, जे जणाधुवचारिणो ।जाईमरणं परिन्नाय, चरे संकमणे दढे (१) ॥१२१॥
नत्थि कालस्स णागमो, सव्वे पाणा पियाउया, सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियवहा पियजीविणो जीविउकामा, सव्वेसिं जीवियं पियं, तं परिगिज्झ दुपयं चउप्पयं अभिजुजिया णं संसिंचिया णं तिविहेण जाऽवि से तत्थ मत्ता भवइ अप्पा वा बहुया वा, से तत्थ गतिए चिट्ठइ, भोअणाए, तओ से एगया विविहं परिसिटुं संभूयं महोवगरणं भवइ, तंपि से एगया दायाया वा विभयन्ति, अदत्तहारो वा से अवहरति, रायाणो वा से विलुपंति, नस्सइ वा से विणस्सइ वा से, अगारदाहेण वा से डज्झइ इय, से परस्सऽट्टाए कूराई कम्माई बाले पकुब्वमाणे तेण दुक्खेण संमूढे विपरियासमुवेइ, मुणिणा हु एवं पवेइयं, अणोहंतरा एए नो य ओहं तरित्तए, अतीरंगमा
||१२१॥
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[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
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श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [८०], निर्युक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित......आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
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एए नो य तीरं गमित्तए, अपारंगमा एए नो य पारं गमित्तए, आयाणिज्जं च आयाय
मिठाणे न चिट्ठ, विहं पप्पखेयने तंमि ठाणंमि चिट्ठा ( सू० ८० )
'इणमेव' इत्यादि, इदमेव पूर्वोक्तं सम्पूर्णजीवितं क्षेत्राङ्गनापरिभोगादिकं वा 'नावकाङ्क्षति' नाभिलषन्ति, ये जना 'ध्रुवचारिणो' ध्रुवो-मोक्षस्तत्कारणं च ज्ञानादि ध्रुवं तदाचरितुं शीलं येषां ते तथा, धूतचारिणो वा धुनातीति धूतंचारित्रं तच्चारिण इति । किं च- 'जाई' इत्यादि, जातिश्च मरणं च समाहारद्वन्द्वः तत् 'परिज्ञाय' परिच्छिद्य ज्ञात्वा 'चरेत्' उद्युक्तो भवेत्, क्व ? – 'सङ्क्रमणे' सङ्क्रम्यतेऽनेनेति सङ्क्रमणं चारित्रं तत्र 'दृढो' विश्रोतसिकारहितः परीषहोपसः निष्प्रकम्पो वा यदि वा अशङ्कमनाः सन् संयमं चर, न विद्यते शङ्का यस्य मनसस्तदशङ्कम् अशङ्कं मनो यस्यासावशङ्कमनाः - तपोदमनियम निष्फलत्वाशङ्कारहित आस्तिक्यमत्युपपेतस्तपोदमादौ प्रवर्त्तेत यतस्तद्वान् राजराजादीनां पूजाप्रशंसा भवति, (न चौपशमिक सुखावासफलस्य तपस्विनः समस्तद्वन्द्वदवीयसोऽसत्यपि परलोके किञ्चित् क्षयते, उक्तं च- “ संदिग्धेऽपि परे लोके, त्याज्यमेवाशुभं बुधैः । यदि नास्ति ततः किं स्यादस्ति चेन्नास्तिको हतः ॥ १ ॥ " इत्यादि । तस्मात् स्वायत्ते संयमसुखे दृढेन भाव्यं न चैतद्भावनीयं यथा- परुत्परारि वृद्धावस्थायां वा धम्मै करिष्यामीति, यतः - 'नत्थि' इत्यादि, 'नास्ति' न विद्यते 'कालस्य' मृत्योरनागमः - अनागमनमनवसर इतियावत्, तथाहि सोपक्रमायुषोऽसुमतो न काचित्साऽवस्था यस्यां कर्म्मपावकान्तर्वर्त्ती जन्तुर्जतुगोलक इव न विलीयेत इति उक्तं च--"शिशुम
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [८०], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
C
लोक.वि.२
प्रत सूत्रांक [८०]
उद्देशकः३
दीप
श्रीआचा- शिशु कठोरमकठोरमपण्डितमपि च पण्डितं, धीरमधीरं मानिनममानिनमपगुणमपि च बहुगुणम् । यतिमयति प्रका- राजवृत्तिःशमवलीनमचेतनमथ सचेतनं, निशि दिवसेऽपि सान्ध्यसमयेऽपि विनश्यति कोऽपि कथमपि ॥१॥" तदेव सर्वंकषत्वं (शी०) मृत्योरवधार्याहिंसादिषु दत्तावधानेन भाव्यं, किमिति !, यतः-सव्वे पाणा पियाउया प्राणशब्देनात्राभेदोपचारात्
तद्वन्त एव गृह्यन्ते, सर्वे प्राणिनो-जन्तवः 'प्रियायुषः' प्रियमायुर्वेषां ते तथा, ननु च सिद्धय॑भिचारो, न हि ते ॥१२२॥
|प्रियायुषस्तदभावात् , नैष दोषो, यतो मुख्यजीवादिशब्दव्युदासेन प्राणशब्दस्योपचरितस्य ग्रहण संसारप्राण्युपलक्षणार्थमिति यत्किञ्चिदेतत् , पाठान्तरं वा 'सब्बे पाणा पियायया' आयता-आत्माऽनाद्यनन्तत्वात् स प्रियो येषां ते तथा, सर्वेऽपि प्राणिनः प्रियात्मानः । प्रियात्मता च सुखदुःखप्राप्तिपरिहारतया भवतीति आह च-'सुहसाया दुक्खपडिकूला' सुखम्-आनन्दरूपमास्वादयन्तीति सुखास्वादा:-सुखभोगिनः सुखैषिण इत्युक्तं भवति, दुःखम्-असातं तत्प्रतिकूलयन्तीति दुःखप्रतिकूलाः-दुःखद्वेषिण इत्युक्तं भवति, तथा 'अप्रियवधा' अप्रियं-दुःखकारणं तत् प्रन्त्यप्रियवधाः, तथापि 'पियजीविणो' प्रियं-दयितं जीवितम्-आयुष्कमसंयमजीवितं येषां ते तथा, 'जीविउकामा' यत एव प्रियजीविनोऽत एव दीर्घकालं जीवितुकामाः-दीर्घकालमायुष्काभिलाषिणो दुःखाभिभूता अध्यन्त्यां दशामापन्ना जीवितुमेवाभिलपन्ति, उक्तं च "रेमइ विहवी विसेसे ठितिमित्तं थेववित्थरो महई। मग्गइ सरीरमहणो रोगी जीए चिय कयत्थो ॥१॥ तदेवं सर्वोऽपि प्राणी सुखजीविताभिलाषी, तच्च नारम्भमृते, असावपि प्राण्युपघातकारी, प्राणिनां च जीवितमत्यर्थं दयि
१ रमते विभगवान् विशेषे स्थितिमात्र स्तोकविस्तारोऽभिलषति । मार्गयति शरीरमधनो रोगी जीवित एव कृतार्थः ॥ १॥
CXCCC
अनुक्रम [८१+
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सा॥१२२॥
SARERatininemarana
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [८०], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८०
दीप
तमित्यतो भूयो भूयस्तदेवोपदिश्यत इत्याह-सवेसिं' इत्यादि, सर्वेषामविगानेन 'जीवितम्' असंयमजीवितं 'प्रियं' दयितं, यद्येवं ततः किमित्यत आह-तं परिगिज्झ तद्-असंयमजीवितं 'परिगृह्य' आश्रित्य, किं कुर्वन्तीत्याह। 'दुपय' इत्यादि, 'द्विपद' दासीकर्मकरादि 'चतुष्पदं' गवाश्वादि 'अभियुज्य' योजयित्वा अभियोगं ग्राहयित्वा व्यापाहारयित्वेत्युक्तं भवति, ततः किमित्यत आह-'संसिंचिया गं' इत्यादि, प्रियजीवितार्थमर्थाभिवृद्धये द्विपदचतुष्पदादि-1
व्यापारेण 'संसिच्य' अर्थनिचर्य संवर्य 'त्रिविधेन' योगत्रिककरणत्रिकेण यापि काचिदल्पा परमार्थचिन्तायां वयपि फल्गुदेश्या 'से' तस्यार्थारम्भिणः सा चार्थमात्रा 'तत्र' इति द्विपदाद्यारम्भे 'मात्रा' इति सोपस्कारत्वात्सूत्राणां अर्थमात्रा-अल्पता भवति' सत्तां बिभर्ति, किंभूता?, सा सूत्रेणैव कथयति-अल्पा वा बह्वी वा, अल्पबहुत्वं चापेक्षिकमतः सर्वाऽप्यल्या सर्वाऽपि वही 'स' इत्यर्थवान् 'तत्र' तस्मिन्नर्थे 'गृद्धः' अध्युपपन्नस्तिष्ठति, नालोचयत्यर्थस्योपार्जनक्लेशं न गणयति रक्षणपरिश्रमं न विवेचयति तरलतां नावधारयति फल्गुताम्, उक्तं च-कृमिकुलचितं लालाक्लिन्नं विगन्धि जुगुप्सितं, निरुपमरसप्रीत्या खादन्नरास्थि निरामिपम् । सुरपतिमपि श्या पार्श्वस्थं सशङ्कितमीक्षते, न हि गणयति क्षुद्रो लोकः परिग्रहफल्गुताम् ॥१॥” इत्यादि, सच किमर्थमर्थमर्थयत इत्यत आह-भोयणाए' भोजनम्-उपभोगस्तस्मै अर्थमर्थयते, तदर्थी च क्रियासु प्रवर्तते, क्रियावतश्च किं भवतीत्याह-'तओ से' इत्यादि, ततः 'से' तस्यावलगनादिकाः क्रियाः कुर्वतः 'एकदा' लाभान्तरायकम्र्मक्षयोपशमे 'विविध नानाप्रकारं 'परिशिष्टं' प्रभूतत्वाअक्तोद्धरितं | 'सम्भूतं' सम्यक्परिपालनाय भूत-संवृत्तं, किं तत्?, महच्च तत्परिभोगाङ्गत्वादुपकरणं च महोपकरणं-द्रव्यनिचय
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[८०]
दीप
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[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [८०], निर्युक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित......आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
।। १२३ ।।
इत्यर्थः, स कदाचिल्लाभोदये भवति, असावप्यन्तरायोदयान्न तस्योपभोगायेत्याह - 'तंपि से' इत्यादि, तदपि समुद्रोतरणरोहणखननविलप्रवेशर सेन्द्रमर्दन राजा व लगन कृषीवलादिकाभिः क्रियाभिः स्वपरोपतापकारिणीभिः स्वोपभो|गायोपार्जितं सत् 'से' तस्यार्थोपार्जनोपायक्लेशकारिणः 'एकदा 'भाग्यक्षये 'दायादाः' पितृपिण्डोदकदानयोग्याः 'विभजन्ते' ॐ विलुम्पन्ति, 'अदत्तहारो वा दस्युर्वा अपहरति राजानो वा 'विलुम्पन्ति' अवच्छिन्दन्ति 'नश्यति वा' स्वत एवाटवीतः 'से' तस्य 'विनश्यति वा' जीर्णभावापत्तेः 'अगारदाहेन वा' गृहदाहेन वा दह्यते, कियन्ति वा कारणान्यर्धनाशे वक्ष्यन्ते इत्युपसंहरति — 'इति' एवं बहुभिः प्रकारैरुपार्जितोऽप्यर्थो नाशमुपैति नैवोपार्जयितुरुपतिष्ठत इत्युपदिश्यते, सः अर्थस्योत्पादयिता परस्मै अन्यस्मै अर्थाय प्रयोजनाय अन्यप्रयोजनकृते 'क्रूराणि' गलकर्त्तनादीनि कर्माणि' अनुष्ठानानि 'बालः' अज्ञः 'प्रकुर्वाणः' विदधानः 'तेन' कर्म्मविपाकापादितेन 'दुःखेन' असातोदयेन ' (सं) मूढः' अपगतविवेकः 'विपर्यासमुपैति' अपगत सदसद्विवेकत्वात्कार्यमकार्य मन्यते व्यत्ययं चेति, उक्तं च- 'रागद्वेषाभिभूतत्वात्कार्याकार्यपराङ्मुखः । एष मूढ इति ज्ञेयो, विपरीतविधायकः ॥ १ ॥” तदेवं मोठ्यान्धतमसाच्छादितालोकपथाः सुखार्थिनो दुःखमृच्छन्ति जन्तव इति ज्ञात्वा सर्वज्ञवचनप्रदीपमशेषपदार्थ स्वरूपाविर्भाव कमाललम्बिरे मुनयः, अदश्व मया न स्वमनीषिकयोच्यते सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनमाह, यदि स्वमनीषिकया नोच्यते कौतस्त्यं तदमित्यत आह'मुणिणा' इत्यादि, मनुते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनि:- तीर्थकृत्तेन 'एतद्' असकृदुच्चैर्गोत्रभवनादिकं प्रकर्षेणादी वा सर्वस्वभाषानुगामिन्या वाचा वेदितं कथितं वक्ष्यमाणं च प्रवेदितं, किं तदित्याह -- 'अणोहं' इत्यादि, ओपो द्विधा
श्रीआचा राङ्गवृत्तिः
(शी०)
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लोक. पि. २
उद्देशकः ३
॥ १२३ ॥
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[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [८१], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
व्यभावभेदात् , द्रव्योघो नदीपूरादिको भावीघोऽष्टप्रकार कम्मै संसारो वा, तेन हि प्राण्यनन्तमपि कालमुह्यते, तम्ओघ ज्ञानदर्शनचारित्रबोहित्थस्था तरन्तीत्योधन्तरा न ओघन्तरा अनोघन्तराः, तरतेश्छान्दसत्वात् खा, खित्वान्मुमा-1 |गमः, एते कुतीथिकाः पार्श्वस्थादयो वा ज्ञानादियानविकलाः यद्यपि तेऽप्योघतरणायोद्यतास्तथापि सम्यगुपायाभा-18 वात् न ओघतरणसमर्था भवन्तीति, आह च-'नो य ओहं तरित्तए' 'न च' नैवोघं-भावौघं तरितुं समर्थाः, संसारीपतरणप्रत्यला न भवन्तीत्यर्थः, तथा 'अतीरंगमा' इत्यादि, तीरं गच्छन्तीति तीरङ्गमाः पूर्ववत् खशपत्ययादिक, न तीरङ्गमा अतीरङ्गमाः एत इति प्रत्यक्षभावमापनान् कुतीर्थिकादीन् दर्शयति, न च ते तीरगमनायोद्यता अपि तीरं8 |गन्तुमलं सर्वज्ञोपदिष्टसम्मागांभावादिति भावः, तथा 'अपारंगमा' इत्यादि, पारः-तटः परकूल तगच्छन्तीति पारङ्गमा न पारङ्गमा अपारङ्गमाः 'एत' इति पूर्वोक्ताः, पारंगतोपदेशाभावादपारङ्गता इति भावनीयं, न च ते पारगतोपदेशमृते पारगमनायोद्यता अपि पारं गन्तुमलम्, अथवा गमनं गमः पारस्य पारे वा गमः पारगमः, सूत्रे त्वनुस्वारोऽलाक्षणिको, न पारगमोऽपारगमस्तस्मा अपारगमाय, असमर्थसमासोऽयं, तेनायमर्थः-पारगमनाय ते न भवन्तीत्युक्तं भवति । ततश्चानन्तमपि कालं संसारान्तर्वर्त्तिन एवासते, यद्यपि पारगमनायोद्यमयन्ति तथापि ते सर्वज्ञोपदेशविकलाः स्वरुचिविरचितशाखप्रवृत्तयो नैव संसारपारं गन्तुमलम् , अथ तीरपारयोः को विशेष इति, उच्यते, तीरं मोहनीयक्षयः पारं शेषघातिक्षयः, अथवा तीरं घातिचतुष्टयापगमः पारं भवोपग्राह्यभाव इत्यर्थः, स्यात्-कथमोघतारी कुतीर्थादिको न भवति तीरपारगामी चेत्याह-'आयाणिज्ज' इत्यादि, आदीत्यन्ते-गृह्यन्ते सर्वभावा अनेनेत्यादानीयं-श्रुतं तदादाय
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[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [८१], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचा- तदुत्ते तस्मिन् संयमस्थाने न तिष्ठति, यदि बा-आदानीयम्-आदातव्यं भोगाङ्गं द्विपदचतुष्पदधनधान्यहिरण्यादि || लोक.वि.२ रावृत्तिःतदादाय-गृहीत्वा, अथवा-मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगैरादानीर्य-कादाय, किंभूतो भवतीत्याह-'तस्मिन् ज्ञा-| (शी०)
नादिमये मोक्षमार्गे सम्यगुपदेशे वा प्रशस्तगुणस्थाने न तिष्ठति-नात्मानं विधत्ते, न केवलं सर्वज्ञोपदेशस्थाने न तिष्ठति उद्देशका
|विपर्ययानुष्ठायी च भवतीति दर्शयति-'वितह' इत्यादि, वितथम्-असद्भूतं दुर्गतिहेतुं तत्तथाभूतमुपदेशं प्राप्याखेदज्ञः॥१२४॥ अकुशलः खेदज्ञो वाऽसंयमस्थाने तस्मिंश्च साम्प्रतेक्ष्याचरित उपदिष्टे वा तिष्ठति, तत्रैवासंयमस्थानेऽध्युपपन्नो भवतीति-|
यावत् , अथवा वितथमिति आदानीयभोगाङ्गव्यतिरिक्तं संयमस्थानं तत्प्राप्य खेदज्ञो-निपुणस्तस्मिन् स्थाने आदानीयस्य । हन्तृणि तिष्ठति, सर्वज्ञाज्ञायामात्मानं व्यवस्थापयन्तीत्यर्थः । अयं चोपदेशोऽनवगततत्त्वस्य विनेयस्य यथोपदेशं प्रवर्त्त|मानस्य दीयते, यस्त्ववगतहेयोपादेयविशेषः स यथावसरं यथाविधेयं स्वत एव विधत्त इत्याह च
उद्देसो पासगस्स नस्थि, बाले पुण निहे कामसमणुन्ने असमियदुक्खे दुक्खी दुक्खा
णमेव आवढं अणुपरियट्टइ (सू०८१) तिबेमि ॥ लोकविजये तृतीयोद्देशकः ॥ उद्दिश्यते इत्युद्देशः-उपदेशः सदसत्कर्त्तव्यादेशः स पश्यतीति पश्यः स एव पश्यकस्तस्य न विद्यते, स्वत एव विदितवेद्यत्वात्तस्य, अथवा पश्यतीति पश्यकः-सर्वज्ञस्तदुपदेशवतीं वा तस्य उद्दिश्यत इत्युद्देशो-नारकादिव्यपदेशः ॥ १२४॥ Bउच्चावचगोत्रादिव्यपदेशो वा स तस्य न विद्यते, तस्य द्रागेव मोक्षगमनादिति भावः, कः पुनर्यथोपदेशकारी न भव
JIREaurathun intmataima
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[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [८१], निर्युक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित......आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
तीत्याह - 'बाले' इत्यादि, बालो नाम रागादिमोहितः स पुनः कषायैः कर्मभिः परीषहोपसर्गैर्वा निहन्यत इति निहः, निपूर्वाद्धन्तेः कर्म्मणि डः, अथवा स्त्रिद्यत इति स्त्रिहः-स्नेहवान् रागीत्यर्थः, अत एवाह - 'कामसमणुन्ने' कामाःइच्छामदनरूपाः सम्यग् मनोज्ञा यस्य स तथा, अथवा सह मनोज्ञैर्वर्त्तत इति समनोज्ञो, गमकत्वात्सापेक्षस्यापि समासः, कामैः सह मनोज्ञः कामसमनोज्ञो, यदिवा कामान् सम्यगनु-पश्चात् स्नेहानुबन्धाज्जानाति सेवत इति कामसमनुज्ञः, एवंभूतश्च किंभूतो भवतीत्याह-'असमियदुक्खे' अशमितम् अनुपशमितं विषयाभिष्वङ्गकपायोत्थं दुःखं येन स तथा, यत एवाशमितदुःखोऽत एव दुःखी शारीरमानसाभ्यां दुःखाभ्यां तत्र शारीरं कण्टकशस्त्रगण्डलूतादिसमुत्थं मानसं प्रियविप्रयोगाप्रिय संप्रयोगेप्सितालाभदारिद्र्य दौर्भाग्यदौर्मनस्यकृतं तद्विरूपमपि दुःखं विद्यते यस्यासौ दुःखी, एवंभूतश्च सन् किमवाप्नोतीत्याह- 'दुक्खाणं' इत्यादि, दुःखानां शारीरमानसानामावर्त्त - पौनःपुन्यभवनमनुपरिवर्त्तते, दुःखावर्त्तावमनो वंभ्रम्यत इत्यर्थः । इतिः परिसमाप्तौ ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ लोकविजयस्य तृतीयोदेशकटीका समाप्ता ॥ ३ ॥
