Book Title: Prashna Vyakarana Sutra
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: पावयण सच्च जिग्गथपात अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ जो उवा मज्जइस संघ गणाम सययं तं त्रा अ.भा सघम संघ जोधप म जैन संस्कृति जोधपुर कृति रक्षक संघ सधव doodo otoo .. . . धर्मजनसंस्कति शाखाका शाखा कार्यालय नसंस्कृत लाय सुधर्म जनेहरू गेट बाहर, ब्यावर (राजस्थान) संस्कृति रक्षक भारतीय सुधर्म जैनर संस्कृति रक्षक संघ माखिल भारतीय सुधर्म जO: (01462) 251216, 257699,250328 संस्कृति रक्षक संघ आ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ आ संघ अनि रक्षक संघ अनि अति रक्षक संघ अनि स्कृति रक्षक संघ अखि स्कृति रक्षक संघ. अर्ज कसंस्कृलिरक्षक संघ अखिल भारतीय सधर्म जैन साल -स्कृति रक्षक संघ अनि मजनसंस्कतिरक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्मजन संस्कृति स्कृति रक्षक संघ अर रजन संस्कतिरक्षक संघ अखिल भारतीय संघर्म जेनसंस्का स्कृति रक्षक संघ अनि संस्कृति रक्षक संघ अलि स्कृति रक्षक संघ अर्ज स्कृति रक्षक संघ अनि जरातक्षक संघ आँखालमारतीयासुधर्म जगासंस्कृति स्कृति रक्षक संघ अलि यसुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति र स्कृति रक्षक संघ आ यसुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिलभारतीय सुधर्म जैन संस्कृति स्कृति रक्षक संघ अनि यस्चर्मजैन संस्कृति रक्षक तीय-सुधर्म जैन संस्कृतिय स्कृति रक्षक संघ अथि यसुधर्मजन संस्कृति रक्षक aloतीयसुधर्म जैन संस्कृति स्कृति रक्षक संघ अपि यसधर्मजैन संस्कृति रक्षक तीय सुधर्म जैन संस्कृति स्कृति रक्षक संघ । थेसुधर्मजन संस्कृति रक्षक सघ भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति स्कृति रक्षक संघ अनि सधजन संस्कृति रक्षक संघOMभारतीय सुधर्म जैन संस्कृति स्कृति रक्षक संघ अनि सुधर्मजन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति स्कृति रक्षक संघ अपि स्कृति रक्षक संघ अपि स्कृति रक्षक संघ अनि स्कृति रक्षक संघ अपि संस्कृति रक्षक संघ आSXXKOXXKOXXXX स्कृति रक्षक संघ - स्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अ स्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अ स्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षआवरण सौजन्य तीय सुधर्म-जैन संस्कृति रक्षक संघ अ स्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक लिभारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अ स्कृति रक्षक संघ अखिलभारतीय स्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय । स्कृतिमाखिलभारतीय सुधर्म जैन संस्कृतिसक्षक संघ खिलभारतीयसुधर्म जैन सस्कृति रक्षक संघ स्कति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ प्रश्नव्याकरण सूत्र द (शुद्ध मूल पाठ, कठिन शब्दार्थ, भावार्थ एवं विवेचन सहित) कातरक्षकसघऑस्खलभारतीय सधम ACCOPA O 00 विद्या बाल मंडली सोसायटी, मेरठ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ साहित्य रत्नमाला का ५२ वाँ रत्न - - - - - - - - - - - -- प्रश्नव्याकरण सूत्र अनुवादक एवं विवेचक - · रतनलाल डोशी -प्रकाशक... श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर शाखा-नेहरू गेट बाहर, ब्यावर-३०५१०१ * : (०१४६२) २५१२१६, २५७६६६ For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य सहायक उदारमना श्रीमान् सेठ जशवंतलाल भाई शाह, मुम्बई प्राप्ति स्थान १. श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ सिटी पुलिस, जोधपुर 0 2626145 . २. शाखा - श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ,नेहरू गेट बाहर, ब्यावर ३. महाराष्ट्र शाखा - माणके कंपाउंड, दूसरी मंजिल आंबेडकर पुतले के बाजू में, मनमाड़ ४. कर्नाटक शाखा - श्री सुधर्म जैन पौषधशाला भवन, ३८ अप्पुराव रोड़ छठा मेन रोड़ चामराजपेट, बैंगलोर- १८० : 25928439 ५. श्री जशवन्तभाई शाह एदुन बिल्डिंग पहली धोबी तलावलेन पो. बॉ. नं. २२१७, बम्बई-२ ६. श्रीमान् हस्तीमलजी किशनलालजी जैन प्रीतम हाऊसिंग कॉ० सोसायटी ब्लॉक नं. १० स्टेट बैंक के सामने, मालेगांव (नासिक) ७. श्री एच. आर. डोशी जी-३९ बस्ती नारनौल अजमेरी गेट, दिल्ली-६ ८. श्री अशोकजी एस. छाजेड़, १२१ महावीर क्लॉथ मार्केट, अहमदाबाद ९. श्री सुधर्म सेवा समिति भगवान् महावीर मार्ग, बुलडाणा (महा.) १०. प्रकाश पुस्तक मंदिर, रायजी मोंढा की गली, पुरानी धानमंडी, भीलवाड़ा 0 327788 ११. श्री सुधर्म जैन आराधना भवन २४ ग्रीन पार्क कॉलोनी साउथ तुकोगंज, इन्दौर १२. श्री विद्या प्रकाशन मंदिर, विद्या लोक ट्रांसपोर्ट नगर, मेरठ (उ. प्र.) | १३. श्री अमरचन्दजी छाजेड़, १०३ वाल टेक्स रोड़, चैन्नई 0:25357775 | १४. श्री संतोषकुमारजी जैन वर्द्धमान स्वर्ण अलंकार ३९४, शापिंग सेन्टर, कोटा O : 2360950 मूल्य: ३५-०० छठी आवृत्ति १००० वीर संवत् २५३४ विक्रम संवत् २०६५ मई २००८ | मुद्रक : स्वास्तिक प्रिन्टर्स प्रेम भवन हाथी भाटा, अजमेर : 2423295 । For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (प्रस्तावना) किसी भी धर्म का मुख्य आधार श्रुत-साहित्य है। आचार-विचार, उत्थान तथा तात्त्विक विधि-विधानों की जानकारी श्रुत-साहित्य से ही होती है। श्रुत में भी प्राचीन एवं मौलिक श्रुतआगम साहित्य का महत्त्व सर्वाधिक है। यह अनन्तज्ञानी, परम वीतरागी, जिनेश्वर भगवंतों की वाणी है और गणधरादि महापुरुषों के आत्मागम से परम्परागम होती हुई आचार्य श्री देवर्द्धि क्षमाश्रमण द्वारा पुस्तकबद्ध हुई है। प्रत्येक जैनी के लिए आगम श्रुत (सूत्रागम, अर्थागम और उभयागम) आदरणीय है। सूत्रागम का आधार अर्थागम है। जिनेश्वर भगवंत की अतिशय-सम्पन्न वाणी से निकले हुए .. अर्थ को ही गणधर भगवंत ने श्रुतबद्ध किया है। जिनेश्वर भगवंतों से उत्पन्न वह अर्थ, उनके . श्रीमुख से निकल कर प्रत्यक्ष श्रोताओं को प्राप्त हुआ। उन प्रत्यक्ष श्रोताओं में गणधर भगवंत सर्वश्रेष्ठ अर्थ-धारक हुए। उन श्रुतकेवली भगवंतों ने जिनेश्वर के अर्थागम के अल्प भाग को श्रुतबद्ध किया। इससे सिद्ध है कि सूत्र का आधार अर्थ है, अर्थ का आधार सूत्र नहीं है। किन्तु यह ध्यान में रखने की बात है कि अर्थ भी दो प्रकार का होता है। एक अर्थ वह है कि जिसके आधार पर श्रत-सर्जन होता है और दसरे प्रकार के अर्थ का आधार 'श्रत' है। श्रत को जान कर श्रुतानुसारी अर्थ किया जाता है। प्रथम अर्थ का उद्गम अनन्तज्ञान-दर्शनधर जिनेश्वर भगवंत हैं, जिसके आधार पर ग़णधर भगवंत श्रुत की रचना करते हैं। किन्तु दूसरे अर्थ का सर्जन गणधर भगवंतत रचित उस श्रुत का है जो मति-श्रुत ज्ञान वाले आचार्य करते हैं अर्थात् प्रथम अर्थ सर्वज्ञ सर्वदर्शी का है और दूसरा-मति-श्रुत ज्ञान वाले आचार्य का। प्रथम अर्थ तो नियमतः सर्वमान्य होता है किन्तु दूसरे में नियमा नहीं, भजना है। यदि वह अर्थ श्रुत के अनुकूल हुआ, प्रतिकूल नहीं हुआ, तो मान्य होता है और बाधक हुआ, तो अमान्य होता है। बाधक होने का कारण है। श्रुत-सर्जक गणधर भगवन्तों के बाद जो आचार्यादि उस श्रुत का अर्थ करते हैं, उनका ज्ञान एवं क्षयोपशम उतना नहीं होता। समय की दूरी के कारण धारणा में परिवर्तन भी हो जाता है और आचार-विचार में हुई न्यूनता का प्रभाव भी उस अर्थ पर पड़ता है। इन सब में उदयभाव का जोर रहता है। कोईकोई साहसिक व्यक्ति जान-बूझकर भी अर्थ में गड़बड़ी कर देते हैं। मूल में परिवर्तन भी हुआ है, तब अर्थ परिवर्तन में बाधा ही क्या हो सकती है? अतएव वर्तमान में उपलब्ध अर्थ, प्रथम प्रकार का नहीं, दूसरे प्रकार का है, और उसका आधार श्रुत है। जो लोग दूसरे प्रकार के वर्तमान अर्थ For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ---[4] . ******* *************************************************** को प्रथम अर्थ के समान मौलिक एवं परम-मान्य बताने का प्रयत्न करते हैं, वे भ्रम में हैं, अथवा वे चाह कर भ्रम फैलाते हैं। उनके ऐसा करने का कारण प्रायः कमजोरी का बचाव करना है। सत्य बात यह है कि - अत्थं भासइ अरहा........कह कर जो छद्मस्थों एवं सकषाइयों के किये अर्थों को, अरिहंत-प्ररूपित अर्थ के समान बतला कर पूर्ण रूप से मान्य करने का आग्रह करते हैं; वे सत्य से दूर चले जाते हैं। ____अर्थ, शब्द का होता है। अर्थ सामान्य भी होता है और विशेष भी। विशेष अर्थ- नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, अवचूरि, दीपिका, टीका, व्याख्या, विवरण आदि कई नामों से दिया जाता है। जब तक वह विशेष अर्थ, सूत्र के लिए बाधक नहीं बनता, तब तक तो चल सकता है किन्तु जहाँ वह · मनमाना चलने लगा कि गड़बड़ी कर देता है। इसलिए सूत्रकार भगवंत ने कहा कि - - "णिरुद्धगं वा वि ण दीहइजा"-टीका - "निरुद्धम्-अर्थस्तोकं दीर्घवाक्यैर्महता शब्ददर्दुर्दुणार्कविटपिकाष्टिकान्यायेन न कथयेत् निरुद्धं वा स्तोककालीनं व्याख्यानं व्याकरणतर्कादि प्रवेशनद्धारेण प्रसक्त्यानुप्रसक्त्या 'न दीर्घयेत्' न दीर्घकालिकं कुर्यात्, तथा चोक्तम्-"सो अत्थो वत्तव्यो जो भण्णइ अक्खरेहिं थोवेहि। जो पुण थोवो बहु-अक्खरेहिं सो होइ णिस्सारो।" . अर्थात् - छोटे अर्थ को शब्दाडम्बर से बढ़ावें नहीं। टीकाकार कहते हैं कि जो अर्थ छोटा है, उसे शब्दाडम्बर से बढ़ा कर बड़ा नहीं करें। जैसे कि आकड़े की लकड़ी को-'अर्कविटपिकाष्ठिका' कह कर व्यर्थ ही शब्दाडम्बर रचने जैसा कार्य नहीं करे अथवा जो बात थोड़े समय में ही पूर्ण होने योग्य है, उसे व्याकरण और तर्कादि के प्रपंच से बढ़ा कर लम्बावे नहीं। कहा भी है कि - 'साधु वही अर्थ कहे जो अल्प अक्षरों में कहा जाये। जो अर्थ थोड़ा होकर बहुत अक्षरों में कहा जाता है, वह नि:सार समझना चाहिए। (सूत्रकृतांग १-१४-२३) .. अधिक बोलने या लिखने वाले, भान भूलकर कुछ का कुछ कर बैठते हैं। इसके उदाहरण में 'ऋषिभाषित' सूत्र का अनुवाद, 'अमरभारती' मासिक-पत्रिका और अमर-साहित्यादि अनेक उपस्थित किये जा सकते हैं। जिनसे अर्थ का अनर्थ हुआ है। अर्थ के नाम पर अधकचरों और स्वच्छन्दों ने कई धांधलियां की हैं, जो चिन्ताजनक हैं। ___जिनागमों का ज्ञान प्रत्येक जैनी को होना चाहिए। किन्तु खेद है कि बहुत-से साधु-साध्वी भी अपने घर के मौलिक ज्ञान से वंचित है। उन्हें मालूम ही नहीं कि हमारे शाही खजाने में कैसे अमूल्य रत्न भरे पड़े हैं। कई दीक्षित होकर प्रखर-वक्ता और सिद्ध-हस्त लेखक बनने और प्रसिद्धि पाने की धुन अपना लेते हैं। हम प्रचार-पत्रों में देखते हैं कि कई छोटे-छोटे साधु और For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ [5] ********************************************** साध्वियाँ लेखक बन चुके हैं। उनके विषय भी प्राय: सामान्य और लोक-रंजक तथा व्यर्थ-से रहते हैं। उन्हें लेखक बनने का समय. मिल जाता है, परन्तु आगम ज्ञान के अध्ययन का समय नहीं मिलता। उनका पठन, अध्ययन और लेखन प्राय: लौकिक रहता है या एक ही विषय की पुनरावृत्ति होती रहती है। __ हमारा समाज श्रावक-वर्ग को भी आगम का अभ्यास करने का अधिकार देता है और यह बात ठीक भी है। कोई गृहस्थ होने मात्र से आगम-पठन से वंचित नहीं हो सकता। मध्य-युग में गृहस्थों के लिए आगम-वांचन का निषेध किया था, यह उचित नहीं था। आचार्य श्रीहरिभद्रसूरिजी ने अपने 'सम्बोधप्रकरण' ग्रंथ के दूसरे 'कुगुरु गुर्वाभास पासत्थाधिकार' प्रकरण गाथा २६, २७ में श्रावकों का आगम ज्ञाता होना स्वीकार किया है। यथा - "केइ भणंति उ भणइ, सुहमविचारो न सावगाण पुरो। तं न जओ अंगाइसु, सच्चइ तव्वन्नणा एवं ॥२६॥ लद्धट्ठा गहियट्ठा, पुच्छियट्ठा विणिच्छियट्ठा य। अहिंगय जीवाजीवा, अचालणिज्जा पवयणाओ॥ २७॥" - कुछ साधु कहते हैं कि "श्रावकों को साधु धर्म का सूक्ष्म विचार नहीं बताना चाहिए", उनका ऐसा कहना असत्य है। क्योंकि अंगादि शास्त्रों में श्रावकों का वर्णन करते हुए उन्हें आगमों के लब्धार्थ वाले, ग्रहित अर्थ वाले, पृच्छित अर्थ वाले, विनिश्चित अर्थ वाले, जीव-अजीव के ज्ञाता और निर्ग्रन्थ-प्रवचन में दृढ़ बतलाये हैं। अतएव श्रावक का आगमों का पठन-मनन अनुचित नहीं है। किन्तु इसमें खतरा अवश्य है और यह खतरा केवल गृहस्थों के सामने ही नहीं, साधुओं के सामने भी है। मति-भिन्नता, क्षयोपशम की मन्दता या उदय की विचित्रता से समझ-फेर होकर हित के बदले अहित होने का भय रहता है। अपेक्षा-युक्त वचनों को नहीं समझने या अपनी मति-कल्पना से अर्थ लगाने से अनर्थ हो सकता है। अयोग्यता भी एक बहुत बड़ा कारण है। कई ऐसे भी पाठक देखे. हैं कि जो ऐसे सूत्र पढ़ने बैठ जाते हैं कि जिसे समझने की योग्यता उनमें नहीं है। इसके पूर्व उन्हें सामान्य ज्ञान की आवश्यकता है। केवल पुस्तक से और मति-कल्पना से आगम का आशय बराबर समझ में नहीं आता। इसके लिए अनुभवी गुरु का आश्रय लेना आवश्यक हो जाता है। गुरुगम से प्राप्त किया हुआ ज्ञान हितकारी होता है। नन्दी सूत्र और समवायांग सूत्र को देखने से मालूम होता है कि प्रारम्भ में प्रश्नव्याकरण सूत्र का स्वरूप ही दूसरा था। उसमें अंगुष्ठ-प्रश्न, बाहुप्रश्न, आदर्श-प्रश्न और अनेक विद्यातिशय तथा For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [6] . *************************************************************** नागकुमार, सुवर्णकुमार आदि के साथ दिव्य-संवाद आदि के पूछे हुए १०८ प्रश्न, बिना पूछे १०८ प्रश्न और पूछे-बिना पूछे १०८ प्रश्न विषयक विवेचन था। किन्तु वर्तमान प्रश्नव्याकरण सूत्र में यह विषय बिल्कुल नहीं है। कदाचित् भावी अहित की आशंका से इस विषयक प्रश्नों को छोड़कर केवल पांच आस्रव और पांच संवर का विषय, किसी प्रौढ़ अनुभवी आचार्य ने रख दिया हो। वर्तमान विषय तो वास्तव में आत्महित में अत्यन्त उपयोगी है। पाप के स्वरूप को समझ कर त्याग करना ही आत्मोत्थान का प्रधान विषय है। अन्य किसी मूल-सूत्र में इतना विशद विवेचन नहीं है। संस्कृति-रक्षक संघ आगम-ज्ञान का प्रसार करने का प्रयत्न कर रहा है। आगमों के मूलपाठ, शब्दार्थ, भावार्थ और आवश्यक विवेचन के साथ आगमों के प्रकाशन से, सम्यक् ज्ञान की वृद्धि करना, संघ का ध्येय है। हमारी दृष्टि इस समय प्रश्नव्याकरण सूत्र की ओर गई। हमारा अनुमान है कि इस अंग सत्र का स्वाध्याय बहुत कम होता है। बहुत से साधु भी इससे अपरिचित से हैं, तब श्रावकों का तो कहना ही क्या? हमारी दृष्टि में इस आगम की एक विशेषता है। इसके प्रथम भाग में पांच आस्रव-द्वारों का और दूसरे में पांच संवर-द्वारों का जो विवेचन है, वह प्रत्येक जैनी के लिए समझने योग्य है। इसके स्वाध्याय से हेय और उपादेय का सरलता से बोध हो सकता है। इसके सम्पादन का आधार निम्न पुस्तकें रहीं - १. पं० श्री घेवरचन्दजी बांठिया 'वीरपुत्र' द्वारा अनुवादित और श्री अगरचन्द भैरोंदान सेठिया जैन पारमार्थिक संस्था बीकानेर द्वारा प्रकाशित प्रति, २. पूज्य श्री घासीलालजी म. सा. की टीका वाली प्रति, ३. पूज्य श्री हस्तीमल जी म. सा. द्वारा अनुवादित और ४. मुक्ति-विमल जैन ग्रंथमाला अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित श्रीज्ञानविमलसूरि की टीका वाला प्रति। इनके आधार से हमने मूलपाठ, शब्दार्थ, मूलानुवाद और विवेचन प्रस्तुत किया है। ____ हमने इस सूत्र का प्रकाशन लेखमाला के रूप में 'सम्यग्दर्शन' के २०-१-६६ अंक से प्रारम्भ किया था। यह लेखमाला २०-६-७० अंक में पूरी हुई। हमने निवेदन किया था कि विद्वान् पाठक इसे ध्यान पूर्वक पढ़ें और हमें इसमें हुई भूलों से अवगत करावें। किन्तु वैसा नहीं हुआ। हमें आशंका है कि इसमें कई भूलें रही होगी। विद्वत्ता के अभाव में और अकेले ही काम करने के कारण त्रुटियाँ रही होंगी, जिन्हें पाठक सुधारने और हमें सूचित करने की कृपा करें। . भगवान् महावीर निर्वाण की पच्चीसवीं शताब्दी के उपलक्ष में संघ का यह आगम प्रकाशन धर्मप्रिय पाठकगण के लिए अत्यन्त हितकारी हो। इसके प्रकाशन में लागत से भी अल्प मूल्य रखने में एक आगमप्रेमी धर्म-बन्धु की उदारता पूर्ण दानशीलता कारणभूत रही है। वे धन्यवाद के पात्र हैं। - रतनलाल डोशी For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस आवृत्ति के विषय में - [7] निवेदन जैन दर्शन के अनुसार जिन महापुरुषों ने अपने प्रबल पुरुषार्थ से तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन किया उन्हें तीर्थंकर नाम कर्म के उपार्जन के तीसरे भव में तीर्थंकर पद की प्राप्ति होती है । वे अपनी साधना आराधना के बल से चारघाती कर्मों को क्षय करके केवल ज्ञान-दर्शन प्राप्त : करते। इसके पश्चात् चतुर्विध संघ के हित के लिए धर्मोपदेश देकर तीर्थं की स्थापना करते हैं। उनका वह धर्मोपदेश अर्थ रूप में होता है जिसे गणधर भगवन्त सूत्र रूप में गूंथित करते हैं। उनकी वह विमल वाणी जिसे आगम ( सूत्र ) कहा जाता है। चूंकि यह वाणी राग द्वेष के विजेता सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतराग प्रभु द्वारा भाषित है, अतएव इसमें किंचित् मात्र भी दोष की संभावना नहीं रहती और न ही पूर्वापर विरोध या युक्तिबाध ही होती है। आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यक नियुक्ति में लिखा है " तप, नियम, ज्ञान रूप वृक्ष पर आरूढ़ होकर अनन्त ज्ञानी केवली भगवान् भव्य आत्माओं के बोध के लिए ज्ञान कुसुमों की वृष्टि करते हैं। गणधर प्रभु अपने बुद्धि पट में उन सभी कुसुमों को झेल कर प्रवचन माला गूंथते हैं। जैसा कि ऊपर बतलाया कि तीर्थंकर भगवन्त अर्थ रूप ही उपदेश फ़रमाते हैं, जिसे गणधर भगवन्त सूत्र बद्ध अथवा ग्रन्थ बद्ध करते हैं । अर्थात्मक सूत्र के प्रणेना तीर्थंकर प्रभु हैं । इसीलिए आगमों को तीर्थंकर -प्रणीत कहा है। प्रबुद्ध पाठकों को यह स्मरण रखना होगा कि आगम साहित्य की जो प्रामाणिकता है उसका मूल कारण गणधरकृत होने से नहीं, किन्तु उसके अर्थ के प्ररूपक तीर्थंकर की वीतरागता और सर्वज्ञता के कारण है। गणधर केवल द्वादशांगी की रचना करते हैं किन्तु अंग बाह्य आगमों की रचना स्थविर करते हैं । ****** आचार्य मलयगिरि आदि का अभिमत है कि गणधर तीर्थंकर भगवन्त के सन्मुख जब यह जिज्ञासा व्यक्त करते हैं कि तत्त्व क्या है ? उत्तर में तीर्थंकर "उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा " इस त्रिपदी का प्रवचन करते हैं । इस त्रिपदी के आधार पर जिन आगम साहित्य का निर्माण होता - है, वह आगम साहित्य अंग प्रविष्ट के रूप में विश्रुत होता है और अवशेष जितनी भी रचनाएं For Personal & Private Use Only - Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [8] . ******** *********************************************** हैं, वे सभी अंग बाह्य हैं। द्वादशांगी त्रिपदी से उद्भूत है, इसीलिए वह गणधर कृत भी है। यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि गणधरकृत होने से सभी रचनाएं अंग नहीं होती, त्रिपदी के अभाव में युक्त व्याकरण से जो रचनाएं की जाती है, भले ही उन रचनाओं के निर्माता गणधर हो अथवा स्थविर हो वे अंग बाह्य ही कहलायेगी। __ आगम साहित्य के नंदी सूत्र में अंग प्रविष्ट और अंग बाह्य दो भेद किये हैं। उसके पश्चात्वर्ती साहित्य में अंग-उपांग, मूल और छेद के रूप में आगमों का विभाग किया है। प्रस्तुत "प्रश्नव्याकरण सूत्र" मूल अंग प्रविष्ट आगम है। इस आगम के दो श्रुत स्कन्ध हैं। प्रथम श्रुतं स्कन्ध में पांच आस्रव का वर्णन है। इसमें प्रत्येक आस्रव के भेद प्रभेद, किन कारणों से जीव आस्रव का सेवन आदि करते हैं। यह बतलाया गया है। इनके सेवन का कटु फल बतलाते हुए आगमकार फरमाते हैं कि "अन्तर्मुहूर्त" मात्र निकृष्ट मय परिणामों से आस्रव का सेवन करने वाले जीव को सागरोपमों तक दुःख भोगना पड़ता है। बड़ के एक बारीक बीज का वृक्ष कितना विशाल हो जाता है उसके कितने असंख्यात बीज उत्पन्न हो जाते हैं और उसकी परम्परा इतनी बढ़ती रहती है कि जिसका कोई अन्त भी नहीं आता। इसी प्रकार एक मनुष्य भव में किए गए आस्रव के सेवन से आत्मा इतनी अधम बन जाती है कि उस पाप का काला रंग परम्परा से बढ़ता ही जाता है। __ आगमकार ने प्रथम श्रुतस्कन्ध में पांच आस्रवों का स्वरूप एवं सेवन का कटु फल बताकर दूसरे श्रुतस्कन्ध में पांच संवर का स्वरूप एवं महत्व बतलाया है, इसकी आराधना का फल बतलाते हुए आगमकार फरमाते हैं "हे उत्तम व्रतों के धारक जम्बू! ये पांच संवर रूपी महाव्रत, समस्त लोक के लिए हितकारी एवं मंगलकारी है। श्रुतसागर में इन महाव्रतों का उपदेश हुआ है। .. ये पांचों तप संयम और महाव्रत रूप है। शील एवं उत्तम गुणों का समूह इनमें रहा हुआ है। सत्य वचन एवं आर्जवता (सरलता) युक्त ये व्रत नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव गति को रोक कर मुक्ति प्रदान करने वाले हैं। सभी जिनेश्वर भगवन्तों ने इनकी शिक्षा प्रदान की है। ये संवर, कर्म रूपी रज को नष्ट करने वाले हैं। ये सैकड़ों भवों का छेदन कर सैकड़ों दुःखों को मिटाने वाले हैं और सैकड़ों प्रकार के सुखों को प्रदान करते हैं। इन महाव्रतों को कायर जन धारण नहीं कर सकते। इनका पालन सत्पुरुष ही कर सकते हैं। ये पांचों महाव्रत मोक्ष एवं स्वर्ग के प्रदाता है। इन पांच महाव्रतों का उपदेश भगवान् महावीर स्वामी ने दिया है। For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [9] ****************** ******* जिस तरह का पांच आस्रवों और पांच संवरों का विशद वर्णन प्रस्तुत प्रश्न व्याकरण सूत्र में है वैसा वर्णन विस्तृत वर्णन किसी अन्य आगम में नहीं है। अतएव आगम रसिक बंधुओं को इसका अध्ययन अवश्य करना चाहिये। जिससे वह आस्रवों के कटु फल को जानकर इन्हें छोड़ने के लिए प्रेरित हो सके। - संघ की आगम बत्तीसी प्रकाशन में आदरणीय श्री जशवंतलाल भाई शाह, मुम्बई निवासी का मुख्य सहयोग रहा है। आप एवं आपकी धर्म सहायिका श्रीमती मंगलाबेन शाह की सम्यग्ज्ञान के प्रचार-प्रसार में गहन रुचि है। आपकी भावना है कि संघ द्वारा प्रकाशित सभी आगम अर्द्ध मूल्य में पाठकों को उपलब्ध हो तदनुसार आप इस योजना के अन्तर्गत सहयोग प्रदान करते रहे हैं। अतः संघ आपका आभारी है। . .. - आदरणीय शाह साहब तत्त्वज्ञ एवं आगमों के अच्छे ज्ञाता हैं। आप का अधिकांश समय धर्म साधना आराधना में बीतता है। प्रसन्नता एवं गर्व तो इस बात का है कि आप स्वयं तो आगमों का पठन-पाठन करते ही हैं, पर आपके सम्पर्क में आने वाले चतुर्विध संघ के सदस्यों को भी आगम की वाचनादि देकर जिनशासन की खूब प्रभावना करते हैं। आज के इस हीयमान युग में आप जैसे तत्त्वज्ञ श्रावक रत्न का मिलना जिनशासन के लिए गौरव की बात है। आपके पुत्र रत्न मयंकभाई शाह एवं श्रेयांसभाई शाह भी आपके पद चिन्हों पर चलने वाले हैं। आप सभी को आगमों एवं थोकड़ों का गहन अभ्यास है। आपके धार्मिक जीवन को देख कर प्रमोद होता है। आप चिरायु हों एवं शासन की प्रभावना करते रहें, इसी शुभ भावना के साथ! - प्रश्नव्याकरण सूत्र की पूर्व में पाँच आवृत्तियाँ संघ द्वारा प्रकाशित हो चुकी हैं। अब इसकी यह छठी आवृत्ति प्रकाशित की जा रही है। आए दिन कागज एवं मुद्रण सामग्री के मूल्यों में निरंतर वृद्धि हो रही है। इस आवृत्ति में जो कागज काम में लिया गया वह उत्तम किस्म का मेपलिथो है। बाईडिंग पक्र्की तथा सेक्शन है। बावजूद इसके आदरणीय शाह परिवार के आर्थिक सहयोग के कारण इसका मूल्य मात्र 3५) ही रखा गया है, जो अन्यत्र से प्रकाशित आगमों से बहुत अल्प है। सुज्ञ पाठक बंधु संघ के इस नूतन आवृत्ति का अधिक से अधिक लाभ उठावें। इसी शुभ भावना के साथ! ब्यावर (राज.) संघ सेवक दिनांकः २०-५-२००८ नेमीचन्द बांठिया अ. भा. सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *********** क्रमांक हिंसा नामक प्रथम अध्ययन विषयानुक्रमणिका आस्रव नामक प्रथम श्रुतस्कन्ध क्रमांक १. प्राण- वध का स्वरूप २. प्राण - वध के नाम ३. पापियों के पापकर्म ४. जलचर जीवों का वध ५. स्थलचर चतुष्पद जीवों की हिंसा ६. उरपरिसर्प जीवों की हिंसा ७. भुजपरिसर्प जीवों की हिंसा ८. नभचर जीवों का वध ९. विकलेन्द्रिय और पशुओं की पीड़ा १०. हिंसा के कारण ११. ये दीन एवं असहाय प्राणी १२. पृथ्वीकाय की हिंसा के कारण १३. अप्काय की हिंसा के कारण १४. तेजस्काय की विराधना के कारण १५. वायुकाय की विराधना के कारण १६. वनस्पत्तिकाय की हिंसा के कारण १७. हिंसक जीवों का प्रयोजन १८. हिंसक जन १९. हिंसक जातियाँ २०. हिंसा का दुःखद परिणाम २१. नरक का वर्णन [10] पृष्ठ ३ ४ ६ ७ ७ २२. नैरयिकों का बीभत्स शरीर २३. नारकों को दिया जाने वाला लोमहर्षक दुःख २४. नारक जीवों की करुण पुकार ९ ९ २९. तिर्यंच योनि के दुःख १० | ३०. चौरेन्द्रिय जीवों के दुःख ११ ३१. तेइन्द्रिय जीवों के दुःख १३ | ३२. बेइन्द्रियों जीवों के दुःख १५ ३३. एकेन्द्रिय जीवों के दुःख १६ ३४. मनुष्य भव के दुःख १६ / ३५. उपसंहार १७ मृषावाद नामक दूसरा अधर्मद्वार १७ ३६. मृषावाद के नाम १९३७. मृषावादी २० ३८. मृषावादी - नास्तिकवादी का मत २३ | ३९. असद्भाववादी का मत २७ ४०. प्रजापति का सृष्टि-सर्जन २८ ४१. ईश्वरवादी **** ३२ ३६ २५. नरकपालों द्वारा दिये जाने वाले घोर दुःख ३७ २६. नारकों की विविध पीड़ाएँ २७. नारकों के शस्त्र २८. नारकों के मरने के बाद की गति For Personal & Private Use Only पृष्ठ.. ३१ ४२ 6 ४५ ४७ ५२ ५२ ५३ ५३ ५७ ५८ ६२ ६४ & 6 m 2 ६६. ६८ ७२ ७५ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ************************* क्रमांक ४२. विष्णुमय जगत् ४३. एकात्मवाद-अद्वैतवाद ४४. अकर्तृत्ववादी ४५. मृषावाद ४६. झूठा दोषारोपण करने वाले निन्दक ४७. लोभजन्य अनर्थकारी झूठ ४८. उभय घा ४९. पाप का परामर्श देने वाले ५०. हिंसक उपदेश - आदेश ५१. युद्धादि के उपदेश- आदेश ५२. मृषावाद का भयानक फल ५३. भगवान् से कहा हुआ ५४. उपसंहार • अदत्तादान नामक तीसरा अधशंद्वार ५५. अदत्त का परिचय ५६. अदत्त के तीस नाम ५७. चौर्य - कर्म के विविध प्रकार ५८. धन के लिए राजाओं का आक्रमण ५९. युद्ध के लिए शस्त्र - सज्जा ६०. . युद्धस्थल की वीभत्सता ६१. समुद्री डा ६२. ग्रामादि लूटने वालें ६३. चोर को बन्दीगृह में होने वाले दुःख ६४. चोर को दिया जाने वाला दण्ड ६५. चोरों को दी जाती हुई भीषण यातनाएं [11] पृष्ठ क्रमांक ७६ ६६. पाप और दुर्गति की परम्परा ६७. पापियों को प्राप्त संसार सागर ७६ ७७ ६८. पापियों के पाप का फल ७९ अब्रह्मचर्य नामक चौथा आस्त्रवद्वार ८५ ८७ ८९ ९० ९४ ७३. चक्रवर्ती नरेन्द्र के विशेषण ९७ ७४. चक्रवर्ती के शुभ लक्षण ९९७५. चक्रवर्ती की ऋद्धि १०२ ७६. बलदेव और वासुदेव के भोग ७७. अकर्मभूमिज मनुष्यों के भोग १०३ १०५ १०७ १०८ ************************* १२१ १२५ १२९ १३४ ६९. अब्रह्म के गुण-निष्पन्न नाम ७०. अब्रह्म सेवी देवादि ७१. चक्रवर्ती के विशिष्ट भोग ७२. चक्रवर्ती का राज्य विस्तार १११ ८१. परिग्रह का स्वरूप. ११२८२. परिग्रह के गुण-निष्पन्न नाम ११४ ८३. परिग्रह के पाश में देवगण भी बँधे हैं ११८ ८४. कर्मभूमि के मनुष्यों का परिग्रह ८५. विविध कलाएँ भी परिग्रह के लिए ८६. परिग्रह पाप का कटुफल ८७. आस्रवों का उपसंहार १५०. १५२ १५४ १५४ १५५ १५६ १५७ १६२ १७० ७८. अकर्मभूमिज स्त्रियों का शारीरिक वैभव १७७ ७९. पर- स्त्री में लुब्ध जीवों की दुर्दशा ८०. स्त्रियों के लिए हुए जन-संहारक युद्ध परिग्रह नामक पाँचवां अधर्म द्वार पृष्ठ १३६ १३९ १४४ For Personal & Private Use Only १८३ १८५ १८९ १९१ १९२ १९५ १९६ २०० २०२ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . हास्य-त्याग . २५७ [12] ************************************************************* संवर नामक दूसरा श्रुतस्कन्ध क्रमांक पृष्ठ क्रमांक अहिंसा संवरद्वार नामक प्रथम अध्ययन | १०७. चौथी भावना-भय-त्याग ८८, अहिंसा भगवती के साठ नाम २०५ | १०८. पाँचवीं भावना-हास्य-त्याग २४७ ८९. अहिंसा की महिमा २०९ | १०९. उपसंहार ९०. अहिंसा के विशुद्ध दृष्टा.. | दत्तानुज्ञात नामक तृतीय संवरद्वार ९१. आहार की अहिंसक-निर्दोष विधि २१८ | ११०. अस्तेय का स्वरूप . .. २५१ ९२. प्रवचन का उद्देश्य और फल २२३ १११. व्रत विराधक और चोर २५५ ९३. अहिंसा महाव्रत की प्रथम भावना २२३ | ११२. आराधक की वैयावृत्य-विधि ९४. द्वितीय भावना-मन-समिति २२४ | ११३. आराधना का फल ९५. तृतीय भावना-वचन-समिति २२५ / ११४. अस्तेय व्रत की पाँच भावनाएँ, २६० ९६. चतुर्थ भावना-आहारैषणा समिति । २२६ | ११५. प्रथम भावना-निर्दोष उपाश्रय . , २६१ ९७. आहार करने की विधि २२८ | ११६. द्वितीय भावना-निर्दोष संस्तारक ९८. पंचमी भावना-आदान निक्षेपण समिति २२९ | ११७. तृतीय भावना-शय्यासत्यवचन नामक द्वितीय संवरद्वार ___परिकर्म वर्जन . ९९. सत्य की महिमा २३२ | ११८. चतुर्थ भावना-अनुज्ञात भक्तादि १००. सदोष सत्य का त्याग . २३८ | ११९. पाँचवीं भावना-साधर्मिक विनय १०१. बोलने योग्य वचन १२०. उपसंहार २६६ १०२. भगवतोपदेशित सत्य ब्रह्मचर्य नामक चतुर्थ संवरद्वार महाव्रत का सुफल | १२१. ब्रह्मचर्य की महिमा २६८ १०३. सत्य महाव्रत की पाँच भावनाएं ____ २४३ | १२२. ब्रह्मचर्य की ३२ उपमाएँ २७१ १०४. प्रथम भावना-बोलने की विधि २४३ | १२३. महाव्रतों का मूल १०५. दूसरी भावना-क्रोध-त्याग १२४. ब्रह्मचर्य के घातक-निमित्त १०६. तीसरी भावना-लोभ-त्याग - २४५ / १२५. ब्रह्मचर्य-रक्षक नियम . २७६ २६४ २६५ २७३ २७५ For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *********** क्रमांक १२६. ब्रह्मचर्य व्रत की पाँच भावनाएँ १२७. प्रथम भावना- विविक्त शयनासन १२८. द्वितीय भावना - स्त्री - कथा वर्जन १२९. तृतीय भावना - स्त्रियों के रूप दर्शन का त्याग १३०. चतुर्थ भावना - पूर्व भोग चिन्तन त्याग १३१. पंचम भावना-स्निग्ध सरसं भोजन त्याग १३२. उपसंहार परिग्रह त्याग नामक पंचम संवर द्वार १३३. हेय - ज्ञेय और उपादेय के . तेतीस बोल १३४. धर्म वृक्ष का स्वरूप. [13] पृष्ठ क्रमांक २७८ | १३५. अकल्पनीय - अनाचरणीय २७८ | १३६. कल्पनीय - आचरणीय २८० | १३७. साधु के उपकरण १३८. निर्ग्रन्थों का अर्न्तदर्शन २८३ | १३९. निर्ग्रन्थों की ३१ उपमाएँ २८४ २८६ २८७ २८९ २९८ १४०. अपरिग्रह व्रत की पाँच भावनाएँ १४१. प्रथम भावना - श्रोत्रेन्द्रिय-संयम १४२. द्वितीय भावना - चक्षुरिन्द्रिय संयम १४३. तीसरी भावना - घ्राणेन्द्रिय-संयम १४४. चतुर्थ भावना-रसनेन्द्रिय-संयम १४५. पंचम भावना-स्पर्शनेन्द्रिय-संयम १४६. पंचम संवरद्वार का उपसंहार १४७. सम्पूर्ण संवरद्वार का उपसंहार **** For Personal & Private Use Only ****** पृष्ठ २९९ ३०३ ३०६ ३०८ ३११ ३१९ ३१९ ३२३ ३२६ ३२७ ३२९ ३३३ ३३५ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्वाध्याय एक प्रहर ... निम्नलिखित बत्तीस कारण टालकर स्वाध्याय करना चाहिये। आकाश सम्बन्धी १० अस्वाध्याय . काल मर्यादा १. बड़ा तारा टूटे तो एक प्रहर २. दिशा-दाह * जब तक रहे ३. अकाल में मेघ गर्जना हो तो दो प्रहर ४. अकाल में बिजली चमके तो५. बिजली कड़के तो आठ प्रहर । ६. शुक्ल पक्ष की १, २, ३ की रात -प्रहर रात्रि तक ७. आकाश में यक्ष का चिह्न हो जब तक दिखाई दे ८-६. काली और सफेद धूअर जब १०. आकाश मंडल धूलि से आच्छादित हो- जब तक रहे औदारिक सम्बन्धी १० अस्वाध्याय ११-१३. हड्डी, रक्त और मांस, ये तिर्यंच के ६० हाथ के भीतर हो। मनुष्य के हो, तो १०० हाथ के भीतर हो। मनुष्य की हड्डी यदि जली या धुली न हो, तो १२ वर्ष तक। १४. अशुचि की दुर्गंध आवे या दिखाई दे तब तक १५. श्मशान भूमि सौ हाथ से कम दूर हो, तो। * आकाश में किसी दिशा में नगर जलने या अग्नि की लपटें उठने जैसा दिखाई दे और प्रकाश हो तथा नीचे अंधकार हो, वह दिशा-दाह है। For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खंड ग्रहण में ८ प्रहर, पूर्ण हो तो १२ प्रहर ( चन्द्र ग्रहण जिस रात्रि में लगा हो उस रात्रि के प्रारम्भ से ही अस्वाध्याय गिनना चाहिये । ) १७. सूर्य ग्रहणखंड ग्रहण में १२ प्रहर, पूर्ण हो तो १६ प्रहर - ( सूर्य ग्रहण जिस दिन में कभी भी लगे उस दिन के प्रारंभ से ही उसका अस्वाध्याय गिनना चाहिये ।) १६. चन्द्र ग्रहण १८. राजा का अवसान होने पर, १६. युद्ध स्थान के निकट जब तक युद्ध च २०. उपाश्रय में पंचेन्द्रिय का शव पड़ा हो, जब तक पड़ा रहे (सीमा तिर्यंच पंचेन्द्रिय के लिए ६० हाथ, मनुष्य के लिए १०० हाथ । उपाश्रय बड़ा होने पर इतनी सीमा के बाद उपाश्रय में भी अस्वाध्याय नहीं होता । उपाश्रय की सीमा के बाहर हो तो यदि दुर्गन्ध न आवे या दिखाई न देवे तो अस्वाध्याय नहीं होता । ) जब तक नया राजा घोषित न हो २१-२४. आषाढ़, आश्विन, . कार्तिक और चैत्र की पूर्णिमा २५- २८. इन पूर्णिमाओं के बाद की प्रतिपदा२६-३२. प्रातः, मध्याह्न, संध्या और अर्द्ध रात्रिइन चार सन्धिकालों में १-१ मुहूर्त उपरोक्त अस्वाध्याय को टालकर स्वाध्याय करना चाहिए। खुले मुंह नहीं बोलना तथा सामायिक, पौषध में दीपक के उजाले में नहीं वांचना चाहिए । नोट - नक्षत्र २८ होते हैं उनमें से आर्द्रा नक्षत्र से स्वाति नक्षत्र तक नौ नक्षत्र वर्षा के गिने गये हैं। इनमें होने वाली मेघ की गर्जना और बिजली का चमकना स्वाभाविक है । अतः इसका अस्वाध्याय नहीं गिना गया है। For Personal & Private Use Only दिन रात दिन रात Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०-०० Om .' . . म १०-०० आगम बत्तीसी के अलावा संघ के प्रकाशन क्रं. नाम मूल्य क्रं. नाम.. मूल्य १. अंगपविट्ठसुत्ताणि भाग १ १४-००/५२. बड़ी साधु वंदना १५-०० २. अंगपविट्ठसुत्ताणि भाग २ ४०.०० |५३. तीर्थंकर पद प्राप्ति के उपाय ५-००. ३. अंगपविट्ठसुत्ताणि भाग ३ ३०-०० ५४. स्वाध्याय सुधा ७-०० ४. अंगपविट्ठसुत्ताणि संयुक्त ८०-००५५. आनुपूर्वी १-०० ५. अनंगपविट्ठसुत्ताणि भाग १ ३५- ५६. सुखविपाक सूत्र २-०० ६. अनंगपविट्ठसुत्ताणि भाग २ ५७. भक्तामर स्तोत्र २-०० ७. अनंगपविट्ठसुत्ताणि संयुक्त ५८. जैन स्तुति ८-०० ८. अनुत्तरोववाइय सूत्र ५६. सिद्ध स्तुति . ८-०० ६. आयारो ८-०० ६०. संसार तरणिका १०-०० १०. सूयगडो ६-०० ६१. आलोचना पंचक २-०० ११. उत्तरायणाणि(गुटका). १०-०० ६२. विनयचन्द चौबीसी १-०० १२. दसवेयालिय सुत्तं (गुटका). . ५-०० ६३. भवनाशिनी भावना २-०० १३. णंदी सुतं (गुटका) अप्राप्य ६४. स्तवन तरंगिणी १४. चउछेयसुत्ताई १५-०० ६५. सामायिक सूत्र १-०० १५. अंतगडवसा सूत्र १०-०० ६६. सार्थ सामायिक सूत्र । ३-०० १६-१८.उत्तराध्ययन सूत्र भाग १,२,३ . ४५-०० ६७. प्रतिक्रमण सूत्र ३-०० १६. आवश्यक सूत्र (सार्थ) १०-०० ६८. जैन सिद्धांत परिचय • अप्राप्य २०. वशवैकालिक सूत्र १५-०० ६९. जैन सिद्धांत प्रवेशिका २१. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग १ १०-०० ७०. जैन सिद्धांत प्रथमा २२. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग २ १०-०० . जैन सिद्धांत कोविद ३-०० २३. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग ३ ७२. जैन सिद्धांत प्रवीण ४-०० २४. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग ४ १०-०० ७३. तीर्थंकरों का लेखा अप्राप्य २५. जैन सिद्धांत थोक संग्रह संयुक्त १५-०० ७४. जीव-धड़ा . २.०० २६. पन्नवणा सूत्र के थोकड़े भाग १ ८-०० ७५. १०२ बोल का बासठिया २७. पन्नवणा सूत्र के थोकड़े भाग २ १०-०० ७६. लघुदण्डक ३-०० २८.. पन्नवणा सूत्र के थोकड़े भाग ३ १०-०० ७७. महादण्डक १-०० २९-३१. तीर्थकर चरित्र भाग १,२,३ १४०-०० ७८. तेतीस बोल २-०० ३२. मोक्ष मार्ग ग्रन्थ भाग १ ३५-०० ३-०० ३३. मोक्ष मार्ग ग्रन्थ भाग २ ७६. गुणस्थान स्वरूप ३०-०० ८०. गति-आगति १-०० ३४-३६. समर्थ समाधान भाग १,२,३ ६०-०० ३७. सम्यक्त्व विमर्श १-०० ८१. कर्म-प्रकृति १५-०० ८२. समिति-गुप्ति २०-०० २-०० ३८. आत्म साधना संग्रह २-०० ३६. आत्म शुद्धि का मूल तत्वत्रयी ८३. समकित के ६७ बोल २०-०० ८४. पच्चीस बोल ३-०० ४०. नवतत्वों का स्वरूप १५-०० ४१. अगार-धर्म ८-०० ८५. नव-तत्त्व १०-०० ४२.SaarthSaamaayikSootra ४-०० अप्राप्य ८६. सामायिक संस्कार बोध ८७. मुखवस्त्रिका सिद्धि ३-०० ४३. तत्त्व-पृच्छा १०-०० ४४. तेतली-पुत्र - ५०-०० ३-०० ८८. विद्युत् सचित्त तेऊकाय है ४५. शिविर व्याख्यान ८९. धर्म का प्राण यतना २-०० ४६. जैन स्वाध्याय माला २०-०० १०. सामण्ण सविधम्मो - अप्राप्य ४७. सुधर्म स्तवन संग्रह भाग १ २२-०० ११. मंगल प्रभातिका १.२५ ४८. सुधर्म स्तवन संग्रह भाग २ १८-०० ६२. कुगुरु गुर्वाभास स्वरूप ५-०० ४६. सुधर्म चरित्र संग्रह १०-०० ६३. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग ५ २०-०० ५०. लोकाशाह मत समर्थन . १०-०० ६४. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग ६ २०-०० ५१. जिनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा १५-००६५. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग ७ २०-०० -१२-०० For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरण सूत्र आरत्रव नामक प्रथम श्रुतस्कन्ध हिंसा नामक प्रथम अध्ययन श्री जिनागम के दसवें अंग 'प्रश्नव्याकरण' का विषय प्रतिपादन करते हुए गणधर भगवान् श्री सुधर्मा स्वामी जी महाराज अपने सुशिष्य जम्बू अनगार से फरमाते हैं कि - जंबू-इणमो अण्हय-संवरविणिच्छयं, पवयणस्स णिस्संदं। .. वोच्छामि णिच्छयत्थं, सुभासियत्थं महेसीहिं॥१॥ शब्दार्थ - अण्हय-संवर विणिच्छयं - आस्रव और संवर का निर्णय करने वाले, पवयणस्स - आर्हत् प्रवचन के, णिस्संदं - सार रूप, महेसिहि - महर्षियों-तीर्थंकरों के द्वारा, सुभासियत्थं - भली-भांति कहे हुए, इणमो - इस सूत्र को, णिच्छयत्थं - तत्त्वों का निर्णय करने के लिए, वोच्छामि - मैं कहूंगा। भावार्थ - गणधर भगवान् श्री सुधर्मा स्वामी जी महाराज अपने शिष्य श्री जम्बू स्वामी जी महाराज से कहते हैं कि हे जम्बू! मैं तुम्हें आस्रव और संवर का निर्णय करने वाले और जिनेश्वर भगवंत के सुभाषित प्रवचन के सार रूप इस सूत्र को कहूँगा। विवेचन - 'अनुत्तरोपपातिक' नाम के नौवें अंग का भाव सुनने के बाद आर्य जम्बू स्वामीजी ने गुरुदेव गणधर महाराज श्री सुधर्मा स्वामी जी को वन्दना नमस्कार करके विनयपूर्वक निवेदन किया - हे भगवन् । मोक्ष प्राप्त चरम तीर्थकर भगवान् महावीर प्रभु द्वारा अर्थागम से प्ररूपित और आप द्वारा सूत्रागम से उपदेशित अनुत्तरोपपातिक दसा सूत्र का भाव तो मैंने सुना और समझा। उसके बाद अब क्रमागत दसवें अंग प्रश्नव्याकरण सूत्र का जिनेश्वर प्ररूपित अर्थ समझाने की कृपा करें। श्री सुधर्म गणधर ने कहा = है भाषुष्मान् जम्बू। प्रश्नव्याकरण सूत्र के दो द्वार बतलाये हैं - . पहला आस्रव द्वार और दूसरा संवर द्वार। इस सूत्र में आस्रव और संवर का स्वरूप बताया गया है। यही जिन-प्रवचन का सार है। तीर्थंकर भगवंत द्वारा आस्रव और संवर का जो निश्चित-मोक्ष के प्रयोजनभूत अर्थ का प्रतिपादन हुआ है, वही मैं तुझे कहूँगा। .. आस्त्रव - जिस द्वार से कर्मों का आगमन होता है, वह 'आस्रव' है। आत्मा रूपी जलाशय में जिन मार्गों से कर्म रूपी पानी का आगमन होता है, उसे 'आस्रव' कहते हैं। जलाशय में अपने-आप में For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०१ ********************* **************** ************** पानी नहीं होता। वह पृथ्वी का एक हिस्सा होता है। उसमें बाहर से पानी आता है। तदनुसार आत्मा में अपने-आप में कर्म नहीं होते, किन्तु बाहर से कर्म का आगमन होता है। जिन द्वारों-कारणों से कर्म का आगमन होता है, वे कारण ही 'आस्रव' कहलाते हैं। ___ आस्रव के दो भेद हैं - द्रव्यास्रव और भावास्रव। कर्म का आगमन-द्रव्य आस्रव है और इस द्रव्य आस्रव का मूल कारण है-भावात्रव-आत्मा के आस्रव योग्य अध्यवसाय। यही द्रव्यास्रव का मूल है। वैसे द्रव्यास्रव भी भावास्रव का कारण है। जिन आत्माओं में द्रव्य-कर्म नहीं होते, उन्हें भावास्रव भी नहीं होता। भावास्रव में द्रव्यास्रव की नियमा है, किन्तु द्रव्यास्रव में भावास्रव की भजना है। अप्रमत्त एवं वीतराग के द्रव्यास्रव तो होता है, किन्तु भावास्रव नहीं होता। ___ संवर - जो भास्रव को रोके वह 'संवर' है। संवर के द्वारा कर्म-आगमन के द्वारों को बन्द किया जाता है। पंचविहो पण्णत्तो जिणेहिं, इह अण्हओ अणाईओ। हिंसामोसमदत्तं, अब्बंभपरिग्गहं चेव॥२॥ शब्दार्थ - इह - इस प्रवचन में, जिणेहिं - जिनेश्वरों ने, पंचविहो - पांच प्रकार का, अण्हओआस्रव, पण्णत्तो - कहा है, अणाईओ - आस्रव अनादि से है। इसके पांच भेद इस प्रकार हैं, हिंसाःप्राणियों का घात, मोस - मृषावाद, अदत्तं - स्वामी के दिये बिना लेना-चोरी, अब्बंभ - अब्रह्मचर्य-मैथुन, चेव - और, परिग्गहं - परिग्रह। भावार्थ - इस निर्ग्रन्थ-प्रवचन में जिनेश्वरों ने आस्रव के पांच भेद इस प्रकार कहे हैं - हिंसा, मृषावाद, अदत्त ग्रहण, अब्रह्मचर्य और परिग्रह। यह आस्रव अनादिकाल से है। विवेचन - इस गाथा में आस्रव के पांच भेदों का नामोल्लेख कर के बताया गया है कि आस्रव के ये भेद अनादिकाल से हैं। इसी से संसार है। यदि आस्रव नहीं हो, तो संसार भी नहीं है। आस्रव के कारण ही संसार है। इसी से गति, स्थिति, जन्म, मरण और संयोग-वियोगादि है। जहाँ आस्रव का अन्त हुआ कि जीव अयोगी बना और अशरीरी होकर परम विशुद्ध परमात्मा हो जाता है। व्यक्ति विशेष के लिए आस्रव का अन्त हो सकता है, परन्तु समूचे संसार से आस्रव का अन्त कभी नहीं हो सकता। जारिसओ जंणामा, जह य कओं जारिसं फलं देइ। जे वि य करेंति पावा, पाणवहं तं णिसामेह॥३॥ .. शब्दार्थ - जारिसओ - प्राणी-वध-हिंसा का जैसा स्वरूप है, जंणामा - हिंसा के जो नाम हैं, थ - और, जह - जिस प्रकार, कओ.- हिंसा की जाती है, जारिसं - हिंसा जैसा, फलं - फल, देइदेती है, य - और, जे - जो, पावा - पापात्मा, करेंति - पाप करती है, तं - उस, पाणवहं - प्राणी-वध को, णिसामेह - सुनो। For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राण-वध का स्वरूप भावार्थ - प्राणीवध के जो नाम हैं, जैसा स्वरूप है और पापियों द्वारा जिस प्रकार, प्राणातिपात किया जाता है तथा हिंसा का जो फल होता है, उसे सुनो। विवेचन - इस गाथा में आगे कहे जाने वाले प्राणी-वध नामक प्रथम अध्ययन का विषय बताया गया है। अब प्राण-वध के नाम आदि का वर्णन किया जा रहा है। प्राण-वध का स्वरूप पाणवहो णाम एसो जिणेहिं भणिओ - १. पावो २. चंडो ३. रुद्दो ४. खद्दो ५. साहसिओ ६. अणारिओ ७. णिग्घिणो ८. णिस्संसो ९. महब्भओ १०. पइभओ ११. अइभओ १२. बीहणओ १३. तासणओ १४. अणजओ १५. उव्वेयणओ य १६. णिरवयक्खो १७. णिद्धम्मो १८. णिप्पिवासो १९. णिक्कलुणो २०.णिरयवासणिधणगमओ २१. मोहमहब्भयपयट्टओ २२. मरणवेमणस्सो। एस पढमं अहम्मदारं॥१॥ शब्दार्थ - एसो - यह, पाणवहो - प्राणी-वध, णाम - नाम, जिणेहिं भणिओ - जिनेश्वर ने कहा है। आगे प्रत्येक नाम के साथ ही उसका अर्थ और स्वरूप बताया जाता है। १. पावो - पाप। जिसके आचरण से आत्मा ८२ प्रकार की पाप-प्रकृतियों का बन्ध करती है। २. चंडों - चण्ड। क्रोध के कारण हिंसक में सौम्यता नष्ट होकर प्रचण्डता आ जाती है। इससे प्राण-वध को 'चंड' कहा है। ३. रुद्दो- रौद्र । अपनी क्रोधी परिणति के कारण हिंसक का रौद्र रूप बन जाता है। ४. खुद्दो- क्षुद्रता। अधमता। हिंसा नीचजनों के योग्य है। ५. साहसिओ - साहसिक। हिताहित और योग्या-योग्य का विचार नहीं करके सहसा पाप करना। ६.अणारिओ - अनार्य। आर्यों - उत्तमजनों से त्याज्य और अनार्यों, म्लेच्छों द्वारा आचरित। ७. णिग्घिणो - घृणा रहित। जिसके हृदय में से हिंसा के प्रति रही हुई घृणा निकल गई हो। ८.णिस्संसो - नृशंस। क्रूरता युक्त। ९. महब्धओ - महाभय रूप। जीवों के लिए भयानक। १०. पइभओ - प्रतिभय। प्रत्येक प्राणी के लिए भयप्रद। ११. अइभओ - अतिभय। मृत्यु-भय जैसा अत्यन्त भयानक। १२. बीहणओ - भयोत्पादक। जीवों के मन में भय उत्पन्न करने वाला। १३. तासणओ - त्रासदायक। अकस्मात् क्षोभ उत्पन्न करने वाला। For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ ****** प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० १ ********** १४. अणजओ अन्यायरूप अथवा अनार्यों के योग्य । १५. उव्वेयणओ - उद्वेग कारक । हृदय को अशान्त करने वाला । १६. णिरयवक्खो - निरपेक्ष। दूसरे जीवों के सुख एवं जीवन की अपेक्षा रहित । १७. णिद्धम्मो धर्म से रहित - अधर्म । १८. णिप्पिवासो - निष्पिपासा । प्राणियों के प्रति पिपासा - मैत्री अथवा प्रेम भाव से रहित । - १९. णिक्कलुणो - निष्करुण । दयारूप कोमल भाव से रहित । २०. णिरयवासणिधण गमणो नरक में ले जाकर चिरकाल तक वास कराने वाला। २१. मोहमहब्भयपयट्टओ मोह एवं महान् भय का प्रवर्तक । प्राणातिपात के पाप से पापी की आत्मा, महामोह से आच्छादित होकर अज्ञान और भय की उत्कृष्ट स्थिति को प्राप्त कराने वाली। २२. मरणवेमणस्सो - मृत्यु और वैमनस्य का कारण । प्राणी-वध से वैमनस्य - शत्रुता होकर • मृत्यु का निमित्त उपस्थित होता है। - — ********** यह प्रथम अधर्म द्वार हुआ। . विवेचन - उपरोक्त २२ प्रकार से सूत्रकार ने प्राण-वध (हिंसा) का स्वरूप बतलाया है। · प्राणातिपात का पाप करने वाले पापी जीव की आत्मा कितनी हीन एवं अधम दशा में पहुंच जाती है, इसका सूत्र में स्पष्ट उल्लेख किया है। इससे स्पष्ट है कि प्राण-वध करने वाली आत्माएं अपनी क्रूर वृत्ति के कारण अपनी आत्मा को अप्रशस्त, कलुषित एवं पाप के भार से बोझिल बनाकर और पाप का भयानक भार लादकर नरक गति की ओर चली जाती है और चिरकाल तक दुःख-परम्परा भुगतती रहती है। यदि स्थावरकाय या निगोंद में गये, तो वहाँ की जन्म-मरण परम्परा का तो कहना ही क्या ? प्राण-वध के नाम तस्स य णामाणि इमाणि गोण्णाणि होंति तीसं, तं जहा १. पाणवहं २. उम्मूलणा सरीराओ ३. अवीसंभो ४. हिंसविहिंसा तहा ५. अकिच्चं च ६. घायणा य ७. मारणा प ८. वहणा ९. उद्दवणा १०. णिवायणा व ११. आरंभसमारंभी १२. आठपक्कम्मस्सुबहवो भेषणिडुबणगालणा व संवगसंखेबो १३. मच्चू १४. असज़मो १५. कडगमद्दणं १६. वोरमणं १७. परभवसंकाप्रकारओ १८. दुग्इप्पवाओ १९. पावकोवो य २०. पावलोभो २१. छविच्छेओ २२. जीवियंतकरणो २३. भयंकरो २४. अणकरो २५. वज्जो २६. परियांवण अण्हओ २७. विणासो २८. णिज्जवणा २९. लुंपणा ३०. गुणाणं विराहणत्ति विय तस्स एवमाईणि णामधिज्जाणि होंति तीसं । पाणवहस्स कलुसस्स कडुयफल- देसगाई ॥ २ ॥ For Personal & Private Use Only - Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राण-वध के नाम ******************************** ******************* शब्दार्थ - तस्स - इस प्राणी-वध के, गोण्णाणि - गुण-निष्पन्न, णामाणि - नाम, तीसं - तीस, होति- है, इमाणि - ये, तं जहा - इस प्रकार हैं। १. पाणवहं - प्राण-वध, जीवघात, आत्मा को प्राणों से रहित करना। २. उम्मूलणा सरीराओ - शरीर से प्राणों का उन्मूलन करके पृथक् करना। पृथ्वी से वृक्ष को उखाड़कर फेंकने के समान शरीर से आत्मा को निकाल कर भिन्न करना। ३. अवीसंभो - अविश्रंभ - जीवों के लिए अविश्वास के योग्य। हिंसा ऐसा कार्य है कि जिसके करने वाले-हिंसक के प्रति विश्वास नहीं रहता।। ४. हिंसविहिंसा - हिंस्य (हिंसा के योग्य) जीवों के प्राणों का विनाश। ५. अकिच्छ - अकृत्य, नहीं करने योग्य, अनाचरणीय। ६. घायणा - घातना, प्राणियों का घात करना। ७. मारणा - मारण, मृत्यु प्राप्त कराना। ८. वहणा - वध करना, हनन करना, प्राणों को पीड़ित करना। ९. उद्दवणा - उपद्रवणा, उपद्रव करना या उत्पात करना। ... १०. णिवायणा - निपातना-प्राणों को जीव से पृथक् करना। किसी के प्रति में 'तिवायणा' पाठ भी है, जिसका अर्थ-मन, वचन और काया इन तीन से अथवा शरीर, आयु और इन्द्रिय से जीव का पतन करना-रहित करना। ११. आरंभसमारंभो - आरम्भ-समारम्भ। कृषि आदि कार्यों के द्वारा जीवों की विराधना करना। १२. आउयकम्मस्सुवहयो भेयणिट्ठवणगालणा य संवट्टगसंखेवो - जीव के आयुकर्म को उपद्रव करके चलित करना, भेद न करना-तोड़ना या समाप्त कर देना अथवा संक्षिप्त कर देना। ____१३. मच्चू - मृत्यु। प्राण-वध का अंतिम रूप मृत्यु ही है। १४. असंजमो - असंयम, प्राण-वध स्वतः असंयम है। सतरह प्रकार के असंयम से प्राण-वध मुख्य है। १५. कंडगमद्दण - कटक-मर्दन, सेना द्वारा आक्रमण करके जीवों का मर्दन (संहार) करना। १६. वोरमणं - व्युपरमण, प्राणों को शरीर से भिन्न करना। १७. परभव संकामकारओ - परभव संक्रामकारक, प्राणियों को मार कर परभव में पहुंचाने वाला। १८. दुग्गइप्पवाओ - नरकादि दुर्गति में गिराने वाला। १९. पावकोवो - पापकोप, पाप प्रकृतियों का पोषण करने वाला। समस्त पापों को उत्पन्न करने वाला अथवा पाप रूप कोप-क्रोध का उत्पादक। . २०. पावलोभो - पाप-लोभ, आत्मा की पाप से प्रीति बढ़ाने वाला। २१. छविच्छेओ - शरीर का छेदन करने वाला। For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ० १ २२. जीवियंतकरणो - जीवन का अन्त-विनाश करने वाला। २३. भयंकरो - भयंकर, प्राण-वध सभी जीवों के लिए भयप्रद है। २४. अणकरो - ऋणकर, पापकर्म आत्मा पर बड़ा भारी कर्ज है, जो अनेक भवों से भी नहीं उतर सकता। २५. वज्जो - वर्ण्य-दूर रहने योग्य, आत्महितैषी एवं प्रशस्त आत्मा के लिए दूर रखने योग्य अथवा व समान भारी, डुबाने वाला। २६. परियावण अण्हओ - परितापन आस्रव, प्राणियों को परितापना देने-क्लेशित करने रूप आत्रव। २७. विणासो - विनाश, जीवन को विनष्ट करने वाला। २८.णिज्जवणा - निर्यापना, शरीर से प्राणों को निकालने वाला। २९. लुपणा - जीवों के प्राणों का लोप करने रूप। ३०. गुणाणं विराहणत्ति - गुणों की विराधना, उत्तम गुणों का नाश करने वाला। एवमाइणि - इस प्रकार - अथवा इत्यादि तस्स - उस, कलुसस्स - पापजनक, पाणवहस्स - . प्राण वध के, कडुयफलदेसगाई - कटु फल बतलाने वाले, तीसं - तीस, नामधेज्जाणि - नाम, होति - होते हैं। विवेचन - प्राण-वध-हिंसा के ये नाम, इसके दुष्परिणाम को सूचित करते हैं। हिंसा, हिंसक को इस भव, पर-भव और भवोभव में दुःखी करने वाली है। उपरोक्त तीस नामों में सूत्रकार ने प्राण-वध : की विभिन्न पर्यायों को स्पष्ट किया है। ___ पापियों का पापकर्म तं च पुण करेंति केइ पावा असंजया अविरया अणिहुयपरिणामदुप्पयोगा पाणवहं भयंकरं बहुविहं बहुप्पगारं परदुक्खुप्पायणपसत्ता इमेहिं तसथावरेहि जीवेहिं पडिणिविट्ठा। शब्दार्थ - केइ पावा - कई पापी जीव, इमेहिं - इन, तसथावरेहिं - त्रस और स्थावर, जीवेहिं - जीवों पर, पडिणिविट्ठा - द्वेष करते हैं, परदुक्खुप्पायणपसत्ता - दूसरे जीवों को दुःख उत्पन्न करने में प्रवृत्त रहते हैं, अणिहुयपरिणामदुप्पयोगी - जिनका परिणाम-भाव अशान्त है और जिनके मन, वचन और काया के योग दुष्ट व्यापार वाले हैं, अविरया - जो विरति से रहित-अविरत हैं, असंजया - जो असंयमी हैं, बहुविहं - वे बहुविध-विविध रीति से, बहुप्पगारं - अनेक प्रकार से, तं - उस, पाणवहंप्राण-वध को, करेंति - करते हैं। भावार्थ - कितने ही पापी जीव, त्रस और स्थावर जीवों पर द्वेष रखते हुए उन्हें दुःखी करने में For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थलचर चतुष्पद जीवों की हिंसा ******************** ही प्रयत्नवंत रहते हैं । उनके भाव तीव्र और प्रवृत्ति दुष्ट होती है । वे संयमहीन, व्रतहीन पापी अनेक प्रकार से हिंसा करते हैं । विवेचन अनन्तानुबन्धी कषाय एवं मिथ्यात्व - मोहनीय के तीव्र उदयं वाले पापी जीवों के मन में बहुधा पापमय विचार ही उठते रहते हैं। वे अकारण ही जीवों पर द्वेष रखते हैं और उन्हें सताने मारने यावत् प्राण-रहित करने में लगे रहते । उनकी भावना भी दुष्ट होती है और प्रवृत्ति भी वैसी ही दुष्ट होती है। जिनके आत्म- द्रव्य में पाप की ऐसी कालिमा भरी हुई रहती है कि जिसमें से हिंसक विचार तथा हिंसक प्रवृत्ति होती रहती है। ऐसे जीव विवेक, विरति और संयम से शून्य रहकर, विविध प्रकार से, अनेक रीति से हिंसा करते हैं। जलचर जीवों का वध किं ते? पाठीण तिमि तिमिंगल अणेगझस विविहजाइमंडुक्क दुविह-कच्छभणक्क • मगर - दुविह-गाह - दिलीवेढय-मंडुय - सीमागार - पुलुय - सुंसुमार बहुप्पगारा जलयरविहाणा क य एवमाई । . शब्दार्थ ते वे पापी, किं किन जीवों की विराधना करते हैं, यह बताया जाता है, पाठीण - - - - ७ - - एक प्रकार की मछली, तिमि बड़ी मछली, तिमिंगल - बहुत बड़ी मछली, अणेगझस अनेक प्रकार की मछलियाँ, विविहजाइमंडुक - अनेक प्रकार के मेढक, दुविहकच्छभ - दो प्रकार के कछुए, णक्कनक्र, मगरदुविहं दो प्रकार के मकर- १. सुंडा मगर और २. मत्स्य मगर, गाहा - ग्राह-मगर विशेष, दिलिवेढय - दिलिवेष्टक - पूंछ से लपेटने वाले, मंडुय मंडुक, सीमागार- सीमाकार, पुलुय पुलक आदि ग्राह, सुंसुमार एक जलचर प्राणी, एवमाई - ऐसे, बहुप्पगारा बहुत प्रकार के, जलयरविहाणा कए भेद वाले जलचर जीवों का वे पापी लोग वध करते हैं । भावार्थ - वे पापी लोग जिन जीवों की हिंसा करते हैं, उनके नाम ये हैं- पाठीन, तिमि, तिमिंगल, अनेकझस, अनेक प्रकार के मेढ़क, दो प्रकार के कछुए, नक्र, दो प्रकार के मगर, ग्राह, दिलिवेष्टक, मंडुक, सीमाकार, पुलक, सुंसुमार आदि बहुत प्रकार के जलचर जीवों की हिंसा करते हैं। स्थलचर चतुष्पद जीवों की हिंसा - For Personal & Private Use Only - कुरंग - रुरु - सरभ- चमर-संबर - उरब्भ-ससय-पसय-गोण-रोहिय- हय-गय-खरकरभ-खग्ग- वाणर- गवय- विग - सियाल - कोल- मज्जार- कोलसुणह-सिरियंदलगावत्त'कोकंतिय-गोकण्ण-मिय-महिस- वियग्घ- छगल-दीविय-साण-तरच्छ-अच्छभल्लसद्-दुल-सीह - चिल्लल - चउप्पयविहाणाकए य एवमाई । 'णक्कचक्क'- पाठ भेद । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०१ **#### ##### ######### ############# शब्दार्थ - कुरंग-रुरु - कुरंग और रुरु जाति के मृग, सरभ - अष्टापद, चमर - चमरी गाय, संबर - सांभर, उरभ- मेंढा, ससय - खरगोश, पसय - वनचर पशु विशेष, गोण - बैल, रोहिय - रोहित नाम का पशु हय - घोड़ा, गय - हाथी, खर - गधा, करभ - ऊँट, खग्ग - गेंडा, वाणर - बन्दर, गवय-रोझ, विग- भेडिया. सियाल- गीदड.कोल-सअर. मज्जार-बिल्ली.कोलसणहबड़ा सूअर, सिरियंदलगावत्त - श्रीकंदलक और आवर्त नाम के एक खूर वाले पशु, कोकंतिय - लोमड़ी, गोकण्ण - गोकर्ण-यह दो खुर वाला होता है, मिय - मृग, महिस - भैंसा, वियग्य - व्याघ्र, छगल - बकरा, दीविय - तेंदुआ, साण - जंगली कुत्ता, तरच्छ - तरक्ष-जरखं, अच्छभल्ल - रीछ भालू, सहुलसीह - सार्दूल सिंह, चिल्लल - चित्तल, एवमाई - इत्यादि, चउप्पयविहाणाकए - चतुष्पद पशुओं के भेद हैं। भावार्थ - कुरंग और रुरु जाति के मृग, अष्टापद, चमरी गाय, सांभर, मेंढा, खरगोश, पसर, बैल, रोहित, घोड़ा, हाथी, गधा, ऊँट, गेंडा, बन्दर, रोझ, भेडिया, जम्बूक, सूअर, मार्जार, बड़ा सूअर, श्रीकंदलक, आवर्त, लोमड़ी, गोकर्ण, मृग, महिष, व्याघ्र, बकरा, तेन्दुआ, जंगली कुत्ता, तरक्ष, भालू, सार्दुल सिंह, चित्तल इत्यादि चतुष्पद जीवों के अनेक भेद हैं, जिन्हें पापीजन मारते हैं। . . . उरपरिसर्प जीवों की हिंसा अयगर-गोणस-वराह-मउलि-काउदर-दब्भपुप्फ-आसालिय-महोरगोरग विहाणकए य एवमाई।। शब्दार्थ - अयगर - अजगर, गोणस - एक प्रकार का सर्प,जिसके फण नहीं होता, वराह - दृष्टि-विष सर्प, मउलि - मुकुली-जिसके फण होता है, काउदर - सामान्य सर्प, दम्भपुष्फ - : दुर्भपुष्प-एक जाति सर्प, असालिय - सर्प विशेष, महोरग - बड़ा सर्प, उरगविहाणाकए - ये सर्प, जाति के भेद हैं। भावार्थ - अजगर, गोणस, वराहि, मुकुली, काकोदर, दर्भपुष्प, आसालिक और महोरग आदि, सों के भेद हैं। विवेचन - उपरोक्त सूत्र में उरपरिसर्प जाति के-पेट घसीटकर चलने वाले-सर्प जाति के पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का वर्णन है। इसमें आसालिक का परिचय देते हुए टीकाकार ने लिखा है कि यह.सर्प बारह योजन तक लम्बा होता है और सम्मूछिम होता है। इसकी आयु अन्तर्मुहूर्त की होती है। यह भूमि के भीतर उत्पन्न होता है। जब किसी चक्रवर्ती, वासुदेव आदि के सामूहिक विनाश का समय निकट आता है, तब यह उनकी नक-स्कन्धावार के नीचे अथवा किसी ग्रामादि बस्ती के विनाश के समय उसके नीचे उत्पन्न होते हैं। इनके उत्पन्न होने पर पृथ्वी का वह भाग पोला हो जाता है और वह सेना या ग्राम उस पोली भूमि में उतर कर नष्ट हो जाता है। For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नभचर जीवों का वध आसालिक, बेइन्द्रिय तिर्यचों में भी होता है, किन्तु वह दूसरा है। प्रस्तुत वर्णन पंचेन्द्रिय आसालिक सम्बन्धी है। महोरग के विषय में टीकाकार लिखते हैं कि यह सर्प बहुत लम्बा होता है। यह मनुष्य-क्षेत्र के बाहर होता है और एक हजार योजन लम्बा होता है। . भुजपरिसर्प जीवों की हिंसा छीरल-सरंब-सेह-सेल्लग-गोधा-उंदुर-णउल-सरड-जाहगमंगुस-खाडहिलवाउप्पिय घिरोलिया सिरीसिवगणे य एवमाई। शब्दार्थ - छीरल - क्षीरल, सरंब - शरम्ब, सेह - जिसके शरीर पर कांटे के समान बड़े-बड़े . बाल होते हैं, सल्लग - शल्यक, गोधा - गोह, उंदुर - चूहा, णउल - नकुल-नेवला, सरड - . गिरगिट, जाहग - इसके शरीर पर कांटे होते हैं, मंगुस - गिलहरी, खाडहिल - छछुन्दर, वाउप्पिय - वातोत्पतिक, घिरोलिया - घिरोलिक-छिपकली, सिरी-सिंवगणे - सरीसृप-भुजपरिसर्प जाति, एवमाई - इत्यादि। . विवेचन - भुजपरिसर्प जाति के चतुष्पद तिर्यंच जीवों के कुछ भेद इस पाठ में दिये गये हैं।' हिंसक लोग इन जीवों की हिंसा करते हैं। नभचर जीवों का वध कादंबक-बक-बलाहक-रगरस-आडा-सेतीय-कुलल-वंजुल-पारिप्पव-कीरसउण-दीविय-हंस-धत्तरिट्ठग-भास-कुलीकोस-कुंच-दगतुंड-ढोणिया-लग-सुईमुहकविल-पिंगलक्खग-कारंडग-चक्कवाग-उक्कोस-गरुल-पिंगुल-सुय-बरहिणमयण-साल-णंदीमुह-णंदमाणग-कोरंग-भिंगारग-कोणालग-जीवजीवग-तित्तिरवट्टग-लावग-कपिंजलग-कवोतग-पारेवग-चडग-ढिंक-कुक्कुड-वेसर-मयूरगचउरगु-हय पोंडरीय-करकरग-चीरल्ल-सेण-वायस-विहग-सेण-सिणचास-वग्गुलिचम्मट्ठिल-विययपक्खी-समुग्गपक्खी खहयर-विहाणाकए य एवमाई। शब्दार्थ - कादम्बक - हंस की एक जाति, बक - बगुला, बलाहक - एक प्रकार का बगुला, सारस - प्रसिद्ध पक्षी, आडा-सेतीय-कुलल - ये 'जल-पक्षी हैं, वंजुल - वंजुल, परिप्पव - परिप्लव, कीर - तोता, सउण - शकुन-तीतर, दीविय - दीपिका-देवी नाम की काली चिड़िया, हंस - प्रसिद्ध पक्षी, धत्तरिट्ठग - काली चोंच वाला-धार्तराष्ट्र हंस, भास - भासक, कुलीकोस - कुटीक्रोश 'वाउप्पिय' शब्द के स्थान पर कुछ प्रतियों में 'चाउप्पाइय' - चातुष्पदिकःशब्द है। For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० १ ******** *** ********************************* शकुन, कुंच - क्रौंच पक्षी, दगतुंडा - दगतुंडक-जलकुकड़ी, ढेलियाणग - जलचर पक्षी, सुईमुह - शूचीमूख-सुघरी, कविल-कपिल, पिंगलक्खग- पिंगलाक्ष, कारंडग - कारंडक-बतख, चक्कवागचक्रवाक, उक्कोस - पक्षी विशेष, गरुल - गरुड़, पिंगुल - रक्त वर्ण वाला तोता, सुय - तोता, बरहिण - मयूर, मयणसाल - मदनशालिका-मैना, णंदीमुह - नन्दीमुख, णंदमाणग - नन्दसानक, जिसका शरीर दो अंगुल परिमाण है और भूमि पर फुदकता रहता है, कोरंग - कोलूक, भिंगारग - भुंगारक-भिंगोड़ी (छोटा पक्षी), कोणालग - कुणालक, जीवजीवग - जीवजीवक-चातक, तित्तिर - तीतर, वट्टग - बत्तख, लावग - पक्षी विशेष, कपिंजलग - इस नाम का पक्षी, कवोतग - कबूतर, : पारेवग - पारावत-एक प्रकार का कबूतर, चडग - चिड़िया, टिंक - एक पक्षी, कुक्कुड़ - मुर्गा, वेसरइस नाम का पक्षी, मयुरग - मोर, चउरग - चकोर, हयपोंडरीय - हृदपुंडरीक-जल-पक्षी, करग - करक, चीरल्ल - चील, सेण - बाज, वायस - कौआ, विहग - पक्षी विशेष, सिणचास - श्वेतचास, वग्गुलि - वल्गुली, चम्मट्ठिल - चमगादड़, विययपक्खी- वितत पक्षी, समुग्गपक्खीसमुद्र पक्षी, एवमाई - इत्यादि, खहयर विहाणाकए - खेचर पक्षियों के भेद हैं। ये सब खेचर-आकाश में उड़ने वाले पक्षियों के भेद हैं। हिंसक लोग इन जीवों की हिंसा करते हैं। विकलेन्द्रिय और पशुओं की पीड़ा .... . जल-थल-खग-चारिणो उ पंचिंदियपसुगणे बिय-तिय-चउरिदिए विविहे जीवे .पियजीविए मरणदुक्ख पडिकूले वराए हणंति बहुसंकिलिट्ठकम्मा। शब्दार्थ - जल-थल-खग-चारिणो - जल, स्थल और आकाश में विचरने वाले, पंचिंदिए - पंचिन्द्रिय प्राणी और, पशुगणे - पशुओं का समूह तथा, बिय-तिय-घउरिदिए - बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौरिन्द्रिय जीव जो, विविहे - विविध प्रकार के हैं, पियजीविए - जिनको अपना जीवन प्रिय है, मरणदुक्खपडिकूले - जिनको मृत्यु का दुःख प्रतिकूल-अप्रिय है, वराए - उन दीन प्राणियों को, बहुसंकिलिट्ठकम्मा - अत्यंत क्लेशोत्पादक एवं दुष्ट कर्म करने वाले पापी जीव, हणंति - हिंसा करते हैं। भावार्थ - विविध प्रकार के जलचर, स्थलचर और खेचर ऐसे पंचेन्द्रिय जीवों और बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरेन्द्रिय, जीवों को अपना जीवन अत्यंत प्रिय है और मृत्यु का दुःख अत्यंत अप्रिय एवं प्रतिकूल है। ऐसे दीन जीवों की दुष्ट प्रकृति के दुराचारी क्रूर लोग हिंसा करते हैं। . विवेचन - पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीवों के पांच भेद हैं - १. जलचर २. स्थलचर ३. खेचर ४. उरपरिसर्प और ५. भुजपरिसर्प। इन पांचों प्रकार के जीवों के कुछ भेद बतलाने के बाद उपरोक्त मूलपाठ में संक्षेप में तीन ही भेदों में पांच भेदों का समावेश किया गया है। उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प इन दो भेदों का समावेश स्थलचर में किया गया है। इसका कारण यह है कि ये जीव भी स्थलचारीभूमि पर ही चलने वाले हैं। इन सभी जीवों और विकलेन्द्रिय जीवों को अपना जीवन अत्यन्त प्रिय For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा के कारण .. *##### #########*************************************** होता है और मरना अत्यन्त दुःखदायक तथा असहनीय है। ये जीव अत्यन्त दीन हैं। ये बिचारे अपने प्राणों को हिंसक मनुष्यों से बचाना चाहते हैं, किन्तु इनके पास रक्षा के अमोघ उपाय नहीं है। इन्हें प्राणों के विनाश का भय लगा ही रहता है। ऐसे दीन एवं रक्षा की भिक्षा चाहने वाले असहाय जीवों की भी क्रूर कर्म करने वाले दुष्ट पापरत क्रूर मनुष्य हिंसा करते हैं। हिंसा के कारण इमेहिं विविहेहिं कारणेहिं, किंते? चम्म-वसा-मंस-मेय-सोणिय-जग-फिप्फिसमत्थुलुंग-हिययंत-पित्त-फोफस-दंतहा अद्विमिंज-णह-णयण-कण्ण-ण्हारुणि-णक्कधमणि-सिंग-दाढि-पिच्छ-विस-विसाण-वालहेडं। हिंसंति य भमर-महुकरिगणे रसेसु गिद्धा तहेव तेइंदिए सरीरोवमरणट्ठयाएं किवणे बेइंदिए बहवे वत्थोहर-परिमंडणट्ठा। - शब्दार्थ - इमेहिं - पापीजन इन, विविहेहिं - विविध, कारणेहिं - कारणों से हिंसा करते हैं, किं ते - वे कारण कौन से हैं ?, चम्म - चमड़ा, वसा - चर्बी, मंस - मांस, मेय - मेद, सोणिय - रक्त, जग- यकृत, फिप्फिस - फेफड़ा, मत्थुलुंग- मस्तुलिंग-भेजा, हिय - हृदय, यंत- आँत, पित्तपित्ताशय, फोफस - शरीर का एक अवयव, दंतहा - दाँत के लिए, अट्ठि- हड्डी, मिंज - मजा, णह - नख, णयण - आँख, कण्ण - कान, ण्हारुणि - स्नायु, णक्क - नाक, धमणि - धमनी, सिंग - सींग, दाढि - दाढ़ी, पिच्छ - पूंछ, विस - विष, विषाण - हाथी-दाँत, विषाण शब्द से सूअर के दांत का भी ग्रहण हुआ है, बालहेउं - बालों के लिए, रसंसु गिद्धा - रसलोलुप जीव, मधु के लिए, भमरमहुकरिगणे - भ्रमर और मधुरक्खियों के समूह का, तहेव - वैसे ही, सरीरोवगरणट्ठाए - शारीरिक सुख के लिए. तेइंदिए - यूका खटमल आदि तेइन्द्रिय जीवों को, य - और, वत्थोहर परिमंडणट्ठा - वस्त्र तथा घर की शोभा बढ़ाने के लिए, बहवे - बहुत-से, किवणे - दीन, बेइंदिए - बेइन्द्रिय . जीवों की, हिंसंति - हिंसा करते हैं। भावार्थ - पापीजन किन कारणों से जीवों की हिंसा करते हैं ? इसके उत्तर में बतलाया है कि - चमड़ा, चर्बी, मांस, मेद, रक्त, यकृत, फेफड़ा, भेजा, हृदय, आंत, पित्ताशय, फोफस, दाँत, हड्डी, मज्जा, नख, आँख, कान, स्नायु, नाक, धमनी, सींग, दाढ़ी, पूँछ, विष, हाथी या सूअर के दाँत के लिए और बालों के लिए जीवों की हिंसा करते हैं। रसलोलुप जीव मधु (शहद) के लिए भ्रमरों और मधुमक्खियों के समूह (छत्ते) का और शरीर सम्बन्धी सुख के लिए तथा वस्त्र और घर को सजाने के लिए बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय जीवों की हिंसा करते हैं। _ विवेचन - प्रयोजन से प्रवृत्ति होती है। हिंसा की प्रवृत्ति किस प्रयोजन से होती है ? शिष्य के इस प्रश्न के उत्तर में आगमकार वे कारण बतलाते हैं। . चमड़े के लिए-चमड़े से ढोल, नगाड़े, तबले, डफली आदि वादिन्त्र बनते हैं, जूते बनते हैं, For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० अ० १ ****** ### ## ###### ##### ##* शीत-प्रधान देशों में मनुष्यों के वस्त्र के समान पहनने के काम में भी आता है। ढाल, तलवार आदि का म्यान आदि में तो पहले भी आता था। कई ऋषि-संन्यासी मृगचर्म एवं व्याघ्रचर्म बिछाने के काम में लेते हैं। पहले जिन. कारणो से हिंसा होती थी, उनमें वर्तमान युग में वृद्धि हुई है। बटुआ, घड़ी के पट्टे, कमरपट्टे (पेंट-बेल्ट) बॉक्स, बेग-बिस्तर--बंद, थैले, चश्मे के घर, खिलौने आदि अनेक कार्यों में चमड़ा काम में आता है और इसके लिए पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा होती है। अत्यन्त मुलायम चमड़े केलिए छोटे बच्चों तथा गर्भस्थ जीवों की भी हिंसा होती है। इस प्रकार की हिंसा में सुकुमालता, सुखशीलियापन, बाहरी सज-धज-आडम्बर एवं दूसरों का अन्धानुकरण मुख्य है। अहिंसकसंस्कृति के बहुत-से सदस्य भी हिंसा के द्वारा प्राप्त चमड़े को काम में लेने से नहीं बचे। चर्बी के लिए - चर्बी को लोग.खाने, चमड़े को मुलायम रखने के लिए लगाने, मशीनरी में चिकनाई देने, शरीर पर मालिश करने, मरहम बनाने आदि कई कामों में लेते हैं। मांस - खाने, पशुओं को खिलाने और दवाई बनाने आदि कामों में लिया जाता है। इसी प्रकार रक्त, यकृत (जिगर) फेफड़ा आदि भी खाने और दवाई बनाने के काम में लेते हैं। दाँत - हड़ी, नख, सींग आदि सजाई के उपकरणों को सुन्दर बनाने में लिए जाते हैं। विष - दवाई, नशा और किसी को मारने के काम आता है। हाथी के दाँत से चूड़ियाँ बनती हैं और अनेक प्रकार के उपकरणों को सुन्दर बनाने के काम में लिए जाते हैं। बालों की टोपियां बनाने के काम में लेते हैं और जूते तथा कपड़े में भी लगाते हैं। खासकर मुलायम गरम कपड़े-शाल आदि बनाने के लिए जीवों की हत्या की जाती है। खरगोश आदि के चमड़े सहित बालों की टोपियाँ बनती हैं। सुन्दर पक्षियों के बालों-पंखों के तुर्रे, कलंगी आदि बनते हैं। मयूर के बालों से मोरपींछी बनती है, जिसे देवी-देवताों की मूर्तियों के प्रमार्जन आदि के लिए काम में लेते हैं। सूअर के बाल ब्रुश आदि के काम में आते हैं। पूंछों में खासकर चमरी गाय की पूंछ, चंवर और गजगाव के काम में आते हैं। घर की सजाई के लिए हिरण, सिंह आदि के सिर और सींग प्राप्त करने के लिए हिंसा होती है। रेशमी वस्त्रों के लिए रेशम के लाखों कीड़ों का प्रतिदिन संहार होता है। . मधु - शहद के लिए भ्रमरों और मधुमक्खियों के छत्तों का विनाश किया जाता है। मधु, खाने और औषधी के काम में आता है। ___ मनुष्य अपनी सुख-सुविधा के लिए कीड़े-मकोड़े, डाँस, मच्छर, खटमल, पिस्सू, चूहे, घुन, यूका, टिड्डी, छिपकली, अंडे आदि अनेक प्रकार के जीवों की हिंसा करता है। इन छोटे-छोटे बेइन्द्रियादि जीवों को मारने के लिए फिनाइल, डी. डी. टी. आदि का उपयोग करता है। जलाशयों में शुद्धि के लिए दवाई डालकर असंख्य जीवों की हिंसा करता रहता है। For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ये दीन एवं असहाय प्राणी १३ चमड़ा, ऊन आदि कुछ वस्तुएँ बिना हिंसा के भी मिल सकती हैं, किन्तु वे उतनी मुलायम और सुन्दर नहीं होती। इसलिए निर्दोष होते हुए भी लोग उन्हें पसन्द नहीं करते। जैनी एवं अहिंसा प्रेमी सजनों का कर्तव्य है कि जहां तक हो आवश्यक वस्तुओं में उन्हीं का उपयोग करे जो निर्दोष अथवा अल्प दोष वाली हो। जिनके लिए बेइन्द्रियादि त्रस जीवों की हिंसा हो, उन वस्तुओं का त्याग कर देना चाहिए। ढोल, नगाड़े, नोबत, तबला आदि मढ़ने के लिए जीवित पशु की हत्या की जाती है, तभी ये वादिन्त्र बनते हैं और इनसे गंभीर ध्वनि निकलती है। देव-मंदिरों में भी इनका उपयोग होता है। आश्चर्य की बात तो यह है कि हिंसा से निर्मित इन साधनों को जैन-मंदिरों में भी स्थान मिला है और उनके द्वारा वीतराग जिनेश्वर भगवंतों की भक्ति होना माना जा रहा है। - शंख, शीप और मोती के लिए बेइन्द्रियादि जलचर प्राणियों का वध होता है। ये दीन एवं असहाय प्राणी .. अण्णेहिं य एवमाइएहिं बहुहिं कारणसएहिं अबुहा इह हिंसंति तसे पाणे इमे य एगिदिए बहवे वराए तसे य अण्णे तयस्सिए चेव तणुसरीरे समारंभंति। अत्ताणे, असरणे, अणाहे, अबंधवे, कम्मणिगड-बद्ध, अकुसलपरिणाममंदबुद्धिजणदुविजाणए, पुढविमए, पुढविसंसिए, जलमए, जलगए, अणलाणिलतण-वणस्सइंगणणिस्सिए य तम्मयतजिए चेव तयाहारे तप्परिणय-वण्ण-गंध-रस-फास-बोंदिरूवे अचक्खुसे चक्खुसे य तसकाइए असंखे थावरकाए य सहुम-बायर-पत्तेय-सरीरणामसाहारणे अणंते हणंति अविजाणओ य परिजाणओ य.जीवे इमेहि विविहेहि कारणेहि। शब्दार्थ - एवमाइएहि - इसी प्रकार के, य - और भी, अण्णेहि - अन्य, बहुहि - बहुत-से, कारणसएहि - सैकड़ों कारणों से, अबुहा - अबूम-अज्ञानी जीव, छ- इस संसार में, तसे पाणे - प्रस प्राणियों की, हिसति - हिंसा करते है, प-और, इमे बराए - पे बिचारे, बहवे - बहुत से, एगिदिएएकेन्द्रिय प्राणी, बेव- तथा, तयस्सिए - तदाश्रित, तणुसरीर - छोटे शरीर वाले, अण्णे - दूसरे, तसेत्रस प्राणी का, समारंभंति - समारम्भ करते हैं, अत्ताणे असरणे - वे जीव त्राण और शरण से रहित हैं; अणाहे - अनाथ है, अबंधवे - जिनका कोई बान्धव नहीं है, कम्मणिगडबद्ध - अपने कर्मों की बेड़ी में बंधे हुए, अकुसलपरिणाम-मंदबुद्धिजणदुविजाणए - शुभ परिणाम-अनुकम्पा भाव से रहित एवं मन्दबुद्धि वाले जीवों को इन जीवों का ज्ञान ही नहीं है। पुढविमए - पृथ्वीकाय वाले, पुढविसंसिए - पृथ्वी के आश्रय रहे हुए, जलमए - जलकाय वाले, For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० १ जलगए - जलगत-जल में रहे हुए त्रस जीव, अणलाणिलतण-वणस्सइगणणिस्सिए - अग्नि, वायु, तृण और वनस्पति के समूह के आश्रय से, व - और, तम्मयतज्जिए - तन्मय-उन्हीं के स्वरूप वाले और उनसे ही जीने वाले, तयाहारे - उन्हीं के आधार से रहे हुए या उन्हीं का आहार करने वाले, चेवऔर, तप्परिणयवण्णगंधरसफास-बोंदिरूवे - वैसे वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और शरीर रूप में परिणत, अचक्खुसे चक्खुसे य - कई जीव आँखों से नहीं दिखाई देने वाले हैं, असंखे - वैसे असंख्य, तसकाइए - त्रसकाय जीवों को, य - और, अणंत - अनन्त, सुहुमबायरपत्तेयसरीरणाम-साहारणे - सूक्ष्म, बादर, प्रत्येक और साधारण शरीर वाले, थावरकाए - स्थावर काय के, जीवे - जीव, परिजाणओजानबूझ कर, य - और, अवियाणओ - बिना जाने, इमेहिं - इन, विविहेहिं - विविध, कारणेहिं.कारणों से, हणंति - हिंसा करते हैं। . भावार्थ - मूर्ख अज्ञानी एवं अबोध पापीजन, उपरोक्त तथा अन्य अनेक कारणों से त्रस प्राणियों की हिंसा करते हैं और बहुत-से एकेन्द्रिय प्राणियों तथा उनके आश्रित रहने वाले दूसरे छोटे त्रस जीवों का समारम्भ करते हैं। वे दीन प्राणी अरक्षित. निराश्रित. अनाथ और बन्धबान्धवों से रहित हैं और अपने-अपने कर्म बन्धनों की दृढ़ बेड़ियों से बंधे हुए हैं। बुरे और अशुभ परिणाम वाले मन्दबुद्धि लोग इन जीवों को नहीं जानते। उनकी पापमय बुद्धि में इन जीवों के हिताहित का विवेक नहीं है। वे अज्ञानीजन न तो पृथ्वीकाय के जीवों को जानते हैं और न पृथ्वीकाय के आश्रय से रहे हुए अन्य स्थावर और त्रस जीवों को जानते हैं। वे जलकायिक तथा जलाश्रित रहने वाले जीवों को भी नहीं जानते। वे अग्नि, वायु, तृण और वनस्पतिकाय के जीवों और उनके आश्रय से रहने वाले अन्य जीवों को भी नहीं जानते। ये पृथिव्यादि मय जीव तथा उनके सहारे रहने वाले और उन्हीं के आधार से जीने वाले तथा उन्हीं का आहार करने वाले हैं, उनके शरीर पृथिव्यादि के वर्ण, गंध, रस और स्पर्श रूप से परिणित हैं। उनमें से कई आँखों से दिखाई देते हैं और कई दिखाई नहीं देते। त्रस जीवों की तथा सूक्ष्म, बादर, प्रत्येक और साधारण शरीर वाले असंख्य एवं अनन्त स्थावर जीवों की जानबूझ कर या अनजानपन से हिंसा करते हैं। विवेचन - पूर्वोक्त पाठ में जीव-हिंसा के कुछ कारण बतलाये हैं। इन कारणों के अतिरिक्त भी ऐसे सैकड़ों कारण हैं कि जिनसे प्रेरित होकर, धर्म-अधर्म और हेयोपादेय के विवेक से रहित मूढजन, हिंसा में प्रवृत्त होते हैं। हिंसादि प्रवृत्ति में जीव की अमर्यादित इच्छा, आशा एवं तृष्णा मुख्य रहती है। इच्छा और तृष्णा पर विवेक का अंकुश नहीं होने के कारण हिंसक-प्रवृत्ति बढ़ती ही रहती है। विवेक का अंकुश सम्यक्बोध होने पर ही लग सकता है। जिसकी आत्मा में बोध का अभाव है, वह अज्ञानी है। विद्या, बुद्धि और कला में निपुण होते हुए भी सम्यक्बोध के अभाव में हिंसक-प्रवृत्ति बढ़ती है-विशेष बढ़ती है। स्वार्थ, द्वेष, वैर आदि दूषित भावों के चलते असम्यग विद्या अधिक संहारक हो जाती है। For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृथ्वीकाय की हिंसा के कारण र-तलाग - चिइ-वेइय किं ते? करिसण- पोक्खरणी - वाविवप्पिणि- कूव-सरखाइय- आराम - विहार- थूम - पागार-दार - गोउर- अट्टालग - चरिया - सेउ-संकम-पासायविकप्प-भवण-घर-सरण - लयण - आवण- चेइय- देवकुल-चित्त-सभा-पवाआयतणा-वसह-भूमिघर - मंडवाण कए भायणभंडोवगरणस्स य विविहस्स य अट्ठाए पुढविं हिंसंति मंदबुद्धिया । - शब्दार्थ - किं ते - वे कारण कौन से हैं ?, करिसण - कृषि, पोक्खरणी पुष्करणी, वावि बावड़ी, वप्पिणि- क्यारी, कूव कुआँ, सर छोटा सरोवर, तलाग - तालाब, चिइ - भींत, बेइय वेदी, खाइय - खाई, आराम बगीचा, विहार मठ, थूभ स्तूभ, पागार प्राकार-परकोटा, दारद्वार, गोउर - नगर-द्वार, अट्टालग अटारी, चरिया चरिका- नगर और कोट के बीच का मार्ग, सेतु - पुल, संकम - ऊँची-नीची भूमि को पार करने का मार्ग, पासाय प्रासाद- राजभवन, विकप्प भवन की ही तरह का छोटा प्रासाद, भवण भवन, घर मकान, सरण - फूस की झोंपड़ी, लयण - पर्वत खोदकर बनाये हुए आवास, आवण दुकान, चेइय - चैत्य- प्रतिमा आदि, देवकुल देवमंदिर, चित्तसभा - चित्र - सभा, पवा प्याऊ, आयतण देव- स्थान, आवसह - तापसों का आश्रम, भूमिघर - भूमिगृह - तलघर, मंडवाण मंडप, कए - इन सबके बनाने आदि में, य - और, विविहस्सविविध प्रकार के, भायणभंडोवरगरणस्स - भाजन-पात्र बर्तन और उपकरण बनाने के, अट्ठाए अर्थ-लिए, मंदबुद्धिया - जिनकी बुद्धि आत्महित सोचने में मन्द है, ऐसे अज्ञानी जीव, पुढवि - पृथ्वीकाय की, हिंसंति - हिंसा करते हैं । - पृथ्वीकाय की हिंसा के कारण *********** - 1 - - - - For Personal & Private Use Only १५ ***** - भावार्थ - प्रश्न - पृथ्वीकाय की हिंसा किस प्रयोजन से की जाती है ? उत्तर खेती करने के लिए, पुष्पकरणी, बावडी, क्यारियाँ, कुआँ, सरोवर, तालाब आदि जलाशय बनाने के लिए, भींत, वेदिका, खाई, बगीचा, साधुओं के ठहरने का मठ, स्तुभ, प्राकार, द्वार, गोपुर, अट्टालिका, चरिका, सेतु, संक्रम, प्रासाद, भवन, घर, झोंपड़ी, पर्वतगृह, दुकान, चैत्य, देवमंदिर, चित्र सभा, प्याऊ, आयतन, आश्रम, भूमिगृह और मण्डप आदि के लिए, भाजन, बरतन आदि विविध प्रकार के कार्यों के लिए मन्दबुद्धि वाले जीव पृथ्वीकाय की हिंसा करते हैं । विवेचन उपरोक्त सूत्र में उस हिंसा के कुछ भेद बतलाये हैं कि जिसमें पृथ्वीकाय की हिंसा मुख्यता से होती है। उपरोक्त वर्णन में कई ऐसे कार्यों का उल्लेख है जिन्हें मनुष्य अपनी आजीविका - • श्री ज्ञानविमलसूरि रचित वृत्ति में 'वेइय' के स्थान पर 'चेतिय' शब्द है, जिसका अर्थ किया है - 'चेति मृतदहनार्थ काष्ठस्थापनं ।' www.jalnelibrary.org Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ० १ चलाने के लिए करते हैं। कई सुख-सुविधा के लिए और कई सार्वजनिक उपयोग के लिए करते हैं। इनमें कुछ कार्य ऐसे भी हैं कि जो धर्म समझकर किये जाते हैं। __पुष्करणी - वह चौकोन जलाशय, जिसमें कमल खिले हों। विहार - बौद्ध साधुओं के ठहरने का स्थान। स्वाध्याय-भूमि को भी आगमों में 'विहार-भूमि' बतलाया है, किन्तु उसका यहाँ सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि वह स्वाभाविक भूमि होती है। उसको बनाने और हिंसा करने की आवश्यकता नहीं होती। मध्यकाल में जैन-विहार भी बने। उनका समावेश इस पद में हो सकता है। स्तूभ - मृतक के दाह-स्थान पर बनाई हुई छत्री, स्मारक-स्तंभ, चबूतरा आदि। चैत्य - व्यन्तरायतन, उद्यान, प्रतिष्ठित वृक्ष, यज्ञस्थान, मंदिर, मूर्ति, स्मारक वृक्ष आदि। पृथ्वीकाय की हिंसा के साथ अन्य स्थावर तथा त्रस जीवों की भी हिंसा होती है। किन्तु यहाँ . मुख्यता पृथ्वीकाय की ही है, इसलिए उसी का वर्णन किया गया है। हिंसा आजीविका के लिए हो या सुख-सुविधा के लिए, वह हिंसा ही है, पाप ही है, फिर भले ही वह सार्थक हो, निरर्थक हो या धर्म के नाम पर हो। उन जीवों की हिंसा तो होती ही है। यदि ऐसी हिंसा को भी धर्म माना जाय तो वह बुद्धिहीनता है। • अप्काय की हिंसा के कारण जलं च मजण-पाण-भोयण-वत्थधोवण-सोयमाइएहिं। शब्दार्थ - मजण:- स्नान, पाण - पीने, भोयण - भोजन के, वत्यमोवण - वस्त्र धोने में, सोयमाइएहि - शौच आदि कार्यों में, जलं - पानी के जीवों की हिंसा होती है। भावार्थ - अप्काय जीवों की हिंसा-स्नान करने, पानी पीने, भोजन बनाने, वस्त्र धोने और शूचि करने आदि कार्यों में की जाती है। . विवेचन - अप्काय के जीवों की हिंसा के कुछ प्रकार इस सूत्र में बताए है। इसके अतिरिक्त का प्रकार पृथ्वीकाप की विराधना के कारणों में आ जाते हैं। घर-भवनादि बनाने में पृथ्वीकाप के साथ अपकाय की भी आवश्यकता होती ही है। इसके अतिरिक्त रोष कारणों का समावेश आदि शब्द से कर लेना चाहिए। तेजस्काय की विराधना के कारण पयण-पयावण-जलावण-विदसणेहिं अगणिं। शब्दार्थ - पयणपयावण - भोजनादि पकाने व दूसरे से पकवाने, जलावण - दीपकादि जलाने, विदंसणेहि - प्रकाश के लिए, अगणिं - अग्निकाय के जीवों की हिंसा की जाती है। For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पतिकाय की हिंसा के कारण ****************** 1-4-10-10-06-10-0-*-*-* ********** भावार्थ - अग्निकाय जीवों की हिंसा, भोजनादि बनाने, दूसरों से बनवाने, दीपक आदि जलाने और प्रकाश करने आदि कार्यों में की जाती है। विवेचन - पचन- पचावन में केवल भोजन ही नहीं, वे सभी चीजें आ गईं, जो पकाई जाती हैं। जैसे-ईंट, चूना, बर्तन, धातु, औषधि आदि । इसी प्रकार आदि शब्द से अन्य अग्निकाय के आरम्भ के कारणों को भी जान लेना चाहिए। वायुकाय की विराधना के कारण सुप्प-वियण-तालयंट- पेहुण-मुह-करयल - सागपत्त-वत्थमाईएहिं अणिलं हिंसंति । शब्दार्थ- सुप्प - सूप-धान्यादि फटक कर साफ करने का साधन, वियण- पंखे से, तालयंट के पंखे से, पेहुण- मयूरादि के पंख से, मुह मुख से, करयल हथेलियों से, सागपत्त सागोन के पान से, वत्थमाइएहिं वस्त्र आदि से, अणिलं वायुकाय के जीवों की हिंसंति - हिंसा की जाती है। - भावार्थ- सूप, बाँस आदि के विंजने (पंखे) से, मयूरादि के पंखों से बने हुए पंखे से, मुँह से, हथेलियों से, सागोन के पान और वस्त्रादि साधनों से वायुकाय के जीवों की विराधना की जाती है । - १७ - विवेचन - इस सूत्र में वायुकाय के जीवों की हिंसा के साधन बतलाये हैं। मुँह से वायुकाय की हिंसा एक तो फूँक लगाने से होती है, दूसरी वस्त्रादि से यतना नहीं करके खुले मुंह से बोलने और छींक जम्हाई आदि लेने से होती है। करतल से - ताली बजा कर या झाँझ, डफली, तबला आदि हाथों से बजाकर वायुकाय की विराधना की जाती है । सागपत्र सागोन नामक वृक्ष के पान, हाथी के कान जैसे बड़े होते हैं। उनसे हवा करके विराधना की जाती है । - वस्त्र से झटक, फटक और हिलाकर तथा उड़ाकर हिंसा की जाती है। 