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आगम
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[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [४], मूलं [८२], निर्युक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित......आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः
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॥ १२५ ॥
तओ से एगया रोगसमुप्पाया समुप्पज्जंति, जेहिं वा सद्धिं संवसह ते व णं एगया नियया पुव्वि परिवयंति, सो वा ते नियगे पच्छा परिवइज्जा, नालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमपि तेसिं नालं ताणाए वा सरणाए वा, जाणिन्तु दुक्खं पत्तेयं सायं भोगा मे व अणुसोयन्ति इहमेगेसिं माणवाणं ( सू० ८२ )
उक्तस्तृतीयोदेशकः, साम्प्रतं चतुर्थस्य व्याख्या प्रस्तूयते भोगेष्वनभिषक्तेन भाव्यं यतो भोगिनामपाया दर्श्यन्ते (इति) प्रागुक्तं, ते चामी -'तओ से एगया' इत्यादि, अनन्तरसूत्रसम्बन्धः 'दुक्खी दुक्खाणमेव आवहं अणुपरियड' त्ति, तानि चामूनि दुःखानि 'तओ से' इत्यादि, परम्परसूत्रसम्बन्धस्तु 'वाले पुण निहे कामसमणुपणे, ते च कामा दुःखात्मका एव, तत्र चासक्तस्य धातुक्षयभगन्दरादयो रोगाः समुत्पद्यन्ते इत्यतोऽपदिश्यते—'तत' इति कामानुषङ्गात् कम्मोंपचयस्ततोऽपि पञ्चत्वं तस्मादपि नरकभवो नरकान्निषेककललार्बुदपशीव्यूहगर्भप्रसवादिर्जातस्य च रोगाः प्रादुःध्यन्ति, 'से' तस्य कामानुषक्तमनसः 'एकदे'त्यसातावेदनीयविपाकोदये 'रोगसमुखादा' इति रोगाणां-शिरोऽर्त्तिशूलादीनां समुत्यादाः प्रादुर्भावाः 'समुत्पद्यन्ते' प्रादुर्भवन्ति, तस्यां च रोगावस्थायां किंभूतो भवत्यसावित्यत आह- 'जेहिं' इत्यादि, यैर्वा 'सार्द्धमसौ संवसति त एकैकदा निजाः पूर्वं परिवदन्ति, स वा तान्निजान् पश्चात्परिवदेत्, नालं 'ते' तव त्राणाय वा शरणाय वा त्वमपि तेषां नाउं त्राणाय वा शरणाय वा इति ज्ञात्वा दुःखं प्रत्येकं सातं व स्वकृत
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द्वितीय-अध्ययने चतुर्थ उद्देशक: 'भोगासक्ति' आरब्धः,
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लोक.वि. २
उद्देशकः ४
।। १२५ ।।
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अनुक्रम [८४]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [४], मूलं [८२], निर्युक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित......आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
कर्मफलभुजः सर्वेऽपि प्राणिन इति मत्वा रोगोत्पत्तौ न दौर्मनस्यं भावनीयं, न भोगाः शोचनीया इति, आह च'भोगा मे' इत्यादि, भोगाः - शब्दरूपरसगन्धस्पर्शविषयाभिलाषास्तानेवानुशोचयन्ति - कथमस्यामप्यवस्थायां वयं भोगान् भुङ्क्ष्महे ?, एवंभूता वाऽस्माकं दशाऽभूद्येन मनोज्ञा अपि विषया उपनता नोपभोगायेति । ईदृक्षश्चाध्यवसायः केषाञ्चिदेव भवतीत्याह--' इहमेगेसिं' इत्यादि, 'इह' संसारे एकेषामनवमतविषयविपाकानां ब्रह्मदत्तादीनां मानवानामेवंभूतोऽध्यविसायो भवति, न सर्वेषां सनत्कुमारादिना व्यभिचारात्, तथाहि ब्रह्मदत्तो मारणान्तिकरोगवेदनाभिभूतः सन्तापातिशयात् स्पृशन्तीं प्रणयिनीभिव विश्वासभूमी मूर्च्छा बहुमन्यमानः तथा हस्तीकृतो विहस्ततया विषयीकृतो वैषम्येण गोचरीकृतो ग्वान्या दृष्टो दुःखासिकया क्रोडीकृतो कालेन पीडितः पीडाभिर्निरूपितो नियत्या आदित्सितो दैवेन अन्तिकेऽन्त्योच्छ्वासस्य मुखे महाप्रवासस्य द्वारि दीर्घनिद्राया जिह्वामे जीवितेशस्य वर्त्तमानो बिरलो वाचि विहलो वपुषि प्रचुरः प्रलापे जितो जृम्भिकाभिरित्येवंभूतामवस्थामनुभवन्नपि महामोहोदयात् भोगांश्चिकाङ्क्षिणुः पार्श्वोपविष्टां | भार्यामनवरत वेदनावेश विगलदश्रुरक्तनयनां कुरुमति ! कुरुमतीत्येवं तां व्याहरन्नधः सप्तमीं नरकपृथ्वीमगात्, तत्रापि तीव्रतरवेदनाभिभूतोप्यऽवगणय्य वेदनां तामेव कुरुमतीं व्याहरतीत्येवंभूतो भोगाभिष्वङ्गो दुस्त्यजो भवति केषाञ्चित्, न पुनरन्येषां महापुरुषाणामुदारसत्त्वानाम् आत्मनोऽन्यच्छरीरमित्येवमव गततत्त्वानां सनत्कुमारादीनामिव यथोक्तरोगवेदनासद्भावे सत्यपि मयैवैतत्कृतं सोढव्यमपि मयैवेत्येवं जातनिश्चयानां कर्मक्षपणोद्यतानां न मनसः पीडोत्पद्यते इति, उक्तं च-" उप्तो यः स्वत एव मोहसलिलो जन्मालवालोऽशुभो, रागद्वेष कषायसन्ततिमहानिर्विघ्नवी जस्त्वया
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [४], मूलं [८२], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
ཎྞཾ ༔ ཟླཀྵ ཟླ
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श्रीआचा- रोगैरङ्कुरितो विपत्कुसुमितः कर्मद्रुमः साम्प्रतं, सोढा नो यदि सम्यगेष फलितो दुःखैरघोगामिभिः ॥१॥ लोक.वि.२ राङ्गवृत्तिः पुनरपि सहनीयो दुःखपाकस्त्वयाऽयं, न खलु भवति नाशः कर्मणा संचितानाम् । इति सह गणयित्वा यद्यदायाति (शी०) सम्यग् , सदसदिति विवेकोऽन्यत्र भूयः कुतस्त्यः ॥ २ ॥" अपि च-भोगानां प्रधानं कारणमर्थोऽतस्तत्स्वरूपमेव |
उद्देशकः ४ निर्दिदिक्षुराह॥१२६॥
तिविहेण जाऽवि से तत्थ मत्ता भवइ अप्पा वा बहुगा वा, से तत्थ गढिए चिट्टइ, , भोयणाए, तओ से एगया विपरिसिटुं संभूयं महोवगरणं भवइ, तंपि से एगया दायाया विभयंति, अदत्तहारो वा से हरति, रायाणो वा से विलुपंति, नस्सइ वा से विणस्सइ वा से, अगारडाहेण वा से डज्झइ इय, से परस्स अट्टाए कूराणि
कम्माणि वाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेण मूढे विप्परियासमुवेइ (सू०८३) त्रिविधेन याऽपि तस्य तत्रार्थमात्रा भवति अल्या वा बही वा, स तस्यामर्थमात्रायां गृद्धस्तिष्ठति, सा च भोज18||नाय किल भविष्यति, ततस्तस्यैकदा विपरिशिष्टं सम्भूतं महोपकरणं भवति, तदपि 'से' तस्यैकदा दायादा विभजन्ते, IA||अदत्तहारो वा तस्य हरति, राजानो वा विलुम्पन्ति, नश्यति वा विनश्यति वा, अगारदाहेन था दह्यते इति, स||
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [४], मूलं [८३], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
R5R-
सूत्रांक
[८३]
दीप
परस्मै अर्थाय क्रूराणि कर्माणि बालः प्रकुर्वाणस्तेन दुःखेन मूढो विपर्यासमुपैति, एतच्च प्रागेव व्याख्यातमिति नेह |प्रतायते ॥ तदेवं दुःखविपाकान् भोगान् प्रतिपाद्य यत् कर्त्तव्यं तदुपदिशतीत्याह
आसं च छन्दं च विगिंच धीरे!, तुम चेव तं सल्लमाहए, जेण सिया तेण नो सिया, इणमेव नावबुझंति जे जणा मोहपाउडा, थीभि लोए पव्वहिए, ते भो! वयंति एयाई आययणाई, से दुक्खाए मोहाए माराए नरगाए नरगतिरिक्खाए, सययं मूढे धम्मं नाभिजाणइ, उआहु वीरे, अप्पमाओ महामोहे, अलं कुसलस्स
पमाएणं, संतिमरणं संपेहाए भेउरधम्म संपेहाए, नालंपास अलं ते एएहिं (सू०८४) 'आशा' भोगाकासा, चः समुच्चये, छन्दनं छन्दः-परानुवृत्त्या भोगाभिप्रायस्त च, चशब्दः पूर्वापेक्षया समुञ्चयार्थः, तावाशाछन्दौ 'वेविश्व' पृथकुरु त्यज 'धीर। धीः चुद्धिस्तया राजत इति, भोगाशाछन्दापरित्यागे च दुःखमेव केवलं न तमाप्तिरिति, आह च-तुर्म चेव' इत्यादि, विनेय उपदेशगोचरापन्न आत्मा वा उपदिश्यते त्वमेव तदोगाशा|दिकं शल्यमाहत्य-स्वीकृत्य परमशुभमादत्से, न तु पुनरुपभोग, यतो भोगोपभोगो यैरेवार्थाद्युपायैर्भवति तैरेव न भवतीत्याह-'जेण सिआ तेण नो सिया' येनैवार्थोपार्जनादिना भोगोपभोगः स्यात् तेनैव विचित्रत्वात् कर्मपरि
अनक्रम
CCIENCESK
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [४], मूलं [८४], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
॥१२७॥
श्रीआचा- यतेन स्याद् , अथवा येन केनचिद्धेतुना कर्मबन्धः स्यात्तन्न कुर्यात् , तत्र न वत्तेतेत्यर्थः, यदिवा येनैव राज्योपभोगा- लोक.वि.२ राङ्गवृत्तिः |दिना कर्मबन्धो येन वा निर्घन्धत्वादिना मोक्षः 'स्थाद्' भवेत्तेनैव तथाभूतपरिणामवशान स्यादिति । एतच्चानुभवा
TIPउद्देशकः४ (शी०) वधारितमपि मोहाभिभूता नावगच्छन्तीत्याह-इणमेव' इत्यादि, इदमेव हेतुवैचित्र्यं 'न बुध्यन्ते' न संजानते, के-4
ये जना मौनीन्द्रोपदेशविकला मोहेन-अज्ञानेन मिथ्यात्वोदयेन वा प्रावृताः-छादितास्तत्वविपर्यस्तमतयो मोहनीयो-| दयाद्भवन्ति । मोहनीयस्य च तद्भेदकामानां च स्त्रियो गरीयः कारणमिति दर्शयतिथीभि' इत्यादि, स्त्रीभिः-अङ्गानाभिर्धक्षेपादिविभ्रमरसी लोकः आशाच्छन्दाभिभूतात्मा क्रूरकर्मविधायी नरकविपाकफलं शल्यमाहत्य तत्फलमबु-पद ध्यमानो मोहाच्छादितान्तरात्मा प्रकर्षेण व्यथितः पराजितो वशीकृत इतियावत्, न केवलं स्वतो विनष्टाः, अपरानपि। असकृदुपदेशदानेन विनाशयन्तीत्याह-ते भो।' इत्यादि, 'ते' स्त्रीभिः प्रव्यथिता भो! इत्यामन्त्रणे एतद्वदन्ति-यथै
तानि-ख्यादीनि 'आयतनानि उपभोगासदभूतानि वर्तन्ते, एतैश्च विना शरीरस्थितिरेव न भवतीति । एतच्च प्रव्यथटानमुपदेशदानं वा तेषामपायाय स्यादित्याह-'से' इत्यादि, तेषां 'से' इत्येतत् प्रव्यथनमायतनभणनं वा 'दुःखाय' भ
वति-शारीरमानसासातवेदनीयोदयाय जायते, किं च-'मोहाए' मोहनीयकर्मबन्धनाय अज्ञानाय वेति, तथा 'मा-15 हराए' मरणाय, ततोऽपि 'नरगाए' नरकाय नरकगमनार्थ, पुनरपि 'नरगतिरिक्खाएं' ततोऽपि नरकादुद्धृत्त्य तिरश्चये
तत्प्रभवति, तिर्यग्योन्यर्थं तत् स्त्रीप्रव्यथनं भोगायतनवदनं वा सर्वत्र सम्बन्धनीयं । स एवमानापाङ्गविलोकनाक्षि-IM॥१२७ ॥ यस्तासु तासु योनिषु पर्यटनात्महितं न जानातीत्याह-'सययं' इत्यादि, सततम्-अनवरतं दुःखाभिभूतो मूढो 'धम्मै
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [४], मूलं [८४], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [८४]
दीप
क्षान्त्यादिलक्षणं दुर्गतिप्रसूतिनिषेध 'न जानाति' न वेत्ति । एतच्च तीर्थकृदाहेति दर्शयति-'उदाहु' इत्यादि, उत्ताप्राबल्येनाह उदाह-उक्तवान्, कोऽसौ?-वीर-अपगतसंसारभयस्तीर्थकृदित्यर्थः, किमुक्तवान् ?, तदेव पूर्वोकं वाचा
दर्शयति--'अप्रमादः' कर्त्तव्यः, क?-'महामोहे' अङ्गनाभिष्वङ्ग एव, महामोहकारणत्वान्महामोहः, तत्र प्रमादवता न भाव्यम् । आह च-'अलम्' इत्यादि, 'अलं' पर्याप्तं, कस्य !-'कुशलस्य' निपुणस्य सूक्ष्मेक्षिणः, केनालं?-मद्यविषयकषायनिद्राविकथारूपेण पञ्चविधेनापि प्रमादेन, यतः प्रमादो दुःखाद्यभिगमनायोक्त इति । स्यात्-किमालम्ब्य प्रमादेनालमिति ?, उच्यते-'सन्ति' इत्यादि, शमनं शान्तिः-अशेषकर्मापगमोऽतो मोक्ष एवं शान्तिरिति, नियन्ते प्राणिनः | पौनःपुन्येन यत्र चतुर्गतिके संसारे स मरणः-संसारः शान्तिश्च मरणं च शान्तिमरणं, समाहारद्वन्द्वस्तत् 'संप्रेक्ष्य' पर्यालोच्य, प्रमादवतः संसारानुपरमस्तत्सरित्यागाच मोक्ष इत्येतद्विचायति हृदयं, स वा कुशलः प्रेक्ष्य विषयकषायप्रमादं न विध्याद्, अथवा शान्त्या-उपशमेन मरणं-मरणावर्षि यावत् तिष्ठतो यत्फलं भवति तत्पर्यालोच्य प्रमादं न कुर्यादिति । किं च-'भेउर' इत्यादि, प्रमादो हि विषयकषायाभिष्वङ्गरूपः शरीराधिष्ठानः, तच्च शरीरं भिदुरधर्म, स्वत एव भिद्यत इति भिदुरं स एव धर्मः-स्वभावो यस्य तद्भिदुरधर्म एतत् 'समीक्ष्य' पर्यालोच्य प्रमादं न कुर्यादिति सम्बन्धः, एते च भोगा भुज्यमाना अपि न तृप्तये भवन्तीत्याह-नालं'इत्यादि, 'नालं' न समर्था अभिलाषोच्छित्तये यथेष्टावाप्तावपि भोगाः एतत् पश्य' जानीहि, अतोऽलं तव कुशल! 'एभिः' प्रमादमयैर्दुःखकारणस्वभावैर्विषयैरुपभोगैरिति, न चैते बहुशोऽप्युपभुज्यमाना उपशमं विदधतीति, उक्तं च-“यल्लोके ब्रीहियवं, हिरण्यं पशवः स्त्रियः।
अनक्रम
For P
OW
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[८४]
दीप
अनुक्रम
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[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [४], मूलं [८४], निर्युक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित......आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
राङ्गवृत्तिः
श्रीमाचा- ४ नालमेकस्य तत्सर्वमिति मत्वा शमं कुरु ॥ १ ॥ उपभोगोपायपरो वाञ्छति यः शमयितुं विषयतृष्णाम् । घाषत्याकमितुमसौ, पुरोऽपराहे निजच्छायाम् ॥ २ ॥” तदेवं भोगलिप्सूनां तत्प्राप्तावप्राप्तौ च दुःखमेवेति दर्शयति-एयं परस मुणी ! महब्भयं नाइवाइज कंचणं, एस वीरे पसंसिए, जे न निव्विजइ आयाणा, न मे देइ न कुप्पिज्जा थोवं लधुं न खििसए, पडिसेहिओ परिणमिज्जा, एयं मोणं समणुवासिज्जासि ( सू० ८५) त्तिबेमि ॥
(शी०)
BREA
'एतत्' प्रत्यक्षमेव भोगाशामहाज्वरगृहीतानां कामदशावस्थात्मकं महद्भयं भयहेतुत्वात् दुःखमेव महाभयं तच मरणकारणमिति महदित्युच्यते, एतत् मुने! 'पश्य' सम्यगैहिकामुष्मिकापायापादकत्वेन जानीहीत्युक्तं भवति । यद्येवं तत्किं कुर्यादित्याह - 'नाइवाएका' इत्यादि, यतो भोगाभिलषणं महद्भयमतस्तदर्थं 'नातिपातयेत्' न व्यथेत 'कशन' कमपि जीवमिति, अस्य च शेषव्रतोपलक्षणार्थत्वान्न प्रतारयेत् कञ्चनेत्याद्यप्यायोज्यं । भोगनिरीहः प्राणातिपाता दिव्रतारूढश्च कं गुणमवाप्नोतीत्याह- 'एस' इत्यादि, 'एप' इति भोगाशाच्छन्द विवेचकोऽप्रमादी पञ्चमहात्रतभारारोहणोन्नामितस्कन्धो वीरः कर्म्मविदारणात् 'प्रशंसितः' स्तुतो देवराजादिभिः क एष वीरो नाम ? योऽभिष्ट्रयत इत्यत आह-'जे' इत्यादि, यो 'न निर्विद्यते' न खिद्यते न जुगुप्सते, कस्मै ! 'आदानाय' आदीयते गृह्यतेऽवाप्यते आत्मस्वतत्त्वमशेषावारककर्मक्षयाविर्भूतसमस्तवस्तुग्राहिज्ञाना (ना) बाधसुखरूपं येन तदादानं संयमानुष्ठानं तस्मै न जुगुप्सते, तद्वा कुर्वन् सिकताकवलचर्वणदेशीयं कचिदलाभादौ न खेदमुपयातीति, आह-'न में' इत्यादि, ममायं गृहस्थः सम्भृतसंभारोऽ
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लोक.वि. २ उद्देशकः ४
॥ १२८ ॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [४], मूलं [८५], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
*
[८५]
प्युपस्थितेऽपि दानावसरे न ददातीतिकृत्वा न कुप्येत्' न क्रोधवशगो भूयाद्, भावनीयं च-ममैवैषा कर्मपरिणति-13 रित्यलाभोदयोऽयम् , अनेन चालाभेन कर्मक्षयायोद्यतस्य मे तत्क्षपणसमर्थं तपो भावीति न किश्चिस्तूयते, अथापि कथञ्चित स्तोकं प्रान्तं वा लभेत तदपि न निन्देदित्याह-'थोवं' इत्यादि, 'स्तोकम्' अपर्याप्त 'लढुं' लब्धा न निन्दे-12 हातारं दत्तं वा, तथाहि-कतिचित्सिक्थानयने ब्रवीति-सिद्ध ओदनो भिक्षामानय लवणाहारो वा अस्माकं मास्तीत्य || ददस्वेत्येवं अत्युद्धृत्तच्छात्रवन्न विदध्यात् । किं च-पडिसेहिओं' इत्यादि, 'प्रतिषिद्धः' अदित्सितस्तस्मादेव प्रदेशात् 'परिणमेत् निवर्त्तत, क्षणमपि न तिष्ठेन्न दौर्मनस्यं विदध्यान्न रुण्टन्नपगच्छेत् न तो सीमन्तिनीमपवदेद्-धिक्के गृहवासमिति, उक्तं च-"दिवाऽसि कसेरुमई ! अणुभूयासि कसेरुमइ। पीयं चिय ते पाणिययं वरि तुह नाम न दंसणं ॥१॥" इत्यादि । पठ्यते च-पडिलाभिओ परिणमेज्जा" प्रतिलाभितः-प्राप्तभिक्षादिलाभः सन् परिणमेत्, नोच्चावचालापैः तत्रैव संस्तवं विदध्यात्, वैतालिकबद्दातारं नोयासयेदिति । उपसंहरन्नाह--'एयं' इत्यादि, 'एतत्' प्रव्रज्यानिर्वेदरूपं अदा-1 नाकोपनं स्तोकाजुगुप्सनं प्रतिषिद्धनिवर्तनं मुनेरिदं मौन-मुनिभिर्मुमुक्षुभिराचरितं त्वमप्यवासानेकभवकोटिदुरापसंयमः सन् 'समनुवासयेः' सम्यग् विधत्स्वानुपालयेति विनेयोपदेश आत्मानुशासनं वा । इतिः परिसमाप्तौ, बवीमि पूर्ववत् ॥ लोकविजयाध्ययनचतुर्थोद्देशकटीका समाप्ता॥
दीप
अनक्रम
*****
*
१रष्टाऽसि उदारमते । अनुभूताऽसि उदारमते।। पीतमेव ते पानीयं वर तव भाम न दर्शम् ॥१॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [५], मूलं [८५], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचा- रावृत्तिः
सूत्रांक
(श्री)
[८५]
॥१२९ ॥
ཟླ “༔ ཟླ།
दीप
उक्तश्चतुर्थोद्देशकः, साम्प्रतं पञ्चमस्य व्याख्या प्रतन्यते, तस्य चायमभिसम्बन्धः, इह भोगान् परित्यज्य लोक
लोक.वि.२ निश्रया संयमदेहप्रतिपालनार्थ विहर्तव्यमित्युक्तं तदत्र प्रतिपाद्यते, इह हि संसारोद्वेगवता परित्यक्तभोगाभिलाषेण
उद्देशका मुमुक्षुणोरिक्षप्तपश्वमहाव्रतभारेण निरवद्यानुष्ठान विधायिना दीर्घसंयमयात्रार्थ देहपरिपालनाय लोकनिश्रया विहर्त्तव्यं, निराश्रयस्य हि कुतो देहसाधनानि ?, तदभावे धर्मश्चेति, उक्तं हि-"धम्मै चरतः साधोलोंके निश्रापदानि पश्चापित राजा गृहपतिरपरः षट्राया गणशरीरे च ॥१॥" साधनानि च वखपात्रानासनशयनादीनि, तत्रापि प्रायः प्रतिदिनमुपयोगित्वादाहारो गरीयानिति, स च लोकादन्वेष्टव्यो, लोकश्च नानाविधैरुपायैरात्मीयपुत्रकलवाद्यर्थं आरम्भे प्रवृत्तः, तत्र साधुना संयमदेहनिमित्तं वृत्तिरन्वेषणीयेति दर्शयति
जमिणं विरूबरूवेहिं सत्थेहिं लोगस्स कम्मसमारंभा कजति, तंजहा-अप्पणो से पुत्ताणं धूयाणं सुण्हाणं नाईणं धाईणं राईणं दासाणं दासीणं कम्मकराणं कम्मकरीणं आएसाए पुढोपहेणाए सामासाए पायरासाए, संनिहिसंनिचओ कजइ,
इहमेगेसिं माणवाणं भोयणाए (सू०८६) 'थैः' अविदितवेयैः 'इद'मिति सुखदुःखप्राप्तिपरिहारत्वमुद्दिश्य 'विरूपरूपैः' नानाप्रकारस्वरूपैः 'शस्त्रैः' प्राण्युप-| घातकारिभिर्द्रव्यभावभेदभिन्नैः 'लोकाय' शरीरपुत्रदुहितृस्नुषाज्ञात्याद्यर्थं कर्मणां-सुखदुःखप्राप्तिपरिहारक्रियाणां
अनक्रम
॥११९
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LOW
द्वितीय-अध्ययने पंचम-उद्देशक: 'लोकनिश्रा' आरब्धः,
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आगम
(०१)
प्रत सूत्रांक
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दीप
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[८]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
-
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [५], मूलं [८६], निर्युक्ति: [१९७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित......आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
कायिकाधिकरणिकाप्रादोषिकापारितापनिका प्राणातिपातरूपाणां कृषिवाणिज्यादिरूपाणां वा, समारम्भा इति मध्यग्रहणाद्बहुवचननिर्देशाच्च संरम्भारम्भयोरप्युपादानं, तेनायमर्थः - शरीर कलत्राद्यर्थं संरम्भसमारम्भारम्भाः 'क्रियन्ते' अनुष्ठीयन्ते तत्र संरम्भ इष्टानिष्टप्राप्तिपरिहाराय प्राणातिपातादिसङ्कल्पावेशः, तत्साधनसन्निपातकायवाग्व्यापारजनितपरितापनादिलक्षणः समारम्भः दण्डत्रयव्यापारापादितचिकीर्षितप्राणातिपातादिक्रियानिर्वृत्तिरारम्भः, कर्म्मणो वा-अष्टप्रकारस्य समारम्भाः - उपार्जनोपायाः क्रियन्त इति, लोकस्येति चतुर्थ्यर्थे षष्ठी, साऽपि तादर्थ्ये, कः पुनरसौ लोको ? यदर्थं संरम्भसमारम्भारम्भाः क्रियन्त इत्याह- 'तंजहा अप्पणो से' इत्यादि, यदिवा लोकस्य तृतीयार्थे षष्ठी, यदिति हेतौ, यस्माल्लोकेन नानाविधैः शस्त्रैः कर्म्मसमारम्भाः क्रियन्त इत्यतस्तस्मिन् लोके साधुर्वृत्तिमन्वेषयेत्, यदर्थं च लोकेन कर्म्मसमारम्भाः क्रियन्ते तद्यथेत्यादिना दर्शयति- 'तं जहा अप्पणी से' इत्यादि, 'तद्यथेत्युपत्रदर्शनार्थी, नोकमात्रमेवान्यदप्येवंजातीयकं मित्रादिकं द्रष्टव्यं, 'से' तस्यारम्भारिप्सोर्य आत्मा-शरीरं तस्मै अर्थ तदर्थं कर्म्मसमारम्भाः - पाकादयः क्रियन्ते, ननु च लोकार्थमारम्भाः क्रियन्त इति प्रागभिहितं न च शरीरं ठोको भवति, नैतदस्ति यतः परमार्थदृशां ज्ञानदर्शनचारित्रात्मकमात्मतत्त्वं विहायाम्यत्सर्व शरीराद्यपि पराक्यमेव, तथाहिवाह्यस्य पौगलिकस्याचेतनस्य कर्म्मणो विपाकभूतानि पश्चापि शरीराणीत्यतः शरीरात्माऽपि लोकशब्दाभिधेय इति, तदेवं कश्चिच्छरीरनिमित्तं कम्मरभते, परस्तु पुत्रेभ्यो दुहितृभ्यः स्नुषाः- वध्वस्ताभ्यो ज्ञातयः - पूर्वापरसम्बद्धाः स्वजनाः तेभ्यो धात्रीभ्यो राजभ्यो दासेभ्यो दासीभ्यः कर्म्म करेभ्यः कर्म्मकरीभ्यः आदिश्यते परिजनो यस्मिन्नागते तदातिथेयायेत्या
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [५], मूलं [८६], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचा- देशः-प्राघूर्णकस्तदर्थ कर्मसमारम्भाः क्रियन्त इति सम्बन्धः, तथा 'पुढो पहेणाए' इत्यादि, पृथक् पृथक् पुत्रादिभ्यः लोक.वि.२ रावृत्तिः
प्रहेणकार्थ तथा 'सामासाए'त्ति श्यामा-रजनी तस्यामशनं श्यामाशः तदर्थ, तथा 'पायरासाए'त्ति प्रातरशनं प्रातराश-IN (शी)
वास्तस्मै, कर्मसमारम्भाः क्रियन्त इति सामान्येनोक्तावपि विशेषार्थमाह-'सन्निहि' इत्यादि, सम्यग्निधीयत इति सन्निधिः-TRI
विनाशिद्रव्याणां दध्योदनादीनां संस्थापनं, तथा सम्यग् निश्चयेन चीयत इति सन्निचयः-अविनाशिद्रव्याणां अभया॥१३०॥
सितामृवीकादीनां सङ्ग्रहः, सन्निधिश्च सन्निचयश्च सन्निधिसन्निचर्य, प्राकृतशैल्या पुल्लिङ्गता, अथवा सन्निधेः सन्निचयः सन्निधिसन्निचयः, स च परिग्रहसंज्ञोदयादाजीविकाभ्यासाद्वा धनधान्यहिरण्यादीनां क्रियत इति । स च किममित्याह-'इह' इत्यादि, 'इहे'ति मनुष्यलोके 'एकेषा'मिहलोके कृतपरमार्थबुद्धीनां 'मानवानां मनुष्याणां 'भोजनाय' उपभोगार्थमिति । तदेवं विरूपरूपैः शस्त्रैरात्मपुत्राद्यर्थं कर्मसमारम्भप्रवृत्ते लोके पृथक्प्रहेणकाय श्मामाशाय|p प्रातराशाय केषाश्चिन्मानवानां भोजनार्थं सन्निधिसन्निचयकरणोद्यते सति साधुना किं कर्त्तव्यमित्याह
समुदिए अणगारे आरिए आरियपन्ने आरियदंसी अयंसंधित्ति अदक्खु, से नाईए
नाइयावए न समणुजाणइ, सव्वामगंधं परिन्नाय निरामगंधो परिव्वए (सू०८७) ML सम्यक् सततं सङ्गतं वा संयमानुष्ठानेनोत्थितः समुत्थितो, नानाविधशखकर्मसमारम्भोपरत इत्यर्थः, न विद्यतेऽ- ॥१३०॥
गारं-गृहमस्येत्यनगारः, पुत्रदुहितृस्नुषाज्ञातिधात्र्यादिरहित इत्यर्थः, सोऽनगारः आराद्यातः सर्वहेयधर्मेभ्यः
airmanasurary.orm
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [८७], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८७]]
टीप
भइत्याया-चारित्राहः, आर्या प्रज्ञा यस्यासावार्यप्रज्ञः, श्रुतविशेषितशेमुषीक इत्यर्थः, आर्य-प्रगुण न्यायोपपर्ण पश्यति
तच्छीलत्यार्यदर्शी पृथक्प्रहेणकश्यामाशनादिसङ्कल्परहित इत्यर्थः, 'अयंसंधीति' सन्धान सम्धीयते वाऽसाविति। KIसन्धिरय सन्धिर्यस्य साधोरसावयंसन्धिः, छान्दसत्वाद्विभक्केरलुगित्ययंसन्धिः-यथाकालमनुष्ठान विधायी यो यस्य ||
वर्तमानः कालः कर्तव्यतयोपस्थितस्तस्करणतया तमेव सन्धत्त इति, एतदुक्तं भवति-सर्वाः क्रियाः प्रत्युपेक्षणोपयोगस्वाध्यायभिक्षाचर्याप्रतिक्रमणादिकाः असपला अन्योऽन्याबाधया आत्मीयकर्त्तव्यकाले करोतीत्यर्थः, इतिः हेतो, यस्माद्यथाकालानुष्ठान विधायी तस्मादसावेव परमार्थं पश्यतीत्याह-'अदक्खुति, तिव्यत्ययेन एकवचनावसरे बहुवचनमकारि, ततश्चायमर्थः-यो ह्यार्य आर्यप्रज्ञ आर्यदशी कालज्ञश्च स एव परमार्थमद्राक्षीनापर इति, पाठान्तरं वा 'अयं संधिमदक्खु 'अयम्' अनन्तरविशेषणविशिष्टः साधुः 'सन्धि' कर्त्तव्यकालम् 'अद्राक्षीद्' दृष्टवान् , एतदुक्तं भवति-यः परस्परावाधया हिताहितप्राप्तिपरिहाररूपतया विधेयावसरं वेत्ति विधत्ते च स परमार्थ ज्ञातवानिति, अथवा भावसन्धिः-ज्ञानदर्शनचारित्राणामभिवृद्धिः स च शरीरमृते न भवति, तदपि नोपष्टम्भककारणमन्तरेण, तस्य च सावद्यस्य परिहारः कर्त्तव्य इत्यत आह–से णाईए' इत्यादि, 'स' भिक्षुस्तद्वाऽकरप्यं 'नाददीत' न गृह्णीयानाप्यपरमादापयेत्-ग्राहयेत्, नाप्यपरमनेषणीयमाददानं समनुजानीयादपि, अथवा सइङ्गाल सधूमं वा नाद्यात्-न भक्षयेन्नापरमादयेददन्तं वा न समनुजानीयादिति, आह-सब्वामगंध' इत्यादि, आमं च गन्धश्च आमगन्धं समाहारद्वन्द्वः, सर्व च तदामगन्धं च सर्वामगन्ध, सर्वशब्दः प्रकारकात्सर्येऽत्र गृह्यते न द्रव्यकालये, आमम्-अपरिशुद्धं, गन्धग्रह
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [५], मूलं [८७], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८७]]
दीप
श्रीआचा-
पणेन तु पूतिगृह्यते, ननु च पूतिद्रव्यस्याप्यशुद्धत्वात् आमशब्देनैवोपादानाकिमर्थ भेदेनोपादानमिति !, सत्यम् , अशुद्ध-लोक.वि.२ राङ्गवृत्तिः सामान्याद्गृह्यते, किं तु पूतिग्रहणेनेहाधाकर्माद्यविशुद्धकोटिरुपात्ता, तस्याश्च गुरुतरत्वात् प्राधान्यख्यापनार्थ पुनरु(शी०) पादानं, ततश्चायमर्थः-गन्धग्रहणेनाधाकर्म १ औद्देशिकत्रिकं २ पूतिकर्म ३ मिश्रजातं ४ बादरपाभृतिका ५ अध्य-18
उद्दशका५ ॥१३१॥
वपूरक ६ चैते षडुद्गमदोषा अविशुद्धकोव्यन्तर्गता गृहीताः, शेषास्तु विशुद्धकोट्यन्तर्भूता आमग्रहणेनोपात्ता द्रष्टव्या इति, सर्वशब्दस्य च प्रकारकारसयाभिधायकत्वाद् येन केनचित् प्रकारेण आमम्-अपरिशुद्ध पूति वा भवति तत्सर्वे| ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया 'निरामगन्धः' निर्गतावामगन्धौ यस्मात्स तथा 'परिव्रजेत्' मोक्षमार्गे ज्ञानदशनचारित्राख्ये परिः-समन्तानच्छेत् संयमानुष्ठान सम्यगनुपालयेदितियावत् । आमग्रहणेन प्रतिषिद्धेऽपि क्रीतकृते | तथाप्यल्पसत्यानां विशुद्धकोव्यालम्बनतया मा भूत्तत्र प्रवृत्तिरतस्तदेव नाममा प्रतिषिपेधिषुराह
अदिस्समाणे कयविक्कयेसु, से ण किणे न किणावए किणंतं न समणुजाणइ, से भिक्खू कालन्ने बालन्ने मायन्ने खेयन्ने खणयन्ने विणयन्ने ससमयपरसमयन्ने भावन्ने प
रिग्गहं अममायमाणे कालाणुट्टाई अपडिण्णे (सू०८८) क्रयश्च विक्रयश्च क्रयविक्रयौ तयोरदृश्यमानः, कीदृक्षश्च तयोरदृश्यमानो भवति ?, यतस्तयोनिमित्तभूतद्रव्याभा- ॥१३१॥ वादकिश्चनोऽथवा क्रयविक्रययोरदिश्यमानः-अनपदिश्यमानः, कश्च तयोरनपदिश्यमानो भवति ।, यः क्रीतकृतापरि
अनक्रम
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [८८], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८८]
दीप
भोगी भवतीति, आह च-से ण किणे इत्यादि, 'स'मुमुक्षुरकिञ्चनो धर्मोपकरणमपि न क्रीणीयात् स्वतो नाप्यपरेण कापयेत् कीणन्तमपि न समनुजानीयाद्, अथवा निरामगन्धः परित्रजेदित्यत्रामग्रहणेन हननकोटित्रिकं गन्धग्रहणेन पचनकोटिनिक क्रयणकोटित्रिकं तु पुनः स्वरूपेणैवोपात्तम्, अतो नवकोटिपरिशुद्धमाहारं विगताङ्गारधूमं भुञ्जीत, एतद्गुणविशिष्टश्च किंभूतो भवतीत्याह-से भिक्खू कालने' काल:-कर्तव्यावसरस्तं जानातीति कालज्ञः-विदितवेद्यः, तथा 'बालपणे' बलज्ञः बलं जानातीति बलज्ञः, छान्दसत्वाद्दीर्घत्वं, आत्मबलं सामर्थ्य जानातीति यथाश
त्यनुष्ठानविधायी, अनिगूहितबलवीर्य इत्यर्थः, तथा 'मायने यावद्रव्योपयोगिता मात्रा तां जानातीति तज्ज्ञः, तथा 3|| खेयन्ने' खेदः-अभ्यासस्तेन जानातीति खेदज्ञः अथवा खेदः-श्रमः संसारपर्यटनजनितस्तं जानातीति, उक्तं च-"जरा
मरणदौर्गत्यव्याधयस्तावदासताम् । मन्ये जन्मैव धीरस्य, भूयो भूयस्त्रपाकरम् ॥ १॥" इत्यादि, अथवा 'क्षेत्रज्ञः' संसक्तविरुद्धद्रव्यपरिहार्यकुलादिक्षेत्रस्वरूपपरिच्छेदकः, तथा 'खणयन्नो क्षण एवं क्षणक:-अवसरो भिक्षार्थमुपसर्पणादिकस्तं जानातीति, तथा 'विणयन्ने विनयो-ज्ञानदर्शनचारित्रौपचारिकरूपस्तं जानातीति, तथा 'ससमयपरसमयण्णे' स्वसमयपरसमयौ जानातीति, स्वसमयज्ञो गोचरप्रदेशादौ पृष्टः सन् सुखेनैव भिक्षादोषानाचष्टे, तद्यथा-पोडशोद्मदोषाः, ते चामी-आधाकर्म १ औद्देशिकं २ पूतिकर्म ३ मिश्रजातं ४ स्थापना ५ प्राभृतिका ६ प्रकाशकरणं ७
क्रीतं ८ उद्यतकं ९ परिवर्तितं १० अभ्याहृतं ११ उदिन्नं १२ मालापहृतं १३ आच्छेद्य १४ अनिसृष्टं १५ अध्यविपूरकश्चेति १६ । षोडशोत्पादनदोषाः, ते चामी-धात्रीपिण्डः १ दूतीपिण्डः २ निमित्तपिण्डः ३ आजीवपिण्डः ४
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CONOKASO
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [५], मूलं [८८], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
लोक.वि.२ उद्देशकः५
सूत्रांक
[८८]
दीप
श्रीआचा-वनीपकपिण्डः ५ चिकित्सापिण्डः ६ क्रोधपिण्डः ७ मानपिण्डः ८ मायापिण्डः ९ लोभपिण्डः १० पूर्वसंस्तवपिण्डः ११ रावृत्तिः
पश्चात्संस्तवपिण्डः १२ विद्यापिण्डः १३ मन्त्रपिण्डः १४ चूर्णयोगपिण्डः १५ मूलकर्मपिण्डश्चेति १६ । तथा दशैषणा(शी०) दोषाः, ते चामी-शङ्कित १ रक्षित २ निक्षिप्त ३ पिहित ४ संहृत ५ दायको ६ मिश्रा ७ ऽपरिणत ८ लिप्तो ९ झित
१० दोषाः । एषां चोद्गमदोषा दातृकृता एव भवन्ति, उत्पादनादोषास्तु साधुजनिताः, एषणादोषाश्चोभयोखादिता इति ।। ॥१३२॥
तथा परसमयज्ञो ग्रीष्ममध्याहतीव्रतरतरणिकरनिकरावलीढगलत्स्वेदबिन्दुका क्लिन्नवपुष्का साधुः केनचित् धिग्जातिदेश्येनाभिहित:-किमिति भवतां सर्वजनाचीर्ण स्नानं न सम्मतमिति !, स आह-प्रायः सर्वेषामेव यतीनां कामाइत्वाजलस्नानं प्रतिषिद्धं, तथा चार्षम्-"मानं मददपकर, कामा प्रथम स्मृतम् । तस्मात्कार्म परित्यज्य, नैव स्त्रान्ति दमे रताः॥१॥" इत्यादि, तदेवमुभयज्ञस्तद्विषये प्रश्ने उत्तरदानकुशलो भवति, तथा 'भावन्ने भावा-चिचाभिप्रायो दातुःश्रोतु तं जानातीति भावज्ञः, किंच-परिग्गहं अममायमाणे' परिगृह्यत इति परिग्रहः-संयमातिरिक्तमुपक-1 |रणादिः तमममीकुर्वन्-अस्वीकुर्वन् मनसाऽप्यनाददान इतियावत्, स एवंविधो भिक्षुः कालज्ञो बलज्ञो मात्रज्ञः क्षेत्रज्ञः।
खेदज्ञो क्षणशः विनयज्ञः समयज्ञो भावज्ञः परिग्रहमममीकुर्वाणश्च किंभूतो भवतीत्याह-कालाणुहाई' यद्यस्मिन्