'विजन' शब्द में उन सभी प्रकार के पंखों का समावेश किया जा सकता हैं, जो हवा के लिए बिजली आदि से चलते हैं। वनस्पतिकाय की हिंसा के कारण अंगार - परियार-भक्ख-भोयण-सयणासण- फलक- मूसल - उखल-तत-विततातोज्ज-वहण - वाहण - मंडव - विविह-भवण- तोरण- विडंग - देवकुल- जालयद्धचंदणिज्जूहग- चंदसालिय-वेतिय- णिस्सेणि- दोणि- चंगेरी - खील- मंडव - सभा - पवावसहगंध-मल्लाणुलेवणं - अंबर - जुयणंगल- मइय-कुलिय- संदण सीयारह-सगड-जाणाजोग्ग- अट्टालग - चरिय-दार - गोउर-फलिहा- जंत-सूलिय-लउड-मुसंठि - सयग्धी- बहुप For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०१ *********************************** * ******************* हरणा-वरणुवक्खराणकए अण्णेहिं य एवमाइएहिं बहुहिं कारणसएहिं हिंसंति ते तरुगणे भणियाभणिए य एवमाई। शब्दार्थ - अगार - घर, परियार - खडगादि का म्यान, भक्ख-भोयण - खाने के लिए भोजन, सयण - सोने के लिए पलंगादि, आसण - बैठने के लिए आसन, फलक - पटिया, मूसल - धान्य कूटने का मूसल, उखल - ओखली, तत - वीणा आदि, वितत - ढोल-नगाड़ा आदि, आतोज्ज - वादिन्त्र, वहण - नौका आदि, वाहण - गाड़ी-रथ आदि, मंडव - मण्डप, विविहभवण - अनेक प्रकार के भवन, तोरण - तोरण, विडंग - कबूतरों के बैठने व रहने के लिए बनाए गए-कपोतपाली (छाजे), देवकुलदेवालय, जालय - झरोखा; अद्धचंद - अर्द्ध-चन्द्राकार खिड़की अथवा तदाकार सोपान, णिज्जूहग - द्वार शाखा के ऊपर घोड़े के मुंह के आकार के निकले हुए लकड़ी केसाधन, चंदसालिय - चन्द्रशालाघर के ऊपर की शाला-अट्टालिका, वेतिय - वेदिका, णिस्सेणि - नि:स्सरणी-सीढ़ी, दोणि- छोटी नौका, चंगेरी - बड़ी नौका अथवा पुष्प भरने का डलिया, खील - खूटी, मेढक - स्तंभ, सभा - सभा, पवाप्याऊ, आवसह - आश्रम या मठ, गंध - सुगन्ध, मल्ला - माला, अणुलेवणं - विलेपन, अंबर - वस्त्र, जुय - जुआ, णंगल - हल, मइय - खेती के काम में आने वाली लकड़ी का 'बक्खर', कुलिय - बीज बोने की नलिका, संदण - एक प्रकार का रथ, सीयारह - शिविका-पालकी, रथ, सगडगाड़ी, जाण - यान, जोग्ग - छोटी गाड़ी, अट्टालग - अट्टालिका, चरिय - नगर और प्रकोट के बीच का आठ हाथ चौड़ा मार्ग, दार - द्वार, गोउर - नगर का बड़ा द्वार, फलिह - परिघा-अर्गला, जंत - यंत्र-अरहट्टादि, सूलिय - शूली, लउड - लाठी, मुसंढि - शस्त्र विशेष-बन्दक, सयग्घि- शतनि-तोप. बहुपहरणावरणुवक्खराणए-बहुत प्रकार के शस्त्र ढक्कन तथा नाना प्रकार के उपकरण बनाने के लिए, य - और, एवमाइएहिं - इसी प्रकार के, अण्णेहिं - दूसरे, भणिया अभणिए - ऊपर कहे गए और नहीं कहे गए ऐसे, बहुहिं - बहुत से, कारण-सएहिं. - सैकड़ों कारणों से, ते - वे अज्ञानीजन, तरुगणे - वृक्षों के समुदाय-वनस्पतिकाय की, हिंसंति - हिंसा करते हैं। .. भावार्थ - वनस्पति का आरम्भ घर बनाने के लिए, तलवार आदि शस्त्रों के कोश (म्यान) के लिए, खाने-पीने, भोजन बनाने, शय्या, आसन, पाट, मूसल, ओखली, वीणा, ढोल-नगारे, वादिन्त्र, जलयान, स्थलयान-रथादि, मंडप, भवन, तोरण, कबूतरादि के बैठने के लिए स्थान, देवालय, झरोखे, चन्द्राकार सोपानादि, द्वारोपरि घोड़मुखे, चन्द्रशाला, वेदिका, नि:सरणी, नौका, बड़ी नोका (जहाज) फूलों की छाब, खूटे, थंभे, सभा, प्याऊ, आश्रम, सुगन्धित साधन, माला विलेपन वस्त्र बैलों को जोतने का जुआ, हल, बक्खर, नलिका, शिविका, गाड़ी, यान, छोटी गाड़ी, अट्टालिका, चरिका, द्वार, नगरद्वार, अर्गला, यंत्र, शूली, लाठी, बन्दूक, तोप अनेक प्रकार के उपकरण बनाने और ऐसे सैकड़ों कामों के लिए जो यहाँ बताए नहीं गये हैं, अज्ञानीजन वनस्पतिकाय की हिंसा करते हैं। विवेचन - वनस्पतिकाय का मानव जीवन से बहुत बडा सम्बन्ध है। खान-पान, वस्त्र-पात्र, For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसक जीवों का प्रयोजन रहन - सहनादि में वृक्षों, लताओं, पुष्पों, फलों और बीजों को काम में लिया जाता है। मकान बनाने आदि सहस्त्रों काम में लकड़ी, पटिये आदि लिए जाते हैं। मनुष्य अपने जीवन-निर्वाह, आजीविका, मौजशौक, भोगविलास आदि में वनस्पतिकाय का आरम्भ करता है। विवेकी गृहस्थ अकारण आरम्भ नहीं करते, परन्तु अविवेकी लोग व्यर्थ का आरम्भ करते हैं । हिंसक जीवों का प्रयोजन ******* सत्ते सत्तपरिवज्जिया उवहणंति दढमूढा दारुणमई कोहा माणा माया लोहा हस्स रई अरई सोय वेयत्थी जीय-धम्मत्थकामहेडं सवसा अवसा अट्ठा अणट्ठाए य तसपाणे थावरे य हिंसंति मंदबुद्धी । सवसा हणंति, अवसा हणंति, सवसा अवसा दुहओ हणंति, अट्ठा. हणंति, अणट्ठा हणंति, अट्ठा अणट्ठा दुहओ हणंति, हस्सा हणंति, वेरा हणंति, रईय हणंति, हस्सा-वेरा-रईय हणंति, कुद्धा हणंति, लुद्धा हणंति, मुद्धा हणंति, कुद्धा लुद्धा मुद्धा हणंति, अत्था हणंति, धम्मा हणंति, कामा हणंति, अत्था धम्मा कामा हणंति ॥ ३ ॥ शब्दार्थ - दढमूढा - वे महा मूढ़, दारुणमई - कठोर मति वाले क्रूर जीव, सत्तपरिवज्जिया - सत्व रहित, सत्ते उन सत्वों - जीवों को, उवहणंति- मारते हैं, मंदबुद्धी - वे बुद्धिहीन अज्ञानी जीव, कोहा - क्रोध, माणा मान, माया माया, य और, लोहा - लोभ से, हस्स हास्य, रई अरईरति - अरति, सोय - शोक से, वेयत्थी - वेदार्थी वैदिक अनुष्ठान के लिए, जीयधम्मत्थकामहेउं "जीवन, काम, धन और धर्म के लिए, सवसा - अपनी इच्छा से स्वतंत्रता से, अवसा विवश होकर, अट्ठा - प्रयोजन से, अणट्ठा बिना प्रयोजन से, तसपाणे- त्रस प्राणियों, य और थावरे - स्थावर प्राणियों की, हिंसंति- हिंसा करते हैं, सवसा हणंति अपनी अच्छा से प्राणियों की घात करते हैं, अवसा हणंति - विवश होकर घात करते हैं, सवसा अवसा दुहो हणंति - स्वाधीन और पराधीन-दोनों प्रकार से जीवों की घात करते हैं, अट्ठा हणंति प्रयोजन से जीव घात करते हैं, अणट्ठा हणंति - बिना प्रयोजन हिंसा करते हैं, अट्ठा अणट्ठा दुहओ हणंति सकारण और अकारण दोनों प्रकार से हिंसा करते हैं, हस्सा हणंति - हास्य वश जीव-घात करते हैं, वेराहणंति - वैरभाव से हनते हैं, कुद्धा हणंतिक्रुद्ध होकर हिंसा करते हैं, लुद्धा हणंति - लुब्ध होकर हिंसा करते हैं, मुद्धा हणंति मुग्ध होकर हिंसा करते हैं, कुद्धा लुद्धा मुद्धा हणंति - क्रुद्ध, लुब्ध और मुग्ध होकर मारते हैं, अत्था हणंति - अर्थ-धन के लिए मारते हैं, धम्मा हणंति - धर्म के लिये जीव घात करते हैं, कामा हणंति कामभोग के लिए हिंसा करते हैं, अत्था धम्मा कामा हणंति- अर्थ, धर्म और काम के लिए जीवघात करते हैं । विवेचन - त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करने वालों का अभिप्राय बतलाते हुए आगमकार - - For Personal & Private Use Only १९ - ******** - - - Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०१ ने जिस अभिप्रायों का उल्लेख किया, उनमें मंदबुद्धी - विशेषण मुख्य है। इसका अर्थ है-हीन मति वाले, विवेक-विकल, मिथ्यादृष्टि जीव, जिन्हें हिताहित धर्म-अधर्म और पुण्य-पाप का ज्ञान नहीं है। वास्तव में मिथ्यादृष्टिपन बहुत बड़ा पाप है। मिथ्यादृष्टि उस अन्धे के समान है जो सुख की चाह में भटकता हुआ दुःख के अन्धकूप में गिरकर मर जाता है। मिथ्यादृष्टि अन्य जीवों की घात के साथ अपनी आत्मा का भारी पतन कर लेता है। ___ मन्दबुद्धि के साथ 'दढमूढा' - अत्यन्त मूर्ख और 'दारुणमई' भयंकर विचार बाले क्रूर-परिणाम , भी मिल जाये, तो प्राणियों की हत्या बढ़ चढ़ कर की जाती है। मिथ्यात्व के साथ क्रूरता जिसमें आ जाये और वह शक्ति-सम्पन्न हो, तो अत्याचारों और हिंसक कार्यों की वृद्धि होती है। ... मन्दबुद्धि केवल वही नहीं है-जो पढ़ा-लिखा नहीं हो, जिसे बोलना-लिखना और अधिकार जमानाथहीं आता हो। वे लोग भी बुद्धिहीन हैं, जो अपने समान प्राण रखने वाले जीवों की हिंसा बढ़ाते हैं। हिंसा के साधन बढ़ाते हैं, हिंसक कृत्य करके धन-संग्रह करना चाहते हैं और हिंसा में ही अपनी और राष्ट्र की उन्नति होना मानते हैं। अहिंसक लोगों में हिंसा का प्रचार, मांस-भक्षण में वृद्धि और ऐसे अन्य पापाचार की वृद्धि करने वाले पढ़े-लिखे, चुस्त, चालाक और अधिकार सम्पन्न व्यक्ति भी मन्दबुद्धि एवं भीषण-मति हैं। वे धर्म एवं उत्तम आर्य-संस्कारों को नष्ट कर, अनार्य एवं हिंसक संस्कार बढ़ाते हैं। शिक्षा एवं प्रयोगादि से हिंसा वृद्धि के उपाय बताते हैं। ये सब विवेकहीन हैं। एक जीव को अहिंसक से हिंसक बनाना भी महापाप है, तब सारे राष्ट्र को जीवघातक बनाना कितना भयानक पाप है? सत्तपरिवजिया - सत्त्वपरिवर्जिक-बलहीन, शक्ति सहित, अशक्त, दीन, अपनी रक्षा करने में , असमर्थ। शक्ति-सम्पन्न जीव, अशक्त और दीन जीवों की हिंसा करते हैं, उन पर अत्याचार करते हैं और उनकी घात करके प्रसन्न होते हैं। वेयत्थी - वेदार्थी-वैदिक अनुष्ठान को सम्पन्न करने के लिए। वैदिक क्रियाकांड में अन्य स्थावर और त्रस जीवों के अतिरिक्त पंचेन्द्रिय जीवों-बकराः भेड़ आदि का बलिदान करने में धर्म माना गया है। अजामेध, गोमेध, अश्वमेध और नरमेध तक का विधान है पर प्राणियों की हत्या करके धर्मसाधना करना-देव का प्रसन्न होना और अपनी तथा अपने कुटुम्ब की रक्षा होना माना जाता है। वैदिक मान्यता के अतिरिक्त इस्लाम, क्रिश्चियन आदि संस्कृति भी जीव-हत्या करके धर्म का अनुष्ठान होना मानती है। यह सब 'मंदबुद्धी' - मिथ्याइष्टि का परिणाम है। हिंसक जन कयरे ते? जे ते सोयरिया मच्छबंधा सारणिया वाहा कूरकम्मा ब्राउरिया दीवियपिधणप्पओग-तप्पगल-जाल-वीरल्लगायसीदभ-वग्गुरा-कूडछलियाहत्थाहरिएसा For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसक जन २१ *********************************************************** * ** साउणिया य वीदंसगपासहत्था वणचरगा लुद्धगा महघाया पोयघाया एणीयारा पएणीयारा-सर-दह-दीहिय-तलाग-पल्लल-परिगालण-मलण-सोत्तबंधण-सलिलासयसोसगा-विसगरस्स य दायगा उत्तणवल्लर-दवग्गि-णिद्दया-पलीवगा कूरकम्मकारी। शब्दार्थ - कयरे ते - कौन हैं वे हिंसक लोग?, ते - वे, जे सोयरिया - जो सूअरों का शिकार करते हैं, मच्छबंधा - मछलियों को पकड़ने वाले-मछलीमार, साउणिया - शाकुनिक-पक्षियों को जाल में फंसाकर मारने वाले-पारधी-बहेलिया, वाहा - व्याधामृग-घातक, कूरकम्मा - क्रूर कर्म करने वाले, वाउरिया - वागुरिका-मृगों को जाल में फंसाने की ताक में रहने वाले, दीविय-बंधणप्पओग-तप्पगलजाल-वीरल्लगायसी-दब्ध-वग्गुरा कुडछलियाहत्था - मृग को मारने के लिए चीता रखने वाले, मृग बांधने के लिए जाल रखने वाले, मछली मारने के लिए कांटा और जाल रखने वाले, अन्य पक्षियों को भारने के लिए वीरल्लक-बाज-पक्षी रखने वाले, लोह अथवा कुश का बना हुआ जाल रखने वाले, अन्य चीता-सिंह आदि को पकड़ने के लिए बकरा और पिंजरा रखने वाले, हरिएसा - हरिकेश-चांडाल, साउणिया - शिकारी, वीदंसगपासहत्था - बाज आदि घातक-पक्षी तथा फन्दा रखने वाले, वणचरगावन में घूमने वाले वनवासी भील आदि, लुद्धगा - लुब्धक-ध्याघ्र, महुघाया - मधुमक्खियों का.घात कर मधु लेने वाले, पोयघाया - पोतघातक-पक्षियों के बच्चों को मारने वाले, एणीयारा - मृग को लुभाकर पकड़ने के लिए हिरनी को लेकर घूमने वाले, पएणीयारा - बहुत सी हिरनियों को रखने वाले, सर-दहदीहिय-तलाग-पल्लल-परिगालण-मलण-सोत्तबंधण-सलिलासयसोसगा- सरोवर, द्रह (झील) नहर, पोरख, तालाब और तलाई का पानी निकाल कर उनमें रहे हुए मच्छादि जीवों का मर्दन करने वाले और जल-प्रवाह को रोक कर पानी सुखाने वाले, विसगरस्स य दायगा - आहार आदि में विष : मिला कर देने वाले, उत्तणवल्लर-दवग्गि-णिद्दया पलीवगा - तृणयुक्त वनों और वन में रहे हुए खेतों में निर्दयतापूर्वक आग लगाने वाले, कूरकम्मकारी- ये क्रूर कर्म करने वाले हिंसकजन हैं। ... भावार्थ - प्रश्न - वे हिंसक मनुष्य कौन हैं? .. उत्तर - जो सूअरों का शिकार करते हैं, मछलियों को मारते हैं, पक्षियों को जाल में फंसा कर मारने वाले-पारधी आदि, मृगघातक-व्याधा, मृर्गों को अपनी जाल में फंसाने की ताक में रहने वाले, मृग-समूह पर झपटकर दबोचने वाले चीता रखने वाले, जाल, मछली मारने का कांटा आदि तथा पक्षियों का शिकार करने वाले बाज आदि रखने वाले और हिंसक चीता, सिंह आदि को आकर्षित करने के लिए बकरा आदि रखने वाले, चांडाल, शिकारी, वन में घूमने वाले वनवासी, मधुमक्खियों के समूह के घातक, पोतघातक, मृगों को लुभाने के लिए हिरनी और अनेक हिरनियों को रखने वाले, जलाशय को सुखाकर या खाली करवा कर उसमें रहे हुए मच्छादि को मारने वाले, आहारादि में विष मिलाकर प्राणियों को मारने वाले और खेतों तथा जंगलों में आग लगाकर निर्दयतापूर्वक जीवों का संहार करने वाले क्रूर जीव, हिंसक लोग हैं। For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०१ **************************************************************** विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में प्रायः उन्हीं हिंसकों का वर्णन है, जिनकी आजीविका ही हिंसा के साधन से चलती है। वे ऐसे क्रूर-कर्मियों में ही उत्पन्न होते, बढ़ते और जीवहिंसा में ही जीवन व्यतीत कर काल के शिकार बन जाते हैं। निरन्तर हिंसक कृत्यों में ही रहने के कारण उनका हृदय इतना क्रूर कठोर और निर्दय हो जाता है कि जीवों को आक्रन्द करते, तड़पते, छटपटाते और मरते देखकर उनके हृदय में तनिक भी कोमलता नहीं आती। उनका हृदय इतना अधिक क्रूर हो जाता है। वे सूर्योदय से पूर्व ही नियमानुसार शूकरघात, मृगघात, पक्षीघात और मत्स्यघात के लिए निकल पड़ते हैं। उनको प्राप्त मनुष्यभव, पाप का भार बढ़ाने वाला ही होता है। इन पापानुबन्धी-पाप के भाजन मनुष्यों के लिए, मनुष्य जैसा उत्तम भव भी दुर्गतिरूप ही रहा। यदि उनके मन में कुछ अंशों में कोमलता है, तो अपने कौटुम्बिक मनुष्यों या अधिक हुआ तो मनुष्य जाति के लिए ही। पशुओं, पक्षियों और जलचरों के लिए तो उनके हृदय में करुणा का कोई स्थान ही नहीं है। ग्राम्य-सूअर - जिन्हें चाण्डाल लोग पालते हैं। इनकी घात का तरीका बड़ा ही क्रूर है। कहते हैं कि सूअर की चमड़ी मोटी होती है और बाल भी ऐसे होते हैं कि साधारण शस्त्र से उसकी हत्या होना कठिन हो जाता है। चाण्डाल लोग, सूअर के पांवों को लोहे के तार से दृढ़तापूर्वक बांध देते हैं, जिससे । वह उठ कर भाग नहीं सके। फिर उस पर घास-फूस आदि डाल कर आग लगा देते हैं। वह बेचारा आग से जलता हुआ तड़पता है और भागने का प्रयत्न करता है, किन्तु पाँव दृढ़तापूर्वक बंधे होने के कारण भाग नहीं सकता। यदि जोरदार झटके से तार टूटकर एक भी पांव खुल जाये, तो वह आग में से कलने का प्रयत्न करता है, किन्त पास ही लाठियाँ लेकर खडे चाण्डाल लोग, लाठियों की मार से उसे गिरा देते हैं। कितनी क्रूरतापूर्वक हत्या की जाती है उस बिंचारे की? किन्तु उनका क्रूरतम हृदय पसीजता ही नहीं। वे उसका मांस खाकर और पैसे बटोर कर प्रसन्न होते हैं। जिस प्रकार मृग को दबोचने के लिए पाले हुए चीते छोड़े जाते हैं, उसी प्रकार विकराल एवं भयंकर कुत्तों को पालकर उनसे भी हिरन, खरगोश, शृंगाल आदि जीवों की हत्या करवाते हैं। खेतों और जंगलों को साफ करने या अन्य कारणों से आग लगाकर छोटे-बड़े असंख्य त्रस जीवों को होमने के कार्य भी स्वार्थी मनुष्य करता है। हरिएसा' - 'हरिकेशाश्चाण्डालविशेषा' - तथा – 'हरिकेशा: मातंगाश्चाण्डाला इत्यर्थः।' हरिकेश का अर्थ 'चाण्डाल' होता है। यह शब्द जाति-विशेष का पर्याय है। इससे शंका होती है कि उत्तराध्ययन अध्ययन १२ में वर्णित महात्मा का 'हरिएस' विशेषण जाति-सूचक था. और नाम 'बल' था या उनका नाम ही 'हरिएसबल' था? किन्तु उत्तराध्ययन सूत्र देखते यह शंका नहीं रहती। यहाँ उसका नाम ही 'हरिएसबल' और 'हरिएस' लिखा है। जैसे - 'हरिएसबलो नाम' गाथा १ और 'सोवागपुत्तं हरिएस साहुं' (गाथा ३७)। अब हिंसक मनुष्यों की जाति का परिचय सूत्रकार स्वयं देते हैं। For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसक जातियाँ २३ ************************** ******************************** हिंसक जातियाँ इमे य बहवे मिलक्खुजाई, के ते? सक-जवण-सबर-बब्बर-काय-मुरुडोदभडग-तित्तिय-पक्कणिय-कुलक्ख-गोड-सीहल-पारस-कोचंध-दविल-बिल्ललपुलिंद-अरोस-डोंब-पोक्कण-गंध-हारग-बहलीय-जल्ल-रोम-मास-बउस-मलयाचुंचया य चूलिया कोंकणगामेत्त पण्हव-मालव-महुर-आभासिय-अणक्ख-चीणलासिय-खस-खासिया-नेटर --मरहट्ठ-मुट्ठिय-आरब-डोबिलग-कुहण-केकय-हूणरोमग-रुरु-मरुया-चिलायविसय-वासी य पावमइणो। शब्दार्थ - इमे - ये, बहवे - बहुत-सी, मिलक्खुजाई - म्लेच्छ जातियाँ हैं, ते के - वे कौनसी जातियाँ हैं ?, सक - शक देश के, जवण - यवन-तुर्क, इन देशों में उत्पन्न मनुष्य जातियाँ, सबर - भील, बब्बर - बर्बर, काय - काय, मुरुडोदभडग - मुरुंड उद भडक, तित्तिय - तित्तिक, पक्कणियपक्कणिक, कुलक्ख - कुलाक्ष, गोड - गौड, सीहल - सिंहल, पारस - पारस, कोचंध - क्रौंच और आन्ध्र, दविल - द्रविड़, बिल्लल - विल्वल, पुलिंद - पुलिंद, अरोस - अरोष, डोंब - डौंब, पोक्कणपोकण, गंधहारक -- गंधहारक-गान्धार, बहलीय - बहलीक, जल्ल - जल्ल, रोम - रोम, मास - मास, बउस - बकुश, मलया - मलय, चुंचुया - चुंचक, चूलिया - चूलिक, कोंकणगामेत्त - कोंकणक मेद, पण्हव - पण्हव, मालव - मालव, महुर - महुर, आभासिय - आभाषिक, अणक्क - अण्णक, चीण - चीन, लासिय - लुहासिक, खस - खस, खासिया - खासिक, णेहुर - नेहर, मरहट्ठमहाराष्ट्र, मुट्ठिय - मौष्टिक, आरब - आरब, डोबिलग - डोबिलक, कुहण - कुहण, केकयं - कैकय, हूण - हूण, रोमग - रोमक, रुरु - रुरु, मरुया - मरुक, चिलायविसयवासी - चिलात देशवासी, पावमइणो - पापमति। भावार्थ - वे बहुत-सी म्लेच्छ जातियों के लोग हैं। वे कौन-सी जातियाँ हैं ? - शक, यवन, शबर, बब्बर, काय, मुरुंड, उद, भडक, तित्तिक, पक्कणिक. कलाक्ष. गौड, सिंहल. पारस. क्रौंच. आन्ध्र, द्रविड, विल्वल, पुलिंद, आरोष, डौंब, पोकण, गान्धार, बेहलीक, जल्ल, रोम, मास, बकुश, मलय, चुंचुक, चूलिक, कोंकण, मेद, पण्हव, मालव, महुर, आभाषिक, अणक्क, चीन, लुहासिक, खस, खासिक, नेहर, महाराष्ट्र, मोष्टिक, आरब, डोबलिक, कुहण, कैकय, हूण, रोमक, रुरु, मरुक, चिलात देश के निवासी पापमति वाले हिंसक लोगों की जातियाँ हैं। विवेचन - मनुष्यों के हिंसक और मांस-भक्षी जातियाँ बहुत हैं। भारत के अतिरिक्त सभी देशवासी मांस-भक्षक हैं। भारत में ही जैन और कुछ वैष्णव मतानुयायी जातियाँ ऐसी हैं कि जो न तो ० पूज्य श्री हस्तीमल जी म. सम्पादित तथा बीकानेर वाली प्रति में कोंकणगामेत्त' पाठ है और पूज्य श्री घासीलालजी म. तथा श्रीमद्ज्ञानविमल सूरि की टीकावली प्रति में-'कोंकणग-कणय-सेय-मेता'-पाठ है। यह पाठ भेद है। * 'णेहुर'-पाठ भेद। . For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०१ ******************** * ******************************** मांस भक्षक हैं और न पशु-पक्षियों की हिंसा करने वाली है। वैसे बौद्ध मतावलंबी भी अहिंसक कहलाते हैं, किन्तु वे नाम-मात्र के अहिंसक हैं। उनके साधु (लामा) भी मांस भक्षी हैं, तब अनुयायी तो निश्चय ही मांसाहारी हैं और अपने गुरुओं के लिए पशु-हत्या करके मांसाहार तैयार करते हैं। भारत के बाहर ऐसी एक भी जाति जानने में नहीं आई--जो अहिंसक हो। कुछ व्यक्ति पूर्व के सुसंस्कार से या किसी निमित्त से प्रेरित होने पर अहिंसक बन सकते हैं, किन्तु वे अपवाद रूप हैं। अधिकांश जातियां मांसभक्षी हैं। भारत में भी अधिक संख्या मांस-भक्षियों की है। हमारे मालव, मेवाड़, मारवाड़, गुजरात, सौराष्ट्र आदि में ब्राह्मण निरामिषभोजा हैं और पशुधातक नहीं है, किन्तु कश्मीर, पूर्वदेश आदि में - ब्राह्मण भी मांसाहारी एवं शिकारी हैं। तात्पर्य यह कि भारत के जैन, वैष्णव जैसी जातियों को छोड़कर मनुष्य की शेष सभी जातियां मांसाहारी हैं। मूलपाठ में बताई हुई जातियों के नाम प्राय: देश सापेक्ष हैं। इनमें से कुछ देश भारत में हैं और कुछ बाहर के। कई देशों का परिचय टीका से भी नहीं मिलता। टीकाकार ने भी मूल का रूपान्तर ही प्रस्तुत किया है। कुछ जातियाँ एवं देश तो हमारे पड़ोसी और जाने माने हैं। एक समय वह भी था कि ये बाहर के सारे अनार्य देश, भारत के अधिपत्य में थे। चक्रवर्ती और वासुदेव ही नहीं, अन्य प्रतापी शासकों ने भी इन देशों पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया था। इतना होते हुए भी आयत्व की सीमा बहुत कम रही। भारत में भी म्लेच्छत्व का प्रसार अधिक रहा। ___तीर्थंकर भगवन्तों और अन्य पहर्षियों के समय अहिंसा का प्रचार बहुत हुआ। महाराजा श्रेणिक, कुणिक, उदयन आदि जिनोपासकों ने अहिंसा का प्रचार किया और उस क्षेत्र में हिंसा में कमी आई, किन्तु हिंसा सर्वथा बन्द नहीं हो सकी। महाराजा श्रेणिक ने अपनी सत्ता से राजाज्ञा प्रचारित कर 'अमारि' घोषणा करवाई, किन्तु लुके-छिपे वहाँ भी कसाइखाना चलता रहा और कालसौरिक सैकड़ों भैंसों का नित्य वध करता रहता था। उसके बाद जैनाचार्यों के उपदेश से हिंसा में कहीं-कहीं कुछ रोक लगा दी गई, किन्तु विदेशों से भारत में आई हुई यवन, आंग्ल आदि जातियों ने हिंसा में अधिक वृद्धि कर दी और इस धर्म-शून्य भौतिकवादी जमाने ने तो भारत को भी अन्य मांस-भक्षी देशों से होड़ लगाने को लालायित कर दिया। अब यहां भी बड़े-बड़े भीमकाय कसाइखाने खोले जा रहे हैं। जलयर-थलयर-सणप्फ-योरग-खहयर-संडासतुंड-जीवोवग्घायजीवी सण्णी य असण्णिणो पजत्ते अपजत्ते य असुभलेस्स-परिणामे एए अण्णे य एवमाई करेंति पाणाइवायकरणं। पावा पावाभिगमा * पावरुई पाणवहकयरई पाणवहरूवाणुट्टाणा पाणवहकहासु अभिरमंता तुट्ठा पावं करेत्तु होइ य बहुप्पगारं। * किसी-किसी प्रति में यहाँ 'पावमई' शब्द भी है। For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसक जातियाँ ************************* शब्दार्थ - असुभलेस्स-परिणामे - अशुभ-बुरी लेश्या-पापी विचार के भावों से ओतप्रोत जीव, जलयर - जलाशय में रहने वाले मच्छ आदि, थलयर - पृथ्वी पर चलने वाले गाय, बैंस, भेड़, बकरे आदि, सणफय - जिनके पांवों में नख हैं ऐसे चोते, सूअर आदि, उरग - सांप आदि पेट के बल रेंगकर चलने वाले, खहयर - खेचर-आकाश में उड़ने वाले पक्षी, संडासतुंड - संडासी के समान जिनका मुंह (चोंच) है-ऐसे पक्षी (ढंक, कंक आदि), जीवोवग्धायजीवी - इन सभी प्राणियों की बात करके आजीविका करने वाले लोग, सण्णी य असण्णिणो - संज्ञी और असंजी, पजत्ते अपजत्ते - पर्याप्त और अपर्याप्त, एए - इन जीवों की और, एवमाई - इस प्रकार के, अण्णे - अन्य जीवों के, पाणाइवायकरणं - प्राणों का अतिपात-हिंसा, करेंति - करते हैं। पावा - पाप करने वाले, पावाभिगमा - पाप को ही उपादेय मानने वाले, पाव-रुई - जिनकी रुचि ही पापमय है, पाणवहकयरई - प्राणवध करके ही जो सुख मानते हैं -प्रसन्न होते हैं, पाणवहरूवाणुट्ठाणा - प्राणियों के वध रूप अनुष्ठान करने वाले, पाणवह-कहासु - प्राणवध की कथा कहानी में, अभिरमंता - मन लगाने-रस लेने वाले, बहुप्यगारं -- बहुत प्रकार का, पाव करेत्तु - पाप करके, तुट्ठा -- संतुष्ट-प्रसन्न, होइ - होते हैं। भावार्थ - जिनकी आत्मा पापमय विचारों में लगी रहती है, ऐसे पापोजन जलचर, स्थलचर, नखी, नभचर, तीक्ष्ण एवं दृढ़ चोंच वाले पक्षी, सांप आदि जीवों की घात करके अपनी आजीविका चलाते हैं। वे संज्ञा (मन वाले) और असंज्ञी. पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों और ऐसे अनेक प्रकार के जीवों की हिंसा करते हैं। वे पापीजन पाप को ही उपादेय मानते हैं। उनकी रुचि पाप में ही रहती है। वे प्राणवध करके प्रसन्न होते हैं। उनका कार्य अथवा अनुष्ठान प्राणियों की घात रूप ही है। जीववध की कहानी में उनको बहुत रुचि होती है। वे अनेक प्रकार का पापकर्म करके संतुष्ट (प्रसन्न) होते हैं। विवेचन - आजीविका के लिए, स्वादवश और शरीर-पुष्टि के लिए जीवों की घात करने के अतिरिक्त धन संग्रह करने के लिए भी लोग जीवों को मारते हैं और कई लोग जीवों को मार कर के हाथ बेचकर धन कमाते हैं। व्यक्तिगत कसाई के धन्धे के अतिरिक्त अब तो कुछ समूह एवं समितियाँ मिलकर पूर्ण सहयोग से इस प्राणी-संहारक धन्धे को बढ़ा रहे हैं। यहाँ तक कि धर्मप्रधान एवं आर्यसंस्कृति का निजधाम जाने वाले भारत की भारतीय सरकार स्वयं मांस का निर्यात करती है और विदेशी मुद्रा प्राप्त कर राष्ट्र को समृद्ध बनाना चाहती है। वह नहीं सोचती कि पाप का परिणाम कभी सुखसमृद्धिदायक नहीं हो सकेगा। कभी तात्कालिक धन लाभ हो भी जाये, तो आगे सैकड़ों गुणा हानि का बीजारोपण धी तत्काल हो जाता है। इसके अतिरिक्त हिंसा के निम्न कारण भी है - "पावाभिगमा" - "पापमेव अभिगमं उपादेयं येषां"-जिसे पापमय प्रवृत्ति ही उपादेय लगती For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरणसूत्रं श्रु० १ अ० १ ******************* है। ऐसे लोग कहते हैं कि 'पशुवध आवश्यक है। मांस में अन्न, दूध तथा घृतादि की अपेक्षा अधिक शक्ति है। मांस, मत्स्य एवं अंडा भक्षण से शरीर बलवान् बनता है। दुधारु और खेती के काम में आने वाले पशुओं के अतिरिक्त सभी पशुओं को और सभी पक्षियों तथा जलचरों को मारना उपादेय ही नहीं लाभकारी भी है। इससे बेकार पशुओं पर होता हुआ खर्च रुकता है, अन्न की कमी की पूर्ति होती है और धन लाभ भी होता है । ' २६ बन्दर, मेढ़क आदि को पकड़कर विदेश भेजकर धन प्राप्त किया जाता है। इन्हें पकड़ कर लाने, इकट्ठा करके विदेश भेजने का काम बड़ी-बड़ी कम्पनियों द्वारा सरकार करवाती है। वे इन सब पापकार्यों की उपादेयता बतलाते हुए कहते हैं कि - "ये पशु राष्ट्र के किसी काम में नहीं आते। बन्दर, हिरन, नीलगाय आदि खेती को हानि पहुँचाते हैं । अतएव इनकी हिंसा उपादेय - हितकारी है।" इस प्रकार पाप की उपादेयता बताकर हिंसा को बढ़ावा देते हैं। पावरुई - "पापपरुचयः पापे एव रुचिरनुरागः "" - जिसकी पाप में रुचि अनुराग हो। बहुत से लोगों का तो जीवहत्या करने का शौक होता है। शिकार खेलना प्रायः शौक - रुचि के कारण होता है। . यह एक प्रकार का व्यसन हो जाता है। शिकारी की रुचि किसी-किसी की इतनी तीव्र हो जाती है कि वह अपने आपको खतरे में भी डाल देता है। कई जिह्वा-लोलुप धनहीन मांसाहारी लोग, स्वाद रुचि के लिए छोटे-छोटे पशुओं और पक्षियों को मारकर उदरस्थ करते हैं। कोई-कोई तो केवल मनोरंजन के लिए कुत्तों से पशुओं की घात करवाते हैं। पिंजरे में कई दिन तक चीते को भूखा रखकर और उसे दाँत तथा नाखून से रहित करके मैदान में छोड़ने और फिर भयंकर शिकारी कुत्तों को छोड़कर उसे मरवाने के मनोरंजन भी मनुष्य करता है। सबल को निर्बल बनाकर निर्बल के हाथों मरवाकर तमाशा देखने और प्रसन्न होने की मनोवृत्ति भी मनुष्य में है । विजया के त्योहार पर भैंसे को मदिरा पिलाकर मैदान में छोड़ना और उसे मानव-समूह द्वारा भालों और बरछों से मारने का कार्य भी बढ़ा क्रूर है। वह भैंसा अपने प्राण बचाने के लिए इधर-उधर भागता है, किन्तु चारों ओर घेरा डाले हुए मनुष्य उसे अपने पास आते ही तीक्ष्ण भाले से मारते हैं । वह भयभीत भैंसा उधर से लौटकर दूसरी ओर भागता है, किन्तु वहाँ भी उसका रक्षक कौन है ? सभी भाले और बरछे लिए हुए उसे मारने को तत्पर । यदि किसी दर्शक के मन में करुणा जगे, तो भी वह क्या कर सकता है? सैकड़ों या हजारों दर्शकों के मनोरंजन में बाधक बनने का वह साहस नहीं कर सकता। इस प्रकार लगभग आधे घंटे में वह भैंसा गिर जाता है। उस गिरे हुए परं भी प्रहार होता है और वह तड़पतड़प कर मर जाता है। इस प्रकार के मनोरंजन रजवाड़ों और ठिकानों में होते थे। अब भी कदाचित् कहीं होते हों ? "पावमई" 'पापमतयः पापमेव श्रद्धानः " अथवा "पापमयबुद्धयः " जिसकी श्रद्धा ही पापमय हो। जो जीवहत्या में अपना, परिवार यावत् राष्ट्र का हित मानता हो, जिसकी श्रद्धा हो कि पशुओं का For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा का दु:खद परिणाम २७ ************* ********************************* ***************** बलिदान करना धर्म-पुण्य या उत्तम कार्य है, अपना कुटुम्ब और देश का हित है, तो इस प्रकार की मति-पापमति है। "पाणवहकयरई" - "प्राणवधेकृतरतयः-प्राणवधेकृता-रति:-प्रीतियैस्ते" - जिसे जीव-हत्या के कार्यों से रति-प्रीति है। जीवों को मारने तड़पाने और दुःख देने में जिसे मजा आता है-ऐसे परमाधामी देव जैसे मनुष्य। "पाणवहरूवाणुट्ठाणा" - "प्राणवधरूपानुष्ठानाः तदेव आचरणं" - प्राणियों का वध करने रूप अनुष्ठान करने वाले। जो यज्ञ, याग और देवी देवता के नाम पर प्राणियों का वध करवा कर बलिदान रूप अनुष्ठान करवाते हैं। "पाणवहकहासु अभिरमंता" - "प्राणवधकथासु अभिरमंत:-चित्तं ददन्तः" जीव हिंसा की " कथा में रुचि रखने वाला। शिकार के वर्णन को रुचि पूर्वक सुनने वाला और वैसे लेख, कहानी एवं विवरण को (पत्र-पत्रिकाओं में छपती है) रस पूर्वक पढ़ और सुनकर मनोरंजन करने वाला है। सूत्रकार महर्षि ने उपरोक्त शब्दों में हिंसके लोगों की मनोवृत्ति का परिचय दिया है। ___हिंसा का दुःखद परिणाम तस्स य पावस्स फलविकागं अयाणमाणा वटुंति महब्भयं अविस्सामवेयणं दीहकालबहुदुक्खसंकडं णरयतिरिक्खजोणिं। शब्दार्थ - तस्स - उस, णवस्स - पाप के, फलविवागं - फल-विपाक को, अयाणमाणा - . नहीं जानते हुए, महब्भयं - महा भयानक, दीहकालबहुदुक्खसंकडं - दीर्घकाल तक बहुत-से दुःखों और संकटों से भरी हुई, अविस्सामवेयणं - विश्राम रहित-निरंतर, असाता वेदना वाली, । णरयतिरिक्खजोणिं - नरक और तिर्यंच योनि को, वडंति - बढ़ाते हैं। .. . भावार्थ - हिंसक जीव, हिंसा-जन्य पाप के फलविपाक को नहीं जानते हुए अपने पाप से नरक और तिर्यंच योनि की ओर बढ़ते हैं और अपने लिए अनेक प्रकार के महान् भयंकर दुःखों और संकटों की ऐसी परम्परा का निर्माण कर लेते हैं कि जिसमें विश्राम का कोई समय ही नहीं है, निरन्तर दुःख ही दुःख और संकट ही संकट बने रहते हैं। विवेचन - सूत्रकार ने हिंसा से उत्पन्न पाप के परिणाम का दिग्दर्शन कराते हुए कहा है कि वे पापी जीव, पाप के भयंकर परिणाम को नहीं जानते हुए पाप करते हैं और अपने लिए दुःखों का पहाड़ खड़ा कर लेते हैं। तात्पर्य यह है कि अज्ञान अथवा मिथ्याज्ञान ही इन महान् भयानक दुःखों और संकटों का मूल है। अज्ञान और कुज्ञान के अन्धेरे में रहकर जीव, सुख और शांति के सदन में पहुँचने के बदले दुःखों और संकटों के, नरक-तिर्यंच गति के समान गहरे अन्ध-कूप में गिर जाता है, जिसमें केवल दुःख ही दुःख भरा है। उस गहन-गम्भीर अन्धकूप में से निकलना अत्यन्त कठिन है और वहाँ सुख का तो. लेश भी नहीं है। For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ******** प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ ० १ ********************************* नरक का वर्णन इओ आउक्खए चुया असुभकम्मबहुला उववजंति णरएसु हुलियं महालएसु वयरामय-कुड्ड-रुद्द-णिस्संधि-दार-विरहिय-निम्मद्दव-भूमि-तल-खरामरिसविसमणिरय-घरचारएसु महोसिण-सया-पतत्त दुग्गंध-विस्स-उव्वेयजणगेसु बीभच्छ दरिसणिजेसु णिच्चं हिमपडलसीयलेसु कालोभासेसु य भीम-गंभीर-लोमहरिसणेसु णिरभिरामेसु णिप्पडियार-वाहिरोगजरापीलिएसु अईव णिच्चंधयार-तिमिस्सेसु पइभएसु ववगयगह-चंद सूर-णक्खत्तजोइसेसु मेय-वसा-मंसपडल-पोच्चड-पूयरूहि-रुक्किण्ण-विलीण-चिक्कण-रसिया वावण्णकुहियचिक्खल्लकद्दमेसु कुकूलाणल-पलित्तजालमुम्मुर-असिक्खुर-करवत्तधारासु णिसिय-विच्छुयडंक-णिवायोवम्मफरिस अइदुस्सहेसु य अत्ताणा असरणा कडुयदुक्खपरितावणेसु अणुबद्ध-णिरंतर-- वेयणेसु जमपुरिस-संकुलेसु।। _ शब्दार्थ - इओ - यहाँ मनुष्य भव का, आउक्खए - आयुष्य क्षय होने पर, चुया - च्युत होकरगिर कर, असुभकम्मबहुला - अशुभ-कर्मों की अत्यधिकता वाले मनुष्य, हुलियं - शीघ्र ही, महालएसुविशाल, णरएसु - नरक में, उववजति - उत्पन्न होते हैं। कैसे हैं वे नरक, वयरामयकुड्ड:- उसकी भीत वज्र की है, रुद्द - बहुत लम्बी-चौड़ी है, णिस्संधि - उसमें कहीं कोई सन्धि-छिद्र आदि नहीं है, दारविरहिय -- निकलने का द्वार भी नहीं है, णिम्मदव भूमितल - उसकी भूमि कोमल नहीं है-कर्कश है, खरामरिस - कठोरतर है, विसमणिरयघरचारएसु - नरकावास रूपी बन्दीगृह-नारकों के उत्पत्ति स्थान महा विषम हैं, महोसिणसयापतत्त - वे नरकावास अत्यन्त उष्ण और सदैव तप्त रहते हैं, दुग्गंधविस्सउवेयजणगेसु - दुर्गन्ध एवं सडान से भरपूर. जीव को उद्विग्न कर देने वाले, बीभच्छदरिसणिज्जेसु - बीभत्स-भयावने दृश्य वाले, णिच्चं - कुछ स्थान तो ऐसे हैं कि जो-नित्य, हिमपडलसियलेसु - हम-बर्फ के पटल के समान शीतल हैं, कालोभासेसु - काली प्रभा वाले, भीमगंभीरलोमहरिसणेसु - बड़े भयानक गम्भीर और रोंगटे खड़े कर देने वाले, णिरभिरामेसु - अरमणीय-घृणित, णिप्पडियार - जिसका प्रतिकार-चिकित्सा नहीं हो सके, ऐसे, वाहिरोगजरापीलिएसुकुष्टादि व्याधि रोग और जरा से पीड़ित, अईवणिच्चंधयातिमिस्सेसु - सदैव अत्यन्त घोर अन्धकार वाली, पइभएसु - प्रतिभय वालो-वहाँ की प्रत्येक वस्तु अत्यन्त भयंकर है, ववगयगह-चंद-सूरणक्खत्तजोइसेसु - चन्द्र, सूर्य, ग्रह और नक्षत्र को ज्योति से सर्वथा रहित, मेयवसामंसपडलपोच्चडपूयरुहिरुक्किण्णविलीग-चिक्कणरसियावावण्णकुहियचिक्खल्लकद्दमेसु- मेद, वसा. ती For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ नरक का वर्णन ***** ***************************************************** और मांस के ढेरों से वहाँ का स्थान अत्यन्त घृणास्पद है तथा पीप और रक्त के बहने से भूमि गीली और चिकनी हो गई है और वह स्थान कीचड़ से परिपूर्ण हो गया है। कुकूलाणलपलित्तजालमुम्मुत्तरअसिक्खुर-करवत्तधारासुणिसियविच्छुयडंक णिवायोवम्म-फरिसअइदुस्सहेसु - वहाँ का स्पर्श धधकती हुई करीष की आग अथवा खेर की आग के समान अत्यन्त उष्ण और तलवार, उस्तरे तथा करवत की धार के समान तीक्ष्ण और बिच्छु के डंक से उत्पन्न वेदना से भी अत्यन्त दुःखदायक है, . अताणा - त्राण-रक्षण से रहित, असरणा - शरण-आश्रय से रहित, कडुयदुक्खपरितावणेसु - वहां अत्यन्त कटु लगने वाले ऐसे दारुण दुःख से जीव दुःखी रहते हैं, अणुबद्धणिरंतरवेयणेसु - वहाँ निरन्तर अत्यन्त वेदना होती रहती है, जमपुरिससंकुलेसु - वहाँ यम-पुरुष-परमाधामी देव सर्वत्र भरे रहते हैं। भावार्थ - वे हिंसक लोग, मनुष्य-भव के आयुष्य का क्षय होने पर, अपने मनुष्य-भव से गिरकर अशुभ कर्म की अधिकता से शीघ्र ही नरक में उत्पन्न हो जाते हैं। वे महानरक बहुत लम्बे चौड़े हैं। उनकी भींत वज्रमय हैं। उस भीत में न तो कहीं कोई छिद्र है और न कहीं कोई सन्धिवाली पतली-सी दरार ही है। उसके द्वार भी नहीं है। वह नरकभूमि बड़ी कठोर, कर्कश और रूक्ष स्पर्श वाली है। नारक जीवों का वहाँ का उत्पत्ति-स्थान और आवास महाविषम एवं बन्दीगृह के समान है। वे नरकावास सदैव अत्यन्त उष्ण और तप्त रहते हैं। वहाँ जीव को उद्विग्न कर देने वाली तीव्र दुर्गन्ध है। वहाँ का दृश्य बड़ा ही भयानक है। वहाँ कई स्थानों पर हिम-पटल के समान अत्यन्त शीत है। वे नरकावास अत्यन्त काले, महाभयंकर, गंभीर और रोंगटे खड़े कर देने वाले हैं। नरकावास अरमणीय-घृणित हैं। वहाँ नारक जीवों को ऐसी व्याधियाँ और रोग लगते हैं कि जिनका कोई उपचार ही नहीं है। अत्यन्त घनघोर अन्धकार वहाँ छाया रहता है। वहाँ का स्थान भय से परिपूर्ण रहता है। उन नरकावासों में चन्द्र, सूर्य, ग्रह और नक्षत्रों की ज्योति (एक किरण भी) नहीं पहुँच पाती। वह स्थान मेद, वसा, मांस, रक्त और पीप आदि घृणित वस्तुओं से भरा हुआ है और वहाँ की भूमि पर रक्त, मांस और चर्बी आदि का कीच मचा हुआ है। नरकावास की भूमि का स्पर्श धधकते हुए अंगारे जैसा असह्य उष्ण, तलवार, उस्तरे और आरी की धार के समान तीक्ष्ण और बिच्छ दंश से उत्पन्न वेदना से भी अत्यन्त दुःखदायक है। वहाँ न कोई रक्षक है, न शरणदाता। नारक जीव वहाँ दारुण दुःख से दु:खी. रहते हैं। ऐसी उग्र वेदना वहाँ निरन्तर होती रहती है। वहाँ परमाधामी देव भी बहुत हैं। वे भी नारक जीवों को दुःख देते रहते हैं। . विवेचन - घोर पापियों और जीवों की हत्या, ताड़न, पीड़न और कदर्थन में ही आनन्द मानने वाले मनुष्यों के लिए पाप का दुःखदायक परिणाम भोगने का स्थान नरक और तिर्यंच गति है। मनुष्यों की आयु कम होती है। किन्तु अपनी कम आयु में भी कई मनुष्य जीवन भर पाप ही पाप करते रहते हैं। पूर्व पुण्य के उदय से इस मनुष्य-जन्म में उन्हें अपने पाप का फल नहीं भोगना पड़े, तो अन्य ऐसा कोई स्थान अवश्य होना चाहिए-जहाँ उनके पापों का फल मिल सके। For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० १ ********* एक भयंकर डाकू अपने जीवन में सैकड़ों निरपराध मनुष्यों को मार डालता है। गाँव के गांव जलाकर भस्म कर देता है। स्त्रियों, बच्चों और वृद्धों को निराधार करके दुःख एवं क्लेश की भट्टी में झोंक देता है। ऐसा भयंकर पापी यदि पकड़ा भी जाये और उसे मृत्यु - दण्ड भी मिले, तो उसके महान् पापों और हत्याओं के आगे वह मृत्यु-दण्ड किस गिनती में है ? उसे अपने पापों का यथोचित फल भोगने का कोई स्थान होना ही चाहिए और वह स्थान नरक - निगोद ही है । एक युद्धखोर सत्ताधारी अपनी कलुषित महत्त्वाकांक्षा से दूसरों की भूमि और सम्पत्ति हड़पने के लिए, अन्य पडोसी राज्यों को अपने आधीन बनाने के लिए युद्ध कर लाखों मनुष्यों को मरवाता है। दूसरे राज्य की प्रजा को बरबाद करता है, लूट मचाकर हजारों डाकुओं से भी अधिक पाप करता है। जलाशयों में विष मिलाकर और बम वर्षा कर तथा परमाणु बम गिराकर लाखों मनुष्यों, असंख्य तिर्यंचों को मार देता है। ऐसे भयंकर हत्यारे का घोरतम पाप क्या व्यर्थ ही चला जाएगा? नहीं, उसका परिणाम उसे अवश्य भुगतना पड़ेगा और उस घोर पाप के फल- भोग का स्थान उपरोक्त सूत्र में वर्णित नरक ही हो सकता है। एक मनुष्य चाहे जितना शक्तिशाली हो ( भले ही देव या इन्द्र ही क्यों न हो ) हजारों मनुष्यों के घातक एक महानतम् पापी मनुष्य को उसके पाप का पूरा दण्ड, उस एक ही जन्म में नहीं दे सकता । उसके पाप का यथोचित दण्ड तो उसके अशुभ कर्म ही दे सकते हैं और वह भी एक नहीं अनेक जन्म-जन्मान्तर में । कई ऐसे शक्तिशाली उच्चाधिकारी महापापी होते हैं कि जिन्हें अपने महापापों का फल इस मनुष्य भव में तो मिलता ही नहीं । वे जीवनपर्यन्त महाराजाधिराज (ब्रह्मदत्त चक्रवर्तीवत् ) राष्ट्रनायक (हिटलर, मुसोलिनी, तोजो जैसे) या कालसौरिक कसाई जैसे रहकर मर जाते हैं । उनके महापापों का फल भवान्तर में ही मिलता है और इसके लिए उपयुक्त स्थान नरक ही है। जिस प्रकार भयंकर अपराधी को काले पानी की सजा देकर स्थानान्तर किया जाता है और अंडमान साइबेरिया आदि प्रतिकूल परिस्थिति वाले क्षेत्र में भेजकर अत्यधिक दुःखद स्थान पर रखा जाता है, वैसे ही कर्म-फल भोगने के लिए नरक स्थान हैं। ऐसे स्थान पर मानव की अपेक्षा असंख्य गुण आयु प्राप्त कर, जीव भयंकरतम दुःख भोगता है। उपरोक्त संक्षिप्त विचार से नरक-‍ -भूमियों और उनमें होने वाले भयंकरतम दुःखों को समझना सरल है। उष्णता - सभी नरकों में उष्णता नहीं है। प्रथम से तीसरी नरक तक उष्णता ही है। चौथी और पांचवीं में उष्णता और शीतलता है। छठी व सातवीं में शीतलता ही है । (प्रज्ञापनासूत्र पद ९) जमपुरिस - यमपुरुष का अर्थ 'परमाधामी' देव है। ये देव भवनपति जाति के हैं। तीसरे, नरक तक ये देव जाते हैं और नैरयिकों को अनेक प्रकार के दुःख देते हैं। यह उनका मनोरंजन है। For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैरयिकों का बीभत्स शरीर . ३१ *********** *************************************************** नैरयिकों का बीभत्स शरीर - तत्थ य अंतोमुहुत्तलद्धिभवपच्चएणं णिवत्तंति उ ते सरीरं हुंडं बीभच्छदरिसणिजं बीहणगं अट्ठि-हारु-णह-रोम-वज्जियं असुभगं दुक्खविसहं तओ य पजत्तिमुवगया, इंदिएहिं पंचहिं वेएंति असुहाए वेयणाए उजल-बल-विउल-क्कखड-खर-फरुसपयंड-घोर-बीहणगदारुणाए। शब्दार्थ - तत्थ य - उन नरकों में, ते - वे पापी जीव, अंतोमुहुत्तलद्धिभवपच्चएणं - उत्पन्न होते ही अन्तर्मुहूर्त्तकाल में वैक्रिय-लब्धि और नरक भव से, सरीरं - शरीर, णिव्वत्तंति - निर्माण कर लेते हैं, उनका वह शरीर, हुंडं - हुंडक संस्थान वाला, बीभच्छदरिसणिजं - बीभत्स दर्शनीय-देखने में विकृतघृणित, बीहणगं - भयानक, अट्ठि-हारु-णह-रोम-वज्जियं - हड्डियों, नसों, नाखुन और रोम से रहित; असुभगं - अशुभ-खराब, दुखविसहं - दुःखों को सहने वाला, तओ - उसके बाद, पजत्तिमुवगया - पर्याप्ति को प्राप्त होकर, पंचहिं - पांचों, इंदिएहिं - इन्द्रियों से, वेएंति - दुःख का वेदन करते हैं, असुहाए - अशुभ, वेयणाए - वेदना, उज्जल - अत्यन्त तीव्र, बल - भारी-कठोर अथवा जोरदार, विउल - विपुल-अत्यन्त, कक्खड - कर्कश, खर - कठोर, फरुस - असह्य-प्रगाढ़, पयंड - प्रचण्ड, घोर - अत्यन्त, बीहणग - भयंकर, दारुणाए - दारुण-विकट, घोर। - भावार्थ - वे पापी जीव उन नरकावासों में उत्पन्न होते ही और अन्तर्मुहूर्त में ही वैक्रिय-लब्धि और नारक भव के योग्य शरीर निर्माण कर लेते हैं। उनका वह शरीरं हुंडक संस्थान वाला, दिखने में बीभत्स एवं भयानक होता है। उनके शरीर में हड्डियाँ, नसें, नाखुन और रोम नहीं होते, उनका शरीर अशुभ और भयंकर दुःखों को सहन करने योग्य होता है। पांचों पर्याप्ति से पर्याप्त होने के बाद वे पांचों इन्द्रियों के द्वारा दुःख का वेदन करते हैं। अशुभ, अत्यन्त तीव्र, असह्य भयंकर एवं घोरतम वेदना का वेदन करते हैं। ... .. विवेचन - नरक पाप का फल भोगने का प्रमुख स्थान है। वहाँ उत्पन्न होने वाले पापी जीवों का शरीर भी अत्यन्त अशुभ, बीभत्स, घृणित एवं भयानक होता है और उत्पन्न होते ही दुःखमय वेदना प्रारम्भ हो जाती है। हुंडक संस्थान - शरीर की आकृति विशेष। छह प्रकार की आकृति में हुंडक आकृति सबसे निकृष्ट एवं विविध प्रकार की होती है। इसमें बेडोलता, भद्दापन और अशोभनीयता होती है। . हड्डी-रक्त-मांसादि रहित - मनुष्यों और पशुओं के शरीर में रक्त, मांस और हड्डी आदि होते हैं, किन्तु नारकों के शरीर में रक्तादि नहीं होते। उनका शरीर बहुत ही अशुभ-बुरी सामग्री से बना होता है। - पांच पर्याप्ति - सन्नी पंचेन्द्रिय जीवों के कुल छह पर्याप्ति होती है। यथा - १. आहार पर्याप्ति २. शरीर पर्याप्ति ३. इन्द्रिय पर्याप्ति ४. श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति ५. भाषा पर्याप्ति और ६. मनः पर्याप्ति। For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०१ नैरयिकों और देवों के भी छह पर्याप्ति होती है। किन्तु इनमें पांच पर्याप्ति बतलाई जाती है। इसका कारण यह है कि नैरयिकों और देवों के भाषा और मनःपर्याप्ति एक साथ बंधती हैं। इसलिए इन दोनों की पृथक् गणना नहीं करके पांचवां स्थान ही दिया गया है। टीकाकार ने भी लिखा है कि - "भाषामनसोरक्यकालमिति दर्शितम्।" वेदना - लोक में वेदना का अर्थ - 'दुःख-भोग' माना गया है। किन्तु जैन परिभाषा में सुख और दुःख, इन दोनों का वेदन' होना माना है। एक सुख रूप वेदन और दूसरा दुःखमय वेदन। वेदना का अर्थ-अनुभव करना-भोगना होता है, जो साता-सुखरूप भी होता है और दुःख रूप भी। सुखभोग और दुःखानुभव, दोनों ही प्रत्यक्ष हैं और सभी के अनुभव-सिद्ध बात है। नारक प्राणियों का जीवन 'असुहाए वेयणाए' - अशुभ-असाता रूप वेदना प्रधान होता है। . नारकों को दिया जाने वाला लोमहर्षक दुःख किं ते कंदुमहाकुंभिए पयण-पउलण-तवग-तलण-भट्ठभजणाणि य लोहकडाहुकडणाणि य कोट्टबलिकरण-कोट्टणाणि य सामलितिक्खग्ग-लोहकंटग-अभिसरणपसारणाणि फालणविदारणाणि य अवकोडकबंधणाणि लट्ठिसयतालणाणि य गलगंबलुल्लंबणाणि सूलग्गभेयणाणि य आएसपवंचणाणि खिंसणविमाणणाणि विघुटुपणिज्जणाणि वज्झसयमाइकाणि य एवं ते। . ' __ शब्दार्थ - शिष्य पूछता है कि किं ते - वे दुःख कौन-से हैं ? नरक के दुःख बतलाते हुए गुरु कहते हैं, कंदुमहाकुंभिए - कंदु और महाकुंभी में डालकर, पण पउलण - जीवों को पकाया एवं उबाला जाता है, तवगतलणभट्ठभजणाणि - तवे के ऊपर रोटी की तरह सेका जाता है, कड़ाही में तला जाता है, भाड़ में डालकर भूना जाता है, लोहकडाहुकडणाणि - लोहे की कड़ाही में इक्षुरस की बरह डाल कर औटाया जाता है, कोट्टबलिकरणकोट्टणाणि - देवी के आगे बलिदान करने की तरह काया जाता है-शरीर के टकडे-टकडे कर दिये जाते हैं. सामलितिक्खग्गलोहकंटगअभिसरणपसारणाणि - लोह के तीक्ष्ण शूल जैसे शाल्मलि वृक्ष के काँटों पर उन्हें घसीटा जाता है, फालणविदारणाणि - उन्हें लकड़ी फाड़ने की तरह फाड़ा एवं चीरा जाता है, अवकोडकबंधणाणि - हाथ-पैर बांध दिये जाते हैं, लट्ठिसयतालणाणि - सैकड़ों लाठियों से पीटा जाता है, गलगंबलुल्लंबणाणि - गले में फंदा डालकर वृक्ष पर लटका दिये जाते हैं, सुलग्गभेयणाणि - शूल के अग्रभाग से उनके शरीर को भेदा जाता है, आएसपवंचणाणि - झूठे आदेश देकर उन्हें धोखा दिया जाता है खिंसणविमाणणाणि - उन्हें खिंसित और अपमानित किया जाता है, विधुदुपणिज्जणाणि - पापों की घोषणा के साथ उन्हें वध्य-भूमि पर ' ले जाते हैं, वझसयमाइकाणि - वध्यजनित सैकड़ों प्रकार के दुःख दिये जाते हैं; एवं ते - इस प्रकार नारक जीवों को दुःख भोगना पडता है। For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारकों को दिया जाने वाला लोमहर्षक दुःख ********* भावार्थ - शिष्य प्रश्न करता है कि नारक जीवों को किस प्रकार की वेदना होती है ? गुरुदेव नारकीय दुःखों का स्वरूप बतलाते हुए कहते हैं कि उन नारक जीवों को कंदु और महाकुंभी में डालकर पकाया एवं उबाला जाता है। तवे पर रोटी के समान सेंकते हैं और पूरी की तरह तलते हैं। भाड़ में डालकर चने की तरह भूनते हैं। लोहे की कड़ाही में डालकर इक्षुरस की तरह औटाया जाता है। देवी-देवता के आगे नारियल फोड़ने के समान टुकड़े-टुकड़े किये जाते हैं। लोहे के तीक्ष्ण शूल जैसे सामली-वृक्ष के कांटों पर घसीटा जाता है। कुल्हाड़ी से लकड़ी फाड़ने और करवत से चीरने के समान नैरयिक को फाड़ा और चीरा जाता है। हाथ-पाँव बांधकर लुढ़का दिया जाता है। सैकड़ों लाठियों से पीटा जाता है। गले में फन्दा डालकर वृक्ष पर लटका दिया जाता है। शरीर में तीक्ष्ण शूल भोंककर छेद कर दिये जाते हैं। असत्य आदेश देकर धोखा दिया जाता है। उनकी निन्दा एवं भर्त्सना की जाती है । अपमानित किया जाता है। उनके पापों की घोषणा के साथ वध्यभूमि पर जाते हैं और छेदभेदादि सैकड़ों प्रकार के दुःख दिये जाते हैं। इस प्रकार नारक जीवों को महान् दुःख भोगना पड़ता है। विवेचन - इस सूत्र में नारक जीवों को नरकावास में परमाधामी ( महान् अधर्मी) देवों द्वारा प्राप्त भयंकरतम एवं रोमांचकारी दुःखों का वर्णन किया गया है। परमाधामी देव, भवनपति जाति के देवों में हैं। नारक जीवों को दुःख देने के लिए किसी परम शक्ति ने इनकी नियुक्ति नहीं की और नारकों को दुःख देने का इनका आवश्यक कर्त्तव्य भी नहीं है। किन्तु ये स्वभाव से ही इस प्रकार की रुचि वाले हैं। जिस प्रकार कई निर्दयी मनुष्य खरगोश, हिरन, शृगाल आदि पर शिकारी कुत्ते छोड़ कर, उन्हें मरवा कर प्रसन्न होते हैं और इसे वे अपना मनोरंजन मानते हैं, उसी प्रकार परमाधामी देव भी नैरयिक जीवों को अनेक प्रकार के दुःख देकर, उनका रोना, क्रन्दन करना, चिल्लाना, तड़पना देखकर प्रसन्न होते हैं । यह उनका मनोरंजन है । ३३ *** कुछ अविश्वासी लोग नारकों को होने वाली परमाधामी कृत वेदना को असंभव एवं काल्पनिक मानते हैं । किन्तु ऐसा सोचना ठीक नहीं है । इस प्रकार के कुछ नमूने मनुष्यलोक में भी मिलते हैं । मांस-भक्षी लोग खौलतें हुए पानी में जीवित मुर्गी को डालकर तत्काल ढक्कन लगा देते हैं। वे सोचते हैं कि इससे मुर्गी में रही हुई शक्ति सुरक्षित रह कर विकसित होती है। खुले में मारने से शक्ति कम हो जाती है। मांस को आग पर सेंकते हैं, भूनते हैं, पकाते हैं, काटते हैं, चीरते - फाड़ते हैं । भेड़-बकरों को काट कर उनका चमड़ा उधेड़ कर छिलते हैं। कई देवी के पुजारी उछल-कूद करते हुए अपने में देवी का प्रवेश बतलाते हैं, वे जीवित बकरे, भेड़ आदि को काटकर उसका रक्त पीते हैं। दक्षिण में भेड़ के बच्चों को देवी के मंदिर के सामने एक तीक्ष्ण शूल के ऊपर पछाड़ कर उसमें पिरो देते हैं। किसी स्थान पर उन पशुओं के बच्चों के नरम पेट या गले में दाँत गढ़ाकर रक्तपान करते हैं। मनुष्य ऐसा निर्दयतापूर्वक दारुण दुःख पशुओं को देता है। पिछले महायुद्ध के बाद समाचार-पत्र में पढ़ने में आया था कि जर्मनी में कई बन्दियों को जीवित ही तेजाब से भरी हुई नांदों में उतार कर मार दिया था ! For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ******** सिक्खों के गुरु गोविन्दसिंह के पुत्रों को भींत में चुनवा दिया था। कई मुसलमान राजाओं- नवाबों और बादशाहों के यहां बन्दी मनुष्य को सिंह के पिंजरे में बन्द कर सिंह के द्वारा मरवाते थे। सांप से डसवाते और हाथी के पांव से बांधकर घसीटवा कर मरवाते थे । तात्पर्य यह है कि इस प्रकार के क्रूरता पूर्ण कृत्य इस मनुष्य लोक में भी होते हैं, तब नारकों के साथ हो, तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। इसमें उपादान कारण तो उन नारक जीवों का अपना पापकर्म ही है। उनका किया हुआ पाप-कर्म अंब फल दे रहा है। परमाधामी देव हैं - निमित्त कारण। यदि ये जीव पाप कर्म का उपार्जन नहीं करते, दो उन्हें नरक में जाने की और परमाधामी का सम्पर्क होने की आवश्यकता ही नहीं रहती । प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० १ महापापी जीवों को इस प्रकार का दारुण दुःख होता है। पाप कर्म से उत्पन्न भार - ऋण को भुगत कर आत्मा हल्की बनती है। - कंदुमहाकुंभीए - कन्दु- एक प्रकार का कडाव जैसा चौड़े मुख का पात्र । महाकुंभी घड़े जैसे संकड़े मुंह वाला पात्र । कुंभी-संकड़े मुख वाला नारक जीवों के उत्पत्ति का स्थान भी होता है। नारकों की उत्पत्ति कुंभियों में होती है। आएसपवंचणाणि - महावेदना, घोर उष्णता, अत्यन्त घबराहट और तीव्रतम प्यास से अत्यन्त दुःखी हुआ नारक जीव पानी पीपा चाहता है। उसे परमाधामी देव जलाशय का भ्रम बतलाकर दुर्गम स्थान पर भेजते हैं। वास्तव में वहाँ जलाशय नहीं होता, एकमात्र भ्रम ही होता है। इस प्रकार उसे झूठे आदेश देकर भटकाया जाता है और अत्यधिक दुःखी किया जाता है। - विघुट्टपणिज्जणाणि - नारक जीवों को अपने पापकर्म का निष्ठुर वचनों से स्मरण कराकर उसे फलभोग के लिए वध्यभूमि की ओर ले जाना । जैसे- 'तुझे मांस भक्षण बहुत प्रिय था। तू अत्यन्त क्रूर और निरंकुश होकर जीवों का वध करता था । तुझे मदिरा बड़ी प्रिय लगती थी' इत्यादि रूप पापकर्म का स्मरण कराया जाता है । पुव्वकम्मकयसंचयोवतत्ता णिरयग्गिमहग्गिसंपलित्ता गाढदुक्खं महब्भयं कक्कसं असायं सारीरं माणसं य तिव्वं दुविहं वेएंति वेयणं पावकम्मकारी बहूणि पलिओवम-सागरोवमाणि कलुणं पालेंति ते अहाउयं जमकाइयतासिया य सद्दं करेंति भीया । शब्दार्थ - पुव्वकम्मकयसंचयोवतत्ता - पूर्वभव में किए हुए कर्मों के संचय से संतप्त हुए, णिरयग्गिमहग्गिसंपलित्ता - - नरक की महान् अग्नि से जलते हुए, पावकम्मकारी- पापकर्म करने वाले, गाढदुक्खं - उत्कृष्ट दुःख, महब्भयं - महान् भय वाली, कक्कसं- कर्कश - अत्यन्त कठोर, असायंअसातावेदनीय कर्म से उत्पन्न, तिव्वं तीव्र, सारीरं शारीरिक, माणसं मानसिक, दुविहं दो प्रकार की, वेयणं - वेदना, वेति वेदतें-भोगते हैं, य और बहुणि बहुत, पलिओवमसागरोवमाणि - पल्योपम और सागरोपम तक, अहाउयं यथायु- अपनी आयु के अनुसार, कलुणं करुण अवस्था - - - = - - For Personal & Private Use Only - - - Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारकों को दिया जाने वाला लोमहर्षक दुःख *********************** ****************** दीन दशा, पार्लेति - पालते - भोगते हैं, जमकाइयतासिया - यमकायिक देवों द्वारा त्रासित होते हैं, भीया - भयभीत होकर, सद्दं करेंति शब्द करते हैं-चिल्लाते हैं । - भावार्थ - वे पापकर्म करके नरक में उत्पन्न हुए जीव पूर्वभव में किए हुए अपने पापकर्मों के संचय से नरक की महान् अग्नि में जलते हैं। उनकी आत्मा अत्यन्त संतापित होती है । वे कठोरतम एवं महान् असातावाली शारीरिक और मानसिक वेदना तीव्रता से वेदते हैं। इस प्रकार वे बहुत से पल्योपम और सागरोपम तक अपनी आयु के अनुसार करुण अवस्था में पड़े रहते हैं । यमकायिक- परम अधर्मी देवों के द्वारा त्रासित एवं भयभीत होकर वे चिल्लाते रहते हैं । विवेचन - नारक जीवों के पापकर्म का वर्णन करते हुए सूत्रकार ने बताया कि नरक की वेदना कितनी भयंकर और दीर्घकालिक है । मनुष्य भव में तो अग्नि में जलकर मनुष्य कुछ क्षणों में ही मर जाता है, किन्तु नरक में यहां की अग्नि से भी अत्यन्त तीव्रतम अग्नि है। उसमें लाखों-करोड़ों ही नहीं, पल्योपमों और सागरोपमों तक जलता ही रहता है, फिर भी नहीं मरता । मनुष्यों में तो किसी की करुणाजनक दशा देखकर दयालु लोग उसकी सहायता करते हैं, परन्तु नरक में उन परम अधर्मी देवों पर उन दुःखी नारकों की करुण पुकार का उल्टा प्रभाव पड़ता है । वे उसकी चिल्लाहट से पसीजते नहीं, प्रसन्न होते हैं । 1 पल्योपम - गणित की सीमा से बाहर - जिनके वर्षों की गिनती नहीं हो सके और पल्य की उपमा से ही जिसका काल जाना जा सके। पल्योपम-पल्य की उपमा । यथा - · चार कोस का लम्बा-चौड़ा एक योजन गहरा ऐसा एक पल्य । उसमें देवकुरु उत्तरकुरु के युगल मनुष्य के बच्चे के (जो अधिक से अइधक सात दिन का हो) बाल के टुकड़ों से वह पल्य इतना ठूंसठूंस कर भर दिया जाये कि जिसमें न तो हवा घुस सके, न पानी उतर सके और न आग ही उस ठोस स्थान पर कुछ जला सके। इस प्रकार भरे हुए पल्य में से सौ-सौ वर्ष में एक-एक बाल का टुकड़ा निकाला जाये। इस प्रकार निकालते-निकालते जब वह पल्य सर्वथा खाली हो जाये, उसे एक 'पल्योपम' कहते हैं । ३५ सागरोपम - दस कोटाकोटि पल्योपम का एक सागरोपम होता है। (भगवती ६-७ ) इतने दीर्घतर काल तक नैरयिक, बिना मरे ही भयंकर दुःख भोगा करते हैं । वे मरना चाहते हुए. भी अपनी पूरी आयु भोगे बिना नहीं मर सकते । 1 जमकाइयतासिया - यमकायिक देवों द्वारा त्रास पाये हुए। ये यमकायिक देव, इन्द्र के दक्षिण दिशा के लोकपाल महाराजा यम के अनुशासन में रहते हैं। इन यमकायिक देवों को 'परम-अधर्मी' भी कहते हैं । ये परम-अधर्मी देव-पन्द्रह प्रकार के होते हैं । यथा १. अम्ब - असुर जाति के देव। ये नारकी जीवों को ऊपर आकाश में ले जाकर एकदम छोड़ देते हैं। - For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ A... प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०१ ***** ********************************** ********* २. अम्बरीष - जो छुरी आदि के द्वारा नारकी जीवों के छोटे-छोटे टुकड़े करके भाड़ में पकने योग्य बनाते हैं। . ३. श्याम - जो रस्सी या लात-घूसे आदि से नारकी जीवों को पीटते हैं और भयंकर स्थानों में पटक देते हैं। ये काले रंग के होते हैं, और 'श्याम' कहलाते हैं। ४. शबल - जो नारकी जीवों के शरीर की आंतें, नसें और कलेजे आदि को बाहर खींच लेते हैं तथा शबल अर्थात् चितकबरे रंग वाले होते हैं, इसलिए 'शबल' कहलाते हैं। ___५. रुद्र (रौद्र) - जो भाला-बरछी आदि शस्त्रों में नारकी जीवों को पिरो देते हैं और जो रौद्र (भयंकर) होते हैं। ६. उपरुद्र (उपरौद्र) - जो नैरयिकों के अंगोपांगों को फाड़ डालते हैं और जो महारौद्र (अत्यन्त भयंकर) होते हैं। . ७. काल - जो नैरयिकों को कड़ाही में पकाते हैं और काले रंग के होते हैं। ८. महाकाल - जो उनके चिकने मांस के टुकड़े-टुकड़े करते हैं, उन्हें खिलाते हैं और बहुत काले होते हैं। उन्हें 'महाकाल' कहते हैं। ९. असिपत्र - जो वैक्रिय-शक्ति द्वारा असि अर्थात् तलवार के आकार वाले पत्तों से युक्त वन की विक्रिया करके उसमें बैठे हुए नारकी जीवों के ऊपर वे पत्ते गिराकर तिल सरीखे छोटे-छोटे टुकड़े कर डालते हैं, उन्हें 'असिपत्र' कहते हैं। १०. धनुष - जो धनुष के द्वारा अर्द्ध चन्द्रादि बाण फैंककर नारकी जीवों के कान आदि को छेद देते हैं, भेद देते हैं और भी कई प्रकार की पीड़ा पहुंचाते हैं। ११. कुम्भ- जो नारकी जीवों को कुम्भियों में पकाते हैं। . १२. बालू - जो वैक्रिय के द्वारा बनाई हुई, कदम्ब-पुष्प के आकार वाली अथवा वज्र के आकार वाली बालू रेत में नारकी जीवों को चने की तरह भुनते हैं। १३. वैतरणी - जो असुर मांस, रुधिर, राध, ताम्बा, सीसा आदि गरम पदार्थों से उबलती हुई नदी में नारकी जीवों को फैंककर उन्हें तैरने के लिए बाध्य करते हैं, उन्हें 'वैतरणी' कहते हैं। १४. खरस्वर - जो वज्र कण्टकों से व्याप्त शाल्मली वृक्ष और नारकी जीवों को चढ़ाकर, कठोर स्वर करते हुए अथवा करुण रुदन करते हुए नारकी जीवों को खींचते हैं। उन्हें 'खरस्वर' कहते हैं। १५. महाघोष - जो डर से भागते हुए नारकी जीवों को पशुओं की तरह बाड़े में बन्द कर देते हैं। तथा जोर से चिल्लाते हुए वहीं उन्हें रोके रखते हैं, उन्हें 'महाघोष' कहते हैं (भगवती ३-७)। उपरोक्त यमकायिक देवों से त्रास फाये हुए दुःखी नारक जीव आक्रन्द करते हुए चिल्लाते हैं। __नारक जीवों की करुण पुकार किं ते? अविभाय सामि भाय बप्प ताय जियवं मुय मे मरामि दुब्बलो For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरकपालों द्वारा दिये जाने वाले घोर दुःख वाहिपीलिओऽहं किं दाणिऽसि ? एवं दारुणो णिद्दय मा देहि मे पहारे उस्सासेयं मुहुत्तं मे देहि पसायं करेह मा रुस वीसमामि गेविज्जं मुयह मे मरामि गाढं तण्हाइओ अहं देह पाणीयं । महाभाग, - - शब्दार्थ - किं ते- वे नारक जीव किस प्रकार चिल्लाते हैं ?, अभिवाय हे अज्ञात स्वरूप वाले ,सामि स्वामी, भाय- भ्राता, बप्प पिता, ताय तात, जियवं विजेता, मे मुय - मुझे छोड़ दो, मे मरामि मैं मर रहा हूँ, दुब्बलो मैं दुर्बल हूँ, वाहिपीलिओऽहं- मैं व्याधि से पीड़ित हूँ, किं दाणिं- क्यों आप इस समय, एवं इस प्रकार दारुणो दारुण, णिद्दय निर्दय, असिं - हो रहे हैं, मा देहि मे पहारे- मुझ पर प्रहार मत करो, मुहुत्तं मे उस्सासेयं मुझे मुहूर्तभर श्वास लेने दीजिये, पसायं करेहि- कृपा कीजिये, मा रुस - मुझ पर रोष मत कीजिए, विसमामि मुझे विश्राम लेने दीजिये, मे विज्जं मेरी गर्दन, मुयह छोड़ द्वीजिये, मरामि मैं मर रहा हूँ, अहं प्यास से अत्यन्त पीड़ित हूँ, देह पाणीयं- पानी दीजिये । - मैं, गाढं तण्हाइओ - - - - - - ३७ ***** - भावार्थ - प्रश्न - वे नारक जीव किस प्रकार चिल्लाते हैं ? उत्तर - वे कहते हैं-‘“हैं महाभाग ! हे स्वामी! हे भ्रात! हे पिता ! हे पालक ! हे विजेता ! अरे, मुझे छोड़ दो! मैं अत्यन्त दुर्बल हूँ। अरे, मैं मर रहा हूँ। मैं भयंकर व्याधि से पीड़ित हूँ । आप मुझ दुःखी पर इतने क्रुद्ध क्यों हो गए हैं ? अरे आप मुझ पर दया क्यों नहीं करते ? क्यों निर्दय बन रहे हैं? अरे, मुझे मत मारो। मुझ पर कृपा करो। थोड़ी देर के लिए मुझे विश्राम करने दो। थोड़ी देर शान्ति से श्वास लेने दो। मुझ पर क्रोध मत करो। मेरी गर्दन छोड़ दो। मुझे अत्यन्त प्यास लग रही है। मैं मर रहा हूँ । मुझे पानी दो ।" विवेचन - पूर्व सूत्रांश में 'भीया सद्दं करेंति' - से बताया है कि वे नारक जीव करुण दशा में पड़े हुए यमकायिक (परमाधामी) देवों से भयभीत होकर शब्द करते-चिल्लाते हैं। वे क्या चिल्लाते हैं, अपनी करुण पुकार में वे कौन-से भाव व्यक्त करते हैं ? यह प्रस्तुत सूत्रांश में स्पष्ट बताया गया है। जीव हँस-हँस कर जो पापकर्म करता है, उसका परिणाम कितना दुःखद, दुःसह एवं भयानक होता है, यह उपरोक्त शब्दों से स्पष्ट हो रहा है। For Personal & Private Use Only उत्कट प्यास से पीड़ित उन नारक जीवों के पानी मांगने पर वे परमाधामी देव क्या करते हैं, यह आगे सूत्रांश में बताया जाता है। - नरकपालों द्वारा दिये जाने वाले घोर दुःख हंता पिय इमं जलं विमलं सीयलं त्ति घेत्तूण य णरयपाला तबियं तउयं से ● 'ताहे तं पिय-पाठ भेद । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० १ **************************************************************** दिति कलसेण अंजलीसु दट्ठण य तं पवेवियंगोवंगा अंसुपगलंतप्पुयच्छा छिण्णा तण्हाइयम्ह कलुणाणि जंपमाणा विप्रेक्खंता दिसोदिसिं अत्ताणा असरणा अणाहा अबंधवा बंधुविप्पहूणा विपलायंति य मिया इव वेगेण भयुबिग्गा। ... " शब्दार्थ - हंता - हाँ, तुम प्यासे हो, इमं - यह, विमलं - निर्मल, सीयलं - शीतल जल, पिय - पीओ, त्ति - कहकर, णरयपाला - वे नरकपाल-परमाधामी देव, घेत्तूण - उसे पकड़कर, तबियं - तपा हुआ, तउयं - सीसा या रांगा, कलसेण - कलश से, से - उसकी, अंजलीसु- अंजलि में, दितिडाल देते हैं, तं - उसे, दट्ठण - देखकर, पवेवियंगोवंगा - नारकों के अंगोपांग कम्पित हो जाते हैं, अंसुपगलंतपप्पुयच्छा.- आंसुओं से आँखें भरकर वे कहते हैं, छिण्णा तण्हाइयम्ह - हमारी प्यास छिन्ननष्ट हो गई है. इस प्रकार. कलणाणि-करुणापर्ण वचन. जंपमाणा- बोलते हए. दिसोदिसिं- भागने के लिए दिशाओं को, विप्रेक्खंता - देखते हुए, अत्ताणा - त्राण रंहित, असरणा - शरण रहित, अणाहाअनाथ, अबंधवा - बान्धव रहित, बंधुविप्पहूणा - बन्धुओं से वंचित, भयुब्विग्गा - भय से उद्विग्न होकर, मियाइव - मृग के समान, वेगेण - जोर से, विपलायंति - भागते हैं। . भावार्थ - 'तुम्हें प्यास लगी है, तो लो यह स्वच्छ शीतल जल पीओ' - यों कहकर वे नरकपाल उस नैरयिक को पकड़ कर उबलता हुआ सीसा, कलश भरकर उसके हाथ की अंजलि में डालते हैं। उस 'उबलते हुए सीसे को देखकर वे नारक भयभीत होकर कम्पित होते हैं-धूजते हैं। उनकी आँखें आंसुओं से छलछलाती हैं। वे करुणापूर्ण स्वर से कहते हैं-'अब हमारी प्यास मिट गई है। आप रहने दीजिये'इस प्रकार कहते हुए वे बचाव का स्थान देखते हुए इधर-उधर भागते हैं। वे अरक्षित, निराश्रित, अनाथ, अबान्धव, भ्रातृ-विहीन नारक भयाक्रांत होकर भयभीत मृग के समान जोर से भागते हैं। विवेचन - पाप का कितना भयंकर परिणाम होता है - इसकी कुछ झाँकी सूत्रकार ने उपरोक्त शब्द-चित्र में प्रदर्शित की है। यह कोई अतिरंजित बात नहीं है। असहाय प्राणियों पर किये अत्याचार का परिणाम समय आने पर भोगना ही पड़ता है। ऐसे भयंकर परिणाम को जानकर हिंसा से विरत होने के उद्देश्य से परम उपकारी सूत्रकार महाराज ने नरक के दुःखों का वर्णन किया है। ___अंसुपगलंतप्पुयच्छा - उनकी आँखों में आँसू भर आते हैं। ये शब्द उनके दुःख की तीव्रता व्यक्त करने के लिए दिए हैं। वैसे आंसू का सम्बन्ध औदारिक शरीर से है। घेत्तूणबला पलायमाणाणं णिरणुकंपा मुहं विहाडेत्तुं लोहदंडेहिं कलकलं ण्हं वयणंसि छुभंति केइ जमकाइया हसंता। तेण दड्डा संतो रसंति य भीमाई विस्सराइं रूवंति य कलुणगाइं पारेयवगा व एवं पलविय-विलाव-कलुण-कंदियबहुरुण्णरुइयसद्दो परिदेवियरुद्धबद्ध य णारयार-वसंकुलो णीसिट्ठो। रसिय-भणियकुविय-उक्कूइय-णिरयपाल तजियं गिण्हक्कम पहर छिंद भिंद उप्पाडेह उक्खणाहि For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरकपालों द्वारा दिये जाने वाले घोर दुःख ३९ *** ******************************** ******** कत्ताहि विकत्ताहि य भुजो हण विहण विच्छुब्भोच्छुब्भ-आकड्ड-विकड्ड किं ण जंपसि? सराहि पावकम्माइं दुक्कयाइं एवं वयणमहप्पगब्भो पडिसुयासहसंकुलो उतासओ सया णिरयगोयराणं महाणगरडज्झमाण-सरिसो णिग्घोसो, सुच्चइ अणिट्ठो तहियं णेरइयाणं जाइजंताणं जायणाहिं। शब्दार्थ - केइ - कोई, णिरणुकंपा - दया विहीन, जमकाइया - यमकायिक, पलायमाणाणंउन भागते हुए नारकों को, बला - बलात्कार से, घेत्तूण - पकड़ कर, हसंता - हँसते हुए, लोहदंडेहिंलोहे के डंडे से, मुहं - उनके मुंह को, विहाडेत्तुं - खोलकर, वयणसि - वदन-मुंह में, कलकलं - कलकल करते-उबलते हुए, ण्हं - शीशे को, छुभंति - डालते हुए, तेण दड्डासंतो - उससे जले हुए वे बिचारे, भीमाई - भयंकर, विस्सराई - विस्वर-आर्तनाद से, रसंति - चिल्लाते हैं, य - तथा वे, पारेयवगा व - कबूतर की तरह, कलुणगाई - करुणाजनक क्रन्दन, बहुरुण्णरुइयसहो - अत्यन्त अश्रुपात के साथ चित्कार करते हुए, परिदेविय - विलाप करते हुए, रुद्ध - रोके हुए, बद्धय - बांधे हुए, णारयारवसंकुलो - नारकों के आर्तनाद से पूर्ण, णीसिट्ठो - उनके मुंह से निकले हुए, रसिय - शब्द करते हुए, भणिय - बोलते हुए, कुविय - क्रोध करते हुए, उक्कूइय - महानाद करते हुए, णिरयपालतज्जियंनरकपाल के द्वारा धमकाये हुए, गिण्ह - पकड़ो, क्कम - मारो, पहर - प्रहार करो, छिंद - छिल दो, काट दो, भिंद - भेदन कर दो, उप्पाडेह - ऊपर उठाओ या खाल उतारो, उक्खणाहि - आँखें निकाल दो, कत्ताहि- काट डालो, विकत्ताहि - विविध प्रकार से काटो, हण - मार डालो, भुज्जो - फिर से, विहण - विशेष प्रकार से हनन करो, विच्छुब्भ - मुंह में शीशा डालो, उच्छुब्भ- उठाकर जोर से पटको अथवा मुंह में विशेष शीशा डीलो, आकड्ड - इसे घसीटो, विकड्ड - उल्टा घसीटो, किं ण जंपसि - क्यों नहीं बोलता?, पावकम्माई - अपने पाप-कर्मों को, दुक्कयाई - दुष्कर्मों को, सराहि - स्मरण कर, एवं - इस प्रकार, वयणमहप्पगब्भो - परमाधर्मियों के महान् शब्दों, तासओ - त्रास-दायक, महाणगरडझमाण-सरिसो - जलते हुए बड़े नगर के समान, तहियं - वहाँ, जायणाहिं - यातना से, जाइजंताणं - पीड़ित किये जाते हुए, णिरय गोयराणं - नरक गोत्र वाले, णेरइयाणं - नारकों का, पडिसुयासहसंकुलो-प्रतिध्वनि से व्याप्त, अणिट्ठो-अनिष्ट, णिग्योसो-निर्घोष, सुच्चइ - सुनाई देता है। . भावार्थ - कोई क्रूर-निर्दय यमकायिक देव, उन भागते हुए नारकों को बलपूर्वक पकड़ कर, लोहे का डंडा उनके मुंह में डाल कर खोलते हैं और उनके मुंह में उबलता हुआ शीशा उड़ेल देते हैं। उससे उन्हें महान् वेदना होती है। वे भयंकर रूप से तड़पते आक्रन्द करते और चिल्लाते हैं। उनकी छटपटाहट, आक्रन्द और विलाप देखकर वे यमदेव हंसते हैं। . उन बंधे हुए धूजते-कांपते रोते और आक्रन्द करते हुए नारकों के प्रति विशेष कुद्ध होते हुए वे * 'पावकम्माणं' के आगे 'कियाइ' पाठ भी कुछ प्रतियों में है, जिसका अर्थ - 'किए हुए' होता है। For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ********-*-*-*-*-*-* प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० १ नरकपाल भयावने शब्दों में कहते हैं- 'इन्हें पकड़ो, मारो, जोर से मारो, इन्हें काटो, शूलों से छेदो इनकी चमड़ी उधेड़ दो, टुकड़े करो, आँखें निकाल डालो, इनके मुंह में उबलता हुआ शीशा उड़ेल दो। 'अरे, तू क्यों नहीं बोलता ? अपने पाप कर्मों को याद कर।' इस प्रकार नरकपालों द्वारा महान् भयंकर दुःख एवं त्रास से दुःखी बने हुए और महानगर के दाह के समान जलते हुए वे नारक जीव, दुःख भोगते हुए आक्रन्द करते हैं। वह नरक स्थान उन नारक जीवों की दुःख पूर्ण चित्कारों, विलापों एवं आक्रन्दों से व्याप्त रहा है। वहाँ सर्वत्र अनिष्ट ध्वनियाँ ही निकलती रहती है। विवेचन - उपरोक्त सूत्र में नारकों के महान् दुःखों का दिग्दर्शन कराया गया है। कितनी भयानक वेदना होती है -नरकों में। इस महावेदना का विचार करके ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। पापकर्मों के दुष्परिणाम को जानकर, प्रथम से ही सावधान रहने वाले, अपनी आत्मा को बचा लेते हैं। आगमकार महर्षि अपनी वाणी द्वारा भव्य जीवों को सावधान करते हैं कि- 'हे मोहान्ध जीव ! संभल ! तू अपने दुराचार से अपनी ही घात कर रहा है। आज तुझे जो पाप मीठा लग रहा है, वह कच्चा पारा खाने के समान है। वह फूटकर जब भयानक कोढ़ के रूप में निकलता है, तब कैसी दुर्दशा होती है ? इसी प्रकार पापकर्मों का परिणाम भी इतने दारुण रूप में भोगना पड़ता है।' 