काले कर्त्तव्यं तत्तमिन्नेवानुष्ठातुं शीलमस्येति कालानुष्ठायी-कालानतिपातकर्त्तव्योद्यतो, ननु चास्यास 'से भिक्खू || कालन्ने' इत्यनेनैव गतार्थत्वात् किमर्थं पुनरभिधीयते इति ?, नैष दोषः, तत्र हि ज्ञपरिव केवलाऽभिहिता, कर्त्तव्यकालं
जानाति, इह पुनरासेवनापरिज्ञा कर्त्तव्यकाले कार्य विधत्त इति । किं च-'अपडिपणे नास्य प्रतिज्ञा विद्यते इत्यप्रतिज्ञः,
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [५], मूलं [८८], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८८]
दीप
प्रतिज्ञा च कषायोदयादाविरस्ति, तद्यथा-क्रोधोदयात् स्कन्दाचार्येण स्वशिष्ययन्त्रपीलनव्यतिकरमालोक्य सबलवाहनराजधानीसमन्वितपुरोहितोपरि विनाशप्रतिज्ञाऽकारि, तथा मानोदयात् बाहुबलिना प्रतिज्ञा व्यधायि-कथमहं शिशन स्वधावनुत्पन्ननिरावरणज्ञानांश्छद्मस्थः सन् द्रक्ष्यामीति, तथा मायोदयात् मल्लिस्वामिजीवेन यथाऽपरयतिविप्रलम्भनं भवति तथा प्रत्याख्यानपरिज्ञा जगृहे, तथा लोभोदयाच्चाविदितपरमार्थाः साम्पतेक्षिणो यत्याभासा मासक्षपणादिका अपि प्रतिज्ञाः कुर्वते, अथवा अप्रतिज्ञः-अनिदानो वसुदेववत् संयमानुष्ठानं कुर्वन् निदानं न करोतीति, अथवा गोचरादौ प्रविष्टः सन्नाहारादिकं ममैवैतद्भविष्यतीत्येवं प्रतिज्ञा न करोतीत्यप्रतिज्ञो, यदिवा स्याद्वादप्रधानत्वान्मौनीन्द्रागमस्यैकपक्षावधारणं प्रतिज्ञा तद्रहितोऽप्रतिज्ञः, तथाहि-मैथुनविषयं विहायान्यत्र न कचिनियमवती प्रतिज्ञा विधेया, यत उक्तम् -"न ये किंचि अणुण्णायं पडिसिद्धं वावि जिणवरिंदेहिं । मोनुं मेहुणभावं न तं विणा रागदोसेहिं ॥१॥ तथा
नापि किञ्चिदकल्पनीयमनुज्ञातं कारणे व समुत्पन्ने नापि किञ्चित् प्रतिषिर्ड, किन्तु एषा वेषां तीर्थंकृतां निश्चयव्यवहारनयद्वयाश्रिता सम्यगाज्ञा मन्तव्या यदुत कार्थे झानाद्यालम्बने सत्येन सद्भाचसारेण साधुना भवितव्यं, न मातृस्थानतो यत्किञ्चिदालम्बनीयमित्यर्थः, तात्विकज्ञानाबालम्बन सिध्यैव मोक्षपथसिद्धेबाया
नुष्ठानस्य अनेकान्तिकारवादनासन्तिकत्वाच, इत्यमेव तस्य द्रव्यवसि, अथवा सवं नाम संयमस्तेन कार्य समुत्पने भवितव्य, यथा यथा संयम उपसपति तथा नातथा कर्तव्यं, तदुत्सपेणं च शक्लनिगृहनेनेन निबहतीति, सर्वत्र यथाशक्ति बतितव्यमेवेति भावः, आई
संगमो णियमा । वह जह सोवे चरणं तह तह कामवयं होइ ॥१॥" दोषा रागादयो निरुध्यन्ते-सन्तोऽप्यप्रवृत्तिमन्तो जायन्ते येनानुष्ठानविशेषेण पूर्वकर्माणि प्राग्भवोपात्तज्ञानाबरणादिकम्माणि च येन क्षीयन्ते स सोऽनुष्ठान निशेषो मोक्षोपायो ज्ञातव्यः, रोगावस्थाणु-ज्वरादिरोगप्रकारेषु शमन मियोचितौषधप्रदानापथ्यपरिहारायानमिव, यथा तेन विधीयमानेन ज्वरादिरोगः क्षयमुपगच्छति, एवमुत्समें उत्सर्गमपवादे चापवादं समाचरतो रागाववो निरुण्यन्वे पूर्वकम्मतिःच क्षीमन्ते,
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[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [५], मूलं [८८], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८८]]
दीप
श्रीआचा- "दोसा जेण निरुज्झति जेण जिज्झंति पुव्वकम्माई । सो सो मुक्खोवाओ, रोगावत्थासु समणं व ॥२॥ जे जत्तिया लोक.वि.२ राङ्गवृत्तिः हेऊ भवस्स ते पेव तत्तिया मुक्खे । गणणाइया लोया दुण्हवि पुण्णा भवे तुला ॥३॥". इत्यादि । 'अर्यसन्धी(शी०) ||त्यारभ्य काले अणुहाइत्ति यावदेतेभ्यः सूत्रेभ्य एकादश पिण्डैषणा नियूंढा इति । एवं तीप्रतिज्ञ इत्यनेन सूत्रेणेद-18
मापन-न क्वचिकेनचित्प्रतिज्ञा विधेया, प्रतिपादिताश्चागमे नानाविधा अभिग्रहविशेषाः, ततश्च पूर्वोत्तरव्याहतिरिव ॥१३३॥
लक्ष्यत इत्यत आह
दुहओ छेत्ता नियाइ, वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं उग्गहणं च कडासणं एएसु
चेव जाणिज्जा (सू०८९) 'द्विघेति रागेण द्वेषेण वा या प्रतिज्ञा तां छित्त्वा निश्चयेन नियतं वा याति नियाति ज्ञानदर्शनचारित्राख्ये मोक्षमार्गे संयमानुष्ठाने वा भिक्षाद्यर्थं वा, एतदुक्तं भवति-रागद्वेषौ छित्त्वा प्रतिज्ञा गुणवती, व्यत्यये व्यत्यय इति, स एवम्भूतो भिक्षुः कालज्ञो बलज्ञो यावद्विधा छिन्दन् किं कुर्यादित्याह-वत्थं पडिग्गहं इत्यादि यावत् एएसुचेव अथवा यथा कस्यापि रोगिणोऽधिकतपथ्यौपधादिक प्रतिषिच्यते कस्यापि पुनस्तदेवानुज्ञायते, एवमत्रापि या समर्थस्तयाकल्प्यमभ्यस्य तु तदेवानुज्ञायते, थोक भिषश्वरमाने-"उत्पयते हि साऽवस्था, देशाकाहामथान, प्रति । यस्यामकार्य कार्य थात्, कर्मकार्य च नये ॥ १॥" विति । १ नैव किभिवनुज्ञात प्रतिषिद्धं वापि | जिनवरेन्दः । मुक्या मैथुनभावं न तद् विना रागद्वेषाभ्याम् ॥ १॥ दोषा येन निरुभ्यन्ते येन सीयन्ते पूर्वकमाणि । स स मोक्षोपायो रोगावस्थासु शमनमिव ॥२॥ ये यावन्तो हेतवो भवस्य त एव तावन्तो मोक्षस्य । गणनातीता लोका द्वयोरपि पूर्णा भवेयुस्तुल्याः ॥ ३॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [9], मूलं [८९], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
༔, བློ
ཀྵ པཎྞཾ ༔
जाणेजा' एतेषु पुत्राद्यर्थमारम्भप्रवृत्तेषु सन्निधिसन्निचयकरणोद्यतेषु जानीयात्-शुद्धाशुद्धतया परिच्छिन्द्यात्, परिच्छेदनश्चैिवमात्मक:-शुद्धं गृह्णीयादशुद्धं परिहरेदितियावत्, किं तद्विजानीयात् ?-वस्त्रं वस्त्रग्रहणेन वस्लेषणा सूचिता, तथा Pापतग्रह-पात्रम्, एतद्रहणेन च पात्रैषणा सूचिता, कम्बलमित्यनेनाऽऽविकः पात्रनिर्योगः कल्पश्च गृह्यते, पादपुञ्छनकमित्य-|| नेन च रजोहरणमिति, एभिश्च सूत्रैरोघोपधिरौपग्रहिकश्च सूचितः, तथैतेभ्य एव वस्त्रैषणा पात्रैषणा च नियूंढा, तथा| अवगृह्यत इत्यवग्रहः, स च पश्चधा-देवेन्द्रावग्रहः १ राजावग्रहः २ गृहपत्यवग्रहः ३ शय्यातरावग्रहः ४ साधर्मिकावग्रहश्चेति, अनेन चावग्रहप्रतिमाः सर्वाः सूचिताः, अत एवासी नियूढाः, अवग्रहकल्पिकश्चास्मिन्नेव सूत्रे कल्प्यते, तथा कटासनं, कटग्रहणेन संस्तारो गृह्यते, आसनग्रहणेन चासन्दकादि विष्टरमिति, आस्यते-स्थीयते अस्मिन्निति वाssसन-शय्या, ततश्च आसनग्रहणेन शय्या सूचिता, अत एव नियूंढेति । एतानि च सर्वाण्यपि वस्त्रादीन्याहारादीनि
चैतेषु स्वारम्भप्रवृत्तेषु गृहस्थेषु जानीयात्, सर्वामगन्धं परिज्ञाय निरामगन्धो यथा भवति तथा परिव्रजेरिति भावार्थः। &ाएतेषु च स्वारम्भप्रवृत्तेषु गृहस्थेषु परिव्रजन यावल्लाभं गृह्णीयादुत कश्चिनियमोऽप्यस्तीत्याह
लद्धे आहारे अणगारो मायं जाणिज्जा, से जहेयं भगवया पवेईयं, लाभुत्तिन मजिज्जा,
अलाभुत्ति न सोइज्जा, बहुंपि लढुंन निहे, परिग्गहाओ अप्पाणं अवसक्किजा (सू०९०) 'लब्धे प्राप्ते सत्याहारे, आहारग्रहणं चोपलक्षणार्थम् अन्यस्मिन्नपि वस्त्रौषधादिके 'अनगार' भिक्षुः 'मात्रां जानी-18 यात्' यावन्मात्रेण गृहीतेन गृहस्थः पुनरारम्भे न प्रवर्तते यावन्मात्रेण चात्मनो विवक्षितकार्यनिष्पत्तिर्भवति तथा
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [9], मूलं [९०], नियुक्ति : [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचा- रावृत्तिः (शी०)
॥१३४॥
भूतां मात्रामवगच्छेदिति भावः, एतच्च स्वमनीषिकया नोच्यत इत्यत आह-'से जहेय' इत्यादि, तद्यथा-इदमुदेशका- लोक.वि.२ देरारभ्यानन्तरसूत्रं यावद्भगवता-ऐश्वर्यादिगुणसमन्वितेनार्द्धमागधया भाषया सर्वस्वभाषानुगतया सदेवमनुजायां परि-IVाकार पदि केवलज्ञानचक्षुषाऽवलोक्य 'प्रवेदित' प्रतिपादित, सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिने इदमावष्टे । किं चान्यत्-लाभो'त्ति इत्यादि, लाभो वखाहारादेर्मम संवृत्त इत्यतोऽहो! अहं लब्धिमानित्येवं मदं न क्दिध्यात्, न च तदभावे शोकाभि-II भूतो विमनस्को भूयादिति, आह च-'अलाभो'त्ति इत्यादि, अलाभे सति शोक न कुर्यात् , कथं ?-धिग्मा मन्दभाग्योऽहं येन सर्वदानोद्यतादपि दातुर्न लभेऽहमिति, अपि तु तयोर्लाभालाभयोर्माध्यस्थ्यं भावनीयमिति, उक्तं च-"लभ्यते लभ्यते साधु, साधुरेव न लभ्यते । अलब्धे तपसो वृद्धिलब्धे तु प्राणधारणम् ॥ १ ॥" इत्यादि, तदेवं पिण्डपात्रवस्त्राणामेपणाः प्रतिपादिताः, साम्प्रतं सन्निधिप्रतिषेधं कुर्वन्नाह-बहुपी'त्यादि, 'बहुंपि' बह्वपि लब्ध्वा 'न निहे'त्ति || न स्थापयेत्-न सन्निधिं कुर्यात्, स्तोकं तावन्न सन्निधीयत एव, बह्वपि न सन्निदध्यादित्यपिशब्दार्थः, न केवलमाहारसन्निधिं न कुर्याद् , अपरमपि वस्त्रपात्रादिकं संयमोपकरणातिरिक्तं न विभृयादिति, आह-परि' इत्यादि, परिगृह्यत इति परिग्रहो-धर्मोपकरणातिरिक्तमुपकरणं तस्मादात्मानमपष्वकेदु-अपसर्पये, अथवा संयमोपकरणमपि मूर्छया परिग्रहो भवति, 'मूर्छा परिग्रहः' (तत्त्वा० अ०८ सू०) इतिवचनात्, तत आत्मानं परिग्रहादपसर्पयन्नुपकरणे| तुरगवत् मूर्ची न कुर्यात्, ननु च यः कश्चिद्धर्मोपकरणाद्यपि परिग्रहो, न स चित्तकालुध्यमृते भवति, तथाहि-आ
H ॥१३४॥ त्मीयोपकारिणि राग उपघातकारिणि च द्वेषः, ततः परिग्रहे सति रागद्वेषौ नेदिष्ठी, ताभ्यां च कर्मबन्धः, ततः कथं
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [५], मूलं [९०], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [९०
दीप
न परिग्रहो धर्मोपकरणम्', उक्तं च-"ममाहमिति चैष यावदभिमानदाहज्वरः, कृतान्तमुखमेव तावदिति न प्रशाम्त्युत्रयः । यशःसुखपिपासितैरयमसावनोंत्तरैः, परैरपसदः कुतोऽपि कथमप्यपाकृष्यते ॥१॥" नैष दोषः, न हि धम्मापकरणे ममेदमिति साधूनां परिग्रहाग्रहयोगोऽस्ति, तथा ह्यागमः-"अवि अप्पणोऽवि देहमि, नायरति ममाइ", यदिह परिगृहीतं कर्मवन्धायोपकल्पते स परिग्रहो, यत्तु पुनः कर्मनि रणार्थं प्रभवति तसरिग्रह एव न भवतीति । आह च
अन्नहा णं पासए परिहरिजा, एस मग्गे आयरिएहिं पवेइए, जहित्थ कुसले नोवलिंपिज्जासि तिबेमि (सू० ९१) णमिति वाक्यालङ्कारे, 'अन्यथे'त्यन्येन प्रकारेण पश्यकः सन् परिग्रह परिहरेत् , यथा हि अविदितपरमार्था गृहस्थाः सुखसाधनाय परिग्रहं पश्यन्ति न तथा साधुः, तथाहि अयमस्याशयः-आचार्यसत्कमिदमुपकरणं न ममेति, रागद्वेषमूलत्वात् परिग्रहाग्रहयोगोऽत्र निषेध्यो, न धर्मोपकरणं, तेन विना संसारार्णवपारागमनादिति, उक्तं च-"साध्यं यथा कथश्चित् स्वल्पं कार्यं महच न तथेति । प्लवनमृते न हि शक्यं पारं गन्तुं समुद्रस्य ।। १॥" अन चाहताभासैबॉटिकैः सह महान्विवादोऽस्तीत्यतो विवक्षितमर्थ तीर्थकराभिप्रायेणापि सिसाधयिषुराह-एस मग्गे' इत्यादि, धर्मोपकरणं न परिग्रहायेत्येषः-अनन्तरोक्तो मार्गः आराद्याताः सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्याः-तीर्थकृतस्तैः 'प्रवेदितः' कथितो, न तु यथा बोटिकैः कुण्डिका तट्टिका लम्बणिका अश्ववालधिवालादि स्वरुचिविरचितो मार्ग इति, न वा यथा मौगलिखातिपुत्राभ्यां
अध्यात्मनोऽपि देहे भाचरन्ति ममायितुम्,
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[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [५], मूलं [९१], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
ཊྛ པཎྞཾ ༔ རྒྱུ ཀྵ བློ
श्रीआचा-13 शौद्धोदनि ध्वजीकृत्य प्रकाशितः, इत्यनया दिशा अन्येऽपि परिहार्या इति । इह तु स्वशास्त्रगौरवमुखादयितुमायः लोक.वि.२ राङ्गवृत्तिः प्रवेदित इत्युक्तम् , अस्मिंश्चार्यप्रवेदिते मार्गे प्रयत्नवता भाव्यमिति, आह च-'जहेत्थ' इत्यादि, लब्ध्वा कर्मभूमि (शी०) मोक्षपादपबीजभूतां च बोधि सर्वसंवरचारित्रं च प्राप्य तथा विधेयं यथा 'कुशलो' विदितवेद्यः 'अत्र' अस्मिन्नार्यप्रवे-
II |दिते मार्गे आत्मानं पापेन कर्मणा नोपलिम्पयेत् इति । एवं चोपलिम्पनं भवति यदि यथोक्तानुष्ठान विधायित्वं न ॥१३५॥
भवति, सतां चायं पन्धा यदुत-यत्स्वयं प्रतिज्ञातं तदन्त्योच्छासं यावद्विधेयमिति, उक्तं च-"लज्जा गुणीघजननी IN जननीमिवामित्यन्तशुद्धहृदयामनुवर्तमानाः । तेजस्विनः सुखमसूनपि सन्त्यजन्ति, सत्यस्थितिव्यसनिनो न पुनः प्रतिज्ञाम् ॥ १॥” इतिशब्दोऽधिकारसमाप्त्यर्थो, 'ब्रवीमि' इति सोऽहं ब्रवीमि येन मया भगवत्पादारविन्दमुपासता अश्रावीति ॥ परिग्रहादात्मानमपसर्पयेदित्युक्तं, तच्च न निदानोच्छेदमन्तरेण, निदानं च शब्दादिपञ्चगुणानुगामिनः कामाः, तेषां चोच्छेदोऽसुकरो, यत आह
कामा दुरतिक्कमा, जीवियं दुप्पडिवूहगं, कामकामी खलु अयं पुरिसे, से सोयइ जूरइ
तिप्पइ परितप्पइ (सू० ९२) कामा द्विविधाः-इच्छाकामा मदनकामाच, तत्रेच्छाकामा मोहनीयभेदहास्यरत्युद्भवाः, मदनकामा अपि मोहनी-1 यभेदवेदोदयात् प्रादुष्ष्यन्ति, ततश्च द्विरूपाणामपि कामानां मोहनीय कारणं, तत्सद्भावे च न कामोच्छेद इत्यतो ॥१५॥ दुःखेनातिक्रमः-अतिलधन विनाशो येषां ते तथा, ततश्चेदमुक्तं भवति-न तत्र प्रमादवता भाव्यं । न केवलमत्र जी
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[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [९२], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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टीप
|वितेऽपि न प्रमादयता भाव्यमिति, आह च-'जीवियं' इत्यादि, जीवितम्-आयुष्कं तत् क्षीणं सत् 'दुष्प्रतिबृहणीय'। दुरभावार्थे, नैव वृद्धि नीयते इतियावत्, अथवा जीवितं-संयमजीवितं तदुष्प्रतिबृंहणीयं, कामानुषक्तजनान्तर्वतिना दुःखेन वृद्धिं नीयते, दुःखेन निष्प्रत्यूहः संयमः प्रतिपाल्यते इति, उक्तं च- आगासे गंगसोउम्ब, पडिसोउब दुत्तरो। बाहाहिं चेव गंभीरो, तरिअब्बो महोअही ॥१॥ वालुगाकवलो चेव, निरासाए हु संजमो । जवा लोहमया चेव, चावेयच्चा सुदुकरं ॥२॥" इत्यादि, येन चाभिप्रायेण कामा दुरतिक्रमा इति प्रागभ्यधायि तमभिप्रायमाविष्कुर्वनाह-8 'कामकामी' इत्यादि, कामान् कामयितुम्-अभिलषितुं शीलमस्येति कामकामी 'खलुः' वाक्यालङ्कारे 'अयम्' इत्यध्यक्षः 'पुरुषः' जन्तुः । यस्त्वेवंविधोऽविरतचेताः कामकामी स नानाविधान् शारीरमानसान् दुःख विशेषाननुभवतीति दर्शयति-से सोयईत्यादि, 'स' इति कामकामी ईप्सितस्यार्थस्याप्राप्तौ तद्वियोगे च स्मृत्यनुपङ्गः शोकस्तमनुभवति अथवा शोचत इति काममहाज्वरगृहीतः सन् प्रलपतीति, उक्तं च-गते प्रेमाबन्धे प्रणयबहुमाने च गलिते, निवृत्ते सद्भावे जन इव जने गच्छति पुरः । तमुत्प्रेक्ष्योतोक्ष्य प्रियसखि! गतांस्तांश्च दिवसान्, न जाने को हेतुर्दलति शतधा यन्न हृदयम् ॥१॥" इत्यादि शोचते, तथा 'जूरइ'त्ति हृदयेन खिद्यते, तद्यथा-"प्रथमतरमधेदं चिन्तनीयं तवासीद्बहुजनदयितेन प्रेम कृत्वा जनेन । हतहृदय ! निराश! क्लीय! संतप्यसे किं?, न हि जगततोये सेतुबन्धाः क्रियन्ते ॥१॥"
आकाशे गङ्गाश्रोत इव, प्रतिश्रोत इव तुल्तरः । बाहुभ्यामेव गम्भीरत्तरीतव्यो महोदधिः ॥ १॥ वाचकाकवल दव, निराखाद एव संयमः । यदा लोहमया एव, चयितव्याः सुदुष्करम् ॥ २॥
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[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [५], मूलं [९२], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥१३६ ॥