'किं ण जंपसि सराहि पावकम्माई दुक्कयाइं' - अरे ओ पापी ! अब तू बोलता क्यों नहीं ? तेरी जबान क्यों बन्द हो गई है ? कहाँ गई तेरी वह पाप - शूरता ? याद कर हे दुष्ट ! तेरा वह पाप, वह दुष्कृत्य । उस समय तूं पाप करके कितना प्रसन्न हो रहा था ? यदि तुझे कोई समझाता, तो अपने घमण्ड और हठ में किसी की नहीं मानता था। उल्टा कुतर्क करके सन्मार्ग का खंडन और पाप मार्ग का मंडन करता था । ले, भोग अब उसका परिणाम यों विविध प्रकार से उनके पाप कर्मों का स्मरण कराते हुए नरकपाल, नैरयिक को दुःख देते हैं। शंका- नरकपाल नारक जीवों को उनके पाप का दंड देते हैं, तो क्या यह उनका कर्त्तव्य है, अधिकार है ? उन्हें किसी महासत्ता (ईश्वर) ने नियुक्त किया है ? समाधान- नहीं, न तो उनका यह अधिकार है और न किसी महासत्ता ने उन्हें नारक जीवों को पाप का दण्ड देने के लिए नियुक्त ही किया है। वे अपनी रुचि से ही नारकों को दुःख देते हैं। नारकों को दुःख देना उनका मनोरंजन खेल है। जिस प्रकार मनुष्य अपने मनोरंजन के लिए निशानेबाजी से गिलोल, धनुष-बाण एवं बन्दूक से आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को मारकर प्रसन्न होते हैं, हिरण, खरगोश आदि पशुओं को मारते हैं, कई गुड़ पर मक्खियों को इकट्ठी कर, हजारों मक्खियों को अपनी इच्छा से मार डालते हैं। अहिंसक कहलाने वाले ऐसे कई जैनी भी राह चलते वृक्षों के पत्ते, पुष्प और डालियाँ आदि तोड़ते जाते हैं और उसमें सुख मानते हैं, वैसे यमकायिक- प्ररमाधामी देवों की भी इस प्रकार की रुचि होती है। उनका स्वभाव ही अनार्य, म्लेच्छ एवं असभ्य जाति के लोगों के समान हैजिनके खेल भी बीभत्स एवं क्रूर हों। पशुओं की हड्डियों को और सिंग को पहन कर खेलकूद करने *** - For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - नारकों की विविध पीड़ाएं वालों के समान ये नरकपाल भी क्रूर परिणामी होते हैं। ये एकान्त मिथ्यादृष्टि होते हैं। कर्मों के उदय से उन्हें ऐसे कार्यों में ही आनन्द आता है। - नारकों की विविध पीड़ाएं - **************************** किं ते? असिवण-दब्भवण - जंतपत्थर - सूइतल-क्खार वावि-कल कलंत वेयरणि- कलंब - वालुया - जलियगुहणिरुंभणं उसिणोसिण-कंटइल्ल-दुग्गम-रहजोयण तत्तलोहमग्गगमण - वाहणाणि इमेहिं विविहेहिं आउहेहिं । शब्दार्थ - किं ते उन नारकों की यातनाएं कैसी हैं ? असिवण - असि-तलवार के समान पत्तों वाले वृक्षों का वन, दब्भवण दर्भवन, जंतपत्थर पत्थर के यंत्र, सूइतल सूई की नोक से, खारवावि खारे पानी की बावड़ी, कलकलंत वेयरणि - उबलते हुए शीशे से बहती वैतरणी, कलंबवालुया - रक्त वर्ण की तप्त रेत, जलियगुहणिरुंभणं - जलती गुफा में बन्द करके, उसिणोसिण कंटइल्ल दुग्गम रहजोयण - अत्यन्त उष्ण और कांटों से परिपूर्ण दुर्गम मार्ग में, रथ में जोत कर चलाते हैं, लोहमग्गगमण वाहणाणि - वाहन में जोतकर उष्ण लोहमय मार्ग में चलाया जाता है, इमेहिं - इस प्रकार, विविहेर्हि - विविध प्रकार से, आउहेहिं आयुधों से मारे जाते हैं। भावार्थ - शिष्य प्रश्न करता है कि 'उन नारकों को कैसी यातनाएं दी जाती हैं ?" गुरुदेव कहते हैं कि वे नरकपाल उन नारकों को तलवार की धार के समान तीखे पत्र वाले वृक्षों के वन में चलाते. हैं। जिसकी नोक चूभती है ऐसे दर्भ के वन में चलाते हैं । पत्थर के यंत्र (कोल्हू) में डालकर पीसे जाते हैं, सूई की नोक के समान तीखे कांटों के समान स्पर्श वाली भूमि पर चलाया जाता है। क्षार युक्त • पानी की बावड़ी में डाल दिया जाता है। जिसमें रांगा या सीसा जैसा उबलता हुआ पानी बह रहा हैऐसा वैतरणी नदी में डाल दिया जाता है। कदम्ब पुष्प के समान अग्नि जैसी तप्त रक्त रेत पर चलाया जाता है। जलती हुई गुफा में बन्द करके रोंधा जाता है। अत्यन्त उष्ण एवं तीक्ष्ण कंटकों से परिपूर्ण दुर्गम मार्ग में रथ में बैल के समान जोतकर चलाया जाता है। गर्म लोहमय मार्ग में वाहनों में जोत कर चलाया जाता है। यों विविध प्रकार के शस्त्रों से उन्हें मारा जाता है। विवेचन- पाप के कटु फल को बताने वाला यह वर्णन शब्दों में तो कम ही है। वास्तविक दुःख तो इससे भी अनन्त गुण है। ऋषीश्वर मृगापुत्र जी ने कहा है कि "जारिसा माणुसे लोए, ताया दीसंति वेयणा । इत्तो अनंत-गुणिया, णरएसु दुक्खवेयणा ।" - ४१ ********** - For Personal & Private Use Only उत्तराध्ययन १९-४ • मनुष्य लोक में जो वेदना दिखाई देती है, उससे अनन्त गुण दुःखद वेदना नरक में है। कई पठित तर्कवादी, नारकों को होने वाली ऐसी वेदना पर अविश्वासी बनते हुए स्वच्छन्द प्रचार करते हैं । किन्तु उनकी यह चेष्टा स्व-पर अहितकारिणी है। यदि हम तटस्थ होकर सोचें, तो इस प्रकार · Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ०१ ************************************************************* की महावेदना सर्वथा संभव है। हम यहां भी देखते हैं कि इस प्रकार की घास यहाँ भी है जो हाथ-पाँव में चूभने से मांस में गड़कर रक्त निकल आता है। ऐसी तीखे कंकर वाली पृथ्वी है कि जिस पर कुछ कदम चलना भी कठिन हो जाता है। वैज्ञानिक लोग, कुत्तों, बन्दरों और मेढकों को उनके अंगों को काट-काट कर कितना दुःख देते हैं? वे अपने अनुसन्धान के लिए करते हैं, तो नरकपाल अपने मनोरंजन के लिए करते हैं। कसाईखानों में पशुओं को काटने-मारने चीरने का बीभत्स दृश्य तो मनुष्य-लोक में भी प्रत्यक्ष है। • समाचार-पत्रों में पढ़ा था कि भारत में एक ऐसा भी मनुष्य था जिसे सोये हुए मनुष्य की कनपटी पर हथोड़े की चोट करके मारने में मजा आता था। अन्त में वह पकड़ा गया और मुकद्दमा चलकर दण्ड पाया। विदेशों में ऐसे भी मनुष्य हुए जिनकी रुचि राक्षसी-नृशंस थीं। उसी प्रकार की रुचि नरकपालों . की भी होती है। वे एकान्त मिथ्यादृष्टि एवं अधार्मिक ही होते हैं। वास्तव में जिन जीवों के ऊपर पाप का भार अत्यधिक हो जाता है, उनको भोगने का स्थान नरक . ही है और वैसी दारुण वेदना से ही उनके पाप का भार हल्का होता है। मनुष्य के द्वारा अथवा मनुष्य , लोक में उतना दण्ड मिल ही नहीं सकता। ' नारकों के शस्त्र किं ते मुग्गर-मुसुंढि-करकय-सत्ति-हल-गय-मूसल-चक्क-कोंत-तोमर-सूललड्डु भिडिपा (मा) लसद्धल-पट्टिस-चम्मेढ़-दुहण-मुट्ठिय-असि-खेडग-खग्ग-चावणाराय-कणग-कप्पिणि-वासि-पस्सु-टंक-तिक्खणिम्मल-अण्णेहिं य एवमाइएहिं .. असुभेहिं वेउविएहिं पहरणसएहिं अणुबद्धतिव्ववेरा परोप्परवेयणं उदीरेंति अभिहणंता। शब्दार्थ - किं ते - वे शस्त्र कौन से हैं? मुग्गर - मुद्गर, मुसुंढि - शस्त्र विशेष-बन्दूक? करकयकरवंत, सत्ति - शक्ति, हल - प्रसिद्ध है, गय - गदा, मूसल - प्रसिद्ध, चक्क - चक्र, कोंत - कुन्त-भाला, तोमर - एक प्रकार का बाण, सूल - शूल, लड्ड- लाठी, भिडीपाल- शस्त्र विशेष, सद्धलभाला, पट्टिस - एक प्रकार का शस्त्र, चम्मेट्ठ- चर्म वेष्ठित पाषाणमय शस्त्र-गोफण, दुहण - एक प्रकार का मुद्गर-घन?, मुट्ठिय - मुष्टिक-एरण जैसा, असि - तलवार, खेडग - पटिया, खग्ग - खड्ग, चाव - धनुष, णाराय - बाण, कणग - एक प्रकार का बाण, कप्पिणिं - कैंची, वासि - वसूला, परसुकुठार, टंक - छेनी, तिक्खणिम्मल - तीखे और निर्मल, अण्णेहिं - अन्य भी, एवमाइएहिं - इसी प्रकार के, वेउव्विएहिं - वैक्रिय द्वारा निर्मित, असुभेहिं - अशुभ, पहरणसएहिं - सैकड़ों शस्त्रों से, अणुबद्धतिव्ववेरा - तीव्र वैर से बंधे हुए नारक, अभिहणंता - हनन करते हुए, परोप्परवेयणं - परस्पर-एक दूसरे को वेदना, उदीरेंति - उत्पन्न करते हैं। भावार्थ - 'नारक जीव कैसे शस्त्रों से आघात करते हैं'? शिष्य के इस प्रश्न के उत्तर में गुरुदेव For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ नारकों के शस्त्र ************************************* शस्त्रों के नाम बतलाते हैं - मुद्गर, मुसुंढी, करवत, शक्ति, हल, गदा, मूसल, चक्र, कुन्त, तोमर, शूल, लाठी, भिडीपाल, भाला, चमड़ा, लिपटा हुआ पत्थर, दुहण (मुद्गर) मुष्टिक, तलवार, पटिया, खड्ग, धनुष, बाण, कैंची, वसूला, कुठार और छेनी तथा इस प्रकार के अन्य भी सैकड़ों प्रकार के अत्यन्त तेज और स्वच्छ ऐसे बुरे शस्त्रों का वैक्रिय द्वारा निर्माण करके, तीव्र वैरानुबन्ध से बंधे हुए वे नारक जीव, एक दूसरे को मारते-काटते हुए असह्य वेदना उत्पन्न करते हैं। विवेचन - मनुष्य और तिर्यंच योनि में पारस्परिक द्वेष, क्रोध, वैर और मारधाड़ से विषैली बनी हुई आत्मा नरक में जाकर भी वही काम करती है। उसी कलुषित-अत्यन्त कलुषित भावनाओं में जलती-सुलगती एवं भभकती हुई अन्य जीवों को भी जलाती, भभकाती, मारती, काटती और दुःखी करती है और खुद भी कटती-मरती और छिन्न-भिन्न होती रहती है। ___इस सूत्र में नारक जीवों की परस्पर मार-काट और उनके अपनी वैक्रिय-शक्ति से निर्मित शस्त्रों का उल्लेख किया गया है। नरकपाल द्वारा दिया जाता हुआ दुःख तो तीसरी नरक तक ही है। आगे एक-दूसरे आपस में लड़-कट कर दुःखी होते हैं। ... तत्थ य मोग्गर-पहारचुण्णिय-मुसुंढि-संभग्ग-महियदेहा जंतोवपीलणफुरंतकप्पिया के इत्थ सचम्मका विगत्ता णिम्मूलुल्लूणकण्णो?-णासिका छिण्णहत्थपाया, असि-करकय-तिक्ख-कोंत-परसुप्पहारफालिय-वासीसंतच्छितंगमंगा कलकलमाणखार-परिसित्त-गाढडझंतगत्ता कुंतग्गभिण्णजज्जरियसव्वदेहा विलोलंति महीतले विसूणियंगमंगा। शब्दार्थ - तत्थ - नरक में, मोग्गरपहारचुण्णिय - मुद्गर से मार कर उनके शरीर को चूर-चूर कर दिया जाता है, मुसुंढि संभग्ग - मुसुंढी से शरीर के टुकड़े कर दिये जाते हैं, महियदेहा - शरीर को दही के समान मथा जाता है, जंतोवपीलणफुरंतकप्पिया - कोल्हू जैसे यंत्र में पीले जाने के कारण उनके शरीर के अंगोपांग कटकर कम्पित होते हैं, के इत्थ - वहाँ कई जीवों के, सचम्मका विगत्ता - सारे शरीर का चमड़ा उधेड़ दिया जाता है, णिम्मूलुल्लूणकण्णोद्रुणासिका - मूल सहित कान, ओंठ और नासिका काट दिये जाते हैं, छिण्णहत्थपाया - हाथ और पांव काट डालते हैं, असिकरकयतिक्खकोंतपर-सुप्पहारफालिय - किसी के शरीर को तलवार, आरी, तीखे भाले एवं कुल्हाड़ी के प्रहार से फाड़-चीर दिया जाता है, वासीसंतच्छितंगमंगा - उनके शरीर को वसुले से छिला जाता है, कलकलमाणखार-परिसित्तगाढडझंतगत्ता - कलकल आवाज करता हुआ, उबलता हुआ क्षार जल डालकर उनका शरीर जलाया जाता है, कुंतग्गभिण्ण - भाले से भेद कर, जज्जरियसव्वदेहासारे शरीर को जर्जरित कर दिया जाता है, विसूणियंगमंगा - मार-पीटकर उनका शरीर फुला दिया जाता है। ऐसे उत्कृष्ट एवं घोर दुःख से पीड़ित होकर नारक जीव, महीतले - पृथ्वीतल पर, विलोलंतिलोटते और तड़पते रहते हैं। For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०१ ************************************************* ********** . भावार्थ - मुद्गर से मार-कूट कर नारक जीवों का शरीर चूर-चूर कर दिया जाता है, मुसुंढी से . टुकड़े कर दिये जाते हैं, शरीर को मथ दिया जाता है, यंत्र में पैर कर छूदा जाता है और वे छिन्न टुकड़े . तड़पते रहते हैं। चमड़ी उधेड़ दी जाती है। उनके कान, नाक और ओंठ काटकर निर्मूल कर दिये जाते हैं। उनके हाथ और पांव काटकर फेंक दिये जाते हैं। किसी के तलवार के वार से टुकड़े किये जाते हैं, तो किसी के आरे से चीर कर और किसी के कुल्हाड़ी से फाड़कर टुकड़े किये जाते हैं। भाले से भेद्रन और वसूले से छिलकर अंगोपांग के छिलके उतारे जाते हैं। उबल कर कलकल शब्द करते हुए शरीर युक्त गर्म पानी का देह पर सिंचन करके उन्हें जलाया जाता है। भाले से भेद-भेदकर उनके सारे शरीर को जर्जरित किया जाता है। मारपीट से हुए सुजन एवं फफोलों से उनका शरीर फूल कर मोटा-हो जाता .. है। इस प्रकार के घोरातिघोर दुःख से पीड़ित होकर वे नारक जीव, पृथ्वी पर लोटते-तड़पते रहते हैं। ' विवेचन - पूर्व सूत्र में शस्त्रों का वर्णन आया है। उन शस्त्रों से नारक जीव को किस प्रकार की भयंकरतम एवं घोरातिघोर वेदना सहन करनी पड़ती है, वह इस सूत्र में बताई गई है। यह वेदना नरकपालों के द्वारा भी होती है और पारस्परिक संघर्ष से भी। तत्थ य विग-सुणग-सियाल-काक-मजार-सरभ-दीविय-वियग्घग-सहुलसीहदप्पिय-खुहाभिभूएहिं णिच्चकालमणसिएहिं घोरा रसमाण-भीमरूवेहिं अक्कमित्ता दंढदाढागाढ-डक्क-कड्डिय-सुतिक्ख-णह-फालिय-उद्धदेहा विच्छिप्यंते समंतओ विमुक्कसंधिबंधणा वियंगिरंगमंगा कंक-कुरर-गिद्ध-घोर-कट्ठवायसगणेहि य पुणो खरथिरदढणक्ख-लोहतुंडेहिं उवइत्ता पक्खा हय-तिक्ख-णक्ख विक्किण्ण जिब्भंछिय-णयणणिइओलुग्गविगय-वयणा उक्कोसंता य उप्पयंता णिप्पयंता भमंता। शब्दार्थ - तत्थ - वहाँ, विग - भेड़िया, सुणग - कुत्ता, सियाल - गीदड़, काक - कौआ, मज्जार - बिल्ला, सरभ - अष्टापद, दीविय - चीता, वियग्धग - व्याघ्र, सहुलसीह - शार्दूलसिंह, दप्पिय खुहाभिभूएहिं - ये सभी जानवर दर्पयुक्त तथा भूख से पीड़ित, णिच्यकालं - सदाकाल, अणसिएहिं-- भूखे रहते हैं, घोरा - वे बड़े घोर-भयावने, रसमाण भीमलवेहिं - गर्जनादि शब्द करते हुए भयंकर रूप वाले, अक्कमित्ता - आक्रमण करके, दढदाढागाढडक्ककडियसुतिक्खणहफालियउद्धदेहा - अपनी दृढ़तम दाढ़ाओं से पकड़ कर खिंचते हुए अपने तीखे नखों से नारक जीवों के शरीर को चीरते हैं, विमुक्कसंधि-बंधणा वियंगियंगमंगा - इनके द्वारा नारकों के शरीर की सन्धियाँ ढीली और अंग विकल कर दिये हैं, समंतओ - चारों ओर से, विच्छिप्पंते - फैंक दिये जाते हैं, पुणो - फिर, कंक-कुररगिद्ध - इन प्रसिद्ध नाम वाले पक्षी, घोरकट्ठवायसगणेहि - घोर कष्ट देने वाले कौओं का झुंड, खरथिरदढणक्खलोहतुंडेहिं - कठोर, दृढ़ एवं स्थिर नाखुन तथा लोह जैसी चोंच है जिनकी ऐसे पक्षियों का समूह, उवइत्ता - उन तड़पते हुए नारकों पर टूट पड़ता है, पक्खाहय - पंखों से आहत करते For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारकों की मरने के बाद की गति **************************************************************** हैं, तिक्ख-णक्ख-विक्किण्ण जिब्भंछिय णयण - तीखे नखों से उनकी जीभ और आँखें नोच लेते हैं, णिहओ लुग्गविगयवयणा - निर्दयता के साथ उनके मुख को विकृत कर देते हैं, उक्कोसंता - ऐसे घोर दुःख से दुःखी होकर वे नारक रुदन करते हैं, उप्पयंता - ऊपर उछलते हैं, णिप्पयंता - नीचे गिरते हैं, भमंता - चक्कर काटते हैं। . भावार्थ - नरक में भेड़िये, कुत्ते, शृगाल, कौए, बिल्ले, अष्टापद, चीते, व्याघ्र और शार्दुलसिंह आदि भयंकर प्राणी दर्पयुक्त बने हुए वे भूख से पीड़ित होकर सदैव खाने के लिए तत्पर रहते हैं। वे अपनी-अपनी.बोली से तीव्रतम गर्जनादि करते हुए भयंकर बनकर नारक जीवों पर आक्रमण करते हैं। फिर वे अपनी कठोर और दृढ़तम दाढ़ाओं से उन्हें पकड़ कर शरीर को तोड़ते और तीक्ष्ण नाखुनों से चीरते हैं। वे हिंस्र-पशु नारकों के शरीर को रगदोल कर समस्त सन्धियाँ (जोड़) ढीले कर देते हैं और समस्त अंगों को विकृत कर डालते हैं तथा इधर-उधर फैंक देते हैं। उन पर चारों ओर से कंक, कुरर, गिद्ध और कौओं का समूह टूट पड़ता है और अपनी वज्र-तुल्य तीक्ष्ण चोंचों को उन छटपटाते हुए नारक जीवों के शरीर में घोंप-घोंपकर भेदन करते हैं। अपने तीक्ष्ण पंखों के तलवार के समान तेज झपाटों से छेदन करते हैं। अपने तीखे नाखुनों से उनकी जीभ नोचते और आँखें निकाल लेते हैं। वे निर्दय पक्षी, उन नास्कों के मुख को विकृत कर देते हैं। इस प्रकार के घोर दुःखों से पीड़ित होकर वे नारक जीव, रुदन करते हैं, उछलते-गिरते और चक्कर लगाते हैं। ... . . नारकों की मरने के बाद की गति . पुवकम्मोदयोवगया, पच्छाणुसएणं डझमाणा णिदंता पुरेकडाई कम्माइं पावगाई तहिं तहिं तारिसाणि ओसण्णे चिक्कणाई दुक्खाई अणुभवित्ता तओ य आउक्खएणं उव्यट्टिया समाणा बहवे गच्छंति तिरिय-वसहिं दुक्खुत्तरं सुदारुणं जम्मणमरणजरावाहि-परियट्टणारहट्टं जल-थल-खहयर-परोप्पर विहिंसण-पवंचं इमंच जगपागडं वरागा दुक्खं पावेंति दीहकालं। शब्दार्थ - पुव्वकम्मोदयोवगया - पूर्वभव के कर्मों के उदय से, पच्छाणुसएणं - पश्चाताप से, डझमाणा - जलते हुए, तहिं तहिं - वहाँ-वहाँ-उन-उन स्थानों में, तारिसाई - उस प्रकार के, पुरेकडाई - पूर्व में किये हुए, पावाई कम्माइं - पाप कर्मों की, णिदित्ता - निन्दा करते हैं, ओसण्ण चिक्कणाई - अतिशय चिकने-बड़ी कठिनता से छोड़े जा सके-ऐसे दुर्भेद्य, दुक्खाई - दुःखों को, अणुभवित्ता - भोग कर, तओ य - उसके बाद, आउक्खएणं - नरकायु का क्षय होने पर, उवट्टिया समाणा- नरक से निकले हुए, बहवे - बहुत-से, गच्छइ - जाते हैं, तिरियवसहि - तिर्यंच योनि में दुक्खुत्तरं - महान् दुःखों वाली और अत्यन्त दीर्घ काल तक की स्थिति वाली, सुदारुण - अत्यन्त दारुण दुःख देने वाली, जम्मणमरण - जन्म-मरण, जरावाहि - जरा और व्याधि के, परियट्टणारहट्टं - रहट के For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ - प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०१ समान चक्कर, जल-थल-खहयर - जलचर, थलचर और खेचर के, परोप्पर विहिंसण - परस्पर हिंसक कृत्य का, पवंचं - प्रपंच-विस्तार चलता है, जगपागडं - जगत् में प्रत्यक्ष, वरागां - बिचारे, दुक्खं पाति-दुःख पाते हैं, दीहकालं - दीर्घकाल तक। भावार्थ - पूर्वभव में बांधे हुए कर्मों के उदय से घोरतम दुःख भोगते हुए वे नारक पछताते हुए सोचते हैं कि हमने पूर्वभव में उन स्थानों पर ऐसे पापकर्मों का संचय क्यों कर लिया, जिससे हमें ऐसे असह्य दारुण दुःख भोगने पड़े। वे उन पाप-कृत्यों की निन्दा करते हैं और पश्चात्ताप से जलते हैं। चे नरक-भव में अपने दृढ़तम एवं घोर कर्मों का दुखानुभव करते हुए वहाँ का आयु पूर्ण करते हैं। नरकायु क्षय होने पर बहुत-से जीव नरक से निकल कर तिर्यंच योनि में जाते हैं। वे तिर्यंच योनि में भी अत्यन्त दुःख वाली और अत्यन्त दीर्घकाल (अनन्तकाल) वाली स्थावरकाय में जाकर छेदन-भेदनादि एवं क्षुद्र-भवादि में दारुण दुःख भोगते रहते हैं और जन्म-मरण व्याधि, रोग तथा भवभ्रमण सम्बन्धी दु:ख भोगते ही रहते हैं। जलचर, स्थलचर और नभचर तिर्यंचों में आपस में ही लड़-झगड़, आघातप्रत्याघात से उत्पन्न शारीरिक और मानसिक दुःख भोगते रहते हैं। कुत्ता-बिल्ली, सर्प, नेवले, सर्प-मयूर आदि के एक-दूसरे को नष्ट कर देने जैसी लड़ाइयाँ संसार में प्रत्यक्ष दिखाई दे रही हैं। इस प्रकार ये जीव बिचारे दीर्घकाल तक दुःख भोगते रहते हैं। विवेचन - नरक में दुःख भोगते हुए नारकों को अपने पूर्व-भव के दुष्कृत्य याद आते हैं। वे सोचते हैं कि "मैंने स्वल्प सुख के लिए अथवा कषाय पर अंकुश नहीं रखकर, आवेशित होकर कितने पापकर्मों का उपार्जन कर लिया? हाँ, उस समय मैं क्यों इतना मूढ़ मिथ्यात्वी और महापापी बन गया? उस समय मेरी बुद्धि क्यों मारी गई? हाँ, धिक्कार है मेरी उस अधमाधम बुद्धि और पापी-कृत्य को-" इस प्रकार अपने पापकर्मों की निन्दा करते हैं। सम्यग्दृष्टि नारक तो अपने ज्ञान से ही जान लेते हैं, किन्तु मिथ्यादृष्टि नारक, परमाधामी देव अथवा सम्यग्दृष्टि नारक के कहने से जानते हैं। वैसे कई मिथ्यादृष्टि नारक भी करणी का फल मानते हैं। नारक भव की परम्पर वैर-विरोध एवं मारकाट की परिणति से उस आत्मा की वह अशुभ लेश्या, नरक छोड़ने पर भी न्यूनाधिक कायम रहती है और मनुष्य-तिर्यंच में आकर वह कषाय की आग पुनः सतेज हो जाती है। ऐसी आत्माएं बहुत कम होती हैं, जिनका विवेक जाग्रत होकर कषाय की आग को दबाती रहती है। वे आत्माएं नरक से निकल कर प्रशस्त हो जाती हैं और उत्थान का मार्ग पकड़ लेती हैं। शेष असंख्य आत्माएं तो अपने को निर्दोष और दूसरों को दोषी मानकर लड़ती-झगड़ती एवं दुःखी होती है। नरक में से निकलने वाली वे आत्माएं बहुत कम होती हैं, जो मनुष्य-भव पाती हैं। तिर्यंच-भव पाने वाली बहुत अधिक-असंख्य गुण होती हैं। For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिर्यंच योनि के दुःख **************************************************************** तिर्यंच योनि के दुःख किं ते? सीड़ण्ह-तण्हा-खुह-वेयण-अप्पईकार-अडवि-जम्मणणिच्चभउव्विग्गवास-जग्गण-वह-बंधण-ताडण-अंकण-णिवायण-अट्टिभंजणणासाभेयप्पहारदूमण-छविच्छेयण-अभिओग-पावण-कसंकुसार-णिवाय-दमणाणिवाहणाणि य। शब्दार्थ - किं ते - वे कौन से दुःख हैं ?, सीउण्ह - शीत उष्ण-सर्दी-गर्मी, तण्हा - प्यास, खुह - क्षुधा, वेयण - वेदना, अप्पईकार - प्रतिकार रहित, अडविजम्मण - अटवी में जन्म होना, णिच्च - सदैव, भउव्विग्गवास - भय और उद्वेगपूर्ण स्थान में रहना, जग्गण - जागते रहना, वहबंधणवध और बन्धन, ताडणअंकण- मार-पीट और अंकन-तपाये हुए लोहे से डाम लगाकर चिह्न बनाना, -णिवायण - खड्डे आदि में गिरा देना, अद्विभंजण - हड्डी तोड़ देना, णासाभेय - नासिका में छेद करना, पहार - लाठी आदि से प्रहार, दूमण - संतप्त करना, छविच्छेयण - अवयवों को काट देना, अभिओग पावण- बलात्कार पर्वक काम में जोडना, कसंकसार णिवाय दमणाणि- चाबक, अंकश और आराडंडे में लगी हई शल-के प्रहार से दमन करना, वाहणाणि - भार वहन कराना। विवेचन - तिर्यंच योनि के दुःखों को जानने के लिए शिष्य गुरुदेव से पूछता है - 'भगवन्! तिर्यंच-योनि में किस बात का दुःख है?' गुरुदेव बतलाते हैं - हे शिष्य! तिर्यंच-योनि में पहला दुःख तो सर्दी-गर्मी का है। वहाँ उनके रहने के लिए सुरक्षित स्थान-घर आदि नहीं है। इसलिए वे जीव सर्दी-गर्मी और वर्षा के दुःख से पीड़ित होते ही रहते हैं। क्षुधा-पिपासा का दुःख-जब गर्मी के दिन होते हैं, तो वन में भी कोसों दूर तक पानी नहीं मिलता। बिचारे पशु प्यास के दुःख से दुःखी होकर पानी के लिए भटकते ही रहते हैं। कई भटकते-. भटकते ही मर जाते हैं। किसी को उस जलाशय पर पानी पीने के लिए आया हुआ सिंह जैसा बलवान् पशु मारकर खा जाता है और कई रोगी, वृद्ध एवं अशक्त पशु जलाशय तक नहीं पहुंच पाने के कारण यों ही प्यास का भयंकर दुःख सहते हुए आर्त्तध्यान पूर्वक मर जाते हैं। ___गाय, बैल, भैंस, भैसा आदि पालतु पशु जब अति वृद्ध हो जाते हैं और किसी काम के योग्य नहीं रहते हैं, तो उनकी साल-संभाल भी कम हो जाती है। कई स्वार्थी मनुष्य उन्हें घर से निकाल देते हैं। वे इधर-उधर गलियों में गिर पड़ते हैं। उनसे स्वयं उठा नहीं जाता। वे प्यास के दुःख से पीड़ित होते रहते हैं। जब पानी की बहुत तंगी होती है, तो वैसे समय में उन मूक बेकार पशुओं को कोई नहीं पूछता। उनके सामने पनिहारी पानी भरकर आती है, उसके देखकर उनके मन में आशा उत्पन्न होती है कि यह मुझे पानी पिलाएगी। उनका मन शीघ्र ही भर-पेट पानी पीने के लिए तालावेली करता है, किन्तु जब वह पनिहारी उनके सामने से होकर निकल जाती है, तो उनके दुःख का पार नहीं रहता। वे हताश प्राणी बहुत दुःख वेदते हैं। उसी प्रकार भूख का दुःख भी है। For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० १ **## ############### ####################### ##### जन्म का दुःख भी पशुओं को बहुत होता है। वन में रहने वाली हिरनी, बाघिन सियालिनी, लोमड़ी आदि गर्भिणी होती है, उनका प्रसवकाल होता है, तो कौन उनका जच्चाकर्म करता है? कौन उनकी सेवा-शुश्रूषा एवं परिचर्या करता है? रोग होने पर कौन औषधी देता है? उनके दुःखों का प्रतिकार करने वाला कौन है? कोई नहीं। यदि साथी मृग, बाघ, चीता आदि हो, तो वे भी क्या कर सकते हैं ? खड़े-खड़े देखने व चिन्ता करने के अतिरिक्त उनके पास उस दुःखी प्राणी के दुःख का प्रतिकार करने का कोई उपाय नहीं होता। तिर्यंचों के सामने भय का वातावरण बना ही रहता है। सिंह की गर्जना या गन्ध मात्र से वन के सैकड़ों प्राणी भयभीत रहते हैं। उनका वह भय बना ही रहता है। चलते-फिरते खाते-पीते और सोते समय भी भय लगा रहता है-कहीं आस-पास दुबक कर बैठा हुआ चीता लपक कर हमें दबोच नहीं ले। कहीं हमारे बच्चे को नहीं खा जाये। सर्प को नेवले और मयूर आदि का, छोटे-मोटे, कीड़ोंमकोड़ों को मुर्गे-तीतर आदि पक्षियों का और पशुमात्र को निर्दय शिकारी मनुष्यों और पारधि-बहेलिया आदि हिंसक धन्धा करने वाले मनुष्यों का भय सदैव बना रहता है। अब तो बन्दरों, मेढ़कों, :सूअरों, मुर्गों, अंडों और मत्स्यादि जलचरों को सरकार का भय भी बहुत बड़ा लग गया है। कुंथु से लगाकर हाथी और सिंह तक को मनुष्य का भय है। बिचारे जीवों को खाते, पीते, सोते और किलोल करते हुए को गोली मारकर ढेर कर देते हैं। आकाश में उड़ते पक्षियों को मारकर गिरा देते हैं। बड़े-बड़े कत्लखाने खोलकर काटे जाते हैं। तिर्यंचों के लिए तिर्यंच और मनुष्य दोनों का भय है। वन में भी भय और बस्ती में भी भय। पद-पद पर भय बना हुआ है। उन बिचारों के लिए सुख की नींद कहाँ? - वध के दुःख के साथ बन्धन का दुःख भी बहुत है। गाय, बैल, घोड़ा, गधा, खच्चर, हाथी आदि पशुओं और तोता, मैना, मुर्गा, बत्तख, तीतर आदि पक्षियों के लिए बन्धन का दुःख लगा ही रहता है। मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए उन्हें जीवनभर बन्धन में रखकर दुःख देता है। कोई सवारी के लिए बन्धन में डालता है, तो कोई दूध, कृषि और भार ढोने के लिए और कोई मारकर खाने के लिए बन्धन में जकड़ते हैं। अब तो औषधि-निर्माण तथा शरीर विज्ञान का अध्ययन करने के लिए भी पशुओं को बन्दी बनाकर देश निकाला देते हैं। वहां उन्हें कठोरतापूर्वक बन्धन में जकड़ कर अंग-प्रत्यंग पर छुरी चलाई जाती है। खून खींचा जाता है, हाथ-पांव काटे जाते हैं और वे बन्धन में जकड़े हुए घोर दुःख भोगते रहते हैं। मनुष्यों द्वारा चिह्नित किये जाते हैं। फौजी घोड़ों के फिछले पांव पर गरम लोहे से दागते हुए दोतीन बड़े अक्षर बनाकर अधिकृत राज्य या वर्ग का चिह्न बनाया जाता है। पशुओं की पहचान के लिए भी चिह्न बनाये जाते हैं। धर्म-सांड के परिचय के लिए चांद-सूर्य का अंकन किया जाता है। गाय और भैंस के कान सुन्दर बनाने के लिए चीर दिये जाते हैं। बलवान पशु, निर्बल अशक्त और रोगी पशु को धक्का देकर खड्डे में गिरा देता है, जहाँ से For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिर्यंच योनि के दुःख ..... ४९ **************************************************************** निकलना कठिन हो जाता है। यदि अंगभंग हो जाये, गम्भीर चोट लगे, तो वहीं तड़प-तड़प कर मर जाते हैं। उनकी साल-संभाल करने वाला कोई नहीं मिलता। मनुष्य अपना स्वार्थ सधता नहीं देखकर या किसी कारण से क्रुद्ध होकर पशु को इतनी जोर से मारता है कि उसकी हड्डियाँ भी टूट जाती है। कोई लंगड़ा हो जाता है, तो किसी की पसली टूट जाती है। ____ पशु को वश में रखने के लिए उसकी नासिका को बींधकर उसमें रस्सी डालते हैं और वह रस्सी मनुष्य अपने हाथ में रखता है। रस्सी डालते समय बैल या ऊंट को इतना जकड़ दिया जाता है कि . जिससे वह अपना बचाव भी नहीं कर सकता और चुपचाप शूल भोंक कर नासिका फोड़ने और रस्सी डालने की तीव्र वेदना सहता रहता है। इस नकेल के द्वारा मनुष्य उस बलवान् पशु को अपने वश में रखता है और मनचाहे काम लेता है। नकेल के खिंचने से पशु को वेदना होती है, परन्तु उसकी वेदना को कौन देखे? मनुष्य उसके सुख-दुःख का विचार नहीं करता। मारते-पीटते, संतापित करते, काम करने के लिए विवश करते, यदि पशु थका हुआ अशक्त, रोगी और भारवहनादि काम के अयोग्य हो, तो भी मनुष्य उसकी दयनीय दशा को नहीं देखता और अपने स्वार्थ के लिए उसे काम में लगा देता है। यदि अशक्ति के कारण वह भार ढोकर चल नहीं सकता या शक्ति से अधिक भार होने के कारण वहन करना दुभर होता है, तो मनुष्य उस पर प्रहार, करता है। निर्दय बनकर उसे पीटता है। शूल भोंकता है, चाबुक के जोरदार झपाटे बरसाता है और भार ढोने के लिए विवश करता है। मनुष्य स्वयं सुख चाहता है, किन्तु अपने अधीनस्थ पशु की सुखसुविधा नहीं देखता। अपनी अत्यन्त निर्दयता के कारण ही मनुष्य ऐसे दुःखों से भरपूर नारक भव और तिर्यंच भव पाता है। - मायापिइविप्पओग-सोय-परिपीलणाणि य सत्थग्मिविसाभिघाय-गलगवलावलण-मारणाणि य गलजालुच्छिप्पणाणि य पडलण-विकप्पणाणि य जावजीविगबंधणाणि य, पंजरणिरोहणाणि य सयूहणिद्धाडणाणि य धमणाणि य दोहिणाणि य कुदंडगलबंधणाणि य वाडगपरिवारणाणि य पंकजलणिमज्जणाणि य . वारिपवेसणाणि य ओवायणिभंग-विसमणिवडणदवग्गिजालदहणाई य। . शब्दार्थ - मायापिइविप्पओग - माता-पिता वियोग, सोयपरिपीलणाणि - शोक से प्रपीड़ित (अथवा श्रोत-नासिकादि बंधन से पीड़ित), सत्थग्गिविसाभिघाय - शस्त्र, अग्नि और विष आदि के अभिघात से, गलगवलावलणमारणाणि - गर्दन और सिंग को मरोड़कर मारने रूप, गलजालुच्छिप्पणाणि - मछली आदि के गले में कांटा फंसाकर अथवा जाल में फांसकर निकालना, पडलण - पचाना, विकंप्पणाणि - काटा जाना , जावज्जीविगबंधणाणि - जीवन पर्यन्त बांधे रखकर, पंजरणिरोहणाणि - पिंजरे बन्द रखकर, सयूहणिद्धाडणाणि - यूथ से पृथक् रखकर, धमणाणि - For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०१ **** *************** *********** ************ पेट में वायु भरकर, दोहणाणि - दूध दुहकर, कुदंडगलबंधणाणि - गले में दंड (डिंगरा) बांधकर, वाडगपरिवारणाणि - बाड़े में घेरकर, पंकजलणिमजणाणि - कीचड़ युक्व जल में प्रवेश कराकर, वारिप्पवेसणाणि - जल में प्रवेश करवा कर, ओवायणिभंग - अंग-भंग होकर, विसमाणिवडण - विषम स्थान से गिराकर, दवग्गिजालदहणाई - वन में दावाग्नि की ज्वाला से जल कर। .. भावार्थ - तिर्यंचों को माता-पिता का वियोग जन्य दुःख सहन करना पड़ता है। वे शोक से पीड़ित रहते हैं। उन्हें शस्त्र, अग्नि और विष के असह्य आघात सहन करने पड़ते हैं। उनकी गर्दन मरोड़ दी जाती है। सींग मोड़कर मृत्यु जैसा दुःख दिया जाता है। मछलियों के गले में कांटा . फंसाकर और जाल में फंसाकर पकड़ा व मारा जाता है। लोग उन जीवों को पकाते और काटते हुए घोरतम दुःख देते हैं। उन्हें स्वजातीय झुंड से पृथक् कर और पिंजरे में बन्द करके जीवनभर के लिए बन्दी बना देते हैं। गाय आदि के गले में डिंगरा बांध कर उसका चलना कठिन कर देते हैं। उनके पेट में वायु भरकर दुःखी किये जाते हैं। बाड़े में घेर दिये जाते हैं। कीचड़ भरे हुए पानी में उतार दिये जाते हैं। बरबस पानी में उतारे जाते हैं। विषम स्थान से गिराकर अंगभंग कर दिया जाता है। वे तिर्यंच, वन के दावानल में जलकर दुःखी होते हैं। विवेचन - तिर्यंच जीवों के विविध प्रकार के दुःखों का वर्णन करते हुए सूत्रकार ने बहुत-से दुःख तो मनुष्य-कृत बताये हैं। इन दुःखों का सम्बन्ध मुख्यतः संज्ञी तिर्यंचों से है। . वन-विहार पशुओं के सिंहादि से भयभीत होकर इधर-उधर भागने से भी (भटक जाने से) माता-पिता का विरह हो जाता है। किन्तु मनुष्य तो अपने स्वार्थ की खातिर बछड़ों को गाय, भैंस, घोड़ी, बकरी आदि से पृथक् करके दुःखी करते हैं। मांसाहारी लोग, इन्हें मार खाते हैं और बछड़े . मातृ-वियोग में तड़पते रहते हैं। कोई मातां से बछड़ों को छिनकर मार डालते हैं, कोई स्वयं बलि दे. . देते हैं, तो कोई पैसे के लालच में भैंसे और बकरी के बच्चे को बलिदान के लिए बेच देते हैं। इस प्रकार इन प्राणियों को माता-पिता और बछड़े तथा समूह का विरह दुःख सहना पड़ता है। वे वियोग के शोक में पीड़ित होकर रुदन करते रहते हैं। बैल आदि पर क्रुद्ध होकर, नाथ की रस्सी खींचकर गर्दन मोड़ने और इस प्रकार बांध कर दंड देने की निर्दयता की जाती है। सींगों को सुन्दर बनाने के लिए मोड़ा जाता है। अधिक लम्बे, तीखे और सहज ही किसी के लगने या झाड़ी में अटकने वाले सींगों को काट दिया जाता है, जिससे पशु को लम्बे समय तक वेदना होती रहती है। कभी सींगों में कीड़ा लगकर पशु की मृत्यु का कारण भी बन जाता है। मनुष्य अपने विनोद के लिए तोता, मैना, हिरण, बन्दर, खरगोश आदि को बन्दी बना लेता है। उसका वह बन्दीपन जीवनपर्यन्त चलता है। गाय, भैंस, घोड़ा आदि जितने पालतु पशु हैं वे सब सदैव के लिए बन्दी बने रहते हैं। चिड़ियाघर (अजायबघर) में अनेक प्रकार के पक्षी और सिंह, व्याघ्र, चीता, भालू, रोज तथा सर्प आदि उरपरिसर्प भी बन्दी बनाकर रखे जाते हैं। For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिर्यंच योनि के दुःख MARRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRR*************************** खेतों और बगीचों में जाकर फसल को हानि पहुंचाने वाली अथवा भाग कर पूर्व स्थान पर चली जाने वाली गाय के गले में गलदंड (डिंगरा),भी बांधा जाता है, जिससे वह भाग नहीं सकती। पंकजलणिमजणाणि - कीचड़ युक्त पानी में चलाये जाने या दलदल में फँस जाने से भी महान् दुःख होता है। भैंस आदि पशु, गर्मी से घबराये हुए ठण्डक पाने के लिए ऐसे पानी में जाकर गिरें । कि जिसमें कीचड़ अधिक हो। उनका सारा शरीर कीचड़ से लथपथ हो जाता है, फिर वह कीचड़ सूख जाने पर चमड़ी को सिकोड़ता है और नया दुःख उत्पन्न कर देता है। कमजोर एवं वृद्ध भैंस आदि ऐसे स्थान पर कीचड़ में फंस जाती हैं और उसी में तड़प-तड़प कर मर जाती है। बैलों को गाड़ी, रथ आदि में जोतकर तथा घोड़ों और गंधों को कीचड़ में भार खींचते हुए चलाया जाता है, जिससे पशुओं को भारी दुःख होता है। उनकी हड्डियाँ खींच जाती हैं, आँखें बाहर निकल जाती हैं, श्वास उखड़ जाता है और जीवन दुःख में घुलकर समाप्त हो जाता है। जब सर्दी जोरदार पड़ रही हो, हिम-वर्षा हो रही हो और मनुष्य घर में भी गर्म कपड़े पहनकर और कम्बलरजाई आदि ओढ़कर सिगड़ी के ताप में रहता हो, उस समय पशुओं को खुले में रखना या उन्हें चलाना और बर्फ के समान ठण्डे पानी में होकर वाहन खींचने के लिए विवश करना, कितना दुःखदायक होता होगा? ऐसी भीषण सर्दीयुक्त वर्षा में बिचारे वनचर पशुओं की क्या दशा होती होगी? . जब विशाल वन में अग्नि लग गई हो या किसी ने लगा दी हो और उस महाग्नि की चपेट में कोसों दूर तक का वन आ गया हो, आक की ज्वालाएं आकाश छू रही हों, धूएँ के बादल छा कर जीवों का श्वास रुंध रहा हो, ऐसे भीषणतप उपद्रव में चींटी से लगाकर सिंह और हाथी तक के प्राणों पर संकट आ जाता है। सांप, बिच्छु इत्यादि हजारों प्रकार के पशु-पक्षियों, बच्चों और अंडों का सामूहिक श्मशान बन जाता है। तिर्यंच योनि में ऐसे अनेक प्रकार के दुःख भोगने पड़ते हैं। एवं ते दुक्ख-संय-संपलित्ता णरगाओ आगया इहं सावसेसकम्मा तिरिक्खपंचंदिएसु पाविति पावकारी कम्माणि पमाय-राग-दोस-बहु-संचियाई अईव अस्साय कक्साई। . शब्दार्थ - एवं - इस प्रकार, ते - वे, णरगाओ आगया - नरक से आये हुए जीव, तिरिक्ख पंचदिएस- तिर्यंच पंचेन्द्रिय में उत्पन्न होकर, दुक्खसयसंपलित्ता - सैकड़ों प्रकार के दुःखों से संतप्त रहते हैं और, इहं - यहाँ, सावसेसकम्मा - अपने बचे हुए कर्मों का फल भोगते हैं, पावकारी कम्माणिवे पापकारी कर्म करने वाले प्राणी, पमाय-रागदोस बहुसंचियाई - प्रमाद राग और द्वेष से बहुत-सेकर्मों का संचय करके, अईव - अत्यन्त, अस्सायकक्कसाई - दारुण दुःख एवं कठोर कष्टों को पाविति - प्राप्त करते हैं। . भावार्थ - इस प्रकार नरक से निकलकर तिर्यंच में आये हुए वे जीव, सैकड़ों प्रकार के दुःखों से संतप्त रहते हैं और बचे हुए पाप-कर्मों को भोगते रहते हैं। वे पाप करने वाले जीव अपने प्रमाद, राग For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .५२ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०१ **************************************************************** और द्वेष से बहुत-से कर्मों का संचय करके इस तिर्यंच पंचेन्द्रिय योनि में अत्यन्त दुःखदायक और कर्कश-कठोर कष्टों को प्राप्त होते हैं। विवेचन - नरक में भुगतने योग्य तीव्रतम पाप-कर्मों का फल भोगने के बाद जब वे कर्म हल्के हो जाते हैं-तिर्यंच गति के योग्य रह जाते हैं, तब वे जीव, नरकायु समाप्त होने पर, तिर्यंच गति में आते हैं और दुःखमय जीवन व्यतीत करते हैं। चौरेन्द्रिय जीवों के दुःख भमर-मसग-मच्छिमाइएसु य जाइकुलकोडि-सयसहस्सेहिं प्रावहिं चउरिदियाणं तहिं तहिं चेव जम्मणमरणाणि अणुहवंता कालं संखिजं भमंति.णेरइयसमांणतिव्वदुक्खा फरिसरसण-घाण-चक्खु-सहिया। शब्दार्थ - भमरमसगमच्छिमाइएसु - भ्रमर मशक मक्खी आदि, जाइकुलकोडि - जाति की कुलकोटियाँ, सयसहस्सेहिं - शतसहस्र-लाख, णवहिं - नौ, चउरिदियाणं - चौरेन्द्रिय, तहिं तहिं चेवउन सभी में, जम्मणमरणाणि - जन्म-मरण, अणुहवंता - अनुभव करते हुए, कालं संखिज्जं - संख्यात काल, भमंति - भ्रमण करते हैं, जेरइय-समाण - नैरयिक के समान, तिव्वदुक्खा - तीव्र दुःख, फरिस रसणघाणचक्खुसहिया - स्पर्श, रस, घ्राण और चक्षु सहित होते हैं। भावार्थ - चार इन्द्रिय वाले भ्रमर मशक (मच्छर) और मक्खी आदि जाति के जीवों की कुल कोटियाँ नौ लाख हैं। ये जीव, स्पर्श, रसना, घ्राण और चक्षु-इन चार इन्द्रियों से युक्त होते हैं। उन सभी जाति और कुलों में जन्म-मरण करते हुए वे पापी जीव, संख्यातं काल तक नारक जीवों के समान तीव्र दुःखों का वेदन करते हैं। जाति - उत्पत्ति का वह स्थान जहाँ अनेक प्रकार (कुल) के जीव उत्पन्न होते हैं। चौरेन्द्रिय की जाति दो लाख है। कुल - एक जाति में उत्पन्न विविध प्रकार के जीव जैसे - गोबर, विष्टा आदि अशुचि या गीली मिट्टी में एक ही स्थान पर विविध प्रकार के सम्मूर्छिम जीव उत्पन्न होते हैं। एक ही माता से वर्णादि की भिन्नता लिए हुए सन्तति उत्पन्न होती है, वह विविधता कुल रूप मानी जाती है। आयु-स्थिति - चौरेन्द्रिय जीव की आयु जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट छह माह हैं और कायस्थिति उत्कृष्ट संख्यात काल की बताई है। यह संख्यात काल संख्यात हजार वर्ष का है, ऐसा प्रज्ञापना पद १८ की टीका में लिखा है। तेइन्द्रिय जीवों के दुःख , .. तहेव तेइंदिएसु कुंथु-पिप्पीलिया-अंधिकादिएसु य जाइकुलकोडि-सयसहस्सेहिं For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . बेइंद्रियों के दुःख ५३ wwwwwwwwwwwww w w** ******************* अट्ठहिं अणूणएहिं तेइंदियाणं तहिं तहिं चेव जम्मणमरणाणि अणुहवंता कालं संखेज्जगं भमंति रइयसमाणतिव्वदुक्खा फरिस-रसण-घाण-संपउत्ता। शब्दार्थ - तहेव - इसी प्रकार, तेइंदिएसु - तेइन्द्रिय प्राणियों की, कुंथुपिप्पीलियाअंधिकादिएसुकुंथु-पिप्पीलिका-चींटी-कीड़ी, अंधिका-दीमक आदि, जाइकुल - जाति कुल, कोडिसयसहस्सेहि अट्ठहिं - कुल कोटियाँ आठ लाख, अणूणएहिं - अन्यून-पूरी, तहिं तहिं चेव - उन सब में, जम्मणमरणाणि - जन्म-मरण, अणुहवंता - अनुभव करते हुए, कालं संखेजगं भमंति - संख्यात काल तक भ्रमण करते हैं, जेरइयसमाण - नैरयिकों के समान, तिव्वदुक्खा - तीव्र दुःख, फरिस-रसण-घाणस्पर्श, रसन, घ्राण, संपउत्ता - युक्त। ___ भावार्थ - इसी प्रकार कुंथु, चींटी, दीमक आदि तेइंद्रिय प्राणियों की जाति की कुल-कोटियां पूरी आठ लाख हैं। वे बार-बार उन्हीं में जन्म-मरण करते हुए और नैरयिक के समान तीव्र दुःखों का अनुभव करते हुए संख्यात काल तक उसी में भ्रमण करते रहते हैं। वे जीव, स्पर्श, रसन और घ्राण इन्द्रिय से युक्त हैं। : बेइंद्रियों के दुःख गंडूलय-जलूय-किमिय-चंदणगमाइएसु य जाइकुलकोडिसय-सहस्सेहिं सत्तहिं अणूणएहिं बेइंदियाणं तहिं तहिं चेव जम्मणमरणाणि अणुहवंता कालं संखेजगं भमंति णेरइयसमाण-तिव्वदुक्खा फरिस-रसण-संपउत्ता। शब्दार्थ - गंडूलय - गंडूल-गिडोला, जलूय - जोंक, किमिय - कृमि-छोटे कीड़े, चंदणगमाइएसु- चन्दनक-अक्ष आदि, जाइकुलकोडि - जाति की कुलकोटियाँ, सयसहस्सेहिं सत्तहिंसात लाख, अणूणएहिं - अन्यून-पूरी, बेइंदियाणं - बेइंद्रिय की, तहिं तहिं चेव - उन्हीं में, जम्मणमरणाणि - जन्म-मरण, अणुहवंता - अनुभव करते हुए, कालं संखेज्जगं - संख्यात काल, भमंति - भ्रमण करते हैं, णेरइयसमाणतिव्वदुक्खा - नैरयिक के समान तीव्र दुःख, फरिसरसणसंपउत्तास्पर्श और रसना युक्त। भावार्थ - गंडूलक, जोंक, कृमि एवं चन्दनक आदि बेइंद्रिय जीवों की जाति की कुल कोटियाँ पूरी सात लाख हैं। वे उन्हीं जाति-कुलों में जन्म-मरण करते और नारक जीवों के समान तीव्र दुःखों का अनुभव करते हुए संख्यात काल तक उन्हीं में भ्रमण करते रहते हैं। वे स्पर्श और रसना, इन दोनों इन्द्रियों से युक्त हैं। - एकेन्द्रिय जीवों के दुःख पत्ता एगिदियत्तणं वि य पुढवि-जल-जलण-मारुय-वणप्फइ सुहुम-बायरं च For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४. ***************** पृथ्वी, जल पानी, जलण पज्जत्तमपज्जत्तं पत्तेयसरीरणाम-साहारणं च पत्तेयसरीर-जीविएसु य तत्थवि कालमसंखेज्जगं भमंति अनंतकालं च अणंतकाए फासिंदियभावसंपउत्ता दुक्खसमुदयं इमं अणि पावंति पुणो पुणो तर्हि तहिं चेव परभवतरुगणगहणे । शब्दार्थ पत्ता प्राप्त, एगिंदियत्तणं - एकिन्द्रियत्व, पुढवि जलने वाली अग्नि, मारुय वायु, वणप्फइ वनस्पति, सुहुमबायरं सूक्ष्म - बादर, पज्जत्तमपज्जसंपर्याप्त-अपर्याप्त, पत्तेयसरीरणाम साहारणं प्रत्येक शरीर नाम और साधारण, पत्तेयसरीरजीविएसु - प्रत्येक शरीर के जीवन में, तत्थवि वहाँ भी, कालमसंखेज्जगं असंख्यकाल तक, भमंति- भ्रमण करते हैं, अनंतकालं - अनंत काल, अनंतकाए अनंतकाय में, फासिंदियभावसंपउत्ता स्पर्शन इन्द्रिय भाव युक्त, दुक्खसमुदयं दुःख समूह को, इयं इस, अणिट्टं पुणो पुणो- बार-बार, तहिं तहिं वहीं, परभवतरुगणगहणे जन्म-मरण करते हुए । - अनिष्ट, पार्वति प्राप्त करते हैं, तरुगण - वनस्पतिकाय रूप भव में भावार्थ - एकेन्द्रियत्व में पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति में सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक शरीर नाम और साधारण - शरीर नाम को प्राप्त होकर वे वनस्पति में प्रत्येक शरीर के जीवन में (प्रत्येक शरीरीपने) असंख्यात काल तक भ्रमण करते हैं और अनन्तकाय में अनन्तकाल भ्रमण करते हैं। वे जीव बार-बार वनस्पतिकाय में ही जन्म-मरण करते हुए अनिच्छनीय दुःख समूह को प्राप्त करते हैं। इन जीवों के एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है। एकेन्द्रिय - जिन जीवों के मात्र स्पर्शन इन्द्रिय ही हो, जीभ, नासिका, आँख और कान नहीं हों, ऐसे पृथ्वीकायादि पांच स्थावर के जीव । प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० १ - - - - - For Personal & Private Use Only - ********* - सूक्ष्म सूक्ष्म नाम कर्ण के उदय से जो पृथिव्यादि स्थावरकाय के जीव अत्यन्त सूक्ष्म हों, जो चर्म चक्षु से दिखाई नहीं दें। बादर - बादर नामकर्म के उदय से जिन पृथिव्यादि स्थावर जीवों का शरीर स्थूल हो अर्थात् सूक्ष्म शरीरी से विशेष बड़ा हो। ऐसे बादर जीव, स्थावरकाय के अतिरिक्त बेइन्द्रियादि त्रसकाय के भी होते हैं। सूक्ष्म जीव तो केवल स्थावरकाय में ही होते हैं, त्रस में नहीं। किन्तु त्रस जीवों में और बादर स्थावरकाय जीवों में भी इतने बारीक जीव होते हैं कि जिन्हें हम देख नहीं सकते। सम्मूच्छिम मनुष्य बारीक-बहुत छोटे होते हैं, वे हमें दिखाई नहीं देते, फिर भी वे बादर हैं। पर्याप्तक - पर्याप्त नामकर्म के उदय से जीव का पर्याप्तक होना । कुल पर्याप्तियाँ छह हैं - १. आहार पर्याप्ति २. शरीर पर्याप्ति ३. इन्द्रिय पर्याप्ति ४. श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति ५. भाषा पर्याप्ति और ६. मनः पर्याप्ति । इनमें से एकेन्द्रिय जीवों के प्रथम की चार पर्याप्तियाँ होती हैं और बेइन्द्रिय से असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक के मन को छोड़कर पांच तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक के सभी छह । अपर्याप्तक- जब तक अपनी जाति के योग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण रूप से नहीं बांध ली जातीं, तब - Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ एकेन्द्रिय जीवों के दुःख ******************************************************** तक जीव अपर्याप्तक रहते हैं। यह अपर्याप्तकपन अन्तर्मुहूर्त तक ही रहता है। अन्तर्मुहूर्त के बाद पर्याप्तक हो जाते हैं। कई जीव अपर्याप्तक अवस्था में ही मर जाते हैं। प्रत्येक शरीरी - एक शरीर में एक ही जीव वाले 'प्रत्येक-शरीरी' कहलाते हैं। सभी जाति के जीवों में प्रत्येक शरीरी हैं। एक वनस्पंतिकाय ही ऐसी है कि इसमें प्रत्येक के सिवाय साधारण शरीरी जीव भी होते हैं। साधारण शरीरी - वे जीव जो एक ही शरीर में अनन्त हों। वनस्पतिकाय के जीवों में साधारण शरीरी जीव भी होते हैं। इनको 'निगोदिये जीव' भी कहते हैं। जीवों के पिण्डभूत शरीर को 'निगोद' कहते हैं। इस लोक में असंख्य सूक्ष्म निगोद हैं और सारे लोकाकाश में भरे हुए हैं। बादर निगोद कन्दमूल आदि जमीकन्द और वृक्ष की कोंपलें - अत्यन्त मुलायम अवस्था वाली वनस्पति इत्यादि में सूई के अग्रभाग पर आवे उतनी वनस्पति में अनन्त जीव होते हैं। - पूर्वाचार्य कहते हैं कि - लोकाकाश के जितने (असंख्य) प्रदेश हैं, उतने ही सूक्ष्म निगोद के गोले हैं। प्रत्येक गोले में असंख्यात निगोद हैं और प्रत्येक निगोद में अनन्त जीव हैं। भूतकाल, भविष्यकाल और वर्तमान के समय काल का सूक्ष्मतम अंश) को एकत्रित करने पर जितने हों, उनसे अनन्तगुण जीव, एक-एक निगोद में होते हैं। अनंतकाय - साधारण शरीरी जीवों को अनन्तकाय भी कहते हैं। असंख्यात काल - पांचों स्थावरकाय के प्रत्येक शरीरी जीवों की कायस्थिति उत्कृष्ट असंख्य काल, असंख्य अवसर्पिणी असंख्य उत्सर्पिणीकाल जितना है। अनंत काल - साधारण वनस्पति का उत्कृष्टकाल अनन्त है और अनन्त उत्सर्पिणी अनन्त --अवसर्पिणी, अनन्त कालचक्र की है। पूर्वाचार्यों का मत है कि निगोद के जीवों में ऐसे जीव भी अनन्त हैं, जो निगोद से कभी बाहर निकले ही नहीं और निकलेंगे भी नहीं। उन्हें 'अव्यवहार राशि' के जीव कहते हैं। भगवती सूत्र शतक २८ उ. १ में जीवों के पापोपार्जन के स्थान की प्ररूपणा करते हुए आठ विकल्प बतलाये हैं। उसमें पहला भेद -"सव्वे वि ताव तिरिक्खजोणिएसु होजा"-अर्थात् सभी तिर्यंच योनि में थे। शेष सातों भेदों में भी तिर्यंच योनि तो है ही। इस प्रकार तिर्यंच योनि का निवास स्थान सर्वाधिक है और ऐसी उत्कृष्टम कायस्थिति मात्र निगोद में ही है। ." कु हाल-कुलिय-दालण-सलिल-मलण-खंभण-रुं भण-अणलाणिलविविहसत्थ-घट्टण-परोप्पराभिहणणमारणविराहणाणि य अकामकाई परप्पओगोदीरणाहिं य कजप्पओयणेहिं य पेस्सपसुणिमित्तं-ओसहाहार-माइएहिं उक्खणण उक्कत्थण-पयण-कुट्टण-पीसण-पिट्टण-भजण-गालण-आमोडण-सडण-फुडण For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० १ **************************************************************** भंजण-छयण-तच्छण-विलुंचण-पत्तज्झोडण-अग्गिदहणाइयाई, एवं ते भवपरंपरादुक्ख-समणुबद्धा अडंति संसारबीहणकरे जीवा पाणाइवायणिरया अणंतकालं। शब्दार्थ - कुद्दाल-कुलिय-दालण - कुदाल और हल से विदारण करना, सलिल - पानी में, मलण - मर्दन करना, खुंभण - क्षुब्ध करना, संभण - अवरुद्ध, अणल - अग्नि, अणिल - वायु, विविहसत्य - विविध प्रकार के शस्त्र, घट्टण - संघटन-हनन, परोप्पराभिहणण - परस्पर एक-दूसरे का हनन, मारण - मारन, विराहणाणि - अनेक प्रकार से विराधना, अकामकाई - बिना प्रयोजन, परप्पओगोदीरणाहिं - दूसरों के प्रयोग एवं उदीरणा से, कज्जप्पओयणेहिं - कार्य एवं प्रयोजन से, पेस्सपसुणिमित्तं - नौकर और पशुओं के लिए, ओसहाहारमाइएहिं - औषधि और आहार आदि के लिए, उक्खणण - उखाड़ना, उक्कत्थण - छाल उतारना, पयण - पकाना, कुट्टण - कूटना-खांडना, पीसण - पीसना, पिट्टण - पीटना, भज्जण - भुनना, गालण - गलाना, आमोडण - मरोड़ना, सडणस्वतः फटना, फुडण - टुकड़े होना, भंजण - तोड़ना, छयण - छेदन करना, तच्छण - छीलना, विलुचण - नोचना, पत्तज्झोडण - पत्रादि तोड़कर गिरना, अग्गिदहणाइयाई - आग में जलाना आदि एवं - इस प्रकार, ते - वे, भवपरंपरा - भवों की परम्परा में, दुक्खसमणुबद्धा - दुःखों से युक्त, . अडंति - भ्रमण करते हैं, संसारबीहणकरे - भयंकर संसार में, जीवा - जीव, पाणाइवायणिरया - . प्राणातिपात में रत, अणंतकालं - अनन्तकाल तक। भावार्थ - पृथ्वीकाय में उत्पन्न जीव कुदाल एवं हल से विदारण किये जाते हैं। अप्काय में जीवों का मर्दन किया जाता है, आलोडन से क्षुब्ध किया जाता है और प्रवाह रोक कर रुंधन भी किया जाता है। तेउकाय और वायुकाय में जीवों का स्वकाय और परकाय रूप विविध शस्त्रों से हनन किया जाता है, ये जीव परस्पर एक-दूसरे का हनन करते हैं, मारते हैं। ये सब दुःख बिना किसी प्रयोजन के भी दूसरों के हनन-चलनादि व्यापार और उदीरणा से होते हैं और नौकर और पशु आदि के लिए खाने पीने तथा औषधि आदि कार्य तथा प्रयोजन से हनन किया जाता है। वनस्पतियाँ उखाडी जाती हैं. उनकी छाल उतारी जाती है, पकाना. कटना. पीसना. पीटना. आग में भनना. गलाना, मरोड़ना आदि क्रिया से तथा फटने, टुकड़े होने, टूटने, छेदन करने, छीलने, नोचने, पत्रपुष्पादि झड़कर गिराने आदि क्रियाओं से जीवों की घात की जाती है। अग्नि में जलाने आदि अनेक प्रकार से जीवों की हिंसा में रत रहने वाले जीव, जन्म-मरण की. परम्परा में दुःख भोगते हुए अनन्तकाल तक इस भयंकर संसार में भटकते रहते हैं। विवेचन - उपरोक्त सूत्र में पृथ्वीकाय से लगाकर वनस्पतिकाय तक के पांचों स्थावरकाय जीवों को अपने दुष्कर्मों के उदय से प्राप्त होने वाले दुःख के निमित्तों का संक्षेप में वर्णन किया गया है। जीव-हिंसा के फलस्वरूप पापी जीव, नरक में दुःख भोगने के बाद तिर्यंच योनि में भी उनकी दु:ख परम्परा चालू रहती है। यह उपरोक्त वर्णन का सार है। For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य भव के दुःख मनुष्य भव के दुःख जेवि य इह माणुसत्तणं आगया कहिं वि णरगा उवट्टिया अधण्णा ते विय दीसंति पायसो विकयविगलरूवा खुज्जा वडभा य वामणा य बहिरा काणा कुंटा पंगुला विउला य मूका य मम्मा य अंधयगा एगचक्खू विणिहयसंचिल्लया वाहिरोगपीलिय- अप्पाउय-सत्थबज्झ - बाला कुलक्खणउकिण्णदेहा दुब्बल-कुसंघयणकुप्पमाण-कुसंठिया कुरूवा किविणा य हीणा हीणसत्ता णिच्चं सोक्खपरिवज्जिया असुह दुक्खभागी णरगाओ इहं सावसेसकम्मा उव्वट्टिया समाणा । ******* - - शब्दार्थ - जे जो, इह इस, माणुसत्तणं - मनुष्यत्व, आगया प्राप्त हुए, कहिं वि - किसी प्रकार, रगा - नरक से, उव्वट्टिया निकल कर, अधण्णा अधन्य-हीन- निन्दनीय, दीसंतिदिखाई देते हैं, पायसो - प्रायः, विकयविगलरूवा विकृत एवं विकल- अपूर्ण रूप वाले, खुज्जा - कूबड़े, वडभा - टेढ़े शरीर वाले, वामणा वामन - बहुत ही छोटे, बहिरा बहरे, काणा काने, कुंटाटूटे हाथ वाले, पंगुला - लंगड़े, विउला अल्पांग, मूका - गूंगे, मम्मणा - अस्पष्ट बोलने वाले, अंधयगा- अन्धे, एगचक्खू विणिहय- एक आँख से रहित, संचिल्लया - दोनों आँखों से रहित, . वाहिरोगपीलिय - व्याधि एवं रोग से पीड़ित, अप्पाउय - अल्प आयु, सत्थबग्झा - शस्त्र से वध किये हुए, बाला - मूर्ख, कुलक्खणडकिण्णदेहा - कुलक्षणों से मंडित हुए शरीर वाले, दुब्बल - दुर्बल, कुसंघयण - बुरे संहनन वाले, कुप्पपाण- बेडोल, कुसंठिया बुरे संस्थान- आकार वाले, कुरूवा - कुरूप, किविणा कृपण- दीन, हीणा हीन, हीणसत्ता-सत्वहीन, णिच्चं सोक्ख परिवज्जिया - सुख से सदैव वंचित रहने वाले, असुह दुक्खभागी - अशुभानुबन्धी दुःखों से युक्त, णरगाओ नरक से, इहं - यहाँ, सावसेसकम्मा - शेष रहे हुए पाप कर्मों के फलस्वरूप, उव्वट्टिया समाणा-निकल कर । भावार्थ - उन हिंसक जीवों में से जो पापी जीव, किसी प्रकार नरक से निकल कर, मनुष्यलोक में उत्पन्न होकर, मानव शरीर प्राप्त करते वे भी प्रायः विकृत शरीर, विकलांगी, कूबड़े, वामन, टेढ़े अंग वाले, बहरे, गूंगे, काने, अन्धे, टूटे हाथ और लंगड़ी टाँग वाले होते हैं । कोई ठीक तरह से बोल भी नहीं सकते। उनकी वाणी अस्पष्ट होती है। कई कुष्टादि व्याधि और ज्वरादि रोग से पीड़ित होते हैं। कई थोड़ी ही आयु में मर जाते हैं। कोई शस्त्र प्रहार से वध किये जाते हैं। कई मनुष्यों का शरीर कुलक्षणों से भरा हुआ है। कई दुर्बल, कुसंहननी, बुरी आकृति वाले, बेडोल, कुरूप, दीन, हीन एवं शक्ति रहित होते हैं । वे अशुभानुबन्धी- पापकर्मों का दुःखरूप फल भोगते हुए सुख से सदा वंचित रहते हैं । वे नरक से निकल कर अपने अवशेष पापकर्मों का फल भोग रहे हैं। विवेचन - इस सूत्र में उन्हीं मनुष्यों का वर्णन है जो नरक से निकल कर आये हैं या नरक से For Personal & Private Use Only - - ५७ *** - Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० १ **************************************** तिर्यंच गति में होकर मनुष्य हुए हैं। पुण्य फल संचय करके देवगति में गये और वहाँ से आये हुए मनुष्यों का सम्बन्ध इस सूत्र से नहीं है। नरक से निकलने वाले सभी जीव इस प्रकार की दुर्दशा वाले नहीं होते। कई जीव अपने वैसे पापकर्मों का फल वहीं भोगकर और मनुष्य-गति में आकर उत्तम स्थिति को प्राप्त होते हैं। कोई तीर्थंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव आदि विशिष्ट आत्माएं नरक से निकल कर मनुष्य गति में आती हैं और मनुष्य लोक में सभी के लिए आदर - पात्र बनती हैं। उपरोक्त सूत्र में उन्हीं महापापियों का वर्णन है, जिनके जीवन में मार-काट, हिंसा, हत्या, क्रूरतादि पाप ही पाप हो और नरक के घोर दुःख भोगने पर भी पाप कर्मों का खजाना खाली नहीं हुआ हो। वे पापी जीव नरकायु पूरा करके शेष रहे हुए पाप कर्मों का फल यहाँ भोगते हैं। उनका यह दुःखमय मानव-भव, उन शेष रहे हुए पाप कर्मों का परिणाम है। इसी से वे शारीरिक, मानसिक, वाचिक हीनता, अभावजन्य पीड़ा और रोग-शोकादि दुर्दशा से युक्त दिखाई देते हैं। दरिद्रता भी पापकर्म का ही फल है। मनुष्यों में जो दुःख क्लेशादि हैं, ये सब पाप कर्मों का परिणाम है। · इस सूत्र में पाप कर्म के फलस्वरूप व्याधि, रोग, दुर्बलता एवं शस्त्राघात से दुःख होना, सुख वंचित रहना और दरिद्र रहना बतलाया है। इस प्रकार की विषम दशा कर्म के फलस्वरूप ही प्राप्त होती है। जो लोग यह कहते हैं कि-रोगादि तथा दरिद्रतादि का सद्भाव कर्म के फलस्वरूप नहीं है, उन्हें इस सूत्र पर विचार करना चाहिए। वास्तव में अनुकूलता या प्रतिकूलता जीव के अपने कर्म के विपाक के अनुसार होती है। उपसंहार एवं रगं तिरिक्ख - जोणिं कुमाणुसत्तं च हिंडमाणा पावंति अणंताइं दुक्खाई पावकारी। एसो सो पाणवहस्स फलविवागो। इहलोइओ परलोइओ अप्पसुहो बहुदुक्खो महब्भयो बहुरयप्पगाढो दारुणो कक्कसो असाओ वाससहस्सेहिं मुंबई ण य अवेदयित्ता अस्थि हु मोक्खो त्ति एवमाहंसु णायकुलणंदणो महप्पा जिणो उ वीरवरणामधेजो कहेसी य पाणवहस्स फलविवागं । एसो सो पाणवहो चंडो रुद्दो खुद्दो अणारिओ णिग्घिणों णिसंसो महब्भओ बीहणओ तासणओ अणज्जाओ उव्वेयणओ य णिरवयक्खो णिद्धम्मो णिप्पिवासो णिक्कलुणो णिरयवास-गमणणिधणो मोहम्हब्भयपवड्डओ मरणवेमणसो । पढमं अहम्मदारं सम्मत्तं त्ति बेमि ॥ १ ॥ शब्दार्थ - एवं - इस प्रकार, णरगं नरक, तिरिक्खजोणिं तिर्यंच योनि, कुमाणुसतं - कुमानुषत्व, हिंडमाणा - भ्रमण करते हुए, पावंति प्राप्त होते हैं, अणंताई - दुक्खाई - अनन्त दुःखों - - ********* For Personal & Private Use Only - www.jalnelibrary.org Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९ उपसंहार **** ******************************************** को, पावकारी - पाप करने वाले, एसो - यह, सो - वह, पाणवहस्स - प्राणीवध का, फलविवागो - फलभोग, इहलोइओ - इस लोक, परलोइओ - परलोक में, अप्पसुहो- सुख रहित अथवा अल्पसुख, बहुदुक्खो - बहुत दुःखों वाला, महब्भयो - महाभयकारी, बहुरयप्पगाढो - बहुत से दोषों से भरा हुआ, दारुणो- दारुण-रौद्र, कक्कसो - कर्कश-कठोर, असाओ - सुख रहित, वाससहस्सेहिं - हजारों . वर्षों में, मुंबई - छूटने वाला, ण - नहीं, अवेदयित्ता - फल भोगे बिना, अत्थि - अस्तित्व, मोक्खो - मोक्ष, ति - इति, एवमाहंसु - इस प्रकार, णायकुलणंदणो - ज्ञातकुल नन्दन-ज्ञातकुल को आनन्द देने वाले, महप्पा - महात्मा, जिणो उ- जिन, वीरवरणामधेजो - वीरवर-महावीर नाम वाले, कहेसीकहा है, पाणवहस्स - प्राणवध, फलविवागं - फलविपाक, एसो - यह, सो - वह, पाणवहो - प्राणवध, चंडो- प्रचण्ड, रुद्दो - रौद्र, खुद्दो- क्षुद्र, अणारिओ - अनार्य, णिग्घिणो - निघृण, णिसंसोनृशंस-क्रूर, महमओ - महाभयानक, बीहणओ - डरावना, तासणओ - त्रासोत्पादक, अणजाओ - अन्याययुक्त, उव्वेयणओ - उद्वेग उत्पन्न करने वाला, णिरवयक्खो- निरपेक्ष-जीवों के प्राणों के प्रति उपेक्षित, णिद्धम्मो - धर्म रहित, णिप्पिवासो - स्नेह रहित, णिक्कलुणो - करुणा रहित, णिरयवासगमणणिधणो- नरक में गमन करने की सामग्री का भंडार, मोहमहब्भय - मोहरूपी महाभय का, पवडओ - बढ़ाने वाला, मरणवेमणसो - मृत्यु रूप दीनता देने वाला, त्ति बेमि - ऐसा मैं कहता हूँ, पढम - प्रथम, अहम्मदारं - अधर्मद्वार, सम्मतं - समाप्त। . भावार्थ - इस प्रकार जीवों की हिंसा करने वाले पापी जीव, नरक-तिर्यंच और कुत्सित मनुष्य .. भव में भ्रमण करते हुए अनंत दुःखों को प्राप्त होते हैं। उस प्राणवध का यह फल-विपाक है, जो इस लोक और परलोक में प्राप्त होता है। प्राणवध करने वाले पापी जीवों को पापकर्म से सुख तो कुछ भी नहीं मिलता अथवा पाप करते समय बहुत ही अल्प (वह भी कुत्सित) सुख मिलता है, किन्तु दुःख तो बहुत अधिक भोगना पड़ता है। यह प्राणवध महाभय का दाता है। दोष-समूहों से भरपूर है। हिंसा का पाप बड़ा ही दारुण; कठोर एवं दुःखमय है। यह पाप हजारों वर्षों तक भोगने पर छूटता है। बिना भोगे छुटकारा नहीं हो सकता। ज्ञातृकुल नन्दन महान् आत्मा महावीर जिनेश्वर ने प्राणवध का फल इस प्रकार कहा है। यह प्राणवध, प्रचंड, रौद्र, क्षुद्र, अनार्य, निपुण, नृशंसता से परिपूर्ण, महाभय का कारण, बीभत्स, त्रास उत्पन्न करने वाला है, अन्याय युक्त है, उद्वेग उत्पन्न करने वाला है। प्राणियों के प्राणों की उपेक्षा करने वाला, अधर्म, स्नेह-रहित एवं करुणा से शून्य है। महामोह एवं भय को बढ़ाने वाला है। यह मृत्यु-भय रूपं दीनता उत्पन्न करने वाला है। प्राणवध का पाप, नरकावास की ओर ले जाने वाला अशुभ कर्मों के । भंडार रूप है। ऐसा मैं कहता हूँ। . विवेचन - अठारह पापों में से सबसे पहला पाप-प्राणातिपात-हिंसा नामक प्रथम आस्रव द्वार का उपसंहार करते हुए आगमकार महर्षि बतलाते हैं कि हिंसाजन्य घोर पाप का करने वाला, नरक-तिर्यंच For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ******** ************************** और कुत्सित मनुष्यत्व में घोरतम दुःखों को भोगता है। पाप का छोटा-सा बीज जब फल रूप में प्रकट होता है, तब कितना भयानक होता है, यह इस अध्ययन में स्पष्ट किया गया है। हिंसा के भयंकर परिणाम का विचार करके सुखार्थीजन, इसके त्यागी बनें और अपनी आत्मा को महान् दुःखों और . दुर्दशा से बचावें तथा स्व- पर रक्षक बनें, यही सूत्रकार महर्षि का उपदेश है।. प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० १ *********** कुमानुषत्व मनुष्य सम्बन्धी उच्च गति सुगति एवं शरीर पाकर भी जो विकलांग, अपूर्णांग, नष्टांग, कुरूप, बेडोल, रोगी, सत्वहीन, सामर्थ्यहीन, बुद्धिहीन, अशोभनीय, अदर्शनीय, अश्रवर्णीय, जाति-कुल से हीन एवं अभावों से पीड़ित दशा कुमानुषत्व है। यह मनुष्य सम्बन्धी दुर्गति है। - अल्पसुख - बहुदुःख विषय - सुख की प्राप्ति के लिए अथवा क्रोधादि को सफल बनाकर सन्तुष्ट होने रूप अल्प सुख का कुफल हजारों-लाखों गुणा अधिक - बहुत दुःख भोगना पड़ता है। चंड- प्रचण्ड, क्रोधातुर, उष्णता एवं रक्तिमता से पूर्ण । यम के समान भयानक रौद्र- भयंकर, भीषण, क्रूर । दारुण विपाकयुक्त । क्षुद्र - अधम, नीच, दुष्टजनों द्वारा आचरित । अनार्य - म्लेच्छजन, पापकृत्य करने वाला, अपवित्र एवं अप्रशस्त आचरण वाला, उत्तम एवं श्रेष्ठ आचार से रहित । निर्घुण - पाप के प्रति घृणा से रहित निर्दय । नृशंस - हिंसकता, क्रूरता, कठोरता एवं घातकता युक्त । निष्पिपासक - प्राणियों के प्रति स्नेह - मैत्री भाव से रहित । प्राणियों के दुःख क्लेश एवं संताप की अपेक्षा नहीं रखने वाला । प्राणियों के हित से उदासीन । 7 अधर्मद्वार नामक प्रथम श्रुतस्कन्ध का प्राणीवध नामक प्रथम अध्ययन सम्पूर्ण For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूषावाद नामकं दूसरा अधर्म द्वार जंबू!* बिइयं अलियवयणं लहुसग-लहुचवल-भणियं भयंकर दुहकर अयसकरं वेरकरगं अरइ-रइ-रागदोस-मणसंकिलेस-वियरणं अलिय-णियडिसाइजोयबहुलं णीयजणणिसेवियं णिस्संसं अप्पच्चयकारगं परम-साहुगरहणिजं परपीलाकारगं परमकिण्हलेस्ससहियं दुग्गइविणिवाय-विवड्डणं भवपुणब्भवकरं चिरपरिचियमणगयं दरंतं कित्तियं बिइयं अहम्मदारं। शब्दार्थ - जंबू - हे जम्बू!, बिइयं - दूसरा, अलियवयणं - अलीक-मिथ्या वचन, लहुसगलहुचवल - गुण एवं गौरव से अत्यन्त हीन और अति चपल, भणियं - भाषित, भयंकरं - डरावना, दुहकरंदुःख उत्पन्न करने वाला, अयसकरं - अपयशकारी - निंदित, वेरकरगं - वैर-शत्रुता उत्पन्न करने वाला, अरइरइरागदोसमणसंकिलेसवियरणं - रति, अरति, राग, द्वेष और मन में क्लेश बढ़ाने-फैलाने वाला, अलीय - अलीक-शुभ फल से रहित-निष्फल, णियडि - सत्य के लिए ढक्कन-दबाने वाला अथवा एक झूठ को दूसरे झूठ से दबाने वाला आच्छादन, साइजोयबहुलं - अविश्वास का बहुत बड़ा स्थान, णीयजणणिसेवियं - नीच जनों द्वारा सेवित, णिस्संसं - निन्दनीय अथवा क्रूर, अप्पचवकारगंअप्रतीति कारक-विश्वास-विनाशक, परमसाहुगरहणिजं - उत्तम साधुओं द्वारा निन्द्रित गीलाकारगंदूसरों के लिए पीड़ा-दुःखकारक, परमकिण्हलेस्ससहियं - उत्कृष्ट कृष्ण-लेश्या युक्त, दुग्गइविणिवायविवडणं - दुर्गतिगमन में वृद्धि करने वाला-बार-बार दुर्गति में ले जाने वाला, भवपुणब्भवकरं - बार-बार पुनर्भव कराने वाला, चिरपरिचयमणुगयं - लम्बे काल से परिचित और लगातारं साथ रहने वाला, दुरंतं - जिसका फल बड़ी कठिनाई से पूरा हो या जो परिणाम में दारुण हो, कित्तियं- कहा है, बिइयं - दूसरा, अहम्मदारं - अधर्म द्वार। भावार्थ - श्री सुधर्मा स्वामी जी महाराज श्री जम्बू स्वामी जी से कहते हैं कि हे जम्बू! दूसरा अधर्मद्वार मृषावाद है। जिन जीवों में गुणों की हीनता है, जिनमें गौरवशाली गुण नहीं है और जो चंचल हैं, वे मिथ्या-भाषण करते हैं। मृषावाद बड़ा भयानक अधर्म है। दुःखों का सर्जक है। अपयशकारी है। इस पाप से वैर-विरोध बढ़ता है। रति-आसक्ति, अरति-अरुचि, राग-द्वेष और संक्लेश की वृद्धि होती है। मृषावाद का शुभ फल नहीं होता। मृषावाद सत्य को ढकने वाला है। एक झूठ को ढकने के लिए दूसरा झूठ उत्पन्न होता है। असत्यवाद नीच लोगों द्वारा सेवित है। असत्य भाषण करने वाला की प्रतीति नहीं रहती। मृषावाद रूपी अधर्म, उत्तम साधु पुरुषों द्वारा निन्दनीय है। झूठ, दूसरे जीवों के लिए पीड़ाकारी होता है। झूठ के मूल में बहुत काली लेश्या रहती है। झूठ का पाप दुर्गतिगमन में वृद्धि करता * "इह खलु जंबू" - पाठ भी कुछ प्रतियों में है। For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०२ है। भव परम्परा बढ़ाता है। झूठ का पाप, पाप ही से परिचय करवाता हुआ बहुत लम्बे काल तक जीव के साथ लगा रहता है। इसका अन्त होना बड़ा कठिन है। इसका परिणाम दुःखदायी होता है। यह दूसरा अधर्मद्वार कहा गया है। विवेचन - 'प्राणातिपात' नामक प्रथम अधर्म द्वार पूर्ण होने के बाद उपरोक्त सूत्र में 'मृषावाद' नामक दूसरे अधर्मद्वार का प्ररूपण हुआ है। जहाँ प्राणवधरूप प्रथम पाप रहता है, वहाँ उसका सम्बन्धी मृषावाद भी रहता है। मृषावाद की उत्पत्ति क्रोध, मान, माया और लोभरूपी कषाय-चतुष्ट्य से होती है। मृषावाद का पाप दुराशयपूर्वक होता है। इसके प्रभाव से मृषावादी और जिसके लिए झूठ बोला जाये उसे मानसिक क्लेश होता है - असत्य भाषण किसी सत्य को ढकने-छुपाने के लिए होता है। णियडि - मायाचारपूर्वक किसी को हानि पहुँचाना, गूढ मानस वृत्ति, दांभिकपन, बकवृत्तिः। - णीयजणणिसेवियं - मृषावाद का सेवन नींच लोग करते हैं। जो सदाचारी उत्तम मनुष्य होते हैं, वे असत्य का आचरण नहीं करते। - अप्पच्चयकारगं - असत्य भाषण करने वाले की प्रतीति नहीं होती, विश्वास उठ जाता है और लोग उसे विश्वासघाती मानते हैं। मृषावाद के नाम तस्स य णामाणि गोण्णाणि होति तीसं। तं जहा - १. अलियं २. सढं ३. अणज्जं ४. मायामोसो ५. असंतगं ६. कूडकवडमवत्थुगं च ७. णिरत्थयमवत्थयं च ८. विद्देसगरहणिजे ९. अणुजुर्ग १०. कक्कणा य ११. वंचणा य १२. मिच्छापच्छाकडं च १३. साई उ १४. उच्छण्णं १५. उक्कूलं च १६: अट्ट १७. अब्भक्खाणं च १८. किविसं १९. वलयं २०. गहणं च २१. मम्मणं च २२. णूमं णिययी २४. अपच्चओ २५. असंमओ २६. असच्चसंघत्तणं २७. विवक्खो २८. अवहीयं २९. उवहिअसुद्धं ३०. अवलोवोत्ति। अवि य तस्स एयाणि एवमाइयाणि -णामधेजाणि होति तीसं, साबजस्स अलियस्स वइजोगस्स अणेगाई। शब्दार्थ - तस्स - उसके, णामाणि - नाम, गोण्णाणि - गुणनिष्पन्न, होति तीसं - तीस हैं, तं जहा - वे इस प्रकार हैं - १. अलियं - अलीक। असत्य-भाषण रूप। शुभ फल से रहित। 'बो भालते दोषमविद्यमानं, सतां गुणानां ग्रहणे च मूकः॥ स: पापभाक् स्यात् स विनिन्दकश्च, यशोबधः प्राणवधाद्गरीवान्॥१॥ यशस्तिलक चम्पू अर्थात्-जो अविद्यमान दोष कहता है एवं मिथ्या दोषोरोपण करता है, सजनों के गुणवर्णन में मूक (गूंगा) रहता है। वह पापी होता है। वह निन्दक कहा जाता है। किसी की कीर्ति का घात करना प्राणवध से भी बढ़कर है। For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मृषावाद के नाम २. सदं - शठ, छलपूर्वक आचरण किया जाता है, इस कारण शठ है। ३. अणज्जं - अनार्य। आर्यजन असत्य नहीं बोलते। अनार्य लोग असत्य-भाषण करते हैं, अतएव मृषावाद का तीसरा नाम 'अनार्य' है। ४. मायामोसो - मायामृषा। कपट पूर्वक झूठ बोलने के कारण मृषावाद का नाम 'मायामृषा' है। . ५. असंतगं - असत्क। जिसका अस्तित्व नहीं अथवा जो जिस रूप में नहीं, उसे उस रूप में बतलाने के कारण असत्क। ६. कूडकवडमवत्थुगं - कूट-कपट-अवस्तुका झूठ और कपट के साथ असद्भूत वस्तु को सद्भूत बतलाने वाला। ". ७.णिरत्थयमवत्थयं-निरर्थक एवं अयथार्थ-सत्यार्थ से रहित।जिसमें से सत्य निकल गया है ऐसा। ८. विहेसगरहणिजं - विद्वेषगर्हणीय। द्वेषयुक्त होने के कारण निन्दनीय अथवा द्वेष और निन्दा का कारण। . अणुजुर्ग - अनृजुक - सरलता से रहित। १०. कक्कणा - कल्कन-पाप का कारण। ११. वंचणा - वंचना-ठगाई। १२. मिच्छापच्छाकडं - मिथ्यापश्चात्कृत-ज्ञानीजनों द्वारा तिरस्कृत। १३. साई - साति-अविश्वास का स्थान। १४. उच्छण्णं - उच्छन्न-अपने दोष और दूसरों के गुण को ढंकने वाला। इस शब्द का दूसरा रूप 'उच्छृत्तं' भी है जिसका अर्थ-अन्य-अर्थ भाषण या न्यूनाधिक भाषण रूप उत्सूत्रभाषण। १५. उक्कूलं - उत्कूल। सद्मार्ग के तट-मर्यादा से च्युत करने वाला। १६. अट्ट - आर्त। स्व-पर को पीड़ित करने वाला अथवा आर्तध्यान का उत्पादक। १७. अब्भक्खाणं - अभ्याख्यान-झूठा दोषारोपण करने वाला। १८. किविसं - किल्विष-पाप का उत्पादक या पाप से भरा हुआ। १९. वलयं- वलय-चक्कर। वक्रतायुक्त, कुटिल।। . २०. गहणं - गहन। जिसे समझना कठिन, जिसका सही भाव न जाना जा सके। २१. मम्मणं - मन्मन-अस्पष्ट) २२. णूमं - नूम-सत्य को छुपाने वाला। २३. णिययी - निकृति-कपट को छुपाने वाला। २४. अप्पच्चओ - अप्रत्यय अप्रतीतिकारक, अविश्वसनीय।। २५. असंमओ - असम्यक्-अयथार्थ। २६. असच्चसंघत्तणं - असत्यसंघत्व-असत्य परम्परा को बढ़ाने वाला। For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ २७. विवक्खो - विपक्ष = सत्य का विरोधी - शत्रु । २८. अवहीय- अपधीक = निन्दित बुद्धि वाला । इस शब्द का दूसरा रूप 'उवहियं' - औपधिक है, जिसका अर्थ- माया का घर । इसका अन्य रूप ' आणाइयं' - आज्ञातिक-जिनाज्ञा का उल्लंघन है। २९. उवहिअसुद्धं - उपधिअशुद्ध = ‍ = माया के कारण अशुद्ध अथवा सावद्य होने से अपवित्र । ३०. अवलोवो अपलोपक= वस्तु के सद्भाव का लोपक । उसके, एयाणि एवमाईणि - ये उपरोक्त और इसी तीस, सावज्जस्स सावद्य पाप के, अलियस्स - प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० २ अविय - इस मृषावाद के और भी, तस्स प्रकार के, णामधेज्जाणि नाम, होंति हैं, तीसं मृषा- झूठ के, वइजोगस्स - वचन-योग के, अणेगाई - अनेक । मृषावाद के उपरोक्त ३० नाम इसकी भिन्न-भिन्न विशेषताओं को प्रकट करते हैं । सूत्रकार कहते हैं कि मृषावाद के पाप को स्पष्ट करने के लिए इन तीस नामों के अतिरिक्त अन्य अनेक नाम हैं। मृषावादी तं च पुण वयंति केइ अलियं पावा असंजया अविरया कवडकुडिलकडुयचडुलभावा कुद्धा लुद्धा भया य हस्सट्टिया य सक्खी चोरा चार-भडा खंडरक्खा जियजयकरा य गहियगहणा कक्ककुरुगकारगा, कुलिंगी उवहिया वाणियगा य कूडतुलकूडमाणी कूडकाहावणोवजीविया पडगार - कलाय-कारुइज्जा वंचणपरा चारियचाडुयार-णगरगुत्तिय परिचारगा दुट्ठवाइसूयगअणबलभणिया य पुव्वकालियवयणदच्छा साहसिया लहुस्सगा असच्चा गारविया असच्चट्ठावणाहिचित्ता उच्चच्छंदा अणिग्गहा अणियत्ता छंदेणमुक्कवाया भवंति अलियाहिं जे अविरया । शब्दार्थ तं उस, पुण फिर, केइ कितनेक, अलियं मिथ्या वचन, पावा- पापी, असंजया - असाधु, अविरया अविरत, कवडकुडिलकडुयचडुलभावा- कपट के कारण कुटिल कटु एवं चंचल चित्त वाले, कुद्धा क्रोधी, लुद्धा - लुब्ध-लोभी- गृद्ध, भया - स्वयं भयभीत अथवा भय उत्पन्न करने वाले, हस्सट्ठिया - हँसी करने वाले, सक्खी झूठी साक्षी देने वाले, चोरा चोर, चारभडा - गुप्तचर, खंडरक्खा खण्ड- रक्षक - शुल्कपाल- राजस्व लेने वाले, जियजूयकरा - जुएं में हारे हुए जुआरी, गहियगहणा - बन्धक रखे हुए आभूषणों को दबाने वाले, कक्ककुरुगकारगा कल्कगुरुककारक- मायाचार से पूर्ण भरे हुए, कुलिंगी - कुतीर्थिक, अवहिया छल करने वाले, वाणियगा- व्यापारी, कूडतूलकूडमाणी खोटे नाप-तोल करने वाले, कूडकाहावणोवजीविया - कूटकार्षापण-नकली सिक्के के द्वारा आजीविका करने वाले, पडगार कलाय कारुइज्जा - कपड़ा बुनने - *" अलियाहिं जे अविरया" - इतना पाठ पूज्य श्री घासीलालजी म. वाली प्रति में नहीं है, किन्तु टीका आदि में है। - - - For Personal & Private Use Only - ************ - - - - Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृषावादी ६५ वाले, सोने का काम करने वाले-सुनार, रंगरेज या कारीगर, वंचणपरा - ठगाई करने वाले, चारिय - . दलाल, चाटुयार - खुशामदी, णगरगोत्तिय - नगर रक्षक, परियारगा - मैथुन सेवन करने के लिए स्त्रियों को बहकाने वाला, दुद्रुवाइ - दुष्टवाद-खोटा पक्ष लेने वाला, सूयग - चुगली करने वाला, अणबलभणिया - ऋण से दबे हुए ऋणि, पुवकालिय-वयणदच्छा - दूसरे के अभिप्राय को जानकर वचन बोलने में निपुण, साहसिया - साहस करने वाले, लहुस्सगा - हल्के, अधम-नीच लोग, असच्चादुर्जन, गारविया - घमंडी, असच्चट्ठावणाहिचिता - असत्य की स्थापना करने के विचार वाले, उच्चच्छंदा - स्वयं को उत्कृष्ट बताने के इच्छुक, अणिग्गहा - स्वच्छंदी, निरंकुश, अणियत्ता - नियम रहित, छंदेणमुक्कपाया - बिना बिचारे इच्छानुसार बोलने वाले, भवंति - होते हैं, अलियाहिं - मृषावाद से, जे - जो, अविरया - निवृत्त नहीं है। भावार्थ - जो पापी मनुष्य असत्य भाषण करते हैं, वे असंयत (इन्द्रियों पर नियंत्रण रहित) अविरत (पापों में प्रवृत्त) हैं। उनका मन कप्रट के कारण कुटिल एवं चंचल होता है। क्रोधी, लोभी, विषयों में गृद्ध एवं भयभीत व्यक्ति अथवा दूसरों को भयभीत करने वाले झूठ बोलते हैं। कई दूसरों की हंसी करने के लिए झूठी बातें बनाते हैं। कई झूठी साक्षी देकर अपना हित साधते हैं या दूसरों का अहित करते हैं। चोर, गुप्तचर, राजस्व प्राप्त करने वाले, जुआरी दूसरों की धरोहर दबाने वाले मायावी, कुतीर्थी, व्यापारी, खोटे नाप-तोल करने वाले, नकली सिक्का चलाने वाले, बुनर, स्वर्णकार, रंगारे, दलाल आदि दूसरों को ठगने के लिए मिथ्या वचन बोलते हैं। खुशामदी (चापलूस) व्यक्ति किसी की प्रशंसा करने के लिए झूठ बोलते हैं। नगर-रक्षक भी अपने प्रयोजन से असत्य भाषण करते हैं। व्यभिचारी अथवा व्यभिचार से आजीविका करने वाले भी मृषावादी होते हैं। मिथ्यापक्ष के पक्षकार, चुगलखोर, ऋणी, दूसरों का अभिप्राय जानने अथवा दूसरों का अभिप्राय जानकर वचन बोलने में प्रवीण मनुष्य, साहसपूर्ण कार्य करने वाले, नीच, दुर्जन, अभिमानी, झूठ को सत्य के रूप में बताने वाले, अपने-आपको सर्वोत्कृष्ट बताने की कामना वाले, स्वच्छन्दाचारी, नियमों की उपेक्षा करने वाले, बिना विचारे बोलने वाले एवं जूठ से अविरत जीव मृषावादी होते हैं। विवेचन - इस सूत्र में मृषावादी जीवों के मृषावाद का कारण बतलाया गया है। मृषावादी असंयत्त अविरत ही होते हैं। जो संयमी एवं पापों से सम्यक् प्रकार से विरत हैं, उनके मिथ्या-भाषण करने का कारण नहीं रहता। मृांवादी के मन में क्रोधादि कषाय एवं हास्यादि नो-कषाय का तीव्र उदय रहता है। इसी से प्रेरित होकर मिथ्या-भाषण करते हैं। कुतीर्थी के मिथ्यात्व का उदय रहता है। उसकी दृष्टि में विकार होता है। मिथ्यात्व के साथ मृषावाद एवं अविरति का सम्बन्ध होता ही है। जो साधु हैं और मृषावाद से विस्त हो चुके हैं, वे ही इस पाप से बचते हैं। For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ०२ ***************************************** * ******* ___मृषावादी-नास्तिकवादी का मत । अवरे णत्थिगवाइणो वामलोयवाई भणंति-णत्थिजीवो, ण जाइ इह परे वा लोए, ण य किंचिवि फुसइ पुण्णपावं, णत्थि फलं सुकयदुक्कयाणं, पंचमहाभूइयं सरीरं भासंति, हे वायजोगजुत्तं। पंच य खंधे भणंति केइ, मणं य मणजीविया भणंति, वाउजीवोत्ति एवमाहंसु सरीरं साइयं सणिधणं, इह भवे एगभवे तस्स विप्पणासम्मि सव्वणासोत्ति, एवं जंपति मुसावाई। तम्हा दाण-वय-पोसहाणं तवसंजम-बंभचेर-कल्लाणमाइयाणं णत्थिफलं, ण वि य पाणवहे अलियवयणं णा चेव चोरिक्ककरणं परदारसेवणं वा सपरिग्गह-पावकम्मकरणं वि णत्थि किंचि ण .. णेरइय-तिरिय-मणुयाणजोणी, ण देवलोगो वा अत्थि ण य अस्थि सिद्धिगमणं, अम्मापियरों णत्थि ण वि अस्थि पुरिसकारो, पच्चक्खाणमवि णत्थि, ण वि अस्थि कालमच्चू य, अरिहंता चक्कवट्टी बलदेवा वासुदेवा णत्थि, णेवत्थि केइ रिसओ . धम्माधम्मफलं च णवि अस्थि किंचि बहुयं च थोवगं वा, तम्हा एवं विजाणिऊण जहा सुबहु इंदियाणुकूलेसु सव्वविसएसु वट्टह णत्थि काइ किरिया वा अकिरिया वा एवं भवंति णत्थिगवाइणो वामलोयवाई। - शब्दार्थ - अवरे - दूसरे, णथिगवाइणो - नास्तिकवादी, वामलोयवाई - वामलोकवादीवाममार्गी-भौतिकवादी, भणंति - कहते हैं कि, णत्थि - नहीं, जीवी - जीव, ण जाइ - नहीं जाता, इह परे - इस-लोक पर-लोक, ण य - नहीं, किंचिवि - कुछ भी, फुसइ - स्पर्श करता है, पुण्णपावं - पुण्य और पाप, फलं - फल, सुकयदुक्कयाणं - सुकृत दुष्कृत का, पंचमहाभूइयं - पांच महाभूत का, सरीरं - शरीर है, भासंति - कहते हैं, वायजोगजुत्तं - वायु के योग से शरीर युक्त है, पंच - पांच, खंधेस्कन्ध, केइ - कोई, मण - मन ही, मणजीविया - मन को ही जीव मानने वाले, वाउजीवोत्ति - वायु जीव है, एवमाहंसु - इस प्रकार कहते हैं, सरीरं - शरीर, साइयं - सादि-आदियुक्त-नया उत्पन्न होने वाला, सणिधणं - निधन-विनाश होने वाला, इहभवे - इस भव, एगभवे - एक ही भव, तस्स - उसके, विप्पणासम्मि - विनाश होने पर, सव्वणासोत्ति - सर्वनाश हो जाता है, जंपति - कहते हैं, मुसावाई - मृषावादी, तम्हा - इसलिए, दाणवय-पोसहाणं - दान, व्रत और पौषध, तव-संजमबंभचेर-कल्लाणमाइयाणं - तप, संयम, ब्रह्मचर्यादि कल्याणकारी अनुष्ठानों का, णत्थिफलं - फल नहीं होता, पाणवहे - प्राणवध, अलियवयणं - मृषावाद, चोरिक्ककरणं - चोरी करना, परदारसेवणं - पर-स्त्री गमन, सपरिग्गह - परिग्रह रखना, पावकम्मकरणं - पापकर्म करने का, णेरइय - नैरयिक, तिरिय - तिर्यंच, मणुयाणजोणी - मनुष्यों की योनि, देवलोगो - देवलोक, अत्थि - अस्तित्त्व, णत्थि For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... मृषावादी-नास्तिकवादी का मत ***** *************************************************** नहीं है, सिद्धिगमणं - मुक्ति गमन-सिद्धिगति, अम्मापियरो - माता-पिता, पुरिसकारो - पुरुषार्थ, पच्चक्खाणमवि - प्रत्याख्यान भी, कालमच्चू - काल से मृत्यु, अरिहंता - अरिहंत, चक्कवट्टी - चक्रवर्ती, बलदेवा - बलदेव, वासुदेवा-- वासुदेव, णेवत्थि - अस्तित्त्व नहीं, रिसओ - ऋषि का धम्माधम्म फलं - धर्म और अधर्म का फल, बहुयं - बहुत, थोवर्ग - थोड़ा, तम्हा - इसलिए, विजाणिऊण - जान कर, इंदियाणुकूलेसु - इन्द्रियों के अनुकूल, सव्वविसएसु - सभी विषयों में, वट्टहा- प्रवृत्ति करनी चाहिए, णत्थिकाइ - कोई नहीं, किरिया - क्रिया, अकिरिया - अक्रिया। भावार्थ - अन्य वाममार्गी (लोकायतिक मत वाले) नास्तिकवादी कहते हैं कि-जीव नहीं है और न जीव इस लोक या परलोक में जाता है। जीव, पुण्य और पाप का स्पर्श भी नहीं करता। शुभ करणी का शुभफल भी नहीं है और पापकृत्य का कटुफल भी नहीं है। यह शरीर पांच महाभूतों से बना हुआ है और वायु के योग से क्रियाशील है। कई पांच स्कन्ध बतलाते हैं और मन को ही जीव कहते हैं। कोई कहते हैं-वायु ही जीव है। शरीर उत्पत्तिशील और विनष्ट होने वाला है। भव भी यह एक ही है। इस शरीर के नष्ट होने पर सब कुछ नष्ट हो जाता है। वे मृषावादी लोग कहते हैं कि-जब कुछ भी नहीं है, तो दान, व्रत, पौषध, तप, संयम, ब्रह्मचर्य आदि कल्याणकारी अनुष्ठानों का कुछ भी फल नहीं होता। प्राणवध, मृषावाद, चोरी, पर-स्त्री गमन और परिग्रह रखना आदि पाप का कछ भी फल नहीं होता। नरक. तिर्यंच और मनष्ययोनि प्राप्त करना भी कर्म-फल नहीं है। न देवलोक है, न सिद्धगति है। माता-पिता भी नहीं हैं। पुरुषार्थ और प्रत्याख्यान भी नहीं है। काल से मृत्यु.होना भी असत्य है। अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव और ऋषि भी नही हैं। धर्म और अधर्म का फल न थोड़ा है और न बहुत। किंचित्मात्र भी नहीं है। इस प्रकार जानकर इन्द्रियों के अनुकूल सभी विषयों में अपनी इच्छा के अनुसार प्रवृत्ति करनी चाहिए। इस प्रकार वामलोकवादी नास्तिक लोग कहते हैं। विवेचन - पूर्व सूत्र में विषय और कषाय के वश होकर असत्य बोलने वालों का परिचय दिया गया है। वे जीव अनन्तानुबन्धी आदि कषाय के वशीभूत होकर झूठ बोलते हैं। अब सूत्रकार मिथ्यात्वमोहनीय के उदय से मृषावाद बोलने वाले का वर्णन करते हैं। कुतीर्थियों में प्रथम स्थान नास्तिकवादी का है। नास्तिक मतावलम्बी तो जीव को ही नहीं मानता। वह कहता है-'इस दृश्यमान शरीर से भिन्न "जीव" या "आत्मा" नाम की कोई अदृश्य वस्तु ही नहीं है और न इसे सिद्ध करने वाला कोई आधार-प्रमाण ही है।' नास्तिकवादी केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानते हैं। परन्तु आत्मा अरूपी है, इसलिए प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देती। जब वे जीव ही नहीं मानते, तो लोक-परलोक क्यों मानने लगे? आस्तिकवादी ही जीव को इस लोक में आने वाला और परलोक में जाने वाला मानते हैं। जीव की मान्यता के साथ ही लोक-परलोक की संगति हो सकती है। अतएव उनके मत में जीव ही नहीं और जीव के लिए यह लोक और परलोक For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ****************** ************** भी नहीं। इसी प्रकार पुण्य और पाप भी नहीं मानते। पुण्य और पाप की मान्यता भी जीव के साथ ही सम्बन्ध रखती है। जो पाप और पुण्य मानते हैं, वे जीव को और उसके परलोक को भी मानते हैं और पाप-पुण्य के फलस्वरूप नरक और देवलोक भी मानते हैं। जो जीव का ही अस्तित्व नहीं मानते, उनको पाप-पुण्य और उसका फल मानने की आवश्यकता ही नहीं है। प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० २ ****** इसी प्रकार सुकृत - शुभ करणी (उत्तम आचार) और दुष्कृत - पापकृत्य (दुराचार ) . का फल भी वे नहीं मानते। इस मान्यता का मूल स्वामी जीव ही नहीं, उसका अमरत्व- शाश्वतपन ही नहीं और पुण्य-पाप ही नहीं, तो भले-बुरे कर्मों का फल और उससे प्राप्त स्वर्ग-नरक का अस्तित्व भी नहीं। मूल नाश के बाद शेष के लिए प्रश्न ही नहीं उठता। उन वामलोकवादी=शून्यवादी - लोकायत मतवालों का कहना है कि यह शरीर पांच महाभूत से बना है। पांच महाभूत ये हैं- पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश । इन पांच महाभूतों से बने हुए शरीर में हड्डी आदि कठिन भाग पृथ्वी का अंश है, रक्तादि अप - भूत का अंश है, उष्णता अग्नि का, श्वासोच्छ्वासादि चलन अंश वायु का और छिद्र रूप आकाश तत्त्व है। इन पांच भूतों से ही शरीर बना है और यह सारा क्रिया-कलाप इन्हीं से होता है। इन से भिन्न कुछ भी नहीं है। इन पांच भूतों का संयोग भी स्वभाव से ही होता है और वियोग भी स्वभाव से ही होता है । स्वभाव से सिवाय अन्य कोई कारण नहीं है । बौद्ध मतानुयायी कहते हैं कि पांच स्कन्ध हैं - १. रूप २. वेदना ३. विज्ञान ४. संज्ञा और ५. संस्कार । पृथिव्यादि एवं रूपादि-रूप-स्कन्ध हैं । सुख-दुःख उभय- वेदना - स्कन्ध हैं। रूपादि का ज्ञान - विज्ञान - स्कन्ध है । यह अमुक है, इत्यादि नाम रूप- संज्ञा - स्कन्ध है। पुण्य- अपुण्यादि धर्मसमुदाय - संस्कार-स्कन्ध है। बस ये पांच स्कन्ध ही सब कुछ हैं। इनसे भिन्न जीव या आत्मा नहीं है। बौद्धों में पांच स्कन्धों के अतिरिक्त मन को मानने वाला पक्ष भी है। कोई मतवादी मन को ही आत्मा मानते हैं। वे 'मनोजीविक' हैं । - कोई श्वासोच्छ्वास रूप वायु को ही जीव मानते हैं। ये कहते हैं कि प्राणवायु से ही शरीर की प्रवृत्ति होती है। यही जीवन है। वायु के निकल जाने पर मृत्यु हो जाती है। यह शरीर सादि है और विनाशशील है। इसकी उत्पत्ति और विनाश होता है। यह उत्पत्ति और विनाशरूप शरीर ही भव है। बस यह एक ही भव है। इसके अतिरिक्त अन्य कोई भव- परभव नहीं है । इस भव के नष्ट होने के साथ सब कुछ नष्ट हो जाता है। असद्भाववादी का मत इमं वि बिईयं कुदंसणं असब्भाववाइणो पण्णवेंति मूढा - संभूओ अंडगाओ लोगो सयंभूणा सयं य णिम्मिओ एवं एवं अलियं पयंपंति । शब्दार्थ - इमं वि इस बिईयं दूसरे, कुदंसणं कुदर्शन का, असम्भाव-वाइणो - - For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ **************** असद्भाववादी, पण्णवेंति कहते हैं, मूढा - मूर्ख, संभूओ उत्पन्न हुआ, अंडगाओ - अंडे से, लोगोखुद ने, णिम्मिओ बनाया, एवं इस प्रकार, एवं यह भी, लोक, सयंभूणा - स्वयंभू ने, सयं अलियं मिथ्या, पयंपंति कहते हैं । - - ******** - सद्भाववादी का मत ************ - - भावार्थ - दूसरे कुदर्शनी असद्भाववादी हैं। वे मूढ़यों कहते हैं हुआ है। स्वयंभू ने खुद ने इस लोक का निर्माण किया है, इस प्रकार कहने वाले भी मिथ्यावादी है। विवेचन - वामलोकवादी - लोकायत के बाद दूसरे कुदर्शनी असद्भाववादी का उल्लेख किया है । असद्भाववादी का मत है कि पहले कुछ भी नहीं था । पृथ्वी आदि महाभूत भी पहले नहीं थे । जैसे – “तैत्तिरीय उपनिषद" द्वितीयवल्ली सप्तम अनुवादक के प्रारम्भ में ही कहा है-'असद्धा इदमग्र आसीत्' - यह जगत् पहले असद् रूप था। उपरोक्त असद्भाववादी के सिवाय अन्य कहते हैं कि आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणं । अप्रतर्क्यमविज्ञेयं, प्रसुप्तप्रिव सर्वतः ॥ १॥ तस्मिन्नेकार्णवीभूते, नष्टस्थावरजंगमे । नष्टामरनरे चैव प्रनष्टे राक्षसोरगे ॥ २ ॥ केवलं गव्हरीभूते, महाभूतविवर्जिते । अचिन्त्यात्मा विभूस्तत्र, शयानस्तप्यते तपः ॥ ३॥ तत्र तस्य शयानस्य, नाभेः पद्मं विनिर्गतं । तरुणार्कबिम्बनिभं हृद्यं कांचनकर्णिकम् ॥ ४॥ तस्मिन् पद्मे भगवान्, दण्डयज्ञोपवीतसयुक्तः । ब्रह्मा तत्रोत्पन्नस्तेन जगन्मातरः सृष्टः ॥ ५ ॥ अदिति सुरसंघानां दितिरसुराणां मनुर्मनुष्याणां । विनता विहंगमानां माता विश्वप्रकाराणाम् ॥ ६॥ कद्रुः सरीश्रृपानां, सुलसा माता च नागजातिनां । सुरभिश्चतुष्पदानामिला पुनः सर्वबीजानाम् ॥ ७ ॥ यह जगत् केवल अन्धकार से आच्छादित अर्णव रूप था। इसमें प्रज्ञा, तर्क, लक्षण, योग कुछ भी नहीं था। सर्वत्र सुप्तावस्था के समान सुनसान था। स्थावर, जंगम, देव, मनुष्य, नाग आदि सभी नष्ट थे, यह केवल छिद्ररूप था। इसमें महाभूत भी नहीं थे। इसमें अचिन्त्यात्मा विभु, शैया में रहकर तप करते थे। उनकी नाभि से कमल उत्पन्न हुआ, वह मध्याह्न के सूर्य-बिम्ब के समान सोने की कर्णिकामय था । उस कमल में से दण्ड और यज्ञोपवित युक्त जगत्कर्त्ता भगवान् ब्रह्मा उत्पन्न हुए। उनके द्वारा जगत् की ये माताएं उत्पन्न हुईं-अदिति माता से सुर, दिति से असुर, मनु से मनुष्य, विनता से पक्षी, कद्रु से सरीसृप, सुलसा से नाग, सुरभि से चतुष्पद, पृथ्वी से सभी बीजों की उत्पत्ति हुई । अन्यत्र कहा है कि पहले केवल पानी ही पानी था। उसमें एक अंडा था । उसी अण्डे से स्वयंभू ने इस लोक को बनाया । ६९ - - For Personal & Private Use Only यह लोक अंडे से उत्पन्न 'स्वयंभू' का अर्थ = जो अपने-आप हो । किसी अन्य शक्ति के बिना स्वयं अपने-आप ही बना हो । स्वयंभू शब्द से ब्रह्मा, विष्णु और महेश का भी ग्रहण हुआ है। वैष्णव लोग, स्वयंभू का अर्थ 'विष्णु', शैव लोग 'शिव' और सृष्टिवादी 'ब्रह्मा' ग्रहण करते हैं । किन्तु विशेष प्रसिद्धि ब्रह्मा की ही है। अमरकोष में इस प्रकार का अर्थ हुआ है - Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०२ *** ******************************************** "ब्रह्मात्मभूः सुरज्येष्ठः, परमेष्ठी पितामहः। हिरण्यगर्भो लोकेशः स्वयंभूश्चतुराननः॥"(१-१६) अंड सृष्टि का स्वरूप"छान्दोग्योपनिषद" (३-१९) में इस प्रकार बताया है"असदेवेदमग्र आसीत्" - सृष्टि के पूर्व प्रलयकाल में यह जगत् असत्-अव्यक्त नाम रूप था। "तत्सदासीत्" - वह असत् जगत् सत्-नाम रूप कार्य के अभिमुख हुआ। "तत्सम भवत्" - अंकुरभूत बीज के समान क्रम से कुछ स्थूल बना। "तदाण्डं निरवर्तत" - बाद में वह अंडे के रूप में बना। "तत्संवत्सरस्य मात्रामशयत" - वह एक वर्ष पर्यन्त अंड रूप ही रहा। "तनिरभिद्यत" - उसके बाद वह अण्डा फूट गया। "ते आण्डकपाले रजतं च सुवर्णञ्चा भवताम्" - अण्डे का एक कपाल चांदी का और एक . सोने का बना। "तघद्र रजत सेयं पृथ्वी" - चांदी का कपाल पृथ्वी बनी। "यत्सुवर्ण सा द्यौः" - सोने का कपाल ऊर्ध्वलोक बना। "यजरायु ते पर्वता" - जो गर्भ का वेष्टन था उसके पर्वत बने। "यदुल्वं स मेघो नीहारः" - जो गर्भ का सूक्ष्म परिवेष्टन था, वह मेघ और तुषार बना। "या धमनयः ता नद्यः".- जो धमनियाँ थीं, वे नदियाँ बन गई। "यद्धास्तेयमुदकम् स समुद्रः" - जो मूत्राशय का पानी था, वह समुद्र बना। "अथ यत्तदजायत सोऽसावादित्यः" - फिर अंडे में से जो गर्भरूप में उत्पन्न हुआ वह सूर्य हुआ। "तं जायमानघोषा उलूलवोऽनूद निष्ठन्तसर्वाणि च भूतानि"-सूर्य के जन्म के समय महा उद्घोष हुए और सभी प्राणी उत्पन्न हुए। "सर्वे च कामारतस्त्रात्तस्योदयं" - उन प्राणियों को विभिन्न इच्छाएं उत्पन्न होने लगी। अंडे से उत्पन्न सृष्टि का उपरोक्त वर्णन "छान्दोग्योपनिषद" अध्ययन ३ खंड १९ में लिखा है। यह अंडसृष्टि स्वयंभूकृत है, ऐसा 'मनुस्मृति' में लिखा है। यथा - "तदण्डमभवढेमं, सहस्रांशुसमप्रभम्। तस्मिंजज्ञे स्वंय ब्रह्मा, सर्वलोकपितामहः॥"(१-९) - स्वयंभू के संकल्प से वह बीज सूर्य के समान अतीव उज्वल प्रभा वाला सोने का अंडा बना। तदनन्तर उस अंडे में भगवान् स्वयंभू योग-शक्ति से पूर्वधृत प्रकृतिमय सूक्ष्म शरीर छोड़कर सर्वलोक पितामह ब्रह्मा के रूप में उत्पन्न हुआ। "तस्मिन्नण्डे स भगवानुषित्वा परिवत्सरम्। स्वयमेवात्मनो ध्यानात्तदण्डमकरोद् द्विधा॥" For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असद्भाववादी का मत *************************************************************** • वह. भगवान् अंडे में ब्रह्मा के एक वर्ष तक निरन्तर रहता रहा और अन्त में उसने अपने ही संकल्प रूप ध्यान से उस अंडे के दो टुकड़े किये। "ताभ्यां स सकलाभ्यां च, दिवं भूमिं च निर्ममे। मध्ये व्योम दिशश्चाष्टावपां स्थानां च शाश्वतम्॥"(मनु०१-१३) - तत्पश्चात् भगवान् ने उस दो टुकड़ों में से ऊपर के टुकड़े से स्वर्ग और नीचे के टुकड़े से भूमि बनाई। मध्य भाग से आकाश और आठ दिशाएं तथा पानी का शाश्वत स्थान-समुद्र बनाया। इसके बाद तत्त्वसृष्टि का वर्णन किया गया है। ब्रह्मा ने स्वयंभू परमात्मा में से सत्-असत् मन का सृजन किया। मन से अहंकार.........ब्रह्मा ने अपने शरीर के दो टुकड़े किये। एक का पुरुष और दूसरे आधे टुकड़े की स्त्री बनाई और स्त्री में विराट पुरुष का निर्माण किया। (१-३२) सूत्रकृतांग श्रु० १ अ० १ उ० गाथा ७ में भी-"सयंभुणा कडे लोए" और गाथा ८ में - "एगे आह अंडकडे जगे" से कुदर्शनी का उल्लेख किया है। वह उपरोक्त मान्यता का निर्देश है। गाथा के उत्तरार्द्ध में कहा है कि -- असो तत्तमकासी य अयाणंतां मुसं वदे' - वे तत्त्व को नहीं समझते हैं और अज्ञानयुक्त ही मिथ्या भाषण करते हैं। ' सर्वप्रथम यह सिद्धान्त ही असत्य है कि असत् में से सत् उत्पन्न होता है । असत् में से सत् की उत्पत्ति हो ही नहीं सकती। असत् अपने-आप में सत् का कारण नहीं बन सकता। यदि मनुष्य पशु-पक्षी आदि अपने माता-पिता अथवा उत्पत्ति स्थान से उत्पन्न नहीं होकर आकाश से टपक पड़ते हों, तो असत् अथवा असद्भाव में से सत् या सद्भाव उत्पन्न हो सकता है। किन्तु यह बात ही असत्य है । असद्भाववादी किसी न किसी वस्तु का सद्भाव तो मानते ही हैं। कोई अन्धकार, गव्हर-छिद्र-आकाश और उसमें विभु को तप करते हुए मानते हैं। कोई पानी और अंडा मानते हैं। इस प्रकार सद्भाव मानकर भी असद्भाव-असत् बतलाना-वदतोव्याघात है-अपनी ही बात से आप असत्यवादी सिद्ध होना है। अन्धकार और गव्हर था, तो आकाश और पृथ्वी भी थे ही। बिना आकाश और पृथ्वी के न अंधकार का सद्भाव हो सकता है, न गव्हर ही। पानी और अण्डा भी पृथ्वी पर ही रह सकते हैं। विभु भी बिनी पृथ्वी और आकाश के कहां रह सकता है ? विभु तप करता है, तो किसी की आराधना करता है। उसके आराध्य का अस्तित्व भी होना ही चाहिए। शरीर वाले विभु के माता-पिता भी होना चाहिए। बिना माता-पिता के विभु की उत्पत्ति कैसे हुई और बिना शरीर के तप भी कैसे हो सकता है? वह विभु सकर्मक ही हो सकता है। अकर्मक के न तो शरीर होता है और न तप की आवश्यकता होती है। अत: उपरोक्त मान्यता असत्य है। ... लोक शाश्वत है। अनादि है। इसका अभाव कभी नहीं हुआ। अतएव संसार को असद्भाव कहना अथवा अण्डे या स्वयंभू द्वारा निर्मित कहना-असत्य भाषण है। For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०२ ********** ************************************************** . प्रजापति का सृष्टि सर्जन पयावइणा इस्सरेण य कयं त्ति केई, एवं विण्हुमयं कसिणमेव य जगं त्ति केइ, एवमेगे वयंति मोसं एगे आया अकारओ वेदओ य सुकयस्स दुक्कयस्स य करणाणि कारणाणि सव्वहा सव्वहिं च णिच्चो य णिक्किओ णिग्गुणो य अणुवलेवओ त्ति विय एवमाहेसु असब्भावं। शब्दार्थ - पयावइणा - प्रजापति-ब्रह्मा ने, य - और, इस्सरेण - ईश्वर ने, कयंति - किया-लोक बनाया, केइ - कोई, एवं - इसी प्रकार, विण्हुमयं - विष्णुमय, कसिणमेव - समस्त, जगं - संसार, एवमेगे - इसी प्रकार कोई, वयंति - कहते हैं, मोसं - मृषा, एगे - एक, आया - आत्मा, अकारओ - अक्रिय, वेदओ - वेदता-फल भोगता, सुकयस्स - सुकृत, दुक्कयस्स - दुष्कृत, करणाणि - इन्द्रियाँ, कारणाणि - कारण, सव्वहा - सर्वथा, सव्वहिं - सभी काल में, णिच्चो - नित्य, णिक्किओ - निष्क्रिय, णिग्गुणो - निर्गुण, अणुवलेवओ - निर्लेप, एवमाहंसु - इस प्रकार कहते हैं, असब्भावं - असद्भाव। भावार्थ- कोई कहते हैं कि प्रजापति (ब्रह्मा) ने यह लोक बनाया। कोई कहते हैं कि ईश्वर ने लोक का निर्माण किया। कोई कहते हैं-यह सारा जगत् विष्णुमय है। कोई कहते हैं कि आत्मा एक ही है। वह अक्रिय है और सुकृत-दुष्कृत का फल भोगता है। इन्द्रियाँ पुण्य-पाप की कारण हैं। आत्मा सभी काल में सर्वथा नित्य, निष्क्रिय, निर्गुण और निर्लेप है। इस प्रकार असद्भाववादी कहते हैं। . विवेचन - अंड और स्वयंभू सृष्टि के अतिरिक्त कोई मत,,प्रजापति द्वारा सृष्टि-निर्माण होना बतलाते हैं। इनमें भी मत-भिन्नता है। जैसे - ___ 'कृष्ण-यजुर्वेद तैतरेय ब्राह्मण' में प्रजापति के सृष्टि-निर्माण का क्रम इस प्रकार बतलाया है- . .. "आपो वा इदमग्रे सलिलमासीत्। तेन प्रजापतिरश्रम्यत्। कथमिदं स्यादिति। सो पश्यत्पुष्करपर्ण तिष्ठत्। सोऽमन्यत्। अस्तिवैतत्। यस्मिन्निदमधितिष्ठतीति। स वराहो रूपं कृत्वोपन्यमज्जत्।स पृथिवी मध आर्छत्। तस्या उपहृत्योदमजत्। तत्पुष्करपणेऽप्रथयत्। यदप्रथयत्। तत्पृथिव्यै पृथिवित्वम्।"(१-१-३-७) अर्थ - सृष्टि के पूर्व यह जगत् जलमय था। इसलिए प्रजापति ने तप किया और विचार किया कि यह जगत् किस प्रकार बने। इतने में प्रजापति को एक कमल-पत्र दिखाई दिया। उसे देखकर उन्होंने तर्क किया कि इसके नीचे भी कुछ होना चाहिए। फिर प्रजापति ने वराह (सूअर) का रूप धारण किया और पानी में डुबकी लगाई। ठेठ नीचे भूमि तक पहुंचकर और दाढ़ से कुछ गीली मिट्टी लेकर ऊपर आया। वह मिट्टी कमल-पत्र पर फैलाई। वह मिट्टी पृथ्वी, बन गई। यही पृथ्वी का पृथ्वीपन है। For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रजापति का सृष्टि सर्जन ७३ *#### ##################***************************** इसके बाद पर्वत नगर आदि बनाने का उल्लेख है। इसके अतिरिक्त इसी 'कृष्ण यजुर्वेद तैतरेय ब्राह्मण' में दूसरा क्रम इस प्रकार बतलाया है __ "इदं वा अग्रे नैव किञ्चनासीत्। न धौरासीत्। न पृथिवी। नान्तरिक्षम्। तदस देव सन् मनोऽकुरुतस्यामिति। तदतप्यत। तस्मात्तेपानाख़्मोऽजायत। तद्भूयोऽतप्यत। तस्मात्तेपानादग्निरजायत। तद्भूयोऽतप्यत। तस्मात्ते पानाज्योति रजायत। तद्भूयोऽतप्यत तस्मात्तेपानादर्चिरजायत......1(२-२-९) ___अर्थ - सृष्टि के पूर्व यहाँ कुछ भी नहीं था, न तो स्वर्ग था, न पृथ्वी और न अन्तरिक्ष ही था (असत् ही असत् था)। उस असत् को सत् रूप बनने की इच्छा हुई और उसने तप किया। उस तप करने वाले से धूम्र उत्पन्न हुआ। फिर तप किया और अग्नि उत्पन्न हई। फिर तप किया तो ज्योति उत्पन्न हुई। पुनः तप किया तो ज्वाला उत्पन्न हुई। पुनः तप करने से ज्वाला का प्रकाश फैला। ' इस प्रकार तप करते-करते प्रकाश से बड़ी ज्वाला, फिर वह धुआँ बादल के समान घनरूप बना, जो परमात्मा का वस्तिस्थान (मूत्राशय) बना। उसका भेदन किया गया, तो वह समुद्र बन गया। समुद्र, मूत्राशय से बना, इसलिए उसका पानी कोई नहीं पीता। एक ही शास्त्र में ये दो भिन्न मत व्यक्त हुए। प्रथम मत कहता है कि सृष्टि के पूर्व जल ही जल था और प्रजापति को कमल का पत्ता दिखाई दिया, फिर प्रजापति ने सूअर का रूप बनाकर जल में डूबी हुई पृथ्वी की मिट्टी निकालकर कमल-पत्र पर बिछा दी और वह पृथ्वी बन गई। दूसरा मत कहता है कि - नहीं, जल नहीं था, मात्र असत् ही था। असत् ने तप करके धूम अग्नि आदि उत्पन्न किया। पानी तो प्रजापति के मूत्र रूप में बाद में उत्पन्न हुआ। अब तीसरी मजेदार कल्पना देखिये - . "तद्वा इदमापः सलिलमासीत्। सो रोदित्प्रजापतिः। स कस्माअज्ञि....।२-२-९) अर्थः - अथवा सृष्टि के पूर्व यह जगत् पानी रूप था। यह देखकर प्रजापति रोने लगा। रोने का कारण यह था कि इस पानी से मैं सृष्टि किस प्रकार उत्पन्न करूँगा? .... . प्रजापति के दुःखपूर्ण रुदन से उसकी आँखों से आंसू गिरे। वे आंसू पानी पर जम गए और उससे पृथ्वी बन गई। उपरोक्त मत के अतिरिक्त उपरोक्त शास्त्र में (७-१-५) एक यह मत भी है कि - "आपो वा इदमग्रे सलिलमासीत्। तस्मिन् प्रजापतिर्वायुर्भुत्वाञ्चरत्......। अर्थात् - पहले पानी ही था। प्रजापति वायुरूप से उस पानी पर फिरने लगा। उसने पानी के नीचे पृथ्वी देखी और वराह का रूप बनाकर पानी में से पृथ्वी निकाल लाया। उसके बाद वराह रूप छोड़कर प्रजापति विश्वकर्मा बना। . इसके सिवाय उपरोक्त सूत्र के ५-७-५ में-पानी में प्रजापति के 'अहुति' देखने का उल्लेख है। 'कृष्ण यजुर्वेद' के अतिरिक्त 'शुक्ल यजुर्वेद माध्यंदिनी संहिता' में कुछ अन्य मत ही व्यक्त For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ०२ ************************************************************** हुआ है। उसमें (१४-३०-२८) लिखा है कि प्रजापति ने प्राणाधिष्ठायक देवों के साथ स्तुति करके प्रजा उत्पन्न की। उसने पहले वाणी के साथ स्तुति की, जिसमें प्रजापति के गर्भ रह गया और प्रजा उत्पन्न हुई। "बृहदारण्यक' उपनिषद में तो प्रजापति की सृष्टि का घृणित रूप दिखाया गया है। यथा - "स वै नैव रेमे तस्मादेकाकी न रमते। स द्वितीयमैच्छत्। स हैता वानास यथा स्त्री पुमांसौ संपरिष्वक्ती स इममेवात्मानं द्वधाऽपायत्तत: पतिश्य पत्नी चा भवता......मनुष्या अजायन्त।" . (१-४-३) अर्थ - एकाकी प्रजापति को चैन नहीं पड़ा। वह दूसरे की इच्छा करने लगा। वह आलिंगित स्त्री-पुरुष युगल के समान बड़ा हो गया। बाद में प्रजापति ने अपने दो भाग किये। एक भाग पति और दूसरा भाग पत्नी रूप हुआ। पुरुष भाग ने स्त्री-भाग के साथ क्रीड़ा की, जिससे मनुष्य उत्पन्न हुए। "साहेयमीक्षांचक्रे कथं नु मात्मन एव जनयित्वा संभवति हंत तिरोऽसानीति सा गौरभवदूषभ इतरस्तां समेवाभवत् ततो गावोऽजायन्त। वडवेतराभवदश्ववृष इतरः। गर्दभीतरा गर्दभइतरस्तां समेवाभवत्तत एकशफमजायत......यदिदं किंच मिथुन मापीपिल्लिकाभ्यस्तत्सर्वं मसृजत।" (१-४-४) अर्थ - स्त्री भाग का नाम शतरूपा रखा गया। उसने विचार किया - "मैं प्रजापति की पुत्री हूँ। मुझे उसने उत्पन्न किया है। पिता के साथ पुत्री का समागम स्मृति से निषिद्ध है। यह क्या अकृत्य हो गया? अब मैं कहाँ जाकर छिपूँ?" इस प्रकार सोचकर वह गाय बन गई। तब प्रजापति ने बैल बनकर उसके साथ संभोग किया, जिससे गायें उत्पन्न हुई। शतरूपा घोड़ी बनी, तो प्रजापति ने घोड़ा बनकर समागम किया और अश्वसृष्टि हुई। इसी प्रकार शतरूपा गधी, बकरी, भेड़ आदि बनी, तो प्रजापति गधा, बकरा, भेड़ा आदि बनकर संभोग करता रहा और वैसी प्रजा उत्पन्न होती रही। इस प्रकार प्रत्येक प्राणी के युगल बनते-बनते चींटियों तक की उत्पत्ति हो गई। . कैसी घृणित कल्पना की गई है ? इसके सिवाय 'एतरेय ब्राह्मण' (३-३-९) की कल्पना है कि "प्रजापति स्वां दुहितरमभ्यध्यायत्। तमृश्यो भूत्वा रोहितं भूतासभ्यत्तं देवा अपश्यन्नकृतं वै प्रजापतिः करोतीति ते तमैच्छन्य एन मारिष्यत्येतमन्योऽन्यस्मिन्नाविन्द......। अर्थ - प्रजापति ने अपनी पुत्री को पत्नी बनाने का विचार किया। उसने मृग बनकर लाल-वर्ण वाली मृगीरूप पुत्री के साथ संभोग किया। यह देवों ने देखा। देवों ने सोचा-प्रजापति अकृत्य कर रहा है। इसलिए इसे मार डालना चाहिए। देवगण प्रजापति को मारने योग्य व्यक्ति को ढूँढने लगे। उनमें कोई भी ऐसा समर्थ नहीं था। इसलिए जो देव उग्र एवं घोर शरीर वाले थे, वे सभी मिलकर एक महान् शरीरधारी देव बने। उसका नाम 'रुद्र' रखा गया। वह शरीर भूतों से निष्पन्न हुआ, इसलिए उसका दूसरा नाम -'भूतवत्' या For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ ईश्वरवादी. ************************************************************* 'भूतपति' भी प्रसिद्ध हुआ। फिर देवों ने रुद्र से कहा 'तू प्रजापति को बाण मारकर छेद दे।' रुद्र ने प्रजापति को बाण मारा। मृगरूप बना हुआ प्रजापति बाण के आघात से अधोमुख हो, उछल कर ऊँचा गया और मृगशिर नक्षत्र के रूप में आकाश में रह गया। रुद्र ने मृगरूप प्रजापति का पीछा किया और वह भी मृगव्याध के तारे के रूप में आकाश में रह गया। लालवर्ण वाली मृगी थी, वह भी रोहिणी नक्षत्र के रूप में आकाश में रह गई। ये सब आज तक एक-दूसरे के पीछे आकाश में घूम रहे हैं। इस प्रकार प्रजापति की सृष्टि रचना की कई कल्पनाएं हैं। ये सब कल्पनाएं अज्ञान-मूलक एवं कपोलकल्पित हैं। मनुष्यों और पशुओं के समान वेदोदय से अभिभूत होकर-मोहान्ध होकर अनैतिक कर्म करने वाला और अपने ही सृजित देवों के द्वारा निन्दित एवं प्रताड़ित व्यक्ति भी क्या परमात्मा माना जा सकता है ? वास्तव में इस प्रकार की मान्यता भी मृषावाद ही है। ईश्वरवादी प्रजापति के बाद सूत्रकार ने 'इस्सरेण य कयं त्ति केइ' शब्द से ईश्वर कर्ता की कल्पना का उल्लेख किया है। सूत्रकृतांग' में भी - "ईसरेण कड़े लोए" से ईश्वर-कर्तृत्ववादी का उल्लेख हुआ है। ईश्वरवादी अपने ईश्वर को जगत् का उपादान कारण नहीं, किन्तु निमित्त कारण मानते हैं। न्यायदर्शन में बताया है कि - 'ईश्वर मनुष्यों के कर्म का फल देता है। मनुष्यों का प्रयत्न निष्फल न हो जाये, इसलिए ईश्वर कर्मफल देते हैं। मनुष्यों को जो कर्मफल मिलता है, वह ईश्वर-प्रेरित है। बिना • ईश्वरीय व्यवस्था के जगत् अव्यवस्थित हो जाता है।" न्याय भाष्यकार वात्स्यायन का मत है - "गुणविशिष्टमात्मान्तरमीश्वरः। तस्यात्मकल्पात् कल्पान्तरानुपपत्तिः। अधर्ममिथ्याज्ञानप्रमादहान्या धर्मज्ञानसमाधिसम्पदा च विशिष्टमात्मान्तरमीश्वरः तस्य च धर्मसमाधिफलमणिमाद्यष्टविधमैश्वर्य संकल्पानुविधायो चास्यधर्मः प्रत्यात्मवृत्तीन् धर्माधर्म-संचयान् पृथिव्यादीनि च भूतानि प्रवर्तयति।" ___ अर्थ - गुण विशेष से युक्त आत्मा ही ईश्वर है। ईश्वर आत्म-तत्त्व से पृथक् नहीं है। ईश्वर में अधर्म, मिथ्याज्ञान तथा प्रमाद नहीं है। धर्म-ज्ञान और समाधि-सम्पदा से वह युक्त है अर्थात् धर्म, ज्ञान तथा समाधि विशिष्ट आत्मा ही ईश्वर है। धर्म तथा समाधि के फलस्वरूप अणिमादि आठ प्रकार के ऐश्वर्य से वह युक्त है। ईश्वर के संकल्पमात्र से धर्म उत्पन्न होता है, किसी प्रकार के क्रियानुष्ठान से नहीं। ईश्वर का वह धर्म ही प्रत्येक आत्मा के धर्माधर्म संचय की तथा पृथ्वी आदि भूतों की प्रवृत्ति कराता है। - 'स्कन्ध पुराण' में ईश्वर स्वयं अपना परिचय इन शब्दों में देता है - . "ईश एवाहमत्यर्थं न च मामीशते परः। ददामि च सदैश्वर्यमीश्वरस्तेन कीर्त्यते॥" For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० २ ************************************************************* अर्थात् - मैं सभी के ऊपर अत्यन्त सामर्थ्य रखता हूँ। मुझ पर किसी की सत्ता नहीं है। मैं ही हूँ, जो अपने भक्तों को अणिमादि ऐश्वर्य दे सकता हूँ। इसीलिए मैं 'ईश्वर' कहलाता हूँ। - उपरोक्त उल्लेख में ईश्वरवादी का मन्तव्य स्पष्ट होता है। स्वयंभू ब्रह्मा और प्रजापति तो सृष्टि के.' स्वयं सजर्क-उत्पादक बनते हैं, किन्तु ईश्वर निमित्त मात्र रहता है। इस सृष्टि से ईश्वर से भी प्रजापति अत्यन्त शक्तिशाली हुआ, जो स्वयं विश्वकर्मा बन गया। वास्तव में यह भी कल्पना मात्र है। विष्णुमय जगत् विष्णुमय जगत् की मान्यता में कहा जाता है कि - "जलेविष्णुः स्थलेविष्णुः, विष्णुः पर्वतमस्तके। ज्वालामालाकुले विष्णुः, सर्व विष्णुमयं जगत्॥" अर्थात् - जल, स्थल, पर्वत के शिखर, अग्नि और वनस्पति आदि सभी में विष्णु है। यह सारा जगत् ही विष्णुमय है। यथा - पृथिव्यामाप्यहं पार्थ वायावग्नौ जलेप्यहं। सर्वभूतगतश्चाहं, तस्मात् सर्वगतोऽस्म्यहम्॥ हे पार्थ! मैं पृथ्वी, वायु, अग्नि, जल और समस्त भूतों में हूँ। इसलिए मैं सभी में हूँ। इसके अतिरिक्त अन्य कई उल्लेख हैं, जिनमें सारा संसार विष्णुमय बतलाया गया है। पापी, हत्यारा, व्यभिचारी आदि में जो विष्णु है, वही, पुण्यात्मा, धर्मी और दयालु में भी है। दुराचारी में भी और सदाचारी में भी। कीड़ी, कुंजर, देव, नारक सभी में एक ही विष्णु की मान्यता स्पष्ट ही मिथ्या है। कौन सुज्ञ मानेगा कि कत्लखाने में बैठकर पशुओं को निर्दयतापूर्वक काटने वाला और जगत् का ईश्वर ये दोनों एक ही हैं ? एकात्मवाद-अद्वैतवाद एकात्मवादी भी मानते हैं कि समस्त संसार में केवल एक ही आत्मा है। वह सर्वव्यापक है। उनका कहना है कि - "एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः। एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत्॥" अर्थ - एक ही भूतात्मा प्रत्येक भूत-सभी प्राणियों में व्यवस्थित है। वह जल के पृथक्-पृथक् हजारों-लाखों घड़ों में प्रतिबिम्बित होते हुए चन्द्रमा के समान एक होकर भी बहुत दिखाई देता है। - वेदान्तियों का यह एकात्मवाद भी मिथ्या है, क्योंकि आत्मा भिन्न-भिन्न अनन्त हैं। यद्यपि स्वरूपापेक्षा समानत्व की दृष्टि से-संग्रहनय से-एक आत्मा कहा जा सकता है, तथापि द्रव्यापेक्षा सभी आत्माएं भिन्न एवं पृथक् हैं और अनन्त हैं। उन सबकी परिणति भिन्न है। कोई कुंथुए जैसा छोटा, तो For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ अकर्तृत्ववादी ७७ **** ******************************************** ** कोई हाथी के समान बड़ा, कोई मनुष्यं, कोई पशु, पक्षी, सरीसृप, नारक और देव। कोई सुखी, कोई दुःखी, कोई प्रसन्नचित्त तो कोई शोक-मग्न। कोई जन्मता है, तो कोई मरता है। कोई धर्मात्मा है, तो कोई पापात्मा। कोई पति है, तो कोई पत्नी, पुत्र, पुत्री, भगिनी आदि। कोई शोषक है, तो कोई शोषित, कोई स्वामी है, तो कोई सेवक, कोई धनाढ्य है, तो कोई दरिद्र। इस प्रकार विविध रूपों में जीवात्मा अपना भिन्नत्व प्रदर्शित कर रहे हैं। वह सर्वत्र एक ही आत्मा कैसे हो सकता है ? चन्द्रबिम्ब का दृष्टान्त भी अनुपयुक्त है। चन्द्र-बिम्ब तो सभी जलाशयों और जलपात्रों में एक-सा ही दिखाई देता है, किन्तु प्राणियों की स्थिति एक सी नहीं होकर विभिन्न प्रकार की है। अतएव एकात्मवाद अथवा अद्वैतवाद भी असत्य है। अकर्तृत्ववादी आत्मा को एकान्त अकर्ता मानने वाले सांख्य भी मृषावादी हैं, क्योंकि आत्मा प्रत्यक्ष रूप में सकर्ता-हलन-चलन-खान-पानादि करता हुआ और मन से चिंतन करता हुआ देखा और अनुभव किया जाता है। आत्मा हिंसादि पाप और दानादि पुण्य तथा अहिंसादि धर्म का कर्ता और इनके फल का भोग करने वाला है। पुण्य-पाप का अकर्ता मानकर भी फल का भोक्ता मानना तो बिना कारण के कार्य की उत्पत्ति मानना है, जो असत्य है। फल-भोग माना, तो उसका कारण पाप-पुण्य का कर्ता भी मानना ही पड़ेगा। ... केवल इन्द्रियों को ही कर्ता मानकर आत्मा को अकर्ता मानना भी असत्य है, क्योंकि आत्मा शरीर और इन्द्रियों से भिन्न नहीं, किन्तु कथंचित् भिन्न है तथा परिणामी है। ____आत्मा को सर्वथा नित्य मानना भी असत्य है। सर्वथा नित्य मानने पर सुख-दुःख, बन्ध-मोक्ष, गत्यान्तर, भवान्तर, जन्म-मरण आदि का अभाव मानना पड़ेगा। .वास्तव में आत्मा परिणामी नित्य है। वह नित्य - शाश्वत रहता हुआ भी विविध पर्यायों में परिणत होता रहता है। द्रव्यापेक्षा नित्य होते हुए भी नई पर्यायें उत्पन्न होती रहती हैं और पुरानी पर्यायें नष्ट होती रहती हैं। आत्मा उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य युक्त है। इसे एकान्त नित्य मानना असत्य है । - "अमूर्तश्चेतनो भोगी, नित्यः सर्वगतोऽक्रियः। अकर्ता निर्गुणः सूक्ष्म, आत्मा कापिलदर्शने॥" + टीकाकार ने विवेचन में - 'श्रीमद्भगवदगीता' अ. के २ श्लोक २३, २४ "नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि.........."अच्छेयो..............को उद्धृत कर नित्यवाद का निरसन किया। किन्तु मेरे विचार से यह विशेष विचारणीय है, क्योंकि द्रव्यापेक्षा तो हम भी आत्मा को नित्य मानते हैं और गीताकार का कथन भी द्रव्यापेक्षा ही है। आगे श्लोक २७ में-"जातस्य हि भुवो मृत्युर्भुवं जन्म मृतस्य च।" इसमें उत्पाद और व्यय रूप पर्याय भी स्वीकार की है। इसलिए उपरोक्त श्लोक को एकान्त नित्यवाद का प्रवर्तक एवं समर्थक नहीं कहा जा सकता। यद्यपि स्थलों से एकात्मवाद भी झलकता है, परन्तु उद्धरित श्लोक तो द्रव्यापेक्षा ही स्वरूप बतलाता है। For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ****** प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० २ ************** अर्थ - आत्मा अमूर्त, चेतन, भोक्ता, नित्य, सर्वव्यापी, क्रिया- रहित, अकर्त्ता, निर्गुण और सूक्ष्म है, ऐसा कपिल - दर्शन का सिद्धान्त है। 'सांख्य कारिका' में कहा है कि - " तस्मान्नबध्यते नापि मुच्यते नापि संसरति, कश्चित् । "1 संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः ॥' अर्थ - न कोई बंधता है, न मुक्त होता है और न कोई संसार में परिभ्रमण करता है। बन्ध, मोक्ष और परिभ्रमण तो नाना प्रकार के आश्रय वाली प्रकृति को ही होते हैं । नित्यवादियों का उपरोक्त सिद्धान्त भी असत्य है। संयोग-सम्बन्ध से आबद्ध आत्मा को एकान्त मुक्त मानना असत्य है। जीवों में विभिन्नता, ज्ञान-अज्ञान में वैविध्यता, रुचि, अवस्था, दशा, वेदन आदि में अन्तर प्रत्यक्ष बतला रहा है कि प्रत्येक आत्मा बद्ध है । उदय और क्षयोपशम की भिन्नता प्रत्यक्ष देखी जाती है। रूपान्तर, अवस्थान्तर, ज्ञानान्तर, वेदान्तर आदि प्रत्यक्ष बतला रहे हैं कि आत्मा एकान्त नित्य नहीं, किन्तु विविध प्रकार के परिणामों से परिणत होता हुआ नित्यानित्य है । बन्ध, वेदन, गत्यंतर, भोग, रति, अरति आदि सब प्रकृति के ही होते हों और आत्मा सर्वथा अक्रिय एवं निर्लिप्त रहती हो, तो आत्मा में तदनुरूप परिणति, अनुभव, अध्यवसाय एवं वेदनादि नहीं होना चाहिए। किन्तु वैसा होना सभी के अनुभव की बात है। अतएव प्रत्यक्ष से ही असत्य है । यदि केवल प्रकृति में ही हलन चलनादि होते हों, तो मुर्दे शरीर में भी होना चाहिए। किन्तु यह बात भी असत्य है। आत्मयुक्त शरीर ही क्रिया करता है। वह क्रिया आत्म-प्रेरित होने के कारण आत्मा निष्क्रिय नहीं, सक्रिय है। आत्मा के कर्त्ता होने ही बुद्धि में परिवर्तन होता है, चिन्तनादि होता है। पूर्वरूप का त्याग और उत्तररूप का ग्रहण, अपरिणामी नित्य में नहीं हो सकता, न सुख-दुःख वेदन (भोग) ही हो सकता है। पूर्व रूप का त्याग और उत्तर रूप का स्वीकार आत्मा को परिणामी एवं सक्रिय सिद्ध करता है। अतएव आत्मा को नित्य, अपरिणामी एवं निष्क्रिय मानना मिथ्या है। आत्मा निर्गुणी और निर्लेप भी नहीं है। उसमें ज्ञान, उपयोग चेतनादि गुण हैं और रागद्वेषादि एवं. ज्ञानावरणादि युक्त है। अतएव आत्मा को निर्लेप मानना भी मिथ्या है। जैनियों में भी जो एकान्त निश्चयवादी हैं और आत्मा को एकान्त अकर्त्ता, अभोक्ता निर्बन्ध, निर्लिप्तादि मानते हैं, वे मृषावादी हैं। यदि आत्मा सर्वथा निर्लिप्त हो, तो फिर किसी भी प्रकार की साधना की आवश्यकता ही नहीं रहती। निर्गुणी और निर्लेप आत्मा का प्रकृति क्या कर सकती है ? यदि निर्लिप्त आत्मा को भी प्रकृति, क्रोधादि में अथवा अज्ञानादि में लिप्त कर दें, तो यह भी मानना पड़ेगा कि पुरुष (आत्मा या परमात्मा) से प्रकृति (जड़) जोरदार हुई, जो आत्मा को विविध भावों एवं रूपों में परिणत कर देती है। अतएव यह मान्यता भी असत्य है । For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९ मृषावाद ************************************* मृषावाद जं वि इहं किंचि जीवलोए दीसइ सुकयं वा दुकयं वा एयं जदिच्छाए वा सहावेण वावि दइवतप्पभावओ वावि भवइ। णत्थेत्थ किंचि कयगं तत्तं लक्खणविहाणणियत्तीए कारियं एवं केइ जंपंति इड्डिरस-सायागारवपरा बहवे करणालसा परूवेंति धम्मवीमंसएणं मोसं। शब्दार्थ - जं वि - जो भी, इहं - इस, किंचि - कुछ, जीवलोए - जीवलोक में, दीसइ - दिखाई देते हैं, सुकयं - सुकृत, दुकयं - दुष्कृत, एयं - यह, जदिच्छाए - यदृच्छा से, सहावेण - स्वभाव से, वावि - अथवा, दइवतप्पभावओ - दैव-भाग्य के प्रभाव से, भवइ - होता है, णत्येत्थ - नहीं है, किंचि - कुछ भी, कयगं - कृतक, तत्तं - तत्त्व, लक्खणविहाणणियत्तीए - लक्षण विधान और नियति से, कारियं - किये गये हैं, जंपति - कहते हैं, इड्डि-रस-साया-गारवपरा - ऋद्धि, रस और साता के गर्व में गृद्ध बने, बहवे - बहुत-से, करणालसा - कर्त्तव्य में आलसी, परूति - प्ररूपणा करते हैं, धम्मवीमंसएणं- धर्म के विमर्श से, मोसं - मृषा। . ... भावार्थ - कोई ऋद्धि; रस और साता के गौरव में लिप्त बने हुए वादी कहते हैं कि - इस जीवलोक में जो कुछ सुकृत और दुष्कृत दिखाई देता है, यह सब यदृच्छा (अकस्मात्) से या स्वभाव से अथवा नियति के प्रभाव से है। पुरुषार्थ से उत्पन्न करने योग्य कुछ भी वस्तु नहीं है। नियति के द्वारा पदार्थों का लक्षण और विधान किया गया है अर्थात्-पदार्थ के स्वरूप और भेदों को उत्पन्न करने वाली नियति है। इस प्रकार कहने वाले वादी सम्यक् चारित्र में पुरुषार्थ करने में आलसी हैं। बहुत-से लोग धर्म की आलोचना करके, धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म बतलाते हुए मिथ्या प्ररूपणा करते हैं। विवेचन - सूत्रकार अब यदृच्छावादियों के मिथ्यावाद का उल्लेख करते हैं। यदृच्छा का अर्थ'इच्छानुसार' होता है। बिना किसी कारण के जो अकस्मात् हो जाये, अपने-आप बन जाये, अर्थात् बिना किसी निमित्त के कार्य होना-'यदच्छावाद' है। दैववाद-भवितव्यतावाद का समावेश भी इसी में होता है । यदृच्छावादी मानता है कि जिसको जो मिलता है या बिछुड़ता है अथवा सुख-दुःख जीवन-मरणादि सभी कार्य अपने आप ही होते रहते हैं। वे यहाँ काकतालीय न्याय देते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार ताड़फल का गिरना और कौए का आना अकस्मात् ही होता है, उसी प्रकार सभी कार्य बिना किसी कारण के अकस्मात बनते रहते हैं। इसमें कोई अन्य शक्ति कारण नहीं बनती और न * टीकाकार ने लिखा- 'यदृच्छावादीनो यथा-सर्व इश्वरेच्छया-यदृच्छया निष्पद्यते न कोऽपि कर्ता.........यह कुछ समझ में नहीं आता, क्योंकि ईश्वरेच्छा मानने पर तो कर्ता-निमित्त मानना पड़ता है। किन्तु यदृच्छावादी किसी निमित्त को नहीं मानता, अतएव विचारणीय है। For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०२ पुरुषार्थ ही कारण बनता है। इस प्रकार अपने मत का प्रदर्शन करते हुए वे नास्तिकवादी लोग उपदेश करते हुए कहते हैं कि- . . दान, व्रत, पौषध, तप, संयम और ब्रह्मचर्यादि कल्याणकारी अनुष्ठानों का सेवन करके कष्ट उठाने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इन अनुष्ठानों का कोई फल नहीं है। पर-भव में प्राप्त होने वाले फल का भोक्ता कोई आत्मा है ही नहीं, तो दान-व्रतादि का पालन व्यर्थ ही है। इसी प्रकार प्राणी-वध, मृषावाद, चोरी करना, पर-स्त्री गमन करना और परिग्रह रखने से कोई पापकर्म नहीं होता। वे मानते हैं कि यह सब स्वभाव से ही होता है, कर्म से नहीं। जैसे - _ 'कण्टकस्य प्रतीक्ष्णत्वं, मयूरस्य विचित्रता। __ वर्णाश्च ताम्रचूड़ानाम्, स्वभावेन भवन्तिहि॥' - कांटे की तीक्ष्णता, मयूर-पंखों की विचित्रता और मुर्गे के पंखों के रंग, ये सब स्वभाव से ही होते हैं। ___ प्रत्येक वस्तु की अपने स्वभाव के अनुसार ही उत्पत्ति, वृद्धि और स्थिति और विनाश होता है। आम के बीज में से आम ही निकलता है, नींबू नहीं। गाय से गधा, घोड़ा या हाथी उत्पन्न नहीं होता। स्वभाव के अनुसार ही सब कुछ होता है। स्वभाव के प्रतिकूल कुछ भी नहीं हो सकता। लोक में जो कुछ हो रहा है, हुआ और आगे जो कुछ होगा, वह सब स्वभाव का ही परिणाम है। __इस प्रकार स्वभाववादी नास्तिक कहते हैं। वे जीव, कर्म, गति-आगति, लोक-परलोक, पुण्यपाप और धर्माधर्म नहीं मानकर केवल स्वभाव को ही मानते हैं। यह उनका मृषावाद है। प्रत्येक कार्य किसी को लिए हुए होता है। विविधता एवं विचित्रता अपने-अपने कारण से उत्पन्न होती है केवल स्वभाव से नहीं होती। स्वभाववादी यह नहीं सोचता कि केवल वस्तु -स्वभाव से ही कार्य सिद्धि नहीं होती, पुरुषार्थ, काल आदि कारण भी आवश्यक हैं। आम के बीज में फल देने का स्वभाव होते हुए भी बिना पुरुषार्थ और काल आदि के फल नहीं मिलता। यदि उस बीज को कोई आग पर रख दे, तो वह और उसका स्वभाव जलकर नष्ट हो जाता है। यदि पत्थर या लकड़ी अथवा पेटी में पड़ा रहे तो भी स्वभाव फलप्रद नहीं होता। जब माली उसे भूमि में बोएगा, उचित समय पर पानी आदि देगा और विनाशक तत्त्वों से रक्षा करेगा, तभी वह स्वभाव, काल परिपक्व होने पर फल देगा। वह फल भी माली के भाग्य में होगा, तो मिलेगा अन्यथा उसेक पुरुषार्थ का फल कोई दूसरा ही भोगेगा। औषधि में रोग मिटाने का, भोजन में क्षुधा शान्त करने का और पानी में प्यास बुझाने का स्वभाव होते हुए भी पुरुषार्थ के बिना कार्य-साधक नहीं बनते। अतएव स्वभाववादी का एकान्तवाद मिथ्या है, . उसका वाद-मृषावाद है। For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृषावाद *******00000**************************************************** नास्तिक लोग नरक तिर्यंच मनुष्य और देवलोक भी नहीं मानते और सिद्ध गति के प्रति भी ये नास्तिक ही हैं। ये लोग कहते हैं कि माता-पिता का नाता भी नहीं है। उत्पत्तिमात्र कारण से माता-पिता का नाता मानना और उनको सेव्य बतलाना असत्य है। मनुष्यादि की उत्पत्ति भी स्वभाव से ही होती है। उत्पन्न होने वाला अपने स्वभाव से किसी भी स्त्री-पुरुष के योग से उत्पन्न हो सकता है। इसमें मातापिता की कल्पना करना और उनका ऋण मानकर सत्कार-सेवादि करना व्यर्थ है। नास्तिकों का उपरोक्त कथन भी असत्य है। क्योंकि उत्पत्ति तो अन्य सचित्त-अचित्त पदार्थों की भी होती है, जैसे-शरीर से यूका (जू) लीख, मांकड़, नारू, कृमि आदि सचेतन जीव भी उत्पन्न होते हैं और मल-मूत्र-श्लेष्मादि अचित्त पदार्थ भी। किन्तु इन सबके प्रति जनक की पुत्र-भावना-वात्सल्य नहीं होता। पुत्र के प्रति गर्भकाल से ही हितकामना, स्नेह-सम्बन्ध एवं अपनत्व रहता है। इसी भावना से माता-पिता, पुत्र का पालन-पोषण और रक्षण करते हैं। सन्तान के हित के लिए चिन्तिन रहते और अपना भोग देते हैं। अतएव माता-पिता की श्रेष्ठता सेव्यता एवं पूज्यता मानना उचित ही है। यदि नास्तिकों को माता-पिता का स्नेह एवं वात्सल्य प्राप्त नहीं होता, तो वे यूका, मत्कुण और कृमि के समान तड़पकर मर जाते। उनके खान-पान, वस्त्र, औषधि एवं शिक्षादि से पोषण, रक्षण एवं संवर्धन का कार्य नहीं होता। अतएव माता-पिता और उनके प्रति सन्तान के कर्तव्य तथा उसका फल मानना उचित एवं सत्य है। 'नियतिवादी' - नियतिवाद को 'दैव' या 'भवितव्यतावाद' भी कहते हैं। नियतिवादी नास्तिक कहते हैं कि - पुरुषार्थ, कर्म, काल, स्वभावादि से कुछ भी कार्य नहीं होता, जो भी कार्य होता है, वह भवितव्यता से ही होता है। कहा है कि - "प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थः? सोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा। भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ले, नाभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः॥" - वही होता है जो नियति के बल से प्राप्त होने योग्य है, चाहे वह शुभ हो या अशुभ। प्राणी चाहे कितना ही प्रयत्न करे, जो होने वाला है, वह अवश्य होता है और नहीं होने वाला कदापि नहीं होता। ..अकेली भवितव्यता को ही सबकुछ मानकर यह वादी, पुरुषार्थ आदि सभी कारणों का निषेध करता है। इसका तर्क है कि यदि पुरुषार्थ ही से सब कुछ होता है, तो पुरुषार्थ तो सभी लोग करते हैं, फिर फल सबको समान रूप से क्यों नहीं मिलता? सभी उद्यमी मनुष्य सुखी ही होना चाहिए, दुःखी कोई नहीं रहना चाहिए। बहुत-से लोग उद्योग करते हुए भी दुःखी देखे जाते हैं। इसका यही कारण है कि नियति उनके अनुकूल नहीं है। नियति - भवितव्यता को अन्यथा करने की शक्ति किसी में भी नहीं है। यह सर्वोपरि एवं स्वयंभू है। यथा - For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०२ ***** "उदयति यदि भानुः पश्चिमायां दिशायां। प्रचलति यदि मेरुः शीततां यातित वन्हिः॥ विकसति यदि पद्मं, पर्वताग्रं शिलायां। तदपि न चलतीयं, भाविनी कमरेखा॥" - (यद्यपि सूर्य पूर्व दिशा में ही उदय होता है, तथापि किसी कारण) सूर्य, पश्चिम में उदय हो जाय, स्थिर सुमेरु पर्वत चलायमान हो जाये, उष्णस्वभावी अग्नि शीतल हो जाये, पर्वत पर रही हुई शिला पर कमल उत्पन्न हो जाय, ये सब अनहोने कार्य कभी दैवयोग से हो भी जाये; परन्तु भावीभाव की जो कर्म रेखा खींच गई, वह कभी अन्यथा नहीं होती। नियति का नियम अपरिवर्तनीय है। काल, स्वभाव या पुरुषार्थ किसी की भी शक्ति नहीं जो नियति को अन्यथा कर सके। नियति की प्रतिकूलता से पुरुषार्थ का फल व्यर्थ हो जाता है, विपरीत हो जाता है और बिना पुरुषार्थ के ही कोई दूसरा उस फल को प्राप्त कर लेता है। ___सपेरे के एक पिटारे (करंडिये) में सांप बन्द था और दूसरे में सपेरे का सामान तथा खाने-पीने की चीजें। एक चूहा मिष्टान्न की सुगन्ध से आकर्षित होकर आया और पिटारा काटने लगा। चूहे को मिष्टान्न खाने की लालसा थी। वह शीघ्रता से काटने लगा। उस पिटारे में रहा हुआ बन्दी सांप भूखा था, वह स्वतंत्र होने के लिए छटपटा रहा था। अचानक पिटारा कटा, चूहा पिटारे में घुसा, उधर सर्प मुंह खोले तैयार ही था। चूहे को गटक गया और उसी मार्ग से बाहर निकल कर चल दिया। चूहे के लिए पुरुषार्थ का फल विपरीत-विनाशक हुआ और उसके पुरुषार्थ का फल सांप को दोहरा मिला। भूख मिटी और स्वतंत्रता मिली। सांप बिना पुरुषार्थ के ही फल पा गया। यह सब नियति का ही प्रभाव है। कहा है कि - कान्तं वक्ति कपोतिका कुलतया, नाथान्तकालोऽधुना। व्याधोऽधो धृतचापसज्जितशरः श्येनः, परिभ्राम्यति॥ इत्थं चिन्तयतोः सदष्ट इषुणा, श्येनोऽपि तेनाहत। स्तुणं तौ तु यमालयं प्रतिगतो, दैवी विचित्रा गतिः॥१॥ - एक कबूतर के जोड़े को ऊपर से बाज झपटकर हड़पना चाहता था और नीचे शिकारी बाण मारकर गिराने के लिए निशाना साधे हुए था। कपोतिका अपने पति से कहती है - 'हे नाथ! अब अपना अन्तकाल आ गया। इस दोहरे संकट से हम बच नहीं सकेंगे। वे दोनों चिन्ता-मग्न थे कि बिल में से एक सर्फ निकला और शिकारी के पांव में डसा। शिकारी विचलित हो गया। उसके हाथ कम्पित हो गए और बाण छूटकर बाज के जा लगा। बाण लगने से बाज मर गया और सांप के विष से शिकारी भी मर गया। इस प्रकार कबूतर का जोड़ा सुरक्षित रह गया। यह दैवी-भवितव्यता की विचित्र गति है। For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृषावाद *************************************************************** फिर नियतिवादी कहता है - "प्राप्तव्यमर्थ लभते मनुष्यः, किं कारणं ? दैवमलंघनीयं । तस्यान्न शोचामि न विस्मयामि, यदस्मदीयं नहि तत्परेषाम्॥" - मनुष्य को जो प्राप्त होने वाला है, वही मिलता है, अन्य नहीं मिलता। इसका क्या कारण है?-क्योंकि भवितव्यता अलंघनीय-अनिवार्य होती है। इसलिए न तो चिंता करनी चाहिए और न आश्चर्य ही करना चाहिए। और भी कहा है कि - "सा सा संपद्यते बुद्धि र्व्यवसायश्च तादृशः। सहायास्तादृशा ज्ञेया, यादृशी भवितव्यता॥" - जीव की जैसी भवितव्यता होती है, वैसी ही बुद्धि हो जाती है, प्रयत्न भी वैसा ही होता है और सहायता भी उसी प्रकार की प्राप्त होती है। - इस प्रकार नियतिवादी अपने एकान्तवाद का प्रचार करता हुआ असत्य भाषण करता है। वास्तव में नियति कोई स्वतंत्र शक्ति नहीं है। यह भी पुरुषार्थ का परिणाम है। पुरुषार्थ से नियति का निर्माण हुआ है। जीव के द्वारा बांधे हुए शुभाशुभ निकाचित कर्म से ही नियति भवितव्यता बनती है। यह नियति पुरुषार्थ की अपेक्षा रखती ही है और पुरुषार्थ के बिना नियति सफल भी कैसे हो सकती है? भोजन सामने रखा है, खाने की इच्छा भी है, किन्तु हाथ से उठाकर मुंह में रखने और चबाकर गले के नीचे उतारने रूप पुरुषार्थ किया जाएगा तभी भवितव्यता सफल होगी। यदि हाथ से उठाकर मुंह में नहीं रखा जाएगा, तो भवितव्यता बरबस पेट में नहीं पहुँचा देगी। अते नियतिवाद को भी पुरुषार्थ उद्योग-उद्यम की अपेक्षा मानना ही चाहिए। भवितव्यता अनुकूल होने पर भी उद्यम होने पर ही वस्तु की प्राप्ति होती है - 'उद्यमे नास्ति दारिद्र्यं'। बिना पुरुषार्थ के तो संमुख उपस्थित रत्नों का ढेर भी प्राप्त नहीं हो सकता। अतएव नियतिवाद भी असत् पक्ष है। __ एकांत नियतिवादी गोशालक-मति देव और भगवान् महावीर के उपासक सुश्रावक कुण्डकौलिक का, सम्वाद उपासकदसा सूत्र अध्ययन ६ में है। देव ने नियतिवाद का पक्ष उपस्थित करते हुए कहा था "सभी पदार्थ भावीभाव के अनुसार बनते हैं। किसी के करने-धरने से कुछ नहीं होता।" इसके उत्तर में कुण्डकौलिक ने कहा____ 'यदि सभी भाव नियति से ही बनते हैं और पुरुषार्थ से कुछ भी नहीं होता, तो तुम्हें यह देव सम्बन्धी ऋद्धि कैसे प्राप्त हो गई? क्या बिना पुरुषार्थ के ही मिल गई?' । .. - "हाँ, भवितव्यता से ही मिली है" - देव ने अपने पक्ष का निर्वाह करते हुए कहा। For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ******** ८४ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०२ **************************************************** ___- 'यदि तुम्हें नियति से ही यह देवर्द्धि प्राप्त हुई है, तो अन्य जीवों को-मनुष्यों, पशु-पक्षियों और कीडों-मकोडों को ऐसी ऋद्धि क्यों नहीं मिली? उनकी भवितव्यता में कौन बाधक बना?' इस प्रश्न ने देव को अवाक् कर दिया। वह निरुत्तर हो गया। वह समझ गया कि इस विभिन्नता का कारण प्रत्येक प्राणी का पुरुषार्थ है। भगवान् महावीर ने कुंडकौलिक के इस उत्तर की प्रशंसा की। उपासकदसा सूत्र के ७ वें अध्ययन में नियतिवादी गोशालकमति सद्दालपुत्र से स्वयं भगवान् महावीर का वाद हुआ था। भगवान् महावीर, कुंभकार सद्दालपुत्र की कुंभकार शाला में ठहरे थे। अन्यदा कुंभकार अपने मिट्टी के बरतन सुखाने के लिए धूप में रख रहा था, तंब भगवान् महावीर ने उससे पूछा "सद्दालपुत्र! ये मिट्टी के बरतन कैसे बने-किसने बनाये?" "भगवन्! यह पहले मिट्टी थी। मिट्टी में पानी मिला, राख मिली, चाक पर चढ़ा और बरतन बन । गए" - सद्दाल ने अपने सिद्धान्त का निर्वाह करते हुए कहा। "सद्दालपुत्र! ये पात्र पुरुषार्थ-उद्यम से बने या बिना किसी के उद्यम किये, यों ही बन गए'- " भगवान् ने फिर पूछा। ____ "भगवन्! ये पात्र बिना पुरुषार्थ के ही बन गए। इनके बनने में पुरुषार्थ नहीं लगा।"-अपने मत का बचाव करते हुए कुंभकार ने कहा। "सद्दालपुत्र! इन बरतनों को कोई उठा कर ले जाये, चुरा ले या तोड़-फोड़ दे, तो तुम चुपचाप रहोगे? इन्हें बचाने का प्रयत्न नहीं करोगे? उस चुराने या तोड़-फोड़ करने वाले पर तुम क्रोध नहीं करोगे? फिर सुनो-यदि कोई कामुक व्यक्ति तुम्हारी पत्नी-अग्निमित्रों के साथ कुकर्म करने की चेष्टा करे, तो क्या तुम भवितव्यता को पकड़े रहकर चुप ही रहोगे" - भगवान् महावीर ने प्रबल युक्ति उपस्थित की। ___- "भगवन् ! मैं चुप कैसे रहूँगा? मैं उस दुराचारी को मारूंगा, पीयूँगा और उसका प्राणान्त भी कर दूंगा।" - किंचित् आवेश के साथ सद्दालपुत्र ने कहा। - "सद्दालपुत्र! ऐसा करना तो तुम्हारे मान्य नियतिवाद के विरुद्ध होगा। जब बरतनों का बननाबिगड़ना, चोरी जाना, टूटना और तुम्हारी पत्नी के साथ कुकर्म करना-ये सब नियतिवाद के आधीन हैं। इनमें किसी का कुछ भी पुरुषार्थ नहीं है, तो तुम किसी दूसरे को दण्ड कैसे दे सकते हो? तुम्हें तो अपने सिद्धान्त के अनुसार चुप ही रहना चाहिए। यदि तुम क्रुद्ध होकर दण्ड देते हो, तो तुम्हारा सिद्धान्त मिथ्या ठहरता है"-भगवान् ने नियतिवाद की एकान्तता का खोखलापन सिद्ध किया। सद्दालपुत्र नियतिवाद में रहे हुए मिथ्यात्व को समझ गया और उसका त्याग करके भगवान् का उपासक बन गया। टीकाकार ने यहां कालवाद का भी उल्लेख किया है। कालवादी कहता है कि - For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५ झूठा दोषारोपण करने वाले निन्दक ******** ******** ************************* ************* - "कालः सृजति भूतानि, कालः संहरते प्रजाः। काल: सुप्तेषु जागर्ति, कालो हि दुरतिक्रमः +॥" - - काल ही भूतों (जीवों) को बनाता है, काल ही नष्ट करता है और जब सारा जगत् सोता रहता · है, तब काल ही सदा जाग्रत रहता है। काल-मर्यादा का उल्लंघन कोई नहीं कर सकता। संसार में अनेकवाद चले और चल रहे हैं। कही काल को महत्त्व देता है, तो कोई स्वभाव को और कोई कर्म, पुरुषार्थ, नियति, प्रकृति और ईश्वर आदि को महत्त्व देता है। जैन दर्शन काल आदि पांचों समवायों को मानता है। पूर्वाचार्य ने कहा है कि - "कालो सहाव नियई पुवकयं पुरिसकारणेगंता। मिच्छत्तं ते चेव उ समासओ होंति सम्मत्तमिति॥" - काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकर्म और पुरुषकार-पराक्रम, ये पृथक्-निरपेक्ष हों, तो मिथ्यात्व हैं, किन्तु वे ही सब मिलकर सम्यक्त्व हो जाते हैं। . इस प्रकार भिन्न-भिन्न वादी, सृष्टि-निर्माण आदि विषयों में मिथ्या प्ररूपणा करके मृषावाद नाम का दूसरा पाप करते हैं। . .... झूठा दोषारोपण करने वाले निन्दक । अवरे अहम्मओ रायगुटुं अब्भक्खाणं भणंति अलियं चोरोत्ति अचोरयं करेंतं डामरिउत्ति वि य एमेव उदासीणं दुस्सीलोत्ति य परदारं गच्छइत्ति मइलिंति सीलकलियं अयं वि गुरुतप्पओ त्ति। अण्णे एमेव भणंति उवाहणंता मित्तकलत्ताई सेवंति अयं वि लुत्तधम्मो इमोवि विस्संभवाइओ पावकम्मकारी अगम्मगामी अयं दुरप्या बहुएसु य पावगेसु जुत्तोत्ति एवं जंपंति मच्छरी। भद्दगे वा गुणकित्ति-णेह-परलोयणिप्पिवासा एवं ते अलियवयणदच्छा परदोसुप्पायणप्पसत्ता वेढेंति। अक्खाइय बीएणं अव्याणं कम्मबंधणेण मुहरी असमिक्खियप्पलावा। शब्दार्थ - अवरे - दूसरे, अहम्मओ - अधर्म से, रायदुटुं - राज्य-दुष्ट-राज्य विरुद्ध, अब्भक्खाणं - अभ्याख्यान-दोषारोपण, भणंति - बोलते हैं, अलियं - मिथ्या, चोरोत्ति - चोर कहते, + यह श्लोक 'महाभारत" आदिपर्व (१। २४८, २४९) में इस प्रकार हैं - "कालःसृजति भूतानि, कालःसंहरते प्रजा। संहरन्तं प्रजाःकालं, कालःशमयते पुनः॥ कालोहि कुरुते भावान, सर्वलोके शुभाशुभान्।कालः सक्षिपते सर्वाः प्रजा विसृजते पुनः।। अर्थ- काल भूतों का सर्जन करता है, काल ही प्रजा का संहार करता है। उस संहारक काल को काल ही शान्त करता है। समस्त लोक के शुभाशुभ भावों को काल ही उत्पन्न करता है और समस्त प्रजा का संहरण भी काल ही करता है और फिर वही सर्जन भी करता है। For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ०२ *************************************************** * अचोरियं करेंतं - जो चोरी नहीं करता, डामरिउत्ति- कलह करने वाला बतलाते हैं, एमेव - इसी प्रकार, उदासीणं - जो उदासीन-तटस्थ हैं उसे, दुस्सीलोत्ति - दुश्चरित्र-दुराचारी कहते हैं, परदारंगच्छइत्ति - पर-स्त्री के साथ गमन करता है, मइलिंति - मलिन करते हैं, सीलकलियं - शील से युक्त को, अयं - यह, गुरु-तप्पओ - गुरु तल्पक-दुर्विनीत अथवा गुरु-पत्नी गामी, अण्णे - अन्य-दूसरे, भणंति - कहते हैं, उवाहणंता - उपनन्त-प्रतिष्ठा या आजीविका का नाशक, मित्तकलत्ताई - मित्र की पत्नी का, सेवंति - सेवन करता है, लुत्तधम्मो - धर्मलुप्त-धर्मशून्य या धर्म रहित, इमोवि - यह, विस्संभवाइओ- विश्वासघाती, पावकम्मकारी - पापकर्म करने वाला, अगम्मगामी - अगम्यगामी, दुरप्पा - दुरात्मा, बहुएसु - बहुत ही, पावगेसु - पापों से, जुत्तोत्ति - युक्त हैं, जेपंति - कहते हैं, मच्छरी - मत्सरी-जलनशील-डाह करने वाला, भद्दगे - भद्रपरिणामी, गुणकित्तिणेह - गुण, कीर्ति, स्नेह, परलोय - परलोक की, णिप्पिवासा - इच्छा से रहित, अलियवयणदच्छा - झूठ बोलने में दक्ष-चतुर, परदोसुप्पायणप्पसत्ता - दूसरों पर दोषारोपण करने में आसक्त, वेलेंति - वेष्टयंति-लपेटते हैं, अक्खाइय बीएणं - अक्षतिक बीज-अक्षय दुःख के कारणभूत, अप्पाणं - आत्मा को, कम्मबंधणेण - कर्म-बन्धनों से, मुहरी - मुखरी-वाचालता, असमिक्खियप्पलावा - बिना सोचे वचन बोलने वाले। . भावार्थ - कितने ही लोग अधर्म से प्रेरित होकर राज्य-विरुद्ध बोलते हैं। दोषारोपण करते हैं। जो चोरी नहीं करता, उस पर वे झूठा दोष मढ़कर 'चोर' कहते हैं। तटस्थ एवं उदासीन व्यक्ति को वे लड़ाकू-झगड़ा करने वाला और क्लेश बढ़ाने वाला कहते हैं। वे सदाचारी को दुराचारी कहते हैं और कहते हैं कि - यह पर-स्त्री गामी है। इस प्रकार वे उसके जीवन को मलिन बतलाते हैं। उसकी प्रतिष्ठा गिराने का प्रयत्न करते हैं। किसी के लिए कहते हैं कि यह गुरु-दुर्विनीत (गुरु को कष्ट देने वाला) अथवा गुरु-पत्नी का भोग करने वाला है। कई लोग दूसरे की प्रतिष्ठा को नष्ट करने या आजीविका से वंचित करने के लिए यों कहते हैं कि - 'यह मनुष्य अपने मित्र की पत्नी से गमन करता है, यह धर्म-शून्य अथवा धर्मलोपक है, यह विश्वासघाती है, यह पापी है, यह अगम्यगामी (माता, भगिनी, साध्वी आदि के साथ गमन करने वाला) है। यह दुरात्मा (दुष्ट आत्मा अधम जीव) है और अमुक व्यक्ति बहुत-से पाप कृत्यों से भरा हुआ है। इस प्रकार दूसरों से डाह करने वाले, किसी का हित-सुख सहन नहीं कर सकने वाले जलनशील लोग, मिथ्या बोलते हैं। वे मिथ्यावादी लोग, भद्रपुरुषों को दोषी बतलाते हैं। वे स्वयं गुण, कीर्ति, स्नेह और परलोक की इच्छा से रहित होते हैं। वे मिथ्याभाषण करने में निपुण, दूसरों पर दोषारोपण करने में रत-आसक्त और बड़े वाचाल होते हैं। वे अक्षय-दृढ़तम कर्मबन्धनों से अपनी आत्मा को लिप्त करके जकड़ लेते हैं। विवेचन - कई लोगों में दूसरों की निन्दा करने की रुचि होती है। वे अपनी इस अधम रुचि के वशीभूत होकर सच्चे, सदाचारी और गुणवान् व्यक्तियों की भी निंदा करते हुए उन पर झूठे दोष मढ़ते हैं। उन्हें उन सद्गुणियों की प्रतिष्ठा एवं उन्नति सहन नहीं होती। वे दूसरों का उत्थान देखकर जलते For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - लोभजन्य अनर्थकारी झूठ ८७ ***** * * ************************************** हैं। उनके मन में डाह उत्पन्न होती है। इसलिए वे उन पर झूठे दोषारोपण करते हुए मृषावाद का पाप करते हैं। रायदुदु - राजदुष्ट-राज्य एवं राजा के लिए अहितकारी, अवांछनीय, जनहित, न्याय, नीति, शांति एवं सुरक्षा को क्षति पहुंचाने वाला। जनता में पतन के कारण ऐसी पापी प्रवृत्ति बढ़ाने वाला। भद्दगे - भद्रक-सरल स्वभावी, स्वच्छहृदयी, कूड़-कपट-छल-प्रपंचादि रहित। सीधे-सादे मनुष्य। लोभजन्य अनर्थकारी झूठ --णिक्खेवे अवहरंति परस्स अथम्मि गढियगिद्धा अभिजुंजंति य परं असंतएहिं लुद्धा य करेंति कूडसक्खित्तणं असच्चा अत्थालियं च कण्णालियं च भोमालियं च तह गवालियं च गरुयं भणंति अहरगइगमणं अण्णं पि य जाइरूवकूलसीलपच्चयं मायाणिउणं चवलपिसुणं परमट्ठभेयगमसगं विद्देसमणत्थकारगं पावकम्ममूलं दुद्दिटुं दुस्सुयं अमुणियं णिल्लजं लोयगरहणिजं वहबंधपरिकिलेसबहुलं जरामरणदुक्खसोयणिम्मं असुद्धपरिणामसंकिलिटुं भणंति। शब्दार्थ - णिक्खेवे - निक्षेपक-धरोहर रखने वाला, अवहरंति - हरण करते हैं, परस्स - . दूसरों को, अत्यम्मि - अर्थ-धन में, गढियगिद्धा - अत्यन्त लुब्ध, अभिजुंजंति - अभियोग-आरोप लगाते हैं, असंतएहिं - मिथ्या दोषों का, लुद्धा - लुब्ध-आसक्त, करेंति - करते हैं, कूडसक्खित्तणं - झूठी साक्षी, असच्चा - असत्य, अत्थालियं - अर्थालीक-धन के लिए झूठ, कण्णालियं - कन्यालीक-कन्या सम्बन्धी झूठ, भोमालियं - भूमि सम्बन्धी मृषा, गवालियं - गाय-भैंसादि सम्बन्धी असत्य, गरुयं - बहुत भारी-महान् अनर्थकारी, भणंति - कहते हैं, अहरगइगमणं - अधोगति की ओर गति कराने वाला, अण्णं - अन्य भी, जाइरूवकूलसील - जाति रूप, कुल, शील, पच्चयं - प्रत्ययक-संबंधी, मायाणिउणं - माया में निपुण अथवा माया के कारम, चवल - चंचल, पिसुणं - पिशुन-चुगलखोर, परमट्ठभेयगमसगं - परमार्थ का भेदन करने वाला असत्य, विद्देस - विद्वेष, मणत्थकारगं - अनर्थकारी, पावकम्ममूलं - पापकर्मों का मूल, दुटुिं - दुर्दृष्ट-दुष्ट दृष्टि वाला, दुस्सुयं - दुःश्रुत-नहीं सुनने योग्य, अमुणियं - अमुणित-अज्ञात, णिल्लजं - निर्लज्ज, लोयगरहणिज्जे - लोक में निन्दित, वहबंध - वध और बन्धन, परिकिलेस - क्लेश, बहुलं - अधिकता से, जरामरणदुक्ख - बुढ़ापा और मृत्यु के दुःख, सोयणिम्मं - शोक का कारण, असुद्धपरिणाम - बुरे भाव, संकिलिटुं - क्लेश का कारण, भणंति- बोलते हैं। भावार्थ - झूठे लोग दूसरों की धरोहर (धन) दबाने के लिए असत्य भाषण करते हैं और दूसरों 0 'मायाणिगुण' पाठ भी है, जिसका अर्थ किया है-निन्दारूप माया युक्त होने के कारण निर्गुण-स्व-पर-हित वर्जित। For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ० २ पर झूठा दोषारोपण करते हैं। धन में लुब्ध बने हुए वे झूठी साक्षी भी देते हैं। महान् अनर्थकारी ऐसे धन के लिए, कन्या के लिए, भूमि सम्बन्धी और गाय, बैल, भैंस आदि के विषय में झूठ बोलते हैं। ये सभी प्रकार के झूठ अधोगति में ले जाने वाले हैं। इसके अतिरिक्त वे जाति, कुल, रूप और शील के विषय में भी लोगों में असत्य प्रचार करते हैं। कोई माया-निपुण है-लोगों को छल से ठगने में कुशल है, चपल है और कोई चुगलखोर है। मिथ्या-भाषण परमार्थ (मोक्ष) मार्ग को नष्ट करने वाला है, विद्वेष उत्पन्न करने वाला है, द्वेष वर्द्धक है, अनर्थकारी है और पापकर्मों का मूल है। असत्यवाद और कुदृष्टियुक्त है। मिथ्या-भाषण तो सुनने के योग्य भी नहीं होता। कूड़ भाषण, समझ में नहीं आने योग्य होता है। मिथ्याभाषी लोग लज्जारहित होते हैं। वे लोक में निन्दनीय होते हैं। असत्य-भाषण का परिणाम दंड, वध, बन्धन (कारागार) और क्लेश की बहुलता वाला होता है। इसके फलस्वरूप जीव जरा, मृत्यु और शोकजनक अवस्था के दुःख भोगता रहता है। मिथ्या-भाषण बुरे परिणाम तथा संक्लेश का कारण है। . विवेचन - पूर्व सूत्र में दूसरों पर मिथ्या दोषारोपण करने वाले मृषावादियों का परिचय दिया गया है। इस सूत्र में लोभवश छल-प्रपंच कर मिथ्या-भाषण करने वालों का उल्लेख है। जो मृषावादी हैं, वे मायाचारी भी होते हैं। जान-बूझकर बोले हुए झूठ में माया छुपी हुई रहती है। वह माया-मृषा, उस कूटभाषी को अधोगति में ले जाती है। ऐसे मायाचारी लोग मोक्ष-मार्ग के नाशक-लोपक और पापमार्ग के पोषक होते हैं। ऐसे माया-निपुण एवं चालाक लोग सीधे-सादे मनुष्यों को भ्रम में डालकर सत्-पथ से वंचित कर देते हैं। इस प्रकार पाप का फल बहत द:खदायक होता है। असत्य से सत्य-शुभ की प्राप्ति नहीं हो सकती। असत्य से अशुभ ही मिलता है और उसका परिणाम भी अशुभ-दुःखदायक होता है। असत्योच्चारण करते समय मन में माया की काली छाया होती है-कुटिलता होती है। वह म.याचारी दूसरों को संक्लेश-हानि पहुंचाने के लिए मन में जाल बुनता है। उसकी वह मानसिक संक्लिश्यता परिपक्व हो जाने पर खुद को संक्लेशमय (क्लेश से परिपूर्ण) बना देती है-गुणित दर गुणित बढ़कर। असत्य-भाषण में असत्य लेखन और असत्य संकेत का भी समावेश हो जाता है। जिस प्रकार असत्य-भाषण पाप और दुःखदायक है, उसी प्रकार असत्य लेखन और असत्य संकेत भी है। इनका समावेश भी असत्य-भाषण में ही हो जाता है। अपनी असत्य बात-मुंह से बोलकर सुनाई जाये, पत्र आदि पर लिखकर या संकेत से बताई जाये। इन सब का आशय अपने भाव दूसरों को समझाना है और यह कार्य भाषण के समान लिपि एवं संकेत से भी हो सकता है। . __अर्थालीक - अर्थ (धन) सोना, चांदी आदि धातु, रुपया-पैसा आदि सिक्का, मणि, मोती, रत्न, आभूषण, वस्त्रादि, भूमि, घर, गाय, भैंस आदि पशु इत्यादि के लिए झूठ बोलना। स्वार्थवश (मतलब गांठने के लिए) झूठ बोलना। For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उभय- घातक ************ भूमि प्राप्त करने अथवा बेचने के लिए झूठ बोलना । अच्छी को बुरी, बुरी को भोमालीक अच्छी बतलाना । कन्यालीक - कन्या देने या प्राप्त करने में असत्य भाषण करना, दोष को गुण अथवा गुण को दोष बतलाना । गवालीक - गाय, भैंस, बैल, घोड़ा आदि पशुओं के विषय में असत्य बोलकर स्वार्थ साधना । परमार्थ भेदक परम अर्थ - उत्कृष्टतम प्रयोजन, विशुद्धतम ध्येय अर्थात् मोक्ष का उद्देश्य । आत्मा को परमात्म दशा प्राप्त कराने का लक्ष्य। इस परमार्थ का भेदक = मोक्ष मार्ग को नष्ट करने वाला । मोक्ष-मार्ग से जीवों को हटाने का प्रयत्न करने वाला। धर्म के नाम से अधर्म का प्रचार करने वाला - परमार्थ-भेद है। दुर्दृष्ट- जिसकी दृष्टि बुरी है, जो मिथ्यादृष्टि है, जो कुमार्ग दिखाने वाला है। जो धर्म धर्म के रूप में देखता और दूसरों को दिखाता है । दुःश्रुत - जिसके वचन सुनने योग्य नहीं । सत्यवादी एवं धर्मात्मा जिसके वचन सुनना नहीं चाहते। ८९ अमुणियं अमुणित (अज्ञात) जिसका आशय समझ में नहीं आ सके। मायाचारी झूठे व्यक्ति के शब्दों के पीछे जो भाव होता है, वह सुनने वालों की समझ में नहीं आता। जरा - बुढ़ापा । वैसे बुढ़ापा सभी लम्बी आयु वालों को आता है, किन्तु पापकर्मों के विशेष उदय वाले जीव के युवावस्था में भी जरा जैसी दशा प्राप्त हो जाती है। वह युवावस्था में भी बुढ़ापे - सी अवस्था का अनुभव करता है। उसकं, युवावस्था में भी अंग-प्रत्यंग शिथिल, रोगग्रस्त एवं जीर्णरहते हैं । इस प्रकार पापोदय वाले जीवों को जरावस्था का दुःख चिरकाल पर्यन्त रहता है । उभय- घातक अलियाहिसंधि-सण्णिविट्ठा असंतगुणुदीरया य संतगुणणासगा य हिंसा भूओवघाइयं अलियं संपउत्ता वयणं सावज्जमकुसलं साहुगरहणिजं अहम्मजणणं भांति अणभिगय-पुण्णपावा पुणो वि अहिगरण - किरिया - पवत्तगा बहुविहं अणत्यं अवमहं अप्पणो परस्स य करेंति । शब्दार्थ - अलियाहि संधि सगिविट्ठा - जिनका आशय मिथ्या होता है वे, असंतगुणुदीरयाजिनमें गुण नहीं है, उनमें गुण बताने वाले, संतगुणणासंगा- जिनमें जो गुण हैं, उनके नाशक- लोपक, हिंसा भूओवघाइयं जीवों की हिंसा तथा उपघात करने वाले, अलियं संपउत्ता- झूठ बोलने में प्रवृत्त, वयणं - वचन, सावज्जं सावद्य पापकारी, अकुसलं अहितकारी, साहुगरहणिज्जं सज्जनों द्वारा गर्हित, अहम्मजणणं - अधर्मजनक, भांति - बोलते हैं, अणभिगय अनभिज्ञ, पुण्णपावा पुण्य For Personal & Private Use Only - - Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० २ **************************************************************** और पाप से, पुणोवि - फिर भी, अहिगरणकिरिया - अधिकरण क्रिया के, पवत्ता - प्रवर्तक, बहुविहंबहुत प्रकार से, अणत्थं - अनर्थ, अवमई - विनाश, अप्पणो परस्स- अपना और दूसरों का, करेंतिकरते हैं। भावार्थ - जिनका आशय ही मिथ्या है, ऐसे झूठे लोग अपने प्रिय की झूठी प्रशंसा करते हैं। उनमें जो गुण नहीं है, वे बताकर उन दुर्गुणियों को गुणवान् कहते हैं और गुणवानों को निर्गुणी या दुर्गुणी बताकर सद्गुणों का विनाश करते हैं। अथवा दुर्गुणों को गुण और गुणों को दुर्गुण बता कर सद्गुणों का विनाश करते हैं। जिन वचनों के बोलने से प्राणियों की हिंसा होकर विनाश होता है, ऐसा घातक एवं पापकारी वचन बोलने में वे मिथ्याभाषी लोग तत्पर रहते हैं। जो वचन अहितकारी हैं, सज्जनों द्वारा गर्हित (निन्दित) हैं, अधर्म के उत्पादक हैं, ऐसे मिथ्या वचन बोलते हैं। वे पाप और पुण्य से अनभिज्ञ और अधिकरणों (पापोपार्जन के साधनों) की क्रिया में प्रवृत्ति करने-कराने के प्रवर्तक, बहुत प्रकार से अनर्थ एवं विनाश करते हैं। विवेचन - जिनका अभिप्राय ही मिथ्या एवं पापपूर्ण है, ऐसे झूठे लोग, सच्चे को झूठा और झूठे को सच्चा, सदाचारी को दुराचारी और दुराचारी को सदाचारी, साधु को असाधु और असाधु को साधु, . पाप को पुण्य और पुण्य को पाप, धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म-इस प्रकार बुरे को भला और . भले को बुरा कहते-प्रचारित करते रहते हैं। . सद्गुणों का नाश - मृषावादी सद्गुणों का नाशक होता है। वह दुराचारियों को सदाचारी बताकर प्रचारित करता है। भोले लोग उसकी बातों में आकर उस दुराचारी पर विश्वास करके श्रद्धा करते हैं। परन्तु जब उन्हें वास्तविकता का पता लगता है, तो उनके मन से सद्गुणों के प्रति रही हुई आस्था नष्ट हो जाती है। पीतल को सोना बताकर ठगने वाले के प्रति श्रद्धा कब तक रह सकती है? वह ठगाई उसे सच्चे और सदाचारी से भी दूर रखती है। इस प्रकार मृषावादी सद्गुणों का नाशक होता है। . उभय घात - मृषावादी यदि यह समझता हो कि मेरे झूठ बोलने से दूसरे की ही हानि होती है, मेरी कुछ भी हानि नहीं होती, मैं तो लाभ में ही रहता हूँ, तो उसकी ऐसी समझ भी मिथ्या है। सर्वप्रथम उस झूठे एवं खोटे आशय वाले की आत्मा ही मलिन होती है। जिस आत्मा में पापपूर्णवंचनायुक्त भाव उठे, वह तो उसी समय पाप का अर्जन करके भारी हो चुकी। दूसरों का अपकार तो उसके बाद की बात है और निश्चित नहीं है। यदि विपक्षी का अहित नहीं होना है, तो वह झूठे मनुष्य की चालबाजी और वाक्-छल में नहीं आ कर बच जाएगा। किन्तु वह मनुष्य तो पापपूर्ण भावना से अपनी आत्मा को भारी बना ही लेगा और उभय-घातक हो जायेगा। पाप का परामर्श देने वाले एवमेयं जंपमाणा महिससूकरे य साहिति घायगाणं, ससयपसयरोहिए य साहिति For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाप का परामर्श देने वाले ******************************************* वागुराणं, तित्तिर-वट्टग-लावगे य कविंजल-कवोयगे य साहिति साउणिणं, झसमगर-कच्छभे य साहिति मच्छियाणं, संखंकेखुल्लए य साहिति मगराणं, अयगरगोणसमंडलिदव्वीकरे मउली य साहिति वालवीणं, गोहा सेहग सल्लग-सरडगे य साहिति लुद्धगाणं, गयकुलवाणरकुले य साहिति पासियाणं, सुग-बरहिण-मयणसालकोइल-हंसकूले सारसे य साहिति पोसगाणं, वहबंधजायणं च साहिति गोम्मियाणं, धण-धण्ण-गवेलए य साहिति तक्कराणं, गामागर-णगरपट्टणे य साहिति चारियाणं, पारघाइ य पंथघाइयाओ य साहिति गंठिभेयाणं कयं च चोरियं साहिति णगरगुत्तियाणं। लंछण-णिलंछण-धमण-दूहण-पोसण-वणण-दवण-वाहणाइयाई साहिति बहूणि गोमियाणं, धाउ-मणिसिलप्पवाल-रयणागरे य साहिति आगरीणं, पुष्फविहिं फलविहिं च साहिति मालियाणं, अग्धमहुकोसए य साहिति वणचराणं। शब्दार्थ - एवमेयं - इस प्रकार, जंपमाणा - बोलते हुए, महिस - भैंस, सूकरे - सूअर, साहितिप्रतिपादन करते हैं-कहते हैं, घायगाणं - घातक, ससय-पसय रोहिए - शशक-खरगोश, प्रशय-मृग, रोहित-मृग विशेष, वागुराणं - व्याधों-घातकों को, तित्तिर - तीतर, वट्टग - बटेर, लावगे - लावक, कविंजल - कपिंजल, कवोयको - कपोत, साउणिणं - शाकुनिक-शिकारी-पारधि, झस-मगरकच्छभे- मछली, मगर, कछुए, मच्छियाणं - मछलियों को, संखंके - शंख और अंक-शीप, खुल्लएक्षुल्लक-कोडियों को, मगराणं - मगर को, अयगर - अजगर, गोणस - गोनस-एक प्रकार का साँप, मंडलि - मंडलाकार गोल पड़ा रहने वाला सांप, दव्वीकरे - दर्वीकर-फणधारी सांफ, मउली - मुकुली-बिना फण वाला साँप, वालवीणं - सपेरे, गोहा - गोह, सेहग - सेहक, सल्लग - शल्यक, सरड़गे - गिरगिट, लुद्धगाणं - लुब्ध को, गयकुल - गजकुल, वाणरकुले - वानरकुल-समूह को, पासियाणं - पाश लगाकर पकड़ने वाले, सुग - शुक-तोता, बरहिण - मयूर, मयणसाल - मदनशाल, कोइल - कोकिल, हंसकूले - हंसों का समूह, सारसे - सारस, पोसगाणं - पोषकों को, वहबंधजायणं - वध बन्धन और यातना देने का, गोम्मियाणं - गुप्तिपाल-अपराधी का निग्रह करने वाला कोतवाल, धण-धण्णगवेलए - धन-धान्य और गाय तथा भेड़ आदि के, तक्कराणं - तस्करों को, गामा-गर-णगर-पट्टणे - गांव, आकर, नगर और पट्टन, चारियाणं - गुप्तचरों को, पारघाइ - मार्ग के अन्त में पथिकों को मारने का, पंथघाइ - मार्ग के मध्य में पथिकों को मारने का, गंठिभेयाणं - गांठ काट कर लूटने वाले, कयं - किया हुआ, चोरियं - चोरी को, णगरगुत्तियाणं - नगर-रक्षकों को, लंछण - बैल आदि के अंग काटकर चिह्न बनाना, णिलंछण - बैल, घोड़ा आदि को बधिया करना, धमण - भैंस आदि के पेट में वायु भरना, दूहण - दूध निकालना, पोसण - पोषण करना, वणण - बछड़े आदि का परिवर्तन करना, दवण - अग्नि से जलाना-डाम लगाना, वाहणाइयाइं - वाहन में जोड़ना, बहूणि For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० २ ********************************** बहुत ही, गोमियाणं - गाय आदि के पालकों को, धाउ-मणि-सिलप्पवालरयणागरे.