इत्येवमादि, तथा तिप्पई'त्ति 'तिपू ते प्रक्षरणाौँ तेपते-क्षरति सचलति मर्यादातो अश्यति निमर्यादो भवतीतियावत् , लोक.वि.२ तथा शारीरमानसैदुःखैः पीज्यते, तथा परिः-समन्ताद्वहिरन्तश्च तप्यते परितप्यते, पश्चात्तापं वा करोति, यथेष्टे पुत्रकलत्रादौ कोपात् कचिद्गते स मया नानुवर्तित इति परितप्यते, सर्वाणि चैतानि शोचनादीनि विषयविषावष्टब्धान्त:कर
उद्देशका णानां दु:खावस्थासंसूचकानि, अथवा शोचत इति यौवनधनमदमोहाभिभूतमानसो विरुद्धानि निषेव्य पुनर्वय परिणा| मेन मृत्युकालोपस्थानेन वा मोहापगमे सति किं मया मन्दभाग्येन पूर्वमशेषशिष्टाचीर्णः सुगतिगमनैकहेतुर्दुर्गतिद्वारप-|| रिघो धम्मों नाचीर्णः? इत्येवं शोचत इति, उक्तं च "भवित्री भूतानां परिणतिमनालोच्य नियता, पुरा यद्यत् किश्चि|द्विहितमशुभं यौवनमदात् । पुनः प्रत्यासन्ने महति परलोकैकगमने, तदेवैकं पुंसां व्यथयति जराजीर्णवपुपाम् ॥१॥" तथा जूरतीत्यादीन्यपि स्वबुद्ध्या योजनीयानि, उक्तं च-"सगुणमपगुणं वा कुर्वता कार्यजातं, परिणतिरवधार्या यत्नतः पण्डितेन । अतिरभसकृतानां कर्मणामाविपत्तेर्भवति हृदयदाही शल्यतुल्यो विपाकः ॥ १॥" इत्यादि । कः पुनरेवं न शोचत इत्याह
आययचक्खू लोगविपस्सी लोगस्स अहो भागं जाणइ उडे भागं जाणइ तिरियं भार्ग जाणइ, गदिए लोए अणुपरियडमाणे, संधि विइत्ता इह मच्चिएहि, एस वीरे
॥१३६॥ पसंसिए जे बद्धे पडिमोयए जहा अंतो तहा बाहिं जहा बाहिं तहा अंतो, अंतो
SARERatininemarana
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[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [९३], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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दीप
ACCACANC4%ACHCRACTOS
अंतो पूइ देहंतराणि पासइ पुढोवि सवंताई पंडिए पडिलेहाए (सू०९३) आयत-दीर्घमैहिकामुष्मिकापायदर्शि चक्षुः-ज्ञानं यस्य स आयतचक्षुः, कः पुनरित्येवंभूतो भवति ? यः कामानेकान्तेनानर्थभूयिष्ठान् परित्यज्य शमसुखमनुभवति, किं च 'लोगविपस्सी' लोकं विषयानुषङ्गावेशाप्तदुःखातिशयं तथा त्यक्तकामावाप्तपशमसुखं विविधं द्रष्टुं शीलमस्येति लोकविदर्शी, अथवा लोकस्य अधिस्तिर्यग्भागगतिकारणायुष्कसुखदुःखविशेषान् पश्यतीति, एतदर्शयति-'लोगस्स' इत्यादि, लोकस्य-धर्माधर्मास्तिकायावच्छिन्नाकाशखण्डस्याधोभागं जानातीति-स्वरूपतोऽवगच्छति, इदमुक्तं भवति-येन कर्मणा तत्रोपद्यन्तेऽसुमन्तः यादृक् तत्र सुखदुःखविपाको भवति तं जानाति, एवमूर्द्धतिर्यग्भागयोरपि वाच्यं, यदिवा लोकविदशीति-कामार्थमर्थोपार्जनप्रसक्तं गृद्धमध्युपपन्नं लोकं पश्यतीति । एतदेव दर्शयितुमाह-'गड्डिए' इत्यादि, अयं हि लोको 'गृद्धः' अध्युपपन्नः कामानुषङ्गे तदुपाये वा तत्रैवानुपरिवर्त्तमानो भूयो भूयस्तदेवाचरंस्तजनितेन वा कर्मणा संसारचक्रेऽनुपरिवर्त्तमानः-पर्यटनायतचक्षुषो गोचरीभवन् कामाभिलापनिवर्तनाय न प्रभवति?, यदिवा कामगृद्धान् संसारेऽनुपरिवर्त्तमानानसुमतः पश्येत्येवमुपदेशः, अपि च-'संधि' इत्यादि, इह 'मर्येषु' मनुजेषु यो ज्ञानादिको भावसन्धिः , स च मर्येष्वेव सम्पूर्णो | भवतीति मत्स्यग्रहणम् , अतस्तं विदित्वा यो विषयकषायादीन् परित्यजति स एव वीर इति दर्शयति-'एस' इत्यादि, 'एषः' अनन्तरोक्का आयतचक्षुर्यधावस्थितलोकविभागस्वभावदर्शी भावसन्धेर्वेत्ता परित्यक्तविषयतर्पो वीरः कर्मवि-11 दारणात् 'प्रथंसितः' स्तुतः विदिततत्वैरिति । स एवंभूतः किमपरं करोतीति चेदित्याह-'जे बढे' इत्यादि, यो|
अनक्रमा
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[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [9], मूलं [९३], नियुक्ति : [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः (शी.)
लोक.वि.२ उद्देशकः५
सूत्रांक
[९३]
॥१३७॥
दीप
बद्धान् द्रव्यभाववन्धनेन स्वतो विमुक्तोऽपरानपि मोचयतीत्येतदेव द्रव्यभावबन्धनविमोक्षं वाचोयुक्त्याऽऽचष्टेजहा अंतो तहा बाहिं' इत्यादि, यथाऽन्तर्भावबन्धनमष्टप्रकारकर्मनिगडनं मोचयति एवं पुत्रकलनादि बाह्यमपि, यधा वा वाह्यं बन्धुबन्धनं मोचयति एवं मोक्षगमनविघ्नकारणमान्तरमपीति, यदिवा-कथमसी मोचयतीति चेत्तत्त्वाविर्भावनेन, स्यादेतत्-तदेव किंभूतमित्याह-'जहा अंतो' इत्यादि, यथा स्वकायस्यान्तः-मध्ये अमेध्यकललपिशितासक्पूत्यादिपूर्णत्वेनासारत्वमित्येवं बहिरण्यसारता द्रष्टव्या, अमेध्यपूर्णघटवदिति, उकं च-“यदि नामास्य कायस्य, यदन्तस्तद्वहिर्भवेत् । दण्डमादाय लोकोऽयं, शुनः काकांश्च वारयेत् ॥ १ ॥” इति, यथा वा बहिरसारता तथाऽन्तरपीति । किं च–'अन्तो अन्तो' इत्यादि, देहस्य मध्ये मध्ये पूत्यन्तराणि-पूतिविशेषान् 'देहान्तराणि' देहस्यावस्थाविशेषान् , इह मांसमिह रुधिरमिह मेदो मज्जा चेत्येवमादि पूतिदेहान्तराणि पश्यति' यथावस्थितानि परिच्छिन्नत्तीत्युक्तं भवति, यदिवा देहान्तराण्येवंभूतानि पश्यति–'पुढो' इत्यादि, 'पृथगपि' प्रत्येकमपि अपिशब्दात्कुष्ठाद्यवस्थायां योगपोनापि स्रवन्ति नवभिः श्रोत्रोभिः कर्णाक्षिमलश्लेष्मलालाप्रश्रवणोच्चारादीन् तथाऽपरव्याधिविशेषापादितत्रणमुखपूतिशोणितरसिकादीनि चेति । यद्येतानि ततः किं?-पंडिए पडिलेहाए' एतान्येवभूतानि गलच्छोतोत्रणरोमकूपानि 'पण्डितः' अवगततत्त्वः 'प्रत्युपेक्षेत' यथावस्थितमस्य स्वरूपमवगच्छेदिति, उक्तं च-"मंसहिरु
मासास्थिरुधिरनाववनद्धकाल्मषमेदमजामिः । पूर्णे चर्मकोशे दुर्गन्धेऽशुधियीभत्से ॥ १॥ संचारक( प्रवत् )यश्चमलमूत्रान्तस्वेदपूर्ने । देहे भवेत् किं रागकारणं अशुचिहेती ॥२॥
अनक्रमा
॥१७॥
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[९३]
दीप
अनुक्रम
[९५]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
-
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [५], मूलं [९३], निर्युक्ति: [१९७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ... आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
| हिरण्हारुवणद्ध कलमलयमेयमज्जासु । पुण्णंमि चम्मकोसे दुग्गंधे असुइबीभच्छे ॥ १ ॥ संचारिमजंतगलंतवच्चमुत्तंतसेअपुण्णमि । देहे हुज्जा किं रागकारणं असुइहेउम्मि ? ॥ २ ॥" इत्यादि । तदेवं पूतिदेहान्तराणि पश्यन् पृथगपि स्रव - न्तीत्येवं प्रत्युपेक्ष्य किं कुर्यादित्याह
'से मइमं परिन्नाय मा य हु लालं पच्चासी, मा तेसु तिरिच्छमप्पाणमावायए, कासंकासे खलु अयं पुरिसे, बहुमाई कडेण मूढे, पुणो तं करेइ लोहं वेरं वढ्ढेइ अप्पणो, जमिणं परिकहिज्जइ इमस्स चेव पडिवूहणयाए, अमरा य महासड्डी अट्टमेयं तु पेहाए अपरिण्णाए कंदइ (सू० ९४ )
'स' पूर्वोक्को यतिर्मतिमान् श्रुतसंस्कृतबुद्धिर्यथावस्थितं देहस्वरूपं कामस्वरूपं च द्विविधयाऽपि परिज्ञया परिज्ञाय किं कुर्यादित्याह - 'मा य हु' इत्यादि, 'मा' प्रतिषेधे चः समुच्चये दुर्वाक्यालङ्कारे, ललतीति लाला - अनुव्यन्मुखश्लेष्मसन्ततिः तां प्रत्यशितुं शीलमस्येति प्रत्याशी, वाक्यार्थस्तु यथा हि बालो निर्गतामपि लालां सदसद्विवेकाभावात् पुनरप्यश्नातीत्येवं त्वमपि लालावत्यक्त्वा मा भोगान् प्रत्यशान, वान्तस्य पुनरप्यभिलाषं मा कुर्वित्यर्थः । किं च'मा तेसु तिरिच्छं' इत्यादि, संसारश्रोतांसि अज्ञानाविरति मिथ्यादर्शनादीनि प्रतिकूलेन वा तिरश्चीनेन वाऽतिक्रमणीयानि, निर्वाणश्रोतांसि तु ज्ञानादीनि तत्रानुकूल्यं विधेयं, मा तेष्वात्मानं तिरश्चीनमापादयेः, ज्ञानादिकार्ये प्रतिकूलतां मा
Education Internation
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [9], मूलं [९४], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः (शी०)
॥१३८॥
विदध्याः, तत्राप्रमादवता भाव्यं, प्रमादवांश्चेहैव शान्ति न लभते, यत आह-कासकासें' इत्यादि, यो हि ज्ञाना- लोक.वि.२ दिश्रोतसि तिरश्चीनवत्ती भोगामिलापवान् स एवंभूतोऽयं पुरुषः सर्वदा किंकर्तव्यताकुल इदमहमकार्षमिदं च करिष्ये || इत्येवं भोगाभिलापक्रियाव्यापृतान्तःकरणो न स्वास्थ्यमनुभवति, खलुशब्दोऽवधारणे, वर्तमानकालस्यातिसूक्ष्म
उद्देशका५ त्वादसंव्यवहारित्वमतीतानागतयोश्चेदमहमकार्पमिदं च करिष्य इत्येवमातुरस्य नास्त्येव स्वास्थ्यमिति, उक्तं च-"इदं तावत् करोम्यद्य, श्वः कर्ताऽस्मीति चापरम् । चिन्तयन्निह कार्याणि, प्रेत्याध नावबुध्यते ॥१॥" अत्र दधिघटिकाद्रमकद्रष्टान्तो वाच्यः, स चार्य-द्रमकः कश्चित् कचिन्महिषीरक्षणावाप्तदुग्धः तद्दधीकृत्य चिन्तयामास, ममातो घृतवेतनादि यावदार्या अपत्योत्पत्तिस्ततश्चिन्ता, कलहे पाणिप्रहारेणैव दधिघटिकाव्यापत्तिरित्येचंचिन्तामनोरथव्याकुलीकृतान्तःकरण इति तद्दयानयने शिरोविण्टलीकाचीवरे आदीयमाने श्व शिरो विधूयास्फोटिता दधिषटिकित्येवं यथा तेन न तद्दधि भक्षितं नापि कस्मैचित्पुण्याय दत्तम्, एवमन्योऽपि कासकस:-किंकर्तव्यतामूढो निष्फलारम्भो भवतीति, अथवा कस्यतेऽस्मिन्निति कासः-संसारस्तं कषतीति-तदभिमुखो यातीति कासंकषः, यो ज्ञानादिप्रमादवान् वक्ष्यमाणो वेत्याह-बहुमायी' कासंकषो हि कषायैर्भवति, तन्मध्यभूताया मायाया ग्रहणे तेषामपि ग्रहणं द्रष्टव्यमिति, ततः क्रोधी मानी माथी लोभीति द्रष्टव्यमिति । अपि च-'कडेण मूर्ट' करणं कृतं तेन मूढः| किंकर्त्तव्यताकुला सुखार्थी दुःखमश्रुते इति, उक्त हि-“सो सोवणकाले मजणकाले य मजिउं लोलो। जेमेङ च||A॥१३८॥
खपितुं शयनकाले मज्जनकाले न मई लोलः (चपलः) । जेमितुं न वराको जेमनकाले न पानोति ॥ १॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [9], मूलं [९४], नियुक्ति : [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [९४]
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दीप
बराओ जेमणकाले नचाएइ ॥१॥" अत्र मम्मणवणिग्दृष्टान्तो वाच्यः, स चैवं कासंकषः बहुमायी कृतेन मूढस्त
तत्करोति येनात्मनो वैरानुषङ्गो जायत इति, आह च-पुणो तं करेई'त्यादि, मायावी परवञ्चनबुद्ध्या पुनरपि तत्मालोभानुष्ठान तथा करोति येनात्मनो वैरं वद्धेते, अथवा तं लोभं करोतीति-अर्जयति येन जन्मशतेष्वपि वैरं वर्द्धता
इति, उक्तं च-"दुःखातः सेवते कामान् , सेवितास्ते च दुःखदाः । यदि ते न प्रियं दुःखं, प्रसङ्गस्तेषु न क्षमः॥१॥"
किं पुनः कारणमसुमांस्तत्करोति येनात्मनो वैरं वर्द्धते, इत्याह-जमिणं इत्यादि, 'यदिति यस्मादस्वैव-विशसारारोः शरीरकस्य परिबृंहणार्थ प्राणघातादिकाः क्रियाः करोतीति, ते च तेनोपहताः प्राणिनः पुनः शतशो मन्ति,
ततो मयेदं कथ्यते-कासंकषः खल्वयं पुरुषो बहुमायी कृतेन मूढः पुनस्तत्करोति येनात्मनो वैरं वर्धयतीति, यदिवा यदिदं मयोपदेशप्रायं पौनःपुन्येन कथ्यते तदस्यैव संयमस्य परिवहणार्थम्, इदं चापरं कथ्यते-'अमराय' इत्यादि। अमरायतेऽनमरः सन् द्रव्ययौवनप्रभुत्वरूपावसक्तोऽमर इवाचरति अमरायते, कोऽसौ ?-'महाश्रद्धी' महती चासो श्रद्धा च महाश्रद्धा सा विद्यते भोगेषु तदुपायेषु वा यस्य स तथा, अत्रोदाहरण-राजगृहे नगरे मगधसेना गणिका, तत्र कदाचिद्धनः सार्थवाहो महता द्रव्यनिचयेन समन्वितः प्रविष्टः, तद्रूपयौवनगुणगणद्रव्यसम्पदाक्षिप्तया मगधसेनयाऽसावभिसरिता, तेन चायव्ययाक्षिप्तमानसेनासी नावलोकिताऽपि, अस्याश्चात्मीयरूपयौवनसौभाग्यावलेपान्महती दुःखासिकाऽभूत्, ततश्च तां परिम्लानवदनामवलोक्य जरासन्धेनाभ्यधायि-किं भवत्या दुःखासिका कारण ?, केन वा सा मुपितेति, सा स्ववादीद्-अमरेणेति, कथमसावमर इत्युक्त तया सद्भावः कथितो निरूपितश्च यावत्तथैवाद्या
अनक्रम
SEX
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [9], मूलं [९४], नियुक्ति : [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
उद्देशका ५
श्रीआचा- Iप्यास्त इत्यतो भोगार्थिनोऽर्थे प्रसका अजरामरवक्रियासु प्रवर्तन्त इति । यश्चामरायमाणः कामभोगाभिलाषुकः स लोक.वि.२
किंभूतो भवतीत्याह-'अ' इत्यादि, अतिः-शारीरमानसी पीडा तत्र भव आर्तस्तमार्त्तममरायमाणं कामार्थ महा-16 (सी०) श्रद्धावन्तं 'प्रेक्ष्य' दृष्ट्वा पर्यालोच्य वा कामार्थयोर्न मनो विधेयं इति, पुनरमरायमाणभोगश्रद्धावतः स्वरूपमुच्यते ।
-'अपरिणाएं' इत्यादि, कामस्वरूपं तद्विपाकं वा अपरिज्ञाय तत्र दत्तावधानः कामस्वरूपापरिज्ञया वा 'क्रन्दते ॥१३९|
भोगेष्वप्राप्तनष्टेषु कासाशोकावनुभवतीति, उक्तं च-"चिन्ता गते भवति साध्वसमन्तिकस्थे, मुक्ते तु तप्तिरधिका रमितेऽप्यतृप्तिः । द्वेषोऽन्यभाजि वशवर्तिनि दग्धमानः, प्राप्तिः सुखस्य दयिते न कथञ्चिदस्ति ॥ १ ॥" इत्यादि । तदेवमनेकधा कामविपाकमुपदर्य उपसंहरति
से तं जाणह जमहं बेमि, तेइच्छं पंडिए पवयमाणे से हंता छित्ता भित्ता लुपइत्ता विलुपइत्ता उद्दवइत्ता, अकडं करिस्सामित्ति मन्नमाणे, जस्सवि य णं करेइ, अलं बा
लस्स संगेणं, जे वा से कारइ बाले, न एवं अणगारस्स जायइ (सू०९५) तिबेमि ॥ 'सेत्ति तदर्थे तदपि हेत्वर्थे, यस्मात्कामा दुःखैकहेतवः तस्मात्तजानीत यदहं ब्रवीमि, मदुपदेशं कामपरित्यागविषयं कणे कुरुतेति भावार्थः । ननु च कामनिग्रहोऽत्र चिकीर्षितः, स चान्योपदेशादपि सिद्ध्यत्येवेत्येतदाशङ्कचाहतेइच्छा इत्यादि, कामचिकित्सां 'पण्डितः' पण्डिताभिमानी प्रवदन्नपरव्याधिचिकित्सामिवोपदिशन्नपरः-तीर्थको जीवोपमर्दे ।
SARERatinintenarana
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [५], मूलं [९५], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
23
प्रत
सूत्रांक
[९५०
वर्तत इति, आह-से हता' इत्यादि, 'स' इत्यविदिततत्त्वः कामचिकित्सोपदेशकः प्राणिनां हन्ता दण्डादिभिः छेत्ता |कर्णादीनां भेत्ता शूलादिभिः लुम्पयिता ग्रन्धिच्छेदनादिना विलुम्पयिता अवस्कन्दादिना अपद्रावयिता प्राणव्यपरो|पणादिना, नान्यथा कामचिकित्सा व्याधिचिकित्सा वा अपरमार्थदृशां सम्पद्यते, किंच-'अकृतं' यदपरेण न कृतं कामचिकित्सनं व्याधिचिकित्सनं वा तदहं करिष्य इत्येवं मन्यमानः हननादिकाः क्रियाः करोति, ताभिश्च कर्मबन्धः, अतो य एवंभूत उपदिशति यस्याप्युपदिश्यते उभयोरप्येतयोरपथ्यत्वादकार्यमिति, आह च-'जस्सवि य णं' इत्यादि. यस्याप्यसावेवंभूतां चिकित्सां करोति, न केवलं स्वस्येत्यपिशब्दार्थः, तयोर्द्वयोरपि कर्तुः कारयितुश्च हननादिकाः | क्रियाः, अतो 'अलं' पर्याप्त 'बालस्य' अज्ञस्य 'सङ्गेन' कर्मबन्धहेतुना कर्तुरिति, योऽप्येतत् कारयति 'बालः' अज्ञस्तस्थायलमिति सण्ट, एतचैवम्भूतमुपदेशदानं विधानं वाऽवगततत्त्वस्य न भवतीत्याह-न एवं' इत्यादि, एवम्भूतं | प्राण्युपमर्दैन चिकित्सोपदेशदानं करणं वा 'अनगारस्य' साधोः ज्ञातसंसारस्वभावस्य न जायतेन कल्पते, ये तु काम-||3|| चिकित्सां व्याधिचिकित्सां वा जीवोपमर्दैन प्रतिपादयन्ति ते बालाः-अविज्ञाततत्त्वाः, तेषां वचनमवधीरणीयमेवेति भावार्थः । इतिः परिसमाप्त्यर्थे, ब्रवीमीति पूर्ववदिति लोकविजयस्य पञ्चमोद्देशकटीका समाप्तेति ।