- धातु, मणि, शिला, प्रवाल और रत्नों को, आगरीणं - खान खोदने वालों को, पुप्फविहिं - फूलों की विधि, फलविहिं - फल विधि मालियाणं - मालियों को, अग्घमहुकोसए - मधु की उत्पत्ति का स्थान-मधुकोष तथा मूल्य, वणचराणं- वनचरों को। भावार्थ - इस प्रकार मृषावादी लोग विवेकहीन होकर भैंसे, सूअर आदि जीवों की घात करने वाले वधिकों को साधते हैं, उन्हें परामर्श देते हैं। मृग, शशक आदि अन्य पशुओं को जाल में फंसाकर मारने एवं आजीविका चलाने वाले व्याधों (शिकारियों) को साधते हैं। उन्हें पशुओं को पकड़ने आदि की विधि तथा उनको प्राप्त करने का स्थान बतलाते हैं और उनको ऐसा परामर्श देते. हैं कि जिससे उनका कार्य सिद्ध हो जाये अर्थात् शिकारी लोग पशु-वध का पाप सरलता से कर सकें। इस प्रकार की शिक्षा वे मृषावादी जीव देते हैं। पक्षियों का शिकार करने वाले पारधियों को तीतर, बटेर, लावक, कपिंजल, कपोत आदि पकड़ने की चालाकीपूर्ण विधि बतलाते हैं। मच्छ, मगर, कच्छप और मछलियाँ आदि जलचर जीवों को पकड़ने-मारने आदि की शिक्षा देते हैं। समुद्रादि जलाशयों में घुसकर शंख, शीप (जिनमें मोती होते हैं) और कोड़ियाँ प्राप्त करने का परामर्श देते हैं और सपेरों को विविध प्रकार के फणिधर या बिना फण वाले साँप, अजगर पकड़ने को तैयार करते हैं। गोह, सेहक, शल्यक आदि भुजपरिसर्प को प्राप्त करने या मारने का मार्ग बतलाते हैं। पक्षियों और हाथियों, बन्दरों आदि को फंसाने की शिक्षा देते हैं। पोषक को सोता, मैना, मयूर, कोकिल, हंस और सारस आदि पक्षियों को प्राप्त कर पोषण करने आदि की विधि बतलाते हैं। आरक्षकों को अपराधियों का वध करने, पकड़ कर बन्दी बनाने और यातना देने की प्रेरणा देते हैं। चोरों और डाकुओं को चोरी और डकैती करके दूसरों का धन-धान्य और गाय-बैल आदि पशु लूट लेने को प्रेरित करते हैं। गुप्त रूप से विचरण कर टोह लेने वाले (और अवसर पाकर लूट लेने वाले) को ग्राम आकर (खान) नगर * और पट्टन आदि का भेद बतलाते हैं। गाँठकट्टों को, पथिकों को मार्ग में ही अथवा मार्ग के अन्त तक पहुँचते घात करने की चालाकी समझाते हैं। नगर रक्षकों को चोरी का भेद बतलाते हैं। गाय, बैल, घोड़ा आदि के अंगोपांग को चीरकर चिह्नित करने, बैल आदि बधिया (नपुंसक) करने, भैंस आदि के पेट में (विशेष दूध प्राप्त करने के लिए) वायु भरने, दूध दुहने पुष्ट बनाने, बछड़े का एक दूसरी गाय आदि से परिवर्तन करने, लोह-शलाका तप्त कर डाम लगाने, गोपालकों को गाड़ी हल आदि में बैलों को जोड़ने आदि अनेक प्रकार की पापकारी बातें बतलाते हैं। खान खुदाने वालों को लोहादि धातु, मणि, शिला और प्रवालादि रत्न का स्थान तथा प्राप्त करने की विधि बतलाते हैं। मालियों को विविध प्रकार के पुष्प-फलादि लगाने, उत्पन्न करने और विकसित करने की प्रेरणा करते हैं, विधि बतलाते हैं। वनवासी मनुष्यों को मधुकोष (शहद के छत्ते) जमाने और उनमें से मधु प्राप्त करने की शिक्षा देते हैं। मूल शब्द 'नकर' है, जिसका अर्थ किया है-'जहाँ कर (चुंगी) नहीं है।' किन्तु आजकल यह अर्थ लुप्त हो गया है। For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३ पाप का परामर्श देने वाले *** ********** ********************************************** विवेचन - जिन मनुष्यों की पाप में रुचि है, जिनके विचार पापमय रहा करते हैं, वे दूसरों को पाप की शिक्षा देने, पाप की विधि बताने और पाप में जोड़ने का प्रयत्न करते रहते हैं। कुछ लोगों की ऐसी आदत होती है कि बिना किसी स्वार्थ के भी पर-पीड़न की प्रेरणा करते रहते हैं। वे विवेकविकल मनुष्य, अनर्थदण्ड से अपना और दूसरों का अहित करते हैं। बहुत-से लोगों की आजीविका ही ऐसे विशेष प्रकार के पापों से चलती है और बहुत-लोग तो पाप-रुचि के कारण ही पापोत्तेजक परामर्श देते रहते हैं। विवेक की कमी के चलते कई आर्य एवं अहिंसक-परम्परा में उत्पन्न व्यक्ति भी हिंसाकारी वचन बोलते हैं। अनीति एवं दुराचार में प्रवृत्त होने की विधि बतलाते हैं और अकारण ही स्वयं पाप में पड़ते हैं तथा दूसरों को भी पाप में पटकते हैं। सच्चाई पि - यदि वह पापी-परामर्श सत्य हो, तो भी वह मृषावादयुक्त है। वैसे परामर्श से इच्छित काम बनता हो, तो भी पापयुक्त-हिंसा एवं दुराचार वाला होने के कारण बोलने योग्य नहीं होता, फिर भी अज्ञानी जन बोलते हैं। ____जंताई विसाई मूलकम्मं आहेवण-आविंधण-आभिओग-मंतोसहिप्पओगे चोरियपरदारगमण-बहुपावकम्मकरणं उक्खंधे गामघाइयाओ वणदहण-तलागभेयणाणि बुद्धिविसविणासणाणि वसीकरणमाइयाई भय-मरण-किलेसदोस जणणाणि भावबहुसंकिलिट्ठमलिणाणि भूयघाओवघाइयाई सच्चाई वि ताइं हिंसगाई वयणाई उदाहरंति। शब्दार्थ - जंताई - उच्चाटनादि करने वाले यंत्रों-मन्त्रों अथवा जलयंत्र आदि यंत्रों-कलों, विसाई - विष का, मूलकम्मं - जड़ी-बूंटी के प्रयोग से गर्भपात करने का, आहेवण - आक्षेपण-क्षोभ उत्पन्न करने के लिए, आविंधण - आवर्धन-मंत्र प्रयोग से शत्रुता बढ़ाने, आभिओग - आभियोग्यवशीकरण प्रयोग का, मंतोसहिप्पओगे - मंत्र और औषधी का प्रयोग करने का, चोरिय-परदारगमण - चोरी और पर-स्त्री गमन, बहुपावकम्मकरणं - बहुत ही पापकृत्य करने का, उक्खंधे - छलपूर्वक विपक्षी सेना-का विनाश करने, गामघाइयाओ - गांव के घातक को, वणदहण - वन को जलाने, तलागभेयणाणि - तालाब को तोड़ने-फोड़ने विषयक, बुद्धिविसविणासणाणि - बुद्धि का विनाश करने अथवा विक्षिप्त बनाने वाले विषयों का, वसीकरणमाइयाई - वशीकरण करने वाले मंत्रों का, भय-मरण-किलेस-दोसजणणाणि - भय, मृत्यु, क्लेश और दुःख उत्पन्न करने वाले, भावबहुसंकिलिट्ठमलिणाणि - अत्यन्त संक्लिष्ट होने के कारण मलिन भाव, भूयघाओवघाइयाइं - प्राण, भूत, जीव और सत्व का घात-उपघात करने वाले, सच्चाई - सत्य भी, ताई - उन, हिंसगाई - हिंसाकारी, वयणाई - वचनों को, उदाहरंति - कहते हैं। For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ०२ **************************************************************** भावार्थ - वे पाप-भावना वाले दुराशयी लोग, यंत्रों (छोटे जलयंत्रों-फव्वारों) या बड़े यंत्रोंदैत्याकार मिलों आदि स्थापित करने की सलाह देते हैं, उनमें सफलता प्राप्त करने का मार्ग बतलाते हैं अथवा मंत्र-तंत्रादि से किसी को विक्षिप्तादि से हानि पहुँचाने में योग देते हैं। विष-प्रयोग कर कुत्तों; चूहों या मनुष्यादि को मारने-नष्ट करने की प्रेरणा देते हैं। विधवा, कुमारिका अथवा संतान की अनिच्छुक स्त्री का गर्भ गिराने जैसा दुष्ट कर्म करने की विधि बतलाते हैं। जनसमूह में क्षोभ, वैर आदि' फैलाने में अपनी वाणी का प्रयोग कर पाप बढ़ाते हैं। वशीकरणादि मंत्र एवं औषधी का प्रयोग कर विपक्ष की हानि करने का गूढ़ परामर्श भी देते हैं। चोर को चोरी करने, व्याभिचारी को व्याभिचार में प्रेरित करने, सेना में विद्रोह भड़काने अथवा विपक्ष से मिलकर स्व-पक्ष को नष्ट करवाने का कुचक्र चलाते रहते हैं। कहीं किसी ग्राम के निवासियों पर रुष्ट होकर, गांव को जलाकर भस्म करने का षड्यंत्र करते हैं, तो कहीं गुप्त रूप से घातकों को भेजकर सोते हुए मनुष्यों को मरवाने की पाप-जाल गूंथते हैं। कोई वन को जलाकर साफ करने अथवा वन जलाकर सफाई करने की देवी से मन्नत लेने और जला डालने की शिक्षा देते हैं। कोई तालाब, नदी का बांध या अन्य जलाशय तोड़कर पानी बहाने की दुष्ट चाल चलने की उत्तेजना देते रहते हैं, जिससे शत्रु-पक्ष के धन-जन और पशुओं की हानि हो जाये। कोई मंत्र-तंत्र का प्रयोग कर विपक्षी की बुद्धि विकृत करने-नष्ट करने के लिए उकसाते हैं। कोई वशीकरणादि मंत्र साधने का उपदेश करते हैं, कोई मारण-उच्चाटनादि से भय, क्लेश, मारणादि दोष उत्पन्न करने वाले वचनों का व्यापार करते हैं। उनके भाव बहुत ही क्लिष्ट-कलुषित और अत्यन्त मलिन होते हैं। वे दुष्टाशयी लोग, जीवों की घात करने वाले वचनों का व्यवहार करते हैं। कभी उनके वचन सत्य भी हों और उस पाप से उन्हें तात्कालिक पौद्गलिक लाभ हो भी जाता हो, फिर भी उस लाभ की अपेक्षा उन खुद के आत्मा की हानि असंख्य गुनी हो जाती है और दूसरों को दुःख, शोक, परिताप एवं मरण होता है। इस प्रकार तात्कालिक सत्य (अनूकूल दिखाई देने वाला पाप, परिणाम में) तो महान् असत्य (दुःखदायक) ही होता है। अतएव वह यत्किंचित् लाभ भी परिणाम में हानि ही है। हिंसक उपदेश-आदेश पुडा वा अपुट्ठा वा परतत्तियवावडा य असमिक्खियभासिणो उवदिसंति, सहसा उट्टा गोणा गवया दमंतु परिणयवया अस्सा हत्थी गवेलग-कुक्कुडा य किज्जंतु किणावेह य विक्केह पहय य सयणस्स देह पियह दासी-दास-भयग-भाइल्लगा य सिस्सा य पेसगजणो कम्मकरा य किंकरा य ऐए सयणपरिजणो य कीस अच्छंति भारिया भे करित्तु कम्मं गहणाई वणाई खेत्तखिलभूमिवल्लराइं उत्तणघणसंकडाई डज्झतु-सूडिजंतु या रुक्खा, भिजंतु जंतभंडाइयस्स उवहिस्स कारणाए बहुविहस्स For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसक उपदेश-आदेश य अट्ठाए उच्छू दुजंतु पीलिजंतु य तिला, पयावेह य इट्टकाउ मम घरट्ठयाए खेत्ताई कसह कसावेह य लहुं गाम-आगर-णगर-खेड-कब्बडे णिवेसेह अडवीदेसेसु विउलसीमे पुष्पाणि य फलाणि य कंद-मूलाई कालपत्ताइं गिण्हेह, करेह संचयं परिजणट्ठयाए साली वीही जवा य लुच्चंतु मलिजंतु उप्पणिजंतु य लहुं य पविसंतु य कोट्ठागारं। शब्दार्थ - पुट्ठा वा - पूछने पर, अपुट्ठा वा - बिना पूछे, परतत्तियवावडा - दूसरे प्राणियों के तपन-जलन की चिन्ता नहीं करने वाले, असमिक्खियभासिणो - बिना विचारे बोलने वाले, उवदिसंतिउपदेश देते रहते हैं, सहसा - अचानक-एकदम, उट्टा - ऊँट, गोणा - बैल, गवया - गाय या रोझ, दमंतुदमन करो, परिणयवया - वय प्राप्त-युवावस्था वाले, अस्सा - अश्व, हत्थी - हाथी, गवेलग - भेड़, कुक्कुडा - मुर्गे, किजंतु - क्रय करो, किणावेह - क्रय करवाओ, विक्केह - बेच दो, पयह - पकाओ, संयणस्स - स्वजनों को, देह - देओ, पियह - पियो, दासीदास - दासी दास, भयग - भृत्य, भाइल्लगा - भागीदार, सिस्सा - शिष्य, पेसगजणो - प्रेषकजन-जिन्हें कार्यवश भेजा जाता है, कम्मकरा - कार्य करने वाले, किंकर - किंकर-नौकर, सयणपरिजणो - स्वजन-परिजन, किस अच्छंति- किसलिए रहते हैं ? भारिया भे- पत्नी भी, कम्मं - करे, गहणाई-गहन, वणाई- वन, खेत्तखिलभूमिवल्लराई - हल से जोते या बिना जोते हुए धान बोने के वन, उत्तणघणसंकडाई - घास से सघन एवं सकड़ी बनी हुई भूमि को, डझंतु - जला दो, सूडिज्जंसु - उखड़वाओ, रुक्खा - वृक्षों को, भिजंतु - काटो, जंतभंडाइयस्स - यंत्र पात्र आदि को, उवहिस्स - उपकरण, कारणाए - करने के लिए, बहुविहस्स - बहुत प्रकार से, अट्ठाए - के लिए, उच्छू - गन्ने को, दुजंतु - काटो, पीलिजंतु - पीलो, तिला - तिलों को, पयावेह - पकाओ, इट्टकाउ - ईंटें, मम - मेरे, घरट्टयाए - घर बनाने के लिए, खेत्ताइं-कसह कसावेह - खेतों को जोतो और जुतवाओं, लहुं - शीघ्र, ग्राम आगरणगर-खेड-कब्बडे - ग्राम, नगर, आकर, खेड़, कर्बट, णिवेसेह - बसाओ, अडवीदेसेसु - वन प्रदेशअटवी के खाली स्थान में, विउलसीमे - विपुल-विस्तृत सीमा में, पुष्पाणि - फूल, फलाणि - फल, कंदमूलाई - कन्द मूल आदि, कालपत्ताई - यथासमय, गिणेह - ग्रहण करो, करेह संघयं - संग्रह को, परिजणट्ठयाए - परिजनों के लिए, साली - शालि, वीही - ब्रीहि, जवा - जौ को, लुच्चंतु - काटो, मलिजंतु - मसलो, उप्पणिजंतु - उफनो, लहुं - शीघ्र, पविसंतु-भरो, कोट्ठागारं-कोठों और घरों में। - भावार्थ - दूसरे जीवों के दुःख संताप का विचार ही नहीं करने वाले और बिना सोच-विचार के ही बोलने वाले अज्ञानीजन पर-पीड़ाकारी वचन बोल देते हैं। किसी के पूछने पर अथवा बिना पूछे ही सहसा उपदेश करते हुए कहते हैं कि - "इस ऊंट या इन ऊँटों का दमन करो, बैल और जंगली पशु रोझ आदि को बाँधो, यह घोड़ा युवावस्था अथवा वाहन के योग्य अवस्था वाला है, यह हाथी, भेड़ और मुर्गा आदि अच्छा है, इसे तुम खुद क्रय कर लो या दूसरे को भेजकर खरीदवा लो, इसे बेच दो, For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० २ ** #########################################******* वह पकाओ और अपने परिवार को दे दो। यह मदिरा पिओ। ये तुम्हारे सेवक, सेविकाएं, दास, भृत्य, भागीदार, शिष्य, सन्देशवाहक और कार्य करने वाले किसलिए हैं ? ये आलसी होकर बैठे रहते हैं। तुम इनसे काम क्यों नहीं लेते? तुम अपनी पत्नी से भी काम लो। वह खा-पीकर यों ही पड़ी रहती है। ये गहन वन और मूंज-कांस आदि से भरे हुए खेतों और बिना जोती भूमि की झाड़ी को आग से जलाकर साफ करो, वृक्षों को कटवा दो, इन वृक्षों की लकड़ी से अनेक प्रकार के पात्र, यंत्र, वाहन और आसनादि साधन बन जायेंगे। गन्ने को काटो और पैर कर रस निकालो, तिलों को पीलो। घर बनाने के लिए ईंटें पकाओ, खेतों की जुताई करो और नौकरों से भी करवाओ। वन में बहुत लम्बीचौड़ी भूमि खाली पड़ी है। उस पर गांव बसाओ। वहाँ नगर बसा दो। उस स्थान पर शीघ्र ही खान खुदवाओ और खेड़-कर्बट बसाओ। इन फूलों, फलों और कन्दमूल का समय परिपक्व हो चुका है, अब इन्हें तुड़वा-निकलवाकर परिवार के लिए संग्रह करो। शालि, ब्रीहि, जौ आदि धान्य परिपक्व हो गया है। अब इसे काट लो, फिर मसल और उफन कर साफ कर लो तथा अपने कोठों और वखारों में भर दो। विवेचन - इस सूत्र में पर-पीड़क, परोपघातक उपदेश-आदेश देने वालों का उल्लेख किया गया है। इस प्रकार के आदेश-उपदेश स्वार्थ से भी होते हैं और बिना स्वार्थ के-वाचालता, दाक्षिण्यता, पाप-प्रियता, लोकैषणा, गतानुगतिकता और अज्ञानतादि अनेक कारणों से होते हैं। स्वार्थवश दास-दासी अथवा परिजनों से आजीविकादि के लिए कार्य करवाना, भरण-पोषणादि के लिए आरम्भ करने का आदेश देना, अपने दुधारु एवं वाहनादि के पशुओं को आवश्यकतानुसार अनुशासन में रखने के लिए बांधने आदि की अनुज्ञा देना-अर्थ-दण्ड है। पाप का सेवन होते हुए भी सीमित मात्रा में-आवश्यतानुसार हो, तो वह अर्थ-दण्ड है। किन्तु अनावश्यक पर-पीड़क प्रेरणा करना, उपदेश-आदेश देना-अनर्थ दण्ड है। बहुत-से लोग बिना प्रयोजन के ही अपने-आप दूसरों को परामर्श अथवा आज्ञा देकर पापकर्म . करने की प्रेरणा देते हैं। कई अपनी दाक्षिण्यता प्रकट करने के लिए ऐसे परामर्श देकर उनके हितैषी बनने का दिखावा करते हैं। वे यह नहीं सोचते कि मेरी प्रेरणा, मेरे आदेश, अन्य जीवों के लिए कितने दुःखदायक एवं विनाशक होंगे? मैं व्यर्थ ही पापकारी उपदेश-आदेश देकर अन्य जीवों के लिए दुःख, संताप, पीड़ा और मृत्यु का कारण बनूं? पाप-रुचि के कारण वे ऐसे पर-पीड़क उपदेश-आदेश देते रहते हैं। ऐसे लोग एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों को प्रसन्न रखने के लिए सैकड़ों हजारों यावत् अनन्त जीवों के घातक बन जाते हैं। देशविरत श्रावक अनर्थ-दण्ड से बचता है और अर्थ-दण्ड भी कम करता है, सर्वविरत श्रमण तो अर्थ और अनर्थ सभी प्रकार के दण्ड-पाप एवं पाप-युक्त वचन से बचता है। जिनकी दृष्टि विशुद्ध नहीं, जो अज्ञान-ग्रस्त हैं, वे वचन-विवेक से रहित हैं। . For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७ युद्धादि के उपदेश-आदेश *************************************************************** युद्धादि के उपदेश-आदेश अप्पमहउक्कोसगा य हम्मंतु पोयसत्था सेण्णा णिज्जाउ जाउ डमरं घोरा वटुंतु य संगामा पवहंतु य सगडवाहणाई उवणयणं चोलगं विवाहो जण्णो अमुगम्मि य होउ दिवसेसु करणेसु मुहुत्तेसु णक्खत्तेसु तिहिसु य अज होउ ण्हवणं मुइयं बहुखज्जपिजकलियं कोउगं विण्हा-वणगं संतिकम्माणि कुणह सिसि-रवि-गहोवरागविसमेसु सज्जणपरियणस्स य णियगस्स य जीवियस्स परिरक्खणट्ठयाए पडिसीसगाई य देह दह य सीसोवहारे विविहोसहिमजमंस-भक्खण्ण-पाण-मल्लाणुलेवणपईवजलि-उजलसुगंधि-धूवावगार-पुप्फ-फल समिद्धे पायच्छित्ते करेह, पाणाइवायकरणेणं बहुविहेणं विवरीउप्पायदुस्सुमिण-पावसउण-असो-मग्गहचरियअमं गल-णिमित्त-पडिघायहेउँ, वित्तिच्छेयं करेह, मा देह किंचि दाणं, सुट्ट हओ सुद्ध छिण्णो भिण्णोत्ति उवदिसंता एवंविहं करेंति अलियं मणेण वायाए कम्मुणा य अकुसला अणज्जा अलियाणा अलियधम्म-णिरया अलियासु कहासु अभिरमंता तुट्ठा अलियं करेत्तु होइ य बहुप्पयारं। . शब्दार्थ - अप्प-मह-उक्कोसगा - अल्प मध्यम और उत्कृष्ट-छोटी, मछोली और बड़ी, हम्मंतु - नष्ट कर दो, पोयसत्था - पोतसार्थ-नौकादल अथवा नौका स्थिति जनसमूह, सेणा णिज्जाउसेना निकले-प्रयाण करे, जाउडमरं - युद्ध भूमि में जाये, घोरा - भयंकर, वटुंतु - करे, संगामा - संग्राम, पवहंतु - चलने दो, सगडवाहणाई - गाड़ियों और वाहनों को, उवणयणं - उपनयन-यज्ञोपवित संस्कार, चोलमं - चूडाकर्म-बालक का प्रथम मुण्डन, विवाहो - विवाह, जण्णो - यज्ञ, अमुगम्मि - अमुक, होउ - होना चाहिए, दिवसेसु - दिन, करणेसु - करण में, मुहुत्तेसु - मुहूर्त में, णक्खत्तेसु - नक्षत्र में, तिहिसु - तिथि में, अज्ज - आज ही, ण्हवणं - स्नान, मुइयं - मुदित-प्रमुदित होकर, बहुखज्जपिज्जकलियं - बहुत-से खाद्य और पेय बनाकर, कोउगं - कौतुक-रक्षा के लिए पोटली अथवा सूत्र बन्धन, विण्हावणगं - विस्नापनक-स्नान विशेष, संतिकम्माणि - शांति कर्म, कुणह - करो, ससिरवि-गहोवराग - चन्द्र-सूर्य ग्रहण पर, विसमेसु - विषम-अमंगल कारक होने पर, सजणपरियणस्सस्वज़न-परिजन के, णियगस्स - निज के, जीवियस्सपरिरक्खणट्टयाए - जीवन की रक्षा के लिए, पडिसीसगाई - अपने मस्तक जैसा, देह - दो, दह - दो, सीसोवहारे - शीर्षोपहार-मस्तक की भेंटबलि, विविहोसहि - विविध प्रकार की औषधियां, मज-मंस - मद्य और मांस, भक्खण्णपाण - भक्ष्य अन्न-पानी, मल्लाणुलेवण - माल्यानुलेपन-सुगन्धित माला और चन्दनादि का विलेपन, पईव जलि - जलता हुआ दीपक-आरति आदि, उजल - अत्यंत-उच्च प्रकार का, सुगंधिधुवावगार - For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ सुगन्धित धूप का आग पर डालना, पुप्फ-फलसमिद्धे पुष्प और फल के साथ, पायच्छित्ते करेह - प्रायश्चित्त करो, पाणाइवायकरणेणं - प्राणातिपात - हिंसा करके, बहुविहेणं अनेक प्रकार से, विवरीउपाय- विपरीत उत्पात, दुस्सुमिण दुःस्वप्न, पाव सउण अशुभ शकुन, असोमग्गहचरियंअसौम्य - क्रूर ग्रह चल रहे हैं, अमंगलणिमित्त अमंगल के निमित्त का, पडिग्घायहेंडं प्रतिघात नष्ट करने के लिए, वित्तिच्छेयं वृत्तिच्छेदन- आजीविका नष्ट करना, करेह कर दो, मा देह - मत दो, किंचि दाणं - कुछ भी दान, सुठुहओ - अच्छा मारा, सुट्ठछिण्णोभिण्णोत्ति - अच्छा काटा और अच्छा भेदन किया, उवदिसंता- उपदेश करते, एवमंविह इस प्रकार, करेंति करते हैं, अलियं मिथ्या, मणवायाए कम्मुणा मन-वचन और काय-क्रिया से, अकुसला - अकुशल, अणज्जा अनार्य, अलियाणा - मिथ्याचारी, अलियधम्मणिरया - मिथ्याधर्म में रत - आसक्त, अलियासु कहासु - मिथ्या कथा में, अभिरमंता - रमण करते हुए, तुट्ठा सन्तुष्ट रहते हुए, अलियं करेत्तु - मिथ्या कार्य करते हैं, बहुप्पयारं - बहुत प्रकार से।' भावार्थ - मिथ्या एवं हिंसक उपदेश - आदेश देते हुए वे अज्ञानीजन कहते हैं कि - 'शत्रुओं की छोटी, मध्यम श्रेणी की और बड़ी नौकाओं को तोड़-फोड़ कर नष्ट कर दो और अपनी सेना को बढ़ाओ, जो समर-भूमि में जाकर घोर संग्राम करे। सैन्य सामग्री से भरे हुए गाड़े आदि वाहनों को आगे चलने दो ।' - प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० २ ******** - - - - - For Personal & Private Use Only -- **************** - - - 'अब बालक का चूड़ाकर्म कर दो। बालक किशोरावस्था में आ गया है, अब इसका यज्ञोपवित्त संस्कार कर दो। तुम्हारा पुत्र अथवा पुत्री विवाह के योग्य हो गए हैं, अब इनका विवाह शीघ्र ही कर दो । अमुक दिन, करण मुहूर्त्त, नक्षत्र और तिथि में यज्ञ होना चाहिए। सौभाग्य एवं समृद्धि के लिए आज प्रमोदयुक्त स्नान होना चाहिये अथवा संतति वृद्धि के लिए वधू को स्नान करवाना चाहिए। विपुल मात्रा में अन्न-पानी आदि भोज्य सामग्री तैयार करवाओ और अभिमन्त्रित जल से स्नान, रक्षाकर्म तथा शांतिकर्म करो । चन्द्र और सूर्य पर राहु का ग्रहण लग गया है। इनके दुष्प्रभाव को नष्ट करने के लिए • अनुष्ठान करो। रात्रि में बुरे स्वप्न आये, उन्हें व्यर्थ करने के लिए शांतिकर्म करवाओ। स्वजन - परिजन और अपने निज के जीवन की रक्षा के लिए आटे का मुण्ड (मस्तक) बनाकर महामाया - चण्डिका को भेंट चढ़ाओ । विविध प्रकार की औषधियों और मद्य-मांस से युक्त भोजन - अन्न-पानी का भोग तथा सुगन्धित माला, चन्दनलेप, धूप-दीप (आरत्रिक) पुष्प - फलादि के साथ बकरे आदि पशु का मस्तक देव को चढ़ाओ। इस प्रकार बहुविध प्राणों का बलिदान कर प्रायश्चित्त करो। तुमने उत्पात देखे हैं, तुम्हें अनिष्टकारी स्वप्न आते हैं, शकुन भी तुम्हें बुरे हुए हैं, तुम पर क्रूर ग्रहों का उपद्रव है। इन सभी अमंगलों एवं अनिष्टकारी संभावनाओं के निवारण के लिए पशु का बलिदान करो। अमुक की आजीविका नष्ट कर दो। उसे कुछ भी मत दो। तुमने उसे मार-पीटकर अच्छा ही किया है। उसकी नाक-कान आदि काट लिये यह बहुत अच्छा किया। भाले या तीर से उसका भेदन करके तुमने श्रेष्ठ कार्य किया है।" = Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृषावाद का भयानक फल ... **************************************************************** . इस प्रकार मन, वचन और शरीर की अशुभ क्रिया से मिथ्या आचरण करने वाले अनार्य, अकुशल, मिथ्यामत के अनुयायी लोग, असत्य उपदेश करते हैं। वे असत्य-कथा कहते एवं मिथ्या प्रचार करते तथा उन्हीं में लीन रहते हुए सन्तुष्ट रहते हैं और बढ़-चढ़कर, असत्य उपदेश-आदेश करते रहते हैं। विवेचन - पूर्व सूत्र में वर्णित मिथ्या एवं हिंसक उपदेश-आदेश का वर्णन इस सूत्र में भी हुआ है। इसमें युद्ध को प्रेरणा तथा चूडाकर्म, विवाह आदि गृहस्थ सम्बन्धी संस्कार, अनिष्ट ग्रह, अशुभ स्वप्न और शकुन आदि के परिहार एवं शांति के लिए देवी-देवता को भोग-समर्थनादि में अज्ञानी लोगों के द्वारा बोले जाते हुए असत्य वचनों के प्रकार बतलाये गये हैं। मृषावाद का भयानक फल तस्स.य अलियस्स फलक्विगिं अयाणमाणा वड़ेंति, महब्भयं अविस्सामवेयणं दीहकालं बहुदुक्खं संकडं णरयतिरियजोणिं, तेण य अलिएण समणुबद्धा आइद्धा पुणब्भवंधयारे भमंति भीमे दुग्गइवसहिमुवगया। ते य दीसंति इह दुग्गया दुरंता परवस्सा अत्थभोगपरिवज्जिया असुहिया फुडियच्छवि-बीभच्छ-विवण्णा, खरफरुसविरत्तज्झामग्झूसिसरा, णिच्छाया, लल्लविफलवाया, असक्कयमसक्कया अगंधा अचेयणा दुभगा अकंता काकस्सरा हीणभिण्णघोसा विहिंसा जडबहिरंधया य मम्मणा अकंतविकयकरणा, णीया णीयजणणिसेविणो लोयगरहणिजा भिच्चा असरिसजणस्स पेस्सा दुम्मेहा लोय-वेय-अज्झप्पसमयसुइवजिया, णरा धम्मबुद्धिवियला। अलिएण य तेणं पडज्झमाणा असंतएण य अवमाणणपिट्ठिमंसाहिक्खेव-पिसुण-भेयण-गुरुबंध-वसयण-मित्तवक्खारणाइयाइं अब्भक्खाणाई बहुविहाई पावेंति अमणोरमाइं हिययमणदूमगाइं जावज्जीवं दुरुद्धराइं अणि?खरफरुसवयण-तज्जण-णिब्भच्छण. दीणवयण-विमणा कुभोयणा कुवाससा कुवसहीसु किलिस्संता व सुहं व णिव्वुइं उवलभंति अच्चंतविउलदुक्खसयसंपलित्ता*। शब्दार्थ - तस्स - उस, अलियस्स - मिथ्या भाषण का, फलविवागं - फल विपाक को, अयाणमाणा - नहीं जानते हुए, वड्डेति - बढ़ाते हैं, महब्भयं - महाभयकारी, अविस्सामवेयणं - * जडबहिरमूया-पाठ भी मिलता है। * संपउत्ता-पाठ भी है। For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०२ *************************************************************** विश्राम-रहित-निरन्तर-वेदना-दुःख भोग, दीहकालं लम्बे समय तक, बहुदुक्खं - बहुत दुःखों से, संकडंपरिपूर्ण, णरयतिरिजयोणिं - नरक और तिर्यंच योनि को, तेण - उस, अलिएण - मृषावाद से, समणुबद्धा- बंधे हुए, आइद्धा- उस कर्म से युक्त, पुणब्भवंधयारे - पुनर्भवरूपी अन्धकार में, भमंतिभम्रण करते रहते हैं, भीमे - भयंकर, दुग्गइवसहिमुवगया - दुर्गति में निवास करते हुए, ते - वे, दीसंतिदिखाई देते हैं, इह - इस लोक में, दुग्गया - दुर्गत-बुरी अवस्था में, दुरंता - उनके दुःखों का कठिनाई से अन्य होता है या नहीं होता, परवस्सा - वे पराधीन रहते हैं, अत्थभोग-परिवज्जिया- अर्थभोग वर्जितधन और उससे प्राप्त भोगों से वंचित रहते हैं, असुहिया - सुख से रहित, पुडियच्छवि - बिवाई, दाद आदि रोगों से जिनकी चमड़ी छिद-भिद कर विकृत हो गई है, बीभच्छ - बीभत्सं-भयानक, विवण्णाबुरे वर्ण-रूप वाले, खरफरुस विरत्तज्झामझूसिरा - कर्कश स्पर्श वाले दुर्थ्यांनी मंलिन एवं निःसार शरीर वाले, णिच्छाया - शोभा से रहित, लल्लविफलवाया - अव्यक्त एवं निष्फल वचन वाले, असक्कयमसक्कया - शरीर के संस्कार तथा सत्कार से रहित-वंचित, अगंधा - सुगन्ध रहित-दुर्गन्धयुक्त, अचेयणा - सुचेतना-सद्बुद्धि से रहित, दुभगा - दुर्भागी, अकंता - अकान्त-अनिच्छनीय, काकस्सराकौए के समान अप्रिय स्वर वाले, हिण्णभिण्णघोसा - हीन-अधम एवं भिन्न-अटकती हुई-टूटती हुई बाली वाले, विहिंसा - दूसरों के द्वारा मारे-पीटे जाने वाले, जडबहिरंधया - मूर्ख, बहरे और अन्धे, मम्मणा - अस्पष्ट बोली है जिनकी, अकंतविकयकरणा - अशोभनीय एवं विकृत इन्द्रियों वाले, णीया - नीच, णीयजणणिसेविणो - नीचे लोगों की संगति वाले, लोयगरहणिज्जा - लोगों द्वारा निन्दित, भिच्चा - भृत्य-नौकर, असरिसजणस्सपेस्सा - अपने से नीच व्यक्ति के नौकर-गुलाम, दुम्मेहा - दुर्बुद्धि वाले, लोयवेय-अज्झप्पसमयसुइवजिया - लोकाभिमतं शास्त्र, वेद शास्त्र, आध्यात्मिक शास्त्र तथा सिद्धान्तों से वर्जित, णरा - नर, धम्मबुद्धिवियला - धर्म बुद्धि से विकल, अलिएण - अलिकवाद रूपी अग्नि से, तेण - उस, पडझमाणा - जलते हुए, असंतएण - अशान्त, अवमाणणअपमान, पिट्टिमंसाहिक्खेव - पृष्ठिमांस-परोक्ष में दोषारोपण करना, अधिक्षेप धिक्कारवाद का पात्र, पिसुणभेयण - चुगलखोरों द्वारा स्नेह सम्बन्ध तुड़वाना, गुरुबंधवसयणमित्तवक्खारणाइयाइं - गुरुजन, बान्धवजन-स्वजन और मित्रादि द्वारा दुर्वचनों से अपमानित होते, अब्भक्खाणाई - दोषारोपण करते, बहुविहाई - अनेक प्रकार के, पावेंति - प्राप्त करते हैं, अमणोरमाइं - अत्यन्त अरुचिकर, हिययमणदूमगाई - हृदय और मन को दुःखकारी, जावजीवं - जीवन पर्यन्त, दुरुद्धराई - कठिनता से उद्धार होने योग्य, अणिट्ठखरफरुसवयण - अत्यन्त अनिष्ट और कठोर वचनों से, तज्जण - तर्जना से, णिभच्छण - निर्भत्सना-डांट फटकार से, दीणवयणविमणा - दीनतायुक्त मुख और दुःखित मन, कुभोयणा - कुभोजन, कुवाससा - कुवस्त्र, कुवसहिसु - बुरे स्थान पर रहना, किलिस्संता - क्लेशित होते, णेव सुहं - शरीर सुख नहीं, णुव्वुई - मानसिक शांति, उवलभंति - प्राप्त होते अच्चंत - अत्यन्त, विउल - विपुल, दुक्खसयसंपउत्ता - सैकड़ों दुःखों से संतप्त बने रहते हैं। For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृषावाद का भयानक फल १०१ **************************************************************** भावार्थ - उस मृषावाद के दुःखदायक फलभोग को नहीं जानते हुए वे मिथ्यावादी लोग, भयंकरतम वेदनायुक्त नरक और तिर्यंच गति के अशुभ कर्म बढ़ाते हैं और उन पापकर्मों से बंधे हुए वे वहाँ उत्पन्न होकर दीर्घकाल पर्यन्त दुःख परम्परा से परिपूर्ण जीवन बिताते हैं। वहाँ उन्हें विश्रांति प्राप्त नहीं होती। वे निरन्तर दुःख ही दुःख में पीड़ित होते रहते हैं और पुनर्भव रूपी अन्धकार में भटकते रहते हैं। वे मिथ्यावादी लोग इस लोक में भी दुरावस्था में दिखाई देते हैं उनकी दुःख परम्परा का अन्त नहीं आता। वे सदैव पराधीन ही रहते हैं। वे दरिद्री लोग धन एवं भोग साधनों से वंचित रहते हैं। उनके जीवन में सुख अथवा सुखदायक मित्रादि का योग ही नहीं मिलता। उनके शरीर का स्पर्श-चमड़ी, बिवाई, दाद, खाज, फोड़े और घाव आदि से विकृत तथा फटी हुई रहती है। उनके शरीर का वर्ण भी खराब होता है। स्पर्श भी कर्कश एवं कठोर होता है। शरीर मलिन नि:सार दुर्गन्ध युक्त एवं अशोभनीय होता है। उनकी बोली अस्पष्ट, अटकती हुई और हार्दिकभाव स्पष्ट करने में असमर्थ होती है। उनकी वाणी निष्फल होती है। वे सत्कार-सम्मान से रहित तथा अपमानित रहते हैं। उनकी आत्म-चेतना (ज्ञान-चेतना) कुंठित रहती है। वे दुर्भागी (हतभागी) अनिच्छनीय तथा घृणित होते हैं। उनका स्वर कौए के समान अप्रिय होता है। उनकी ध्वनि हीन, धीमी और टूटी-फूटी होती है। वे मूर्ख, बहरे, अन्धे और अशोभनीय तथा विकृत इन्द्रिय वाले होते हैं। वे स्वयं नीच-नीचकुलोत्पन्न होते हैं और उनकी संगति भी नीच लोगों से रहती है। वे लोगों द्वारा घृणित एवं निन्दित होते हैं। वे पापोदय के कारण अपने से भी अधम माने जाने वाले मनुष्य के दास रूप में रहकर जीवन व्यतीत करते हैं। उनकी बुद्धि भी पाप पूर्ण होती है। उत्तम विचार उनके मन में उत्पन्न ही नहीं होते वे महाभारतादि लौकिक अथवा आचारांगादि लोकोत्तर शास्त्रों एवं सिद्धान्तों से वंचित रहते हैं। उन दुर्बुद्धियों में धर्म सम्बन्धी विचार ही उत्पन्न नहीं होते। वे सदैव अनुपशान्त (अशांत) रहते हुए मिथ्या विचारों की आग में जलते ही रहते हैं। उनका प्रत्येक स्थान पर अपमान होता रहता है। पीठे-पीछे भी उनकी निंदा होती रहती है। उन पर दोषारोपण होते रहते हैं। चुगलखोर लोग उनकी चुगली करके स्नेहियों से सम्बन्ध तुड़वा देते हैं। उनके गुरुजन बन्धु-बान्धव, स्वजन-परिजन और मित्रजन उन्हें कठोर वचन सुनाते रहते हैं। वे मृषावाद रूपी पाप के उदय वाले जीव, उपेक्षणीय एवं घृणित होते हैं। लोग उनके साथ इस प्रकार के वचनों का व्यवहार करते हैं कि जिससे उनके हृदय एवं मन को आघात लगे, संताप उत्पन्न हो, वे खिन्न बने रहें और उन पर कलंक लगे। उनके दुःखों की समाप्ति शीघ्र नहीं होती। वे जीवनपर्यन्त दुःखी रहते हैं। उनका दुःखों से छुटकारा होना कठिन हो जाता है। वे पापी जीव, दूसरों के द्वारा अत्यन्त कठोर वचनों से डराये-धमकाये और फटकारे जाते हैं। दुःखानुभव से उनका मुख दीन और मन विकल रहता है। उन्हें खाने में भोजन भी अच्छा नहीं मिलता। बुरे अपथ्यकारी एवं पोषणहीन भोजन से वे कुछ क्षुधा बुझाते रहते हैं। उनके पहनने के वस्त्र भी हीन एवं अपर्याप्त होते हैं। उनके रहने का स्थान भी बुरा . होता है। वे अनेक प्रकार से क्लेशित रहते और सैकड़ों प्रकार के बड़े-बड़े दुःख सहते हुए संतप्त रहते For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० २ **************************************************************** हैं। उनके जीवन में न तो कभी शारीरिक सुख होता है और न मानसिक। वे अपने मृषावाद के पाप का दु:खदायक फल भोगते ही रहते हैं। विवेचन - इस सूत्र में मृषावाद रूपी पाप का दुःखदायक फल बतलाया है। पाप का फल दुःखदायक ही होता है। वह दुःख शारीरिक, वाचिक और मानसिक होता है। अनेक प्रकार की बहुमुखी प्रतिकूलता भी पाप का परिणाम है और सुख सामग्री रूप धन-धान्यादि का अभाव, दरिद्रता एवं विपन्नता भी। धन-धान्यादि की सम्पन्नता पुण्य का परिणाम है, तो विपन्नता पाप का फल होता है। यह बात भी इस फल-विधान से सिद्ध होती है। जो विचारक कहते हैं कि-धन-धान्यादि की विपन्नता पाप का फल नहीं, उन्हें इस सूत्र में आये हुए-अत्थ-भोग-परिवज्जिया........दुभगा........भिच्चा...... पेस्सा कुभोयणा कुवसया कुवसहिसु आदि शब्दों पर विचार करके अपना भ्रम दूर करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि इच्छित अर्थ-भोगादि पौद्गलिक सामग्री का अभाव भी पाप का फल है। इसके विपरीत इच्छित धनादि की प्राप्ति पुण्य का फल है। इस प्रकार कर्म-सिद्धान्त पर विश्वास रख कर पाप का त्याग करना चाहिए। _भगवान् से कहा हुआ एसो सो अलियवयणस्स फलविवाओ इहलोइओ परलोइओ अप्पसुहो बहुदुक्खो महब्भओ बहुरयप्पगाढो दारुणो कक्कओ असाओ वास-सहस्सेहिं मुच्चइ, ण अवेयइत्ता अत्थि हु मोक्खोत्ति, एवमाहंसु णायकुलणंदणो महप्पा जिणो उ वीरवरणामधेजो कहेसि य अलियवयणस्स फलविवागं। ... ___ शब्दार्थ - एसो - यह, अलियवयणस्स - मिथ्या वचन का, फलविवाओ - फल-विपाक है, इहलोइओ - इस लोक का, परलोइओ - परलोक सम्बन्धी, अप्पसुहो - सुख नहीं, बहुदुक्खो - बहुत दुःखदायक, महब्भओ - महाभयंकर, बहुरयप्पगाढो - बहुत-सी कर्म रूपी रज से गाढ़ बना हुआ, दारुणो - दारुण, कक्कसो - कर्कश, असाओ - असातारूप, वाससहस्सेहिं मुच्चइ - हजारों वर्षों में छुटकारा हो ऐसा, ण - नहीं, अवेयइत्ता - बिना भुगते, अत्थि हु - होता, मोक्खोत्ति - मुक्ति, एवमाहंसु - इस प्रकार, णायकुलणंदणो - ज्ञात-कुल-नन्दन, महप्पा - महात्मा, जिणो - जिन, वीरवरणामधेजो - महावीर नाम से प्रख्यात, कहेसि - कहा, अलियवयणस्स - मिथ्या वचन का, फलविवागं - फल विपाक। __ भावार्थ - मिथ्या-भाषण का यह इहलौकिक और पारलौकिक फल-विपाक है। इसमें सुख का तो लेश भी नहीं है और दुःख बहुत ही भरा रहता है। इसका फल महाभयंकर और अत्यन्त कर्मरज से . युक्त होता है। पाप का फल अत्यन्त दारुण कठोर और असाता रूप होता है। हजारों वर्षों तक फल भोगने से इससे छुटकारा होता है। बिना फल भोगे पाप के परिणाम से मुक्ति नहीं हो सकती। For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार १०३ **************************************************************** ज्ञातृकुल नन्दन, जिनेश्वर, महान् आत्मा भगवान् महावीर ने, मिथ्या-भाषण का यह कटुकतम फल-विपाक कहा है। विवेचन - मिथ्या-भाषण का महान् अनिष्टकारी फल हजारों-लाखों वर्षों तक अत्यन्त दुःखपूर्वक भोगना पड़ता है। पाप का फल भुगते बिना मुक्ति नहीं हो सकती। मिथ्या-भाषण का अत्यन्त दुःखदायक फल, ज्ञातृ-कुल-नन्दन (ज्ञातृ-कुलोत्पन्न आनंदकारी) महान् आत्मा (परमात्मा) जिनेश्वर भगवान् महावीर ने प्राणियों के हित के लिए बतलाया है। इस पाप का त्याग करने से जीव सुखी होता है। उपसंहार एयं तं बिईयं पि अलियवयणं लहुसग-लहुचवल-भणियं भयंकरं दुहकर अयसकरं वेरकरगं अरइरइ-रागदोस-मणसंकिलेस-वियरणं अलिय-णियडि-साइजोगबहुलं णीयजणणिसेवियं णिस्संसं अप्पच्चयकारगं परम-साहुगरहणिजं परपीलाकारगं परमकण्हलेस्ससहियं दुग्गइ-विणिवाय-वड्डणं पुणब्भवकरं चिरपरिचियमणुगयं दुरुत्तं। ॥बिईयं अहम्मदारं समत्तं॥ . शब्दार्थ - एयं - यह, बिईयं - दूसरा, अलियवयणं - मिथ्या-भाषण का, लहुसगलहुचवलभणियं - छोटे और अति चपल मनुष्यों द्वारा बोला जाता, भयंकरं - भयंकर, दुहकर- दुः खकारी, अयसकरं - अयश-निन्दाकारी, वेरकरगं - वैर उत्पन्न करने वाला, अरइरइ - अरतिरति, रागदोसमणसंकिलेसवियरणं - राग-द्वेष और मानसिक संक्लेश वर्द्धक, अलियणियडि साइजोग बहुलंमिथ्यावाद गूढ माया के अत्यधिक प्रयोग वाला है, णीयजणणिसेवियं - नीच लोगों द्वारा सेवित-आचरित है, णिस्संसं - नृशंस-क्रूर है, अप्पच्चयकारगं - अप्रतीतिकारक है, परमसाहुगरहणिजं - उत्तम साधुओं द्वारा निन्दित है, परपीलाकारगं - दूसरे जीवों को पीड़ा उत्पन्न करने वाला है, परमकण्हलेस्ससहियं - परम कृष्णलेश्या से युक्त है, दुग्गइ विणिवायवड्डणं - दुर्गति में गमन शक्ति का बढ़ाने वाला है, पुणब्भवकरं - पुनर्भव कराने वाला है, चिरपरिचियमणुगयं - चिर-लम्बे काल से परिचित-जानापहचाना और साथ आने वाला है, दुरुत्तं - कठिनाई से अन्त आने योग्य है, अहम्मदारं - अधर्मद्वार, समत्तं - समाप्त हुआ। भावार्थ - यह मिथ्या-भाषण रूप दूसरा द्वार है। तुच्छ और चंचल मनुष्यों द्वारा झूठ बोला जाता है। मिथ्या-भाषण भयंकर एवं दुःखदायक है, अयशकारी है, वैर-विरोध बढ़ाने वाला है। अरति-रतिरागद्वेष एवं मानसिक क्लेश बढ़ाने वाला है और गूढ़तम माया का अधिक प्रयोग कराने वाला है। यह मृषावाद नीच लोगों द्वारा आचरित है, क्रूरतायुक्त है और अप्रतीति (अविश्वास) का जनक है। उत्तम For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ -*-*-* प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० २ साधुजनों ने मिथ्या-भाषण की निन्दा की है। झूठ वचन दूसरे जीवों को पीड़ा उत्पन्न करता है। यह परम कृष्णलेश्या से युक्त होता है। इस पाप से दुर्गति की ओर गमन करने की शक्ति बढ़ती है। मिथ्यावाद से भव - परम्परा बढ़ती है। जीव से यह पाप बहुत लम्बे काल (अनादि) से परिचित है और साथ हीं चलने वाला है। इसका अन्त आना अत्यन्त कठिन है। *********** विवेचन - दूसरे अधर्मद्वार का उपसंहार करते हुए सूत्रकार मिथ्या - भाषण की भयंकरता बतला हुए पुन: कहते हैं कि सर्वज्ञ - सर्वदर्शी जिनेश्वर भगवंत महावीर द्वारा प्ररूपित यह मिथ्यावाद रूपी पाप भयंकर है। इसका सेवन करने वाले जीवों को अत्यन्त दारुण दुःख भोगना पड़ता है। झूठ बोलने वालों की इस लोक में प्रतीति नहीं होती। उनकी बात पर कोई विश्वास नहीं करता। झूठा व्यक्ति लोक में हीन दृष्टि से देखा जाता है। झूठ से वैर, विरोध, रागद्वेष और क्लेश बढ़ता है। इससे दूसरे जीवों को दुःख होता है। मिथ्या - भाषण, कूड़-कपट और दम्भ के मानसिक दलदल से उत्पन्न होता है। झूठे की भावना अत्यन्त कलुषित होती है। यह पाप दुर्गति की ओर तीव्रता से ले जाने वाला है। इससे नीचगति में वृद्धि होती है और जन्म-मरण रूपी भव- परम्परा बढ़ती रहती । पाप और उसका दुःखदायक परिणाम जीव के अनादि काल से साथ ही लगा हुआ है । इस पाप के दुःखदायक फल से छुटकारा होना अत्यन्त कठिन है । उत्तम पुरुषों-श्रेष्ठ साधु-महात्माओं ने मिथ्या - भाषण की निंदा की है। चिरपरिचियमणुगयं चिर परिचित एवं अनुगत- जीव, पाप के साथ अनादिकाल से परिचित है और पूर्व का परिचित पाप, वर्तमान में भी पाप की ओर गति करवाता है। यह गति आगे भी बढ़ती रहती है। जीव, पाप से परिचित होने के कारण पाप प्रिय हो जाता है । यह विभाव स्वभाव जैसा बन जाता है और साथ ही लगा रहता है। सम्यग् पुरुषार्थ से ही पाप-परम्परा नष्ट होती है और पाप - परम्परा का उच्छेद ही सुख के भव्य भण्डार का उद्घाटक है। ॥ मृषावाद नामक दूसरा अधर्मद्वार सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदत्तादान नामक तीसरा अधर्मद्वार अदत्त का परिचय जंबू! तइयं च अदिण्णादाणं हरदह-मरणभय-कलुस-तासण-परसंतिग-अभेजलोभमूलं कालविसमसंसियं अहोऽच्छिण्ण-तण्हपत्थाण-पत्थोइमइयं अकित्तिकरणं अणजं छिद्दमंतर-विहुर-वसण-मग्गण-उस्सव-मत्त-प्पमत्त पसुत्त-वंचणक्खिवणघायणपरं अणिहुयपरिणामं तक्कर-जणबहुमयं अकलुणं रायपुरिस-रक्खियं सया साहु-गरहणिजं पियजण-मित्तजण-भेय-विविप्पइकारगं रागदोसबहुलं पुणो य उप्पूरसमरसंगामडमर-कलिकलहवेहकरणं दुग्गइविणिवायवड्डणं-भवपुणब्भवकरं चिरपरिचिय-मणुगयं दुरंतं। तइयं अहम्मदारं। शब्दार्थ - जंबू - हे जम्बू, तइयं - तीसरा, अदिण्णादाणं - बिना दी हुई वस्तु लेना, हर - हरण करना, दह - जलाना, मरण - मार डालना, भय - डराना, कलुस - क्लेशित करना, तासण - त्रास देना, परसंतिग - पराये धन में, अभेज - रौद्रध्यान युक्त, लोभमूल - लोभ का मूल, कालविसमसंसियं - विषम काल और विषम स्थान में, अहोऽच्छिण्णतण्हपत्थाणपत्थोइमइयं - जिनकी अधोगति की ओर प्रस्थान करने वाली तृष्णा अच्छिन्न है, जिनकी बुद्धि अधोगति में ले जाने । वाली है, अकित्तिकरणं - अकीर्ति-निदा कारक है, अणज - अनार्य है, छिद्द - छिद्र करना या देखना. भीत में सेंध लगाना, अंतर - ताक में रहना, विहुरवसणमग्गण - कष्ट एवं उपद्रव करने की योजना अथवा ताक में रहना, उस्सव - लग्नादि उत्स, मत्तप्पमत्त - मद्यपानादि से मत्त-असावधान, पसुत्त - सोये हुए..वंचणक्खिवण - वंचित कर उच्चाटन या घबराहट उत्पन्न कर, घायणपरं - घात करने में तत्पर, अणिहुयपरिणामं - अशान्त परिणाम वाले, तक्करजणबहुमयं - चोर लोगों के द्वारा अतिमान्य, अकलुणं - करुणा से रहित, रायपुरिसरक्खियं - जनरक्षार्थ राज्य-पुरुषों से निषिद्ध, सया साहुगरहणिजं - साधुजनों द्वारा सदैव निन्दित; पियजण मित्तजण-भेय-विप्पिइकारगं - प्रिय एवं मित्रजनों से भेद उत्पन्न करने वाला और प्रीति का नाशक, राग दोसबहुलं - राग-द्वेष से भरपूर, पुणो यफिर यह, उप्पूर - प्रचूर, समरसंगामडमर - जनसंहारक संग्राम एवं विग्रह का स्थान, कलिकलहवेहकरणं - उग्र एवं भयानक क्लेश एवं पश्चात्ताप जनक, दुग्गइ-विणिवायवडणं - दुर्गति का वेग बढ़ाने वाला, भवपुणब्भवकर - जन्म-मरण बढ़ाने वाला, चिरपरिचिय - चिर-अनादि काल से परिचित, मणुगयं - अनुगत-साथ रहा हुआ, दुरंतं - जिसका अत्यन्त कठिनाई से अन्त हो, अहम्मदारं - अधर्मद्वार। For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० ३ . ** * *********** भावार्थ - गणधर भगवान् सुधर्मा स्वामी जी महाराज अपने शिष्य जम्बू स्वामी से कहते हैं - "हे जम्बू! यह अदत्तादान नाम का तीसरा अधर्मद्वार है।" दूसरे की वस्तु का हरण कर लेना, उनके घर, खलिहान आदि जला देना, भयभीत करना, मार डालना आदि पापकर्म के कारण यह अदत्तादान दूसरों के हृदय में क्लेश एवं त्रास उत्पन्न करने वाला है। दूसरे के धन को हरण करने के दुर्ध्यान (रौद्रध्यान) से युक्त लोभ ही इसका मूल है। यह मध्यरात्रि आदि विषम-काल और गहन वन आदि विषम-स्थान की अपेक्षा रखता है। धन-लोभ और उससे उत्पन्न अदत्तादान रूपी पापेच्छा अधोगति की ओर ही बढ़ाने वाली है। उनकी बुद्धि पाप की ओर ही प्रवृत्त रहती है। अदत्तादान, अकीर्ति (निंदा) का कारण है। अनार्यकर्म है। सदा छिद्रगवेषण एवं ताक-झांक की वृत्ति वाला है। दूसरों की विपत्ति, उपद्रव अथवा कठिनाई का योग ढूँढकर (हाथ मारने वाला है) वह विवाह आदि उत्सवों, मेलों और समारोहों में संलग्न, राग-रंग में मदमत्त बने हुए मनुष्यों में. घात लगा कर चोरी करने की इच्छा वाला, नींद में सोये हुए मनुष्यों की वस्तु चुराने वाला घबराहट, व्यग्रता एवं उत्सुकता उत्पन्न करके, अन्यत्र ध्यान लगाकर, अपहरण करने वाला मनुष्यों का जीवन समाप्त कर धन लेने वाला और इस प्रकार के अनेक प्रपंच करके दूसरों का धन-धान्यादि लेने वाला दुष्ट परिणामी होता है। ___यह चौर्यकर्म, अन्य बहुत-से तस्करों द्वारा सम्मत है। चोर के मन में करुणा नहीं होती। चोरों से राज्य के जन-धन की रक्षा करने के लिए राज्य-पुरुष (पुलिस) सदैव तत्पर रहते हैं (अथवा राजपुरुष, जिन पर सदा दृष्टि रखते हैं) चौर्यकर्म, उत्तम पुरुषों द्वारा सदैव निन्दनीय है। चौर्यकर्म अपने इष्ट-मित्र एवं प्रियजनों की प्रीति एवं मैत्री का नाश करने वाला है। राग-द्वेष से भरपूर है। बहुत-से मनुष्यों का विनाश, विग्रह एवं युद्ध का उत्पत्ति स्थान है। भयंकर क्लेश एवं पश्चात्ताप का जनक है। दुर्गति गमन की शक्ति बढ़ाने वाला है। जन्म-मरण से भव-परम्परा बढ़ाने वाला है। यह पाप, संसाररत आत्मा के अनादि परिचित है और सदा साथ रहने वाला है। इस पाप का अन्त आना अत्यन्त कठिन है। यह तीसरा अधर्मद्वार है। - विवेचन - दूसरे अधर्मद्वार का स्वरूप बतलाने के बाद आगमकार क्रमागत अदत्तादान नामक तीसरे अधर्मद्वार का स्वरूप बतलाते हैं। . अदत्तादान - जिस वस्तु का स्वामी कोई दूसरा हो, जो दूसरों के अधिकार की हो, जिसके लेने से न्याय-नीति का उल्लंघन होता हो और किसी जीव को कष्ट होता हो-वह अदत्तादान है। शास्त्रकारों ने अदत्त के चार भेद बतलाए हैं - १. स्वामी-अदत्त २. जीव-अदत्त ३. तीर्थंकर-अदत्त और ४. गुरुअदत्त। १. स्वामी-अदत्त - जिस वस्तु का जो स्वामी हो, उसकी आज्ञा के बिना ही वह वस्तु लेनास्वामी-अदत्त है। For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदत्त के तीस नाम १०७ **************************************************************** २. जीव-अदत्त - सजीव वस्तु को ग्रहण करना, काम में लेना, भोगोपभोग करना, सचित्त पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस जीवों की विराधना करना, काटना, तोड़ना, मारना यावत् किंचिंत् भी कष्ट देना-जीव-अदत्त है। उस काय-शरीर के वे जीव स्वामी हैं। उनकी आज्ञा नहीं है कि कोई उन्हें काम में ले। अतएव यह जीव-अदत्त है। . ३. तीर्थकर-अदत्त - जिनेश्वर देव की आज्ञा के विपरीत प्रवृत्ति करना, निषिद्धाचरण करना। . ४. गुरु-अदत्त - गुरु एवं ज्येष्ठ की आज्ञा एवं मर्यादा के विपरीत आचरण करना। गुरु की अनुज्ञा लिए बिना ही स्वच्छन्द प्रवृत्ति करना। अदत्तादान का पाप भी हिंसा और मृषा के समान भयंकर है। इसमें पूर्व के दोनों पापों का भी निवास रहता है। इस पाप का मूल लोभकषाय में है। लोभ से ही तृष्णा बढ़ती है और महामोहनीय कर्म रूप घोर पाप करवा देती है। यह अदत्तग्रहण सामान्य वस्तु से-एक तिनके से लगाकर राष्ट्रव्यापी होता है। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र की भूमि एवं राज्य हड़पने के लिए तत्पर रहता है, भयंकर युद्ध करते हैं और लाखों करोड़ों मनुष्यों का विनाश कर देते हैं। अदत्तादान पाप की भयंकरता सूत्रकार स्वयं बतला रहे हैं। ___ अदत्त के तीस नाम तस्स य णामाणि गोण्णाणि होति तीसं तं जहा-१. चोरिक्कं २. परहडं ३. अदत्तं ४, कूरिकडं ५. परलाभो ६. असंजमो ७. परधणम्मि गेही ८. लोलिक्कं ९. तक्करत्तणं त्ति य १०. अवहारो ११. हत्थलहुत्तणं १२. पावकम्मकरणं १३. तेणिक्कं १४. हरणविप्पणासो १५. आदियणा १६. लुंपणा धंणाणं १७. अप्पच्चओ १८. अवीलो १९. अक्खेवो २०. खंवो २१. विक्खेवो २२. कूडया २३. कुलमसी य २४. कंखा २५. लालप्पणपत्थणाय २६. आससणाय वसणं २७. इच्छामुच्छाय २८. तपहागेही २९. णियडिकम्म ३०. अप्परच्छंति वि य। तस्स एयाणि एवमाईणि णामधेजाणि होंति तीसं अदिण्णादाणस्स पावकलिकलुस-कम्मबहुलस्स अणेगाई। - शब्दार्थ - तस्स - उसके, णामाणि - नाम, गोण्णाणि - गुणनिष्पन्न, होति - हैं, तीसं - तीस, तं जहा - जैसे - १. चोरिक्कं - चौरिक्य-चुराना-चोरी का कार्य करना, २. परहडं - परहृत-दूसरों के द्रव्य का हरण करना, ३. अदत्तं - अदत्त-बिना दिये ही दूसरे की वस्तु लेना, ४. कूरिकडं - क्रूरकृतक्रूरतापूर्ण कार्य, ५. परलाभो - परलाभ-पराये लाभ को अपना बना लेना-पर-द्रव्य को प्राप्त करना, ६. असंजमो - असंयम-दुराचार-सदाचार का नाश, ७. परधणम्मि गेही - परधन गृद्धि-पराये धन में आसक्त, ८. लोलिक्कं - लौल्य-पर-द्रव्य में लोलुपता ९. तक्करत्तां त्ति य - तस्करता, १०. अवहारोअपहार-पराई वस्तु को गुप्त रूप से लेकर अपनी बनाना, ११. हत्थलहुतणं- हस्तलघुत्व-हाथ की सफाई से-चालाकीपूर्वक लूटना, १२. पावकम्मकरणं - पापकर्म करण-पापाचरण करना, १३. तेणिक्कं - For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०३ **************************************************************** स्तेनिका-चौर्यकर्म, १४. हरणविप्पणासो - हरणविप्रणास-दूसरे के धन का हरण करके नष्ट करना, १५. आदियणा - आदान-स्वामी की अनुमति बिना लेना, १६. लुंपणा धणाणं - धनलोपन-दूसरे के धन को हरण करके छुपा देना १७. अप्पच्चओ - अप्रत्यय-अविश्वास १८. अवीलो - अवपीड़न-दूसरों को पीड़ा उत्पन्न करने वाला १९. अक्खेवो- आक्षेप-दूसरे के हाथ से द्रव्य का हरण करना, २०. खेवोक्षेप-दूसरे से धन लेकर फेंकना २१. विक्खेवो - विक्षेप-दूसरे के धन को विशेष रूप से अपने स्थान पर डालना, २२. कूडया - कूटता-कपटतायुक्त द्रव्य हरण २३. कुलमसी य - कुलमषी-कुल को कलंकित करने वाला, २४. कंखा - कांक्षा-पर-द्रव्य की इच्छा २५. लालप्पण पत्थणाय - लालपन प्रार्थना-चोरी करके स्वीकार नहीं करना और दीन वचनों से प्रार्थना करना २६. आससणाय वसणं - आशसनाय व्यसन-मृत्यु जैसे भय का जनक व्यसन-भयंकर लत २७. इच्छामुच्छायः - इच्छा मूर्छाचौर्यकर्म करने की घृणित इच्छा एवं आसक्ति २८. तण्हागेही - तृष्णागृद्धि-पर वस्तु प्राप्त करने की अत्यन्त आसक्ति एवं लुब्धता २९.णियडिकम्मं - नियतिकर्म अथवा निकृतिकर्म-कूड़ कर्म-मायाचार, ३०. अप्परच्छंति वि य - अपरोक्ष-धनवान् के परोक्ष में किया जाने वाला कुकर्म, एयाणि - ये, एवमाईणि- इस प्रकार के इत्यादि, णामधेजाणि - नाम, अदिण्णादाणस्स - अदत्तादान के, पावकलिकलुस - विग्रह और क्लेश की कालिमायुक्त पाप, कम्मबहुलस्स - कर्मबन्ध की अधिकता वाला-अशुभ कर्म का भण्डार, अणेगाई - अनेक नाम। विवेचन - इस सूत्र में अदत्तादान रूपी पाप के गुण-निष्पन्न तीस नाम बताये गये हैं। अन्त में आगमकार ने कहा है कि इसी प्रकार इस पापकर्म को बताने वाले अन्य नाम भी हो सकते हैं। किन्तु वे होंगे इसके पापी-कृत्य एवं उसके परिणाम को विभिन्न अपेक्षाओं से बताने वाले। अब आगे के सूत्र में चौर्यकर्म करने वाले का वर्णन किया जाता है।. चौर्यकर्म के विविध प्रकार ते पुण करेंति चोरियं तक्करा परदव्वहरा छेया, कयकरणलद्धलक्खा साहसिया लहुस्सगा अइमहिच्छलोभगच्छा दद्दरओवीलका य गेहिया अहिमरा अणभंजगभग्गसंधिया रायदुट्ठकारी य विसयणिच्छूढ-लोकबज्झा उद्दोहग-गामघायग-पुरघायगपंथघायग-आलीवग तित्थभेया लहुहत्थसंपउत्ता जूइकरा खंडरक्ख-त्थीचोर-पुरिसचोरसंधियेच्छा य गंथीभेयग-परधण-हरण-लोमावहारा अक्खेवी हडकारगा णिम्महगगूढचोरग-गोचोरग-अस्सचोरग दासीचोरा य एकचोरा ओकड्डग-संपदायग-उच्छिपगसत्थघायग-बिलचोरीकारगा * य णिग्गाहविप्पलुंपगा बहुविहतेणिक्क-हरणबुद्धी एए अण्णे य एवमाई परस्स दव्वाहि जे अविरया। * "बिलकोलीकारगा' - पाठ भेद। For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौर्य-कर्म के विविध प्रकार . .. १०९ **************************************************************** शब्दार्थ - पुण - फिर, करेंति- करते हैं, चोरियं - चोरी, तक्करा - तस्कर-चोर, परदव्व-हरापराये द्रव्य का हरण करने वाले, छेया - चोरी में निपुण, कयकरणलद्धलक्खा - चौर्यकर्म करने के अभ्यासी एवं अवसर के जानने वाले, साहसिया - साहसिक-हिम्मतवान्, लहुस्सगा - तुच्छता से युक्त, अइमहिच्छ लोभगच्छा - अत्यन्त तृष्णा वाले, लोभ में गृद्ध, दद्दरओवीलका - बोलने और दूसरों पर विश्वास जमाने में चतुर, गेहिया - पराये धन में गृद्ध , अहिमरा - सामने आये हुए को मारने वाले, अणभंजग - लिये हुए ऋण को नहीं लौटाने वाले, भग्गसंधिया - सेंध लगाने वाले-अथवा दिये हुए वचन को तोड़ने वाले, रायट्ठकारी - राज्य-भंडार लूटने वाले अथवा राज्य के विरुद्ध आचरण करने वाले, विसयणिच्छूढलोकबज्झा - देश से निकाले हुए, जनता द्वारा बहिष्कृत, उद्दोहग - जनद्रोही, घातक अथवा वन को जलाने वाला, गामघायग - ग्राम को नष्ट करने वाले, पुरघायग - नगर विध्वंशकारी, पंथघायग - पथिकों को मारने वाले, आलीवग - घरों में आग लगाने वाले, तित्यभेया - तीर्थभेदकतीर्थ-यात्रियों को लूटने वाले अथवा नदी आदि के घाट को नष्ट करने वाले, लहुहत्थसंपठत्ता - हाथ की सफाई से लूटने वाले, जूइकरा - जुआ खेल कर धन हरने वाले, खंडरक्खत्थीचोर - खंड-रक्षक-चुंगी अधिकारी भी चोरी करते हैं और स्त्री भी चोरी करती है, पुरिसचोर - पुरुष भी चोर होते हैं, संधिच्छेयाघरों में सेंध लगाकर चोरी करते, गंथीभेयग - गाँठ खोलकर या जेब काटकर चोरी करने वाले, परधणहरण - पराये धन का हरण करने वाले, लोमावहारा - प्राण लूटकर धन लेने वाले, अक्खेवीमंत्रादि से अभिभूत-विवश करके-भ्रमित करके लूटने वाले, हडकारगा - बल से दबाकर-जबरन लूटने वाले. णिम्महग - मनुष्यों का मर्दन करके चोरी करने वाले, गढचोरग - गप्त रूप से-प्रच्छन्न रहकर लूटने वाले, गोचोरग - गाय-बैल चुराने वाले, अस्सचोरग - घोड़ों को चुराने वाले, दासीचोरग - दासी के चोर, एकचोर - अकेले ही चोरी करने वाले, ओकडग - दूसरे चोरों को भी साथ लेकर डाका.डालने वाले, संपदायग - चोरों को भोजनादि देकर चोरी के लिए प्रेरित करने वाले, उच्छियम - चोरों को या चोरी के धन को छुपाने वाले, सत्थघायग - सार्थ के घातक, बिलचोरी कारगा-गीदड़ आदि की बोली-बोलक-भय उत्पन्न कर लूटने वाले अथवा विश्वासोत्पादक वचन बोलकर लूटने वाले, णिग्गाहविप्पलुंपगा - जो राज्याधिकारियों से भी पकड़े नहीं जा कर तथा धोखा देकर बच जाते हैं, बहुविहतेणिक्कहरणबुद्धि - अनेक प्रकार से चोरी करने में जिनकी बुद्धि तीक्ष्ण है, एए - ये, अण्णेअन्य, एवमाइ - इसी प्रकार, परस्स दव्याहि - दूसरों के द्रव्य से, जे अविरया - जो विरत नहीं। ... भावार्थ - चोरी करने वाले पराये धन को उड़ाने में निपुण होते हैं। वे चौर्यकर्म के अभ्यासी तथा उचित अवसर के ज्ञाता होते हैं। वे साहसिक होते हैं। उनकी भावना अत्यन्त क्षुद्र होती है। वे अत्यन्त लोभी होते हैं। वे मीठे या अनुकूल वचन बोलकर और विश्वास जमा कर दूसरों को ठगने में बड़े कुशल होते हैं। उनकी रुचि एकमात्र धन में ही होती है। कोई सामने आने वालों को लूटता है, कोई ऋण लेकर (या ब्याज का लोभ देकर) दूसरों का धन दबा लेते हैं। कोई दूसरों के घरों में सेंध लगा For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०३ **************************************************************** (दीवार फोड़) कर चोरी करते हैं, कोई राज्य-भण्डार लूटते हैं (अथवा राज्य के नियम को लोप कर द्रव्य हरण करते हैं)। ऐसे चोरों को देश निकाला दिया जाता है और जनसाधारण से भी वे बहिष्कृत हो जाते हैं। चोर लोग अपना आतंक जमाने के लिए अथवा अपनी सुविधा के लिए वन को जला देते हैं। कोई चोर ग्राम को उजाड़ देते हैं। कोई डाकुओं का समूह नगर का ध्वंश कर देता है। कई बटमार हो कर पथिकों को लूटते हैं। कई चालाक मनुष्यों का ध्यान हटाने के लिए किसी घर में आग लगा देते हैं और जब लोग आग बुझाने जाते हैं, तब वे सूने घरों में लूट लेते हैं। कोई तीर्थयात्री. बनकर अन्य यात्रियों को लूट लेते हैं। कोई हाथ की सफाई में इतने चतुर होते हैं कि दृष्टि के सामने चोरी कर लेने पर भी मालूम नहीं होने देते। कई द्युत खेलकर चालाकी से दूसरों का धन मार डालते हैं। कई चुंगी अधिकारी, जनरक्षक या कोषाधिकारी होकर भी चोरी करते हैं। कई स्त्रीवेश में चोरी करते हैं अथवा स्त्रियों से चोरी करवाते हैं अथवा स्त्रियों को उड़ाकर और उन्हें बेचकर धन प्राप्त करते हैं। कोई पुरुष का हरण कर धन की मांग करते हैं। कई गांठ और जेब काटकर धन उड़ा लेते हैं। कई निर्दयी चोर, मनुष्यों के प्राण लेकर ही धन लेते हैं। . कोई मंत्रादि से बुद्धि विभ्रम करके लूट लेते हैं। कोई अधिकारी अपने अधिकार का दबाव डालकर धन निकलवाते हैं। कोई मनुष्यों के मर्म स्थानों का मर्दन कर संज्ञा-शून्य करके लूट लेते हैं। कई चोर गुप्त रहकर (दूसरों के द्वारा) लूटते हैं। कोई गाय चुराते हैं, तो कोई घोड़े चुराते हैं। कुछ चोर दासियों को चुरा लेते हैं। कई चोर अकेले ही चोरी करते हैं और कई दूसरे को साथ लेकर चोरी करते हैं या अन्य चोरों से चोरी करवाते हैं। कुछ लोग स्वयं तो चोरी करने नहीं जाते, किन्तु चोरी करने वालों के सहायक बनते हैं। उन्हें भोजनादि देते हैं और चोर या चोरी के माल को छुपाते हैं। कुछ डाकू, व्यापारियों के सार्थ को लूटते हैं। कोई गीदड़ की बोली बोलकर भय उत्पन्न करके लूटते हैं। वे भागने और छुपने में इतने कुशल होते हैं कि राज्याधिकारियों की पकड़ में भी नहीं आते। चोर लोग अपने चौर्यकर्म में दक्ष एवं निपुण होते हैं। ये और अन्य अनेक प्रकार के चोर होते हैं। उन चोरों को दूसरों का द्रव्य हरने-अदत्त ग्रहण करने का त्याग नहीं होता। विवेचन - उपरोक्त सूत्र में चोरों को चौर्यकर्म के प्रकार बतलाये हैं। तित्थभेया - तीर्थयात्रियों को लूटने वाले अथवा तीर्थ स्थानों पर रहकर यात्रियों का धन चुराने वाले अथवा तीर्थ-यात्रियों के समूह से किसी को पृथक् कर लूटने वाले। तीर्थ स्थान को भंग कर तीर्थ के धन का हरण करने वाले। नदी आदि जलाशय के घाट को तोड़ने वाले। खंडरक्ख - खण्डरक्षक-चुंगी अधिकारी। यहाँ विभागाधिकारी, जनरक्षक और कोषरक्षक भी ग्रहण किये जा सकते हैं। रक्षक पद पर रहकर जो चोरी करते-करवाते व घूस लेते हैं, वे इस भेद में चोर हैं। स्त्रीचोर - स्त्रियाँ भी चोरी करती हैं। स्त्रियाँ स्त्रीसमूह में मिलकर अथवा पुरुष को मोहित कर For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन के लिए राजाओं का आक्रमण चोरी करती है अथवा स्त्री रूप बनाकर चोरी करना या स्त्रियों को उड़ाकर ले जाना और अन्यत्र बेचकर धन प्राप्त करना । पुरुषचोर - पुरुषों का हरण करके उसके घर वालों से धन प्राप्त करना । हडकारग - हठपूर्वक धन निकलवाने वाले । अपने अधिकार का प्रभाव डालकर अथवा किसी प्रकार का आरोप लगाकर धन हड़पना- घूस (लांच) लेना। गूढचोर - प्रच्छन्न चोर । स्वयं गुप्त रहकर चोरी करने वाला, जिस पर किसी का सन्देह भी नहीं हो सके । गोचोर - गाय का चोर । यहाँ गाय, बैल, भैंस आदि पशु भी ग्रहण किये जा सकते हैं और भेड़बकरे भी । कुक्कुट चोर भी इसी भेद में आ सकते हैं। दासीचोर - किसी रूपवान् दासी का हरण करने वाले अथवा स्त्री का हरण कर दासी रूप से रखने वाले अथवा दासी रूप में बेचकर धन प्राप्त करने वाले । इस भेद में दासचोर भी आ सकते हैं। गुलामों की बिक्री के चलते ऐसी चोरियाँ बहुत होती थीं। कहीं-कहीं बच्चे उड़ाने की घटनाएं भी होती हैं, यह भी इसी भेद में है । " १११ धन के लिए राजाओं का आक्रमण विउलबलपरिग्गहा य बहवे रायाणो परधणम्मि गिद्धा सए व दव्वे असंतुट्ठा. परविसए अहिहणंति ते लुद्धा परधणस्स कज्जे चउरंगविभत्त- बलसमग्गा णिच्छियवरजोहजुद्धसद्धिय-अहमहमिइदप्पिएहिं सेण्णेहिं संपरिवुडा पउमसगडसूइचक्कसागरगुरुलवूहाइएहिं अणिएहिं उत्थरंता अभिभूय हरंति परधणाई । शब्दार्थ - विउलबलपरिग्गहा - विपुल बल एवं परिवार से युक्त, बहवे - बहुत से, रायाणो राजा, परधणम्मि पराये धन में, गिद्धा - गृद्ध-आसक्त, सए व दव्वे - अपने द्रव्य में, असंतुट्ठा - असंतुष्ट, परविसए - दूसरों की भूमि के विषय में, अहिहणंति - आक्रमण करते हैं, हनन करते हैं, लुद्धा - गृद्ध, कज्जे- कार्य में, चउरंगविभत्तबलसमग्गा - हाथी, घोड़े, रथ और पदाति इस प्रकार चार अंगों से युक्त सेना का वर्ग बनाकर व्यूह रचकर, णिच्छियवरजोहजुद्धसद्धिय - निश्चित- विश्वस्त योद्धाओं को साथ लेकर लड़े जाने वाले, युद्ध में प्रीति रखने वाले, अहमहमिइदप्पिएहिं - "मैं वीर हूँ"इस प्रकार गर्वोक्ति से युक्त, सेण्णेहिं संपरिवुडा - सेना से युक्त होकर, पउमसगडसूइचक्कसागरगरुलवूहाइएहिं - पद्मव्यूह, शकटव्यूह, शूचिकाव्यूह चक्र व्यूह सागरव्यूह और गरुड़व्यूह आदि की रचना करते हैं, अणिएहिं - अपनी सेना द्वारा, उत्थरंता शत्रु सेना को चारों ओर से घेर लेते हैं, अभिभूय - पराजित करके, हरंति - हरण करते हैं, परधणाई - दूसरे के धन को । भावार्थ - राजा-महाराजा भी अपने प्राप्त धन एवं राज्य में संतुष्ट नहीं रहकर दूसरे राजाओं के - ************ - For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०३ धन एवं राज्य में लुब्ध हो जाते हैं। वे बल और विशाल परिवार सहित दूसरे देश एवं राज्य का घात करने में तत्पर होते हैं। वे अपने विश्वस्त योद्धाओं को साथ लेकर युद्ध करने की तैयारी करते हैं। हाथियों, घोड़ों, रथों और पदाति रूप चतुरंगिनी सेना को लेकर वे दूसरे के राज्य पर चढ़ाई करते हैं। 'मैं वीर हूँ, योद्धा हूँ, अजेय हूँ' - इस प्रकार का गर्व करने वाले सैनिकों के साथ वे युद्ध करने के लिए प्रयाण करते हैं। फिर पद्मव्यूह, शकटव्यूह, शूचिकाव्यूह, चक्रव्यूह, सागरव्यूह और गरुड़व्यूह आदि व्यूह की रचना करके शत्रु-सेना को चारों ओर से घेर लेते हैं और पराजित करके उसकी संपत्ति का हरण कर लेते हैं। विवेचन - राजाओं का अपनी सम्पत्ति, वैभव एवं राज्य-सीमा का अतिक्रमण करके दूसरे राज्य की सीमा एवं संपत्ति को प्राप्त करने का प्रयत्न करना भी डाकूपन है। राज्य-लिप्सा के कारण वे युद्ध की रचना करते हैं। हजारों-लाखों मनुष्यों और हाथी-घोड़े आदि पशुओं को मार डालते हैं। अन्य चोर छुपकर चोरी करते हैं, तब राजा-महाराजा प्रकट रूप से आक्रमण करके दूसरे राज्य की सम्पत्ति और भूमि लूटते हैं। अपनी प्राप्त सम्पत्ति, वैभव और राज्य सीमा में संतुष्ट नहीं रहकर दूसरों की सम्पत्ति एवं राज्य पर ललचाना और आक्रमण करके लूट लेना भी अदत्त ग्रहण रूप पाप है। युद्ध के लिए शस्त्र-सज्जा अवरे रणसीसलद्धलक्खा संगामंसि अइवयंति अण्णद्धबद्धपरियर-उप्पीलिय चिंधपट्टगहियाउहपहरणा माढिवर-वम्मगुंडिया, आविद्धजालिया कवयकंकडइया उरसिरमुंह-बद्ध-कंठतोणमाइयत्तिवरफलहर-चिय-पहकर-सरहसखरचावकरकरंछियसुणिसिय-सरवरिसचडकरगमुयंत-घणचंड-वेगधाराणिवायमग्गे अणेगधणुमंडलग्गसंधिवा-उच्छलियसत्तिकणग-वामकरगहिय-खेडगणिम्मल-णिक्किट्ठखग्ग-पहरंतकोत-तोमर-चक्क-गया-परसु-मूसल-लंगल-सूल-लउल-भिंडमाला-सब्बल-पट्टिस- . चम्भेट्ठ दुघण-मोट्ठिय - मोग्गर-वरफलिह - जंत-पत्थर-दुहण-तोण-कुवेणीपीढकलियईलीप-हरण-मिलिमिलिमिलंत-खिप्पंत-विजुजल-विरचियसमप्पहणभतले फुडपहरणे महारणसंखभेरिवरतूर-पउर-पडुपहडाहयणिणाय-गंभीरणंदिय पक्खुभिय-विउलघोसे हय-गय-रह-जोह-तुरिय-पसरिय-उद्धतत-मंधकारबहुले कायर-णर-णयणहिययवाउलकरे। शब्दार्थ - अवरे - दूसरे कुछ राजा, सणसीसलद्धलक्खा - अनेक संग्रामों में विजय प्राप्त किये हुए, संगामंमि - संग्राम में, अइवयंति - स्वयं जाते हैं, सण्णद्धबद्धपरियर - सन्नद्ध-युद्ध सामग्री से सज और बद्धपरिकर-कवच और पट्ट से बद्ध-रक्षित हो, उप्पीलियचिंधपट्ट - मस्तक पर चिह्न पट For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ **************************************************************** युद्ध के लिए शस्त्र-सजा बांधकर, गहियाउहपहरणा - शस्त्र ग्रहण करते हैं, माढिवरवम्मगुंडिया - रक्षा के कवच आदि उत्तम साधन से शरीर को वेष्टित करते हैं, आविद्धजालिया - लोह कंचुक-जालिका से वेष्टित होता है, कवयकंकडइया - लोहे का कांटेदार कवच धारण करते हैं, उरसिरमुहबद्धकंठतोण - उनकी पीठ पर ऊंचे मुंह वाले बाणों से भरा हुआ तूणीर बंधा रहता है, माइयत्ति - इस प्रकार वे युद्ध में आते हैं, वरफलहरचिय-पहकर-सरहसखरचावकर करंछिय सुणिसिय सरवरिस-चडकरगमुयंत-घणचंडवेगधारा णिवायमग्गे - ढाल आदि से युक्त, सेना की रचना करके, हर्ष एवं वेग युक्त, हाथ में अत्यन्त तीक्ष्ण शस्त्र लेकर, भयंकर शब्द करते हुए अत्यन्त तीक्ष्ण बाणों की वर्षा से इस प्रकार करते हैं कि जैसे अत्यन्त तेज धारा के साथ मेघ बरस रहा हो, अणेगधणुमंडलग्ग-संधिवा-उच्छलियसत्तिकणग - अनेक धनुष, बहुत-सी तलवारें और बहुत-से त्रिशूल और बाण, शत्रु पर प्रहार करने के लिए ऊपर उठे हुए दिखाई देते हैं, वामकरगहियखेडग - बायें हाथ से ढाल ग्रहण कर, णिम्मलणिक्किट्ठखग्ग - तीक्ष्ण निरावरण एवं चमकते हुए क्रूर खड्ग लिए हुए योद्धा, पहरंत-कोंततोमर-चक्क-गया-परसु-मूसल-लंगल-सूल-लउल-भिंड-माला - प्रहार करने में तत्पर ऐसे-कुन्त, तोमर, चक्र, गदा, कुठार, मूसल, हल, शूल, लाठी, भिंडमाल, सब्बल-पट्टिस-चम्मेढ़-दुघण-मोट्ठियमोग्गर - भाला, पट्ठिस, चर्मेष्ट-चमड़े से मढ़ा हुआ पाषाणमय शस्त्र मुद्गर, मौष्टिक से, वरफलिह-जंतपत्थर-दुहण-तोण-कुवेणी-पीढकलिय - परिघ, यंत्रपत्थर-गोफण आदि से फेंके गये पत्थरों से द्रुघण-मुद्गर विशेष शरधि, कुवेणी-पीढकलित-पीठ यंत्र से युक्त, ईलीपहरण - दुधारी तलवार, मिलिमिलिमिलंत खिप्पंत विजुजल विरचिय समप्पहणभतले - अंत्यन्त चमकीले, प्रभायुक्त तथा आकाश में चमक कर गिरती हुई बिजली के समान चंचल दिखाई देने वाले, फुडपहरणे - शस्त्र स्पष्ट दिखाई देते हैं, महारण – बड़े संग्राम में, संखभेरि वर-तूर-पउर-पडुपहडाहयणिणाय-गंभीरणंदियशंख, भेरी, तूर्य और ढोल नगाड़े आदि के बजाने से निकली हुई गम्भीर ध्वनि से हर्षित, पक्खुभियविउल घोसे - वीरों के सिंहनाद से तथा क्षुभित हुए कायरों की चित्कारी और आर्तनाद से कालोहलपूर्ण, हय-गय-रह-जोह-तुरिय-पसरिय-उद्धत-तमंधकार बहुले - दौड़ते हुए घोड़े, हाथी, रथ और योद्धाओं के पांवों से उठी हुई धूल के कारण आकाश में व्याप्त हो जाने से संग्राम भूमि अन्धकार से परिपूर्ण होती है, कायर-णर-णयण-हिययवाउलकरे - वह युद्ध भूमि कायर मनुष्य के हृदय और नेत्र को व्याकुल कर देती है। भावार्थ - कई युद्ध में विजय प्राप्त किये हुए कुछ अन्य राजा आदि संग्राम में जाते हैं। वे कवच, कमरपट्टा, मस्तक पर चिह्नांकित पट्ट (टोप जैसा पट्ट जो ललाट और मस्तक की रक्षा करता है) धारण करते हैं और अनेक प्रकार के शस्त्र ग्रहण करते हैं। वे शरीर की रक्षार्थ उत्तम प्रकार के कवच पहनते हैं। लोहमय जालिका और कांटेदार कवच धारण करते हैं। ऊँचा मुंह किये हुए बाणों से भरे हुए तूणीर उनकी छाती पर बंधा रहता है। वे ढाल आदि से युक्त होकर सेना की व्यूह रचना करते हैं। हर्ष और For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ****** प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० ३ उत्साह से हाथ में अत्यन्त तीक्ष्ण शस्त्र लेकर, भयंकर शब्द करते हुए बाणवर्षा करते हैं, जैसे- बादलों द्वारा घनघोर बाणवर्षा की जा रही हो। वे युद्धप्रिय योद्धा, अनेक धनुष, तलवारें बहुत-से त्रिशुल और बाण ऊँचे उठाकर शत्रु पर प्रहार करने के लिए तत्पर रहते हैं । वे बायें हाथ में ढाल ग्रहण करके दाहिने हाथ में ऐसे खड्ग ग्रहण करते हैं जो म्यान से निकाल लिये गये हों और जिनकी स्वच्छता चमचमाहट करती हुई चकाचौंध करती दिखाई देती हो। उनके शस्त्र-कुन्त, तोमर, चक्र, गदा, कुठार (फरसा) मूसल, हल, शूल, लाठी, भिंडमाल, भाला, पट्टिस, चर्मेष्ट, मुद्गर, मौष्टिक, परिध, यंत्र - पत्थर, दुघण, शरधि, कुवेणी, पीठफलित और दुधारी तलवार आदि शस्त्र जो अत्यन्त चमकीले और आकाश से चमक कर गिरती हुई बिजली के समान प्रभायुक्त एवं चंचल दिखाई देते हैं । उस महासंग्राम में शंख, भेरी, तूर्य्य, ढोल और नगाड़े आदि के बजाने से होती हुई गंभीर ध्वनि हर्षित योद्धाओं के सिंहनाद तथा क्षुभित एवं भयाक्रांत कायरों के आर्त्तनाद एवं चित्कार से वहाँ कोलाहल उत्पन्न हो जाता है। दौड़ते हुए घोड़े, हाथी, रथ और योद्धाओं के पांवों से उठी हुई धूल, आकाश मंडल पर इतनी छा जाती है कि जिससे दिन में सूर्य का प्रकाश भी दबकर अन्धकार छा गया हो। ऐसी युद्ध भूमि कायर मनुष्यों के हृदय को व्याकुल कर देती है। विवेचन उपरोक्त सूत्र में दूसरों के अधिकार के धन, धान्य और पृथ्वी आदि तथा भोगसाधनों को बलात् ग्रहण करने के लिए किये जाने वाले युद्ध में प्रयोग में आने वाले अस्त्र-शस्त्र तथा योद्धाओं की शस्त्र - सज्जा का वर्णन है और युद्धभूमि के वीभत्स वातावरण का उल्लेख किया गया है। . युद्ध-स्थल की वीभत्सता こ - ******** विलुलियउक्कड व - वर - मउड - तिरीड - कुंडलोडुदामाडोविया पागड-पडागउसियज्झय - वेजयंतिचामरचलंत - छत्तंधयारगंभीरे हयहेसिय-हत्थि-गुलुगुलाइयरहघणघणाइय-पाइकहरहराइय- अप्फाडिय - सीहणाया, छेलिय-विघुटुक्कुट्ठकंठगयसद्दभीमगज्जिए, सयराह - हसंत-रुसंत - कलकलरवे आसूणियवयणरुद्धे भीमदसणाधरो गाढदट्ठे सप्पहारणुज्जयकरे अमरिसवसतिव्वरत्तणिद्दारितच्छे वेरदिट्ठिकुद्ध - चिट्ठिय-तिवलि - कुडिलभिउडि-कयणिलाडे वहपरिणयणरसहस्स - विक्कमवियंभियबले । वग्गंत - तुरगरद्द - पहाविय समरभडा आवडियछेयलाघव-पहारसाहिया समूसविय - बाहु-जुयलं मुक्कट्टहासपुक्कंतबोल - बहुले । शब्दार्थ - विलुलिय- ढीले हो जाने से हिलते हुए, उक्कडवरमउ - : उत्तमोत्तम मुकुट, तिरीड - किरीट- कलंगी-तुर्रा-मस्तक पर धारण करने का भूषण, कुंडल कानों में पहनने का आभूषण, उडुदामनक्षत्र - माला के समान आभूषण, आडोविया - चमक रहे पागड - प्रकट, पडाग पताका, - For Personal & Private Use Only - Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युद्धस्थल की वीभत्सता उसियज्झय - ऊँची उठी हुई ध्वजा, वेजयंती - विजय-सूचक ध्वजा, चामरंचलंत - चलते हुए चामर, छत्त - छत्र, अंधयारगंभीरे - अन्धकार से, गम्भीर-गहन बना हुआ, हयहेसिय- घोड़ों की हिनहिनाहट, हत्थगुलगुलाइय - हाथियों की गुलगुलाहट - चिंघाड़ना, रहघणघणाइय रथों की घनघनाहट, पाइक्कहरह-राइय - पदाति सैनिकों की हरहराहट की ध्वनि, अप्फाडिय - भुजाओं का आस्फालन करते हुए-ताल ठोकना, सीहणाया - सिंहनाद करते हुए, छेलिय चित्कार करना, विघुट्ठक्कुट्ठकंठगयसद्द भीमगज्जिए - विरूप घोष एवं उत्कृष्ट नाद से तथा आनन्द व्यक्त करने वाली कण्ठ से निकली महाध्वनि से मेघ के समान महान् गर्जना हो रही है, सयराह - एक साथ, हसंत - हँसते, रुसंतरुष्ट हुए, कलकलरवे - कलकल-कोलाहल हो रहा है, आसूणियवयणरुद्दे - क्रोधित हो अपने मुंह को फुलाकर रौद्र रूप बनाये हुए, भीमदसणाधरोट्ठगाढदट्ठे - भयंकर भ्रकुटि चढ़ाकर क्रोध से अपना ओठ दाँतों से चबाता है, सप्पहार-णुज्जयकरे प्रहार करने के लिए जिनके हाथ उठे हुए हैं, अमरिसवसतिव्वरत्तणिद्धारितच्छे - क्रोध से किसी के नेत्र अत्यन्त फैलकर लाल हो जाते हैं, वेरदिट्ठिकुद्ध - वैर भाव से क्रोधित बने हुए, चिट्ठियतिवलि - ललाट में त्रिवली - तीन रेखाएं पड़ी हुई है, कुडिलभिउडिकय- णिलाडे - कुटिल-डेढ़ी भ्रकुटि उनके ललाट पर तनी हुई है, वहपरिणय वध करने में तत्परं बने हुए, णरसहस्स - - हजारों मनुष्य, विक्कमवियंभियबले विक्रम-पराक्रम से प्रकट हुआ है बल जिनका, वग्गंततुरगरहपहावियं समरभडा - घोडे रथ और पदाति सैनिक बड़े वेग से दौड़ते हैं, आवडियछेयलाघवपहारसाहिया - योद्धागण शीघ्रता एवं चपलता पूर्वक शस्त्रास्त्रों का प्रयोग करते हैं, समूसवियबाहुजुयलं - हर्षातिरेक से जिनकी दोनों भुजाएं ऊपर उठी हुई हैं, मुक्कट्टहासपुक्कंतबोलबहुले - मुक्त अट्टहास-खुलकर हँसते हुए एवं पुकारने से बहुत ही कोलाहल पूर्ण बने हुए । भावार्थ - युद्धोन्मत्त राजाओं के मस्तक के उन्नत मुकुट, किरीट और कुंडल अस्थिर बने हुएहिलते हुए नक्षत्रमाला के समान चमक रहे हैं। फरफराती हुई ध्वजाएं और विजय की सूचना देती हुई ऊँची पताकाएँ (अपनी छाया से ) छत्र एवं चामर के समान लगती हैं और उससे उत्पन्न अन्धकार से गंभीरता व्याप्त हो गई हैं। घोड़े हिनहिना रहे हैं, हाथी गुलगुलाहट कर रहे हैं, रथों की घनघनाहट हो रही है। पदाति सेना, हरहराहट करती हुई ताल ठोकती है और सिंहनाद करती है। आनन्द - सूचक महाघोष करती है। ये सभी ध्वनियाँ मिलकर मेघ के समान घोर गर्जना सुनाई देती है । वीरों के एक साथ हँसने तथा क्रोधित होकर ललकारने से घोर कोलाहल उत्पन्न हो गया है। क्रोधित होकर फुलाये ... हुए मुंह से वे वीर भयंकर दिखाई देते हैं। कोई भ्रकुटि चढ़ाकर कुपित हुआ अपने होठ को दाँतों से चबाता हुआ दिखाई दे रहा है, किसी के हाथ, शत्रु पर प्रहार करने के लिए ऊपर उठे हुए हैं, क्रोध के कारण किसी के नेत्र अत्यन्त लाल और बड़े दिखाई देते हैं और अपने शत्रु पर क्रोध करने के कारण किसी के ललाट पर त्रिवली (तीन रेखाएं) बन गई हैं। युद्धरत हजारों मनुष्य दूसरों को मारने का ही भाव लिए हुए हैं। आवेश के कारण उनके शरीर में अधिक बल दिखाई देता है । युद्धस्थल में घोड़े, रथ ****************** For Personal & Private Use Only ******************** - ११५ - www.jalnelibrary.org Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ०३ *************************************************************** और पदाति सैनिक बड़े वेग से दौड़ते हैं। योद्धागण शीघ्रतापूर्वक अपने शत्रु पर शस्त्र प्रहार करते हैं। अपने प्रहार की सफलता देखकर वे दोनों हाथ ऊपर उठाकर अट्टहास करते हैं। इस कारण भी वहाँ कोलाहल उत्पन्न होता है। फलफलगावरणगहिय-गयवरपत्थिंत-दरियभडखल-परोप्परपलग्गजुद्धगवियविउसियवरासिरोस-तुरियअभिमुह-पहरितछिण्णकरिकर-विभंगियकरे अवइट्ठणिसुद्धभिण्णफालियपगलियरुहिर-कयभूमि-कद्दमचिलिचिल्लपहे कुच्छिदालियगलिंतरुलिंतणिभेल्लंतंत-फुरुफुरंत-अविगल-मम्माहय-विकयगाढदिण्णपहार-मुच्छितरुलंतवेंभलविलावकलुणे हयजोहभमंत-तुरग-उद्दाममत्तकुंजर-परिसंकियजणणिब्बुकच्छिण्णधय-भग्ग-रहवरणट्ठसिरकरिकलेवराकिण्ण-पतित-पहरण- . विकिण्णाभरण-भूमिभागे णच्चंत-कबंधपउरभयंकर-वायस-परिलेंत-गिद्धमंडलभमंतच्छायंधकार-गंभीरे। वसुवसुहविकंपियव्व-पच्चक्ख-पिउवणं परमरुहबीहणगं दुप्पवेसतरगं अहिवयंति संगामसंकडं परधणं महंता। शब्दार्थ - फलफलगावरणगहिय - शस्त्र-प्रहार को रोकने के लिए चर्मावरित फलक-ढाल लिये हुए, गयवरपत्थिंत - शत्रु के हाथी पर चढ़ते हैं, दरियभडखल - दुष्ट योद्धा अपने बल से गर्वित बने हुए, परोप्परलग्ग - एक दूसरे को मारने के लिए परस्पर युद्ध करते हैं, जुद्धगव्विय - युद्ध कौशल से गर्वित बने हुए, विउसियवरासिरोसतुरिय - अपनी खुली तलवारें लिए और क्रोध से तप्त बने हुए शीघ्र ही, अभिमुहपहरितछिण्णकरिकर - प्रहार कर के हाथी की सूंड काट कर विभंगियकरे - अंगहीन कर देते हैं अथवा हाथ काट देते हैं, अवइट्ठ - बाणों से बेधे गए, णिसुद्ध- नीचे गिराये हुए, त्रिशूलादि से भेदे और कुठारादि से फाड़े हुए, पगलियरुहिर - झरते हुए रक्त से, कयभूमिकहमचिलिचिल्लपहे - भूमि कीचड़ युक्त हो कर मार्ग चिकने बन गए हैं, कुच्छिदालिय - विदारित कुक्षि-पेट से, गलित - रक्त बहता है, रुलिंतणिभेल्लंतंत - आंते पेट से बाहर निकल गई हैं, फुरुफुरंतकम्पित हो रहे हैं, अविगल - विकल-शून्य हो रही है, मम्माहयविकयगाढदिण्णपहार- मर्मस्थान में हुए प्रबल प्रहार से, मुञ्छित - मूछित, रुलंत - भूमि पर लोटते हुए, वेंभल - व्याकुल हो, विलावकलुणे - करुणाजनक विलाप करते हैं, हयजोहभमंततुरग - जिनके योद्धा मारे गए हैं, ऐसे भटकते हुए घोड़े, उद्दाममत्त-कुंजर - मदोन्मत्त हाथी, परिसंकियजण - जिन्हें देख कर मनुष्यों को शंका होती है, णिब्बुकछिण्णधय भग्गरहवर - रथों की ध्वजाएं टूट कर गिर गई और बहुत-से रथ भी नष्ट हो गए हैं णट्ठसिरकरिकलेवराकिण्ण - जिनके मस्तक कट गये हैं, ऐसे बहुत-से हाथियों के शरीर से भूमि पटी हुई है, पतितपहरण - गिरे हुए अस्त्र-शस्त्रों से, विकिण्णाभरणभूमिभागे - भूमि पर बिखरे हुए आभरणों से, णच्चंतकबंधपुर - बहुत से मस्तक रहित धड़ नाचते हुए दिखाई देते हैं, For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “युद्धस्थल की वीभत्सता ११७ *************************************************** ************ भयंकरवायसपरिलेंतगिद्धमंडलभमंतच्छायंधकारगंभीरे - मांसलोलुप भयंकर कौओं और गिद्धों के झुण्डों के मंडराने से व्याप्त अंधकार के कारण भयंकर बने हुए, वसुवसुहविकंपियव्व - देवों और पृथ्वी को कम्पित करने वाले, पच्चक्खपिउवणं - प्रत्यक्ष पितृवन-श्मशान भूमि जैसे, परमरुद्धबीहणगं - जो अत्यन्त रौद्र एवं भयानक हो रही है, दुष्पवेसतरगं-जिसमें प्रवेश करना अत्यन्त कठिन है, अहिवयंतिप्रवेश करते हैं, संगामसंकर्ड - गहन युद्ध में, परधणं महंता - पराये धन में लुब्ध होने वाले। . भावार्थ - कोई बलवान् अपनी चमकती हुई नग्न तलवार ले कर शत्रु के हाथी पर चढ़ जाते हैं और अपनी शक्ति का परिचय देते हैं। वे गर्वोन्मत्त होते हैं। कुछ योद्धा शत्रु के साथ मल्लयुद्ध करते हैं। कोई वीर युद्ध में गर्वोन्मत्त हो कर हाथ में तलवार लिए अपने अभिमुख शत्रु पर चपलता पूर्वक प्रहार करते हैं, कई तलवार से हाथी की सूंड काट कर अंगहीन बना देते हैं। कोई भाले से किसी का पेट फोड़ देते हैं। रक्त के बहने से भूमि पर कीचड़ हो जाता है और मार्ग चिकने (फिसलने योग्य) हो जाते हैं। किसी का पेट फाड़ डालने से रक्त बहता है और आंते बाहर निकल पड़ती है। गाढ़ प्रहार के कारण किसी की इन्द्रियाँ फड़फड़ाहट करती (कम्पित होती) है और किसी की इन्द्रियाँ शून्य हो जाती हैं। मर्मस्थान में प्रहार होने से कोई छटपटा रहा है। कोई घायल हो कर असह्य वेदना के कारण करुणाजनक रुदन कर रहा है। जिनके सवार मागे गये हैं, ऐसे-हाथी-घोड़े और मदोन्मत्त हाथी, इधरउधर भटक रहे हैं, जिन्हें देख कर शंका एवं भय होता है। बहुत-से रथों की पताकाएं कट कर गिर गई हैं। कितने ही रथ भी नष्ट हो गए हैं। जिनके मस्तक कट गए हैं - ऐसे हाथियों के शरीरों से भूमि पटी हुई दिखाई देती है। नीचे गिरे हुए शस्त्र और आभूषण इधर-उधर बिखरे दिखाई देते हैं। जिन वीरों के मस्तक कट गये हैं, उनके धड़ इधर-उधर नाचते हुए दिखाई देते हैं। मांसलोलुप भयंकर कौओं और गिद्धों के झुण्ड के झुण्ड आकाश में घूमने से, अन्धकार हो जाने के कारण वह स्थान भयंकर हो जाता है। देवों और पृथ्वी को प्रकम्पित करने की शक्ति रखने वाले और पराये धन को हड़पने की इच्छा रखने वाले राजा आदि व्यक्ति, ऐसी युद्धभूमि में प्रवेश करते हैं-जो प्रत्यक्ष ही पितृभूमि-श्मशान भूमि के समान है तथा परम रौद्र एवं भयंकर है, जिसमें प्रवेश करना अत्यन्त कठिन है। विवेचन - इस सूत्र में युद्ध की विभीषिका का लोमहर्षक स्वरूप बताया गया है। लोभ के वशीभूत होकर मनुष्य, दूसरों का धन हरण करने के लिए बड़े-बड़े युद्ध का समर्थन करके मानवसंहार करता है। यह सब अदत्तादान रूप तीसरे अधर्म-पाप का परिणाम है। ___ अवरे पाइक्कचोरसंघा सेणावई-चोरवंद-पागड्डिका य अडवी-देसदुग्गवासी कालहरितरत्तपीतसुक्किल-अणेगसयचिंध-पट्टबद्धा परविसए अभिहणंति लुद्धा धणस्स कज्जे। शब्दार्थ - अवरे - अन्य, पाइक्कचोरसंघा - पैदल चल कर चोरी करने वाले चोरों का समूह, सेणावई - सेनापति, चोरवंदपागड्डिका - चोरों के समूह को प्रोत्साहित करते हैं, अडवीदेस - For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ० ३.. **************************************************************** अटवी-वन में, दुग्गवासी - दुर्गम स्थान-अथवा दुर्ग में रहने वाले, कालहरितरत्तपीतसुक्किल - काले, हरे, लाल, पीले और श्वेत वर्ण वाले, अणेगसयचिंध-पट्टबद्धा - सैकड़ों चिह्नपट अपने मस्तक पर बांधने वाले, परविसए - दूसरों के देशों का, अभिहणंति - घात करते हैं, लुद्धा - लुब्ध बने हुए, धणस्स कज्जे - धन को चुराने के लिए। भावार्थ - उपरोक्त युद्धप्रिय वीरों के अतिरिक्त अन्य पैदल चल कर चोरी करने वाले चोरों के समूह भी होते हैं। कई ऐसे सेनापति भी होते हैं, जो चोरों को चोरी करने के लिए प्रोत्साहन देते हैं। यह चोरों का समूह वन में तथा दुर्गम स्थानों में या दुर्ग में रहते हैं। उनके काले, हरे, लाल, पीले और श्वेत वर्ण के सैकड़ों चिह्नपट्ट होते हैं, जिन्हें वे अपने मस्तक पर धारण करते हैं। दूसरों के धन में लुब्ध बने हुए वे चोर-समूह, चोरी करने के लिए दूसरों के प्रदेश में घुस कर धन का. हरण करते हैं और . लोगों का घात करते हैं। समुद्री डाके रयणागरसागरं उम्मीसहस्समाला-उलाउल-वितोयपोत-कलकलेंत-कलियं पायालसहस्स* वायवसवेगसलिल-उद्धम्ममाणदगरयरयंधकारं वरफेणपउर-धवलपुलंपुल-समुट्ठियट्टहासं मारुयविच्छुभमाणपाणियं जलमालुप्पीलहुलियं अवि य समंतओ खुभिय-लुलिय-खोखुब्भमाण-पक्खलिय-चलिय-विउलजलचक्कवालमहाणईवेगतुरियआपूरमाणगंभीर विउल-आवत्त-चवल-भममाणगुप्पमाणुच्छलंत-. पच्चोणियत्त-पाणियपधावियखर-फरु स-पयंडवाउलियसलिल-फुटुंत वीइकल्लोलसंकुलं महामगर-मच्छ-कच्छभोहार-गाह-तिमि-सुंसुमार-सावय-समाहयसमुद्धायमाणकपूर-घोरपउरं कायरजण-हियय-कंपणं घोरमारसंतं महब्भयंभयंकर पइभयं उत्तासणगं अणोरपारं आगासं चेव णिरवलंबं। शब्दार्थ - रयणागरसागरं - रत्नाकर सागर-रत्नों के भण्डार रूप समुद्र, उम्मीसहस्समाला - : हजारों लहरों-तरंगों की पंक्तियों से, उलाउलवितोयपोतकलकलेंतकलियं - व्याकुल होने के कारण भग्न हुए-या मीठा जल चुक जाने से जलयान के यात्री बहुत कोलाहल करते हैं, उस कोलाहल से युक्त, पायालसहस्स - हजारों पाताल-कलशों के, वायसवेग - वायु से वेग युक्त हुए, सलिलउद्धम्ममाणदगरयरयंधकारं - पानी की उछलती हुई तरंगों के समूह के अन्धकार हो गया है जहाँ, वरफेणपउरधवलपुलंपुल - स्वच्छ श्वेत ऐसे प्रचुर फेन से निरन्तर, समुट्ठियट्टहासं - अट्टहास उत्पन्न होने से, मारुय - वायु से, विच्छुभमाणपाणियं - क्षुब्ध-डोलायमान बना हुआ पानी, *"पायालकलससहस्स" - पाठ, पूज्य श्री घासीलालजी म. सा. वाली प्रति में है। For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्री डा *********** जलमालुप्पीलहुलियं जलतरंगें जिसमें नई उत्पन्न हो रही हैं, अवि य समंतओ - और चारों ओर से जो, खुभिय- क्षुब्ध, लुलिय- तट से टकराता हुआ, खोखुब्भमाणपक्खलियचलिय क्षुभित, चलित, विउल - जलचक्कवाल पानी के बड़े-बड़े चक्रवात-भंवर, महाणईवेग - महानदी का वेग, तुरियआपूरमाण शीघ्र ही उसे भर रही है, गंभीरविउल आवत्त - जिसमें बड़े गम्मीर आवर्त -चक्रभंवर होते हैं, चवलभममाण- चपलता से घूमता हुआ, गुप्पमाणुच्छलंत व्याकुलतापूर्वक उछलते हुए, पच्चोलियत्तपाणिय - और नीचे गिरते हुए प्राणी अथवा पानी, पधाविय प्रधावित- शीघ्रतापूर्वक बढ़ती हुई, खरफरुसपयंडवाउलियसलिल - कर्कश कठोर एवं प्रचण्ड रूप से पानी को मथित किया, फुट्टंतवीइकल्लोलसंकुलं टकरा कर भिन्न हुई तरंगें वेगपूर्वक बहती हैं, महामगरमच्छकच्छभोहारगाहतिमि - बड़े-बड़े मगरमच्छ, कच्छप, ओहार, ग्राह, तिमि, सुंसुमार - सावयसमाहय सुंसुमार, श्वापद आदि परस्पर संघर्षरत हैं, समुद्धायमाणकपूरघोरपडरं और प्रहार करने के लिए उग्र रूप से वेगपूर्वक धावा करते हैं कायरजणहिययकंपणं - जो कायर मनुष्यों के हृदय को कम्पित कर देता है, घोरमारसंतं घोर शब्द करता हुआ, महब्भयं महाभयजनक, भयंकरं भयंकर, पइभयंभयदायक, उत्तासणगं- त्रासदायक, अणोरपारं जिसका पार नहीं, आगांसं चेव- आकाश के समान, णिरवलंब - आलम्बन रहित । *********** - - For Personal & Private Use Only - ११९ - भावार्थ जलयान द्वारा विदेशों से व्यापारार्थ जाने वाले धनवान् व्यापारियों को समुद्री डाकू लूटने के लिए समुद्र में प्रवेश करते हैं। वह समुद्र महान् भयंकर है। उसमें हजारों तरंगें उठती रहती हैं। समुद्र की भयानकता देख कर या मार्ग भूल जाने से अथवा मीठा पानी समाप्त हो जाने के कारण भयोत्पादक स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इससे उनमें कोलाहल होता है। समुद्र में रहे हुए हजारों पातालकलशों में प्रचण्ड वायु प्रकोप उठ जाने से भी समुद्र के जल में तरंगें उठने लगती हैं। वे तरंगें इतनी वेगपूर्वक उठ कर आकाश पर छा जाती हैं कि जिससे अन्धकार हो जाता है। समुद्र में इधर-उधर तैरते हुए श्वेत जल-फेनों को देखने से ऐसा आभास होता है कि जैसे समुद्र अट्टहास करता हो । प्रबलता से चलते हुए वायु के आघात से समुद्र का जल हिलोरें लेता ही रहता है। वायु वेग से क्षुभित हो कर उछला हुआ जल, टकरा कर भयंकर शब्द करता है । वेगपूर्वक बढ़ता हुआ जल (ज्वार) पीछे हट कर (भाटा) चला जाता है। फिर जल जंतुओं से भी समुद्र का पानी क्षुभित स्खलित एवं चलित होता रहता है। समुद्र में अनेक स्थानों पर बड़े-बड़े चक्रवाल (भंवर) होते हैं। अत्यंत वेग पूर्वक आता हुआ गंगा आदि नदियों का पानी समुद्र को भरता रहता है। समुद्र के जल में बड़े-बड़े गंभीर आवर्त होते हैं (जिनमें गया हुआ यान शीघ्र नष्ट हो जाता । ये आवर्त महान् भयानक एवं विनाशक होते है) उन भंवरों में चक्कर काटता हुआ पानी बड़ी तेजी से उछलता है और बहुत-से जल जंतु उस जल के साथ उछलते हुए व्याकुल होते हैं और ऊपर-नीचे होते हुए लौटते रहते हैं । जल-जंतुओं को व्याकुल करने वाली जल-तरंगें अत्यन्त कर्कश कठोर एवं प्रचण्ड बनकर वेगपूर्वक दौड़ने लगती है। बड़े-बड़े मगरमच्छ, www.jalnelibrary.org Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० **** प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० ३ ***** कच्छप, ओहार, ग्राह, तिमि, सुंसुमार स्वापद (व्याघ्र के समान हिंसक जीव) आदि परस्पर आक्रमण करने के लिए दौड़ते हुए समुद्र के जल को क्षुब्ध करते हैं। इस प्रकार घोर शब्द करता हुआ समुद्र, कायरजनों के हृदय को कम्पित कर देता है। वह महान् भय का जनक, अत्यन्त भयंकर, भयप्रद एवं त्रासदायक है। आकाश के समान अवलम्बन से रहित उस सागर का किनारा दिखाई नहीं देता । उपायणपवण-धणिय - णोल्लिय उवरुवरितरंगदरिय- अड्वेग-वेग-चक्खुपहमुच्छरंतं कच्छइ - गंभीर - विउल-गज्जिय- गुंजिय- णिग्घायगरु यणिवडिय सुदीहणीहारि-दूरसुच्चंत - गंभीर - धुगधुगंतसद्दं पडिपहरुभंत - जक्ख - रक्खस-कुहंडपिसायरुसिय-तज्जाय-उवसग्ग- सहस्संकुलं बहूप्पाइयभूयं विरइयबलिहोम-धूवउवयारदिण्ण-रुहिरच्चणाकरणपयत-जोगपययचरियं परियंत- जुगंत-कालकप्पोवमं - महाभीमदरिसणिज्जं दुरणुच्चरं विसमप्पवेसं दुक्खुत्तारं दुरासयं लवण-सलिलपुण्णं असियसिय-समूसियगेहि हत्थतरकेहिं वाहणेहिं अइवइत्ता समुद्दमज्झे हणंति, गंतूण- जणस्स - पोए परदव्वहरा णरा । शब्दार्थ - उप्पाइयपवण - उत्पात करने वाले वायु-आँधी, धणियणोल्लिय- अतिशय वेगवान्, उवरुवरि - एक-दूसरी पर गिरती हुई, तरंगदरिय अइवेग - तरंगमालाएं अतीव वेगपूर्वक, वेगचक्खूपहमुच्छरंत - वह वेग दृष्टि पथ को ढक देता है, कच्छइ - कहीं-कहीं, गंभीरविउलगज्जियगुंजिय - अत्यन्त गंभीरतापूर्वक गर्जन होता है, कहीं गुंजन होता है, णिग्घाय-गरुयणिवडियं - कोई भारी वस्तु आकाश से गिरी हो, सुदीहणीहारि उसकी सुदीर्घ प्रतिध्वनि, दूरसुच्वंतगंभीरधुगधुगंतसद्दं - धुगधुग ध्वनि करती हुई बहुत दूर तक फैलती है, पडिपहरुभतं - पथिकों के मार्ग को रोकने वाले, जक्खरक्खसकुहंडपिसायरुसिय- यक्ष, राक्षस, कुहंड - कुष्मांड -व्यंतर विशेष - पिशाच रुष्ट होकर, तज्जाय उवसग्ग-सहस्स- संकुलं - उत्पन्न किये हुए हजारों उपसर्ग से व्याप्त, बहुप्पाइयभूयं - जहाँ बहुत-से उत्पाद होते हैं, विरइय-बलिहोम-धूवडवयार दिण्णरुहिरच्चणा करणपयत-जोगपययचरियं - कहीं बलिकर्म, हवन, धूप, उपचार और रुधिर समर्पण से देव की अर्चना - पूजा होती है और भेंट चढ़ाने आदि तथा यागोचित क्रियाएं होती हैं, परियंतजुगंतकालकप्पोवमं युग का अन्त करने वाले कल्पांत - विनाश काल के समान, दुरंतं जिसका अन्त बड़ी कठिनाई से हो, महाणईणईवई - गंगादि महानदी और अन्य नदियों का जो पति है, महाभीमदरिसणिज्जं जो देखने में महान् भयंकर है, दुरणच्चरं - जिसमें जाना महाकठिन है, विसमप्पवेसं जिसमें प्रवेश करना अति कठिन है, दुक्खुत्तारं जिससे पार होना कठिन एवं दुःखपूर्ण है, दुरासयं जिसका आश्रय भी दुःखमय है, लवणसलिलपुण्णं - खारे पानी से भरा हुआ, असियसियसमूसियगेहि जिस पर काले और श्वेत वस्त्र के पाल बांधे हुए हैं ऐसे, हत्थंतरकेर्हि - जो वेगपूर्वक चलने वाला है ऐसे, वाहणेहिं - वाहन - - - For Personal & Private Use Only *** - - Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रामादि लूटने वाले १२१ ********************************************************** जलयान से, अइवइत्ता - आरूढ़ होकर, समुहमाझे हणंति - समुद्र के मध्य में घात करते हैं, गंतूण - जाकर, जणस्सपोए - पोत में रहे हुए मनुष्यों-व्यापारियों को, परदव्वहरा णरा - पराये धन को हरण करने वाले लोग। भावार्थ - जब समुद्र में महावायु-आँधी आदि का उपद्रव होता है, तब ऊँची-ऊँची तरंगमालाएं बड़े वेग से दौड़ती हुई मनुष्यों के दृष्टि-पथ को रोक देती हैं। उसमें ऐसी गम्भीर एवं भयंकर ध्वनि उत्पन्न होती है कि जैसे मेघगर्जना हो रही हो या कहीं बिजली कड़क कर गिरी हो अथवा कोई बड़ी भारी वस्तु ऊपर से गिरी हो। वह दीर्घ ध्वनि धुग-धुग करती हुई व्यापक क्षेत्र में पैल जाती है। ऐसे समय यानमार्ग के अवरोधक ऐसे यक्ष, राक्षस, कुष्मांड, पिशाच आदि रुष्ट हो कर घोर शब्द करते हुए हजारों प्रकार से उपद्रव करने लगते हैं। इसके भय का निवारण करने के लिए कहीं बलिकर्म किया जाता है, तो कहीं हवन किया जाता है, कोई धूप आदि से पूजा करता है, तो कोई किसी प्राणी की हत्या कर के उसके रक्त को देव के अर्पण करता है। यों अनेक प्रकार से देव को प्रसन्न करने की क्रियाएं की जाती हैं। इन सब कारणों से समुद्र को युगान्तकारी-कल्पान्तकारी-विनाशक की उपमा दी गई है। समुद्र का पार पाना अत्यन्त कठिन होता है। समुद्र, गंगा आदि महानदियों और अन्य छोटीबड़ी नदियों का पति है। वह देखने में भी महाभयानक है। इसमें प्रवेश करना और गमन करना भी भयानक है। बड़ी कठिनाई से तथा दुःखपूर्वक इसे पार किया जाता है। समुद्र खारे पानी से भरा हुआ है। जो चोर-डाकू दूसरों के धन को हरण करना चाहते हैं, वे जलयानों पर सवार होते हैं, उनके पोतों पर वस्त्र के काले और धोले पाल चढ़े रहते हैं। उनके यान बड़े वेगपूर्वक चलते हैं । वे समुद्र में जा कर जहाजों के व्यापारियों को मार कर उनका धन-माल लूट लेते हैं। विवेचन-- उपरोक्त सूत्र में समुद्र जैसे उपद्रव पूर्ण भयानक स्थान पर की जाती हुई लूट का वर्णन किया गया है। समुद्री लुटेरे धन के लिए कितना दुःसाहस करते हैं, कितना लोमहर्षक वर्णन है यह। ग्रामादि लूटने वाले ____णिरणुकंपा णिरवयक्खा गामागर-णगर-खेड-कब्बड-मडंब-दोण-मुहपट्टणासम-णिगम-जणवए य धणसमिद्धे हणंति थिरहिय य छिण्णलज्जा-बंदिग्गहगोग्गहेय गिण्हंति दारुणमई णिक्किवा णियं हणंति छिंदंति गेहसंधिं णिक्खित्ताणि य हरंति धणधण्णदव्वजायाणि जणवयकुलाणं णिग्घिणमई परस्स दव्वाहिं जे अविरया। . शब्दार्थ - णिरणुकम्पा - अनुकम्पा से रहित, णिरवयक्खा - परलोक की अपेक्षा से रहित, गामागर-णगर-खेड-कब्बड - ग्राम, आकर, नगर, खेड, कर्बट, मडंब-दोणमुह - मडंब, द्रोणमुख, पट्टणासम - पत्तन, आश्रम, णिगम-जणवए - निगम जनपद, धणसमिद्धे - धन से समृद्ध, हणंति - मारते हैं, थिरहिय य - स्थिर-कठोर हृदय वाले, छिण्णलज्जा - जिनकी लज्जा नष्ट हो चुकी, बंदिग्गह For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ०३ **************************************************************** बन्दीगृह, गोग्गहे य गिण्हंति - गाय आदि को ग्रहण कर चोरी करते हैं, दारुणमई - दारुण मति वाले, णिक्किवा - कृपा भाव से रहित, णियं - निज - स्वजनों को भी, हणंति - मार डालते हैं, छिंदंति - काट डालते हैं, गेहसंधि - घर की सन्धि, णिक्खित्ताणि - भूमि में सुरक्षित रखे हुए, हरंति - हरण कर लेते हैं, धणधण्णदव्यजायाणि - धन-धान्य आदि द्रव्य जाति को, जणवयकुलाणं - देश के कुलोंसम्पन्न गृहों को, णिग्घिणमई - निर्दय बुद्धि वाले-क्रूर, परस्सदव्याहिं - दूसरों के द्रव्य को, जे - जो, अविरया - अविरत। भावार्थ - जिनके मन में परभव का विचार नहीं, जो अनुकम्पा से रहित हैं-ऐसे पराये धन में . लुब्ध चोर ग्राम, आकर, नगर, खेड़, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमुख, पत्तन, आश्रम, निगम एवं जनपद में जो धनवान् एवं समृद्धजन हैं, उन्हें मार डालते हैं और उनका धन ले लेते हैं। इन लुटेरों का हृदय स्थिर (कठोर) होता है। ये लज्जा से.