दीप
अनक्रम
25*5522
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [६], मूलं [९६], नियुक्ति : [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचा
(शी०) ॥१४॥
उक्तः पञ्चमोदेशकः, साम्प्रतं पष्ठ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-संयमदेहयात्रार्थ लोकमनुसरता साधुना लोक.वि.२ लोके ममत्वं न कर्त्तव्यमित्युद्देशार्थाधिकारोऽभिहितः, सोऽधुना प्रतिपाद्यते-अस्य चानन्तरसूत्रसम्बन्धो वाच्यो 'नवमनगारस्य जायत' इत्यभिहितम् , एतदेवात्रापि प्रतिपिपादयिषुराह
8 उद्देशका ६ से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुद्राय तम्हा पावकम्मं नेव कुजा न कारवेजा (सू०९६) । यस्यानगारस्यैतत्पूर्वोक्तं न जायते सोऽनगारस्तत्-प्राण्युपघातकारि चिकित्सोपदेशदानमनुष्ठानं वा संबुद्ध्यमानःअवगच्छन् ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिजया च परिहरन्नादातव्यम् आदानीयं तच्च परमार्थतो भावादानीयं ज्ञानदर्शन-12 चारित्ररूपं तद् 'उत्थाये'त्यनेकार्थत्वादादाय-गृहीत्वा अथवा सोऽनगार इत्येतदादानीयं-ज्ञानाद्यपवर्गककारणमित्येवं स-1 म्यगवबुज्यमानः सम्यक्सयमानुष्ठानेनोत्थाय-सर्व सावयं कर्म न मया कर्तव्यमित्येवं प्रतिज्ञामन्दरमारुह्य, क्त्वाप्रत्ययस्य पूर्वकालाभिधायित्वात् किं कुर्यादित्याह-'तम्हा' इत्यादि, यस्मात् संयमः सर्वसावद्यारम्भनिवृत्तिरूपः तस्मात्तमादाय पापं-पापहेतुत्वात् कर्म क्रियां न कुर्यात् स्वतो मनसाऽपि न समनुजानीयादित्यवधारणफलं, अपरेणापि न कार|येदिति, आह च-न कारवें' इत्यादि, अपरेणापि कर्मकरादिना पापसमारम्भ न कारयेदित्युक्तं भवति, प्राणातिपातमृषावादादत्तादानमैथुनपरिग्रहक्रोधमानमायालोभरागद्वेषकलहाभ्याख्यानपैशून्यपरपरिवादारतिरतिमायामृषावादमिथ्यादर्शनशल्यरूपमष्टादशप्रकारं पापं कर्म स्वतो न कुर्यान्नाप्यपरेण कारयेदेवकाराच्यापरं कुर्वन्तं न समनुजानीयाद्योग|त्रिकेणापि भावार्थः । स्यादेतत्-किमेकं प्राणातिपातादिकं पापं कुर्वतोऽपरमपि दौकते आहोस्विन्नेत्याह
॥१४०
| द्वितीय-अध्ययने षष्ठ-उद्देशक: 'अममत्व' आरब्धः,
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [६], मूलं [९७], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [९७]]
दीप
सिया तत्थ एगयरं विप्परामुसइ छसु अन्नयरंमि, कप्पइ सुहट्टी लालप्पमाणे, सरण दुक्खेण मूढे विपरियासमुवेइ, सएण विप्पमाएण पुढो वयं पकुव्वइ, सिमे पाणा
पव्वहिया, पडिलेहाए नो निकरणयाए, एस परिन्ना पवुच्चइ, कम्मोवसंती (सू०९७) 'स्यात्तत्र' कदाचित्तत्र पापारम्भे 'एकतरं' पृथिवीकायादिसमारम्भं विपरामृशति-पृथिवीकायादिसमारम्भं करोति, एकतरं वाऽऽश्रवद्वारं परामृशति-आरभते स षट्वन्यतरस्मिन् कल्प्यते, यस्मिन्नेवालोच्यते तस्मिन्नेव प्रवृत्तो द्रष्टव्यः, इदमुक्तं भवति-पृथिवीकायादिषु षटूसु जीवनिकायेष्वाश्रवद्वारेषु वा मध्येऽन्यतरस्मिन्नपि प्रवर्त्तमानो यस्मिन्नेव पर्यालोच्यते तस्मिन्नेव कल्प्यते, सर्वस्मिन्नेव वर्त्तत इति भावार्थः । कथमन्यतरस्मिन् पृथिवीकायादिसमारम्भे वर्तमानो|ऽपरकायसमारम्भे सर्वपापसमारम्भे वा वर्तते इत्येवं मन्यते?, कुम्भकारशालोदकप्लावनदृष्टान्तेनैककायसमारम्भकोऽपरकायसमारम्भको भवति, अथवा प्राणातिपाताम्रवद्वारविघटनादेकजीवातिपातादेककायातिपाताद्वा अपरजीवातिपाती द्रष्टव्यः, प्रतिज्ञालोपाच्चानृतो, न च तेन व्यापाद्यमानेनासुमताऽऽत्मा ब्यापादकाय दत्तस्तीर्थकरेण चानुज्ञातोऽतः प्रा[णिनः प्राणान् गृहनदत्तग्राही, सावद्योपादानाच्च पारिग्राहिकः, परिग्रहाच मैथुनरात्रीभोजने अपि गृहीते, यतो नापरिगृहीतमुपभुज्यते परिभुज्यते चेत्यतोऽन्यतरारम्भे षपणामप्यारम्भोऽथवा अनावृतचतुरानवद्वारस्य कथं चतुर्थषष्ठव्रतावस्थानं स्थाद्, अतः पदस्वन्यतरस्मिन् प्रवृत्तः सर्वेष्वपि प्रवृत्त इति, अथवैकतरमपि पापसमारम्भं य आरभते स षट्स्वन्यतरस्मिन् कल्पते-योग्यो भवति, अकर्त्तव्यप्रवृत्तत्वाद्, अथवैकतरमपि यः पापारम्भं करोत्यसावष्टप्रकारं कर्मादाय षट्
अनक्रम
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[९७]
दीप
अनुक्रम [ ९९ ]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [६], मूलं [९७], निर्युक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित......आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचा
॥ १४१ ॥
स्वन्यतरस्मिन् कल्पते- प्रभवति, पौनःपुन्येनोत्पद्यत इत्यर्थः स्यात् किमर्थमेवंविधं पापकं कर्म्म समारभते?, तदुच्यते--- राङ्गवृत्तिः * 'सुहडी लालप्पमाणे' सुखेनार्थः सुखार्थः स विद्यते यस्यासाविति मत्वर्थीयः, स एवम्भूतः सन्नत्यर्थं लपति पुनः पुनर्वा (शी०) लपति लालप्यते वाचा कायेन धावनवल्गनादिकाः क्रियाः करोति मनसा च तत्साधनोपायांश्चिन्तयति, तथाहि सुखार्थी सन् कृष्यादिकर्म्मभिः पृथिवीं समारभते स्नानार्थमुदकं वितापनार्थमग्निं धर्मापनोदार्थं वायुं आहारार्थी वनस्पतिं त्रस कार्य वेत्य संयतः संयतो वा रससुखार्थी सच्चित्तं लवणवनस्पतिफलादि गृह्णात्येवमन्यदपि यथासंभवमायोज्यं । स चैवं लालप्यमानः किंभूतो भवतीत्याह - 'सएण' इत्यादि, यत्तदुप्तमन्यजन्मनि दुःखतरुकर्म्मबीजं तदात्मीयं दुःखतरुकार्यमाविर्भावयति, तच्च तेनैव कृतमित्यात्मीयमुच्यते, अतस्तेन स्वकीयेन 'दुःखेन' स्वकृतकम्मोंदयजनितेन 'मूढः' परमार्थमजानानो 'विपर्यासमुपैति' सुखार्थी प्राण्युपघातकारणमारम्भमारभते, सुखस्य च विपर्यासो दुःखं तदुपैति उक्तं च“दुःखद्विट् सुखलिप्सुमहान्धत्वाददृष्टगुणदोषः । यां यां करोति चेष्टां तया तया दुःखमादत्ते ॥ १ ॥ यदिवा 'मूढो' हिताहितप्राप्तिपरिहाररहितो विपर्यासमुपैति - हितमप्यहितबुद्ध्याऽधितिष्ठत्यहितं च हितबुद्धयेति, एवं कार्याकार्यपथ्यापथ्यवाच्यावाच्यादिष्वपि विपर्यासो योज्यः, इदमुक्तं भवति मोहोऽज्ञानं मोहनीयभेदो वा तेनोभयप्रकारेणापि मोहेन मूढोऽल्पसुखकृते तत्तदारभते येन शारीरमान सदुःखव्यसनोपनिपातानामनन्तमपि काल पात्रतां व्रजतीति । पुनरपि मूढस्यानर्थपरम्परां दर्शयितुमाह - 'सएण' इत्यादि, स्वकीयेनात्मना कृतेन प्रमादेन मद्यादिना 'विविध' मिति मद्यविषयकपायविकथानिद्राणां स्वभेदग्रहणं, तेन पृथग्-विभिन्नं व्रतं करोति, यदिवा पृथु विस्तीर्ण 'वय' मिति वयन्ति- पर्यटन्ति
Education internationa
For Pasta Lise Only
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लोक.वि. २ उद्देशका ६
॥ १४१ ॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [६], मूलं [९७], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [९७]]
दीप
पाणिनः स्वकीयेन कर्मणा यस्मिन् स वयः-संसारस्तं प्रकरोति, एकैकस्मिन् काये दीर्घकालावस्थानाद्, यदिवा कारणे कार्योपचारात् स्वकीयेन नानाविधप्रमादकृतेन कर्मणा वयः-अवस्थाविशेषस्तमेकेन्द्रियादिकललार्बुदादितदहर्जातवालादिव्याधिगृहीतदारिद्यदौर्भाग्यव्यसनोपनिषातादिरूपं प्रकर्षण करोति-विधत्त इति । तस्मिंश्च संसारेऽवस्थाविशेषे वा प्राणिनः
पीड्यन्ते इति दर्शयितुमाह-जंसिमें इत्यादि, यस्मिन् स्वकृतप्रमादापादितकर्मविपाकजनिते चतुर्गतिकसंसारे एकेहन्द्रियाद्यवस्थाविशेषे वा 'इमें प्रत्यक्षगोचरीभूताः 'प्राणा इत्यभेदोपचारात्याणिनः 'प्रव्यथिताः' नानाप्रकारैर्व्यसनोपनि-18
पातैः पीडिताः, सुखार्थिभिरारम्भप्रवृत्तैर्मोहाद्विपर्यस्तैः प्रमादवद्भिश्च गृहस्थैः पाषण्डिकैर्यत्याभासैश्चेति वा । यदि नामात्र प्रव्यथिताः प्राणिनस्ततः किमित्याह-'पडि' इत्यादि, एतत् संसारचक्रवाले स्वकृत कर्मफलेश्वराणामसुमतां गृहस्था| दिभिः परस्परतो वा कर्मविपाकतो वा प्रव्यथनं प्रत्युपेक्ष्य विदितवेद्यः साधुनिश्चयेन नितरां वा नियतं वा क्रियन्ते |नानादुःखावस्था जन्तवो येन तनिकरणं निकारः-शारीरमानसदुःखोत्पादनं तस्मै नो कर्म कुर्याद, येन प्राणिनां पीडो-|| पद्यते तमारम्भं न विदध्यादिति भावार्थः । एवं च सति किं भवतीत्याह-'एस' इत्यादि, येयं सावद्ययोगनिवृत्तिरेषा परिज्ञा-एतत्तत्त्वतः परिज्ञानं प्रकर्षणोच्यते प्रोच्यते, न पुनः शैलूपस्येव ज्ञानं निवृत्तिफलरहितमिति । एवं द्विविधयाऽपि ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया च प्राणिनिकारपरिहारे सति किं भवतीत्याह-कम्मोवसंती'त्ति कर्मणाम्-अशेषद्वन्दवातात्मकसंसारतरुबीजभूतानामुपशान्तिः-उपशमः, कर्मक्षयः प्राणिनिकारक्रियानिवृत्तेर्भवतीत्युक्तं भवति । अस्य च कर्मक्षयप्रत्यूहस्य प्राणिनिकरणस्य मूलमात्मात्मीयग्रहः, तदपनोदार्थमाह
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [६], मूलं [९८, गाथा-१], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचा
प्रत
राङ्गवृत्तिः (शी०)
लोक.वि.२ उद्देशका
सूत्रांक
[९८]
॥१४२॥
||१||
दीप
जे ममाइयमई जहाइ से चयइ ममाइयं, से हु दिपहे मुणी जस्स नत्थि ममाइयं, तं परिन्नाय मेहावी विइत्ता लोगं वंता लोगसन्नं से मइमं परिकमिजासि तिबेमि॥
नारई सहई वीरे, वीरे न सहई रति।जम्हा अविमणे वीरे, तम्हावीरे न रजइ॥१॥(सू०९८) ममायित-मामकं तत्र मतिर्ममायितमतिस्तां यः परिग्रहविपाकज्ञो 'जहाति' परित्यजति स 'ममायित' स्वीकृतं परिग्रह 'जहाति' परित्यजति, इह द्विविधः परिग्रहो-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र परिग्रहमतिनिषेधादान्तरो भावपरिग्रहो निषिद्धः, परिग्रहबुद्धिविषयप्रतिषेधाच्च बाह्यो द्रव्यपरिग्रह इति । अथवा काका नीयते, यो हि परिग्रहाध्यवसायकलुषितं ज्ञानं परित्यजति स एव परमार्थतः सबाह्याभ्यन्तरं परिग्रह परित्यजति, ततश्चेदमुक्तं भवति-सत्यपि सम्बन्धमात्रे चित्तस्य | परिग्रहकालुष्याभावानगरादिसम्बन्धः पृथ्वीसम्बन्धेऽपि जिनकल्पिकस्येव निष्परिग्रहतैव, यदि नामैवं ततः किमित्याह-से हु' इत्यादि, यो हि मोक्षकविघ्नहेतोः संसारभ्रमणकारणात् परिग्रहान्निवृत्ताध्यवसायः, हुः अवधारणे, स एव मुनिः दृष्टो ज्ञानादिको मोक्षपथो येन स दृष्टपथः, यदिवा दृष्टभयः-अवगतसप्तप्रकारभयः शरीरादेः परिग्रहात्साक्षापारम्पर्येण वा पोलोच्यमानं सप्तप्रकारमपि भयमापनीपद्यत इत्यतः परिग्रहपरित्यागे ज्ञातभयत्वमवसीयत इति । एतदेव पूर्वोक्तं स्पष्टयितुमाह-'जस्स' इत्यादि, यस्य 'ममायित' स्वीकृतं परिग्रहो न विद्यते स दृष्टभयो मुनिरिति सम्बन्धः, किं च-तं' इत्यादि, 'ते' पूर्वव्यावर्णितस्वरूपं परिग्रहं द्विविधयाऽपि परिज्ञया परिज्ञाय 'मेधावी' ज्ञात
अनुक्रम [१००+ १०१]
॥१४२॥
RELIGunintentATHREE
( उक्त सूत्र ९८ में एक सूत्र और एक गाथा, दोनों सम्मिलित है, इसीलिए हमारे प्रकाशनमे दोनों को अलग करके क्रम दिए है)
[295]
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[८]
||12||
दीप
अनुक्रम
[१००+
१०१]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [६], मूलं [९८, गाथा- १], निर्युक्तिः [१९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित......आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
ज्ञेयो विदित्वा 'लोकं' परिग्रहाग्रहयोग विपाकिनमे केन्द्रियादिप्राणिगणं 'वान्त्वा' उद्गीर्य 'लोकस्य' प्राणिगणस्य संज्ञा दशप्रकारा अतस्तां 'स' इति मुनिः, किंभूतो ? - ' मतिमान्' सदसद्विवेकज्ञः 'पराक्रमेथाः ' संयमानुष्ठाने समुद्यच्छेः, संयमानुष्ठानोद्योगं सम्यग्विदध्या इतियावद्, अथवाऽष्टप्रकारं कर्मारिषड्वर्ग वा विषयकपायान् वा पराक्रमस्वेति, इतिरधिकारसमाप्तौ ब्रवीमीति पूर्ववत् । स एवं संयमानुष्ठाने पराक्रममाणस्त्यक्तपरिग्रहाग्रहयोगो मुनिः किंभूतो भवतीत्याह-तस्य हि त्यक्तगृह गृहिणीधन हिरण्यादिपरिग्रहस्य निष्किञ्चनस्य संयमानुष्ठानं कुर्वतः साधोः कदाचिन्मोहनीयोदयादरतिराविः स्यात्, तामुत्पन्नां संयमविषयां 'न सहते' न क्षमते, कोऽसौ ?- विशेषेणेरयति--प्रेयरति अष्टप्रकारं कर्म्मारिपड़र्गे येति वीरः शक्तिमान्, स एव वीरोऽसंयमे विषयेषु परिग्रहे वा या रतिरुत्पद्यते तां 'न सहते' न मर्षति, या चारतिः संयमे विषयेषु च रतिस्ताभ्यां विमनीभूतः शब्दादिषु न रज्यति, अतो रत्यरतिपरित्यागान्न विमनस्को भवति नापि रागमुपयातीति दर्शयति-यस्मात्त्यक्तरत्यरतिरविमना वीरस्तस्मात् कारणाद्वीरो 'न रज्यति' शब्दादिविषयग्रामे न गा विदधाति । यत एवं ततः किमित्याह-
सद्दे फासे अहियासमाणे निव्विंद नंदि इह जीवियस्स । मुणी मोणं समायाय, धुणे कम्मसरीरगं ॥ २ ॥ पंतं लूहं सेवंति वीरा संमत्तदंसिणो । एस ओहंतरे मुणी तिन्ने मुत्ते विरए वियाहिए तिबेमि ( सू० ९९ )
For Parts Only
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [६], मूलं [९९, गाथा-२], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [९९]
||२|| दीप
श्रीआचा
यस्माद्वीरो रत्यरती निराकृत्य शब्दादिषु विषयेषु मनोज्ञेषु न रागमुपयाति, नापि दुष्टेषु द्वेष, तस्माच्छब्दान् स्पर्शाश्च || राङ्गवृत्तिः मनोज्ञेतरभेदभिन्नान् 'अहियासमाणे'त्ति सम्यक् सहमानो निर्विन्द नन्दीत्युत्तरसूत्रेण सम्बन्धः, एतदुक्तं भवति-मनो-IN (शी०) ज्ञान् शब्दान् श्रुत्वा न रागमुपयाति, नापीतरान् द्वेष्टि, आद्यन्तग्रहणाचेतरेपामप्युपादानं द्रष्टव्यं, तत्राप्यतिसहन | उद्देशका ६
हे विधेयमिति, उक्तं-"सद्देसु अ भद्दयपावएसु, सोयविसयमुवगएसु । तुडेण व रुद्वेण व समणेण सया न होअव्यं ॥१॥ ॥१४३॥
एवं रूवेसु अभयपावएसु० । तहा गंधेसु अ०॥” इत्यादि वाच्यं, ततश्च शब्दादीविषयानतिसहमानः किं कुर्यादित्याह-निविद' इत्यादि, इहोपदेशगोचरापन्नो विनेयोऽभिधीयते, सामान्येन वा मुमुक्षोरयमुपदेशः, निर्विन्दस्व-जुगुप्सस्व ऐश्वर्यविभवात्मिका मनसस्तुष्टिनन्दिस्ताम् ‘इह' मनुष्यलोके यज्जीवितमसंयमजीवितं वा तस्य या नन्दिः-तुष्टिः प्रमोदो यथा ममैतत्समृद्ध्यादिकमभूभवति भविष्यति वेत्येवंविकल्पजनितां नन्दी जुगुप्सस्व-यथा किमनया पापोपादानहेतुभूतयाऽस्थिरयेति ?, उक्तं च-विभव इति किं मदस्ते ?, च्युतविभवः किं विषादमुपयासि ?। करनिहितकन्दुकसमाः, पातोत्पाता मनुष्याणाम् ॥ १ ॥" एवं रूपवलादिष्वपि वाच्यं, सनत्कुमारदृष्टान्तेनेति, अथवा पञ्चानामप्यतीचाराणामतीतं निन्दति प्रत्युत्पन्नं संवृणोत्यनागतं प्रत्याचष्टे, स्यादेतत्-किमालम्ब्य करोतीत्याह-'मुणी' त्यादि, मुनिखिका| लवेदी यतिरित्यर्थः, मुनेरय मौनः-संयमो, यदिवा मुनेर्भावः मुनित्वं तदप्यसावेव मौनं वा वाचः संयमनम् , अस्य चोपलक्षणार्थत्वात् कायमनसोरपि, अतः सर्वथा संयममादाय, किं कुर्यात् !-धुनीयात् कर्मशरीरकं औदारिकादिश
१ शब्देषु च भनकपापकेषु भोत्रविषणमुपगतेषु । तुटेन का रुष्टेन वा श्रमणेन सदा न भवितव्यम् ॥ १॥ एवं रूपेषु च भनकषापफेषु । तथा गन्धेषु च.
अनुक्रम [१०२+
SARKARTA
॥१४३॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [६], मूलं [९९, गाथा-२], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[९९]
||२|| दीप अनुक्रम [१०२+ १०३]
रीरं वा, अथवा 'धुनीहि' विवेचय पृथकुरु तदुपरि ममत्वं मा विधत्स्वेति भावार्थः । कथं तच्छरीरकं धूयते, ममत्वं||| दवा तदुपरि न कृतं भवतीत्याह-प्रान्त' स्वाभाविकरसरहितं स्वल्प वा 'रूक्षम् आगन्तुकस्नेहादिरहितं 'द्रव्यतो
भावतोऽपि प्रान्त-द्वेषरहितं विगतधूमं रूक्षं-रागरहितमपगताङ्गारं 'सेवन्ते' भुञ्जते, के ?-'वीराः' साधवः, किंभूताः'समत्वदर्शिनः' रागद्वेषरहिताः सम्यक्त्वदर्शिनो वा-सम्यक् तत्त्वं सम्यक्त्वं तद्दर्शिनः परमार्थदृशः, तथाहि-इदं शरीरकं कृतघ्नं निरुपकारि, एतत्कृते प्राणिनः ऐहिकामुष्मिकक्लेशभाजो भवन्ति, अनेकादेशे चैकादेश इतिहरवा, प्रान्तरुक्षसेवी समत्वदर्शी च के गुणमवामोतीत्याह-'एस' इत्यादि, एष इति प्रान्तरूक्षाहारसेवनेन कादिशरीरं| धुनानो भावतो भवीर्घ तरतीति । कोऽसौ ?-'मुनिः' यतिः, अथवा क्रियमाणं कृतमितिकृत्वा तीर्ण एव भवौघ, कश्च भवौघं तरति ?-यो 'मुक्त' सबाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरहितः, कश्च परिग्रहान्मुक्तो भवति ?-यो भावतः शब्दादिविषयाभिष्वङ्गाद्विरतः, ततश्च यो मुक्तत्वेन विरतत्वेन वा विख्यातो मुनिः स एव भवौघं तरति, तीर्ण एवेति वा स्थितम् । इतिरधिकार परिसमाप्ती, ब्रवीमीति पूर्ववत् । यश्च मुक्तत्वविरतत्वाभ्यां न विख्यातः स किंभूतो भवतीत्याह
दुव्वसुमुणी अणाणाए, तुच्छए गिलाइ बत्तए, एस बीरे पसंसिए, अच्चेइ लोयसंजोगं, एस नाए पवुच्चइ (सू० १००)
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [६], मूलं [१००], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचारावृत्तिः (शी०)
सूत्रांक
[१००]
KARE
॥१४४॥
दीप अनुक्रम [१०४]
वसु-द्रव्यमेतच्च भव्येऽर्थे व्युत्पादितं 'द्रव्यं च भव्य' इत्यनेन, भव्यश्च-मुक्तिगमनयोग्यः, ततश्च मुक्तिगमनयोग्यं लोक.वि.२ यद्न्यं तद्वसु, दुष्टं वसु दुर्वसु दुर्वसु चासौ मुनिश्च दुर्वसुमुनिः-मोक्षगमनायोग्यः, स च कुतो भवति-अनाज्ञया-II तीर्थकरोपदेशशून्यः स्वैरीत्यर्थः, किमत्र तीर्थकरोपदेशे दुष्करं येन स्वैरित्वमभ्युपगम्यते ?, तदुच्यते-उद्देशकादेरारभ्य उद्देशका ६ सबै यथासम्भवमायोज्यं, तथाहि-मिथ्यात्वमोहिते लोके संबोधैं दुष्करं व्रतेष्वात्मानमध्यारोपयितुं रत्यरती निग्रहीतुं15 शब्दादिविषयेष्विष्टानिष्टेषु मध्यस्थता भावयितुं प्रान्तरुक्षाणि भोक्तुम् , एवं यथोद्दिष्टया मौनीन्द्राज्ञया असिधारकल्पया दुष्करं सञ्चरितुं, तथाऽनुकूलप्रतिकूलांश्च नानाप्रकारानुपसर्गान् सोढुम्, असहने च कर्मोदयोऽनाधतीतकालसुख|भावना च कारणं, जीवो हि स्वभावतो दुःखभीरुरनिरोधसुखप्रियः, अतो निरोधकल्पायामाज्ञायां दुःखं वसति, अवसंश्च किंभूतो भवतीत्याह-'तुच्छ' इत्यादि, तुच्छो-रिक्तः, स च द्रव्यतो निर्धनो घटादिर्वा जलादिरहितो भावतो ज्ञानादिरहितः, ज्ञानादिरहितो हि क्वचित्संशीतिविषये केनचित्पृष्टोऽपरिज्ञानात् ग्लायति वक्तुं, ज्ञानसमन्वितो वा चारित्ररिक्तः पूजासत्कारभयात् शुद्धमार्गप्ररूपणावसरे ग्लायति यथावस्थितं प्रज्ञापयितुं, तथाहि-प्रवृत्तसन्निधिः सन्निधेर्निर्दोषतामाचष्टे, एवमन्यत्रापीति । यस्तु कपायमहाविषागदकल्पभगवदाज्ञोपजीवकः स सुवसुर्मुनिर्भवत्यरिक्तो न ग्लायति च वक्तुं, यथावस्थितवस्तुपरिज्ञानादनुष्ठानाच, आह च-'एस' इत्यादि, 'एष' इति सुवसुमुनिानाधरितो| यथावस्थितमार्गप्ररूपको वीरः कर्मविदारणात् 'प्रशंसितः' तद्विद्भिः श्लाघित इति । किं च 'अञ्चेई त्यादि, स ॥१४॥ एवं भगवदाज्ञानुवर्तको वीरोऽत्येति-अतिक्रामति, के-लोकसंयोग' लोकेनासंयतलोकेन संयोगः-सम्बन्धः
[299]
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [६], मूलं [१००], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१००
दीप अनुक्रम [१०४]
ममत्वकृतस्तमत्येति, अथवा लोको वाह्योऽभ्यन्तरश्च, तत्र बाह्यो धनहिरण्यमातृपित्रादिः आन्तरस्तु रागद्वेषादिस्तकार्य वा अष्टप्रकारं कर्म तेन साई संयोगमत्येति-अतिलयतीत्युक्तं भवति । यदि नामैवं ततः किमित्याह-'एस इत्यादि, योऽयं लोकसंयोगातिकमः 'एष न्यायः एष सन्मार्गः मुमुक्षूणामयमाचारः 'प्रोच्यते' अभिधीयते, अथवा परम् | आत्मानं च मोक्षं नयतीति छान्दसत्वाकर्तरि घञ् नायः, यो हि त्यक्तलोकसंयोग एष एव परात्मनो मोक्षस्य न्यायः प्रोच्यते-मोक्षप्रापकोऽभिधीयते सदुपदेशात् । स्यादेतत्-किंभूतोऽसावुपदेश इत्यत आह
जं दुक्खं पवेइयं इह माणवाणं तस्स दुक्खस्स कुसला परिन्नमुदाहरंति, इइ कम्म परिन्नाय सव्वसो जे अणन्नदंसी से अणन्नारामे जे अणण्णारामे से अणन्नदंसी, 'जहा पुण्णस्स कथइ तहा तुच्छस्स कत्थइ जहा तुच्छस्स कत्थइ तहा पुण्णस्स
करथइ, (सू० १०१) यदुःख दुःखकारणं वा कर्म लोकसंयोगात्मकं वा 'प्रवेदितं' तीर्थकृभिरावेदितं 'इह' अस्मिन् संसारे 'मानवाना' जन्तूनां, ततः किं?-तस्य 'दुःखस्य' असातलक्षणस्य कर्मणो वा 'कुशला' निपुणा धर्मकथालब्धिसम्पन्नाः स्वसमयपरसमयविद उद्युक्तविहारिणो यधावादिनस्तथाकारिणो जितनिद्रा जितेन्द्रिया देशकालादिक्रमज्ञास्ते एवंभूताः परिज्ञाम्उपादानकारणपरिज्ञानं निरोधकारणपरिच्छेदं चोदाहरन्ति ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिजया च परिहरन्ति परिहारयन्ति
[300]
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१०१]
दीप
अनुक्रम [१०५]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [६], मूलं [१०१], निर्युक्तिः [१९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित......आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
उद्देशकः ६
॥ १४५ ॥
श्रीआचाच । किं च' इति कम्' इत्यादि, इतिः पूर्वप्रक्रान्तपरामर्शको यत्तद्दुःखं प्रवेदितं मनुजानां यस्य च दुःखस्य परिज्ञां लोक.वि. २ राङ्गवृत्तिः ४ कुशला उदाहरन्ति तद्दुःखं कर्म्मकृतं तत्कर्म्माष्टप्रकारं परिज्ञाय तदाश्रवद्वाराणि च तद्यथा - ज्ञानप्रत्यनीकतया ज्ञाना- २ (शी०) वरणीयमित्यादि, प्रत्याख्यानपरिज्ञया प्रत्याख्याय तदाश्रवद्वारेषु 'सर्वशः' सर्वैः प्रकारैर्योगत्रिककरणत्रिकरूपैर्न वर्त्तेत अथवा सर्वशः परिज्ञाय कथयति, सर्वशः परिज्ञानं च केवलिनो गणधरस्य चतुर्दशपूर्वविदो वा, यदिवा सर्वशः कथ५ यति आक्षेपण्याचा चतुर्विधया धर्मकथयेति । सा च कीटकथेत्याह- 'जे' इत्यादि, अन्यद्रष्टुं शीलमस्येत्यन्यदर्शी यस्तथा नासावनन्यदर्शी - यथावस्थितपदार्थद्रष्टा, कश्चैवंभूतो ? - यः सम्यग्दृष्टिमनीन्द्रमवचनाविभूततत्त्वार्थो, यश्चानन्यदृष्टिः सोऽनन्यारामो-मोक्षमार्गादन्यत्र न रमते । हेतुहेतुमद्भावेन सूत्रं लगयितुमाह- 'जे' इत्यादि, यश्च भगवदुपदेशादन्यत्र न रमते सोऽनन्यदर्शी, यश्चैवम्भूतः सोऽन्यत्र न रमत इति उक्तं च- "शिवमस्तु कुशास्त्राणां वैशेषिकपष्टितन्त्रत्री|द्धानाम् । येषां दुर्विहितत्वाद्भगवत्यनुरज्यते चेतः ॥ १ ॥" इत्यादि । तदेवं सम्यक्त्वस्वरूपमाख्यातं कथयंश्चारक्तद्विष्टः कथयतीति दर्शयति- 'जहा पुण्णस्स' इत्यादि, तीर्थकरगणधराचार्यादिना येन प्रकारेण 'पुण्यवतः' सुरेश्वरचक्रवर्त्ति| माण्डलिकादेः 'कथ्यते' उपदेशो दीयते 'तथा' तेनैव प्रकारेण 'तुच्छस्य' इमकस्य काष्ठहारकादेः कथ्यते, अथवा पूर्णो
१ कथाचतुष्टय लक्षणं विदंस्थाप्यते हेतुदृष्टान्तैः समतं यत्र पण्डितैः । स्याद्वादध्वनिसंयुक्तं, या कथाऽऽक्षेपणी मता ॥ १ ॥ मिथ्यादृशां मतं यत्र पूर्वापरविरोधकृत् । तनिराक्रियते सद्भिः सा च विक्षेपणी मता ॥२॥ यस्याः श्रवणमात्रेण भवेन्मोक्षाभिलाषिता । भव्यानां सा च विद्वद्भिः प्रोता संवेदनी कथा ॥३॥ यत्र संसारभोगान स्थितिलक्षणवर्णनम् । वैराग्यकारणं भव्यैः, सोफा निर्वेदनीकथा ॥ ४ ॥
Educatin internation
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।। १४५ ।।
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आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१०१]
दीप
अनुक्रम [१०५]
[भाग-1] “आचार” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [६], मूलं [१०१], निर्युक्तिः [१९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित......आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
जाति कुलरूपाद्युपेतस्तद्विपरीतस्तुच्छो, विज्ञानवान् वा पूर्णस्ततोऽन्यस्तुच्छ इति, उक्तं च--"ज्ञानैश्वर्यधनोपेतो, जात्यस्वयबलान्वितः । तेजस्वी मतिमान् ख्यातः, पूर्णस्तुच्छो विपर्ययात् ॥ १ ॥ एतदुक्तं भवति यथा द्रमकादेस्तदनुग्रहबुद्ध्या प्रत्युपकारनिरपेक्षः कथयत्येवं चक्रवत्यादेरपि यथा वा चक्रवर्त्त्यादेः कथयत्यादरेण संसारोत्तरणहेतुमेवमित रस्यापि, अत्र च निरीहता विवक्षिता, न पुनरयं नियमः एकरूपतयैव कथनीयं तथा हि-यो यथा बुध्यते तस्य तथा कथ्यते, बुद्धिमतो निपुर्ण स्थूलयुद्धेस्त्वन्यथेति, राज्ञश्च कथयता तदभिप्रायमनुवर्त्तमानेन कथनीयं किमसावभिगृहीतमिथ्यादृष्टिरनभिगृहीतो वा संशीत्यापन्नो वा?, अभिगृहीतोऽपि कुतीर्थिकेयुग्राहितः स्वत एव वा १, तस्य चैवम्भूतस्य यद्येवं कथयेद्यथा - " दशसूनासमश्चक्री, दशचक्रिसमो ध्वजः । दशध्वजसमा वेश्या, दशवेश्यासमो नृपः ॥१॥ तद्भक्तिविषयरुद्रादिदेवता भवन चरितकथने च मोहोदयात्तथाविधकम्मोंदये कदाचिदसौ प्रद्वेषमुपगच्छेद् द्विष्टश्वेतद्विदध्यादित्याह च
Eucation International
अवि य हणे अणाइयमाणे, इत्थंपि जाण सेयंति नत्थि, केयं पुरिसे कं च नए ?, एस वीरे पसंसिए, जे बद्धे पडिमोयए, उड्डुं अहं तिरियं दिसासु, से सव्वओ सव्वपरिन्नाचारी, न लिप्पई छणपण, वीरे से मेहावी अणुग्धायणखेयन्ने, जे य बन्धपमुक्खमन्नेसी कुसले पुण नो बद्धे नो मुक्के ( सू० १०२ )
१ तादावन प्र.