रहित होते हैं। ये डाकू लोगों को पकड़ कर बन्दी बना लेते हैं। गाय, भैंस आदि पशुओं को चुरा लेते हैं, घर की दीवारों में सेंध लाकर चोरी करते हैं, भूमि आदि से सुरक्षित रखा हुआ धन चुरा लेते हैं और देश में रहने वाले धनसम्पन्न कुलों को मार कर उनका धन-धान्यादि लूट लेते हैं। पराये धन का हरण करने वाले दुष्ट मति वाले चोर, असंयत-अविरत है-उनकी तृष्णा असीम होती है। विवेचन - ग्रामादि का स्वरूप इस प्रकार हैग्राम - छोटा गाँव, जहाँ किसानों की बस्ती अधिक होती है। आकर-स्वर्ण, रजत आदि की खान जहाँ हो। . नगर- कर (चुंगी) से रहित, व्यावसायिक स्थान। खेड - धूलि के प्राकार (कोट) से घिरा हुआ स्थान। कर्बट - थोड़े मनुष्यों की बस्ती वाला गांव। मडम्ब - जिसके चारों ओर ढाई कोस तक कोई गांव नहीं हो-ऐसी बस्ती। द्रोणमुख - जिसमें जल और स्थल मार्ग से जाया जाता हो-ऐसा स्थान।. पत्तन - समस्त वस्तुओं की प्राप्ति का स्थान। आश्रम - तापसों का निवास स्थान। निगम- व्यापारियों का निवास स्थान। जनपद - देश। तहेव केई अदिण्णादाणं गवेसमाणा कालाकालेसु संचरंता चियकापजलियसरस-दर दड्ड-कड्डियकलेवरे रुहिरलित्तवयण-अखय-खाइयपीय-डाइणिभमंतभयंकर-जंबुयक्खिक्खियंते घूयकयघोरसद्दे वेयालुट्ठिय-णिसुद्ध-कहकहिय पहसियबीहणग-णिरभिरामे अइदुब्भिगंध-बीभच्छदरिसणिजे सुसाण-वण-सुण्णघर-लेण For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रामादि लूटने वाले । १२३ **************************************************************** अंतरावण-गिरिकंदर-विस-मसावय-समाकुलासु वसहीसु किलिस्संता सीयातवसोसियसरीरा दड्ढच्छवी णिरयतिरिय-भवसंकड दुक्ख-संभारवेयणिज्जाणि पावकम्माणि संचिणंता, दुल्लह-भक्खण्ण-पाणभोयणा पिवासिया झंझिया किलंता मंस-कुणिमकंदमूल जं किचिकयाहारा उव्विग्गा उप्पुया असरणा अडवीवासं उर्वति वालसय-संकणिज्जं। शब्दार्थ - तहेव - इसी प्रकार, केई - कई, अदिण्णादाणं - अदत्तादान-चोरी की, गवेसमाणाखोज करने की ताक में, कालाकालेसु - काल एवं अकाल में, संचरंता - घूमते रहते हैं, चियकापजलिय - जलती हुई चिताओं में, सरस - रुधिरादि से युक्त-जिसमें से रक्त निकल रहा है, दरदड - आधे जले हुए, कड्डियकलेवरे - कुत्ते आदि द्वारा चिताओं से निकाले हुए मृत शरीर, रुहिरलित्तवयण - जिनके मुँह रक्त से लिप्त हैं, अखयखाइयपिय - जिन्होंने शव को पूर्णरूप से खाया और रक्त पिया है ऐसी, डाइणभमंत भयंकरं - भयंकर डाकिनी भ्रमण कर रही है अथवा डाकिनी के घूमने-फिरने से जो स्थान भयंकर हो रहा है, जंबुयक्खिक्खियंते - जहाँ शृगाल 'खी खी' शब्द कर रहे हैं, घूयकयघोरसद्दे - जहाँ उल्लू के घोर शब्द हो रहे हैं, वेयालुट्टियणिसुद्धकहकहियपहसिय - बेतालों के किये हुए तुमुल कहकहे और अट्टहास से, बीहणग-णिरभिरामे - भयानकता एवंअप्रियता-मनहूसी छा रही है, अइदुभिगंध - अत्यन्त दुर्गन्ध से युक्त, 'बीभच्छदरिसणिजे - बीभत्स-घृणास्पद दृश्य जहाँ हो रहा है, सुसाण - श्मशान में, वण - वन में, सुण्णघर - शून्य घरों में, लेण- लयन में-पर्वत के निकट बने हुए पाषाणगृह में, अंतरावण - दो ग्रामों के मध्य बने हुए विश्रामगृह आदि में, गिरिकंदर - पर्वत की गुफा में, विसमसावयसमाकुलासु - हिंसक प्राणियों से युक्त स्थान में, वसहिम - बस्ती में, किलिस्संता - क्लेश सहन करते हुए, सीयातवसोसिय-सरीरा - शीत और ताप से जिनका शरीर शुष्क हो गया है, दहच्छवी - जिनकी चमड़ी जल गई है, णिरयतिरियभव - नरक और तिर्यंच के भव के योग्य, संकडदुक्खसंभारवेयणिज्जाणि - संकट और दुःख समूह भोगने वाले, पावकम्माणि - पापकर्मों का, संचिणंता - संचय करते-उपार्जन करते हैं, दुल्लह - दुर्लभ हो जाता है जिनके लिए, भक्खण्ण-पाण-भोयणा - भोजन और पानी का खाना-पीना, पिवासिया - प्यास, झंझिया-- बुभुक्षित रहते, किलंता - पीड़ित हो कर, मंस-कुणिम-कंदमूल - मांस, मुर्दे का मांस और कन्दमूल, जं किंचिं - जो कुछ भी, कयाहरा - खा लेते हैं, उव्विग्गा - उद्विग्न, उप्पुया - उत्सुक-धैर्य रहित, असरणा.- आश्रय विहीन, अडवीवासं उति - वन में निवास करते हैं, वालसयसंकणिज्ज - सर्प आदि सैकड़ों भय से पूर्ण। • भावार्थ - इसी प्रकार कई चोर, चोरी करने के लिए काल-अकाल में इधर-उधर घूमते ही रहते हैं। वे बस्ती से दूर भयानक स्थानों में भी घूमते रहते हैं। जैसे-श्मशान भूमि में (अथवा युद्ध-भूमि या For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ महामारी के स्थान पर) जहाँ शव जल रहा है, कोई मृतक शरीर कुछ जला है, कुछ नहीं जला है, किसी के शरीर में से रक्त बह रहा है, कोई रक्त से लिप्त पड़ा है, जहाँ मदमत्त डाकिनियाँ मुर्दे का मांस भक्षण और रक्त पान करती हुई घूम रही हैं, जहाँ शृगाल 'खी खी' शब्द करते हैं, उलूक जहाँ घोर शब्द कर रहे हैं, जहाँ बेताल कहकहे लगाते हुए भयंकर अट्टहास करते हैं, इससे सर्वत्र भय एवं विमनस्कता (मनहूसी) व्याप्त हो रही है, जो अत्यन्त दुर्गन्ध से भरा हुआ और बीभत्स दिखाई दे रहा है। वे चोर ऐसे भयानक स्थान को पार करते हुए बियावान जंगल में जाते हैं और किसी सूने घर, पर्वत के निकट का स्थान, पर्वत - कन्दरा आदि भयानक स्थान, जो सिंहादि हिंसक पशुओं से युक्त है-जाते हैं और क्लेश होते हैं। उनके शरीर सर्दी-गर्मी के ताप से शुष्क हो जाते हैं, चमड़ी जल जाती है। वे नरक और तिर्यंच भव में भोगने योग्य अत्यन्त दुःख- समूह के उत्पादक ऐसे अत्यन्त पाप कर्मों का संचय करते रहते हैं। उन्हें भोजन - पानी मिलना भी कठिन एवं दुर्लभ हो जाता है। वे बिना पानी के प्यासे ही रह जाते हैं। भूख की पीड़ा से वे बहुत दुःखी रहते हैं। भूख से पीड़ित हो कर वे पशुओं को मार कर उनका मांस अथवा मरे हुए शरीर का मांस खाते हैं। कभी कन्द-मूलादि जो कुछ मिल जायेखा कर क्षुधा शान्त करते हैं। वे सदैव (राज्यादि भय से ) उद्विग्न, उत्सुक, चंचल तथा आश्रय रहित होते हैं और सर्प आदि सैकड़ों प्रकार भय वाले वन में निवास करते हैं। अयसकरा तक्करा भयंकरा कास हरामोत्ति अज्ज दव्वं इइ सामत्थं करेंति गुज्झं बहुयस्स जणस्स कज्जकरणेसु विग्घकरा मत्तपमत्त - 1 -पसुत्त विसत्थ-छिद्दवाई वसणब्भुदएसु हरणबुद्धी विगव्व रुहिरमहिया परेंति - णरवइ-मज्जायमइक्कंता सज्जणजणदुगंछिया सकम्मेहिं पावकम्पकारी असुभपरिणया य दुक्खभागी णिच्चाइलदुहमणिव्वुड्मणा इहलोए चेव किलिस्संता परदव्वहरा णरा वसणसय समावण्णा । शब्दार्थ - अयसकरा - जिनका अपयश-बुराई होती है, तक्करा - तस्कर - चोर, भयंकरा भयंकर, कास- किसका, हरामोति हरण करना चाहिए, अज्ज आज, दव्वं द्रव्य, इइ - इस प्रकार, सामत्थं करेंति- मन्त्रणा करते हैं, गुज्झं गुप्त, बहुयस्स जणस्स - बहुत-से लोगों के, कज्जकरणेसुकार्य करने में, विग्धकरा विघ्न करते हैं, मत्तपमत्त विसत्य विश्वस्त - विश्वास करने वाले, छिद्दघाई प्रमादी एवं मदिरा से उन्मत्त, पसुत - सोये हुए, का विचार करते हैं, विगव्व करते हैं, णरवइमज्जाय छिद्र पाकर अवसर प्राप्त कर, वसणब्भुद सुरोगादि अवस्था, विपत्ति अथवा उत्सव आदि परिस्थिति उत्पन्न होने पर, हरणबुद्धि - धन हरण करने भेड़िये के समान, रुहिरमहिया रुधिर-पिपासु हो कर, पति - भ्रमण राजा की मर्यादा का, मइक्कंता अतिक्रमण - उल्लंघन करते हैं, सज्जणजणदुगंछिया - सज्जन जनों द्वारा निन्दित, सकम्मेहिं अपने ऐसे कर्म से, पावकम्मकारी - - - प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० ३ - - - - - - - - - For Personal & Private Use Only = Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ चोर को बन्दीगृह में होने वाले दुःख ***#wwwwwwwwwwwwwwwwwwww w w******************************** पापकर्म करने वाले, असुभपरिणया - अशुभ-पाप परिणाम युक्त, दुक्खभागी - दुःख भोगने वाले, णिच्चाइलदुहमणिव्वुइमणा - इनका मन सदैव आकुल-व्याकुल अस्वस्थ तथा संताप युक्त रहता है अथवा-वे सदैव प्राणियों की स्वस्थता के नाशक एवं संतापित करने वाले होते हैं, इहलोए चेव - इस लोक में, किलिस्संता - क्लेशित रहते हैं, परदव्वहराणरा - पराये धन को हरण करने वाले वे मनुष्यचोर, वसण-सयसमावण्णा - सैकड़ों दुःखों से पीड़ित हो कर। ___ भावार्थ - संसार में सर्वत्र उनकी निंदा होती है। वे भयंकर माने जाते हैं। वे अपने साथियों से चोरी करने के लिए गुप्त मंत्रणा करते रहते हैं और सोचते हैं कि आज किसके यहाँ चोरी की जाये, किसे लूटा जाय।' वे बहुत-से लोगों के (विवाह आदि उत्सव में) विघ्न खड़ा कर देते हैं और जो मद में मस्त हो कर अथवा यों ही सोये हुए निद्रा-मग्न तथा अपनी रक्षा के विषय में विश्वस्त रहते हैं, उन लोगों को घात लगा कर मार डालते हैं और उनका धन लूट लेते हैं। लोगों की विपत्ति-रोग अथवा मरण प्रसंग पर या लग्नादि शुभ प्रसंग पर उपस्थित जन-समूह.को लूटने या चोरी करने का अवसर देखते रहते हैं। वे भेड़िये के समान मनुष्य के रक्त के प्यासे बनकर इधर-उधर फिरते रहते हैं। वे राजा की मर्यादा का भी उल्लंघन करते हैं। वे चोर लोग सदाचारियों एवं सज्जनों द्वारा सदैव निन्दित होते रहते हैं। अपने चौर्यकर्म के द्वारा वे पापकर्मों का संचय करते रहते हैं। उनकी भावनाएं अशुभ रहती हैं। वे सदैव अपनी तथा दूसरों की स्वस्थता एवं प्रसन्नता के नाशक तथा व्याकुलता संताप एवं दुःख के कारण होते रहते हैं। वे स्वयं भी दुःख भोगते हैं। पराये धन को हरण करने वाले वे चोर, इस लोक में भी सैकड़ों दुःखों से युक्त हो कर क्लेशित रहते हैं। __चोर को बन्दीगृह में होने वाले दुःख तहेव केइ परस्स दव्वं गवेसमाणा गहिया य हया य बद्धरुद्धा य तुरियं अइधाडिया पुरवरं समप्पिया चोरग्गह-चारभडचाडुकराण तेहि य कप्पडप्पहार-णिद्धयआरक्खियखरफरुसवयण-तज्जण-गलच्छल्लुच्छल्लणाहिं विमणा चारगवसहिं पवेसिया णिरयवसहिसरिसं तत्थवि गोमियप्पहार-दूमणणिब्भच्छण-कडुयवयणभेसणगभयाभिभूया अक्खित्तणियंसणा मलिणदंडिखंडणिवसणा उक्कोडालंचपासमग्गणपरायणेहिं दुक्खसमुदीरणेहिं गोम्मियभडेहिं विविहेहिं बंधणेहिं। शब्दार्थ - तहेव - इसी प्रकार, परस्स - दूसरों का, दव्वं - द्रव्य, गवेसमाणा - खोज करते हुए, गहिया - पकड़े जाते हैं, हया - पीटे जाते हैं, बद्धरुद्धा - बांधे जा कर कारागार में बन्द कर दिये जाते हैं, तुरियं - त्वरित-शीघ्रतापूर्वक, अइधाडिया - दौड़ाये जाते हैं, पुरवरं - नगर में, समप्पिया - समर्पित किये जाते हैं, चोरग्गहचारभडचाडुकराण - चोरों को पकड़ने वाले चाटुकार सुभटों को, For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ ***** प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०३ ******************************************************** तेहिं - उन्हें, कप्पडप्पहार - चाबुक के प्रहार से, णिद्दय - निर्दयतापूर्वक, आरक्खिय - आरक्षितरक्षाधिकारी, खरफरुसवयण - कटु एवं कठोर वचनों से, तज्जण - तर्ज़ना, गलच्छल्लुच्छल्लणाहिं - गला पकड़ कर दबा देते हैं, विमणा - विमनस्क-उदास, चारगवसहिं - बन्दीगृह में, पवेसिया - प्रवेश किये हुए, णिरयवसहिसरिसं - नरकावास के समान, तत्थवि - वहाँ पर भी, गोमियप्पहार - जेलर द्वारा प्रहार, दूमणणिब्भच्छण - परितापित तथा निर्भर्त्सना से, कडुयवयण - कटुक वचन, भेसणग- भयोत्पादक, भयाभिभूया - भय से डरे हुए, अक्खित्तणियंसणा - वे निर्वस्त्र हो जाते हैं, मलिणदंडिखंडणिवसणा - मलिनं तथा फटे हुए वस्त्र पहने हुए, उक्कोडालंचपास-मग्गणपरायणेहिंबन्दीगृहाधिकारी घूस में धन तथा चोरी का धन प्राप्त करने में परायण हैं, दुक्खसमुदीरणेहिं - बहुत ही दुःख देते हैं, गोम्मियभडेहिं - बन्दीगृह के अधिकारी सुभट से, विविहेहिं बंधणेहिं - विविध प्रकार के बन्धनों से। भावार्थ - चोरी करके दूसरे के धन को हरण करने वाले चोर को राज्याधिकारी पकड़ लेते हैं, तब वे उस चोर को अनेक प्रकार के कष्ट देते हैं। वे चोर लाठियों से पीटे जाते हैं, दृढ़तापूर्वक बांधे जाते हैं और कारागृह में बन्द कर दिये जाते हैं। उन्हें शीघ्रतापूर्वक चलाया जाता है, दौड़ाया जाता है, नगर में घुमाया जाता है और अधिकारियों द्वारा कारागृह में पहुंचा दिया जाता है। कारागृह के अधिकारी (जेलर) उस चोर को चाबुक से निर्दयतापूर्वक पीटते हैं और कठोरतम वचनों से निर्भर्त्सना करते हैं। उस चोर का गला दबा कर यन्त्रणा देते हैं, इससे वह चोर उदास तथा विमनस्क हो जाता है। कारागृह में उसे नरकावास के समान दुःख दिया जाता है। कारागृह के अधिकारी उसे पीटते हैं और अत्यन्त भयावने शब्दों से उसे भयभीत करते हैं। वे उसके कपड़े उतरवा लेते हैं और मैले तथा फटे हुए कपड़े पहनने को देते हैं। कारागार के कोई अधिकारी चोरों से घूस मांगते हैं, यदि उन्हें घूस (लांच) नहीं मिले, तो असह्य दुःख देते हैं और विविध प्रकार के बन्धनों में जकड़ कर त्रास देते हैं। किं ते? हडि-णिगड-वालरज्जुय-कुदंडग-वरत्त-लोहसंकल-हत्थंदुय-बझपट्टदामक-णिक्कोडणेहिं अण्णेहिं य एवमाइएहिं गोम्मिगभंडोवगरणेहिं दुक्खसमुदीरणेहिं संकोडमोडणाहिं बझंति मंदपुण्णा संपुडकवाड-लोहपंजर-भूमिघर-णिरोहकूव-चारग-कीलग-जूय-चक्कविततबंधण-खंभालण-उद्धचलण-बंधणविहम्मणाहि य विहेडयंता अवकोडगगाढ-उर-सिरबद्ध-उद्धपूरिय . फुरंत-उरकडगमोडणामेडणाहिं बद्धा य णीससंता सीसावेढ-उरुयावल-चप्पडग-संधिबंधण-तत्तसलागसूइया-कोडणाणि तच्छणविमाणणाणि य खारकडुय तित्तणावणजायणा-कारण... "दुक्खसयसमुदीरणेहिं"-पाठ भी है। .यहाँ"असुभपरिणया य" - पाठ श्री ज्ञानविमल सूरि की वृत्ति वाली प्रति में है। For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ चोर को बन्दीगृह में होने वाले दुःख *************************************************************** सयाणि बहुयाणि पावियंता उरक्खोडी-दीण्ण-गाढपेल्लण-अट्ठिगसंभग्गसपंसुलीगा गलकालकलोहदंड-उर-उदर-वत्थि-परिपीलिया मत्थंत-हिययसंचुण्णियंगमंगा आणत्तीकिंकरहिं केई अविराहिय-वेरिएहिं जमपुरिस-सण्णिहेहिं पहया ते तत्थ मंदपुण्णा चडवेला-वज्झपट्टपाराई छिव-कस-लत्तवरत्त-णेत्तप्पहारसयतालि-यंगमंगा कि वणा लंबंत चम्मवणवेयणविमुहियमणा घणकोट्टिम-णियलजुयल संकोडियमोडिया य कीरति णिरुच्चारा * एया अण्णा य एवमाईओ वेयणाओ पावा पावेंति। शब्दार्थ - किं ते - वे क्या हैं ? हडि - एक प्रकार का काष्ठ का बना हुआ बन्धन-खोडा, णिगड - लोहे का बन्धन-बेड़ी, वालरज्जुय - बालों की बनी हुई रस्सी, कुदंडग - लक्ड़ी का बना हुआ बन्धन विशेष जिसके अन्त में रस्सी बंधी रहती है, वरत्त - वरत्रा-चमड़े की रस्सी, लोहसंकल - लोहे की साँकल, हत्थंदुय - लोहे की बनी हुई हथकड़ी, बझपट्ट- चमड़े की पट्टी, दामक - पांव बांधने की रस्सी, णिक्कोडणेहिं - निष्कोटन-बन्धन विशेष, अण्णेहिं - अन्य प्रकार के, एवमाइएहिं - इसी प्रकार के, गोम्मिगभंडोवगरणेहिं - दण्ड देने के साधनों से, दुक्खसमुदीरणेहिं - दुःख दिया जाता है, संकोडमोडणाहिं - संकुचन और मोडन से, बझंति - बांधे या पीटे जाते हैं, मंदपुण्णा - मंद पुण्य वाले, संपुडकवाड - बन्द कपाट वाली कोठरी, लोहपंजर - लोहे के पिंजरे में, भूमिघर - तल घर, णिरोह - . निरोध-रोकना, कूव - कुएं, चारग - गुप्त घर, कीलग - खीले से, जूय - जूए में, चक्क - चक्र, विततबंधण - जंघा और मस्तक आदि का मर्दन किया जाना, खंभालण - खम्भे से बांधना, उद्धचलणबंधण - पाँवों को ऊपर बाँध कर लटकाना, विहम्मणाहिं - विविध प्रकार की वेदना से, विहेडयंता - पीड़ित किये जाते हैं, अवकोडगगाढउरसिरबद्ध - गर्दन झुका कर छाती से बांध दी जाती है, उद्धपूरिया - श्वासोच्छ्वास के भर जाने से छाती आदि का फूल जाना, फुरंतउरकडग - आते फूल. जाना और छाती में कम्पन्न होना, मोडणा - अंगों का मोड़ा जाना, मेडणाहिं - मर्दन करके कष्ट देने से, बद्धा - बंधे हुए, णीससंता - दीर्घ श्वास लेते-हाँफते हुए, सीसावेढ - मस्तक को दृढ़ बन्धन से बाँधना, उरयावल - जंघाको मोड़ना या चीरना, चप्पडगसंधिबंधण - घुटनों और कुहनी आदि संधिस्थानों की चर्पटक से बांधना, तत्तसलागसूइया कोडणाणि - गर्म की हुई लौह शलाकाएं और सुइयाँ चुभाई जाती हैं, तच्छणविमाणणाणि - शरीर को छिलकर दुःख देना, खारकडुयतित्तणावण - लवणादि क्षार, कटु तथा तिक्त-मिर्च आदि मुख आदि में डाल कर, जायणा - यातना, कारणसयाणिसैकड़ों प्रकार की, बहुयाणि - बहुत-सी, पावियंता - पाते-भोगते हैं, उरक्खोडी - उनकी छाती पर काष्ठ की भारी खोड़ी-या घोड़ी रखी जाती है, दिण्णगाढपेल्लण - फिर इधर से उधर घसीटते हैं, अट्ठिगसंभग्गसपंसुलीगा - हड्डी पसली टूट जाती है, गलकालकलोहदंड - गले में फंस कर जीवन * "असंचरणा" - पाठ श्री ज्ञानविमल सरि की वृत्ति वाली प्रति में है। For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ******** प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० ३ - **************** - समाप्त कर देने वाले लोहे के डण्डे से, उर-उदर- वत्थि परिपीलिया - छाती पेट और गुदा स्थान को विशेष रूप से पीड़ित करते हैं, मत्थंतहिययसंचुण्णियंगमंगा - अंगोपांग मथित हो कर चूर-चूर हो जाते हैं, आणत्तीकिंकरेहिं राजाज्ञापालकों के द्वारा, केइ कई, अविराहियवेरिएहिं बिना अपराध ही वैर रखने वाले, जमपुरिससण्णिहेहिं यम पुरुषों के समान, पहया - आहत-दुखी, ते वे, तत्थवहाँ - कारागृह में, मंदपुण्णा - अभागे, चडवेलावज्झपट्टपाराई थप्पड़, चमड़े के चाबुक, लोहे की कीलों से, छिवकसलत्तवरत्तणेत्तप्पहारसयतालियंगमंगा - चमड़े से मढ़ी हुई बेंत, चर्मलता तथा मोटी रस्सी के सैकड़ों प्रहारों से उसके अंगोपांग को, किवणा दीनता वाले, लंबंतचम्मवण वेयणविमुहियमणा - शरीर की चमड़ी उतर कर लटकने लगती है, घाव हो जाते हैं, उन्हें वेदना होती है, उनका मन विरक्त - उदास हो जाता है, घणकोट्टिम-णियल-जुयलसंकोडिय - मोडिया - लोहे के घण से मार कर उनके अंगोपांग तोड़ दिये जाते हैं, मोड़ दिये जाते हैं और संकुचित कर दिये जाते हैं, कीरंति करते हैं, णिरुच्चारा मल-मूत्र करना रोक दिया जाता है या रुक जाता है, एया - ऐसे, अण्णाअन्य भी, एवमाईओ इस प्रकार की, वेयणाओ वेदना, पावा पापी लोग, पावेंति - भोगते हैं । भावार्थ - शिष्य पूछता है कि वे कौन-से बन्धन हैं, जिसमें चोर जकड़े जाते हैं ? गुरुदेव बन्धनों का स्वरूप बतलाते हैं-चोर को पकड़ कर काष्ठ के खोड़े में बन्द कर दिया जाता है। उसके पांवों में लोहे की बेड़ी डाल दी जाती है। ऊँट, बकरे या भेड़ के बालों की रस्सी से या कुदंडक - काष्ठमय बन्धन जिसके सिरे पर रस्सी बांध कर कसा जाता है, मोटी रस्सी या लोहे की सांकल से जकड़ा जाता है, लोहे की हथकड़ी से हाथ बांध जाते हैं, चमड़े की पट्टी से पांव बांधे जाते हैं और अन्य बन्धनों से चोरों को बांध दिया जाता है। चोरों को बन्दीगृह के अधिकारियों द्वारा अनेक प्रकार के दुःख दिये जाते हैं। उनके अंगों को संकुचित किया जाता है, मोड़ दिया जाता है। वै दुर्भागी चोर पीटे जाते हैं। उन्हें काष्ठ के यंत्र में कस दिया जाता है, लोहमय पिंजरे में बन्द कर दिया जाता है, तलघर में डाल दिया जाता है, अन्धकूप या गुप्त गृह में डाल दिया जाता है। किसी को खूंटे से बांध दिया जाता है, किसी को जूए में जोत दिया जाता है और किसी को चक्र (पहिये) में बांध कर घोर कष्ट दिया जाता है। उनके जंघा तथा मस्तक का मर्दन किया जाता है। किसी को खंभे से बांधा जाता है। किसी के पांव ऊँचे बांध कर ओंधा लटका दिया जाता है और इस प्रकार के अनेक दुःख दिये जाते हैं कि जिनसे उनके अंग-प्रत्यंग टूट जाते हैं। किन्हीं की गर्दन को झुका कर छाती से बांध दी जाती है, जिससे उनके श्वास लेने में कठिनाई होती है और उनका पेट व छाती वायु से फूल जाती है, आँतें ऊपर उठ जाती हैं और छाती में कम्पन होने लगती है। उनके अंगों को मोड़ कर तथा दबा कर भी पीड़ित किया जाता है। वे कठोर बन्धनों से बंधे हुए चोर लम्बे-लम्बे श्वास लेते हैं - हाँफते हैं। उनका मस्तक चमड़े की रस्सी से दृढ़ता से बांध दिया जाता है। उनकी जंघाओं को मोड़ा जाता है या चीरा जाता नामक काष्ठ के यंत्र से उनके घुटने आदि सन्धी स्थान बांधे जाते हैं, जिससे उन्हें असह्य वेदना होती । चर्पट - - - *********** For Personal & Private Use Only - Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोर को दिया जाने वाला दण्ड । १२९ ************************************************************* है। लोहे की गर्म शलाकाएं या सुइयें उनके शरीर में चुभाई जाती हैं। उनके शरीर को छिला जाता है और ऊपर से नमक-मिर्च आदि लगा कर जलन उत्पन्न की जाती है। इस प्रकार सैकड़ों प्रकार की यातनाएं दी जा कर पीड़ित किया जाता है। उनकी छाती पर काष्ठ का भारी बोझ रख कर दबाया जाता है और घसीटा जाता है, जिससे उनकी हड्डी-पसली टूट जाती है। किसी के गले में या गुदा में लोहदण्ड फंसा दिया जाता है, जिससे उसके अंग मथित हो कर दारुण दुःख होता है। अंग चूर-चूर हो जाते हैं। कोई अधिकारी तो बिना अपराध के ही कैरी बन कर यमराज के समान दुःखदायक हो जाता है। कराधिकारी और उनके सेवक, उन दुर्भागी चोरों को थप्पड़, रस्सी, लोहकुसी, चाबुक आदि साधनों से प्रहार करते हैं। इससे उन अभागों की चमड़ी लटक जाती है, घाव हो जाते हैं, इससे उन्हें तीव्र वेदना होती है और वे अपने चौर्यकर्म को कोसते हैं। वे बड़े ही दीन हो जाते हैं। किसी चोर को लोहे के घन से मार कर अंग तोड़-मरोड़ देते हैं, संकुचित कर देते हैं। कभी-कभी चोर की लघुनीत बड़ीनीत रोक देते हैं और मुंह से बोलना तक बन्द कर देते हैं। यों अनेक प्रकार की यंत्रणाएं वे चोरी करने वाले तस्कर लोग भुगतते हैं। चोर को दिया जाने वाला दण्ड - अदंतिंदिया वसट्टा बहुमोहमोहिया परधणम्मिलुद्धा फासिंदियविसय-तिब्बगिद्धा इत्थिगयरूवसहरसगंधइट्ठरइमहिय भोगतण्हाइया य धणतोसगा गहिया य जे णरगणा, पुणरवि ते कम्मदुवियद्धा उवणीया रायकिंकराण तेसिं वसहत्थगपाढयाणं विलउलीकारगाणं लंचसयगेण्हगाणं कूडकवडमाया-णियडि-आयरणपणिहिवंचण. विसारयाणं बहुविहअलियसयजंपगाणं परलोय-परम्मुहाणं णिरयगइगामियाणं तेहिं आणक्तजीयदंडा तुरियं उग्घाडिया पुरवरे सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर-चउम्मुहमहापहपहेसु वेत-दंड-लउड-कट्ठलेट्ट-पत्थर-पणालिपणोल्लिमुट्ठि-लया पायपण्हि जाणु-कोप्पर-पहारसंभग्ग-महियगत्ता। शब्दार्थ - अदंतिंदिया - जिनकी इन्द्रियाँ वश में नहीं है, वसट्टा - वशाल-जो विषयों के आधीन हैं, विषयों से पीड़ित हैं, बहुमोहमोहिया - जो महामोह से मोहित है, परधणम्मिलुद्धा - जो दूसरों के धन में लुब्ध हैं, फासिंदियविसय - स्पर्शनेन्द्रिय के विषय में, तिव्वगिद्धा - अत्यन्त गृद्ध हैं, इत्थिगयरूवसहरसगंध - स्त्री के रूप शब्द रस और गंध में, इट्ठरइमहिय - रति-संभोग में अत्यन्त प्रीति रखने वाले, भोगतण्हाइया - भोग की तृष्णा वाले, धणतोसगा - धन प्राप्त होने पर तुष्ट होने वाले, गहिया - पकड़े जाते हैं, णरगणा - मनुष्यगण-चोर लोग, पुणरवि - फिर भी वे, कम्मदुव्वियद्धा - पाप क्रिया से उत्पन्न फल से अनभिज्ञ, उवणीया - पहुँचाये हुए, रायकिंकराण - राज्य-कर्मचारियों द्वारा, For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० तेसिं - उनमें, वहसत्थगपाढयाणं- कई वधशास्त्र के ज्ञाता हैं उनसे, विलउलीकारगाणं - जो चोरों का पता लगाने में कुशल हैं, लंचसयगेण्हाणं - जो सैकड़ों प्रकार से घूस लेते हैं, कूडकवडमायाणियडिवे छल-कपट और वेश परिवर्तन आदि प्रपंच का, आयरणपाणिहि वंचण विसारयाणं- आचरण करने तथा जासूसी करके भुलावा देने में प्रवीण होते हैं, बहुविह अनेक प्रकार से, अलियसय - सैकड़ों प्रकार झूठ, पगाणं - बोलते हैं, परलोय - परलोक से, परम्मुहाणं- विमुख रहते हैं, णिरयगइगामियाणंनरक गति में जाने वाले, तेहिं उन, आणत्तजीयदंडा - प्राण-दण्ड आदि की आज्ञा देते हैं, तुरिये - त्वरित, उघाडिया - प्रकट रूप से, पुरवरे नगर में, सिंघाडग श्रृंगाटक- त्रिकोण बाजार, तिय- चउक्कचच्चर- चउम्मुह - त्रिक चतुष्क चत्वर चतुर्मुख महापहपहेसु - महापथ-राजमार्ग और सामान्य प लकड़ी, कट्ठ - काष्ठं, लेट्ठ - मिट्टी का ढेला, पत्थर - पत्थर, एक प्रकार की लाठी, मुट्ठि पर, वेत्त - बेंत, दंड - डण्डा, लउड पणालि - शरीर प्रमाण दण्ड, पणोल्लि मुक्का, लया लता, पायपहिलात, जाणु - घुटनों से, कोप्पर कूहनी से, पहार प्रहार-मार कर के, संभग्गमहियगत्ता - हड्डियाँ तोड़ देते हैं, गात्रों का मथन कर देते हैं। - प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० ३ - - - - श्रृंगाटक- सिंगोड़े के आकार का त्रिकोण मार्ग । त्रिक - जहाँ तीन मार्ग मिलते हों। चतुष्क - जहाँ चार मार्ग मिलते हों । - - भावार्थ - वे चोर उपरोक्त तथा आगे कही जाने वाली वेदना भुगतते हैं जिनकी इन्द्रियाँ (और मन) वश में नहीं है, जो विषय के आधीन बन गए हैं, जो महामोहनीय से मोहित है, पराये धन पर जो लुब्ध हैं। जो स्पर्शनेन्द्रिय के विषय में अत्यन्त आसक्त हैं, स्त्रियों के रूप, शब्द, रस, गंध एवं संभोग में जो अत्यन्त इच्छा वाले हैं और पराया धन चुरा कर ही जो संतुष्ट रहने वाले हैं,, ऐसे चोरों को आरक्षक पकड़ लेते हैं। चौर्यकर्म एवं जारपन आदि पापकर्म के दुःखद फल से अनभिज्ञ वे पापी, राज्याधिकारियों के पास पहुँच कर दुःखी होते हैं। वे राज्याधिकारी बड़े निर्दय, दण्ड-विधान और वध - शास्त्र के ज्ञाता होते हैं, चोरों, लुच्चों और ठगों को भांपने-पहचानने में वे बड़े कुशल होते हैं। कई अधिकारी सैकड़ों प्रकार से (या सैकड़ों रुपयों की) घूस लेते हैं। झूठ, कपट, छल एवं वंचना करके, वेश बदल कर और भेदी रूप से चोरों को पकड़ने तथा भेद खुलवाने में बड़े निपुण होते हैं, सैकड़ों प्रकार से झूठ बोल कर वे अपने जाल में फांस लेते हैं। वे क्रूर अधिकारी परलोक से विमुख हो कर नरकगति में जाने वाले होते हैं । प्राणदण्ड आदि कठोरतम दण्ड की आज्ञा देने में वे विलम्ब नहीं करते, अपितु शीघ्रता करते हैं। वे आज्ञा देते हैं कि इस चोर को खुले रूप में नगर में, नगर के तीन मार्ग चतुर्पथ, राजमार्ग और सार्वजनिक स्थानों पर ले जाओ और समस्त लोगों के सम्मुख बेंत, डंडे, लाठी, पत्थर, लात, मुक्का, और अन्य साधनों से पीटो। खूब मारो, इतना मारो कि इसकी हड्डियाँ टूट जायें, गात्र-भंग हो जाये और सारे शरीर का मथन होकर शक्ति हीन हो जाय । - For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ **** चोर को दिया जाने वाला दण्ड ************************************************* चत्वर - जहाँ अनेक मार्ग मिलते हों। चतुर्मुख - चार द्वारों वाले-देवमंदिर या सार्वजनिक स्थान। महापथ - राजमार्ग। अट्ठारसकम्मकारणा जाइयंगमंगा कलुणा सुक्कोट्टकंठ-गलगतालु-जीहा जायंता पाणीयं विगय-जीवियासा तण्हाइया वरागा तं वि य ण लभंति वज्झपुरिसेहिं धाडियंता। तत्थय खर-फरुस-पडहघट्टियकूडग्गहगाढरुट्टणिसट्ठपरामुट्ठा वज्झयर-कुडिजुयणियत्था सुरत्तकणवीर-गहियविमुकुल-कंठे गुण-वज्झदूय आविद्धमल्लदामा, मरण भयुप्पण्णसेय-आयतणेहुत्तुपियकिलिण्णगत्ता चुण्णगुंडियसरीर-रयरेणुभरियकेसा कुसुंभगोकिण्णमुद्धया छिण्ण-जीवियासा घुण्णंता वज्झयाणभीया * तिलं तिलं चेव छिजमाणा सरीरविक्किंतलोहिओलित्ता कागणिमंसाणि खावियंता पावा खरफरुसएहिं तालिजमाणदेहा वातिग-णरणारीसंपरिवुडा पेच्छिज्जंता य णगरजणेण बज्झणेवत्थिया पणेजति णयरमज्झेण किवणकलुणा अत्ताणा असरणा अणाहा अबंधवा बंधुविप्पहीणा विपिक्खिंता दिसोदिसिं मरणभयुव्विग्गा आघायणपडिदुवार-संपाविया अधण्णा सूलग्गविलग्गभिण्णदेहा। शब्दार्थ - अट्ठारस - अठारह, कम्मकारणा - चौर्यकर्म के कारण हैं, जाइयंगमंगा - भग्न अंगोपांग वाले, कलुणा - करुणाजनक दशा है जिनकी-दीन, संक्कोट्टकंठगलगतालुजीहा - संताप के कारण उनका कंठ, गला, तालू और जिह्वा सूख जाती है, जायंतापाणीयं - पानी की याचना करते हैं, विगय - बीत चुकी-नष्ट हो चुकी, जीवियासा - जीवित रहने की आशा, तण्हाइया - प्यास के मारे, वरागा - विचारे, तं वि - तो भी, ण लभंति - प्राप्त नहीं करते। वज्झपुरिसेहिं - वधिक पुरुष-जल्लाद, धाडियंताले जाते हुए, तत्थय - वहाँ, खरफरुस-पडह-घट्टिय - कठोर एवं कर्कश आवाज वाला पटह-नगारा बजाया जाता है, कुडग्गह - कुटिलता से पर धन को चोरने वाले-चोर पर, गाढरुट्ठ- अत्यन्त रुष्ट हो कर, णिसट्ठपरामुट्ठा - चोरी से प्राप्त धन छीन लेते हैं और उसे पकड़ भी लेते हैं, वज्झयरकुडिजुयणियत्था - प्राणदण्ड पाये हुए मनुष्य के योग्य उसे दो वस्त्र पहनाये जाते हैं, सुरत्तकणवीरगहिय - कनेर के लाल फूलों से बनाई हुई, विमुकुल - विकसित पुष्पों से, कंठेगुण - गुण-कंठ-सूत्र के समान, वज्झदूय - वध्य-दूत-वध-चिह्न जैसी, आविद्ध मल्लदामा - पुष्पमाला पहनाई जाती है, मरणभयुप्पण - मृत्यु के भय से उत्पन्न, सेय- स्वेद-पसीने से, आयतणेहुत्तुपिय - शरीर जलता है और, किलिण्णागत्ता - सारा शरीर झरता है, चुण्णगुंडियसरीर - उसके शरीर पर चूर्ण-चूना लगा * 'वज्झपाणिप्पया' - पाठ भी है। For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ *** प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० ३ ******* *************************************************** कर रंगा जाता है, रयरेणुभरियकेसा - उसका शरीर तथा केश धूल से भरे होते हैं, कुसुभगोकिण्णमुद्धक - कौसुम्भ रंग से उसके बाल रंगे जाते हैं, छिण्णजीवियासा - जिसके जीवन की आशा नष्ट हो जाती है, घुण्णंता - मस्तक घूमने-चक्कर आने लगता है, वज्झयाणभीया - जो वधिक से भयभीत हैं, तिलं तिलं चेव - वह तिल-तिल करके, छिज्जमाणा - रक्त-मांस क्षीण होता है, सरीरविक्कंतउसके कटे हुए शरीर से निकले हुए, लोहिओलित्त - रक्त से लिप्त, कागणिमंसाणि - मांस के छोटेछोटे टुकड़े, खावियंता - उसे खिलाये जाते हैं, पावा - वह पापी, खरफरुसएहिं - कठोर एवं कर्कश स्पर्श वाले-पत्थर आदि से, तालिजमाणदेहा - पीता जाता है, वातिगणरणारी - अनियन्त्रित हजारों नरनारियों से, संपरिवुडा - घिरा हुआ, पेच्छिजंता - देखे जाते हुए, णगरजणेण - नगर .जनों से, वज्झणेवत्थिया - वध्य-नेपथ्यक-मृत्यु दण्ड के योग्य वस्त्रादि से युक्त, पणेज्जति - ले जाया जाता है, णयरमझेण - नगर के मध्य में होकर, किवणकलुणा - कृपण करुणा-अत्यन्त दीन हुए, अत्ताणा - रक्षक विहीन, असरणा - शरण रहित, अणाहा - अनाथ, अबंधवा - बान्धव रहित, बंधुविप्पहीणा - बन्धुओं द्वारा त्यागा हुआ, विपिक्खिंता - देखता है, दिसोदिसिं - एक दिशा से दूसरी दिशा की ओर, मरणभयुव्विग्गा- मृत्यु-भय से उद्विग्न हुए, आघायण पडिदुवार - वध्य स्थान के द्वार पर, संपावियापहुंचाया हुआ, अधण्णा - अधन्य-अभागा, सूलग्गविलग्गभिण्णदेहा - शूली पर चढ़ाते ही शूली से उसका शरीर भिन्न हो जाता है। भावार्थ - चोरी की उत्पत्ति के अठारह कारण कहे गए हैं। राज्याधिकारी उन कारणों पर विचार. करके कठोर दण्ड देते हैं। कठोर दण्ड से, अपराधी चोर के अंग भग्न हो जाते हैं। वह करुणा का पात्र हो जाता है। उत्कट यातना के कारण उसके ओष्ट, कंठ, तालु और जीभ सूख जाते हैं। वह प्यास से पीड़ित हो कर दीनतापूर्वक पानी माँगता है, किन्तु उसे पानी भी प्राप्त नहीं होता। उसके जीवन आशा लुप्त हो जाती है। जिस चोर को प्राणदण्ड की आज्ञा हुई है, वह वधिक (फांसी या शूली देने वाले जल्लाद) द्वारा वधस्थल पर ले जाया जाता है। उसके साथ कर्कश एवं असहनीय ध्वनि करने वाला पटह बजाया जाता है और अपराधी को चलने के लिए प्रेरित किया जाता है - चलाया जाता है। उसे वध के समय पहनने योग्य वस्त्र पहनाये जाते हैं। उसके गले में कनेर के लाल रंग के फूलों की माला पहनाई जाती है। मृत्यु के भय से उसके शरीर से पसीना झरता रहता है और उससे उस शरीर गीला हो जाता है। उसके शरीर में चूर्ण (या चूना अथवा भस्म) लगा दिया जाता है और विविध प्रकार के रंग से रंग दिया जाता है। उसके बाल, वायु से उड़ी हुई रज तथा ऊपर से डाली हुई धूल से भरे हुए होते हैं और कौसुभ रंग (गौर वर्ण वाले-टीकाकार) रंग दिये जाते हैं। उसके जीवन की आशा टूट जाती है। हताश हो जाने और मृत्यु के भय से उसके मस्तक में चक्कर आने लगते हैं। वधिकों के भय से उसका रक्त और मांस तिल-तिल करके क्षीण होता जाता है। कोई क्रूरतापूर्ण दण्ड देने वाले वधिक, उस दण्डित मनुष्य के शरीर के छोटे-छोटे टुकड़े करके, रक्त से लिप्त मांस के टुकड़े उसी को For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोर को दिया जाने वाला दण्ड १३३ *#MAHARRAMRAPARIHAR**************************************** खिलाये जाते हैं। वह पाप के भयंकर उदय वाला, पत्थर, लाठी आदि से पीटा जाता हुआ वधस्थान ले जाया जाता है। हजारों स्त्री पुरुषों से घिरा हुआ वह वध्य मनुष्य, नगर के मध्य में हो कर ले जाया जाता है। उसके शरीर पर प्राण-दण्ड के योग्य वस्त्र पहनाये हुए होते हैं। उसे देखने के लिए नागरिकजन चारों ओर से घेर लेते हैं। उस समय वह दीनतापूर्वक चारों ओर देखता है, किन्तु उस अभागे का कोई भी रक्षक नहीं बनता। उसे शरण देने वाला कोई नहीं होता। उस हतभागी का कोई पालक-स्वामी नहीं बनता। वैसे पापी, बन्धु-बान्धवों से हीन होते हैं। यदि ऐसे चोरों के बान्धवगण हों भी, तो वे उससे अपना नाता तोड़ लेते हैं। इस प्रकार मृत्युभय से उद्विग्न एवं भ्रांत बना हुआ वह हीनतम मनुष्य, वधस्थल पर ले जाकर शूली पर चढ़ा दिया जाता है। वह शूल उसके शरीर को भेदकर बाहर निकल जाती है। विवेचन- चोर के प्रकार"चौरः चौरार्पको मन्त्रीः, भेदज्ञः काणकक्रयी। अन्नदः स्थानदश्चैवः, चौरः सप्तविधः स्मृतः॥" - चोर के सात प्रकार हैं, यथा - १. चोरी करने वाला २. चोर को साधन देने वाला ३. चोर को परामर्श देने वाला ४. चोरी करने का भेद बताने वाला ५. चोरी का माल खरीदने वाला ६. चोर के खाने-पीने की व्यवस्था करने वाला और ७. चोर को स्थान देने वाला। चोरी अठारह प्रकार की होती है। यथा - "भलनं कुशलं तर्जा, राजभोगोवलोकनं। अमार्गदर्शनं शय्या, पदभंगस्तथैव च ॥१॥ विश्रामः पादपतन, मासनं गोपनं तथा। खण्डस्यखादनं चैव, तथाऽन्यन्माहराजिकम्॥२॥ पद्याग्न्युदकरजूनां; प्रदानं ज्ञानपूर्वकम्।. एताः प्रसूतयो ज्ञेयाः अष्टादश मनीषिभिः॥३॥" - १. भलन-चोर का उत्साह बढ़ाना, उसमें मिलना, साथ देना २. कुशल-कुशल पूछना ३.. तर्जा-अंगुली आदि से संकेत करना ४. राजभाग नहीं देना ५. अवलोकन-चोरी करते देखकर भी उपेक्षा करना ६. अमार्गदर्शन - खोज करने वालों को उल्टा मार्ग बताना ७. शय्या - चोर को सोने को स्थान व बिछौना देना ८. पदभंग - चोरों के चरणचिह्न मिटाना ९. विश्राम - विश्राम देना १०. पादपतन - चोर के चरणों में गिर कर सम्मान देना ११. आसन देना १२. गोपन-छुपाना १३. खण्डखादन-मिष्ठान देना १४. माहराजिक-दूसरे स्थान या पर-राष्ट्र में ले जाकर चोरी की वस्तु बेचना १५. पद्य - उष्ण जल, तेल आदि देना अथवा मार्ग देना १६. अग्नि-दान १७. जलदान और १८. रज्जु (रस्सी) दान। ये अठारह प्रकार की चोरियों कही गई हैं। चौर्यकर्म के ये कारण हैं। For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०३ *******-*-*-*-*-*-*-*-*-*-****-*-*-*-*-******** ******** ********* ****************** . चोरों को दी जाती हुई भीषण यातनाएं ते.य तत्थ कीरति परिकप्पियंगमंगा उल्लंविजंति रुक्खसालासु केइ कलुणाई विलवमाणा अवरे चउरंगधणियबद्धा पव्वयकडगा पमुच्चंते दूरपातबहुविसमपत्थरसहा अण्णे य गय-चलण-मलणयणिम्मदिया कीरंति पावकारी अट्ठारसखंडिया य कीरंति मुंडपरसूहि केइ उक्कत्तकण्णोट्ठणासा उप्पाडियणयण-दसण-वसणा जिब्भिंदियछिया छिण्णकण्णसिरा पणिजंते छिज्जंते य असिणा णिव्विसया छिण्णहत्थपाया पमुच्चंते य जावजीवबंधणा य कीरंति केइ परदव्वहरणलुद्धा कारग्गलणियलजुयलरुद्धा चारगावहतसारा सयणविप्पमुक्का मित्तजणणिरक्खिया णिरासा बहुजण-धिक्कारसह-लज्जाइया अलज्जा अणुबद्धखुहा पारद्धा सी-उण्ड-तण्ह-वेयण-दुग्घट्टघट्टिया विवण्णमुह-विच्छविया विहलमइलदुब्बला किलंता कासंता वाहिया य आमाभिभूयगत्ता परूढ-णह-केस-मंसु-रोमा छगमुत्तम्मि णियगम्मिखुत्ता। तत्थेव मया अकामगा बंधिऊण पाएसु कड्डिया खाइयाए छूढा तत्थ य वग-सुणग-सियाल-कोल-मजारचंडसंदंसगतुंड-पक्खिगण-विविह-मुहसयल-विलुत्तगत्ता कयविहंगा केइ किमिणा य कुहियदेहा अणिट्ठवयणेहिं सप्पमाणा सुटु कयं जं मउत्ति पावो तुट्टेणं जणेण हम्ममाणा लज्जावणगा य होंति सयणस्स वि य दीहकालं। शब्दार्थ-ते- वे, य- और, तत्थ - वहाँ, कीरति-करते हैं, परिकप्पियंगमंगा - अंगोपांग काट देते हैं, केई - कई या किसी को, उल्लंविजंति - उल्टा लटका देते हैं, रुक्खसालासु - वृक्ष की शाखा में, कलुणाई - करुणापूर्ण, विलवमाणा - विलाप करते हैं, अवरे - कई, चउरंगधणियबद्धा - हाथपांव चारों अंग दृढ़तापूर्वक बांध कर, पव्वयकडगा-- पर्वत के शिखर से, पमुच्चंते - गिरा देते हैं, दूरपात - दूर से गिराये हुए, बहुविसमपत्थरसहा - अत्यन्त विषम पत्थरों का आघात सहते हुए, अण्णेदूसरे, गयचलणमलणयणिम्मद्दिया - पृथ्वी पर डाल कर हाथी के पैरों से कुचले जाते हैं, पावकारीपाप करने वाले, अट्ठारसखंडिया - अठारह टुकड़े करके, मुंडपरसूहिं - कुण्ठित फरसे से, उक्कत्तकण्णोट्ठणासा - कान, ओष्ठ और नाक काट लेते हैं, उप्पाडिय - उखाड़ देते हैं, णयण-दसणआँखें, दाँत, वसणा - गुप्तांग-अण्डकोष, जिभिदियछिया - जीभ का छेदन कर लेते हैं, छिण्णकण्णसिरा - कान और सिर काट लेते हैं, पणिज्जते - वधस्थल पर ले जाते हैं, छिज्जते - काटते हैं, असिणा - तलवार से, णिव्विसया - निर्विषय-देश निकाला, छिण्णहत्थपाया - हाथ-पाँव काट देते हैं, पमुच्चंते - छोड़ देते या निकाल देते हैं, जावज्जीवबंधणा - जीवन पर्यन्त बन्दी, कीरति - करते हैं, परदव्वहरणलुद्धा - दूसरों के धन को हरण करने में लुब्ध, कारग्गलणियलजुयलरुद्धा - For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोर को दी जाती हुई भीषण यातनाएं - १३५ **** * **************************************** अर्गलायुक्त कारागृह में डालकर अवरुद्ध कर रखते हैं, चारगावहतसारा - बन्दी बना कर उनका सभी धन ले लिया जाता है, सयणविप्पमुक्का - स्वजनों से छोड़े-त्यागे हुए, मित्तजणणिरक्खिया - मित्रजनों से भी त्यागे हुए, णिरासा - निराश, बहुजणधिक्कारसहलजाइया - बहुत-से मनुष्यों से धिक्कार के शब्दों से जो लज्जित हैं, अलज्जा - लज्जा-रहित, अणुबद्धखुहा - भूख से निरन्तर पीड़ित, पारद्धा - पीड़ित, सी-उण्ह-तण्हवेयण - शीत, उष्ण, तृषादि वेदना से, दुग्घट्टघट्टिया - अत्यन्त दु:खी हैं जो, विवण्णमुह - विवर्ण-मुख-जिनके मुंह का वर्ण बिगड़ा हुआ है, विच्छविया - कान्तिहीन-निस्तेज, विहल - निष्फल, मइल - म्लान, दुब्बला - दुर्बल, किलंता - क्लेशित, कासंता - खांसते हुए, वाहिया - व्याधि पीड़ित, आमाभिभुयगत्ता - आमाशय विषाक्त हो कर पीड़ित, परूढ़ - बढ़ जाते हैं, णहकेसमंसुरोमा - नख, केस और दाढ़ी मूंछ के बाल, छगमुत्तम्मि - विष्ठा और मूत्र में, णियगम्मि - निकल जाने से, खुत्ता - लिप्त हैं, तत्थेव - वहीं, मया - मर जाते हैं, अकामगा - अनिच्छापूर्वक, बंधिऊण - बांध कर, पाएसु - पाँव कों, कड्डिया - घसीट कर निकालते, खाइयाए - खाई में, छूढाडाल देते हैं, तत्थय - वहाँ या उसे, वगसुणगसियालकोलमज्जार - भेडिया, कुत्ता, गीदड़, सूअर, बिल्ली, चंडसंदंसग-तुंडपक्खिगण- तीक्ष्ण चोंच वाले पक्षीगण, विविहमुह-सयल - अनेक प्रकार के सैकड़ों मुंहों से, विलुतगत्ता - विलुप्त गात्र-अंग-प्रत्यंग खाये जाकर नष्ट हो गये, कयविहंगा - खण्डित किये हुए अंग, किमिणा - कृमि-कीड़ों से, कुहिय देहा - सड़े हुए शरीर से, अणिढवयणेहि - अनिष्ट वचनों से, सप्पमाणा- शय्यमान-गाली आदि से, सुटुकयं - अच्छा किया, जं - यह, मउत्ति - मर गया, पावोपापी, तुटेणं - संतुष्ट हुए, जणेण - लोग, हम्ममाणा - मारते हुए, लज्जावणगाहोंति - लज्जित होते रहते हैं, सयणस्स - उनके स्वजन, दीहकालं- दीर्घ काल तक। भावार्थ - वधस्थान पर ले जा कर वधिकगण किसी चोर के अंगोपांग काट देते हैं, किसी को वृक्ष की शाखा से पांव बांध कर उल्टा लटका देते हैं, तब वह चोर, करुणाजनक विलाप करता है। किसी के दोनों हाथ और दोनों पांव-ये चारों अंग दृढ़ता से बांध कर पर्वत के शिखर पर से नीचे गिरा देते हैं। इतने ऊपर से गिराये हए वे नकीले एवं विषम पत्थरों से टकराते-कटाते औ और असह्य वेदना सहते हुए मर जाते हैं। किन्हीं को भूमि पर डाल कर उन पर हाथी चलाये जाते हैं और उन्हें कुचल कर मार देते हैं। किन्हीं पापी चोरों के अंगों को कुण्ठित कुठार (वह कुल्हाडा जिसकी धार तीक्ष्ण न हों) से काट कर अठारह टुकड़े किये जाते हैं। किसी के कान, नाक और ओष्ठ काट लेते हैं। किसी की आँखें निकाल लेते हैं, तो किसी के दांत तोड़ देते हैं और किसी के अंडकोष निकाल लेते हैं। किसी की जीभ काट डालते हैं। किसी के कान काट लेते हैं और किसी का मस्तक ही काट लेते हैं। किसी का वधस्थल पर ले जाते ही तलवार से सिर काट देते हैं। किसी के हाथ-पांव काट कर देश निकाला दे देते हैं और किसी चोर को जीवनपर्यन्त बन्दी बनाये रखते हैं। दूसरों के धन का हरण करने वाले चोरों को कारागह में बन्दी बना कर द्वार बन्द करके रखते हैं। उनका धन राज्यकोष में ले लिया For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ०३ ********* ************************************* * *** पापी चोर स्वजन-परिजनों से रहित-अकेले होते हैं। उनका कोई मित्र नहीं होता। उनके मन में यह आशा ही नहीं रहती कि उन्हें कोई बचाने का प्रयत्न करेगा। जनता उन्हें धिक्कारती रहती है। जनधिक्कार के शब्द उन्हें लज्जित करते हैं, किन्तु वे निर्लज होते हैं। वे भूख से निरन्तर पीड़ित रहते हैं। . शीत, ताप, प्यास आदि से वे दुःखित रहते हैं। उनका मुंह विकृत-फीका, कान्ति-हीन और मलीन हो जाता है। उनकी कोई भी इच्छा पूरी नहीं होती। वे दुर्बल एवं क्लेशित रहते हैं। उन्हें खांसी आदि रोग हो जाते हैं। उनका आमाशय विकृत होकर अपक्व रस से शरीर विषाक्त हो जाता है। उनके नाखून, केश, डाढ़ी-मूंछ के बाल बढ़ जाते हैं। वे कारागृह में अपनी ही विष्ठा और मूत्र में लिप्त हो जाते हैं - और जीवन की इच्छा रखते हुए भी मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। इसके बाद उनके पांवों में रस्सी बांध कर घसीटते हुएं लें जा कर उन्हें किसी खाई में डाल देते हैं। वहाँ उनके उस मृत शरीर को भेड़िये, कुत्ते, सियार, बिल्ले. आदि पशु नोच-नोच कर खाते हैं। गिद्धादि अनेक प्रकार के पक्षी अपनी विविध प्रकार की तीखी चोंचों से नोच खा कर अंग-उपांग नष्ट एवं विलुप्त कर देते हैं। उनके शरीर के कई टकडे कर देते हैं। किसी का शरीर सड जाता है और उसमें कीडे पड जाते हैं। जो मनष्य उन्हें देखता है, वही उनकी निन्दा करता और गालियाँ देता है। कई लोग कहते हैं कि इस पापी को इतना कठोर दण्ड दिया-यह अच्छा ही किया और यह मर गया-यह भी अच्छा हुआ। उन्हें दण्डित देख कर संतुष्ट हुए लोग भी उन्हें मारते हैं। उनके मरने के बाद भी उनके सम्बन्धीजन, उनके दुष्कृत्य के कारण चिरकाल तक लज्जित होते रहते हैं। - विवेचन - इस सूत्र में चोरी करने वाले अपराधी को दिये जाने वाले उग्रतम दण्ड का वर्णन . किया गया है। इसमें खास-खास दण्डों का ही उल्लेख है। हाथी के पैरों से कुचलवा कर मारने के अतिरिक्त सिंह के पिंजरे में बन्ध करके मारने, भयंकर विषधर से डसवाकर मारने आदि रूप के दण्डदान तो मुस्लिम बादशाहों के समय तक होता था। गर्दन पर कुल्हाड़ी चला कर, लकड़े के समान काटने और एक ऊंचे खंभे पर बांध कर, नीचे आग जला कर उसकी आँच में धीमे-धीमे तपा करभुनते हुए, अत्यन्त कष्टपूर्वक मारने का दण्ड, इंगलैण्ड में दिया जाता था-ऐसा उल्लेख भी पढ़ने में आया है और यह दण्ड केथोलिक और प्रोटेस्टंट के साम्प्रदायिक पक्षपात से (मान्यता प्रचारित करने के अपराध में) दिया जाता था। अट्ठारसखंडिया - चोर के शरीर के अठारह खण्ड करना। यथा - २ कान, २ नाक, २ आँखें, २ ओष्ठ, २ हाथ, २ पाँव, १ जीभ, १ गर्दन, १ कंठ, १ पीठ, १ वक्षस्थल और १ गुह्येन्द्रिय। पाप और दुर्गति की परम्परा मया संता पुणो परलोग-समावण्णा णरए गच्छंति णिरभिरामे अंगारपलित्तककप्प-अच्चत्थ-सीयवेयण-अस्साउदिण्ण-सययदुक्ख-सय-समभिहुए, तओ For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाप और दुर्गति की परम्परा १३७ ** * ** **** * ******************************* वि उवट्टिया समाणा पुणो वि पवजंति तिरियजोणिं तहिं पि णिरयोवमं अणुहवंति वेयणं, ते अणंतकालेण जइ णाम कहिं वि मणुयभावं लभंति णेगेहिं णिरयगइगमण तिरिय-भव-सयसहस्स-परियट्टेहि। . तत्थ वि य भवंतऽणारिया णीय-कुल-समुप्पण्णा आरियजणे विं लोगबजझा तिरिक्खभूया य अकुसला कामभोगतिसिया जहिं णिबंधंति णिरयवत्तणिभवप्पवंचकरण-पणोल्लि पुणो वि संसारावत्तणेममूले धम्म-सुइविवजिया अणज्जा कूरा मिच्छत्तसूइपवण्णा य होंति एगंत-दंड-रुइणो वेढेता कोसिकारकीडोव्व अप्पगं अट्ठकम्मतंतु घणबंधणेणं। शब्दार्थ - मयासंता - मरने पर, पुणो - फिर, परलोगसमावण्णा - परलोक प्राप्त कर, णरए - नरक में, गच्छंति - जाते हैं, भिरभिरामे - असुहावने-सुन्दरता रहित-अप्रिय-अरुचिकर, अंगारपलित्तककप्प- अत्यन्त प्रज्वलित अंगारों से युक्त, अच्चत्य - अत्यन्त, सीय वेयण - शीत वेदना, अस्साउदिण्ण - दुःख उत्पन्न होने पर, सयय - सतत-निरन्तर, दुक्ख-सय - सैकड़ों दुःख, समभिदुएउत्पन्न होने से, तओ वि - वहाँ से, उवट्टियासमाणा - निकल कर, पुणोवि - फिर वे, पवजति - जाते हैं, तिरियजोणिं- तिर्यंच योनि में, तहिं पि - वहाँ भी, णिरयोवमं - नरक के समान, अणुहर्वति अनुभव करते-भोगते हैं, वेयणं - वेदना, अणंतकालेण- अनंतकाल से, जइणाम - यदि नाम-कदाचित्, • कहिं वि - किसी प्रकार, मणुयभावं - मनुष्य भव, लभंति - प्राप्त करते हैं, णेगेहिं - अनेक, णिरयगइगमण - नरक गति में गमन, तिरियभव-सयसहस्स - तिर्यंच के लाखों भव, परियट्टेहिं - परिवर्तन-भ्रमण। तत्य वि य - वहाँ भी, भवंत - होते हैं, अणारिया - अनार्य, णीयकुलसमुप्पण्णा - नीच कुलोत्पन्न, आरियजणेवि - आर्य देश में उत्पन्न हों तो भी, लोगबज्झा - लोकबाह्य-अछूत, तिरिक्खभूया - पशु के समान, अकुसला - बुद्धिहीन-तत्त्वज्ञान से रहित, काम-भोगतिसिया - कामभोग के प्यासे, जहिं - वहाँ, णिबंधंति - बांधते हैं, णिरयवत्तणि - नरक में ले जाने वाले, भवप्पवंचकरणपल्लोणि - भव प्रपंच को बढ़ाने वाले, पुणो वि - फिर भी, संसारावत्तणेममूले - संसार में परिभ्रमण कराने के मूल कारण, धम्मसूइविवज्जिया - धर्म श्रवण से वर्जित, अणज्जा - अनार्य, कूरा- क्रूर, मिच्छत्तसूइ- पवण्णा - मिथ्यात्व श्रुति का प्रतिपादन करने वाले, होति - होते हैं, एगंत दंड रुइणो - एकान्त दण्ड देने या पापाचरण से दण्डित होने योग्य रुचि वाले, वेढ्ता - बांधते हैं, कोसिकारकीडोव्य - कोशिकार के समान, अप्पगं - अपने को, अट्ठकम्मतंतु - आठ कर्म रूपी तन्तुओं से, घणबंधणेणं - दृढ़ बन्धनों से। भावार्थ - वे चोर वहां से मर कर परलोक जाते हैं, तब वे उन नरकों में जाते हैं, जहाँ For Personal & Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ०३ *************************************************** ******* *** जाज्वल्यमान अंगारों से युक्त स्थान होने के कारण अत्यन्त उष्ण वेदना होती है, कहीं हिम (बर्फ) से भी अत्यन्त शीत वेदना होती है और अन्य प्रकार के दुःख भोगने पड़ते हैं। नरक भूमि घोर, भयावनी एवं अप्रिय है। नरक की आयु पूरी करके वे पापी जीव, वहाँ से मर कर तिर्यंच योनि में जाते हैं। तिर्यंच योनि में भी वे नरक के समान दुःख भोगते हैं। इस प्रकार नरकों के अनेक और तिर्यंचों के लाखों भव, अनन्तकाल तक करके, कभी किसी प्रकार मनुष्य-भव प्राप्त कर लेते हैं, तो वहाँ भी वे अनार्य (शक, यवन, बर्बर आदि म्लेच्छ) एवं नीच कुल में उत्पन्न होते हैं। कभी वे आर्यदेश में उत्पन्न हो भी जाएं, तो वैसे कुल में उत्पन्न होते हैं-जो लोक-बाह्य (अछूत) एवं घृणित हों। वे अकुशल-अज्ञानी तथा पशु के समान होते हैं। वे काम-भोग के प्यासे रहते हैं। वहाँ वे फिर पापाचरण करके, वैसे ही अशुभ कर्मबन्ध करते हैं, जो नरक में ले जाने वाले हैं और संसार परिभ्रमण का मूल कारण है। उन्हें न धर्म सुनना मिलता है, न धर्म में उनकी श्रद्धा ही होती है। वे अनार्य एवं क्रूर होते हैं। मिथ्यादर्शनों में उनकी रुचि होती है। वे मिथ्याश्रुत सुनते और उसी के अनुयायी होते हैं। उनकी रुचि भी हिंसादि पाप कार्यों में होती है, जिससे आत्मा एकान्त रूप से दण्डित होती हो। उनकी आत्मा पर पापकर्मों का बन्ध, कोशिकार के समान होता है। वे आठ कर्म के दृढ़ बन्धनों से अपनी आत्मा को बांध लेते हैं और अनन्तकाल तक संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं। विवेचन - मनुष्य भव के कुछ ही वर्षों में किये हुए पापाचरण का कटु परिणाम कितना अधिक और भयंकर होता है, इसका दिग्दर्शन इस सूत्र में किया गया है। अन्तर्मुहूर्त के निकृष्टतम परिणामों का दुःख, सागरोपमों तक भोगना पड़ता है। बड़ के एक बारीक बीज का वृक्ष कितना विशाल हो जाता है, उसके कितने-असंख्यात बीज उत्पन्न हो जाते हैं और उसकी परम्परा इतनी बढ़ती रहती है कि जिसका कोई अन्त भी नहीं आता। उसी प्रकार एक मनुष्य-जन्म में किये हुए पाप से आत्मा इतनी अधम बन जाती है कि उस पाप का कालारंग, परम्परा से बढ़ता ही जाता है। ऐसा पापी व्यक्ति, अकाम-निर्जरा से कभी मनुष्य भी हो जाये, तो भी उसकी चिरकाल से बनी हुई पाप-परिणति (पापी स्वभाव) उससे पुनः पापाचरण करवा कर अधोगति में ले जाती है। णिरयोवमं अणुहवंति - तिर्यंच योनि में भी नरक के समान दु:खों का अनुभव करते हैं। कई पशु, कसाईखाने में काटे जाते हैं, कई की पीट-पीट कर हड्डी-पसली तोड़ देते हैं, अत्यधिक भार भर कर खिंचवाते हैं, जिससे आँखें निकल जाती हैं, श्वास उखड़ जाता है। कई भूख-प्यास और शीतउष्णादि को सहन करते-करते मर जाते हैं। इस प्रकार सैकड़ों तरह से नरक के समान भयंकर दुःख भोगा जाता है। ___णीयकुलसमुप्पण्णा - पापी जीव मनुष्य भव प्राप्त करता है, तो भी नीच-कुल का, जहाँ पाप ही पाप किया जाता हो। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि-जैन धर्म को उच्च-कुल और नीच-कुल का भेद स्वीकार है। इतना होते हुए भी धर्माचरण करने वाले नीच कुलोत्पन्न आत्मा के भी धर्माचरण के कारण उच्च-गोत्र का उदय स्वीकार किया है। For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापियों को प्राप्त संसार-सागर १३९ **************************************************************** तिरिक्खभूया - ऐसे पापी मनुष्यों को पशु के समान बतलाया है, जो संदाचार एवं सद्विवेक से शून्य हैं। कामभोगतिसिया - उन पापी जीवों के हृदय में काम-भोग की तृष्णा बनी रहती है, उन्हें इच्छित काम-भोग प्राप्त नहीं होते। वे आशा-तृष्णा में ही जीवन बिताते हैं। इससे सिद्ध होता है कि आवश्यक साधनों का अभाव भी पाप का परिणाम है। कोसिकारकीडोव्व - कोशिकार-वह कीड़ा जो अपनी लार से अपने को बन्दी बनाने वाले कोश का निर्माण करता है। मुंह से निकली हुई लार, तन्तु रूप बनती है और शरीर पर लिपट कर उस कीड़े (रेशम के कीड़े) को घेर कर बन्दी बना लेती है। इसी प्रकार पापाचरण से उत्पन्न कर्म-बन्धन, आत्मा को जकड़ लेते हैं। पापियों को प्राप्त संसार-सागर एवं णरग-तिरिय-णर-अमर-गमण-परंतचक्कवालं जम्मजरामरणकरणगंभीरदुक्खपक्खुभियपउर सलिलं संजोगवियोगविचीचिंता-पसंग-पसरिय-वह-बंध-महल्लविपुल कल्लोलं कलुण-विलविय-लोभ-कलकलिंत बोलबहुलं अवमाणणफेणं तिव्वखिंसणपुलंपुलप्पभूय-रोग-वेयण-पराभव-विणिवायफरुस-धरिसण-समावडियकठिणकम्मपत्थर-तरंग-रंगंत-णिच्च-मच्चु-भयतोयपटुं कसाय-पायालसंकुलं भवसयसहस्सजलसंचयं अणंतं उळेवणयं अणोरपारं महब्भयं भयंकरं पइभयं अपरिमियमहिच्छ-कलुसमइ-वाउपडद्धम्ममाणं आसापिवासपायाल-काम-रइ-रागदोस-बंधणबहुविहसंकप्पविउलदगरयंधकारं मोहमहावत्त-भोगभममाणगुप्प-माणुच्छलंतबहुगब्भवासपच्चोणियत्तपाणियं पहाविय-वसणसमावण्ण रुण्ण-चंड-मारुयसमाहया मणुण्णवीची-वाकुलियभग्गफुटुं तणि? कल्लोल-संकुलजलं पमायबहु चंडदुद्रुसावयसमाहयउद्धायमाणगपूरघोरविद्धंसणत्थबहुलं अण्णाणभमंत-मच्छपरिहत्थं अणिहुतिंदिय-महामगरतुरिय-चरिय-खोखुब्भमाण-संतावणिचयचलंत-चवल-चंचलअत्ताण-असरण-पुव्वकयकम्मसंचयोदिण्ण-वजवेइज्जमाण-दुहसय-विवागघुण्णंतजलसमूहं। शब्दार्थ - एवं - इस प्रकार, णरग-तिरिय-णर-अमर - नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव गति में, गमणपेरंतचक्कवालं - परिभ्रमण करते रहना-चक्कर लगाते रहना बाह्य परिधि है, जम्मजरामरणकरणगंभीर-दुक्ख - जन्म, जरा और मृत्यु के गम्भीर दुःख उत्पन्न करने रूप, पक्खुभियपउरसलिलं - For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०३ *************************************************************** क्षुब्ध बना हुआ प्रचुर जल है, संजोगवियोगवीचीचिंता-पसंग-पसरिय - संयोग वियोग से उत्पन्न चिन्ता की लहरें बढ़ती रहती हैं, वहबंधमहल्ल-विपुलकल्लोलं - वध बन्धन और यातना रूपी बहुत-सी तरंगें उठती हैं, कलुणविलविय - करुण विलाप, लोभ - लोभ, कलकलिंतबोलबहुलं - कलकल करके बहुत-सी ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं, अवमाणणफेणं - अपमान रूपी फेन है, तिव्वखिंसणपुलंपुल - निरन्तर होती रहती तीव्र निंदा, प्पभूयरोगवेयणपराभवविणिवाय - बहुत-से रोग तथा वेदना से पराजय एवं पतन से, फरुसधरिसणसमावडिय - कठोर एवं कटु वचनों से प्राप्त फटकार, कठिणकम्मपत्थरक्लिष्ट कर्म रूपी पत्थर से टकरा कर उत्पन्न, तरंगरंगत - तरंगों से चंचल, णिच्चमच्चुभयतोयपटुं - मृत्यु का सदा ही लगा रहने वाला भय पानी का ऊपर का भाग है, कसायपायालसंकुलं - कषायरूप पाताल कलश युक्त, भवसयसहस्सजलसंचयं - लाखों भवरूपी जल का संचय है जिसमें, अपांतं - अनन्त-जिसका पार नहीं, उव्येवणयं - उद्वेग उत्पादक, अणोरपारं - अत्यन्त बिस्तृत, महब्भयं - महान् भयकारी, भयंकरं - भयोत्पादक, पइभयं - प्रतिभय-विशेष भयकारी, अपरिमियमहिच्छ - अपरिमित-सीमा रहित अत्यन्त इच्छा, कलुसमइ - मलिन मति, वाउवेगउद्धम्ममाणं - वेग वाले वायु से बढ़े हुए, आसापिवासपायाल - आशा पिपासा-तृष्णा रूप पाताल, कामरइरागदोस - काम, रति, राग और द्वेष, बंधणबहुविह - बहुत प्रकार के बन्धन, संकप्प - संकल्प, विउलदगरय- विपुल जलकण, रयंधकारं - अन्धकार से व्याप्त, मोहमहावत्त - मोह रूपी महान् आवर्त-भ्रमर, भोगभममाण - भोग रूपी भमता हुआ, गुप्पमाणुच्छलंत - व्याकुल हो कर उछल रहे हैं, बहुगब्भवासपच्चोणियत्तपाणियंप्राणी बहुत-से गर्भवासों रूप मध्य में उत्पन्न हो कर मरण करते हैं, पहावियवसणसमावण्ण - इधर-उधर से प्राप्त दुःखों से पीड़ित, रुण्ण - रुदन, चंडमारुयसमाहया - प्रचण्ड वायु से संघर्षित हो, अमणुण्णवीचीवाकुलिय - अमनोज्ञ वेदन रूप तरंगों से व्याकुल, भग्गफुट्टतणिट्ठकल्लोलसंकुलजलंटकरा कर टूटे हुए और अनिष्ट कल्लोलों से क्षुब्ध बने हुए जल से पूर्ण, पमायबहुचंडदुद्रुसावयसमाहयप्रमाद रूपी बहुत ही दुष्ट स्वापद-व्याघ्रादि हिंसक जीव से आहत, उद्धायमाणग - उछलते हुए धावाकरते हुए, पूरघोरविद्धंसणत्थबहुलं - वेग से घोर एवं अत्यन्त विनाश हो रहा है, अण्णाणभमंतमच्छपरिहत्थं - अज्ञान रूपी सबल मच्छ इसमें परिभ्रमण करते हैं, अणिहुतिंदिय-महामगर - अनुपशांत इन्द्रिय रूपी महामगर, तुरियचरियखोखुब्भमाण - शीघ्रता से चलने से क्षुब्ध हुए, संतावणिचयचलंतचवलचंचल - संताप रूपी शोकाग्नि-बड़वानल से जो सदा चंचल एवं चपल बना हुआ है, अत्ताण असरण - त्राण तथा शरण-रक्षा और आश्रय से रहित, पुव्यकयकम्मसंचयोदिण्ण - जिन्होंने पूर्वभव में पापकर्मों का संचय किया है, उनके उदय में आने पर, वजवेइज्जमाण - पापरूप फल का वेदन होने पर, दुहसयविवाग - सैकड़ों दुःखों का विपाक-अनुभव रूप, घुण्णंतजलसमूह - घूमते हुए जल समूह से। भावार्थ - यह संसार समुद्र के समान अगाध है। नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव, ये चार गतियाँ, For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापियों को प्राप्त संसार-सागर - १४१ **** ****** ******* *** **************************** संसार की बाह्य परिधि हैं। इससे जन्म-जरा और गम्भीर दुःख रूप क्षुब्ध रहता हुआ प्रचुर जल भरा हुआ है। इस समुद्र में अनिष्ट संयोग और इष्ठ वियोग से उत्पन्न चिन्ता तथा वध-बन्धनादि यातना रूप उठती हुई बड़ी-बड़ी तरंगें हैं। करुण विलाप तथा लोभ रूपी घोर ध्वनियाँ हैं और अपमान रूपी फेन इसमें उत्पन्न होते रहते हैं। संसार-समुद्र में तीव्र निंदा, कठोर वचन, शत्रुओं से पराजय, धमकियाँ, झिड़कियाँ और तजन्य वेदना वाले आठ प्रकार के कठोर कर्म रूपी बड़े-बड़े पत्थर हैं, जिनसे टकरा कर इसमें तरंगें उठती रहती हैं। मृत्यु और भय रूपी इस समुद्र का जलपृष्ठ (पानी की ऊपरी सतह) है। संसार-समुद्र में कषाय-क्रोध, मान, माया और लोभ रूपी पाताल कलश है। जन्म-मरण से होते हुए लाखों भव रूपी पानी से यह समुद्र भरपूर है। यह संसार-सागर अनन्त है, अत्यन्त विशाल है, अपरम्पार है और प्राणियों को उद्वेग करने वाला है। महाभयंकर, भयोत्पादक एवं भय परम्परा बढ़ाने वाला है। निःसीम तृष्णा, महत्इच्छा तथा कलुसित भावना रूप वायु-वेग से संसार-समुद्र क्षुभित हो रहा है। आशा और तृष्णारूपी. समुद्र का पाताल (तल) है। काम-रति शब्दादि विषयों की लालसा, राग-द्वेष तथा विविध प्रकार के संकल्प रूपी जल की प्रचुरता से उत्पन्न अन्धकार है। महामोह रूपी आवर्त (चक्कर) में कामभोगरूपी, मण्डलाकार घूमता हुआ जल है, जो गर्भवास रूपी मध्यभाग में प्राणियों को डालता रहता है, जो अनेक प्रकार के दुःखों से पीड़ित हो कर रोने तथा आक्रन्द करने रूप प्रचण्ड वायु के आघात से उत्पन्न तरंगों से प्रताडित एवं क्षुब्ध रहता है। प्रमाद रूपी भयंकर हिंसक जंतुओं द्वारा जीवों पर होते हुए विध्वंश एवं अनर्थों से संसार-समुद्र भरा हुआ है। अज्ञान रूपी मच्छरों तथा उद्दण्ड इन्द्रियाँ रूपी महा मकरों की शीघ्रतापूर्वक की जाने वाली चेष्टाओं से क्षुब्धता बनी रहती है। संतापजलन एवं शोक रूप बड़वानल से, समुद्र सदैव चंचल तथा चपल रहता है। अरक्षित, निराश्रित एवं निराधार जीवों के, पूर्वजन्म के किये, सैकड़ों प्रकार के पाप-कर्मों के संचय से उदय में आया हुआ सैकड़ों प्रकार का दुःख रूप चक्कर काटता हुआ जल समूह है। इड्डि-रस-साय-गारवोहार-गहिय-कम्मपडिबद्ध-सत्तकड्डिजमाण-णिरयतलहुत्तसण्णविसण्णबहुलं अरइ-रइ-भय-विसाय-सोगमिच्छत्त-सेलसंकडं अणाइसंताणकम्मबंधण-किलेसचिक्खिल्लसुदुत्तारं अमर-णर-तिरियणिरयगइ-गमण-कुडिलपरियत्त-विपुलवेलं हिंसा-लिय-अदत्तादाणमेहुणपरिग्गहारंभ करण-करावणाणुमोयण-अट्ठविह-अणिट्ठकम्मपिंडिय-गुरुभारक्कंतदुग्गजलोघ-दूरपणोलिजमाणउम्मुग्ग-णिम्मुग्ग-दूल्लभतलं सारीरमणोमयाणिदुक्खाणि-उप्पियंता सायस्सायपरितावणमयं उब्बुड्डणिब्बुड्डयं करेंता चउरंतमहंत-मणवयग्गं रुई संसारसागरं अट्ठियं अणालंबण-मपइठाण-मष्पमेयं चुलसीइ-जोणि-सयसहस्सगुविलं अणालोकमंधयारं अणंतकालं णिच्चं उत्तत्थसुण्णभयसण्णसंपउत्ता वसंति, उव्विग्गवासवसहिं। For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० ३. *************************************************************** शब्दार्थ - इड्डिरससायगारवोहार - ऋद्धि रस और सातारूप गारव ही इसमें अपहार-जलचर विशेष है, गहियकम्मपयडिबद्धसत्त - कर्मों से ग्रहित एवं बद्ध जीव, कविजमाणणिरयतलहुत्त - खिंचकर नरक रूप पाताल में ले जाते हुए, सण्णविसण्ण बहुलं - अत्यधिक चिंतित एवं शोकाकुल जीवों से भरा है, अरइ-रइ-भयविसाय-सोगमिच्छत्त-सेलसंकडं - अरति, रति, भय, विशाद, शोक और मिथ्यात्व रूपी पर्वतों से विषम हो रहा है, अणाइसंताणकम्मबंधणकिलेसचिक्खिल्लसुदुत्तारअनादि काल से जिनकी संतति चली आ रही है ऐसे कर्मबन्धन रूप कीचड़ से जो दुस्तर है, अमरणरतिरियणिरयगइगमण - देव, मनुष्य, तिर्यंच और नरकगति में गमन रूप, कुडिलपरियत्तविपुलवेलं - कुटिल घुमाव वाली जलवृद्धि विस्तृत रूप से हो रही है, हिंसालियअदत्तादाणमेहुणपरिग्गहारंभ - हिंसा, झूठ, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह आरंभ, करणकरावणाणुमोयण - करण करावण और अनुमोदन से, अट्ठविह अणिट्ठकम्मपिंडिय - आठ प्रकार के अनिष्ट कर्मपिण्ड रूप, गुरुभारक्कंतदुग्गजलोघदुरपणोंलिज्जमाण - बड़े भारी बोझ से दब कर आक्रान्त हुए तथा दु:ख रूप जलराशि में, उम्मुग्गणिम्मुग्ग - डूबते-उतराते, दुल्लभतलं - तल की प्राप्ति दुर्लभ है, सारीरमणोमयाणिदुक्खाणि - शारीरिक और मानसिक दुःखों का, उप्पियंता - उपभोग करते हैं, सायस्सायपरितावणमयं - सुख और दुःख रूप परितापना मय, उब्बुडुणिब्बुड्डयं करेंता - उन्मग्न और निमग्न करते, चउरंतमहंतमणवयग्गं - चारों दिशाओं में व्याप्त महान् जिसका पार नहीं ऐसा अनन्त, रुहं संसारसागरं - रौद्र रूप संसार-सागर, अट्ठियं - अस्थित हैं जो, अणालंबणमपइठाणमप्पमेयं - आलम्बन रहित अप्रतिस्थान एवं अप्रमेय है, चुलसीइजोणिसयसहस्सगुविलं - चौरासी लाख जीव योनि से परिपूर्ण हैं, अणालोकमंधयारं - अज्ञानियों के लिए अन्धकार से परिपूर्ण, अणंतकालं - अनंतकाल तक, णिच्चं - नित्य, उत्तत्थसुण्णभयसण्णसंपउत्ता - भय से त्रस्त तथा आहारादि संज्ञा युक्त हो कर, वसंति - रहते हैं, उबिग्गवासवसहिं - उद्विग्न प्राणियों के रहने का स्थान है। भावार्थ - ऋद्धि, रस और साता गारव रूप इसमें अपहार नामक जंतु विशेष हैं, जो जीवों को बरबस खींच कर पाताल की ओर ले जाते हैं। ऐसे शोकाकल जीवों से संसार-समद्र भरा हआ है। अरति, रति, भय, शोक, विषाद और मिथ्यात्व रूपी पर्वत, इस समुद्र में बहुत हैं। अनादि काल से जिनकी संतति परम्परा से चली आ रही है ऐसे कर्म-बन्धन और राग-द्वेष तथा क्लेश रूपी कीचड़ इस समुद्र में भरा हुआ है। इस कीचड़ के कारण इसका पार करना बड़ा ही कठिन है। देव, मनुष्य, तिर्यंच और नरक गति में बार-बार भ्रमण करते रहना इसका चक्कर है, इससे पानी में वृद्धि होती रहती है। हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह रूप पांच आस्रवों का सेवन करना, दूसरों से सेवन कराना और 'अनुमोदन करना-ऐसे पाप-व्यापार से आठ प्रकार का कर्म-बन्धन होता है। उस बन्धन के गुरुतर भार से दब कर, दुःख रूपी गम्भीर पानी में डूबते-उतराते जीवों को समुद्र का थाह या तीर प्राप्त होना अत्यन्त कठिन है। शारीरिक और मानसिक दुःखों को भोगना तथा सुख और दुःखजन्य परिताप की For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापियों को प्राप्त संसार-सागर १४३ * HARRAIMARAHA ********************************* प्राप्ति ही इस संसार-समुद्र में उन्मग्न और निमग्न होना (नीचे जाना और ऊपर उठना) है। यह संसारसमुद्र, चार गति रूप चारों दिशाओं में व्याप्त, अनन्त अपरम्पार एवं विस्तृत है और अत्यन्त रौद्र (भयंकर) है। संयम-हीन जीवों के लिए इस संसार-समुद्र में कोई आश्रय स्थान नहीं है। उनकी रक्षा नहीं हो सकती। सर्वज्ञ के बिना इसका यथार्थ ज्ञान भी नहीं होता। यह संसार समुद्र, चौरासी लाख जीव योनि से परिपूर्ण है। अज्ञानियों के लिए यह पूर्णरूप से अन्धकारमय है। अज्ञानी जीव सदैव भयभ्रांत तथा आहारादि संज्ञाओं से युक्त होकर अनन्त काल निवास करते हैं। उद्विग्न प्राणियों का यह संसारसमुद्र ही निवास स्थान है। विवेचन - अदत्तादान-इस सूत्र में चौर्यकर्म करने वाले पापियों को होने वाले नरकादि के दुःखों का वर्णन करने के बाद सूत्रकार ने उनको प्राप्त होने वाले अनन्त संसार-समुद्र का वर्णन किया है। ___ इस पाठ में चार गति का वर्णन-क्रम, पहले पूर्वानुपूर्वी दिया है, जैसे - ‘णरगतिरिय-णर-अमर' और बाद में पश्चानुपूर्वी - 'अमर-णर-तिरिय-णिरयगइ' दिया है। जीव योनि - तेजस् और कार्मण शरीर वाले जीव, औदारिक आदि शरीर के योग्य स्कन्धों से जिस स्थान पर मिल कर जुड़ते हैं, वह स्थान 'योनि' (उत्पत्ति स्थान) कहलाता है। व्यक्ति की अपेक्षा योनियाँ असंख्य हैं, किन्तु समान वर्णादि से जाति की विवक्षा करके अनेक की एक में गणना की गई है (प्रज्ञापना सूत्र वृत्ति तथा द्रव्य लोक-प्रकाश श्लोक ४३-४४)। चौरासी लाख- पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय और वायुकाय-इन चार स्थावरकाय की प्रत्येक . की सात लाख से कुल २८ लाख, प्रत्येक वनस्पति काय की १० लाख और साधारण वनस्पति की १४ लाख। इस प्रकार पांच स्थावरकाय की कुल ५२००००० जाति हुई। तीन विकलेन्द्रिय की प्रत्येक की २ लाख से छह लाख, नारक, देव और तिर्यंच पंचेन्द्रिय के प्रत्येक के चार-चार लाख से १२००००० और मनुष्य की १४००००० इस प्रकार कुल ८४००००० जातियाँ हुई। प्रज्ञापना सूत्र पद ९ में योनि के भेद-सचित्त, अचित्त और मिश्र, शीत, उष्ण और शीतोष्ण, संवृत्त, विवृत्त और उभय तथा-कूर्मोन्नता, संखावृत्त और वंशीपत्रा, भेद किये हैं। . शुभाशुभ योनि के विषय में निम्न गाथाएँ हैं - "सीयादीजोणीओ, चउरासीई असयसहस्सेहिं। असुहाओय सुहाओ, तत्थ सुहाओ इमा जाण॥१॥ असंखाउ मणुस्सा, राइसरसंखमादियाऊणं। तित्थयरणामगोअं, सव्वसुहं होइ णायव्वं ॥२॥ तत्थवि य जाइसंपण्णाइ, सेसाओ हुंति असुहाओ। देवेसु किव्विसाई, सेसाओ हुंति असुहाओ॥३॥ For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०३ **###############################**************** पंचिंदियतिरिएस, हयगयरयणा हवंति उ सुहाओ। सेसाओ असुहाओ सुहवण्णेमिंदियादीया ॥४॥ देविंदचवकवट्टित्तणाई, मोत्तुं च तित्थयरभावं। अणगारभावियावि य, सेसाओ अणंतसो पत्ता॥५॥" - शीत आदि चौरासी लाख योनियों में अशुभ योनियां भी हैं और शुभ भी। इनमें शुभ योनियाँ इस प्रकार हैं - असंख्य वर्ष की आयु वाले मनुष्य (युगल) संख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्यों में राजेश्वरादि, तीर्थंकर नाम-कर्म के बन्धक सर्वोत्तम शुभ योनि वाले हैं। संख्यात वर्ष की आयु वालों में भी उच्च जाति-कुल सम्पन्न तो शुभ योनि वाले हैं, इनके अतिरिक्त अशुभ योनि वाले हैं। देवों में किल्विषी आदि की शुभ और अन्य शुभ हैं। तिर्यंच पंचेन्द्रियों में हस्तिरत्न अश्वरत्न शुभ हैं, शेष अशुभ और एकेन्द्रियादि में शुभ वर्णादि वाले शुभ और अन्य अशुभ हैं। देवेन्द्र, चक्रवर्ती, तीर्थकर और भावितात्मा अनगार के अतिरिक्त शेष अनन्तबार संसार योनियों में पतित होते हैं। पापियों के पाप का फल जहिं आउयं णिबंधति पावकम्मकारी, बंधव-जण-सयण-मित्तपरिवजिया अणिट्ठा भवंति अणाइजदुव्विणीया कुठाणा-सण-कुसेज-कुभोयणा असुइणो कुसंघयणकुप्पमाण कुसंठिया, कुरूवा बहु-कोह-माण-माया-लोह बहुमोहा धम्मसण्ण-सम्मत्तपरिभट्ठा दारिदोवद्दवाभिभूया णिच्चं परकम्पकारिणो जीवणत्थरहिया किविणा परपिंडतक्कगा दुक्खलद्धाहारा अरस-विरस-तुच्छ-कयकुच्छिपूरा परस्स पेच्छंता रिद्धिसक्कार-भोयणविसेस-समुदयविहिं जिंदंता अप्पगं कयंतं य परिवयंता इहे. य पुरेकडाइं कम्माइं पावगाइं विमणसो सोएण डज्झमाणा परिभूया होंति, सत्तपरिवजिया य छोभासिप्पकला-समय-सत्थ-परिवजिया जहाजायपसुभूया अवियत्ता णिच्च-णीयकम्मोव-जीविणो लोय-कुच्छ-णिजा मोघमणोरहा णिरासबहुला। शब्दार्थ - जहिं - जहाँ जिस कुल में, आउयं - आयु, णिबंधति - बांधते हैं, पावकम्मकारी - पापकर्म करने वाले, बंधवजणसयणमित्तपरिवज्जिया - वे बान्धव जन, स्वजन तथा मित्रादि से रहित होते हैं, अणिट्ठाभवंति - वे किसी को भी प्रिय नहीं होते, अणाइज्जदुविणीया - उनके वचनों का अनादर होता है वे अविनीत होते हैं, कुठाणासण - बुरा स्थान, 'बुरा आसन, कुसेज - बुरी शय्या, कुभोयणाखराब भोजन, असुइणो - अपवित्र, कुसंघयण - शरीर का कुगठन, कुप्पमाण - कुप्रमाण, कुसंठियाबुरी आकृति वाले, कुरुवा - कुरूप, बहुकोहमाणमायालोहा - उनमें क्रोध, मान, माया और लोभ बहुत होता है, बहुमोहा - उनमें मोह अधिक होता है, धम्मसण्ण-सम्पत्त-परिभट्ठा - धर्मबुद्धि और For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • पापियों के पाप का फल १४५ सम्यक्त्व से भ्रष्ट, दरिहोवहवाभिभूया - दारिद्र्य के उपद्रव से अभिभूत हैं, णिच्चं - सदैव, परकम्मकारिणो - दूसरों का काम करने वाले-पराधीन होते हैं, जीवणत्थरहिया - जीवन को सुखमय बनाने वाले अर्थ-धन से रहित होते हैं, किविणा - कृपण-रांक, परपिंडतक्कगा - दूसरों की रोटी की ताक में रहने वाले, दुक्खलद्धाहारा - जिन्हें भोजन भी दुःखपूर्वक मिलता है, अरस - रस रहित, विरसबुरे रस वाला, तुच्छ - हल्का या थोड़ा, कय - करते, कुच्छिपूरा - पेट भरते हैं, परस्स - दूसरों का, पेच्छंता - देखकर, रिद्धि-सक्कारभोयणविसेससमुदयविहिं - ऋद्धि, सत्कार, भोजन आदि विशेष पदार्थों की, जिंदंता - निन्दा करते हैं, अप्पगं - अपनी, कयंतं - भाग्य की, परिवयंता - बुराई करते हैं, इहे य - इस भव की और, पुरेकडाई कम्माइं पावगाइं - पूर्व के किये हुए पाप कर्म से, विमणसो- उदास होते हुए, सोएणडज्झमाणा - शोक रूपी अग्नि से जलते हुए, परिभूया - तिरस्कृत, होति - होते हैं, सत्तपरिवजिया - शक्ति से वंचित, छोभा - असहाय, सिप्पकला - शिल्पकला, समयसत्य-परिवजिया -"धर्मशास्त्र के ज्ञान से विवर्जित, जहाजायपसूभूया - यथाजात पशुभूत-शिक्षा आदि से वंचित बैल, गधे या भैंसे जैसे, अवियत्ता - अविश्वसनीय या अप्रीति कारक, णिच्च - नित्य, णीयकम्मोवजीविणो - नीच-कर्म करके जीवन चलाने वाले, लोयकुच्छणिज्जा - लोक-निन्दित होते हैं, मोघमणोरहा-विफल मनोरथ रहते, णिरासबहला-जो प्रायः निराश ही रहते हैं। ... भावार्थ - चौर्य करने वाले पापी जीव जिस कुल का आयु बांधते हैं और जन्म लेते हैं, वह बन्धुगण, स्वजन-परिजन और मित्रादि से रहित होता है। वे अनिच्छनीय एवं अप्रिय होते हैं। उनका वचन अस्वीकार होता है। वे अविनीत होते हैं। उनके रहने का स्थान बुरा, आसन शय्यादि भी बुरे और भोजन भी बुरा प्राप्त होता है। वे घृणित होते हैं। उनके शरीर का संहवन (गठन) भी बुरा और आकार तथा रूप भी खराब होता है। वे अत्यन्त क्रोधी, अभिमानी, कपटी और लोभी होते हैं। उनमें मोह भी बहुत होता है। वे धार्मिक विचार एवं सम्यक्त्व से भ्रष्ट तथा वंचित रहते हैं। उनका दारिद्र्य स्थायी रहता है। वे सदैव धनाभाव से पीड़ित रहते हैं और दूसरों.