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [६], मूलं [१०२], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
लोक.वि.२ उद्देशकः६
सूत्रांक
[१०२]
दीप अनुक्रम [१०६]
श्रीआचा- अपिः सम्भावने, आस्तां तावद्वाचा तर्जनम् , अनाद्रियमाणो हन्यादपि, चशब्दादन्यदप्येवंजातीयक्रोधाभिभूतो रावृत्तिः दण्डकशादिना ताडयेदिति, उक्तं च-"तत्थेष य निढवणं बंधण निच्छुभण कडगमद्दो वा । निम्बिमयं व नरिंदो करेज (शी०) संघपि सो कुद्धो॥१॥" तथा तच्चनिकोपासको नन्दवलात् बुद्धोत्पत्तिकथानकाद्भागवतो वा भल्लिगृहोपाख्यानाद्रौद्रो
वा पेढालपुत्रसत्यक्युमाव्यतिकराकर्णनात् प्रद्वेषमुपगच्छेत् , द्रमककाणकुण्टादि कश्चित्तमेवोद्दिश्योदिश्य उधर्मफलोप॥१४६RIES
दर्शनेनेति । एवमविधिकथनेनेहैव तावद्वाधा, आमुप्मिकोऽपि न कश्चिद्गुणोऽस्तीत्याह च-एत्थं पि' इत्यादि, मुमुक्षोः परहितार्थ धर्मकथा कथयतस्तावत्पुण्यमस्ति, परिषदं त्वविदित्वाऽनन्तरोपवर्णितस्वरूपकथने 'अत्रापि धर्मकथायामपि 'श्रेयः' पुण्यमित्येतनास्तीत्येवं जानीहि, यदिवाऽसौ राजादिरनाद्रियमाणस्तं साधु धर्मकथिकमपि हन्यात् । कथमित्याह-एत्थंपी'त्यादि, यद्यदसौ पशुवधतर्पणादिक धर्मकारणमुपन्यस्यति तत्सदसौ धर्मकथिकोऽत्रापि श्रेयो न विद्यते इत्येवं प्रतिहन्ति, यदिवा यद्यदविधिकथनं तत्र तत्रेदमुपतिष्ठते-अत्रापि श्रेयो नास्तीति, तथाहि-अक्षरकोविदपरिषदि पक्षहेतुदृष्टान्ताननादृत्य प्राकृतभाषया कथनमविधिरितरस्यां चान्यथेति । एवं च प्रवचनस्य हीलनैव केवलं कर्म|बन्धश्च, न पुनः श्रेयो, विधिमजानानस्य मौनमेव श्रेय इति, उक्तं च-"सावजणवज्जाणं वयणाणं जो न याणइ विसेसं । बुलुपि तस्स न खमं किमंग पुण देसणं काउं? ॥१॥” स्थादेतत्-कथं तर्हि धर्मकथा कार्यरयुच्यते-कोऽयं'
१ तत्रैव निष्ठापनं बन्धनं निष्काशनं कटकमदं था । निर्विषयं वा नरेन्द्रः कुर्यात्सहमपि सकुदः॥५॥ २ सावधानवयोर्वचनयोर्यो न जानाति | विशेषम् । वक्तुमपि तस न क्षमं किमक पुनर्देशनां कर्तुम् ॥1॥
ROCCAM
१४६॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [६], मूलं [१०२], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
E%
प्रत
%
सूत्रांक
[१०२]
82%
दीप
इत्यादि, यो हि वश्येन्द्रियो विषयविषपराइन्मुखः संसारोद्विग्नमना वैराग्याकृष्यमाणहृदयो धर्म पृच्छति, तेनाचार्यादिना धर्मकधिकेनासौ पर्यालोचनीयः कोऽयं पुरुषो?, मिथ्यादृष्टिरुत भद्रका, केन वाऽऽशयेनायं पृच्छति, कं च देवताविशेष नतः, किमनेन दर्शनमाश्रितमित्येवमालोच्य यथायोग्यमुत्तरकालं कथनीयं, एतदुक्तं भवति-धर्मकथाविधिज्ञो ह्यात्मना परिपूर्णः श्रोतारमालोचयति द्रव्यतः क्षेत्रतः किमिदं क्षेत्रं तच्चनिकैर्भागयतैरन्या तज्जातीयः पार्श्वस्थादिभिर्वोत्सर्गरुचिभिर्वा भावितं, कालतो दुष्पमादिकं कालं दुर्लभद्रव्यकालं वा, भावतोऽरक्तद्विष्टमध्यस्थभावापन्नमेवं पयालोच्य यथायथाऽसौ बुध्यते तथा तथा धर्मकथा कायाँ, एवमसौ धर्मकथायोग्यः, अपरस्य स्वधिकार एवं नास्तीति, उक्तं च-"जो हेउवायपक्खमि हेउओ आगमम्मि आगमिओ । सो ससमयपण्णवओ सिद्धंतविराहओ अण्णो ॥१॥" य एवं धर्मकथाविधिज्ञः स एव प्रशस्त इत्याह च-'एस' इत्यादि, यो हि पुण्या पुण्यवतोधर्मकथासमदृष्टिविधिज्ञः श्रोतृविवेचकः 'एषः अनन्तरोक्को 'वीरः कर्मविदारकः 'प्रशंसितः' श्लाषितः । किंभूतश्च यो भवतीत्याह-'जे बद्धे इत्यादि, यो ह्यष्टप्रकारेण कर्मणा स्नेहनिगडादिना वा बद्धानां जन्तूनां प्रतिमोचकः धर्मकथोपदेशदानादिना, स च तीयकृद्गणधर आचार्यादिर्वा यथोक्तधर्मकथाविधिज्ञ इति । व पुनर्व्यवस्थितान् जन्तून् मोचयतीत्याह-'उहुं' इत्यादि, ऊर्दू ज्योतिकादीन् अधो भवनपत्यादीन् तिर्यक्षु मनुष्यादीनिति । किं च-'से सवओ' इत्यादि, 'स' इति वीरो बद्धपतिमोचकः 'सर्वतः सर्वकालं सर्वपरिशया द्विविधयाऽपि चरितुं शीलमस्येति सर्वपरिज्ञाचारी-विशिष्टज्ञानाम्वितः सर्वसंवरचारित्रो
यो हेतुवादपक्षे हेतुक आगमे आगमिकः । स समयप्रापकः सिद्धान्तविराथकोऽन्यः ॥ १॥
अनुक्रम [१०६]
[304]
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [६], मूलं [१०२], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
राङ्गवृत्तिः
लोक.वि.२ उद्देशका
सूत्रांक
[१०२]
दीप अनुक्रम [१०६]
श्रीआचा-16 पेतो वा, स एवंभूतः के गुणमवाप्नोतीत्याह-न लिप्पईत्यादि, 'न लिप्यते' नावगुण्ठ्यते, केन?-क्षणपदेन' हिंसासदेन
प्राण्युपमर्दजनितेन, 'क्षणु हिंसायामि त्यस्यैतद्रूपं। कोऽसौ?, वीर इति । किमेतावदेव वीरलक्षणमुतान्यदप्य(स्त्य)स्तीत्याह(शी०)
|से मेहावी त्यादि, स 'मेधावी' बुद्धिमान् यः 'अणोद्घातनस्य खेदज्ञः' अणत्यनेन जन्तुगणश्चतुर्गतिक संसारमित्यर्ण॥१४७॥ कर्म तस्योत्-प्राबल्येन घातनम्-अपनयनं तस्य तत्र वा खेदज्ञो-निपुणः, इह हि कर्मक्षपणोद्यतानां मुमुक्षूणां यः
| कर्मक्षपणविधिज्ञः स मेधावी कुशलो वीर इत्युक्तं भवति, किं चान्यत्-'जे य'इत्यादि, यश्च प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशरूपस्य चतुर्विधस्थापि बन्धस्य यः प्रमोक्षः तदुपायो वा तमन्येष्टुं-मृगयितुं शीलमस्येत्यन्वेषी, यश्चैवम्भूतः स वीरो मेधावी खेदज्ञ इति पूर्वेण सम्बन्धः, अणोद्घातनस्य खेदज्ञ इत्यनेन मूलोत्तरप्रकृतिभेदभिन्नस्य योगनिमित्तायातस्य कषायस्थितिकस्य कर्मणो बध्यमानावस्थां बद्धस्पृष्टनिधत्तनिकाचितरूपां तदपनयनोपायं च वेत्तीत्येतदभिहितं, अनेन चापनयनानुष्ठानमिति न पुनरुक्तदोषानुषङ्गः प्रसजति । स्यादेतत्-योऽयमणोद्घातनस्य खेदज्ञो बन्धमोक्षान्वेषको वाऽभिहितः स किं छद्मस्थ आहोस्वित् केवली ?, केवलिनो यथोक्तविशेषणासम्भवात् छद्मस्थग्रहणं, केवलिनस्तर्हि का वार्तेति ?, उच्यते-'कुसले' इत्यादि, कुशलोऽत्र क्षीणघातिकर्मांशो विवक्षितः, स च तीर्थकृत् सामान्यकेवली वा छद्मस्थो हि कर्मणा बद्धो मोक्षार्थी तदुपायान्वेषकः, केवली तु पुनर्घातिकर्मक्षयानो बद्धो भवोपनाहिकर्मसद्भावानो मुक्को, यदिवा छद्मस्थ एवाभिधीयते-'कुशलः' अवाप्तज्ञानदर्शनचारित्रो मिथ्यात्वद्वादशकषायोपशमसद्भावात् तदुद
॥१४७ ॥
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [६], मूलं [१०२], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१०२]
दीप
यवानिव न बद्धोऽद्यापि तत्सत्कर्मतासद्भावान्नो मुक्त इति । एवम्भूतश्च कुशलः केवली छद्मस्थो वा यदाचीर्णवानाचरति वा तदपरेणापि मुमुक्षुणा विधेयमिति दर्शयति
से जं च आरभे जं च नारभे, अणारद्धं च न आरभे, छणं छणं परिणाय लोगसन्नं च सव्वसो (सू० १०३)
'स' कुशलो यदारभते आरब्धवान् वा अशेषकर्मक्षपणोपायं संयमानुष्ठानं यच्च नारभते मिथ्यात्वाविर त्यादिक संसारकारणं, तदारब्धव्यमारम्भणीयमनारब्धमनारम्भणीयं चेति, संसारकारणस्य च मिथ्यात्वाविरत्यादेः प्राणातिपाताद्यष्टादशरूपस्य चैकान्तेन निराकार्यत्वात् , तनिषेधे च विधेयस्य संयमानुष्ठानस्य सामर्थ्यायातत्वात्तन्निषेधमाह'अणारद्धं च' इत्यादि, अनारब्धम्-अनाचीर्ण केवलिभिर्विशिष्टमुनिभिर्वा तन्मुमुक्षुारभते-न कुर्यादित्युपदेशो, यच्च मोक्षाङ्गमाचीर्ण तत्कुर्यादित्युक्तं भवति । यत्तद्भगवदनाचीर्ण परिहार्य तन्नामग्राहमाह-छणं छणं' इत्यादि, 'क्षणु [हिंसायां' क्षणनं क्षणो-हिंसनं कारणे कार्योपचारात् येन येन प्रकारेण हिंसोत्पद्यते तत्तज्ज्ञपरिजया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेद्, यदिवा क्षण:-अवसरः कर्तव्यकालस्तं तं ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्याऽऽसेवनापरिज्ञया च आचरेदिति । किं च-'लोयसझं' इत्यादि, 'लोकस्य गृहस्थलोकस्य संज्ञानं संज्ञा-विषयाभिष्वङ्गाजनितसुखेच्छा परिग्रहसंज्ञा वा तां| च ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिजया च परिहरेत् , कथं? 'सर्वशः सर्वैः प्रकारैर्योगत्रिककरणत्रिकेणेत्यर्थः, तस्यैवं-18
अनुक्रम [१०६]
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Humstaram.org
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आगम (०१)
[भाग-1] “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [६], मूलं [१०४], नियुक्ति: [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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%2-6-07
लोक.वि.२ उद्देशक
सूत्रांक [१०४]
॥१४८॥
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दीप
श्रीआचा-1 विधस्य यथोक्तगुणावस्थितस्य धर्मकथाविधिज्ञस्य बद्धप्रतिमोचकस्य कर्मोद्घातनखेदज्ञस्य बन्धमोक्षान्वेषिणः ससराङ्गवृत्तिः
थव्यवस्थितस्य कुमार्गनिराचिकीहिंसाद्यष्टादशपापस्थानविरतस्यावगतलोकसंज्ञस्य यद्भवति तद्दर्शयति(शी०)
उद्देसो पासगस्स नस्थि, बाले पुणे निहे कामसमणुन्ने असमियदुवखे दुवखी दुक्खा
णमेव आवढे अणुपरियदृइ (सू० १०४) त्ति बेमि ॥ लोकविजयाध्ययनम् २॥ उद्दिश्यते नारकादिव्यपदेशेनेत्युदेशः स 'पश्यकस्य' परमार्थदृशो न विद्यते इत्यादीनि च सूत्राण्युदेशकपरिसमाप्ति यावत्तृतीयोदेशके व्याख्यातानि, तत एवार्थोऽवगन्तव्यः, आक्षेपपरिहारौ चेति । तानि चामूनि बालः पुननिहः कामसमनुज्ञः अशमितदुःखः दुःखी दुःखानामेवावर्तमनुपरिवर्त्तते । इतिः परिसमाप्तौ वीमीति पूर्ववत् ॥ (ग्रन्थानम् २५००)॥ उक्तः षष्ठोद्देशकः ॥ तत्परिसमाप्ती चोक्तः सूत्रानुगमः सूवालापकनिष्पन्न निक्षेपश्च ससूत्रस्पर्शनियुक्तिकः। साम्प्रतं नैगमादयो नयाः, ते चान्यत्र भ्यक्षेण प्रतिपादिता इति नेह प्रतन्यन्ते, संक्षेपतस्तु ज्ञानक्रियानयद्वयान्तर्गत वात्तेषां तावेव प्रतिपाद्यते, तयोरप्यात्मीयपक्षसावधारणतया मोक्षाङ्गत्वाभावात् प्रत्येक मिथ्याष्टित्वम्, अतः पनवन्धवत् परस्परसापेक्षतयेष्टकार्यावाप्तिरवगन्तव्येति उपगम्यते ॥ इति लोकविजयाध्ययनस्य टीका समाता ॥२॥
श्रीआचाराने इतिश्रीशीलाङ्काचार्यवृत्तियुतं लोकविजयाध्ययनं द्वितीयम्
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अनुक्रम [१०८]
2
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MI||१४८॥
SAREILLEGunintainRTATE
आचारागसूत्र श्रुतस्कंध: १, अध्ययन १,२ मूलं एवं शीलांकाचार्य रचिता टीका परिसमाप्ता:
मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्यपाद् आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुन: संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D.]
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नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरूभ्यो नम:
भाग-1 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च “आचाराङ्गसूत्र" [मूलं, भद्रबाहूस्वामी रचित नियुक्ति: एवं शिलांकाचार्य विहित वृत्तिः]
(किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित:
__“आचार" मूलं एवं वृत्ति:” नामेण श्रुतस्कंध- १, अध्ययन- १,२ परिसमाप्त:
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि श्रेणि, भाग-१
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कलपृष्ठ ३१४
५८६
४९८
३९२
५९४
४९४
३३८ ५९२
ઉછર
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? इस भागमे समाविष्ट आगम के नामऔर आगम-क्रम आगम०१ आचार मूलं एवं वृत्ति भाग-१ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन-२,२
आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन से ९, श्रुतस्कन्ध-२ | बागम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन से १३ आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन१४ से १६. श्रुतस्कन्ध-२ आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ स्थान-१ से४ आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ स्थान-५ से १० संपूर्ण आगम ०४ समवाय मूलं एवं वृत्ति. आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-१शतक-१ से ६ आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ शतक-७ से ११ आगम ०५ भगवतीमूलं एवं वृत्ति, भाग-३ शतक-१२ से २० मागम ०५ भगवती मूल एवं वृत्ति, भाग-४ शतक-२१ से ४१ संपूर्ण
आगम ०६शाताधर्मकथा मूलं एवं वृत्ति. | आगम-७,८,९,१०उपासकदशा,संतकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरणमूलं एवं वृत्ति.
मागम-११,१२, विपाक, उववाईमूलं एवं वृत्ति. | बागम १३ राजप्रन्त्रीय मूलं एवं वृत्ति. | आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-१मूलं एवं वृत्ति प्रतिपत्ति-३-अतर्गत] सूत्र-१ से १३८ | आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-२ मूलं एवं वृत्ति प्रतिपत्ति-३-अतर्गत सूत्र-१३९ से प्रतिपत्ती-१० संपूर्ण आगम १५ प्रज्ञापना भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. पद-१ से ५ आगम १५ प्रज्ञापना भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. पद-६ से २२ आगम १५ प्रज्ञापना भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. पद-२३ से ३६ संपूर्ण आगम १६ सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति.
५१४ ३८४
५२२
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३१४ ४८०
४८८ ४२६ ५१४ ३३६
Eto
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कुलपृष्ठ ६१४
३७६ ४२६
३४४
३१२
३३०
४६६
४४२
सवत्तिक-आगम-सत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? इस भागमे समाविष्ट आगम के नामऔर आगम-क्रम आगम १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति माग-१ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार-१ एवं २. आगम१८ जंबूद्विपप्रशप्ति भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार-३ एवं ४. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार-५ से ७. आगम १९ थी ३२ निरयावलिका कल्पवतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशाचतुःशरण, आतुरपरत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, ___ भक्तपरिज्ञा, तंदुलवैचारिक, संस्तारक, गच्छाचार, गणिविद्यादेवेन्द्रस्तव मूल एवं छाया आगम ३३ थी ३९ मरणसमाधिमूलं एवं छाया, निशीथ, हत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कंध, जीतकल्प/पंचकल्प, महानिशीथ मूलं एव आगम ४० आवश्यक मूल एवं वृत्ति, भाग-१, नियुक्ति- १ से ५२१ आगम४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, नियुक्ति-५२२ से ९५१ आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ नियुक्ति-९५२ से १२७३ अपूर्ण, अध्ययन-१ से ४ अपूर्ण] आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ नियुक्ति- १२७३ अपूर्ण से १६२३, [अध्ययन-४ अपूर्ण से ६ संपूर्ण बागम ४१/१ बोधनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति.. आगम ४१/२ पिंडनियुक्ति मूल एवं वृत्ति. आगम ४२ दशवकालिक मूलं एवं वृत्ति. आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, अध्ययन-१ से ५ आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, अध्ययन-६ से २१ आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-३, अध्ययन- २२ से ३६ आगम ४४ नन्दिसूत्र मूलं एवं वृत्ति.
आगम ४५ अनुयोगद्वारमूलं एवं वृत्ति. | कल्प(बारसासूत्र... चतुःशरण, तन्दुलवैचारिक, गच्याचारमूलं एवं वृत्ति.
४६४
४२६
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५९०
५२२
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४६६
५२८
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ਹਾਲ
ਹਲ ਕਲਾਸ ਰ
ਸ
ਮਗਨ
ਹਾਲ ਇਹ
ਗਲ ।
ਬਾਸ ਨਿਵਾਸ
ਗ
ਗ
ਰ
ਸ
ਘ
ਲ
ਹਨ ।
ਹਬ
ਸ
ਸ
ਸ
ਸ
ਸ
ਸ
ਸ
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नमो नमो निम्मलदसणस्स
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि
मूल संशोधक
अभिनव-संकलनकर्ता
Radhoodai
मणिकलालहताना
पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज
___ आगम दिवाकर मुनिश्री दीपस्नसागरजी
[M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि],
प्रत-प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका
मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855/98253062751
[312]
Page #313
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ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
श्री आगम मंदिर
पालिताणा
LION
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________________ आगम आगमआजम आजम भासमा मूल सशाषकाजाम आजम - पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब रागम आगम आगम आगम आगम आगम - 01 'आचार' मूलं एवं वृत्ति: (1) आजम आजम् अभिनव-संकलनकर्ता आजम आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी | [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] आगम आजम् आगम आगम्आजम आजम आजम [314]