का कार्य करके जीवन चलाते हैं। वे जीवन में सुख प्राप्त करने के साधन ऐसे अर्थ (धन) से खाली रहते हैं। वे रॉक होते हैं। वे पेट भरने के लिए भी दूसरों का भोजन ताकते रहते हैं। उन्हें भोजन भी बड़े दुःख से प्राप्त होता है और वह भी रस-रहित, बुरे स्वाद वाला, निकृष्ट तथा थोड़ा मिलता है, जिससे उनकी उदरपूर्ति भी कठिनाई से होती है। वे दूसरों को प्राप्त ऋद्धि, सत्कार, भोजन तथा सुख-सामग्री देख कर तरसते हैं और अपनी तथा अपने भाग्य की निन्दा करते हैं। वे इस लोक में तथा परलोक में किये गये अपने पाप कर्म की निन्दा करते हैं। वे उदास एवं दीनता युक्त तथा शोकाग्नि में जलते ही रहते हैं। उनमें शक्ति भी नहीं होती और किसी की सहायता भी प्राप्त नहीं होती। वे सदैव तिरस्कृत रहते हैं। उनमें शिल्पकला या धर्मशास्त्रों का ज्ञान नहीं होता। वे पशु के समान विद्या, बुद्धि, ज्ञान, विचार एवं सभ्यता से वंचित रहते हैं। वे अविश्वसनीय तथा अप्रीति कारक होते हैं। वे सदैव नीच-कृत्य करके अपना पेट भरने वाले होते हैं। वे For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ०३ ************************************************************ लोक में निन्दित होते रहते हैं। आशा एवं तृष्णा रूपी बन्धन में वे सदैव बंधे रहते हैं, किन्तु उनके मनोरथ कभी पूरे नहीं होते, उनकी इच्छा पूरी नहीं होती। वे प्रायः निराश रहते हैं। आसापास-पडिबद्धपाणा अत्थोपायाण-काम-सोक्खे य लोयसारे होति। अफलवंतगा य सुटु वि य उज्जमंता तहिवसुज्जुत्त-कम्मकय-दुक्खसंठवियसत्थपिंडसंचियपरा पक्खिण्णदव्वसारा णिच्चं अधुव-धण-धण्णकोस-परिभोगविवजिया रहिय-कामभोग-परिभोग-सव्वसोक्खा परसिरिभोगोवभोग-णिस्साणमग्गणपरायणा वरागा अकामियाए विणेति। दुक्खं णेव सुहं णेव णिव्वई उवलभंति अच्चंत-विउलदुक्खसय-संपलित्ता परस्स दव्वेहिं जे अविरया। एसो सो अदिण्णादाणस्स फलविवागो, इहलोइओ परलोइओ अप्पसुहो बहुदुक्खो महब्भओ बहुरयप्पगाढो दारुणो कक्कसो असाओ वाससहस्सेहिं मुच्चइ, ण य अवेयइत्ता अत्थि उ मोक्खोत्ति। शब्दार्थ - आसापासपडिबद्धपाणा - उनके प्राण आशारूपी पाश में बंधे रहते हैं, अत्योपायाणकामसोक्खे - अर्थोपार्जन और काम-सुख, लोयसारे होति - लोक का सार होता है, अफलवंतगा - फल प्राप्त से रहित, सु१ वि य उज्जमंता - खूब परिश्रमशील रहते हुए, तहिवसुजुत्त - प्रतिदिन उद्यम करने पर भी, कम्मकयदुक्खसंठविय - किये हुए काम से कठिनाई से प्राप्त, सिथपिंडसंचयपरा - धान्य या भोजन का संचय करने में लगे रहते हैं, पक्खिण्णदवसारा - साररूप द्रव्य-धन से प्रक्षिण-दरिद्र, णिच्चं - सदैव, अधुवधणधण्णकोस - धन धान्य और भण्डार जिनका अस्थिर है, परिभोग-विवजिया - परिभोग से वंचित, रहियकामभोगपरिभोगसव्यसोक्खा - कामभोग एवं सभी प्रकार के सुख से रहित हैं, परसिरिभोगोवभोगणिस्साणमग्गणपरायणा - दूसरों की लक्ष्मी, भोगोपभोग और आश्रय की इच्छा और कामना में ही जो तरसते रहते हैं, वरागा - दीन, अकामियाए - इच्छापूर्ति से रहित, विणेंति - व्यतीत करते हैं, दुक्खं - दुःख पूर्ण, णेवसुहं - सुख नहीं, णेव णिव्वुई उवलभंति - निवृत्ति-स्वस्थता-शांति प्राप्त नहीं होती, अच्चंत - अत्यन्त, विउलदुक्खसयसंपलित्ता - सदैव सैकड़ों दुःखों से संतप्त रहते, परस्सदव्वेहिं - दूसरों के द्रव्य से, जे अविरया - जो अविरत हैं, एसो सो - इस प्रकार, अदिण्णादाणस्स - अदत्तादान-चोरी का, फलविवागो - फल-विपाक है, इहलोइओ - इहलौकिक, परलोइओ - पारलौकिक, अप्पसुहो - सुख से रहित, बहुदुहो - बहुत दुःख वाला, महब्भओ - महा भयानक, बहुरयप्पगाढो - बहुत-सी पाप-कर्म की धूल से भरपूर, दारुणो - दारुण, कक्कसो - कर्कश-कठोर, असाओ - असाता युक्त, वाससहस्सेहिं - हजारों वर्षों के बाद, मुच्यइ - छुटकारा होता है, णय अवेयइत्ता - फल भुगते बिना, अस्थि - है, मोक्खोत्ति - मुक्ति। For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापियों के पाप का फल १४७ **************************************************************** सतप्त रहत है। भावार्थ - लोक में धनोपार्जन करना और काम के सुखों का भोग करना-ये दो बातें मुख्य एवं सार रूप मानी गई हैं, किन्तु ये दोनों विशेषताएं. उन्हें प्राप्त नहीं होती। पाप के फल को भोगते हुए वे पापी जीव, धन और सुख प्राप्त करने के लिए बहुत उद्यम करते हैं, फिर भी निष्फल रहते हैं। दिनभर कठिन परिश्रम करके वे जो कुछ दुःख पूर्वक प्राप्त करते हैं, वे भी उनके पास नहीं रहता, उसे कोई अन्य ले जाता है या नष्ट हो जाता है। उनके पास धन-धान्य एवं बोग के साधन स्थिर नहीं रहते और न वे उनका उपभोग कर पाते हैं। वे कामभोग से सदैव वंचित रहते हैं। वे दूसरों की लक्ष्मी तथा भोगोपभोग देख कर सदैव तरसते रहते हैं। वे बेचारें दीन लोग अपनी इच्छा की पूर्ति नहीं होने के कारण सारा जीवन ही दुःखपूर्वक व्यतीत करते हैं। उन्हें न तो कभी सुख मिलता है और न शांति ही प्राप्ति होती है। जो दूसरों के धन के लोभ से विरत नहीं हुए, वे सैकड़ों प्रकार के दुःखों से सदैव संतप्त रहते हैं। .. यह अदत्तादान रूपी चौर्यकर्म का इस लोक और परलोक में होने वाला फल-विपाक है। यह सुख से रहित और दुःखों से भरपूर है। महा भयंकर है, पापकर्मों के मल से भरा हुआ है, कठोर है और अशांति से परिपूर्ण है। हजारों वर्षों तक पाप का दुःख पूर्ण फल भोगने के बाद कठिनाई से इससे . छुटकारा होता है। बिना भोगे इस पाप से मुक्ति नहीं हो सकती। • विवेचन - इस सूत्र में चौर्य पापकर्म के फलस्वरूप प्राप्त दारिद्र्य, दुःख, दुर्भाग्य एवं जीवननिर्वाह के लिए आवश्यक ऐसे आवश्यक ऐसे आहारादि के अभाव का उल्लेख हुआ है। इससे स्पष्ट हो रहा है कि मानव-जीवन में धनाभाव तथा सुख-सामग्री की अप्राप्ति का मूल कारण, पूर्व-संचित पाप का फल है। सूत्र के ये मूल शब्द-'दरिदोवद्दवाभिभूया' 'जीवणत्थरहिया' 'दुक्खलद्धाहारा' आदि स्पष्ट रूप से कर्मफल घोषित कर रहे हैं। साथ ही यह भी स्पष्ट हो रहा है कि जिन्हें धनादि की प्राप्ति होती है, वह सदाचरण से संचित शुभकर्मों का फल है। जो लोग इसमें अविश्वासी हो कर विपरीत प्ररूपणा करते हैं, उन्हें इस पर विचार करना चाहिये और मानना चाहिए कि 'पुद्गलविपाकिनी' प्रकृतियों का फल, केवल शरीर और उनके वर्णादि का शुभाशुभ होना ही नहीं, अपितु इष्ट वर्णगन्धादि पौद्गलिक सामग्री की प्राप्ति-अप्राप्ति एवं सम्पन्नता-विपन्नता भी है, अवश्य है। 'अत्थोपायण काम-सोक्खे य लोयसारे होति', टीका-"अर्थोपादानं-द्रव्योपार्जनं, कामसौख्यं इन्द्रियाजातं ते, द्वे लोकसारे-लोकप्रधाने भवंति अर्थकाम एवं लोके मान्य भवति।" अर्थात् धनोपार्जन और इन्द्रियजन्य काम-सुख-ये दो लोक में सार रूप माने गये हैं। कहा है कि - "यस्याऽस्तिस्य मित्राणि, यस्यास्तस्य बान्धवाः। यस्यार्थाः स पुमान् लोके, यस्यार्थाः स च पण्डितः॥१॥" For Personal & Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ - जिसके पास धन है, उसके मित्र भी हो जाते हैं, जिसके पास धन है, उसके बान्धव भी हैं, वह लोक में मान्य भी होता है और वह पंडित - बुद्धिमान् भी माना जाता है। यह सभी प्रभाव धन का है। पापकर्म के उदय से जीव धन तथा सुख-सामग्री से वंचित - दरिद्र होता है। एवमाहंसु णायकुल-णंदणो महप्पा जिमो उ वीरवर णामधेज्जो कहेसी य अदिण्णादाणस्स फलविवागं एयं तं तइयं पि अदिण्णादाणं हर - दह-मरण-भयकलुस - तासण- परसंतिक भेज्ज - लोहमूलं एवं जाव चिर-परिगय- मणुगयं दुरंतं । ॥ तइयं अहम्मंदारं सम्मत्तं ॥ त्ति बेमि ॥ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० ३ शब्दार्थ - एवमाहंसु - इस प्रकार णायकुलणंदणो ज्ञातृ-कुल- नन्दन, महप्पा - महान् आत्मा, जिणो उ - जिन भगवान् ने वीरवरणामधेज्जो - वीरवर - महावीर नाम वाले, कहेसी - कहा है, अदिण्णादाणस्स - अदत्तादान का, फलविवाग फल-विपाक, एयं तं - यह, तइयं तीसरा, हर- दहमरण-भय-कलुसतासण हरण, जलन, मरण, भय, क्लेश और त्रासन परसंतिकभेज्जलोहमूलं दूसरों की शांति नष्ट करने वाला तथा लोभ का मूल कारण है, एवं जाव- यावत्, चिर-परिगय- मणुगयं चिरकाल से परिगत तथा साथ लगा हुआ है, दुरंत फल का अन्त होना अत्यन्त कठिन है। - - - - - ***** - For Personal & Private Use Only - तइयं अहम्मदारं सम्मत्तं तीसरा अधर्मद्वार समाप्त हुआ, त्तिबेमि मैं कहता हूँ । भावार्थ - इस प्रकार अदत्तादान नामक पापकृत्य का फल-विपाक, ज्ञातृकुल के नन्दन और वीरवर-महावीर-नाम वाले जिनेश्वर महात्मा ने कहा है। यह अदत्तादानं नामक तीसरा पाप, धन-हरण, मृत्यु, भय, क्लेश और त्रास से भरपूर है, दूसरों की शांति को नष्ट करने वाला है तथा लोभ का मूल कारण है (अथवा लोभ ही चौर्यकर्म का मूल कारण है)। यह अदत्तादान नामक पाप चिरपरिगतअनादिकाल से परिचित तथा अनुगत - जीव के साथ लगा हुआ है। इसका अन्त होना अत्यन्त कठिन है। यह तीसरा अधर्मद्वार समाप्त हुआ। ऐसा मैं कहता हूँ । ॥ अदत्तादान नामक तीसरा अधर्मद्वार सम्पूर्ण ॥ भरपूर, इस प्रकार, इस पाप Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब्रह्मचर्य नामक चौथा आश्रव-द्वार जंबू! अबंभं य चउत्थं सदेवमणुयासुरस्स लोयस्स पत्थणिजं पंकपणय पासजालभूयं थी-पुरिस-णपुंस-वेयचिंधं तव-संजम-बंभचेरविग्धं भेयाययणवहुपमायमूलं कायर-कापुरिससेवियं सुयणजणवजणिजं उड्डणरय-तिरियतिल्लोकपइट्ठाणं जरा-माण-रोग-सोगबहुलं वध-बंध-विधाय-दुविधायं दंसणचरित्तमोहस्स हेउभूयं चिरपरिगय-मणुगयं दुरंतं चउत्थं अहम्मदारं॥१॥ शब्दार्थ - जंबू - हे जम्बू!, अबंभं - अब्रह्म, चउत्थं - चौथा, सदेवमणुयासुरस्सलोयस्स - देव, मनुष्य और असुरों सहित सभी लोगों का, पत्थणिजं - इच्छनीय-अभीष्ट है, पंकपणय - कीचड़ और काई-फूलन, पासजालभूयं - बन्धन और जाल के समान, थी-पुरिस-णपुंसयवेयचिंधं - स्त्री-पुरुष और नपुंसक वेद के चिह्न तप हैं, तवसंजमबंभचेरविग्धं - तप; संयम और ब्रह्मचर्य के लिए विघ्न कारक, भेयायणबहु - भेदायतन-चारित्र एवं जीवन का भेद-विनाश करने वाले ऐसे बहुत-से, पमायमूलं - प्रमाद का मूल है, कायरकापुरिससेवियं - कायर और अधम पुरुषों से सेवित, सुयणजणवज्जणीयं - पाप-विरत ऐसे सज्जन पुरुषों से त्याज्य, उड्डणरयतिरियतिल्लोकपइट्ठाणं - ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक् ऐसे तीनों लोक में प्रतिष्ठित-व्याप्त, जरामरणरोगसोगबहुलं - बुढ़ापा, मृत्यु, रोग और शोक की अधिकता वाला, वधबंधविधाय दुविधायं - वध बन्धन मारण जन्य दुःसह दुःखों से भरा हुआ, दंसणचरित्तमोहस्स हेउभूयं - दर्शन-मोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्म का हेतुभूत, चिरपरिगयमणुगयं - चिरकाल-अनादिकाल से जीव का परिचित एवं अनुगत-साथ लगा हुआ, दुरंतं - जिसका अन्त बड़ी कठिनाई से होता है, चउत्थं अहम्मदारं - यह चतुर्थ अधर्मद्वार है। ____भावार्थ - गणधर श्री सुधर्मा स्वामी महाराज कहते हैं कि हे जम्बू! यह अब्रह्म नामक चौथा अधर्मद्वार है। ब्रह्मचर्य-विनाशक यह अधर्म, मनुष्य देव और असुर-सभी लोगों के लिए प्रिय एवं अभीष्ट है-इसे सभी चाहते हैं। यह आत्मा को पाप-पङ्क से मलिन एवं कलंकित करता है। आत्मा को मोहपाश या कर्म-जाल में बांधने वाला है। यह स्वयं ही जाल एवं बन्धनभूत है। स्त्री, पुरुष और नपुंसक वेद का चिह्न भी यह अब्रह्म ही है। तप, संयम और ब्रह्मचर्य को विघ्न उत्पन्न करने वालाबाधक भी यही है। चारित्र तथा जीवन को नष्ट करने वाले ऐसे प्रचुर प्रमाद का मूल भी यह अब्रह्म है। कायर एवं कापुरुष-निम्न-कोटि के लोग ही (जो ब्रह्मचर्य की रक्षा नहीं कर सकते) इसका सेवन करते हैं। उन्हीं के द्वारा यह सेवित है। उत्तमजनों (व्रतधारी सज्जनों) से यह त्याज्य है। इस अब्रह्म की प्रतिष्ठा ऊर्ध्व, अधो और तिर्यग्-इन तीनों लोक में है। जरा, मरण, रोग और शोक की बहुलता इसके सेवन का परिणाम है और वध, बन्धन तथा मृत्युजन्य विविध प्रकार के असह्य दुःखों से भरपूर है। यह For Personal & Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० ४ **************************************************************** . पाप दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्म का मूल कारण है। आत्मा का यह चिर परिचित (अनन्त काल से परिचित) एवं चिर अनुगत-सदा से साथ लगा हुआ है। इसका अन्त आना अत्यन्त कठिन है। ऐसा भयानक यह अब्रह्म नामक चौथा अधर्मद्वार है। विवेचन - अब सूत्रकार 'अब्रह्म' नामक चतुर्थ अधर्मद्वार का वर्णन करते हैं। 'अब्रह्म' का अर्थ है-अकुशलकर्म-निन्दनीय कर्म-पापकर्म-मैथुन सेवन-पुरुष का स्त्री, स्त्री का पुरुष और नपुंसक का उभय से विषय सेवन। मैथुनकर्म, मनुष्य देव और असुरों का इच्छित विषय है। संज्ञी तिर्यंच भी इससे वंचित नहीं रहे। इसका प्रभाव तीनों लोक में व्याप्त है। अधोलोक के भवनपति से लेकर ऊर्ध्वलोक के दूसरे देवलोक के देव-देवी तक इसका प्रभाव फैला हुआ है। वैसे स्त्री-सम्बन्धी शब्द वर्णादि विषयों का चिन्तनादि से आंशिक सेवन तो ऊर्ध्वलोक में बारहवें देवलोक तक है। प्रज्ञापन ३४)। । अब्रह्म रूपी अधर्म का सेवन पशु-पक्षी आदि तिर्यंचों से लगा कर कई धर्माचार्य एवं धर्मसंस्थापक माने जाने वाले आराध्यों में भी पाया जाता है। इस पाप से बचे हैं तो केवल जिनेश्वर भगवंत और उनके आराधक उत्तम साधु-साध्वी। कहा भी है कि - "हरिहरहिरण्यगर्भप्रमुखे, भुवने न कोऽप्यसौ शूरः। कुसुमविशिखस्य विशिखान्, अस्खलयत् यो जिनादन्यः॥१॥" कायरी कापुरुष सेवित - ब्रह्मचर्य रूपी धर्मरत्न को सुरक्षित नहीं रख कर, अब्रह्म रूपी पाप की भेंट चढ़ाने वाले वास्तव में कायर हैं, कापुरुष हैं, फिर वे भले ही बल में विशिष्टता रखते हों और युद्धवीर हों। जो सज्जन हैं-विरत हैं, उनके द्वारा अब्रह्म त्याज्य हैं। वास्तव में वे ही वीर हैं। जरामरणरोगशोकबहुल - अब्रह्म के पाप का परिणाम शारीरिक और मानसिक स्वस्थता को गिराने एवं नष्ट करने वाला है। अनेक प्रकार के रोग एवं क्लेश इसी पाप में से उत्पन्न होते हैं। यह बल · को क्षीण कर बुढ़ापे के दुःख बढ़ाने वाला है। दर्शनमोहनीय और चारित्रमोह का हेतुभूत - अब्रह्म का पाप, चारित्रमोह के उदय से होता है और इससे चारित्र का नाश तो होता ही है, किन्तु अब्रह्म के तीव्र उदय से दर्शनमोह की तीव्रता हो जाती है और इससे दर्शन गुण भी नष्ट हो जाता है। अब्रह्म पाप से प्रेरित होकर स्त्री, पति एवं पुत्र को मार देती है। पुरुष, पत्नी, माता और पुत्रादि को मार देता है। जाति और धर्म का त्याग कर विधर्मी तथा अधर्मी हो जाता है। धर्म-द्रोही बन जाता है। इस प्रकार अब्रह्म का पाप दर्शनमोह को उत्तेजित कर मिथ्यात्व एवं महामोह बन्धन में हेतुभूत होता है। अब्रह्म के गुण-निष्पन्न नाम तस्स य णामाणि गोण्णाणि इमाणि होति तीसं, तंजहा- १. अबंभं २. मेहुणं For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अब्रह्म के गुण-निष्पन्न नाम १५१ **************************************************************** ३. चरंतं ४. संसंगिग ५. सेवणाहिगारो ६. संकप्पो ७. बाहणापयाणं ८. दप्पो ९. मोहो १०. मणसंखोभो ११. अणिग्गहो १२. वुग्गहो १३. विघाओ १४. विभंगो १५. विब्भभो १६. अहम्मो १७. असीलया १८. गामधम्मतित्ति १९. रई २०. रागचिंता २१. कामभोगमारो २२. वेरं २३. रहस्सं २४. गुज्झं २५. बहुमाणो २६. बंभचेरविग्यो २७. वावत्ती २८. विराहणा. २९. पसंगो ३०. कामगुणोत्ति वि य तस्स एयाणि एवमाइणि णामधेजाणि होति तीसं। शब्दार्थ - तस्स - उसके, णामाणि - नाम, गोण्णाणि - गुणनिष्पन्न, इमाणि - ये, होति - होते हैं, तीसं - तीस, तं जहा - वे इस प्रकार हैं, अबंभं - अकुशल अनुष्ठान-अप्रशंसनीय नहीं आचरण, मेहुणं- मैथुन-स्त्री और पुरुष दोनों के संयोग से होने वाला, चरंतं - विश्व व्यापक, संसग्गि - संसर्गीस्त्री और पुरुष के सम्पर्क से होने वाला, सेवणाहिगारो - सेवनाधिकार चोरी आदि अन्य पाप-कर्मों का प्रेरक, संकप्पो - संकल्प-मानसिक विचारों से उत्पन्न होने वाला-अब्रह्म की उत्पत्ति वैसे संकल्प विकल्प से ही होती है, बाहणापयाणं - बाधनापद-संयम स्थान या प्रजा के लिए बाधक, दप्पो - दर्प-देह का गर्व अथवा मदोन्मत्त-अपनी सफलता के दर्प से गर्वित, मोहो - मोह-मोहित करने वालावेदमोहनीय के उदय से उत्पन्न, मणसंखोभो - मनःसंक्षोभक-मानसिक शांति को नष्ट कर चंचलता बढ़ाने वाला, अणिग्गहो - अनिग्रहक-मन को खुला रख कर विषय में प्रवृत्ति कराने वाला, दुग्गहो - विग्रह, क्लेश एवं झगड़े का कारण, विधाओ - विघातक सद्गुणों को नष्ट करने वाला, विभंगो - . संयम का भंग करने वाला, विब्भमो - विभ्रम-अब्रह्म हेय है, उसे उपादेय समझने रूप भ्रान्ति उत्पन्न करने वाला, अहम्मो - अधर्म-श्रुत एवं चारित्र धर्म के प्रतिकूल होने के कारण अधर्म, असीलया - अशीलता-सदाचरण से रहित, गामधम्मतित्ति - ग्राम धर्म-जन-समूह द्वारा स्वीकृत-सेवित-शब्द रूपादि विषयों-कामगणों की इच्छा गवेषणा एवं सेवन रूप, रई - रति-मैथुन में प्रीति-रुचि, रागचिंता - मैथुन सम्बन्धी अनुकूलता एवं साधन प्राप्त करने की चिन्ता, कामभोगमारो - कामभोग मार-कामभोग रूपी मदन से मरण, वेर - वैर का कारण-वैरवर्द्धक, रहस्सं - रहस्य-छुपकर सेवन किया जाने वाला, गुझंगुप्त-गोपनीय, बहुमाणो - बहुजन द्वारा मान्य, बंभचेरविग्यो - ब्रह्मचर्य की विघातक, वावत्ती - व्यापत्ति:-सद्गुणों का नाशक, विराहणा - विराधना-चारित्र का भंजक, पसंगो - प्रसंग-स्त्री-पुरुष संगमभोगासक्ति, कामगुणोति - कामगुण-मदनोत्पादक-शब्दादि कामगुण में लुब्ध करने वाला, तस्स - उसके, एयाणि-ये, एवमाइणि - इस प्रकार के, णामधेज्जाणि - नाम, होति - होते हैं, तीसं - तीस। भावार्थ - इस अब्रह्म नामक पाप के गुणनिष्पन्न तीस नाम होते हैं। यथा - १. अब्रह्म २. मैथुन ३. चरंत (विश्व-व्यापक) ४. संसर्गी ५. सेवनाधिकार ६. संकल्प ७. बाधनापद ८. दर्प ९. मोह १०. मन:संक्षोभ ११. अनिग्रहक १२. विग्रहक १३. विघातक १४. विभंगक १५. विभ्रम १६. अधर्म For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *********** १५२ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ०४ *-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*********************** १७. अशील १८. ग्रामधर्म १०. रति २०. रागचिन्ता २१. कामभोगमार २२. वेर २३. रहस्य २४. गुप्त २५. बहुमान्य २६. ब्रह्मचर्य-विघातक २७. व्यापत्ति २८. विराधना २९. प्रसंग और ३०. कामगुण । इस प्रकार अब्रह्म के ये तीस नाम हैं। अब्रह्म सेवी देवादि तं च पुण णिसेवंति सुरगणा सअच्छरा मोहमोहियमई असुर-भुयग-गरुल-विजु जलण-दीव-उदहि-दिसि-पवण-थणिया, अणवण्णिय-पणवण्णिय-इसिवाइयभूपवाइप-कंदिय-महाकंदिय-कूहंड-पयंगदेवा, पिसाय-भूय-जक्ख-रक्खसकिण्णर-किंपुरिस-महोरग-गंधव्वा, तिरिय-जोइस-विमाणवासि-मणुयगणा, जलयरथलयर-खहयरा, मोहपडिबद्धचित्ता अवितण्हा कामभोगतिसिया, तण्हाए बलवईए . महइए समभिभूपा गढिया य अइमुच्छिया य अबंभे उस्सण्णा तामसेण भावेण अणुम्मुक्का दंसण-चरित्तमोहस्स पंजरं विव करेंति अण्णोण्णं सेवमाणा। . शब्दार्थ - तं च - उसके, पुण:- पुनः णिसेवंति - सेवन करते हैं, सुरगणा - देवगण, सअच्छरा- .. अप्सराओं के साथ, मोहमोहियमई - जिनकी मति मोह से मोहित है, असुर - असुरकुमार, भुयग - नागकुमार, गरुल - गरुड़-गरुड़ की ध्वजा वाले-सुवर्णकुमार, विजु - विद्युतकुमार, जलण - अग्निकुमार, दीव - द्वीपकुमार, उदहि - उदधिकुमार, दिसि - दिशाकुमार, पवण - पवनकुमार, थणिया- ' स्तनितकुमार, अणवण्णिय - आणपत्रिक, पणवणिय - पाणपन्निक, इसिवाइय - ऋषिवादिक, भूयवाइय - भूतवादिक, कंदिय - कंदित, महाकंदिय - महाकंदित, कूहंड - कूष्मांड, पयंग - पतंग, देव - देव हैं, पिसाय - पिशाच, भूय - भूत, जक्ख - यक्ष, रक्खस - राक्षस, किण्णर - किन्नर, किंपुरिस - किम्पुरुष, महोरग - महोरग, गंधव्वा - गन्धर्व, तिरिय - तिरछे, जोइस - ज्योतिषी, बिमाणवासी - विमानवासी, मणुयगणा - मनुष्य गण, जलयर - जलचर, थलयर - स्थलचर, खहयरा - खेचर-नभचर, मोहपडिबद्धचित्ता - जिनका चित्त मोह से जकड़ा हुआ है, अवितण्हा- अत्यन्त तृष्णा वाले, कामभोगतिसिया - कामभोग के प्यासे, तण्हाए - तृष्णा से, बलवईएबलवती, महइए - महति-अत्यन्त, समभिभूया - पीड़ित पराजित, आक्रांत, गढिया - ग्रथित-गृद्ध, अइमुच्छिया - अत्यन्त मूच्छित, अबंभे - अब्रह्मचर्य, उस्सण्णा - अत्यन्त आसक्त, तामसेण भावेणतामस भाव से, अणुम्मुक्का - मुक्त नहीं हैं, दंसणचरित्तमोहस्स - दर्शन और चारित्रमोहनीय का, पंजरं-पिंजरा, विव- समान, करेंति-करते हैं, अण्णोण्णं-अन्योन्य-परस्पर, सेवमाणा-सेवन करते हुए। भावार्थ - मैथुन का सेवन वे देवगण करते हैं जो मोहाभिभूत हैं। वे अप्सराओं के साथ क्रीड़ा करते हैं। भवनपति जाति के - १. असुरकुमार २. नागकुमार ३. सुवर्णकुमार ४. विद्युतकुमार For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अब्रह्म सेवी देवादि १५३ ५..अग्निकुमार ६. द्वीपकुमार ७. उदधिकुमार ८. दिशाकुमार ९. पवनकुमार १०. स्तनितकुमार। व्यंतर जाति के - १. आणपनिक २. पाणपनिक ३. ऋषिवादिक ४. भूतवादिक ५. कन्दित ६. महाकन्दित ७. कुष्माण्ड और ८. पतंग तथा - १. पिशाच २. भूत ३. यक्ष ४. राक्षस ५. किन्नर ६. किंपुरुष ७. महोरग और ८. गन्धर्व, ये भी व्यन्तर जाति के हैं। तिरछे लोक में ज्योतिषी देव तथा ऊपर के विमानवासी देव ये सभी अब्रह्मसेवी हैं। मनुष्य तथा जलचर, स्थलचर और नभचर तिर्यंच, ये सभी जीव मोह-परिपूर्ण चित्त से, काम-भोगों में अत्यन्त आसक्त हो कर, असीम इच्छा एवं तृष्णा युक्त होते हैं। ये जीव तामस-भाव से अत्यन्त मूछित होकर मैथुन सेवन करते हैं और अपने दर्शन और चारित्र गुण को दमन करने के लिए पिंजरा (आवरण) तैयार करते हैं। मैथुन सेवन से उनके दर्शन तथा चारित्र गुण, मोह के महाबन्धन में परिबद्ध हो जाते हैं। विवेचन - इस सूत्र में अब्रह्मचर्य रूपी अधर्म का सेवन करने वाले देवादि का उल्लेख किया गया है। पहले भवनपति देवों की असुरकुमारादि दस जातियों का निर्देश किया है। पन्द्रह प्रकार के परमाधामी देव भी इन्हीं में सम्मिलित हैं। व्यन्तरों में आणपन्नी आदि आठ तथा पिशाचादि आठ का नाम निर्देश किया गया। दस प्रकार के जृम्भक देव भी व्यन्तर ही हैं। ज्योतिषी देव चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा ये पांच भेद हैं। इसके चर और स्थिर भेद से दस प्रकार हुए। वैमानिकों में पहले और दूसरे देवलोक तक ही देवियाँ है। मैथुन सेवन यहीं तक है। इसके आगे न तो देवांगना है और न मैथुन सेवन ही होता है। तीसरे देवलोक से लगा कर ऊपर अनुत्तर विमान तक केवल देव ही हैं। उनका वेदोदय क्रमश: मन्द होता है। तीसरे-चौथे देवलोक के देव, पहले व दूसरे देवलोक की अपरिगृहीता देवियों से चुम्बन-मर्दनादि स्पर्श-परिचारणा करते हैं, पांचवें और छठे देवलोक के देव रूप-परिचारणा, सातवेंआठवें में शब्द परिचारणा और नौवें से बारहवें देवलोक के देव केवल मन-परिचारणा करते हैं। इसके आगे किसी भी प्रकार की परिचारणा (काम-सेवन) नहीं है। कामभोग में अत्यन्त आसक्त जीवों की लुब्धता का वर्णन सूत्रकार ने "मोहपडिबद्धचित्ता" आदि बड़े मार्मिक शब्दों से किया है। टीकाकार लिखते हैं कि भोगासक्त भाषा-जीवी विद्वानों ने तो विधान तक कर दिया कि - . "न मांसभक्षणे दोषो, न मधे न च मैथुने। सेविताः शान्तिमायान्ति, असेव्या गद्धिवद्धिनः॥" . अर्थात् - न तो मांसभक्षण में कोई दोष है और न मद्यपान तथा मैथुन सेवन ही बुरा है। मांसभक्षण, मदिरापान और मैथुन सेवन से शांति प्राप्त होती है। किन्तु इनके सेवन नहीं करने से गृद्धता-आसक्ति बढ़ती है। - .इस श्लोक का उत्राद्ध इस प्रकार भी है - "प्रवृत्तिरेसभूतानां, निवृत्तिं च महाफलाः" अर्थात्-यह तो जीवों की प्रवृत्ति ही है। किन्तु इनसे निवृत्त हो जाना महान फलदायक है।" For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ***************** मिथ्यादृष्टि कुतर्कियों के इस प्रकार के कुतर्क का उल्लेख सूत्रकृतांगं अ. ३ उ. ४ गाथा १० से १२ तक में हुआ है । भोगासक्त कुतीर्थियों ने ऋतुदान को धार्मिक विधान बना दिया और आराध्य देव के स्त्री-सहवास को भी सिरोधार्य कर लिया। जैनदर्शन स्त्री- सहवास का सर्वथा निषेध करता है। इससे अधर्म एवं पाप मानता है। प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० ४ *********************************** चक्रवर्ती के विशिष्ट भोग भुजो य असुर- सुर- तिरिय-मणुयभोगरइविहारसंपउत्ता य चक्कवट्टी सुरणरवइ सक्कया सुरवरुव्व देवलोए । शब्दार्थ - भुज्जोय पुनः असुरसुरतिरियमणुय असुर देव, तिर्यंच और मनुष्य सम्बन्धी, भोगरइविहारसंपत्ता - भोग-विलास में आसक्त हो कर क्रीड़ा करने वाले, चक्कवट्टी - चक्रवर्ती का, सरणरवइसक्कया - देव और नरेश भी सत्कार करते हैं, सुरवरुव्व - देवेन्द्र के समान, देवलोक देवलोक में । - भावार्थ - चक्रवर्ती महाराजा, जिनका देवलोक के देवाधिपति इन्द्र के समान, हजारों देव और नरेश सत्कार करते । वे चक्रवर्ती नरेन्द्र असुर, देव, तिर्यंच और मनुष्य सम्बन्धी भोग-विलास में अत्यन्त आसक्त हो कर विविध प्रकार की क्रीड़ा करते हैं। चक्रवर्ती - छह खंड के विजेता, भोक्ता एवं शासक। हजारों देवों और राजाओं द्वारा सेवित । मनुष्य सम्बन्धी भौतिक ऋद्धि-सम्पत्ति, शक्ति, बल, प्रभाव और सर्वोच्च अधिकारों से परिपूर्ण नरेन्द्र । चक्रवर्ती का राज्य विस्तार' - भरह-णग-नगर-निगम जणवय- पुरवर- दोणमुह-खेड़- कब्बड - मडंब-संवाहपट्टणसहस्स-मंडिगं थिमियमेयणियं एगच्छत्तं ससागरं भुंजिऊण-वसुहं । शब्दार्थ - भरहणग - भरत क्षेत्र के सहस्रों पर्वत, नगर-निगम जणवय नगर निगम, जनपद, पुरवर दोणमुह - पुरवर - राजधानी द्रोणमुख - जहाँ जलप और स्थल मार्ग से आयात-निर्यात हो, खेड कब्बड - खेट-मिट्टी के परकोटे वाले, कर्बट - थोड़ी बस्ती वाले गांव, मडंब जिसके निकट कोई दूसरा गांव नहीं हो, संवाह - धान्यादि रक्षक दुर्ग, पट्टण जहाँ सभी प्रकार की वस्तुएं मिल सकें, सहस्समंडियं - हजारों से मण्डित, थिमियमेयणियं निर्भीक प्रजाजनों से सम्पन्न, एगच्छत्तं - एकछत्र - एक ही अपने ही रक्षण में, ससागरं समुद्र सहित, भुंजिउण वसुहं वसुधा-पृथ्वी का भोग करते हैं । भावार्थ- चक्रवर्ती नरेन्द्र का भरत क्षेत्र के सहस्रों पर्वतों, सहस्रों नगरों, निगमों, देशों, राजधानियों, द्रोणमुखों, खेड़ों, कर्बटों, मडम्बों, संबाहों और पत्तनों से मण्डित, छह खण्ड में बसे हुए निर्भीक प्रजाजनों से युक्त, समुद्र पर्यंत एक छत्र राज्य होता है। वे उस समुद्रपर्यन्त पृथ्वी का उपभोग करते हैं । - For Personal & Private Use Only - Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ************************* चक्रवर्ती नरेन्द्र के विशेषण *************** थिमियमेयणिज्जं - किसी भी प्रकार के भय से रहित होकर प्रजाजन जहाँ सुखपूर्वक रहते हैं। जिनके प्रभाव एवं सुशासन से प्रजा निर्भय रहती है।.. चक्रवर्ती नरेन्द्र के विशेषण णरसीहा णरवई गरिंदा णरवसहा मरुयवसहकप्पा अब्भहियं रायतेयलच्छीए दिप्पमाणा सोमा रायवंसतिलगा । शब्दार्थ - णरसीहा - नरसिंह- मनुष्यों में सिंह के समान, णरवई - नरपति- मनुष्यों के स्वामी, णरिंदा - नरेन्द्र, णरवसहा नरवृषभ, मरुयवसहकप्पा मरुधर वृषभ - कल्प, अब्भहियं अत्यधिक, रायतेयलच्छिए - राज्यलक्ष्मी के प्रकाश से, दिप्पमाणा - देदीप्यमान, सोमा - सौम्य, रायवंसतिलगा राज्यवंश के तिलकं । . - भावार्थ - चक्रवर्ती नरेश मनुष्यों में सिंह के समान शौर्यसम्पन्न हैं, मनुष्यों के स्वामी हैं, मनुष्यों में इन्द्र के समान अधिपति हैं। शकट - धुरा को धारण करके पार पहुँचाने वाले वृषभ (बैल) के समान राज्यधुरा को धारण कर कुशलतापूर्वक संचालन करने वाले नरवृषभ हैं। मरुधर वृषभ-कल्प - मारवाड़ के धोरी वृषभ, अपनी विशालता, शक्ति सम्पन्नता एवं श्रेष्ठता में सर्वोपरि होते हैं और अत्यधिक भार को वहन कर सकते हैं, उसी प्रकार चक्रवर्ती सम्राट सम्पूर्ण छह खण्ड के राज्यभार को आदर्श रूप से वहन कर संचालन करने वाले हैं। वे राज्य रूपी लक्ष्मी राज्यश्री के तेज से देदीप्यमान हैं, सौम्य हैं और राजवंश में तिलक के समान सिरोभूषणरूप हैं। विवेचन - उपरोक्त शब्दों में चक्रवर्ती महाराजाधिराज के गुणसम्पन्न विशेषण बतलाये गये हैं । चक्रवर्ती सम्राट, केवल वंश परम्परा के प्राप्त राज्याधिकार से ही नहीं बन जाते, न केवल सैन्यबल या जनमत से चुन कर आये हुए राष्ट्रपति होते हैं। वे अपनी विशिष्ट प्रकार की शक्ति, सामर्थ्य एवं सम्पूर्ण योग्यता से चक्रवर्ती होते हैं। उनकी उत्पत्ति भी उत्तम राजवंश में ही होती है । 'जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति': सूत्र में भरत चक्रवर्ती के अधिकार में ये विशेषण भी हैं - " समरे अपराजिए परमविक्कमगुणे अमरवइसमाणसरीररुवे अवई ।" युद्ध में शत्रु से पराजित नहीं होने वाले अपराजित - विजयी । परम विक्रम - पराक्रम गुणयुक्त, देवेन्द्र के समान शारीरिक रूप सम्पन्न मनुष्याधिपति । औपपातिक सूत्र में कूणिक राजा के वर्णन में ये विशेषण भी हैं "दयपत्ते, सीमंकरे, सीमंधरे, खेमंकरे, खेमंधरे, मणुसिदे, जणवयपिया, १५५ **** - For Personal & Private Use Only - Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ०४ जणवयपाले, जणवयपुरोहिए, सेउकरे, केउकरे, णरपवरे, पुरिसवरे, पुरिससिहे, पुटिसवग्धे, पुरिसासीविसे, पुरिसपुंडरीए, पुरिसवरगंधहत्थी।" शब्दार्थ - दयाप्राप्त - जिसके हृदय में दया-अनुकम्पा का वास है, सीमंकर - मर्यादा स्थापित करने वाला, सीमन्धर - मर्यादा पालक, , खेमंकर - शांति-कारक, खेमन्धर - शांति को स्थिर करने वाला, मनुष्यों का इन्द्र - मानवेन्द्र जनपद-पिता, जनपद-पालक, जनपद-पुरोहित, सेतुकर-अद्भुत कार्य करने वाला, विपत्तियों का पाल या बांध के समान अवरोधक अथवा कठिनाइयों के महानद पर से . सरलता से पार लगाने वाले पुल के समान), केतुकर - अतिश्रेष्ठ नर रूपी निधि का स्वामी मनुष्यों में ध्वजा के समान, नरप्रवर - पुरुषों में प्रधान-पुरुषोत्तम, पुरुष सिंह, पुरुष-व्याघ्र, पुरुष-आशीविष कोप को सफल करने वाले आशीविष सर्प के समान, पुरुष-पौंडरीक - पुरुषों में श्रेष्ठ श्वेत कमल के समान पुरुषवर गंध-हस्ती पुरुषों में श्रेष्ठ गन्धहस्ती के समान उत्तम-वैरियों को नष्ट करने वाला। इन विशेषणों में 'नरवृषभ' विशेषण देने के बाद सूत्रकार ने 'मरुयवसहकप्पा' विशेषण लगाकर अन्य प्रान्तों के वृषभों से भी मरुधरा के वृषभ की विशेषता व्यक्त की है। इससे-'मारवाड़ के धोरी' की श्रेष्ठ मनुष्यों की दी जाती हुई उपमा कितनी प्राचीन है-यह स्पष्ट हो रहा है। - उत्तम राजाओं के विशेषण बतला रहे हैं कि - ऐसे श्रेष्ठ नर जिस राज्यधुरा के धारक हों, वह राज्य और वहाँ की प्रजा सुखी रहती है। - चक्रवर्ती के शुभ लक्षण ___रवि-ससि-संख-वरचक्क-सोत्थिय-पडाग-जव-मच्छ-कुम्म-रहवर-भग-भवणविमाण-तुरय-तोरण-गोपुर-मणिरयण-णंदियावत्त-मुसल-जंगल-सुरइयवरकप्परुक्क-मिगवइ-भद्दासण-सुरूविथूभ-वरमउड-सरिय-कुंडल-कुंजर-वरवसहदीव-मंदर-गरुलझय-इंदकेउ-दप्पण-अट्ठावय-चाव बाण-णक्खत्त-मेह-मेहलवीणा-जुग-छत्त-दाम-दामिणि-कमंडलु-कमल-घंटा-वरपोय-सुई-सागर-कुमुदागरमगर-हार-गागर-णेउर-णग-णगर-वइर-किण्णर-मयूर-वररायहंस-सारस-चकोरचक्कवाग-मिहुण-चामर-खेडग-पव्वीसग-विपंचि-वरतालियंट-सिरियाभिसेयमेइणि-खग्गं-कुस-विमल-कलस-भिंगार-वद्धमाणग-पसत्थउत्तमविभत्तवरपुरिसलक्खणधरा। शब्दार्थ - रवि - सूर्य, ससि - चन्द्रमा, संख - शंख, वरचक्क - प्रधान चक्र, सोत्थिय - स्वस्तिक, पडाग - पताका, जव - यव-जौ, मच्छ - मत्स्य, कुम्म - कुर्म-कछुआ, रहवर - श्रेष्ठ रथ, भग - योनि, भवण - भवन, विमाण - देव-विमान, तुरय - घोड़ा, तोरण - तोरण, गोपुर - नगर का For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - द्वीप या दीपक, दर्पण, अट्ठावय कमल, घंटा घंटा, वरपोय श्रेष्ठ जलयान, द्वार, मणिरयण - मणि रत्न, णंदियावत्त- नन्दिकावर्त्त नौ कोने वाला स्वस्तिक, मुसल मूसल, जंगल - हल, सुरइवरकप्परुक्खे - उत्तम प्रकार से श्रेष्ठता पूर्वक निर्मित-सुखदायक कल्पवृक्ष, मिगवइ - मृगपति - सिंह, भद्दासण- भद्रासन, सुरुविथूभ - सुन्दराकार स्तम्भ, वरमउड श्रेष्ठ मुकुट, सरिय - मुक्ताहार, कुंडल कुण्डल, कुंजर हाथी, वरवसह उत्तम बैल, दीव मंदर - मेरु पर्वत, गरुल - गरुड़, ज्झय ध्वजा, इंदकेउ - इन्द्रध्वजा, दप्पण - अष्टापद, चाव- चाप-धनुष, बाण- बाण, णक्खत्त नक्षत्र, मेह- मेघ, मेहल वीणा - वीणा - वादिन्त्र विशेष, जुग जुआ, छत्त छत्र, दाम माला, दामिणि पर लटकती हुई माला, कमंडलु - कमण्डल, कमल सूई सुई, सागर समुद्र, कुमुदागर उर- नूपुर, णग पर्वत, णगर किन्नर, मयूर - मयूर, वरायहंस - श्रेष्ठ राजहंस, सारस - सारस, चकोर चकोर, चक्कवागमिहुण- चक्रवाक मिथुन-जोड़ा, चामर - चामर, खेडग - पटिया, पव्वीसग प्रविशक-एक प्रकार का वादिन्त्र, विपंचि - वादिन्त्र विशेष, वरतालियंट - ताड़ का उत्तम पंखा, सिरियाभिसेय श्रीकाभिषेक - अभिषेक युक्त लक्ष्मी, मेइणि - मेदिनी - पृथ्वी, खग्गंकुस खड्ग, अंकुश, विमलकलस निर्मल कलश, भिंगार - झारी, वद्धमाणगवर्द्धमानक- शराव, पसत्थउत्तम प्रशस्त और उत्तम मांगलिक, विभत्तरव प्रधान- श्रेष्ठ, पुरिस· लक्खणधरा- पुरुषों के लक्षण के धारक । कुमुदवन, मगर मगर, हार हार, गागर स्त्रियों का आभूषण, नगर, वइर वज्र, किण्णर भावार्थ- वे चक्रवर्ती नरेन्द्र अपने शरीर पर - सूर्य, चन्द्र, शंख, श्रेष्ठ चक्र, स्वस्तिक, पताका, यव, मत्स्य, कुर्म, श्रेष्ठ रथ, योनि, भवन, विमान, अश्व, तोरण, द्वार, मणि, रत्न, नन्धावर्त, मूसल, हल, श्रेष्ठ, कल्पवृक्ष, सिंह, भद्रासन, सुन्दर स्तंभ, उत्तम मुकुट, मुक्तालड़ी, कुण्डल, हाथी, श्रेष्ठ वृषभ, द्वीप, मेरुपर्वत, गरुड़, ध्वज, इन्द्रध्वज, दर्पण, अष्टापद, धनुषबाण, नक्षत्र, मेघ, मेखला, वीणा, जुआ, छत्र, माला, दामिनी (बड़ी माला) कमण्डलु, कमल, घण्टा, श्रेष्ठ जलपोत, सूई, सागर, कुमुदवन, मगर, हार सागर, (एक आभूषण) नूपुर, पर्वत, नगर, वज्र, किन्नर, मयूर, श्रेष्ठ राजहंस, सारस, चकोर, चक्रवाकयुगल, चामर, पटिया, प्रविशक, विपंचि, तालवृक्ष का उत्तम पंखा, अभिषेक युक्त लक्ष्मी, पृथ्वी, खड्ग, अंकुश, निर्मल कलश, झारी, वर्द्धमानक-इन प्रशस्त मांगलिक और उत्तम पुरुष - लक्षणों को धारण करने वाले हैं। - - - - - चक्रवर्ती की ऋद्धि - - - - - - - For Personal & Private Use Only - *-**-*-**-*-**-*-******** - - १५७ - - - - मेखला - कटिसूत्र, दामिनी - पूरे शरीर विवेचन - पुरुषों के हाथ-पांव आदि में जो उत्तम लक्षणों को बताने वाली विभिन्न आकृतियों की रेखाएं होती हैं, उनका उल्लेख इस सूत्र में हुआ है। चक्रवर्ती में ये सभी उत्तम लक्षण होते हैं। चक्रवर्ती की ऋद्धि बत्तीसं वररायसहस्साणुजायमग्गा चउंसट्ठिसहस्सपवरजुवतीण-णयणकंता रत्ताभा Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०४ ******************************** ***************************** पउमपम्ह कोरंटगदामचंपकसुययवरकणकणिहसवण्णा सुवण्णा * सुजायसव्वंगसुंदरंगा महग्घवरपट्टणुग्गयविचित्तरा-गएणिमोणिणिम्मिय-दुगुल्लवरचीणपट्टकोसेज-सोणिसुत्तगविभूसियंगा वरसुरभि-गंधवरचुण्णवासवर-कुसुमभरियसिरया कप्पिय-छे यायरियसुक-यरइतमालकडगंगयतुडियपवर भूसण-पिणद्धदेहा एकावलिकंठ-सुरइयवच्छा पालंब-पलंबमाणसुकयपडउत्तरिजमुद्दिया-पिंगलंगुलिया उज्जल-णेवत्थ-रइयचेल्लगविरायमाणा तेएण दिवाकरोव्व दित्ता सारयणवत्थणियमहुरगंभीरणिद्धघोसा उप्पण्ण समत्त-रय-चक्करयणप्पहाणा णवणिहिवइणो समिद्धकोसा चाउरंता चाउराहिं सेणाहिं समणुजाइजमाणमग्गा तुरयवई गयवई रहवई णरवई विपुलकुलवीसुयजसा सारयससिसकल-सोमवयणा सूरा तिलोक्कणिग्गयपभावलद्धसद्दा समत्तभरहाहिवा णारिंदा ससेल-वण-काणणं य हिमवंतसागरंतं धीरा भुत्तूण भरहवासं जियसत्तू पवररायसीहा पुवकडतवप्पभावा णिविट्ठसंचियसुहा, अणेगवाससयमायुवंतो भजाहि य जणवयप्पहाणाहिं लालियंता अतुल-सद्द-फरिस-रसरूव गंधे य अणुभवेत्ता ते वि उवणमंति मरणधम्म अवितत्ता कामाणं। . . __ शब्दार्थ - बत्तीसं वरराय-सहस्साणुजायमग्गा - बत्तीस हजार श्रेष्ठ राजा जिनका अनुगमन करते हैं, चउसद्विसहस्स - चौसठ हजार, पवरजुक्तीणणयणकंता - उत्तम युवतियों के नयनों के प्रियतम, रत्ताभा - शरीर से निकलती हुई लाल आभा वाले, पउमपम्हकोरंट-गदामचंपक - जिनके शरीर का वर्ण कमलगर्भ, कोरंटक पुष्पमाला, चम्पक पुष्प, सुययवर-कणकणिहसवण्णा - तपाये हुए सोने की रेखा-कसौटी पर घिसी हुई रेखा के समान है, सुवण्णा - उत्तम वर्ण वाले, सुजायसव्वंगसुंदरंगा - जिनके सभी अंग सुडौल तथा सुन्दर हैं, महग्य - बहुमूल्य, वरपट्टणुग्गयविचित्तरागएणिमेणिणिम्मियप्रधान नगरों में बने हुए तथा विविध रंगों में रंगे हुए और मृगीविशेष के रोम से निर्मित, दुगुल्लवर - उत्तम दुकुल, चीणपट्ट - चीन का बना हुआ, रेशमी वस्त्र, कोसेज - कोस से निकले हुए तारों से बना हुआ-रेशमी, सोणीसुत्तग - श्रोणिसूत्रक-कटिसूत्र-करधनी से, विभूसियंगा - जिनका अंग-कमर सुशोभित है, वरसुरभिगंधवरचुण्णवासवरकुसुभरियसरिया - उत्तम सुगन्धित द्रव्यों, श्रेष्ठ चूर्णों और उत्तम सुगन्ध वाले पुष्पों से जिनका मस्तक शोभायमान है, कप्पिय-छेयायरिय-सुकयरइत - आर्यजनों के धारण करने योग्य तथा कुशल कलाकारों द्वारा बनाये हुए सुखकारी, मालकडगंगयतुडियपवरभूसणपिणद्धदेहा - माला, कटक, कुण्डल, अंगद और तुटिका आदि उत्तम आभूषणों से जिनका शरीर सुशोभित है एकावलिकंठसुरइयवच्छा - गले में एकावली हार पहिनने से जिनका वक्ष * 'सुवण्णा' शब्द ज्ञानविमलसूरि वाली प्रति में ही है। For Personal & Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती की ऋद्धि १५९ **************************************************************** शोभित है, पालंबपलंबमाणसुकयपडउत्तरिज - लम्बा झूलता हुआ श्रेष्ठ कलायुक्त उत्तम उत्तरीय वस्त्र-ऊपर का-उत्तरासन य चादर लटक रही है, मुहियापिंगलंगुलिया - अंगुठियों से अंगुलियाँ पीली दिखाई दे रही है, उजलणेवत्थरइयचेल्लगविरायमाणा - जो उज्वल एव सुखद वेशभूषा से अत्यन्त शोभायमान हैं, तेएण - तेज से, दिवाकरोव्व - सूर्य के समान, दित्ता - दिप्त, सायरणवत्थणियसहुरगंभीरणिद्धघोसा- जिनका स्वर, शरदकाल में उत्पन्न नवीन मेघ के समान गम्भीर तथा मधुर है, सुनने में सुखदायक है, उप्पण्ण - उत्पन्न प्राप्त है, समत्तरयण - समस्त रत्न, चक्करयणप्पहाणा - प्रधान चक्ररत्न भी जिनके पास है, णवणिहिवइणो - जो नौ निधि के स्वामी हैं, समिद्धकोसा - जिनका भण्डार समृद्ध है, चाउरंता - जो चातुरंत-चारों दिशाओं में-तीन और समुद्र और एक ओर हिमवान् पर्वत तक के स्वामी हैं, चाउरासिहि सेणाहिं - जो चारों प्रकार की-हाथी, घोड़ा रथ और पदाति सेना, समणुजाइज्जमाण-मग्गा - जिनके मार्ग का अनुगमन करती हुई पीछे चलती है वे, तुरयवई - अश्वपति, गयवई - गजपति, रहवई - रथपति, णरवई - नरपति, विपुलकुलवीसुयजसा - जिनके महान् कुल का यश सर्वत्र प्रसिद्ध है, सारयससिसकलसोमवयणा - शरद् काल के पूर्ण चन्द्रमा के समान सौम्य बदन है जिनका, सुरा- शूरवीर है, तिलोक्कणिग्गयपभावलद्धसदा - तीनों लोक में जिनका प्रभाव है, प्रसिद्धि है, समत्तभरहाहिवा - समस्त भरतक्षेत्र के अधिपति, णरिदा- नरेन्द्र, ससेल पर्वत सहित, वणकाणणं - वनों और उद्यानों, हिमवंत-सागरंतं - चूल हिमवंत पर्वत से समुद्रपर्यन्त, . धीरा : धैर्यवंत, भुत्तूणभरहवांस - भारतवर्ष का भोग करते हैं, जियसत्तू - सभी शत्रुओं कों जिन्होंने जीत लिये हैं, पवररायसीहा - राजाओं में श्रेष्ठ एवं सिंह के समान, पुवकडतवणभावा - पूर्वभव में किये हुए तप के प्रभाव से युक्त हैं, णिविट्ठसंचियसुहा - पूर्व संचित महान् सुखों के भोक्ता, अणेगवाससयमायसंतो- अनेक सैकड़ों वर्षों की आयु वाले, भजाहि-भार्याओं-रानियों के साथ, जणवयपहाणाहि- उत्तम देशों में, लालियंता - विलास करते हुए, अतुलसहफरिसरसरूवगंध - अनुपम शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध का, अणुभवेत्ता - अनुभव करते हुए उवणमति - प्राप्त होते हैं, मरणधम्म - मृत्यु को, अवितत्ता - अतृप्त ही, कामाणं - कामभोगों से। - भावार्थ - चक्रवर्ती महाराजाधिराज का बड़े-बड़े बत्तीस हजार राजा अनुगमन करते हुए, उनके निर्दिष मार्ग पर चलते हैं। वे चौसठ हजार यौवन-सम्पन्न उत्तम रानियों के नयनों के प्रिय होते हैं। उनके शरीर की प्रभा लाल वर्ण की है। उनके शरीर का वर्ण कमल के गर्भ, कोरंटक फूलों की माला, चम्पक-पुष्प तथा तप्त-स्वर्ण की रेखा के समान है। उनके सभी अंग सुडौल और सुन्दर हैं। उनके परिधान के लिए बड़े-बड़े नगरों में, निपुण कलाकरों द्वारा बनाये हुए और विविध प्रकार के रंगों से रंगे हुए वस्त्र होते हैं, जो मृगों के कोमल रोम से बने हुए, वृक्ष की छाल से निर्मित, चीन में बने हुए रेशमी तथा कौशेय रेशम से बने हुए बहुमूल्य होते हैं, जिनसे वे सुशोभित होते हैं। जिनकी कमर, करधनी से सुशोभित होती है। उनके मस्तक पर सुगन्धित चूर्ण और उत्तम गन्ध वाली पुष्पमाला सुशोभित हो रही For Personal & Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०४ ****************************** *********************** है। श्रेष्ठ कलाकारों द्वारा उत्तम रीति से बनाई हुई मनोहर माला, कटक (कड़ा या पहुंची) कुण्डल, अंगद (भुजबन्ध) तुटिका (बाहु-रक्षिका) आदि श्रेष्ठ आभूषणों से उनका शरीर शोभायमान है। एकावली हार से उनका वक्षस्थल विभूषित है। जिनके शरीर पर उत्तरीय-वस्त्र झूलता हुआ लटक रहा है और अंगुलियाँ अंगुठियों की पीली आभा से दमक रही हैं। उज्ज्वल वेश से जो मनोहर दिखाई देते . हैं। वे अपने तेज से सूर्य के समान तेजस्वी लगते हैं। उनका कण्ठस्वर शरदकाल में उत्पन्न नवीन मेघ की गर्जना के समान मधुर एवं गम्भीर है। सभी प्रकार के रत्नों की प्राप्ति से वे समृद्ध हैं और सर्वोत्तम चक्ररत्न भी उनके आधीन है। वे नौ निधियों के अधिपति हैं। उनका धन-भण्डार भरपूर है। वे तीन ओर समुद्र और एक ओर हिमवंत पर्वत-पर्यन्त समस्त पृथ्वी के स्वामी हैं। हाथी, घोड़े, रथ और पदाति - यों चार प्रकार की सेना उनका अनुगमन करती है। अतएव वे अश्वाधिपति, गजपति, रथपति एवं नरपति हैं। उनके उत्तम कुल की कीर्ति संसार में व्याप्त हो रही है। उनका मुख शरदकाल के पूर्ण चन्द्रमा के समान सौम्य है। वे बड़े ही शूरवीर हैं। उनका प्रभाव तीनों लोक में फैला हुआ है। जो सारे भारत वर्ष के स्वामी हैं। मनुष्यों में इन्द्र के समान हैं। धैर्यवान् हैं। चूलहिमवंत पर्वत से लवण समुद्र पर्यन्त समस्त पर्वतों, वनों और उद्यानों से सम्पन्न सम्पूर्ण भारतवर्ष का भोग करते हैं। अपने सभी शत्रुओं को पराजित कर जिन्होंने विजयश्री प्राप्त कर ली है। जो समस्त राजाओं में श्रेष्ठ एवं सिंह के समान है। पूर्वभव में की हुई तपस्या के प्रभाव से जो प्रभावित हैं और अपने पूर्व-संचित महान् सुखों को भोगते हैं। जो सैकड़ों वर्षों की आयु वाले हैं। वे चक्रवर्ती महाराजाधिराज, उत्तम देशों और उत्तम कुलों में उत्पन्न रानियों के साथ विलास करते हुए अनुपम शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श का अनुभव करते हैं। सैकड़ों वर्ष भोग भोगते हुए भी.वे काम-भोगों से अतृप्त रहते हुए मृत्यु को प्राप्त होते हैं। विवेचन - चक्रवर्ती सम्राट की ऋद्धि और भोग-समृद्धि का वर्णन करते हुए सूत्रकार ने ३२००० बड़े राजाओं का वर्णन किया है। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में विशेष में - ४९ कुराज्यों (खराब राज्यों) का भी उल्लेख है। सोलह हजार म्लेच्छराज्य भी होते हैं। चौसठ हजार रानियों के अतिरिक्त बत्तीस हजार 'ऋतुकल्याणिका', बत्तीस हजार 'जनपदकल्याणिका' भी होती है। दुगुल्ल - दुकुल-वल्कल-एक प्रकार के वृक्ष की छाल को पानी में भिगोकर मूसलादि से कूटकर बहुत कोमल बनाया जाता है। उसके बारीक तार निकाल कर वस्त्र बनाया जाता है। वह ठसर, सनिया जैसा बड़ा कोमल स्पर्श वाला और आकर्षक होता है। . चौदह रल - चक्रवर्ती महाराजाधिराज के १४ रत्न होते हैं। इनमें ७ एकेन्द्रिय रत्न होते हैं, यथा१. चक्ररत्न २. छत्र ३. चर्म ४. दण्ड ५. खड्ग ६. मणि और ७. काकिणी रत्न। पंचेन्द्रिय ७ रत्नों में से पांच मनुष्य होते हैं - १. सेनापति २. गाथापति (भंडारी) ३. वार्द्धिकी (बढ़ई) ४. पुरोहित और ५. स्त्री रत्न। For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती की ऋद्धि १६१ दो पशु होते हैं - अश्वरत्न और हस्तिरत्न। नव निधान - (भण्डार) १. नैसर्प निधान - जो नये ग्रामों का निर्माण और पुराने का जिर्णोद्धार एवं व्यवस्थित करता है। सेना के लिए मार्ग, शिविर, पुल आदि का निर्माण करता है। २. पांडुक निधि - सोना-चांदी के सिक्के बनाना, सामग्री जुटाना, तोल-नाप के साधन, वस्तु निष्पादन के सभी साधन उपलब्ध करने वाली। . ३. पिंगल निधि - स्त्री, पुरुष, अश्व और हाथी के आभूषणों की व्यवस्था करने वाली। ४. सर्व-रल निधि - चक्रवर्ती के चौदह रत्न और अन्य रत्नों की संग्राहक। ५. महापद्म निधि - श्वेत एवं रंगीन वस्त्रों की व्यवस्था करने वाली। ६. कालनिधि - भूत और भविष्य के तीन-तीन वर्ष तथा वर्तमानकाल का ज्ञान तथा कृषि, शिल्प, वाणिज्य, घट-पटादि निर्माण की ज्ञान-प्रदायिका। ७. महाकाल निधि-खानों में से स्वर्णादि धातुएं और रत्नादि सम्बन्धी सामग्री प्राप्त कराने वाली। ८. माणवक निधि - योद्धागण और उनके लिए अस्त्र-शस्त्र, युद्ध-नीति, व्यूह-रचना, दण्ड रचना, दण्ड-नीति आदि से युक्त। ९. शंखनिधि - विविध प्रकार के नृत्य, नाटक, छन्द, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-पुरुषार्थ तथा विविध भाषा वादिन्त्रादि से भरपूर। ... - प्रत्येक निधि बारह योजन लम्बी, नौ योजन विस्तार वाली और आठ योजन ऊँची तथा देव से अधिष्टित होती है। मंजूषा के आकार वाली है और गंगा नदी के मुख पर होती है। स्थानांग स्थान ९ और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में इनका विशेष उल्लेख है। ___चक्रवर्ती सम्राट की १६००० देव सेवा करते हैं। इनमें से १४००० तो चौदह रत्नों की और २००० उनके दोनों भुजाओं की ओर रहते हैं। उनकी सेना में ८४००००० हाथी, इतने ही घोड़े और इतने ही रथ होते हैं, ९६००००००० पदाति सैनिक होते हैं। ____ ७२००० बड़े नगर, ३२००० जनपद, ९६००००००० गाँव, ९९००० द्रोणमुख, ४८००० पट्टण, २४००० मण्डप, २०००० आकर, १६००० खेट, १४००० संबाह ५६००० अन्तरोदक। प्रवचनसारोद्धार में कुछ विशेष वर्णन है। इस प्रकार की उत्तम ऋद्धि संपत्ति और उत्कृष्ट कामभोगों के भोक्ता चक्रवर्ती सम्राट भी भोग ही में आसक्त रहते हुए मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं और सीधे नरक में उत्पन्न हो जाते हैं। वे पुरुषवेदी से नपुंसक बन जाते हैं और महान् दुःखों के भोक्ता होते हैं। जो पुण्य का भण्डार वे लाये थे, उससे उन्होंने पुण्य का नहीं, पाप का भण्डार भरा। वह पाप अब नरक में भोग रहे हैं। वे कामभोग अब भयंकर दुःखदायक बन रहे हैं। For Personal & Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० ४ *************************************************************** __ बलदेव और वासुदेव के भोग . भुजो बलदेव-वासुदेवा य पवरपुरिसा महाबलपरक्कमा महाधणुवियट्टगा महासत्तसागरा दुद्धरा धणुद्धरा णरवसहा रामकेसवा भायरो सपरिसा वसुदेवसमुद्धविजयमाइयदसाराणं पज्जुण्ण-पईव-संब-अणिरुद्ध-णिसह-उम्मुय-सारण-गयसुमुह-दुम्मुहाईण जायवाणं अद्भुट्ठाण वि कुमारकोडीणं हिययदइया देवीए रोहिणीए देवीए देवकीए य आणंद-हिययभावणंदणकरा सोलसरायवर-सहस्साणुजायमग्गा सोलस-देवीसहस्सवरणयणहिययदइया णाणामणिकणगरयणमोत्तियपवालधणधण्णसंचयरिद्धिसमिद्धकोसा हयगयरहसहस्ससामी गामा-गर-णगर-खेड-कब्बडदोणमुह-पट्टणासम-संबाह-सहस्सथिमिय-णिव्वुयपमुड्यजण-विविहसास-णिप्फजमाणमेइणिसरसरिय-तलाग-सेलकाणण-आरा-मुजाणमणाभिराम-परिमंडियस्स दाहिणड्डवेयड्डगिरिविभत्तस्स लवण-जलहिपरिगयस्स छबिह-कालगुणकामजुत्तस्स अद्ध भरहस्स सामिगा धीरकित्तिपुरिसा ओहबला अइबला अणिहया अपराजियसत्तुमद्दणरि-पुसहस्समाणमहणा। शब्दार्थ - भुजो य - पुन:, बलदेव-वासुदेवा - बलदेव और वासुदेव, पवरपुरिसा - उत्तम पुरुष, महाबलपरक्कमा - महाबली एवं पराक्रमी, महाधणुवियट्टगा - बड़े भारी धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने वाले, महासत्तसागरा - महान् सत्व के सागर, दुद्धरा - दुर्धर-जिनकी स्पर्धा कोई नहीं कर सकता, धणुद्धरा - धनुर्धर, णरवसहा - नर-वृषभ, राम-केसवा - राम और केशव, भायरो - भाई, सपरिसापरिवार सहित, वसुदेव-समुद्दविजय-माइयदसाराणं - वसुदेव और समुद्रविजय आदि दशार्ह को, पज्जुण्ण-पईव-संब-अणिरुद्ध-णिसह-उम्मय सारण-गय-सुमुह-दुम्मुहाईण - प्रद्युम्न, प्रतिव, शाम्ब, अनिरुद्ध, निषध, उल्मक, सारण, गज, सुमुख और दुर्मुखादि, जायवाणं - यादवों के, अद्भुट्ठाण - साढ़े तीन, कुमार-कोडीणं - कुमारकोटि, हिययदइया - अत्यन्त प्रिय, देवीए रोहिणीए - रोहिणी देवी के, देवीए देवकीए - देवकी देवी के, आणंद हिययभावणंदणकरा - हृदय में आनंद की वृद्धि करने वाले, सोलसरायवरसहस्साणुजायमग्गा - सोलह हजार राजा जिनके अनुगामी थे, सोलसदेवीसहस्सवरणयणहिययदइया - सोलह हजार रानियों के हृदय वल्लभ और नयनों के तारे थे णाणामणिकणगरयणमोत्तियपवाल - विविध प्रकार के मणि, कनक, रत्न, मोती, प्रवाल, धणधण्णसंचयरिद्धिसमिद्धिकोसा - धन और धान्य के संचय से उनका कोष समृद्ध-परिपूर्ण था, हयंगयरहसहस्ससामी - सहस्त्रों हाथी, घोड़ों और रथों के स्वामी, गामागरणगरखेड-कब्बड-दोणमुहपट्टणासम-संबाह सहस्स - हजारों ग्राम, आकर, नगर, खेड, कर्बट, द्रोणमुख, पत्तन, आश्रम, संबाध For Personal & Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . बलदेव और वासुदेव के भोग १६३ ********** ********************************************** हैं, थिमिय णिव्युयपमुइयजण - प्रजाजन निश्चिन्त, प्रमुदित एवं आनन्दित है, विविहसासणिप्फज्जमाणमेइणिसर-सरिय-तलाग-सेल - विविध प्रकार के धान्य उत्पन्न करने वाली भूमि, जलाशय, नदी, तालाब, पर्वत, काणणआरामुजाणमणा-भिरामपरिमंडियस्स - वन, बाग, उद्यान आदि मनोहर एवं उत्तम रीति से सज्जित हैं, दाहिणड्डवेयडगिरिविभत्तस्स - जो वैताढ्य पर्वत से होकर दक्षिणार्द्ध और उत्तरार्द्ध के रूप में विभक्त है, लवणजलहिपरिगयस्स- जो लवण समुद्र से घिरा हुआ है, छव्विहकालगुणकामजुत्तस्स - जहाँ छह प्रकार की ऋतुएँ क्रमश: कालानुसार कार्ययुक्त अथवा शब्दादि कामसुख से युक्त हैं, अद्धभरहस्स सामिगा- वे आधे भरतक्षेत्र के स्वामी थे, धीरकित्ति-पुरिसा- वे कीर्ति से सुशोभित, धीर पुरुष थे, ओहबला - वे ओघबल-प्रवाह रूप से अविच्छिन्न-स्थायी बल वाले थे, अइबला - अति बलवान्, अणिहया - किसी के द्वारा आहत नहीं होने वाले, अपराजियसत्तुमद्दणरिपुसहस्समाणमहणा - वे शत्रुओं से पराजित नहीं होने वाले और सहस्रों शत्रुओं के मान का मर्दन करने वाले थे। . भावार्थ - (चक्रवर्ती के सिवाय) बलदेव और वासुदेव भी बड़े प्रख्यात एवं उत्तम पुरुष हुए हैं। वे महाबली एवं महापराक्रमी थे। प्रबल एवं दृढ़तम धनुष्य को खींचकर चढ़ाने वाले थे। समुद्र के समान महान् सत्वशाली, धनुर्विधा में अप्रतिम (अजोड़) धनुर्धर थे। वे नर-वृषभ राम (बलदेव) और केशव (वासुदेव श्री कृष्ण) दोनों भाई थे। उनका परिवार भी बहुत था। वसुदेव और समुद्रविजय आदि दस दशा) तथा प्रद्युम्न, प्रतिव, शाम्ब, अनिरुद्ध, निषध, उल्मक, सारण, गज, सुमुख और दुर्मुख आदि साढ़े तीन कोटि यादव-कुमारों को अत्यन्त प्रिय थे। रोहिणी देवी (बलदेवजी की माता) देवकी देवी (कृष्णजी की माता) के हृदय में आनन्द की वृद्धि करने वाले थे। सोलह हजार राजा जिनके अनुगामी (अनुसरण करने वाले) थे। सोलह हजार रानियों के जो प्राणवल्लभ एवं नयनों के तारे थे। उनका भण्डार विविध प्रकार के. मणि, कनक, रत्न, मोती, प्रवाल तथा धन-धान्य से परिपूर्ण था। हजारों हाथियों, घोड़ों और रथों के वे स्वामी थे। हजारों ग्राम, आकर, नगर, खेड, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमुख, पट्टण, आश्रम और संबाध पर उनका राज्य था, जिनमें प्रजानन सुख-सन्तोष एवं आनन्दपूर्वक निवास करते थे। उनके राज्य की भूमि में विविध प्रकार का धान्य उत्पन्न होता था। नदी, तालाब, पर्वत, वन, बाग, उद्यान आदि पाकृतिक मनोहर सामग्रियों से उनकी भूमि सुसज्जित थी। वैताढ्य पर्वत से दो विभागों (उत्तर और दक्षिण) में विभाजित हुआ ऐसा दक्षिण भरत-क्षेत्र जो लवण समुद्र से घिरा हुआ है और जिसमें कालक्रम से छहों ऋतुएं अपने काम-गुण से सम्पन्न होकर कार्यरत हैं, ऐसे आधे भरत-क्षेत्र के वे (राम और केशव) स्वामी थे। वे धीर-वीर थे। उनकी कीर्ति सर्वत्र व्याप्त थी-वे कीर्ति पुरुष थे। उनका बल सदा स्थायी रहता था। वे बहुत बलवान् थे। उन्हें दबाने वाला कोई नहीं था (उन पर किसी . की आज्ञा नहीं चल सकती थी) वे अपराजित (किसी से पराजित नहीं होने वाले) थे। वे हजारों शत्रुओं का मान-मर्दन करने वाले थे। For Personal & Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ० ४. **************************************************************** विवेचन - चक्रवर्ती सम्राट की ऋद्धि एवं उत्कृष्ट भोगों का वर्णन करने के बाद सूत्रकार इस सूत्र में बलदेव और वासुदेव की ऋद्धि पराक्रम एवं भोग-सामग्री का वर्णन करते हैं। श्लाघनीय उत्तम पुरुषों में सर्वोत्कृष्ट स्थान तीर्थंकर भगवंतों का होता है। उसके बाद दूसरा स्थान चक्रवर्ती सम्राट का है और इनके बाद वासुदेव और बलदेव आते हैं। चक्रवर्ती से वासुदेव की ऋद्धि राज्य-विस्तार एवं बल आधा होता है। बलदेव बड़े भाई होते हैं और वासुदेव छोटे भाई। इस सूत्र में इस अवसर्पिणी काल में हुए नौ बलदेव-वासुदेवों में से अन्तिम-नौवें बलदेव-वासुदेव का वर्णन है। . दशाह - लोकपूज्य। ये दस थे। इनके नाम - १. समुद्रविजय २. अक्षोभ्य ३. स्तिमित ४. सागर ५. हिमवान् ६. अचल ७. धरण ८. पूरण ९. अभिचन्द्र और १०. वसुदेव। . .. साणुक्कोसा अमच्छरी अचवला अचंडा मियमंजुलपलावा हसियगंभीरमहरभणिया अब्भुवगयवच्छला सरण्णा लक्खणवंजणगुणोववेया माणुम्माण-पमाण-पडिपुण्णसुजायसव्वंग-सुंदरंगा ससिसोमागारकंतपिय-दसणा अमरिसणा पयंडडंडप्पयारगंभीरदरिसणिज्जा तालद्धउव्विद्वगरुल-केऊ बलवग-गजंतदरियदप्पियमुट्ठिय-. दाणूरमूरगा रिटुवसहघाइणो केसरिमुहविष्फाडगा दरियणागदप्पमहणा जमलज्जुणभंजगा महासउणिपूयणारिवू कंसमउडमोडगा जरासंधमाणमहणा। शब्दार्थ - साणुक्कोसा - दया एवं अनुकम्पा युक्त हृदय वाले, अमच्छरी - ईर्ष्या भाव से रहित, अचवला - अचपल-चंचलता रहित-गम्भीर, अचंडा - अकारण क्रोधित नहीं होने वाले, मियमंजुलपलावा - परिमित एवं मधुर भाषण करने वाले, हसियगंभीरमहुरभणिया - कुछ हास्यपूर्वकमुस्कराते हुए गंभीरतायुक्त मधुर वचन बोलने वाले, अब्भुवगयवच्छला - समीप आए हुए के प्रति वात्सल्य भाव रखने वाले. सरण्णा- शरण में आये हए के रक्षक, लक्खणवंजणगुणोववेया - शुभ लक्षणों व्यंजनों और गुणों से युक्त, माणुम्माणपमाणपडिपुण्णसुजायसव्यंगसुंदरंगा- उनके शरीर के समस्त अंगोपांग सुन्दर और मान-उन्मान तथा प्रमाण से परिपूर्ण थे, ससिसोमागारकंतपियदंसणा - उनकी आकृति चन्द्रमा के समान मनोहर थी, उनका दर्शन दर्शक को प्रिय लगता था, अमरिसणा - वे अमर्षण-अपराध एवं अत्याचार को सहन नहीं करने वाले थे अथवा कार्यसिद्धि में आलस्य नहीं करते थे, पयंडडंडप्पयारगंभीरदरिसणिज्जा - प्रचण्ड दण्ड प्रचार गम्भीर दर्शनीय-दुष्टों का दमन करने के लिए उनका अनुशासन बहुत प्रचण्ड होता था, वे दुष्टों के लिए अत्यन्त गम्भीर दिखाई देते थे, तालद्धव्विद्धगरुलकेउ - उनकी गरुड़ाङ्कित ध्वजा ताल वृक्ष के समान ऊंची थी, बलवगगजंतदरियदप्पयमुट्ठियचाणूरमूरगा - अति बलवान् और गर्व युक्त गर्जना करने वाले मुष्टिक मल्ल को-बलदेव ने और चाणूर मल्ल को-कृष्ण ने मार डाला था, रिट्ठवसहघाइणो - रिष्ट नाम के प्रचण्ड एवं दुष्ट साँड को-कृष्ण ने मार डाला था, केसरिमुहविप्फाडग - केसरी सिंह के मुँह को फाडने वाले, For Personal & Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . बलदेव और वासुदेव के भोग १६५ wwwwwwwwwwww************************************ दरियणागदप्यमहणा - दर्पवन्त-घमण्डी नाग के दर्प का मर्दन करने वाले, जमलजुणभंजगा - जमलार्जुन को जिन्होंने नष्ट किया है, महासउणिपूयणारिवू - महाशकुनी और पूतना नामक दुष्टा विद्याधरी के नाशक, कंसमउडमोडगा - कंस के मुकुट को तोड़ने वाले, जरासंधमाणमहणा - जरासंध के मान का मर्दन करने वाले। - भावार्थ - वे बलदेव और वासुदेव, दयालु-कृपानिधि थे। उनमें मात्सर्य-भाव (किसी दूसरे के प्रति ईर्ष्या-जलन) नहीं था। उनमें चंचलता नहीं थी। वे अकारण कुपित नहीं होते थे। उनकी बोली मृदुतायुक्त एवं परिमित थी। वे स्मित युक्त एवं गम्भीरतापूर्वक मिष्ट-वाणी का उच्चारण करते थे। अपनी शरण में आये हुए मनुष्यों पर वे वात्सल्य भाव रखते हुए रक्षा करते थे। पुरुषों के शरीर में जितने उत्तम लक्षण और गुण होते हैं, वे उन शुभ लक्षणों, व्यंजनों और गुणों से युक्त थे। उनके शरीर के सभी अंगोपांग सुन्दर, प्रमाणयुक्त और मान-उन्मान सहित थे। उनकी मुखाकृति चन्द्रमा के समान सौम्य, कान्तियुक्त, प्रिय एवं मनोहर थी। वे लिये हुए कार्य को पूरा करने में विलम्ब या आलस्य नहीं करते थे। शत्रु के अपराध की वे उपेक्षा नहीं करते थे। दुष्टों का दमन करने के लिए उनका दण्डविधान गम्भीर एवं प्रचण्ड था। उनकी ध्वजा ताल वृक्ष के समान बहुत ऊँची थी। उस ध्वजा पर गरुड़ का चिह्न अङ्कित था। बलदेव ने उस मुष्टिक-मल्ल को मार डाला था जो अत्यन्त बलवान् था और गर्वयुक्त गर्जना करता रहता था तथा चाणूर-मल्ल को कृष्ण-वासुदेव ने मारा था। इसके अतिरिक्त रिष्ट नामक दुष्ट वृषभ को भी श्री कृष्ण ने मारा था। उन्होंने केसरीसिंह का मुँह पकड़कर चीर दिया था और अत्यन्त दर्पितघमण्डी ऐसे काले विषधर सर्प का मान-मर्दन किया था। उन्होंने यमलार्जुन को नष्ट कर दिया था। महाशकुनी और पूतना को भी उन्होंने मार डाला था। कंस के मुकुट को तोड़कर उसे प्राणरहित कर दिया था और जरासंध के मान का मर्दन किया था। तेहि य अविरलसमसहियचंदमंडलसमप्पभेहिं सूरमिरीयकवयं विणिम्मुयंतेहिं सपडिदंडेहिं, आयवत्तेहिं धरिजंतेहिं विरायंता ताहि य पवरगिरिकुहरविहरणसमुट्ठियाहिं णिरुवहयचमरपच्छिमसरीरसंजायाहिं अमइलसेयकमलविमुकुलज्जलिय-रययगिरिसिहर-विमलससिकिरण-सरिसकलहोयणिम्मलाहिं पवणाहय-चवलचलियसललियपणच्चियवीइ-पसरियखीरोदगपवरसागरुप्पूरचंचलाहिं माणससरपसरपरिचियावास-विसदवेसाहिं कणगगिरिसिहरसंसिताहिं उवायप्पाय-चवलजयिणसिग्घवेगाहिं हंसवधूयाहिं चेव कलिया णाणामणि-कणगमहरिहतवणिज्जुज्जलविचित्तडंडाहिं सललियाहिं णरवइसिरि-समुदयप्पगासणकरिहिं वरपट्टणुग्गयाहिं For Personal & Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ०४ ************************************** ********** समिद्धरायकुलसेवियाहिं कालागुरुपवरकुंदरुक्कतुरुक्कधूववसवासविसदगंधुद्धयाभिरामाहिं चिल्लिगाहिं उभओपासं वि चामराहिं उक्खिप्पमाणाहिं सुहसीययवायवीइयंगा। शब्दार्थ - तेहि - वे, अविरलसमसहियचंदमंडलसमप्पभेहिं - छत्र की शलाकाएं अविरलसघन एवं उन्नत थीं और वह छत्र गोल होने से चन्द्रमण्डल के समान सुशोभित था, सूरमिरीयकवयं विणिम्मुयतेहिं - छत्र की किरणें सूर्य की किरणों के समान थीं तथा उनके कवचों के चारों ओर प्रसरती थीं, सपडिदंडेहिं - वे छत्र प्रति-दण्डों से युक्त थे-उन्हें धारण करने के लिए दण्ड लगे हुए थे, आयवत्तेहिं - छत्रों से, धरिग्जंतेहि - धारण किये हुए, विरायंता - विराजमान थे, ताहि य - इस प्रकार, पवरगिरिकुहरविहरणसमुट्ठियाहिं - वे चंवर, पर्वत तथा कन्दराओं में विचरण करने वाली गायों के बालों से बने थे, णिरुवहयचमरपच्छिमसरीरसंजायाहिं - वे चंवर नीरोग चंवरी गायों के पूँछ के बालों से बने थे, अमइलसेयकमल-विमुकुलजलियरययगिरिसिहरविमलससिकिरणसरिसकलहोयणिम्मलाहिं - वे चंवर निर्मल श्वेत कमल, रजतगिरि के उज्ज्वल शिखर, चन्द्रमा की किरण तथा चाँदी के समान निर्मल थे, पवणाहयचवलचलियसललियपणच्चियवीइपसरियखीरोदगवपरसागरुप्पूरचंचलाहिं - वे हिलाये जाते हुए चँवर ऐसे लगते थे कि जैसे वायु से प्रेरित चपलता से चलती हुई तरंगों से युक्त विशाल क्षीर समुद्र का जल प्रवाह हो, माणससरपसरपरिचियावासविसदवेसाहिं - मानसरोवर में निरन्तर निवास करने वाली और श्वेत वेश वाली, कणगगिरिसिहरसंसिताहिं - कनकगिरि के शिखर पर रहने वाली, उवायप्पायचवलजयिणसिग्यवेगाहिं - ऊपर उठने और नीचे आने में चपलता-जनित शीघ्र-गति वाली हंसवधूयाहिं - हंस वधुओं के, चेव - समान, कलिया .- युक्त, णाणामणिकणगमहरहितवणिजुज्जलविचित्तडंडाहिं - उन चंवरों का स्वर्णमय दण्ड विविध प्रकार के महामूल्यवान् मणिरत्नों से जड़ित था, सललियाहि- वे अत्यन्त सुन्दर थे णरवइसिरिसमुदयप्पगासणकरिहिं - उनसे नरेन्द्र की राज्यश्री की शोभा प्रकट हो रही थी, वरपट्टणुग्गयाहिं - वे प्रधान नगर के उत्तम कलाकारों द्वारा निर्मित थे, समिद्धायकुलसेवियाहिं - वे चंवर समृद्ध राजाओं से सेवित थे, कालागुरुपवरकुंदरुक्कतुरुक्कधूववसवासविसदगंधष्दुयाभिरामाहिं - वे कालागुरु श्रेष्ठ कुन्दरुक्क और तरुक्क आदि सुगन्धित धूपों से अत्यन्त सुगन्धित थे, चिल्लिगाहिं - देदीप्यमान थे, उभओपासं वि चामराहिं - वे चंवर आस-पास दोनों ओर, उक्खिप्पमाणाहिं - उठ कर विंजाते थे, सुहसीयलवायवीइयंगा - उनका शीतल पान शरीर को सुखदायक था। भावार्थ - बलदेव और श्रीकृष्ण अपने मस्तक पर धारण किये हुए छत्रों से सुशोभित थे। उनके धारण किये हुए छत्रों की शलाकाएं सघन-ठोस एवं उन्नत थीं और गोलाईयुक्त होने से वे छत्र पूर्ण चन्द्र के समान सुशोभित थे। उन छत्रों की किरणें सूर्य की किरणों तथा उनके कवच के समान चारों ओर प्रसरी हुई थीं। उन छत्रों के मुख्य दण्ड के लिए सहायक प्रतिदण्ड भी थे। For Personal & Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलदेव और वासुदेव के भोग उनके दोनों पाश्वों में चँवर डुलाये जाते थे। बड़े-बड़े पर्वतों और गुफाओं में रहने वाली नीरोग एवं स्वस्थ गायों के पूँछ के बालों से वे चँवर बनाये गये थे। वे चँवर विकसिक निर्मल श्वेत कमल, उज्ज्वल रजतगिरि के शिखर, निर्मल चन्द्रमा की किरणों और चाँदी के समान श्वेत थे । वे हिलाये (डुलाये) जाते हुए चँवर ऐसे लग रहे थे मानो पवन से प्रेरित होकर क्षीर समुद्र की चपलतापूर्वक चलती हुई जल-तरंगें हों। मानसरोवर तथा कनकगिरि पर रहने वाली और श्वेत पंखों के वेश वाली तथा उड़ कर पर्वत पर जाने और नीचे मानसरोवर पर आने में अत्यन्त शीघ्र गतिवाली हंस वधुओं के समान वे चँवर श्वेत थे और ऊपर-नीचे आ-जा रहे थे । उन चँवरों का दण्ड स्वर्ण-निर्मित था और विविध प्रकार की विचित्र महामूल्यवान् मणियों से जड़ित था । चँवर सुन्दर थे । वे नरेन्द्र की राज्य लक्ष्मी के प्रभाव को प्रकट कर रहे थे। उनके बनाने वाले बड़े नगरों के कुशल कलाकार थे। वे चँवर समृद्ध एवं उच्च नरेशों पर ही डुलाये जाते थे । कालागुरु श्रेष्ठ कुन्दरुक्क और तरुक्क आदि सुगन्धित धूपों से वे अत्यन्त सुवासित थे । उन देदीप्यमान चैवरों से बलदेव - वासुदेव युक्त थे। उनका शीतल पवन उन नरेन्द्रों के अंग को सुखदायक था। अजिया-अजियरहा-हलमूसलकणगपाणी- संखचक्कगयसत्तिणंदगधरा पवरुज्जलसुकयविमलकोथूभतिरीडधारी कुंडलउज्जोवियाणणा पुंडरीयणयणा एगावलीकं ठरइयवच्छा सिरिवच्छसुलंछणावरजसा सव्वोउय - सुरभिकुसुमसुरइयपलं बसोहं तवियसंतचित्तवणमालरइंयवच्छा अट्ठसयविभत्तलक्खणपसत्थसुंदरविराइयंगमंगा मत्तगयवरिंदललियविक्कमविलसियगई कडिसुत्तगणीलंपीयकोसिज्जवाससा पवरदित्ततेया सारयणवत्थणियमहुरगंभीरणिद्धघोसा णरसीहा सीहविक्कमगई अत्थमियपवररायसीहा सोमा बारवइपुण्णचंदा पुव्वकयतवप्पभावा णिविट्ठसंचियसुहा अणेगवाससयमाउवंता भज्जाहि य जणवयप्पहाणाहिं लालियंता अउल-सद्दफरिसरसरूवगंधे अणुहवित्ता ते वि उवणमंति मरणधम्मं अवितत्ता कामाणं । शब्दार्थ - अजिया - वे अजेय थे, अजियरहा उनके रथ अजेय थे, हलमूसलकणगपाणी - बलदेव हल मुसल और बाणों को हाथ में धारण करते थे, संखचक्कगयसत्तिणंदगधरा - श्रीकृष्ण शंख, चक्र, गदा, शक्ति और नन्दक नाम वाला खड्ग धारण करते थे, पवरुज्जलसुकयविमलकोथूभतिरीडधारी श्रीकृष्ण उज्ज्वल एवं देदीप्यमान कौस्तुभमणियुक्त मुकुट धारण करते थे, कुंडलउज्जोवियाणणाकुण्डलों से उनका मुख उद्योतयुक्त दिखाई देता था, पुंडरीयणयणा- उनके नेत्र श्वेत कमल के समान थे, एंगावलीकंठरइयवच्छा उनके कण्ठ में एकावली माला शोभित हो रही थी, सिरिवच्छसुलंछणाहृदय पर श्रीवत्स का सुलक्षण था, वरजसा- उनका यश निर्मल था, सव्वोउयसुरभिकुसुमसुरइयपलंबसौहंतवियसंतचित्तवणमालरइयवच्छा सभी ऋतुओं के सुगन्धित पुष्पों से रची हुई सुखदायिनी - - - - १६७ For Personal & Private Use Only - Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ *********** प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० ४. . **************************************** लम्बी मालाओं से उनका वक्ष स्थल सुशोभित रहता था, अट्ठसयविभत्तलक्खणपसत्थसुंदरविराइयंगमंगाविभिन्न एक सौ आठ शुभ लक्षणों से उनके अंगोपांग सुशोभित थे, मत्तगयरिदललियविक्कमविलसियगई - वे मस्त गजेन्द्र के समान ललित विक्रम एवं विलासयुक्त गति करते-चलते थे, कडिसुत्तगणीलपीयकोसिज्जवाससा - नीले-बलदेव के और पीले-वासुदेव के रेशमी वस्त्र पर करधनी शोभित हो रही थी, पवरदित्ततेया - वे उत्कृष्ट एवं दीप्त तेज वाले थे, सारयणवत्थणियमहुरणिद्धघोसा - शरद काल के नवीन मेघ की गर्जना के समान उनका स्वर मधुर एवं गम्भीर था. णरसीहा- वे मनुष्यों में सिंह के समान थे, सीहविक्कमगई - सिंह के समान पराक्रमशाली थे,. अत्यमियपवररायसीहा - जिन्होंने बड़े-बड़े रास-सिंहों को परास्त कर तेजच्युत कर दिया था, सोमा - वे सौम्य थे, बारवईपुण्णचंदा - वे द्वारका नगरी के लिए पूर्ण चन्द्र के समान थे, पुव्यंकयतवप्पभावापूर्वभव में की हुई विशिष्ट तपस्या के प्रभाव से वे प्रभावित थे, णिविट्ठसंचियसुहा - पूर्वभव में संचित किये हुए महान् सुखों के वे भोक्ता थे, अणेगवाससयमाउवंता- वे अनेक सैकड़ों वर्षों की आयु वाले थे, भग्जाहि - भार्याओं के साथ, जणवयप्पहाणाहिं - उत्तम देश एवं उत्तम कुल में उत्पन्न, लालियंताविलास करते हुए, अउलसद्दफरिसरसरूवगंधे अणुहवित्ता - अनुपम शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श का अनुभव करते हुए, ते - वे, उवणमंतिमरणधम्म - मृत्यु धर्म को प्राप्त हुए, अवितत्ताकामाणं - ... कामभोगों से अतृप्त रहे। भावार्थ - वे अजेय थे-उन्हें जीतने वाला कोई नहीं था। उनके रथ भी अजेय थे। बलदेव हल, मूसल और बाणों के धारक थे और कृष्ण शंख, चक्र, गदा और शक्ति तथा नन्दक खड्ग धारण करते थे। श्रीकृष्ण के वक्ष स्थल पर कौस्तुभमणि और मस्तक पर मुकुट शोभित हो रहा था। कुण्डल के उद्योत से उनका मुख प्रकाशित हो रहा था। उनके नेत्र विकसित श्वेत-कमल के समान थे। गले में : एकावली माला शोभित हो रही थी। हृदय पर श्रीवत्स का शुभ लक्षण था। उनका यश उज्ज्वल था और चतुर्दिक व्याप्त था। सभी ऋतुओं के सुगन्धित पुष्पों से गुंथी हुई लम्बी वनमालाएँ उनके वक्ष पर लटक रही थी। पुरुष सम्बन्धी १०८ शुभ लक्षणों से उनके अंग सुशोभित थे। वे मस्तक गजेन्द्र के समान ललित विक्रम एवं विलासपूर्वक गति करते थे। बलदेव नीले वर्ण के और श्रीकृष्ण पीले वर्ण के सुन्दर रेशमी वस्त्र धारण करते और उसके ऊपर करधनी शोभायमान होती थी। उनका तेज प्रखर था। उनका कण्ठस्वर शरदकाल के नूतन मेघ की गर्जना के समान गम्भीर और साथ ही मृदु था। मनुष्यों में वे सिंह के समान-नरसिंह थे। उनका पराक्रम सिंह के समान था। उन्होंने बड़े-बड़े नरसिंहों-नरेन्द्रों के प्रभाव को नष्ट कर दिया था अथवा बड़े-बड़े नरेशों का ही विनाश कर दिया था। वे सौम्य थे। द्वारिका नगरी को आनन्दित करने वाले पूर्ण चन्द्रमा के तुल्य थे। पूर्वभव में किये हुए तप के प्रभाव से वे युक्त. और पूर्व के संचित महान् सुखों को भोगने वाले थे। उनकी आयु सैकड़ों वर्षों की थी। उत्तम देश और उत्तम कुलों में उत्पन्न रमणियों के साथ विलास करते हुए वे अनुपम शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श का For Personal & Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *********** बलदेव और वासुदेव के भोग *************** अनुभव करते थे । इस प्रकार सैकड़ों वर्षों तक भोगविलास करते हुए भी वे कामभोगों से अतृप्त रहे और मृत्यु को प्राप्त हो गए। विवेचन - इस सूत्र में बलदेव और वासुदेव के वर्णन में निम्न शब्द अन्य शास्त्रों में वर्णित घटनाओं का निर्देश करते हैं 1 - बलवगगजंतदरिय-दप्पियमुट्ठिय चाणूरमूरगा जो अपने बल के मद में अत्यन्त मदोन्मत्त होकर गर्जना करते रहते थे कि - " है कोई ऐसा बलवान् जो हमसे लड़ने का साहस करे ।" ऐसे मौष्टिक और चाणूर नाम के मल्ल, कंस के अधीन थे। उन मल्लों को कंस ने श्री बलराम और श्रीकृष्ण को मारने की आज्ञा दी। दोनों मल्ल, खम ठोक कर झपटे। बलरामजी ने मौष्टिक मल्ल को और श्रीकृष्ण ने चाणूर मल्ल को पछाड़ मारा और उन गर्वोन्मत्त मल्लों के दर्प को नष्ट कर दिया। रिट्ठवसहघाइणो- रिष्ट वृषभ - घातक । कंस के द्वारा मदोन्मत्त किये हुए और कृष्ण-बलराम को मारने के लिये छोड़े हुए रिष्ट नाम के वृषभ (साँड) को जिन्होंने मार डाला था। केसरिमुहविप्फाडगा - केसरी सिंह के मुँह को फाड़ देने वाले । यह घटना प्रथम वासुदेव त्रिपृष्टजी के जीवन से सम्बन्धित बताई जाती है। त्रिपृष्ट वासुदेव ने महान् उपद्रवकारी एवं प्रचण्ड सिंह के जबड़ों को पकड़ कर चीर डाला था। विकल्प में टीकाकार लिखते हैं कि यह घटना श्रीकृष्ण से सम्बन्धित भी है। उन्होंने कंस के केशी नाम के दुष्ट अश्व के मुँह को चीर कर मार डाला था । दरियणागदप्पणा - दप्तनाग-दर्पक। यमुना नदी में रहने वाले महान् विषधर काल नामक सर्प का - पद्म प्राप्ति के लिये- श्रीकृष्ण ने यमुना में प्रवेश करके मर्दन किया था । जमलुज्जल-भंजगा - मलार्जुन भंजक । श्रीकृष्ण ने अपने पिता के शत्रु यमल और अर्जुन नामं के विद्याधरों को-जो श्रीकृष्ण को मारने के लिये वृक्ष रूप बन गए थे, मार डाला था। महासउणिपूतणारिवू - महाशकुनि - पूतना- रिपु । महाशकुनी और पूतना नाम की दो विद्याधरं स्त्रियों के (जो श्रीकृष्ण को बालवय में मारने आई थी) शत्रु । कंस मुकुट - तोड़क और जरासंध मान-मर्दक। यह घटना भी श्रीकृष्ण के जीवन से संबंधित है और प्रसिद्ध हैं। १६९ - ********** भुज्जो मंडलिय - णरवरिंदा सबला सअंतेउरा सपरिसा सपुरोहिया मच्चदंडणायगसेणावइ - मंतणीइ - कुसला णाणामणिरयणविपुल- धणधण्ण-संचयणिहीसमद्धिकोसा रज्जसिरिं विउलमणुहवित्ता विक्कोसंता बलेण मत्ता ते वि उवणमंति मरणधम्मं अवितत्ता कामाणं । शब्दार्थ - भुज्जो पुनः, मंडलियणरवरिंदो - माण्डलिक नरेन्द्र-नरेन्द्र मण्डल के अधिपति, सबला - बल से युक्त, सअंतेउरा - अंतःपुर से युक्त, सपरिसा परिषद्-राज्यसभा सहित, सपुरोहियामच्च - पुरोहित अमात्य - मन्त्री, दंडणायगसेणावइ मंतणीइ - दण्डनायक, सेनापति तथा For Personal & Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { १७० ******* प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० ४ मन्त्रनीति-मन्त्रणा करने में; कुसला - कुशल, णाणामणिरयण - विविध प्रकार के मणि और रत्न, विउलधणधण्णसंचयणिही - विपुल धन-धान्य के संग्रह से, समिद्धकोसा - भंडार समृद्ध है, रज्जसिरि- राज्यश्री, विउलमणुहवित्ता- विपुलता से अनुभव करते थे, विक्कोसंता- शत्रुओं का पराभव करने वाले, बलेण मत्ता - जो बल से मदोन्मत्त थे, ते वि वे भी, उवणमंति प्राप्त होते हैं, मरणधम्मं - कालधर्म, अवितत्ता कामाणं कामभोगों से अतृप्त रहते हैं । - - ************ भावार्थ - माण्डलिक नरेन्द्र भी बलवान् थे । उनका अन्तःपुर भी विशाल था । उनकी राज्यसभा होती थी। वे पुरोहित, अमात्य, दण्डनायक, सेनापति और मन्त्रणा - सभा से युक्त थे। वे राजनीति में . थे । अनेक प्रकार के मणिरत्नों और धनधान्यादि संग्रह से उनके भण्डार भरपूर थे । वे राज्य लक्ष्मी पूर्ण रूप से अनुभव करते और अपने शत्रुओं को दबाते हुए, स्वबल तथा सैन्य बल से मदोन्मत्त थे। वे कामभोग में अतृप्त रहे हुए ही मृत्यु को प्राप्त हो गए। अकर्मभूमिज मनुष्यों के भोग भुज्जो उत्तरकुरु- देवकुरु - वणविवर - पायचारिणो णरगणा भोगुत्तमा भोग लक्खणधरा भोगसस्सिरीया पसत्थसोमपडिपुण्णरूवदरिसणिज्जा सुजायसव्वंग सुंदरंगा रत्तुप्पलपत्तकंतकरचरणकोमलतला सुपइट्ठियकुम्मचारुचलणा अणुपुव्वसुसंहयंगुलीया उणयतणुतंबणिद्धणखा संठियसुसिलिट्ठगूढगुंफा एणीकुरुविंद - वत्तवट्टाणुपुव्विजंघा समुग्गणिसग्गगूढजाणू वरवारणमत्ततुल्लविक्कम - विलासियगई वरतुरगसुजायगुज्झदेसा आइण्णहयव्वणिरुवलेवा पमुइयवरतुरगसीहअइरेगवट्टियकडी गंगावत्तदाहिणावंत्ततरंगभंगुर - रविकिरण-बोहिय-विकोसायंतपम्हगंभीरवियडणाभी साहतसोणंदमुसलदप्पणणिगरियवरकणगच्छरु सरिसवरवइवलियमज्झा उज्जुगसमसहियजच्चतणुकसिणणिद्ध-आइज्जलडहसुमालमउयं-रोमराई झसविहगसुजायपीणकुंच्छी झसोयरा पम्हविगडणाभी सण्णयपासा संगयपासा सुंदरपासा सुजायपासा मियमाइयपीणरइयपासा अकरंडुयकणगरुयगणिम्मलसुजायणिरुवहयदेहधारी कणगसिलातल-पसत्थसमतलउवइयविच्छिण्णपिहुलवच्छा जुयसण्णिभपीणरइयपीवरपट्टसंठियासुसिलिट्ठविसिट्ठलट्ठसुणिचियघणथिर सुबद्धसंधी पुरवरफलिहवट्टियभुया । शब्दार्थ - भुज्जो - पुनः, उत्तरकुरुदेवकुरु - उत्तरकुरु देवकुरु- युगलिकों के क्षेत्र, वणविवरपायचारिणो- वन में अपने पाँवों से ही चलने वाले, णरगणा - मनुष्य गण भोगुत्तमा उत्तम भोगों से युक्त, भोगलक्खणधरा स्वस्तिकादि भोग के लक्षणों से युक्त, भोगसस्सिरीया भोगरूपी लक्ष्मी से युक्त, पसत्थसोमपडिपुण्णरूवदरिसणिज्जा उनकी आकृति प्रशस्त, सौम्य, प्रतिपूर्ण - - For Personal & Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ **************** अकर्मभूमिज मनुष्यों के भोग ************ और दर्शनीय है, सुजायसव्वंगसुंदरंगा उनके सभी अंगोंपांग सुन्दर और सुडौल हैं, रत्तुप्पलपत्तकंतकरचरणकोमलतला हाथ और पाँव के तलुए लाल कमल के समान वर्ण वाले तथा कोमल हैं, सुपइट्ठियकुम्मचारुचलणा उनके पाँव कछुए के समान सुप्रतिष्ठित एवं सुन्दर हैं, अणुपुव्वसुसंहयंगुलिया पाँवों की अंगुलियाँ क्रमशः बड़ी-छोटी एवं संगठित है, उण्णयतणुतंबणिद्धणखा उनके नख उन्नत, पतले, ताम्रवर्ण स्निग्ध एवं चमकीले है, संठियसुसिलिट्ठगूढगुंफा - पाँवों के टखने सुघटित तथा पुष्ट है, एणीकुरुविंदवतवट्टाणुपुव्विजंघा उनकी जंघाएँ हिरनी तथा कुरुविन्द वृक्ष के समान गोल तथा क्रमशः स्थूलता युक्त है, समुग्गणिसग्गगूढजाणू - डिब्बा और उसके ढक्कन की मिली हुई सन्धि (जोड़) के समान उनके घुटनों की सन्धि मिली हुई तथा पुष्ट एवं उभरी हुई होती है। वरवारणमत्ततुल्लविक्कमविलासियगई- मस्त हाथी के समान विक्रम एवं विलास युक्त गति वाले, वरतुरगसुजायगुज्झदेसा - उत्तम घोड़े के समान उनका गुह्यदेश ( पुरुषचिह्न) गुप्त रहता है, आइण्णहयव्वणिरुवलेवा - आकीर्ण जाति के अश्व के समान वे लेप रहित होते हैं- उनका गुदा स्थान निर्लेप रहता है, पमुइयवरतुरगसीहअइरेगवट्टियकडी प्रसन्न हुए उत्तम घोड़े और सिंह से भी बढ़ कर उनकी कमर गोल तथा पतली है, गंगावत्तदाहिणावत्ततरंगभंगुररविकिरणबोहियविको सायं तपम्हगंभीरवियडणाभी - गंगा के आवर्त के समान दक्षिण आवर्त्त वाली, सूर्य किरणों से विकसित कमल के समान तथा गम्भीर उनकी नाभि है, साहतसोणंदमुसलदप्पणणिगरियवरकणगच्छरुसरिसवरवरवलियमज्झा - उनका मध्य भाग संक्षिप्त तिपाई मूसल के मध्य भाग दर्पण का हत्था, शुद्ध स्वर्ण से बनी तलवार की मूठ तथा उत्तम वज्र के समान कृश ( पतला ) होता है, जुगसमसहियजच्तणुकसिणणि आइज्जलडहसुमालमउयरोमराई- उनकी रोमावली परस्पर मिली . हुई, स्वभाव से ही सुन्दर, सूक्ष्म, स्निग्ध, अति कोमल, काली एवं मनोहर है झसविहगसुजायपीणकुच्छीमछली एवं पक्षी के समान उनको कुक्षी-पेट के दोनों ओर का भाग पीन एवं उन्नत हैं, झसोयरापम्हविअडणाभी उनका पेट, मगरमच्छ के समान और नाभि पद्म के समान प्रकट होती है, सण्णयपासा पार्श्व - छाती और पेट का दाहिना और बायाँ भाग नीचे झुके हुए, संगयपासा - पार्श्व संगत-मिले हुए हैं, सुंदरपासा- उनके पार्श्व सुन्दर हैं, सुजायपासा उनके पार्श्व सुजात-अच्छे होते हैं, मियमाइयपीणरइयपासा उनके पार्श्व मीत- प्रमाण युक्त उन्नत एवं सुन्दर होते हैं, अकरंडुयकणगरुयगणिम्मलसुजायणिरुवहयदेहधारी उनकी पीठ पर मांस चढ़ा हुआ होने के कारण हड्डियाँ दिखाई नहीं देती और शरीर नीरोग, निर्मल तथा सोने के समान कान्तियुक्त होता है, कणगंसिलातलपसत्यसमतलउवइयविच्छिण्णपिहुलवच्छा - उनका वक्ष स्थल सोने की शिला के समान प्रशस्त समतल तथा मांसल और विस्तीर्ण होता है, जुयसण्णिभपीणरइयपीवरपउट्ठ - हाथ का पहुँचा गाड़ी के जुए के समान मोटा और रमणीय है, संठिय-सुसिलिट्ठ - विसिठ्ठलट्ठसुणिवियघणथिरसुवद्ध संधी उनकी हड्डियों का सन्धि स्थान उत्तम संस्थान युक्त, सुसंगठित मनोज्ञ, गाढ़ - - - - - १७१ For Personal & Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०४ **************************************************************** स्थिर तथा स्नायुओं से भली प्रकार बंधा होता है, पुरवरफलिहवट्टियभुया - नगर-के द्वार की उत्तम अर्गला-भोगल के समान उनकी भुजाएँ गोल होती हैं। . भावार्थ - पुनः उत्तरकुरु और देवकुरु के वनों में रहकर, बिना किसी वाहन के, अपने पैरों से चलने-विचरण करने वाले मनुष्यगण भी उत्तम भोगों से युक्त हैं। उनके अंग-प्रत्यंग पर भोगश्री को प्रकट करने वाले श्रीवत्स आदि उत्तम लक्षण होते हैं। भोगश्री (लक्ष्मी) उनके अधीन होती है। उनकी आकृति शुभ-प्रशस्त एवं उत्तम होती है। वे सौम्य तथा दर्शनीय होते हैं। उनके सभी अंगोपांग सुन्दर होते हैं। उनकी हथेलियाँ और पाँवतलियाँ, रक्त कमल के समान लाल, कोमल एवं मनोहर होती है। उनके पाँव कछुए के समान सुन्दर तथा सुप्रतिष्ठित होते हैं। उनके पाँवों की अंगुलियाँ क्रमशः बड़ीछोटी तथा पतली होती है। उनकी अंगुलियों के नाखुन उन्नत, पतले, चमकीले तथा ताम्र के समान वर्ण वाले होते हैं। पाँवों के टखने सुघटित एवं पुष्ट होते हैं। उनकी जंघाएँ हिरनी और कुरुविन्द वृक्ष के - समान गोल और क्रमशः स्थूल होती है। उनके घुटने, डिब्बे पर लगे हुए ढक्कन की मिली हुई सन्धि के समान, ऐसे पुष्ट होते हैं कि जिसके कारण हड्डी उभरी हुई दिखाई नहीं देती। उनकी चाल मस्त हाथी के समान, विक्रम एवं विलास युक्त होती है। उनका पुरुषांग उत्तम घोड़े के समान गुप्त होता है। उनका मलद्वार आकीर्ण जाति के घोड़े के समान निलेप होता है। उनकी कमर, उत्तम घोड़े और सिंह से भी अधिक गोल एवं पतली होती है। उनकी नाभि, गंगा के आवर्त के समान दक्षिणावर्त वाली और सूर्य की किरणों के प्रभाव से विकसित कमल के समान गंभीर होती है। उनका मध्य भाग संक्षिप्त, तिपाई, मूसल का मध्य भाग, काच का हत्था और शुद्ध स्वर्ण से बनी हुई तलवार की मूठ तथा उत्तम .. वज्र के समान कृश होता है। उनकी रोमावली परस्पर मिली हुई, स्वभाव से ही सुन्दर, सूक्ष्म, स्निग्ध, अत्यन्त कोमल, श्याम वर्ण वाली तथा मनोहर होती है। उनकी दोनों कुक्षियाँ, मत्स्य और पक्षी के समान पीन एवं उन्नत होती है। उनका पेट भी मत्स्य के पेट जैसा यथावस्थित रहता है। उनकी नाभि पद्म के समान प्रकट होती है। उनका पार्श्व भाग नीचे की ओर झुका हुआ होता है। वह संगत, सुन्दर, सुगढ़, प्रमाणयुक्त, उन्नत एवं मांसल होता है और रमणीय लगता है। उनकी पीठ भी मांसल होती हैं, जिससे हड्डियाँ दिखाई नहीं देती। उनका शरीर सोने के समान कान्तियुक्त निर्मल तथा नीरोग होता है। उनका वक्ष स्थल सोने की शिला के समान प्रशस्त, समतल, मांसल एवं विस्तीर्ण होता है। उनके हाथ के पहुंचे गाड़ी के जुए के समान मोटे और रमणीय होते हैं। उनकी हड्डियों का सन्धि स्थान अच्छे संस्थान से युक्त, सुसंगठित, गाढ़, स्थिर, स्नायुओं से बँधा हुआ एवं मनोज्ञ होता है। उनकी भुजाएँ नगर द्वार की उत्तम अर्गला के समान गोल होती है। भुयईसरविउल-भोगआयाणफलिउच्छूढ-दीहबाहू रत्ततलोवतिय मउयमंसलसुजायलक्खणपसत्थ-अच्छिद्दजालपाणी पीवरसुजायकोमलवरंगुली तंबतलिण For Personal & Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ **************************************************************** अकर्मभूमिज-मनुष्यों के भोग सुइरुइलणिद्धणखा णिद्धपाणिलेहा चंदपाणिलेहा सूरपाणिलेहा संखपाणिलेहा चक्कपाणिलेहा दिसासोवत्थियपाणिलेहा रविससिसंखवर चक्क दिसासोवत्थियविभत्तसुविरइयपाणिलेहा वरमहिसवराह सीहसहुलरिसहणागवरपडिपुण्णविउलखंधा चउरंगुलंसुप्पमाणकंबुवरसरिसग्गीवा अवट्टियसुविभत्तचित्तमंसू उवचियमंसलपसत्थसहुलविउलहणुया ओयवियसिलप्पवालबिंबफलसण्णिभाधरोट्ठा पंडुरससिसकलविमलसंखगोखीरफेणकुंददगरयमुणालियाधवलदंतसेढी अखंडदंता अप्फुडियदंता अविरलदंता सुणिद्धदंता सुजायदंता एगदंतसेढिव्व अणेगदंता हुयवहणिद्धंतधोयतत्ततवणिज्जरत्ततला तालुजीहा गरुलायतउज्जुतुंगणासा अवदालियपोंडरीयणयणा कोकासियधवलपत्तलच्छा आणामियचावरुइल- . किण्हब्भराजि-संठियसंगयायसुजायभुमगा अल्लीणपमाण-जुत्तसवणा सुसवणा पीणमंसलकवोलदेसभागा अचिरुग्गयबालचंदसंठियमहाणिलाडा उडुवइरिवपडिपुण्णसोमवयणा छत्तागारुत्तमंगदेसा घणणिचियसुबद्धलक्खणुण्णय-कूडागारणिभपिडियंग्गसिरा हुयवहणिद्धंतधोयतत्ततवणिज्जरत्तकेसंतकेसभूमी सामलीपोंडघणणिचियछोडिय-मिउविसतपसत्थसुहु मलक्खणसुगंधिसुंदरभुयमोयगभिंगणीलकज्जल-पहट्ठभमरगणणिद्धणि-गुरुंबणिचियकुंचियपयाहिणावत्तमुद्धसिरया सुजायसुविभत्तसंगयंगा। शब्दार्थ - भुयईसरविउल - भुजगेश्वर विपुल-महानाग के समान महान् विस्तीर्ण; भोगआयाणफलिउच्छूढ - अपने स्थान से बाहर निकली हुई परिघा के समान (दीहबाहू) लम्बे बाहुभुजा, रत्ततलोवतियउयमंसलसुजायलक्खणपसत्थ - हाथों के तलुए लाल वर्ण के कोमल, मांसल और प्रशस्त लक्षणों से युक्त होते हैं, अच्छिद्दजालपाणी - हाथों की अंगुलियाँ मिलाने पर छिद्र नहीं रहते, पीवरसुजायकोमलवरंगुली - उनकी अंगुलियाँ लम्बी, पुष्ट, सुनिष्पन्न और कोमल हैं, तंबतलिणसुइरुइलणिद्धणखा - उनके नाखुन ताम्रवर्ण के-लाल, पतले, निर्मल, चमकीले तथा स्निग्ध होते हैं, णिद्धपाणिलेहा - हाथों की रेखाएँ स्निग्ध होती हैं, चंदपाणिलेहा - हाथों की रेखाएँ चन्द्रमा के समान हैं, सूरपाणिलेहा - हाथ की रेखाएँ सूर्य के समान, संखपाणिलेहा - शंखाकृति, चक्कपाणिलेहा - चक्र चिह्न वाले हैं, दिसासोवत्थियपाणिलेहा - हाथ में दक्षिणावर्त स्वस्तिक की आकृति वाली रेखा होती है, रविससिसंखवरचक्कदिसासोवत्थियविभतसुविरइयपाणिलेहा - उनके हाथों में सूर्य, चन्द्र, शंख, चक्र, दक्षिणावर्त शंख आदि चिह्न भली प्रकार से अंकित होते हैं, वरमहिसवराहसीहसहुलरिसहणागवर-पडिपुण्णविउलखंधा - उनका स्कन्ध-कन्धा श्रेष्ठ भैंसा, सूअर, For Personal & Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०४ *********************************************************** सिंह, वृषभ और हस्ती के कन्धे के समान पुष्ट, दृढ़ एवं विस्तीर्ण है, चउरंगुलसुप्पमाणकंबुवरसरिसग्गीवा - उनकी गर्दन उत्तम शंख के समान चार अंगुल प्रमाण वाली होती है, अवट्ठियसुविभतचित्तमंसू - उनकी मूंछे अवस्थित-न बड़ी, न छोटी प्रमाणयुक्त तथा विचित्र शोभा वाली होती है, उवचियमंसलपसत्थसहुलविउलहणुया - उनका जबड़ा या ठुड्डी सार्दुल सिंह के समान मांसल, विशाल एवं प्रशस्त होती है, ओयवियसिलप्पवालबिंबफलसण्णिभाधरोहा - उनका अधरोष्ठ संस्कारित शिलप्रवाल और बिंबफल के समान लाल होता है, पंडुरससिसकलविमलसंखगोखीरफेणकुंददगरयमुणालियाधवलदंतसेढी - उनके दाँतों की पंक्ति निर्मल चन्द्र, शंख, गाय के दूध के फेणझाग कुन्दपुष्प, जलप्रवाह में उछलते हुए कणों-जलकण और कमलिनी के मूल-मृणाल के समान निर्मल तथा श्वेत होती है, अखंडदंता - उनके दाँत अखंड-पूर्ण होते हैं, अप्फुडियदंता - अस्फुटितबिना कटे हुए-तड़ रहित, अविरलदंता - अविरल-अन्तर रहित-घने दाँत, सुणिद्धदंता - स्निग्ध-चिकने दाँत, सुजायदंता - सुनिर्मित-सुन्दर दाँत, एगदंतसेढिव्व अणेगदंता - एक पंक्ति में समान रूप से रहे हुए अनेक दाँत वाले, हुयवहणिद्धंतधोयतत्ततवणिज्जरत्ततला - आग से जिसका मैल जला दिया और धोकर निर्मल बना दिया ऐसे स्वर्ण के समान लाल तल हैं जिनके ऐसे (तालुजीहा) तालु और जिव्हा वाले, गरुलायतउज्जुतुंगणासा - उनकी नासिका गरुड़ की चोंच जैसी लम्बी, ऊंची और सीधी होती है, अवदालियपोंडरीयणयणा - विकसित हुए पुण्डरीक-श्वेत कमल के समान आँखें हैं जिनकी, कोकासियधवलपत्तलच्छा - प्रमुदित एवं धवल है उनकी भौंह युक्त आँखें, आणामियचावरुइलकिण्हब्भराजिसंठियसंगयायसुजायभुमगा - उनकी भ्रकुटी धनुष के समान वक्र, कृष्ण रोमराजि से परिपूर्ण विशाल और सुन्दर होती है, अल्लीणपमाणजुतसंवणा - उनके कान सुन्दर तथा प्रमाण युक्त, सुसवणा - अच्छी श्रवण शक्ति वाले होते हैं, पीणमंसलकवोलदेसभागा- उनके कपोल गाल पुष्ट एवं मांसल होते हैं, अचिरुग्गयबालचंदसंठियमहाणिलाडा - उनका महा ललाट बाल चन्द्रअष्टमी के चन्द्रमा के समान आकृति वाला होता है, उडुवइरिवपडिपुण्णसोमवयणा - उनका मुख पूर्णचन्द्रमा के समान सौम्य होता है, छत्तागारुतमंगदेसा - जिनका मस्तक छत्र के समान होता है घणणिचियसुबद्धलक्खणुण्णयकुडागारणिभपिंडियग्गसिरा - मस्तक का अग्रभाग लोह-मुद्गर के समान सुदृढ़ स्नायुओं से आबद्ध उत्तम लक्षणों से युक्त तथा शिखर के समान गोल एवं उन्नत होता है हुयवहणिद्धंतधोयतत्ततवणिज्जरत्तकेसंतकेसभूमी - उनके मस्तक की चमड़ी-केशभूमि अग्नि में तपाये हुए सोने के समान लाल होती है, सामलिपोंडघणणिचियछोडियमिउविसतपसत्थसुहुमलक्खणसुगंधिसुंदरभुयभोयगभिंगणीलकज्जलपहट्ठभमरगणणिद्धणिगुरुंबणिचियकुंचियपयाहिणावत्तमुद्धसिरयाउनके मस्तक के बाल शाल्मली वृक्ष के समान अत्यन्त घन, सुकुमार सूक्ष्म, शुभ लक्षण युक्त, सुगंध वाले भुजमोचक रत्न, काजल तथा प्रसन्न भ्रमर समूह के समान काले, चिकने और दक्षिण की ओर मुड़े हुए होते हैं, सुजायसुविभत्तसंगयंगा - उनके अंगों की रचना अत्यन्त सुन्दर एवं सुघड़ होती है। For Personal & Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकर्मभूमिज मनुष्यों के भोग ' भावार्थ - अकर्मभूमि के मनुष्यों के बाहु सर्पराज के समान तथा महाद्वार की रोक बाहर निकली हुई अर्गला के समान लम्बी सुन्दर होती है। उनकी हथेलियाँ लाल रंग वाली कोमल मांसल और स्वस्तिकादि शुभ चिह्नों से युक्त होती हैं। उनके अंगुलियाँ भी घन - छिद्र - रहित, लम्बी, पुष्ट, सुन्दर एवं कोमल होती है। उनके नख ताम्रवर्ण (लाल) चमकदार, चिकने और निर्मल होते हैं। हाथों की रेखाएँ स्निग्ध तथा चन्द्रमा के समान होती है। उनमें सूर्य, शंख और चक्र की आकृति होती है। उनकी हथेली में दक्षिणावर्त्त स्वस्तिक के समान रेखा होती है तथा सूर्य, चन्द्र, शंख, चक्र, दक्षिणावर्त्त स्वस्तिक आदि शुभ चिह्न पृथक्-पृथक् होते हैं। उनका कन्धा उत्तम भैंसे, सूअर, सिंह, वृषभ तथा हाथी के समान विशाल एवं पुष्ट होता है। उनकी गर्दन उत्तम शंख के समान चार अंगुल वाली, उन्नत तथा तीन रेखाओं से युक्त होती है। उनकी मूँछ अवस्थित (न अति बड़ी और न अति छोटी) प्रमाणोपेत तथा विचित्र शोभा वाली होती है। उनके मुँह का जबड़ा (ठुड्डी) सिंह के समान विशाल, सुन्दर और भरा हुआ होता है । उनका अधरोष्ठ संस्कारित शिलप्रवाल (विद्रुम मणि) और बिम्ब फल के समान लाल वर्ण का होता है। उनके दाँतों की पंक्ति चन्द्रमा, निर्मल शंख, गाय दूध के झाग, कुन्द पुष्प, जलकण और कमलनाल के समान निर्मल एवं श्वेत होती है । उनके दाँत अखण्ड, तड़रहित, अविरल (अन्तर - रहित) चमकते हुए सुन्दर तथा एक ही पंक्ति में अनेक बँधे हुए पूर्ण (३२) होते हैं। उनका तालु और जिव्हा का रंग अग्नि में तपा कर शुद्ध बनाए हुए सोने के समान लाल होता है। उनकी नासिका गरुड़ के समान लम्बी सीधी और ऊँची होती है। उनके नेत्र विकसित कमल के समान हर्ष पूर्ण श्वेत और भौंह युक्त होते हैं। उनकी भ्रकुटी, धनुष के समान झुकी हुई, विशाल और . कालीरोमराजि से परिपूर्ण एवं सुन्दर होती है। उन युगलिक पुरुषों के कान प्रमाणयुक्त तथा सुन्दर हैं तथा श्रवण शक्ति भी अच्छी है। उनके कपोल पुष्ट एवं भरावदार होते हैं। उनका भाल ( ललाट) बाल-चन्द्र (अष्टमी के अर्द्ध चन्द्रमा) के आकार के समान विस्तृत एवं शोभायमान होता है। उनका मुख पूर्णिमा के चाँद के समान गोल तथा सौम्य कान्ति वाला होता है। उनका मस्तक छत्र के समान और मस्तक का अग्रभाग लोहे के मुद्गर के समान दृढ़-स्नायुओं से दृढ़तापूर्वक बँधा हुआ, भवन के शिखर के समान गोल, उन्नत तथा शुभ लक्षणों से सम्पन्न होता है । मस्तक की चमड़ी (केशान्त भूमि) तपाये हुए शुद्ध सोने के समान लाल होती है। उनके मस्तक के बाल शाल्मली वृक्ष के समान अत्यन्त घने, कोमल, सूक्ष्म उत्तम लक्षणों से युक्त और सुगन्धित होते हैं। बालों का वर्ण भुजमोचक रत्न, काजल और भ्रमर के प्रसन्न झुण्ड के समान काले और स्निग्ध हैं तथा दक्षिण की ओर झुके हुए होते हैं। उनके शरीर के सभी अंगों का गठन अत्यन्त सुन्दर एवं सुसंगत होता है। विवेचन - देवकुरु और उत्तरकुरु क्षेत्र 'अकर्मभूमि' कहलाती है । वहाँ के मनुष्य 'युगलिक' कहलाते हैं। वे पुत्र और पुत्री के रूप में एक साथ ही जन्म लेते हैं। वे मनुष्य न तो किसी प्रकार का १७५ For Personal & Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ०४ **************************************************************** उद्योग करते हैं न व्यवसाय। उनका जीवन कल्पवृक्षों के सहारे चलता है। वे प्रकृति से शान्त, प्रशस्त लेश्या वाले, क्रोधादि की अल्पता वाले और संग्रह-विग्रह से रहित सुखोपभोग में जीवन व्यतीत करने वाले होते हैं। किसी प्रकार का उद्योग और व्यवसाय रूपी कर्म नहीं करके, जीवन भर आमोद-प्रमोद में रहने के कारण इन्हें 'अकर्मभूमिज' कहते हैं। अकर्मभूमियाँ तीस हैं। हमारे भरत क्षेत्र और एरवतक्षेत्र में भी अवसर्पिणी काल के तीन आरे में अकर्मभूमिज (देवकुरु उत्तरकुरु क्षेत्र जैसे) युगलिक मनुष्य होते हैं। तीसरे आरे के उत्तर विभाग में अकर्मभूमि में परिवर्तन आकर कर्मभूमि का प्रभाव बढ़ने लगता है। उपरोक्त अकर्मभूमिज मनुष्यों की शारीरिक ऋद्धि और कामभोग का वर्णन इस. सूत्र में हुआ है। लक्खणवंजणगुणोववेया पसत्थबत्तीसलक्खणधरा हंसस्सरा कुंचस्सरा दुंदुभिस्सरा सीहस्सरा उज्जस्सरामेहस्सरा सुस्सरा सुस्सरणिग्घोसा वन्जरिसहणारायसंघयणा समचउरंससंठाणसंठिया छायाउज्जोवियंगमंगा पसत्थच्छवी णिरातंका कंकग्गहणी कवोयपरिणामा सउणिपोसपिटुंतरोरुपरिणया पउमुप्पलसरिसगंधुस्साससुरभिवयणा अणुलोमवाउवेगा अवदायणिद्धकाला विग्गहियउण्णयकुच्छीअमयरसफलाहारा तिगाउयसमूसिया तिपलिओवमट्ठिइया तिण्णि य पलिओवमाइं परमाउं पालइना ते वि उवणंमंति मरणधम्मं अवितत्ता कामाणं। शब्दार्थ - लक्खणवंजणगुणोववेया - लक्षण, व्यंजन और गुणों से युक्त, पसत्थबत्तीसलक्खणधरा - प्रशस्त बत्तीस लक्षणों के धारक, हंसस्सरा- हंस के समान स्वर, कुंचस्सरा - क्रोंच के समान स्वर, दुंदुभिस्सरा - दुंदुभी जैसा स्वर, सीहस्सरा - सिंह के समान स्वर, उज्जस्सरा - ऋजुस्वर, मेहस्सरा - मेघ के समान स्वर, सुस्सरा - सुस्वर, सुस्सर-णिग्घोसा - सुन्दर निर्घोष स्वर वाले, वज्जरिसहणारायसंघयणा - वज्र-ऋषभ-नाराच संहनन वाले, समचउरंससंठाणसंठिया - समचतुरस्र संस्थान से युक्त, छायाउज्जोवियंगमंगा - उनके अंगोपांग कान्ति से युक्त होते हैं, पसत्थच्छवी - शरीर की प्रशस्त शोभावाले, णिरातंका - रोग के आतंक से रहित, कंकग्गहणी - उनका मलद्वार, कंक पक्षी की गुदा के समान नीरोग होता है अथवा कंकं पक्षी के समान स्वल्प आहार से संतुष्ट होने वाले होते हैं । __ कवोयपरिणामा - कपोत के समान आहार को शीघ्र पचाने वाले, सउणिपोस - पक्षी के समान निर्लेप मलद्वार वाले, पिटुंतरोरुपरिणया - उनकी पीठ, पार्श्व और उदर सुन्दर और प्रमाणं युक्त है, पउमुप्पलसरिसगंधुस्साससुरभिवयणा - उनका श्वासोच्छ्वास पद्म एवं उत्पल कमल के समान * "कंकस्य पक्षिविशेषस्येवआहारग्रहणं येषां ते अल्पाहारेण संतुष्ठा इत्यर्थ" - श्री ज्ञानविमलसूरि वृत्ति। For Personal & Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ****** अकर्मभूमिज स्त्रियों का शारीरिक वैभव १७७ *** *** *************************** ** सुगन्धित है और मुंह सुगन्धित युक्त होता है, अणुलोमवाउवेगा - शरीरस्थ वायु का वेग अनुकूल होता है, अवदायणिद्धकाला - वे गौर-वर्ण स्निग्ध तथा श्याम वर्ण वाले होते हैं, विग्गहियउण्णय कुच्छीउनकी कुक्षि, शरीर के अनुकूल व उन्नत होती है, अमयरसफलाहारा - वे अमृत रस के समान फलों का आहार करते हैं, तिगाउयसमूसिया - उनके शरीर की लम्बाई तीन गाउ-कोश-की होती है, तिपलिओवमट्ठिइया - वे तीन पल्योपम की स्थिति वाले होते हैं, तिणि य पलिओवमाइं परमाउं पालइत्ता - वे अपनी तीन पल्योपम की उत्कृष्ट आयु भोग कर, उवणमंति मरणधम्म - मृत्यु को प्राप्त होते हैं, अवितत्ता कामाणं - कामभोगों से अतृप्त रह कर ही। भावार्थ - वे स्वस्तिकादि उत्तम. लक्षणों और तिलमसादि शुभ व्यञ्जनों तथा गुणों से युक्त होते हैं। वे बत्तीस प्रकार के उत्तम लक्षणों के धारक होते हैं। उनका कण्ठ स्वर हंस के समान स्निग्ध, क्रोंच के समान सुरीला एवं मृदु, दुंदुभि के समान गम्भीर सिंह के समान प्रवर्द्धमान और मेघ के समान दिशाओं को व्याप्त करने वाला होता है। उनका स्वर सरल, सुखद एवं सुन्दर होता है। उनका शरीर वज्र-ऋषभ-नाराच संहनन वाला और समचतुरस्र संस्थान युक्त होता है। उनके अंगोपांग कान्ति से दमकते हुए और शोभायमान होते हैं। उनका शरीर रोग-रहित होता है। वे कंक पक्षी के समान थोड़े से आहार से ही संतुष्ट हो जाते हैं। उनकी जठराग्नि कपोत के समान आहार को शीघ्र पचाने वाली होती है। उनका मलद्वार पक्षी की गुदा के समान निर्लेप रहता है। उनकी पीठ और दोनों पार्श्व तथा पेट, उचित परिमाण युक्त एवं सुन्दर होता है। वे अमृत के समान श्रेष्ठ रस वाले फलों का आहार करते हैं। उनके शरीर की लम्बाई तीन कोश की और आयु तीन पल्योपम की होती है। वे अपनी सम्पूर्ण आयु भोग कर, कामभोग में अतृप्त रहते हुए ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। - विवेचन - पसत्थ बत्तीस लक्खणधरा - प्रशस्त लक्षणों के धारक। वे शुभ लक्षण बत्तीस हैं। यथा १. छत्र २. कमल ·३. धनुष ४. श्रेष्ठ रथ ५. वज्र ६. कुर्म ७. अंकुश ८. वापी ९. स्वस्तिक १०. तोरण ११. तालाब १२: सिंह १३. वृक्ष १४. चक्र १५. शंख १६. गज १७. समुद्र १८. प्रासाद १९. मच्छ २०. यव २१. स्तंभ २२. स्तूप २३. कमंडलु २४. पर्वत २५. चामर २६. दर्पण २७. वृषभ २८. पताका २९. लक्ष्मी ३०. माला ३१. मयूर और ३२. पुष्प। .... अकर्मभूमिज स्त्रियों का शारीरिक वैभव पमया वि य तेसिं होति सोम्मा सुजायसव्वंगसुंदरीओ पहाणमहिलागुणेहिं जुत्ता अइकंतविसप्पमाणमउयसुकुमालकुम्मसंठियसिलिट्ठचलणा उज्जुमउयपीवरसुसाहयंगुलीओ अब्भुण्णयरइयत्तलिणतंबसुइणिद्धणखा रोमरहियवट्टसंठियअजहण्णपसत्थलक्खणअकोप्पजंघजुयला सुणिम्मियसुणिगूढजाणू-मंसलपसत्थसुबद्धसंधी For Personal & Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ प्रश्नव्याकरणं सूत्र श्रु० १ अ० ४ **** कयलीखंभाईरेकसंठिय- णिव्वणसुकुमालमउयकोमलअविरलसमिसहियसुजायवट्टपीवरणिरंतरोरू अट्ठावयवीइपट्टसंठियपसत्थविच्छिण्णपिहुलसोणी वयणायामप्पमाण दुगुणियविसालमंसलसुबद्धजहणवरधारिणीओ वज्जविराइय-पसत्थलक्खणणिरोदओ तिवलिवलियतणुणमियमज्झियाओ उज्जुयसमसहियजच्चतणुक सिणणिद्धआइज्जलडहसुकुमालमउयसुविभत्त - रोमराईओ गंगा-वत्तगपदाहिणावत्ततरंगभंगरविकिरणतरुणबोहियआकोसायंत पउमगंभीरवियडणाभी अणुब्भडपसत्थसुजायपीणकुच्छी सण्णयपासा सुजायपासा संगयपासा मियमाणियपीणरइयपासा अकरंडुयकणगरुयग-णिम्मलसुजायणिरुवहयगायलट्ठी कंचणकलसपमाणसमसहियलट्ठ-चुंचुयआमेलग-जमलजुयलवट्टियपयोहराओ भुयंगअणुपुव्वतणुयगोपुच्छवट्ट समसहियणमिय- आइज्जलडहबाहा तंबणहा मंसलग्गहत्था कोमल-: पीवरवरंगुलिया णिद्धपाणिलेहा ससिसूरसंखचक्कवरसोत्थियविभक्तसुविरइयपाणिलेहा | शब्दार्थ- पमयावि प्रमदा- स्त्रियाँ भी, तेसिं उनकी, होंति होती है, सोम्मा सौम्य, सुजायसव्वंगसुंदरीओ- उनका शरीर और अंग सुघड़ तथा सुन्दर होता है, पहाणमहिलागुणेहिं जुत्तावे महिलाओं के खास-खास गुणों से युक्त होती हैं, अइक्तविसप्पमाण- मउयसुकुमालकुम्मसंठियसिलिट्ठचलणा उनके पाँव प्रमाण युक्त अत्यन्त सुन्दर, कोमल एवं सुकुमार और कछुए के समान आकृति वाले उन्नत होते हैं, उज्जुमउयपीवरसुसाहयंगुलीओ उनके पाँव की अंगुलियाँ सीधी, पुष्ट, कोमल, परस्पर मिली हुई और मनोहर होती है, अब्भुण्णयरइत्तलिणतंबसुइणिद्धणखा - उनके नख उन्नत मनोहर ताम्रवर्णी चिकने तथा चमकीले होते हैं, रोमरहियवट्टसंठियअजहण्णपसत्थलक्खणअकोप्पजंघजुयला उनकी दोनों जंघाएँ रोम रहित, गोल, अनेक प्रशस्त लक्षणों से युक्त तथा मनोहर होती हैं, सुणिम्मियसुणिगूढजाणूमंसलपसत्थसुद्धबसंधी - घुटने की सन्धियाँ भी प्रकार से जुड़ी हुई और स्नायुओं से बद्ध होती है तथा मांस से युक्त होने के कारण दिखाई नहीं देतीं, कयलीखंभाइरेकसंठियणिव्वणसुकुमालमउयकोमलअविरलसमिसहियसुजायवट्टपीवरणिरंतरोरू उनकी जंघाओं का ऊपर का भाग, कदली स्तंभ से भी अधिक सुन्दर गोल, व्रणादि के घाव चिह्न से रहित, सुकुमार अत्यन्त कोमल, परस्पर मिला हुआ, पुष्टं, प्रमाणयुक्त एवं शुभ लक्षणों से युक्त है, - - * पूज्य श्री हस्तीमलजी म. सा. अनुबादित प्रति में इस स्थान पर "पउमगंभीरवियडणाभी अणुब्भड -पसत्थसुजायपीणकुच्छी सण्णय" इतना पाठ छूट गया है। संस्कृत छाया और अन्वयार्थ में तो इनका उल्लेख है। इससे लगता है कि लिपिकार अथवा कम्पोज में यह पाठ छूट गया है- डोशी । - For Personal & Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकर्मभूमिज स्त्रियों का शारीरिक वैभव १७९ **************************************************************** अट्ठावयवीइपट्ठसंठियपसत्थविच्छिण्णपिहुलसोणी - उनका कटिभाग चौपड़-पट्ट - चौपड़ खेलने के लिए बने हुए रेखांकित पटिये-के समान विस्तीर्ण तथा प्रशस्त होता है वयणायामप्पमाणदुगुणियविसालमंसलसुबद्धजहणवरधारिणीओ - कटि का अग्रभाग-नितम्ब-मुख के प्रमाण से द्विगुण-चौबीस अंगुल विस्तृत, सुबद्ध, पुष्ट एवं विशाल होता है वज्जविराइयपसत्थलक्खणणिरोदरीओवज्र के समान कृश तथा प्रशस्त लक्षणों से युक्त उदरावली तिवलिवलियतणुणमियमज्झियाओ - उदर तीन रेखाओं से शोभित तथा नम्र-झुका हुआ है उज्जुयसमसहियजच्चतणुकसिणणिद्धआइज्जलडहसुकुमालमउयसुविभत्तरोमराइओ - उनके शरीर की रोमावली अत्यन्त सूक्ष्म, काली, सम, सघन, स्निग्ध, रम्य, ललित, सुकुमाल, कोमल, विभक्त एवं रमणीय होती है गंगावत्तगपदाहिणावत्ततरंगभंगरविकिरणतरुणबोहियआकोसायंतपउमगंभीरवियडणाभी - उनकी नाभि, गंगा नदी के जल में बनते हुए आवर्त के समान दक्षिणावर्त वाली तथा सूर्य की किरणों से विकसित कमल के समान और गंभीर होती है, अणुब्भडपसत्थसुजायपीणकुच्छी - उनकी कुक्षि उन्नत, प्रशस्त सुन्दर तथा पुष्ट होती है, सण्णयपासा ,- पार्श्व नीचे की ओर झुके हुए, सुजायपासा - सुजात-सुघढ़ पार्श्व, संगयपासा - मिले हुए पार्श्व, मियमाणियपीणरइयपासा - उनके पार्श्व प्रमाणयुक्त उन्नत एवं सुन्दर होते हैं, अकरंडुयकणगरुयगणिम्मलसुजायणिरुवहयगायलट्ठी - उनकी पीठ मांसल-जिससे हड्डियाँ दिखाई नहीं देती, नीरोग, निर्मल, सोने के समान कांति वाली होती है, कंचणकलस पमाणसमहियलट्ठचुचुयआमेलगजमलजुयलवट्टियपयोहराओ - उनके दोनों पयोधर-स्तन, स्वर्ण कलश के समान, प्रमाणयुक्त, सुन्दर, गोल, उन्नत, परस्पर मिले हुए दोनों समान, सुन्दर चुंचक-स्तन-बिटक युक्त होते हैं, भुयंगअणुपुवतणुयगोपुच्छवट्टसमसहियणमियआइज्जलडहबाहा - भुजाएँ सर्प के समान क्रमशः पतली, स्निग्ध, गोपुच्छ के समान गोल, प्रमाणोपेत नम्र तथा सुन्दर होती है, तंबणहा - ताम्रवर्ण के नख, मंसलग्गहत्था - हाथ का अग्रभाग मांसल, कोमलपीवरवरंगुलिया - अंगुलियाँ कोमल और पुष्ट होती है, णिद्धपाणिलेहा - उनके कोमल-मुलायम, हाथ शुभ रेखा से युक्त होते हैं, ससिसूरसंखचक्कवरसोत्थियविभत्तसुविरइयपाणिलेहा - हाथों में चन्द्र, सूर्य, शंख, चक्र, दक्षिणावर्त, शंख' आदि चिह्न सुन्दर रूप में रेखांकित है। भावार्थ - 'देवकुरु' और 'उत्तरकुरु' नाम की अकर्मभूमि के पुरुषों की प्रमदाएँ (स्त्रियाँ) भी बड़ी सौम्य एवं सुन्दर होती है। उनके शरीर और अंगोपांग सुन्दर होते हैं। वे महिलाओं के हाव-भाव, विलास आदि मुख्य गुणों से युक्त होती हैं। उनके पाँव प्रमाणयुक्त अत्यन्त सुन्दर सुकुमाल तथा कछुए के समान आकार से उन्नत होते हैं। पाँवों की अंगुलियाँ सीधी, पुष्ट, कोमल, परस्पर मिली हुई और मनोहर होती हैं। नख उन्नत, ताम्रवर्ण वाले, स्निग्ध तथा चमकीले होते हैं। उनकी दोनों जंघाएँ (पिण्डलियाँ ?) गोल, पुष्ट, रोमरहित, मांगलिक-चिह्नांकित और मनोहर होती है। घुटनों की संधियाँ । भली प्रकार से जुड़ी हुई, मांस से आच्छादित और स्नायुजाल से बद्ध एवं पुष्ट होने के कारण घुटनों की For Personal & Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० ४ ****** संधियाँ दिखाई नहीं देती। उनकी ऊपर की जंघाएँ कदलि-स्तंभ से भी अतिशय आकार वाली सुन्दर, गोल वर्णादि के छिद्र से रहित अत्यन्त कोमल, पुष्ट, परस्पर मिली हुई, प्रमाणयुक्त तथा शुभ लक्षणों सहित होती है। उनका कटिभाग, चौसर ( खेलने की चौपड़ या शतरंज) की रेखाओं से अंकित पटिये के समान विस्तीर्ण एवं प्रशस्त होता है । नितम्ब - भाग मुख के प्रमाण से दुगुना (चौबीस अंगुल ) विस्तृत, सुबद्ध और पुष्ट होता है। वज्र के समान कृश तथा प्रशस्त लक्षणों से युक्त उनका उदर होता है । शरीर का मध्य-भाग तीन रेखाओं से मण्डित तथा नम्र होता है। रोमावली सूक्ष्म, काली, सम, घन, स्वाभाविक, स्निग्ध, रम्य, ललित, सुकुमाल, कोमल, विभाजित तथा रमणीय होती है। उनकी नाभि गंगा - महानदी के जल में बनते हुए आवर्त के समान दक्षिण- आवर्त वाली सूर्य की किरणों से खिले हुए कमल के समान विकसित तथा गम्भीर होती है। उनकी कुक्षि उन्नत, प्रशस्त सुन्दर तथा पुष्ट होती है, उनके दोनों ओर के पार्श्व, नीचे की ओर झुके हुए, सुन्दर, संगत, प्रमाण युक्तं पुष्ट एवं मनोहर होते हैं। उनकी पीठ की हड्डियाँ दिखाई नहीं देती। शरीर सोने के समान कांति वाला, निर्मल, सुन्दर तथा रोगरहित होता है । उनके दोनों स्तन स्वर्ण कलश समान प्रमाणयुक्त, गोल, परस्पर सटे हुए सुन्दर चुंचुक से युक्त एवं मनोहर होते हैं। उनकी भुजाएँ साँप के समान क्रमशः पतली, स्निग्ध स्पर्श वाली, गोपुच्छ के समान गोल प्रमाणयुक्त नम्र और सुन्दर होती हैं, नख ताम्रवर्ण के तथा हाथ का अग्रभाग मांसल एवं पुष्ट होता हैं। उंगलियाँ पुष्ट तथा कोमल होती है। उनके हाथ की रेखाएँ स्निग्ध होती हैं और रेखाओं से चन्द्र, सूर्य, शंख, चक्र और स्वस्तिकादि शुभ लक्षण वाली आकृतियाँ अंकित होती हैं। पीणुण्णयकक्खवत्थीप्पएसपडिपुण्णगलकवोला चउरंगुलसुप्पमाणकंबुवरसरिसगीवा मसलसंठियपसत्थहणुया दालिमपुप्फप्पगासपीवरपलंबकुंचियवराधरा सुंदरोत्तरोट्ठा दधिदगरयकुंदचंदवासंतिमउलअच्छिद्दविमलदसणा रतुप्पलपउमपत्तसुकुमालतालुजीहा कणवीरमुउलअकुडिलअब्भुण्णयउज्जुतुंगणासा सारयणवकमलकुमुयकुवलयदलणिगरसरिसलक्खणपसत्थअजिम्हकं तणयणा आणामियचावरुइलकिण्हब्भराइसंगयसुजायतणुक सिणणिद्धभुमगा अल्लीण पमाणसुत्तसवणा सुस्सवणा पीणमट्टगंडलेहा चउरंगुलविसालसमणिडाला कोमुड़रयणियरविमलपडिपुण्णसोमवयणा छत्तुण्णयउत्तमंगा अकविलसुसिणिद्धदीहसिरया । शब्दार्थ - पीणुण्णयकक्खवत्थिप्पएसपडिपुण्णगकवोला- उनकी भुजाओं का मूल भागकाँख वस्तिप्रदेश और कपोल पुष्ट उन्नत एवं परिपूर्ण होता है, चउरंगुलप्पमाणकंबुवरसरिसगीवा - गर्दन उत्तम शंख के समान चार अंगुल प्रमाण होती है, मंसलसंठियपसत्थहणुया उनका जबड़ा उत्तम आकृतियुक्त और मांसल होता है, दालिमपुप्फप्पगासपीवरपलंबकुचियवरधरा उनके अधर-नीचे का ओष्ठ दाड़िम के पुष्ट के समान लाल, कुछ लम्बा कुछ संकुचित तथा पुष्ट होता है, सुंदरोत्तरोट्ठा - For Personal & Private Use Only 1 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मभूमि स्त्रियों का शारीरिक वैभव ****************************** ऊपर का ओष्ठ भी सुन्दर होता है, दधिदगरयकुंदचंदवासंतिमउलअच्छिद्दविमलदसणा- दाँत दही, जलकण, कुन्द, चन्द्र, और बासंती लता की कली के समान श्वेत तथा छिद्र रहित हैं, रत्तुप्पलपउमपत्तसुकुमालतालुजीहा - कमल के लाल रंग के पुष्प समान वर्ण तथा पद्म-पत्र के समान कोमल उनका तालु और जीभ होती है, कणवीरमुउलकुडिलअब्भुण्णयउज्जुतुंगणासा - उनकी नासिका कणवीर के पुष्ट की कलि के समान सीधी, अग्रभाग कुछ ऊँचा उठा हुआ सरल और उच्च होती है, सारयणवकमलकुमुयकुवलयदलणिगरसंरिसलक्खणपसत्थ अजिम्हकंतणयणा - शरदऋतु के कमल, चन्द्रविकासी कुमुद और नील कमल के पत्तों के समान प्रशस्त लक्षण वाली सरल और अतिसुन्दर उनकी आँखें होती हैं, आणामियचावरइलकिण्हब्भराइसंगयसुजायतणुकसिणणिद्ध भुमगा- उनकी भ्रकुटी धनुष के समान वक्र और काले बादलों के समान कृष्ण वर्ण वाली कोमल तथा मनोहर होती है, अल्लीणपमाणजुत्तसवणा- कान सुन्दर और प्रमाणयुक्त होते हैं, सुस्सवणा- अच्छी श्रवण शक्ति वाले, पीणमट्टगंडलेहा - कपोल पुष्ट एवं शुद्ध हैं, चउरंगुलविसालसम- णिडाला - ललाट चार अंगुल प्रमाण विशाल और समतल होता है, कोमुइरयणियरविमलपडिपुण्णसोमवयणा- कोमुदी के रजनीकरकार्तिक पूर्णिमा की रात्रि के चन्द्रमा के समान परिपूर्ण एवं सौम्य उनका मुख होता है, छत्तुण्णयउत्तमंगामस्तक छत्र के समान उन्नत होता है, अकविलसुसिणिद्धदीहसिरया मस्तक के केश काले, लम्बे और स्निग्ध होते हैं । १८१ *** भावार्थ - भुजाओं का मूल - भाग (कांख ) वस्तिप्रदेश (योनि) और कपोल पुष्ट, उन्नत तथा परिपूर्ण होता है। उनकी गर्दन उत्तम शंख के समान चार अंगुल वाली प्रशस्त होती है। उनकी ठुड्डी पुष्ट एवं सुन्दर होती । उनके अधरोष्ठ अनार के फूल के समान लाल, कुछ लम्बा, संकुचित, पुष्ट एवं मनोहर होता है और ऊपर का ओष्ठ भी सुन्दर होता है । उनके दाँत दही, जलकण, कुन्द, चन्द्र और बसंती लता की कली के समान श्वेत निर्मल और छिद्र-रहित होते हैं। उनकी जिव्हा और तालु, रक्तकमल के समान लाल और पद्मपत्र के समान कोमल होता है। उनकी नासिका कणवीर के पुष्ट की कली के समान सीधी और सरल होती है। उसका अग्रभाग कुछ ऊँचा उठा हुआ होता है। उनकी आँखें शरदऋतु के कमल, चन्द्रविकासी कुमुद और नीलकमल के पत्तों के समान प्रशस्त लक्षण वाली सरल और अत्यन्त सुन्दर होती है। उनकी भृकुटी धनुष के समान वक्र और काले बादलों के समान काली, कोमल तथा मनोहर होती है। उनके कान सुन्दर और प्रमाणयुक्त तथा अच्छी श्रवण शक्ति से युक्त होते हैं। उनके कपोल पुष्ट तथा शुद्ध होते हैं। उनका ललाट चार अंगुल - प्रमाण विशाल तथा समा । उनका मुख कौमुदी (कार्तिकी पूर्णिमा) के चन्द्रमा के समान परिपूर्ण एवं सौम्य होता है और मस्तक छत्र के समान ऊँचा होता है। मस्तक के केश काले, लम्बे और चिकने होते हैं । छत्त - ज्झय-जूव - थूभ - दामिणि - कमंडलु - कलस - वावि - सोत्थिय-पडाग जवमच्छ-कुम्भ-रहवर - मकरज्झय- अंक - थाल - अंकुस - अट्ठावय- सुपइट्ठ- अमर For Personal & Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०४ **************************************************************** सिरियाभिसेय-तोरण-मेइणि-उदहिवर-पवरभवण-गिरिवर-वरायंस-सललियगयउसभ-सीह-चामर-पसत्थबत्तीसलक्खणधरीओ हंससरिसगईओकोइल महुरगिराओ कंता सव्वस्स अणूमयाओ ववगयवलि-पलितवंग-दुव्वण्ण-वाहि-दोहग्गसोयमुक्काओ उच्चत्तेण य णराण थोवूणमूसियाओ सिंगारागारचारुवेसाओ सुंदरथणजहण-वयणकरचरणणयणा लावण्णरु वजोवणगुणोववेया णंदणवणविवचारिणिओ अच्छराओव्व उत्तरकुरुमाणुसच्छराओ अच्छे रगपेच्छणिज्जियाओ तिण्णि य पलिओवमाई परमाउं पालइत्ता ताओ वि उवणधमंति मरणधम्मं अवितत्ता कामाणं। शब्दार्थ - छत्तज्झयजूवथूभदामिणि - छत्र, ध्वजा, यूप, स्तूप, दामिनी, कमंडलुकलसवाविसोत्थिय - कमंडलु, कलश, बावड़ी, स्वस्तिक, पडागजवमच्छकुम्मरहवर - पताका यव, मत्स्य कच्छप रथ, मकरज्झयअंकथालअंकुस - मकरध्वज-कामदेव, अंकरत्न, थाल अंकुश, अट्ठावयसुपइट्ठ - अष्टापद-बाजोट सुप्रतिष्ठक अमरसिरियाभिसेयतोरणमेइणि - देव, अभिषेक युक्त लक्ष्मी, तोरण, पृथ्वी, उदहिवर - प्रधान समुद्र पवरभवण - उत्तम भवन, गिरिवर - श्रेष्ठ पर्वत वरायंस - उत्तम दर्पण, सललियगयउसभसीह - सुन्दर लीला करता हुआ हाथी, वृषभ, सिंह, चामर - चामर, पसत्थबत्तीसलक्खणधरीओ - प्रशस्त बत्तीस लक्षण धराने वाली, हंससरिसगईओ - हंस के समान गति वाली, कोइल-महुरगिराओ - कोकिल के समान मधुर स्वर वाली, कंता - कमनीय, सव्वस्सअणुमयाओ - सभी के लिए अनुमत, ववगयवलिपलितवंगं - उनके अंगादि-चमड़ी केश आदि हीनाधिक संकुचित या विकृत नहीं होते, दुव्वण्णवाहिदोहग्गसोर्यमुक्काओ - वे दुर्वर्ण, व्याधि, दुर्भाग्य और शोक से मुक्त रहती है उच्चतेण यणराण - ऊँचाई में वे नर से थोवूणमूसियाओ - कुछ कम होती है, सिंगारागारचारूवेसाओ - वे श्रृंगार रस के भवन के समान तथा सुन्दर वेश वाली होती हैं सुंदरथणजहणवयणकरचरण-णयणा - स्तन, जंघा, मुख, हाथ, पाँव और नयन सुन्दर होते हैं लावण्णरूवजोव्वण्णगुणोववेया - वे लावण्य, रूप, यौवन और गुणों से युक्त होती है णंदणवणविवरचारिणिओ - वे नन्दन वन में विचरने वाली अच्छराओव्व - अप्सराओं के समान, उत्तरकुरुमाणुसच्छराओ - उत्तरकुरु की मनुष्य रूपी अप्सराएँ हैं, अच्छेरगपेच्छणिज्जयाओ - उनका रूप आश्चर्यजनक और दर्शनीय होता है, तिण्णि यपलिओवमाई परमाउं पालइत्ता - अपनी तीन पल्योपम की उत्कृष्ट आयु भोग कर, ताओवि - वे भी, उवणमंति मरणधम्म - मृत्यु को प्राप्त होती है अवितत्ता कामाणं- कामभोग में अतृप्त रह कर ही।। भावार्थ - वे इन बत्तीस लक्षणों से युक्त होती हैं, यथा -. १. छत्र २. ध्वजा ३. यूप (धूसरा) ४. स्तूप ५. दामिनी ६. कमण्डलु ७. कलश ८. बावड़ी For Personal & Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर-स्त्री में लुब्ध जीवों की दुर्दशा १८३ **************************************************************** ९. स्वस्तिक १०. पताका ११. यव १२. मच्छ १३. कच्छप १४. उत्तम रथ १५. मकरध्वज (कामदेव) १६. अंकरत्न १७. थाल १८. अंकुश १९. अष्टापद (द्युत फलक) २०. सुप्रतिष्ठक (स्थापनक) २१. अमर (देव) या मयूर २२. अभिषेक युक्त लक्ष्मी २३. तोरण २४. पृथ्वी २५. समुद्र २६. उत्तम भवन २७. श्रेष्ठ पर्वत २८. उत्तम दर्पण २९. लीला करता हुआ हाथी ३०. वृषभ ३१. सिंह और ३२. चामर। . . उनकी चाल हंस के समान और बोली कोकिला के समान मधुर स्वर वाली होती है। वे कमनीय सर्वप्रिय एवं सर्वानुमत होती हैं। उनके अंग, उपांग, चमड़ी, केश आदि हीन, अधिक संकुचित या विकृत नहीं होते। वे दुर्वर्ण व्याधि, दुर्भाग्य एवं शोक से मुक्त रहती हैं। वे पुरुष से कुछ ही कम ऊँची होती है। वे श्रृंगार रस के भवन के समान सजी हुई और सुन्दर वेश वाली होती है। उनके स्तन; जंघा, मुख, हाथ, पाँव और नयन अति सुन्दर होते हैं। वे लावण्य रूप यौवन और गुणों से भरपूर होती है। नन्दन वन में विचरने वाली अप्सराओं के समान वे देवकुरु और उत्तरकुरु के मनुष्यों की अप्सराएँ हैं। उनका रूप आश्चर्यजनक तथा दर्शनीय होता है। वे अपनी तीन पल्योपम की उत्कृष्ट आयु भोगकर और कामभोगों से अतृप्त रह कर ही मृत्यु को प्राप्त हो जाती है। . , पर-स्त्री में लुब्ध जीवों की दुर्दशा मेहुणसण्णासंपगिद्धा य मोहभरिया सत्थेहिं हणंति एक्कमेक्कं, विसयविसउदीरएसु अवरे परदारेहिं हम्मति विसुणिया धणणासं सयणविप्पणासं य पाउणंति, परस्स दाराओ जे अविरया मेहुणसण्णा संपगिद्धा य मोहभरिया अस्सा हत्थी गवा य महिसा मिगा य मारेंति एक्कमेक्कं, मणुयगणा वाणरा य पक्खी य विरुझंति, मित्ताणि खिप्पं हवंति सत्तू, समए धम्मे गणे य भिदंति पारदारी, धम्मगुणरया य बंभयारी खणेण उल्लोट्टए चरित्ताओ, जसमंतो सुव्वया य पावेंति अयसकित्तिं रोगत्ता वाहिया पवउँति रोगवाही, दुवे य लोया दुआराहगा हवंति इहलोए चेव परलोए परस्स दाराओ जे अविरया, तहेव केइ परस्स दारं गवेसमाणा गहिया य हया य बद्धरुद्धा य एवं जाव गच्छंति विउलमोहाभिभूयसण्णा।। -शब्दार्थ - मेहुणसण्णासंपगिद्धा - मैथुनेच्छा में गृद्ध बने हुए, मोहभरिया - मोह से भरे हुए, सत्थेहिं हणंति - शस्त्रों से मार डालते हैं, एक्कमेक्कं - एक-दूसरे को, विसयविसउदीरएसु - विषयरूपी विष की उदीरणा करने वाली-बढ़ाने वाली, अवरे - अन्य, परदारेहिं - पराई स्त्रियों में, हम्मंतिमारते हैं, विसुणिया - पता लगने पर, धणणासं - धन का नाश, सयणविप्पणासं - स्वजनों के नाश को, पाउणंति - प्राप्त होते, परस्सदाराओ - पराई स्त्रियों से, अविरया - अविरत हैं, मेहुणसण्णा - मैथुनसंज्ञा स्त्री से संभोग की इच्छा में, संपगिद्धा - गृद्धा-अत्यन्त आसक्त हैं, मोहभरिया - मोह से भरे हुए, अस्सा - अश्व, हत्थी - हाथी, गवा - बैल, महिस - भैंसे, मिगा - मृग, मारेंति - मारते हैं, For Personal & Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ *** *************************** एक्कमेक्कं एक-दूसरे को, मणुयगणा मनुष्यगण, बाणरा वानर- बन्दर, पक्खी - पक्षी, विरुज्झंति - विरोध करते हैं, मित्ताणि मित्र भी, खिप्पं हवंति शीघ्र हो जाते हैं, सत्तू शत्रु, समएसिद्धान्त का, धम्मे धर्म का, गणे गण का, भिति भेदन करते हैं, पारदारी परस्त्री में लुब्ध, धम्मगुणरया - धर्म तथा गुणों में लीन रहने वाले, बंभयारी - ब्रह्मचारी भी, खणेण क्षणमात्र में - शीघ्र ही उल्लो - भ्रष्ट हो जाते हैं, चरित्ताओ- चारित्र से, जसमंतो यशस्वी भी, सुव्वया उत्तम व्रतधारी भी, पावेंति प्राप्त करते हैं, अयसकित्तिं अयशकीर्ति, रोगत्ता - रोगपीड़ित, वाहिया - व्याधिग्रस्त, पवšति - बढ़ाते हैं, रोगवाही - रोग एवं व्याधि, दुवे य लोया- दोनों लोक, दुआराहगा परलोक, परस्सदाराओ पराई केइ कोई पुरुष, परस्सदारं - दुराराध्य, हवंति - होते हैं, इहलोए चेव - इस लोक और परलोए पत्नियों से, जे अविरया जो विरत नहीं होते हैं, तहेव जैसे कि, पराई स्त्री की, गवेसमाणा - खोज करते हुए, गहिया पकड़े जाते, हया मारे जाते, बद्धरुद्धा बाँध कर रोके जाते हैं, एवं इस प्रकार, जाव यावत्, गच्छंति जाते हैं, विउलमोहाभिभूयसण्णाविपुल मोह-महामोह से अभिभूत बुद्धि वाले। - - - प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ ० ४ - - - - - - - - - - - - For Personal & Private Use Only - - - - - भावार्थ - मैथुन की लालसा में आसक्त, मोह-मद में सराबोर जीव, एक दूसरे को मार डालते हैं । वे विषय रूपी विष की उदीरणा करने वाली पर स्त्रियों में आसक्त होते । जब उनकी आसक्ति का दूसरों (उन स्त्रियों के पति संरक्षकादि या अन्य प्रेमियों) को पता लगता है, तो वे उस पर - स्त्री लम्पट को मार डालते हैं। पर स्त्री लम्पट, धननाश तथा कुटुम्ब विनाश रूपी दुःख भोगते हैं। जो पुरुष पर-स्त्री भोग के पाप से विरत नहीं होते, उनकी दुर्दशा होती है। मैथुनेच्छा में आसक्त एवं वेद-मोह में भरपूर मनुष्य, घोड़े, हाथी, वृषभ, भैंसे और मृग (अपनी ही जाति में) एक-दूसरे को मारते हैं। मनुष्यगण, वानर और अन्य पशु-पक्षी भी विषयेच्छा में लुब्ध होकर परस्पर लड़ते-झगड़ते हैं। पर - स्त्री के मोह में लुब्ध होकर मनुष्य अपने मित्र का भी शत्रु बन जाता है। धर्म-सिद्धान्त और उत्तम मर्यादा तथा नैतिकता का उल्लंघन करता है। संयम और ब्रह्मचर्य में लीन रहने वाले ब्रह्मचारी भी मैथुनसंज्ञा में गृद्ध होकर चारित्र से भ्रष्ट हो जाते हैं। जिन विशिष्ट पुरुषों का यश सर्वत्र व्याप्त है, ऐसे यशस्वी और उत्तम व्रतधारी भी वेदमोह में आसक्त होकर अपयश एवं निन्दा के पात्र बन जाते हैं। मैथन गृद्ध व्यक्ति अनेक प्रकार के रोगों का घर बन जाता है। उसकी व्याधियाँ बढ़ती रहती है। पर स्त्रीगामी मनुष्य का यह लोक और परलोक दोनों लोक बिगड़ जाते हैं। वह दोनों लोक का विरोधक होता है। पर- स्त्री को प्राप्त करने के लिए लुक-छिप कर जाने वाले कई पुरुष, उस स्त्री के पति आदि सम्बन्धी अथवा राज्य कर्मचारी द्वारा पकड़े जाकर बन्दी बनाये जाते हैं, कारागृह में डाल दिये जाते हैं और अनेक प्रकार की ताड़ना तर्जना सहते हुए यावत् मृत्यु प्राप्त कर नरक में चले जाते हैं। इस प्रकार जिन पुरुषों का मन महामोहनीय के उदय से भरा हुआ है, वे मैथुनासक्त होकर अनेक प्रकार के दुःख के भोक्ता बन जाते हैं। - www.jalnelibrary.org Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्रियों के लिए हुए जन-संहारक युद्ध १८५ **************************************************************** स्त्रियों के लिए हुए जन-संहारक युद्ध मेहुणमूलं य सुव्वए तत्थ-तत्थ वत्तपुवा संगामा जणक्खयकरा सीयाए, दोवईए, कए, रुप्पिणीए, पउमावईए, ताराए, कंचणाए, रत्तसुभद्दाए, अहिल्लियाए, सुवण्णगुलियाए, किण्णरीए, सुरुवविज्जुमईए, रोहिणीए. य, अण्णेसु य एवमाइएसु बहवे महिलाकएसु सुव्वंति अइक्कंता संगामा गामधम्ममूला ? इहलोए ताव णट्ठा * परलोए वि य णट्ठा महया मोहतिमिसंधयारे घोरे तसथावरसुहुमबायरेसु पज्जत्तमपज्जत्तसाहारण-सरीरपत्तेयसरीरेसु य अंडय-पोयय-जराउय-रसय-संसेइम-समुच्छिम-उब्भियउववाइएसु य णरय-तिरिय-देव-माणुसेसु जरामरणरोगसोगबहुले पलिओवमसागरोवमाइं अणाईयं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंत-संसार-कंतारं अणुपरियटृति जीवा मोहवससण्णिविट्ठा। . शब्दार्थ - मेहुणमूलं - मैथुन के मूल कारण से, सुव्वए - सुने जाते हैं, तत्थ-तत्थ - जहाँ-तहाँअनेक स्थानों पर, वत्तपुव्वा - पूर्व में हुए, जणक्खयकरा - जन क्षयकारी-नर संहारक, सीयाए - सीता के लिए, दोवईएकए - द्रोपदी के लिए किए, रुप्पिणीए - रुक्मिणी के लिए, पउमावईए - पद्मावती के लिए, ताराए - तारा के लिए, कंचणाए- कंचना के लिए, रत्तसुभद्दाए - रक्तसुभद्रा के लिए, अहिल्लियाए - अहिल्या के लिए, सुवण्णगुल्लियाए - सुवर्णगुलिका के लिए, किण्णरीए - किन्नरी के लिए, सुरुवविज्जुमईए - सुरूपविद्युत्मती के लिए, रोहिणीए - रोहिणी के लिए, य - और, अण्णेसु - अन्य, एवमाइएसु - इसी प्रकार की, बहवे - बहुत-सी, महिलाकएसु - महिलाओं के लिए, सुव्वंति - सुने जाते हैं, अइक्कंता - अतीतकाल में किये, संगामा - संग्राम, गामधम्ममूला - ग्राम-धर्ममूलक-विषय हेतुक, इहलोए - इस लोक में, तावणट्ठा - नष्ट हो जाते हैं, परलोएवि - परलोक में भी, णट्ठा - नष्ट होते हैं, महयामोहतिमिसंधयारे घोरे - महामोह रूपी तिमिर के घोर अन्धकार में, तसर्थावर - त्रस और स्वथावर, सुहुमबायरेसु - सूक्ष्म और बादर में, पज्जतमपज्जत्त - पर्याप्त और अपर्याप्त, साहारणसरीरपत्तेयसरीरेसु - साधारण शरीर और प्रत्येक शरीर में, अंडय-पोयय-जराउयरखय-संसेइम - अंडज, पोतज, जरायुज, रसज संस्वेदिम, सम्मुच्छिमउब्भियउववाइएसु - सम्मूर्च्छिम, उद्भिज और औपपातिक आदि में, णरयतिरियदेवमाणुसेसु - नरक, तिर्यंच, देव और मनुष्य में, ."रोहिणीए" पाठ ज्ञानविमलसूरि वाली प्रति में नहीं है, परन्तु टीका में चरित्र दिया है। लगता है कि भूल से छूट गया है। पर यहाँ"अबंभ सेविणो"-पाठ श्री ज्ञानविमलसूरि वाली प्रति में विशेष है। * "ताव णट्ठा" के स्थान पर 'ट्ठ कीत्ती' पाठ है। For Personal & Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ - प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०४ **************************************************************** जरामरणरोगसोगबहुले.- वृद्धावस्था, मृत्यु, रोग और शोक की अधिकता वाले, पलिओवमसागरोवमाइंपल्योपम और सागरोपम तक, अणाईयं - अनादि, अणवदग्गं - अनन्त, दीहमद्धं - लम्बे काल तक, चाउरंतसंसारकंतारं - चार गति वाले संसारमय घोर अटवी में, अणुपरियटृति - परिभ्रमण करते हैं, जीवा - जीव, मोहवस-सण्णिविट्ठा - मोह के वश में आसक्त बने हुए। भावार्थ - स्त्रियों के भोग में लुब्ध बने हुए लोगों ने कई स्थानों पर महान् जन-संहारक एवं घोर युद्ध किये हैं-ऐसा सुना जाता है। सीता के लिए, द्रौपदी, रुक्मिणी, पद्मावती, तारा, कञ्चना, रक्तसुभद्रा, अहिल्या, सुवर्णगुटिका, किन्नरी, सुरूपविद्युत्मती और रोहिणी के लिए और इसी प्रकार की अन्य महिलाओं के लिए विषयी मनुष्यों द्वारा बहुत-से युद्ध हुए सुने जाते हैं। विषय-लोलुप मनुष्य इस लोक में भी विनष्ट होते हैं और परलोक में भी विनाश को प्राप्त होते हैं। वे महामोहरूपी घोर अन्धकार में पड़ते हैं। वे त्रस, स्थावर, सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त, साधारण शरीर और प्रत्येक वनस्पति के शरीर . में तथा अंडज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदिम, सम्मूर्च्छिम, उद्भिज और औपपातिक आदि में उत्पन्न होते हैं, नरक, तिर्यंच, देव और मनुष्य आदि में जन्म-मरण करते रहते हैं। वे जरा, मृत्यु, रोग और शोक से अत्यधिक पीड़ित रहते हैं। वे कहीं पल्योपम और कहीं सागरोपम काल तक दुःख भोगते रहते । हैं। मोह में आसक्त बने हए जीव, इस अनादि अनन्तरूंप चार गति मय संसार रूपी घोर अटवी में बहत लम्बे काल तक परिभ्रमण करते रहते हैं। विवेचन - इस सूत्र में आगमकार महर्षि ने विषयासक्त मनुष्यों द्वारा स्त्रियों के लिए किए हुए संग्रामों का उल्लेख किया है। एक शक्तिशाली मनुष्य, घर में अनेक सुन्दर स्त्रियाँ होते हुए भी पराई स्त्री पर लुब्ध होकर हजारों-लाखों मनुष्यों का संहार करवा देता है। ऐसे युद्धों में से कुछ के नाम इस सूत्र में आये हैं। उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है- . . सीता के लिए - महासती सीता का रावण ने हरण किया था। इस कारण रावण के साथ रामलक्ष्मण का युद्ध हुआ था और रावण, उसका परिवार और विशाल सेना नष्ट हो गई थी। द्रौपदी के लिए - द्रौपदी पाण्डवों की पत्नी थी। उसका हरण धातकीखण्ड की अमरकंका नगरी के राजा पद्मोत्तर ने किया था। द्रौपदी को प्राप्त करने के लिए पांडव-सहित श्रीकृष्ण अमरकंका गए और पद्मोत्तर को हराकर द्रौपदी को लाये थे। रुक्मिणी के लिए - कुण्डिनपुर के राजा भीम की पुत्री रुक्मिणी के लिए श्रीकृष्ण और शिशुपाल में युद्ध हुआ था। पद्मावती के लिए - अरिष्ट नगर के नरेश हिरण्यनाभ की पुत्री पद्मावती के स्वयंवर में श्रीकृष्ण ने अन्य राजाओं के साथ युद्ध किया था। तारा के लिए - किष्किन्धा के नरेश सुग्रीव का रानी तारा के लिए सहस्रगति विद्याधर के साथ सुग्रीव का युद्ध हुआ था और वह राम-लक्ष्मण की सहायता से विजयी हुआ था। For Personal & Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ****************************** कंचना के लिए - इसकी कथा अप्रसिद्ध । टीकाकार लिखते हैं कि कोई आचार्य कञ्चना को चिल्लणा बतलाते हैं, किन्तु वृहट्टीकाकार ने भी अनभिज्ञता बतलाई है। रत्तसुभद्रा के लिए सुभद्रा श्रीकृष्ण की बहन थी। वह अर्जुन में अनुरक्त थी । इस कारण उसका 'रक्तसुभद्रा' नाम हुआ। इसके लिए श्रीकृष्ण द्वारा भेजी हुई सेना से अर्जुन का युद्ध हुआ था । अहिल्या के लिए मूलपाठ में कहीं इसे "अहिन्नियाए" - अहिन्निका कहा है। जैन - शास्त्रों में इसकी कथा नहीं मिलती। टीकाकार भी अनभिज्ञता बतलाते हैं । स्त्रियों के लिए हुए जन-संहारक युद्ध ******* सुवर्णगुलिका - सिन्दु - सौवीर देश के अधिपति, विदर्भ नरेश उदयन की रानी प्रभावती की दासी देवदत्ता, गुटिका के प्रयोग से स्वर्ण जैसी कांति वाली हो गई। इससे उसका नाम 'सुवर्णगुलिका' हो गया। उसका उज्जयिनी नरेश चण्डप्रद्योत ने हरण किया। इस निमित्त से राजा उदयन और चण्डप्रद्योत्त के बीच युद्ध हुआ था। किन्नरी और सुरूपविद्युत्मति की कथा भी अप्रसिद्ध है । रोहिणी के लिए अरिष्टपुर के राजा की पौत्री और राजकुमार हिरण्यनाभ की पुत्री रोहिणी के स्वयंवर में वसुदेवजी के साथ अन्य राजाओं का युद्ध हुआ था। युद्ध में वसुदेवजी ने विजय प्राप्त कर रोहिणी से विवाह किया। इसके गर्भ से बलदेवजी का जन्म हुआ था। हैं । . सूत्रकार कहते हैं कि इनके अतिरिक्त अन्य भी बहुत-से युद्ध, स्त्रियों में गृद्ध मनुष्यों द्वारा हुए एसो सो अबंभस्स फलवित्रागो इहलोइओ परलोइओ य अप्पसुहो बहुदुक्खो महब्भओं बहुरयप्पगाढो दारुणो कक्कसो असाओ वाससहस्सेहिं मुच्चइ, ण य अवेयइत्ता अस्थि हु मोक्खोत्ति, एवमाहंसु णायकुलणंदणो महप्पा जिणोउ वीरवरणामधिज्जो कहेसी य अबंभस्स फलविवागं एयं । तं अबंभंवि चउत्थं सदेवमणुयासुरस्स लोयस्स पत्थणिज्जं एवं चिरपरिचियमणुगयं दुरंतं । त्तिबेमिं । ।। चउत्थं अहम्मदारं सम्मत्तं ॥ शब्वदार्त एसो इस प्रकार का, सो यह, अबंभस्स - अब्रह्मचर्य-मैथुन का, फलविवागो फल भोग है, इहलोइओ परलोइओ - इस लौकिक और पारलौकिक, अप्पसुहो- अल्प सुख, बहुदुक्खो - बहुत-से दुःखों से भरा हुआ, महब्भओ महाभयानक, बहुरयप्पगाढो पापरूपी बहुतसीरज से प्रगाढ व्याप्तं, दारुणो- दारुण, कक्कसो- कर्कश, असाओ असाता - शान्ति से वञ्चित, वाससहस्सेहिं - हजारों वर्षों के बाद भी, मुच्चइ ण य मुक्त नहीं होता, अवेयइत्ता - बिना भोगे, - 3 - - — १८७ For Personal & Private Use Only - Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०४ **************************************************** ******* अस्थि हु - होता, मोक्खोत्ति - छुटकारा, एवमाहंसु - इस प्रकार कहा है, णायकुलणंदणो - ज्ञातृकुल नन्दन, महप्पा - महान् आत्मा, जिणोउ - जिन भगवान् ने, वीरवरणामधिग्जो - वीरवर-महावीर नाम वाले, कहेसी - कहा है, अबंभस्स - अब्रह्मचर्य का, फलविवागो - फलविपाक, एयं - यह, तंयह, अबंभं वि - अब्रह्मचर्य, चउत्थं - चौथा, सदेवमणुयासुरस्स - देव, मनुष्य और असुरों सहित, लोयस्स - लोगों का, पत्थणिज्जं - प्रार्थनीय है, एवं - इस प्रकार, चिर-परिचियमणुगयं - चिरकाल से परिचित और अनुगत, दुरंतं - कठिनाई से अन्त होने वाला, त्तिबेमि - ऐसा मैं कहता हूँ। भावार्थ - यह अब्रह्मचर्य रूपी अधर्म का-इस लौकिक और पारलौकिक फलविपाक है। यह अल्पतम सुख और अधिकतम दुःख से भरपूर है। महाभयानक तथा पाप के अत्यधिक मैल से युक्त है। कर्कश-कठोर है। अशांतिमय है। इसके कटुफल से हजारों वर्षों के बाद छुटकारा होता है। बिना दुःख भोगे छुटकारा नहीं हो सकता। इस प्रकार इस अधर्म का फल-विपाक, ज्ञातृ-कुल-नन्दन, वीरवर (महावीर) नाम वाले महान् आत्मा ने कहा है। यह अब्रह्मचर्य चौथा आस्रव है और देव, मनुष्य और असुर-इन सभी से प्रार्थनीय है। यह मैथुन कर्म जीवों का चिरपरिचित (अनादि काल से परिचित) है और अनादिकाल से जीव के साथ लगा हुआ है। इसका अन्त होना अत्यन्त कठिन है-ऐसा मैं कहता हूँ। यह चौथा अधर्मद्वार समाप्त हुआ। ॥अब्रह्म नामक चौथा अधर्मद्वार संपूर्ण॥ For Personal & Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्रह नामक पाँचवाँ अधर्मद्वार परिग्रह का स्वरूप जंबू! इत्तो परिग्गहो पंचमो उ णियमा णाणामणि-कणग-रयण-महरिहपरिमलसपुत्त-दार-परिजण-दासी-दास-भयग-पेस-हय-गय-गो-महिस-उट्ट-खरअय-गवेलग-सीया-सगड-रह-जाण-जुग्ग-संदण-सयणासण-वाहण-कुवियधणधण्णा-पाण-भोयणाच्छायणा-गंध-मल्ल-भायण-भवणविहिं चेव बहुविहीयं भरहं णग-णगर-णियम-जणवय-पुरवर-दोण-मुह-खेड-कब्बड-मडंब-संबाह-पट्टणसहस्स-परिमंडियं थिमियमेइणीयं एगच्छत्तं ससागरं भुंजिऊण वसुहं अपरिमिय मणंततहमणुगय-महिच्छ-सारणिरयमूलो लोहकलिकसायमहक्खंधो चिंतासयणिचियविउलसालो गारवपविरल्लियग्गविडवो णियडितयापत्तपल्लवधरो पुप्फफलं जस्स कामभोगा' आयासविसूरणा कलह-पकंपियग्गसिहरो णरवईसंपूइओ बहुजणस्स हिययदइओ इमस्स मोक्खवरमोत्तिमगस्स फलिहभूओ, चरिमं अहम्मदारं। शब्दार्थ - इत्तो - इसके पश्चात्, परिग्गहो - परिग्रह है, पंचमो - पाँचवाँ, णियमा - निश्चित रूप से, णाणामणि - विविध प्रकार के मणि, कणग - सोना, रयण - रत्न, महरिह परिमल - बहुमूल्य सुगन्धित द्रव्य, सपुत्तदार परिजण - पुत्र और स्त्री सहित परिवार, दासीदास - दासी तथा दास, भयगघर का काम करने वाले नौकर, पेस - बाहर भेजे जाने वाले नौकर, हय - घोड़ा, गय - हाथी, गो - गाय, महिस - भैंस, उट्ट - ऊंट, खर - गधा, अय - बकरा, गवेलग - भेड़ अथवा गाय और भेड़, सीया - पालकी, सगड - गाड़ी, रह - रथ, जाण - यान गाड़ी विशेष, जुग्ग - युग्य-जम्पान नामक गाड़ी, संदण - स्यन्दन-रथ विशेष, सयणासण - शयन, आसन, वाहण - वाहन, कुविय - घर की सामग्री, धण - धन, धण्ण - धान्य, पाण - पानी, भोयण - भोजन, आच्छायण - आच्छादन, गंध - सुगन्ध, मल्ल - माला, भायण - भाजन, भवणविहि - भवन की विधि, चेव - और, बहुविहियं - अन्य बहुतसे साधनों से, भरहं - भरत क्षेत्र, णग - पर्वत, णगर - नगर, णियम - निगम, जणवय - जनपद, पुरवर - उत्तम पुर, दोणमुह - द्रोणमुख, खेड - खेट, कब्बड - कर्बट-थोड़ी आबादी वाला गाँव, मडंब - मंडप, संवाह - संबाध, पट्टण - पाटण, सहस्स - हजारों, परिमंडियं - पत्तनों से सुशोभित, थिमियमेइणीयं - निष्कंटक-सुरक्षित, एगच्छत्तं - एक छत्र, ससागरं - समुद्र पर्यंत, भुंजिऊण- भोग For Personal & Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०५ **************************************************************** कर, वसुहं - समस्त भारतवर्ष की पृथ्वी को, अपरिमिय - अपरिमित, अणंत - अत्यन्त, तण्ह - तृष्णा, अणुगय - अप्राप्य वस्तु को, महिच्छ - महत्ती इच्छा, णिरय मूलो - नरक प्राप्ति के मूल कारण हैं, लोहकलिकसायमहक्खंधो - लोभ, कलि अर्थात् संग्राम और कषाय इस परिग्रह रूपी वृक्ष के महान् स्कन्ध हैं, चिंतासयणिचियविउलसालो - सैकड़ों प्रकार के विषयों का चिन्तन और मन का खेद, इस वृक्ष की विस्तृत शाखाएँ हैं, गारवपविरल्लियग्गविडवो - ऋद्धि गारव, रस गारव और साता गारव, इन तीन गारवों में अत्यन्त अनुराग, इस वृक्ष की शाखाओं का अग्रभाग है, णियडितयापत्तपल्लवधरो - धूर्तता करके दूसरों को ठगना आदि माया के कार्य, इस वृक्ष की त्वक्-छाल, पत्ते और पल्लव अर्थात् नूतन कोमल पत्ते हैं, पुष्फफलं - फूल और फल हैं, जस्स - इस वृक्ष के, कामभोगा - कामभोग, आयासविसूरणाकलहपकंपियग्गसिहरो - शारीरिक खेद और मानसिक चिंता एबं कलह, इस वृक्ष के कम्पित होते हुए अग्रभाग हैं, णरवईसंपूइओ - यह वृक्ष राजाओं द्वारा पूजित है, बहुजणस्स - बहुतजनों का, हिययदइओ - हृदय वल्लभ है, इमस्स - इस, मोक्खवरमोत्तिमगस्स- मुक्ति मार्ग का उपाय निर्लोभता है, फलिह भूओ - यह उसे रोकने वाली अर्गला के समान है, चरिमं - अन्तिम, अहम्मदारं - अधर्म द्वार है। भावार्थ - श्री सुधर्मा स्वामीजी कहते हैं कि - हे जम्बू! चौथे अधर्मद्वार के बाद अब परिग्रह नामक पाँचवें अधर्मद्वार का प्रसंग है। अनेक प्रकार के मणि, सोना, रत्न, बहुमूल्य सुगन्धित द्रव्य, स्त्री, पुत्र और समस्त परिवार, दास-दासी, गृह-सेवक, प्रेष्य-ग्रामान्तर भेजा जाने वाला सेवक, हाथी, घोड़े, गायें, भैंसे, ऊंट, गधे, बकरे, भेड़, पालकी, रथ, यान, जुग्य, स्यन्दन (रथ विशेष) शयन (पलंगादि) आसन, वाहन, घर के बरतन, धन, धान्य, भोजन, पानी, वस्त्र, गन्ध, माला, भाजन और भवनों से किए जाने वाले तथा अन्य अनेक प्रकार के भोग-साधन, पर्वत, नगर, निगम, जनपद, उत्तमपुर, द्रोणमुख, खेड, कर्बट, मंडप, संबाध तथा हजारों पत्तनों से सुशोभित और निर्भयतापूर्वक रहने वाले जनसमूह से पूर्ण, समुद्र पर्यन्त भारतवर्ष की पृथ्वी का एकछत्र राज्य का भोग करने पर भी, जो असीम तृष्णा और उत्कट इच्छा का अस्तित्व है, वही परिग्रह रूपी अधर्म का मूल है और नरकगति का कारण है। इस परिग्रह रूपी पाप के तृष्णा रूपी मूल है और लोभ, कलि (संग्राम) और कषायरूपी स्कन्ध है। विषयों का चिन्तन एवं मानसिक खेद रूपी विस्तृत शाखाएँ हैं। ऋद्धि रस और साता गारव में अत्यन्त अनुराग रूपी शाखाओं के विटप (अग्रभाग) हैं। धूर्तता, ठगाई आदि रूपों में उत्पन्न माया, इस तृष्णारूपी वृक्ष की छाल, पान एवं पल्लव (कोमल पान) है और कामभोग इसके पुष्प तथा फल हैं। शारीरिक खेद, मानसिक चिन्ता और क्लेश इस वृक्ष का अग्रभाग है। यह वृक्ष राजा-महाराजाओं द्वारा पूजित है और बहुजन समुदाय का हृदय वल्लभ है। यह परिग्रह रूपी अधर्म, निर्लोभता रूपी मोक्ष-द्वार को बन्द करने वाली अर्गला के समान है और अन्तिम अधर्मद्वार है।... For Personal & Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 191 परिग्रह के गुणनिष्पन्न नाम **************************************************************** परिग्रह के गुणनिष्पन्न नाम तस्स य णामाणि गोण्णाणि होति तीसं, तं जहा - 1. परिग्गहो 2. संचयो 3. चयो 4. उवचयो 5. णिहाणं 6. संभारो 7. संकरो 8. आयरो 9. पिंडो 10. दव्वसारो 11. तहा महिच्छा 12. पडिबंधो 13. लोहप्पा 14. महद्दी 15. उवकरणं 16. संरक्खणा य 17. भारो 18 संपाउप्पायओ 19. कलिकरंडो 20. पवित्थरो 21. अणत्थो 22. संथवो 23. अगुत्ति * 24. आयासो 25. अविओगो 26. अमुत्ती 27. तण्हा. 28. अणत्थओ 29. आसत्ती 30. असंतोसो त्ति वि य, तस्वस एयाणि एवमाईणि णामधिज्जाणि होति तीसं। शब्दार्थ - तस्स - उस, णामाणि- नाम, गोण्णाणि - गुण-निष्पन्न, होति - हैं, तीसं - तीस, तं जहा - जैसे कि, परिग्गहो - परिग्रह, संचयो - संचय, चयो - चय, उवचयो - उपचय, णिहाणं - निधान, संभारो - सम्भार, संकरों - संकर, आयरो - दर, पिंडो - पिंड, दव्वसारो - द्रव्वयसार, महिच्छामहती इच्छा, पडिबंधो - प्रतिबंध, लोहप्पो - लोभात्मा, महद्दी - महती याचना, उवकरणं - उपकरण, संरक्खणा - संरक्षण, भारो - भार, संपाउप्पायओ - सम्पातोत्पादक, कलिकरंडो - कलह और पाप का स्थान, पवित्थरो - धन-धान्यादि का विस्तार, अणत्थो - अनर्थ, संथवो - संस्तव, अगुत्तिअगुप्ति-इच्छा का अनिरोध, आयासो - खेद का कारण, अविओगो - अवियोग, अमुत्ती - अमुक्ति, तण्हा - तृष्णा, अणत्थओ - अनर्थक, आसत्ती - आसक्ति, असंतोसो - असंतोष, एयाणि - ये, एंवमाईणि - इस प्रकार के, णामधिज्जाणि - नाम, होति - हैं। भावार्थ - इस अधर्म के गण-निष्पन्न तीस नाम हैं। यथा - 1. परिग्रह 2. संचय 3. चय 4. उपचय 5. निधान (भूमि में धरा हुआ) 6. संभार (कोठे आदि में भर कर रखा हुआ) 7. संकर (स्वर्णादि के पासे रूप) 8. आदर (प्राप्ति के प्रयत्न में संताप एवं भय-मूलक) 9. पिंड़ (संगठित रखा हुआ) 10. द्रव्यसार (सर्वोत्तम) 11. महेच्छा 12. प्रतिबन्ध (बन्धनरूप) 13. लोभारमा 14. महती याचना 15. उपकरण 16. संरक्षण 17. भार 18. सम्पातोत्पादक (अनर्थ एवं पाप का उत्पादक) 19. कलिकरण्ड (कलह का भाजन) 20. प्रविस्तार (वृद्धि करना) 21. अनर्थ 22. संस्तव (परिचय कारक) 23. अगुप्ति (संतोष का अभाव) 24. आयास (खेदकारक) 25. अवियोग (नहीं छुटने वाला) 26. अमुक्ति (बन्धन कारक) 27. तृष्णा 28. अनर्थक 29. आसक्ति और 30. असंतोष, ये और इस प्रकार के तीस नाम हैं। .. + श्री ज्ञानविमलीय प्रति में २३वाँ नाम 'अकीत्ति' है और 'अगुत्ति' तथा 'आयासो' को एक ही गिना है। For Personal & Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 1 अ०५ ******************************** *************************** परिग्रह के पाश में देवगण भी बंधे हैं . तं य पुण परिग्गहं ममायंति लोहघत्था भवणवर-विमाण-वासिणो परिग्गहरुई परिग्गहे विविहकरणबुद्धी देवणिकाया य असुर-भुयग-गरुल-विजु-जलण-दीवउदहि-दिसि-पवण-थणिय-अणवण्णिय-पणवण्णिय-इसिवाइय-भूयवाइय-कंदियमहाकंदिय-कुहंड-पयंगदेवा पिसाय-भूय-जक्ख-रक्खस किण्णर-किंपुरिस-महोरगगंधव्वा-य तिरियवासी, पंचविहा जोइसिया य देवा बहस्सई-चंद-सूर-सुक्क-सणिच्छरा राहु-धूमकेऊ-बुहा य अंगारका य तत्ततवणिज्जकणयवण्णा जे य गहा जोइसिम्मि चारं चरंति केऊ य गइरईया अट्ठावीसइविहा य णक्खत्त देवगणा णाणासंठाणसंठियाओ य तारगाओ ठियलेस्सा चारिणो य अविस्साम-मंडलगई उवरिचरा। शब्दार्थ - तं - उस, पुण - फिर, परिग्गहं - परिग्रह पर, ममायंति - ममता करते हैं, लोहघत्थालोभ ग्रस्त होकर, भवणवरविमाणवासिणो - भवनवासी और उत्तम विमानवासी देव, परिग्गहरुई - परिग्रह में रुचि रखते हैं, परिग्गहे - परिग्रह का, विविहकरणबुद्धि - विविध प्रकार से संग्रह करने का विचार रखने वाले, देवणिकाया - देवगण भी परिग्रह को स्वीकार करके हैं, य - और, असुरभुयगगरुलविजुलणदीवउदहिदिसिपवणथणिय - असुरकुमार, नागकुमार, गरुड़ की ध्वजा वाले सुवर्णकुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, दीपकुमार, उदधिकुमार, दिक्कुमार, वायुकुमार और स्तनितकुमार, अणवण्णियपणवण्णियइसिवाइयभूयवाइयकंदियमहाकंदियकुहंडपयंगदेवा - आणपन्निक, पाणपन्नि, ऋषिवादिक, भूतवादिक, कन्दित, महाकन्दित, कुष्माण्ड और पतंगदेव, पिसायभूयजक्खरक्खसकिण्णरकिंपुरिसमहोरगगंधव्वा - पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, महोरग और गन्धर्व, तिरियवासी - तिर्यग् लोक में निवास करने वाले व्यन्तर देव, पंचविहा - पाँच प्रकार के, जोइसिया - ज्योतिषी, देवा - देव, वहस्सईचंदसूरसुक्कसणिच्छरा - बृहस्पति, चन्द्र, सूर्य, शुक्र और शनिश्चर, राहुधूमकेउबुहा - राहु, धुमकेतु, बुध, य - और, गहा - ग्रह, जोइसम्मि - ज्योतिष्चक्र में, चार चरंति - विचरते हैं, य - और, गइरईया - जिनकी गति में रति है, अट्ठावीसविहाअट्ठाईस भेद वाले, णक्खत्तदेवगणा - अभिजित आदि नक्षत्रगण, णाणासंठाणसंठियाओ - नाना प्रकार के संस्थान वाले, तारगाओ - तारागण, ठियलेस्सा - जिनका दीप्ति बराबर स्थित रहती है, चारिणो - विचरते रहते हैं, अविस्साममंडलगई - जो अविश्राम गति वाले मण्डल के रूप में, उवरिचरा - तिर्यग् लोक के ऊपर के भाग में रहते हैं। .. भावार्थ - पुनः भवंनवासी और उत्तम विमानवासी देव भी परिग्रह में रुचि रखते हैं। वे लोभवश परिग्रह में ममत्व रखते हैं। विविध प्रकार के परिग्रह का संग्रह करने वाले देवनिकाय में-असरकुमार, For Personal & Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्रह के पाश में देवगण भी बंधे हैं . 193 **************************************************************** नागकुमार, गरुड़ की ध्वजा वाले सुपर्णकुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, दीपकुमार, उदधिकुमार, दिशाकुमार, वायुकुमार और स्तनितकुमार, ये भवनपति जाति के देव हैं। आणपन्निक, पाणपन्निक, ऋषिवादिक, भूतवादिक, क्रन्दित, महाक्रन्दित, कुष्मांड और पतंग देव-ये व्यन्तर जाति के देव हैं। पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, महोरग और गन्धर्व, ये भी व्यन्तर देवों के भेद हैं। ये तिर्यक् लोक में निवास करने वाले हैं। ज्योतिषी देव पाँच प्रकार के हैं। बृहस्पति, चन्द्र, सूर्य, शुक्र, शनिश्चर, राहु, धूमकेतु, बुध और अंगारक (मंगल), तप्त-स्वर्ण के समान वर्ण वाले ये ग्रह, ज्योतिष चक्र में विचरते हैं और गति करने में आनन्द मानने वाले हैं, केतु आदि तथा अट्ठाईस प्रकार के नक्षत्र देवगण, विविध प्रकार के संस्थान वाले तारागण, जिनकी दीप्ति स्थिर रहती है और जो अविश्रांत गति से मण्डल के रूप में विचरते हुए तिर्यक् लोक के ऊपर के भाग में रहते हैं। उड्डलोयवासी दुविहा वेमाणिया य देवा सोहम्मी-साण-सणंकुमार-माहिंदबंभलोए-लंतक-महासुक्क-सहस्सार-आणय-पाणय-आरण-अच्चुया कप्पवरविमाणवासिणो सुरगणा, गेविज्जा अणुत्तरा दुविहा कप्पाईया विमाणवासी महिड्डिया उत्तमा सुरवरा एवं य ते चउविहा सपरिसा वि देवा ममायंति भवण वाहण-जाणविमाणसयणासणाणि य णाणाविह वत्थभूसणा पवरपहरणाणि य णाणामणिपंचवण्णदिव्वं य भायणविहिं णाणाविहकामरूवे वेउव्वियअच्छरगणसंघाते दीव-समुहे दिसाओ विदिसाओ चेइयाणि वणसंडे पव्वए य गामणयराणि य आरामुज्जाणकाणणाणि य कूव-सर-सलाग-वावि-दीहिय-देवकुल-सभप्पववसहिमाइयाहिं बहुयाई कित्तणाणि य परिगिण्हित्ता परिग्गहं विउलदव्वसारं देवावि सइंदगा ण तित्तिं ण तुठिं उवलभंति अच्चंत विउललोहाभिभूयसत्ता वासहर-इक्खुगार-वट्टपव्वय-कुंडल-रुयगवरमाणुसोत्तर-कालोदहि-लवण-सलिल-दइपइ-रइकर-अंजणक-सेल-दहिसुहवपाउप्पाय-कंचणक-चित्त-विचित्त-जमकवर-सिहरकूडवासी वक्खार-अकम्मभूमिसु। शब्दार्थ - उड्डलोयवासी - ऊर्ध्व लोक में निवास करने वाले, दुविहा - दो प्रकार के, माणियावैमानिक, देवा - देव, सोहम्मीसाणसणंकुमारमाहिंदबंभलोयलंतगमहासुक्कसहस्सार आणयपाणयआरणअच्चुया - सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लांतक, महाशुक्र, सहस्रार, आणत, प्राणत, आरण और अच्युत, कप्पवरविमाणवासिणो - इन कल्प विमानों में रहने वाले, सुरगणा - देव, गेविज्जा - ग्रैवेयक, अणुत्तरा - अनुत्तर, दुविहा - दो प्रकार के, कप्पाईया - कल्पातीत, विमाणवासी - विमान में रहने वाले, महिड्डिया - महान् ऋद्धिवाले, उत्तमासुरवरा - देवोत्तम, एवं इसी प्रकार, चउव्विहा - चार प्रकार की, सपरिसा - परिषद्युक्त, देवा - देव, ममायंति - For Personal & Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०५ **************************************************************** ममत्व वाले होते हैं, भवण वाहण - भवन और वाहन, जाणविमाणसयणासणाणिं - यान, विमान और शयन आसन, णाणाविहवस्थ - विविध प्रकार के वस्त्र और, भूसणा - आभूषण, पवरपहरणाणि - उत्तम शस्त्र, णाणामणि पंचवण्णदिव्यं - पाँच प्रकार के दिव्य वर्णों वाली मणियों का समूह, भायणविहिं - भाजनों का समूह, णाणाविहकामरूवे - इच्छानसार विविध प्रकार के रूप बनाने वाली, वेउव्वियअच्छरगणसंघाते - वैक्रिय से बनाए हुए वस्त्रादि से विभूषितं अप्सराओं पर, दीवसमुद्दे - द्वीप समुद्र, दिसाओ विदिसाओ - दिशा और विदिशाएँ, चेइयाणि - चैत्यवृक्ष, वणसंडे - वनखण्ड, पव्वए - पर्वत, गामणयराणि - ग्राम नगर, आरामुग्जाणकाणणाणि - आराम, उद्यान और कानन, कूव-सरतलागवाविदीहिय - कूप, सरोवर तालाब बावड़ी दीर्घिका, देवकुलसभप्पववसहिमाइयाहिं - देवकुल सभा प्रपा और वसती आदि में, बहुयाई - बहुत-से, कित्तणाणि - कीर्तन योग्य स्थान, परिगिण्हित्ता - ग्रहण करके, परिग्गहं - परिग्रह, विउलदव्वासारं - बहुत-से उत्तमोत्तम द्रव्यों का, देवावि - देव, सइंदगा - इन्द्र सहित, ण - नहीं, तित्ति - तृप्ति, ण तुट्ठि - तुष्टि भी नहीं, उवलभंतिप्राप्त करते, अच्चंतविउललोहाभिभूयसत्ता- अत्यंत विस्तृत लोभाभूित होकर, वासहरइक्खुगारवट्ठपव्यय - वर्षधर, इषुकार, गोल पर्वत, कुंडलरुयगवरमाणुसोत्तर - कुंडल पर्वत, रुचक पर्वत, मानुषोत्तर पर्वत, कालोदहिलवणसलिलदहपइरइकरअंजणकसेलदहिमुहवपाउप्पायकंचणकचित्तविचित्तजमकवर-सिहरकुडवासी- कालोदधि समुद्र, लवण समुद्र, नदी, हृदपति, रतिकर, अंजनक, दधिमुख, * अवपात, उत्पात काञ्चनक, चित्र विचित्र और यमकवर पर्वतों के शिखर पर निवास करने वाले देव, वक्खार अकम्मभूमिसु - वक्षस्कार तता अकर्मभूमि में निवास करने वाले। भावार्थ - ऊर्ध्वलोक में निवास करने वाले वैमानिक देव दो प्रकार के हैं - कल्पोपपन्न और कल्पातीत। कल्पोपपन्न में - 1. सौधर्म 2. ईशान 3. सनत्कुमार 4. माहेन्द्र 5. ब्रह्मलोक 6. लान्तक 7. महाशुक्र 8. सहस्रार 9. आणत 10. प्राणत 11. आरण और 12. अच्युत। ये बारह जाति के वैमानिक देव कल्पविमानवासी हैं। कल्पातीत देव दो प्रकार के हैं - ग्रैवेयक और अनुत्तर। ये देव महान् ऋद्धि-सम्पन्न तथा उच्च प्रकार के हैं। ये देवगण, अपनी-अपनी परिषद् के साथ परिग्रह में अत्यन्त आसक्त रहते हैं। वे देव भवन, वाहन, यान, विमान, शयन, आसन और विविध प्रकार के वस्त्राभूषण, उत्तमकोटि के शस्त्र, पाँच प्रकार के वर्ण वाली दिव्य मणियों के समूह, भाजनों का समूह और इच्छानुसार विविध प्रकार के मोहक रूप बनाने वाली अप्सराओं पर ममत्व रखते हैं। द्वीप, समुद्र, दिशाविदिशाएँ, चैत्यवृक्ष, वनखण्ड, पर्वत, ग्राम, नगर, आराम, उद्यान, कानन, कूप, सरोवर, तालाब, बावड़ी, दीर्घिका (बड़ी बावड़ी) देवकुल सभा, प्रपा (प्याऊ) और वसति आदि तथा बहुत-से कीर्तिसम्पन्न अथवा कीर्तन के स्थानों में तथा बहुत-से उत्तमोत्तम द्रव्यों का परिग्रह संग्रह करके भी वे देव और देवेन्द्र न तो तृप्त होते हैं, न सन्तुष्ट रहते हैं। वे लोभ से अत्यन्त ग्रस्त हैं। इसी प्रकार वर्षधर, इषुकार, गोलपर्वत, कुण्डल पर्वत, रूचक पर्वत, मानुषोत्तर पर्वत, कालोदधि-समुद्र, लवण-समुद्र, गंगा For Personal & Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मभूमि के मनुष्यों का परिग्रह 195 **************************************************************** आदि नदियाँ, हृदपति रतिकर अञ्जनक, दधिमुख, अवपात, उत्पात, काञ्चन चित्रविचित्र और यमकवर, इन पर्वतों के शिखर पर निवास करने वाले देव और वक्षस्कार तथा अकर्मभूमि में निवास करने वाले आदि सभी देव परिग्रह पर आसक्त रहने वाले हैं। . . कर्मभूमि के मनुष्यों का परिग्रह सुविभत्तभागदेसासु कम्मभूमिसुजे वि य णरा चाउरंतचक्कवट्टी वासुदेवा बलदेवा मंडलीया इस्सरा तलवरा सेणावई इब्भा सेट्ठी रट्ठिया पुरोहिया कुमारा दंडणायगा माडंबिया सत्थवाहा कोडुंबिया अमच्चा एए अण्णे य एवमाई परिग्गहं संचिणंति अणंत असरणं दुरंतं अधुवमणिच्चं असासयं पावकम्मणेम्मं अवकिरियव्वं विणासमूलं वहबंधपरिकिलेसबहुलं अणंतसंकिलेसकारणं, ते तं धणकणगरयणणिचयं पिंडिया चेव लोहघत्था संसारं अइवयंति सव्वदुक्ख संणिलयणं। शब्दार्थ - सुविभत्तभागदेसासु - जिने भाग और देश विभक्त हैं, कम्मभूमिसु - कर्मभूमि में रहने वाले, जे - जो, णरा - मनुष्य, चाउरंतचक्कवट्टी - चारों दिशाओं में अपनी आज्ञा मनाने वाले चक्रवर्ती, वासुदेवा. - वासुदेव, बलदेवा - बलदेव, मंडलीया - माण्डलिक राजा, इस्सरा - ईश्वर युवराज, तलवरा - तलवर-जागीरदार, सेणावई - सेनापति, इब्भा - इभ्य सेठ, सेट्ठी - सेठ, रट्ठिया - राष्ट्र के हित की चिंता करने वाले, पुरोहिया - पुरोहित, कुमारा - राजकुमार, दंडणायगा - दण्डनायक, माडंबिया- माडंबिक, सत्यवाहा - सार्थवाह, कोडुंबिया - कौटुम्बिक, अमच्चा - मंत्री, एए - ये सब, अण्णे - दूसरे सभी लोग, य - और, एवमाइ - इसी प्रकार के, परिग्गहं - परिग्रह का, संचिणंति - संचय करते हैं, अणंत - अपरिमित, असरणं - शरणभूत नहीं होता, दुरंतं - जिसका अन्त बड़ी कठिनाई से होता है, अधुवं - अध्रुव है, अणिच्चं - अनित्य है, असासयं - अशाश्वत है, पावकम्मणेम्मं - पाप कर्म का मूल है, अवकिरियव्वं - त्यागने योग्य हैं, विणासमूलं - विनाश का मूल है, वहबंधपरिकिलेसबहुलं- जिसमें वध, बन्धन और क्लेश की अधिकता है, अणंतसंकिलेसकारणं - अनन्त क्लेशों का हेतु है, ते - वे लोग, तं - उस परिग्रह का, धणकणगरयणणिचयं - धन, कनक और रत्नों का समूह रूप, पिंडिया - संग्रह करने वाले, लोहघत्था - लोभग्रस्त होकर, संसार - संसार में, अइवयंति - परिभ्रमण करते रहते हैं, सव्वदुक्खसंणिलयणं - सभी दुखों के आश्रयभूत। भावार्थ - जिनके भाग और देश विभक्त हैं, ऐसी कर्मभूमि के मनुष्य और चारों दिशाओं पर अधिकार रखने वाले ऐसे चक्रवर्ती, नरेन्द्र, वासुदेव, बलदेव, माण्डलिक राजा, ईश्वर (युवराज) तलवर (भूमिपति-जागीरदार), सेनापति, इभ्य-सेठ, राष्ट्र नेता, पुरोहित, राजकुमार, दण्डनायक, माडंबिक, For Personal & Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०५ ********************************** कौटुम्बिक, अमात्य (मन्त्री) ये सभी और इसी प्रकार के अन्य लोग, धन का संचय करते हैं। किन्तु वह धन उनको दुःख से बचा नहीं सकता, रक्षक नहीं होता। धन-संचय से उत्पन्न पाप के कटु फल का परिणाम बड़ा भयंकर होता है। उसका अन्त आना अत्यन्त कठिन है। यह परिग्रह अध्रुव है, अनित्य है, अशाश्वत है, पाप-कर्म का मूल है। ज्ञानियों के लिए त्यागने योग्य है। विनाश का मूल है। जीव के लिए वध, बन्धन और क्लेश का कारण है। अनन्त क्लेशों का हेतु है। धन, कनक और रत्नों का समूह रूप परिग्रह का संग्रह करने वाले लोभ ग्रस्त होकर समस्त दुःखों के आश्रयभूत ऐसे संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं। ___ विवेचन - इस सूत्र में कर्मभूमि के मनुष्यों, चक्रवर्ती नरेन्द्र, वासुदेवादि महर्द्धिक मनुष्यों और अधिकारियों तथा सामान्य मनुष्यों की धनोपासना और उसके परिणाम स्वरूप होने वाली सुदीर्घ दुःख परम्परा का उल्लेख किया गया है। विविध कलाएँ भी परिग्रह के लिये परिग्गहस्स य अट्ठाए सिप्पसयं सिक्खए बहुज़णो कलाओ य बावत्तरि सुणिउणाओ लेहाइयाओ सउणरुयावसाणाओ गणियप्पहाणाओ चउसद्धिं य महिलागुणे रइजणणे सिप्पसेवं असि-मसि-किसि-वाणिज्जं ववहारं अत्थसत्थइसत्थच्छरुप्पगयं विविहाओ य जोगजुंजणाओ अण्णेसु एवमाइएसु बहुसु कारणसएसु जावज्जीवं णडिज्जए सचिणंति मंदबुद्धी परिग्गहस्सेव य अट्ठाए करंति पाणाण-वहकरणं अलियणियडिसाइससंपओगे परदव्वाभिज्जा सपरदारअभिगमणासेवणाए आयासविसूरणं कलहभंडणवेराणि य अवमाणणविमाणणाओ इच्छामहिच्छप्पिवाससययतिसिया तण्णगेहि लोहघत्था अत्ताणा अणिग्गहिया करेंति कोहमाणमायालोहे अकित्तणिज्जे परिग्गहे चेव होंति णियमा सल्ला दंडा य गारवा य कसाया सण्णा य कामगुणअण्हगा य इंदियलेस्साओ सयण-संपओगा सचित्ताचित्तमीसगाई दव्वाइं अणंतगाइं इच्छंति परिघेत्तुं सदेवमणुयासुरम्म लोए लोहपरिग्गहो जिणवरेहिं भणिओ णत्थि एरिसो पासो पडिबंधो अत्थि सव्वजीवाणं सव्वलोए। शब्दार्थ - परिग्गहस्स अट्ठाए - परिग्रह के लिए, सिप्पसयं - सैकड़ों प्रकार के शिल्पों की, सिक्खए - शिक्षा ग्रहण करते हैं, बहुजणो - बहुत-से लोग, कलाओ - कलाओं की, य - और, बावत्तरि-बहत्तर, सुणितणाओ - सुनिपुण, लेहाइयाओ-लेख आदि की क्रियाएँ, सउणरुयावसाणाओपक्षियों के शब्द के विज्ञानपर्यन्त की शिक्षा, गणियप्पहाणाओ - गणित-प्रधान कलाओं की शिक्षा, For Personal & Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध कलाएँ भी परिग्रह के लिए 197 *************************************************************** चउसट्ठि- चौसठ प्रकार के, महिलागुणे - स्त्री सम्बन्धी नृत्य-गीत आदि गुणों की शिक्षा, रइजणणे - रति को उत्पन्न करने वाले, सिप्पसेवं - राजादि की शिल्प के द्वारा सेवा करके, असिमसिकिसिवाणिज्जंअसि-शस्त्र चलाना, मसी-शास्त्र लिखना, कृषि-खेती करना और वाणिज्य-क्रय-विक्रय आदि करना, अत्थसत्थईसत्थच्छरुप्पवायं - राजनीतिशास्त्र, धनुर्वेद, छुरी आदि की मूठ पकड़ना, विविहाओअनेक प्रकार के, जोगजुंजणाओ - वशीकरण आदि योगों का विज्ञान, अण्णेसु - अन्य, एवमाइएसुइसी प्रकार के, बहुसु - बहुत-से, कारणसएसु - सैकड़ों प्रकार के कारणों, जावज्जीवं - जीवन पर्यन्त, णडिज्जए - नाचते रहते हैं, सचिणंति - संचय करते हैं, मंदबुद्धि - अल्प बुद्धि वाले, परिग्गहस्सेव अट्ठाए-परिग्रह के लिए ही, पाणाणं - प्राणियों का, वहकरणं- वध करना, अलियणियडिसाइसंपओगेझूठ बोलना, ठगना, अल्प-मूल्य वाले पदार्थ को बहुमूल्य वाले पदार्थ में मिला कर बेचना, परदव्वाभिज्जादूसरों के धन को लेने की इच्छा करमा, सुपरदारअभिगमणासेवणाए आयासविसूरणं- अपनी स्त्री को सेवन करके शारीरिक खेद प्राप्त करते हैं और पर-स्त्री को प्राप्त करने के लिए मानसिक चिंता से दुःखित होते हैं, कलहभंडणवेराणि - क्लेश शारीरिक कलह और वैर, अवमाणणविमाणणाओ - अपमान और तिरस्कार को प्राप्त होते हैं, इच्छामहिच्छप्पिवाससययतिसिया- इच्छा और महती इच्छा रूप प्यास से निरन्तर प्यासे रहने वाले प्राणी, तण्हगेहिलोहघत्था - तृष्णा, गृद्धि और लोभ में ग्रस्त, अत्ताणा- अशरण, अणिग्गहिया - मन और इन्द्रियों को वश में न करने वाले पुरुष, कोहमाणमायालोहेक्रोध, मान, माया और लोभ, अकित्तणिज्जे - निन्दनीय, परिग्गहचेव - परिग्रह के कारण ही, णियमानियम से, सल्ला - माया, निदान और मिथ्यात्व के तीन शल्य, दंडा - मन, वचन और काया की दुष्ट प्रवृत्ति, गारवा - ऋद्धि रस और साता गारव, कसाया - कषाय, सण्णा - संज्ञा, कामगुणअण्हगा - शब्दादि पाँच कामगुण तथा पाँच आश्रव द्वार, इंदियलेस्साओ - इन्द्रिय लम्पटता और अशुभ लेश्याएँ प्राप्त होती है; सयणसंपओगा - स्वजन वर्ग का संयोग चाहते हैं, सचित्ताचित्तमिसगाई - सचित्त, अचित्त और मिश्र, दव्वाइं - द्रव्यों को, अणंतगाई - अनन्त, इच्छंति - इच्छा करते हैं, परिघेत्तुं - संचय करने की, सदेवमणुयासुरस्मिलोए - देवलोक, मनुष्यलोक और असुरलोक में, लोहपरिग्गहो - लोभ के कारण ही परिग्रह, जिणवरेहिं - जिनवरों ने, भणिओ - कहा है, णत्थि - नहीं है, एरिसो - परिग्रह के समान दूसरा कोई, पासो - पाश-बन्धन, पडिबंधो - महाबन्धन, अस्थि - है, सव्वजीवाणं - सभी जीवों के लिए, सव्वलोए - समस्त लोक में। . भावार्थ - परिग्रह के लिए बहुत-से लोग, सैकड़ों प्रकार की शिल्पकलाएँ और अन्य बहत्तर प्रकार की कला सीखते हैं। निपुणतापूर्वक लेखन आदि से लगा कर पक्षियों की बोली के ज्ञानपर्यन्त तथा गणित-प्रधान कलाओं की शिक्षा ग्रहण करते हैं। धन के लिए रति-जनित महिलाओं का चौसठ प्रकार की कलाओं और नृत्य-गीतादि गुणों की शिक्षा प्राप्त की जाती है। धन के लिए राजसेवा का अभ्यास, शस्त्र-प्रयोग, लेखन कार्य, कृषि-कर्म, व्यापार, राजनीति, धनुर्वेद, खड्ग-छुरी आदि का For Personal & Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 1 अ०५ **************************************************************** चलाना, वशीकरण करना और सैकड़ों प्रकार से अर्थोपार्जन के उपायों में प्रवृत्ति की जाती है। कई मन्दबुद्धि लोग नृत्य-कला के द्वारा जीवन-पर्यन्त नाच कर धन का संग्रह करते हैं। धन के लिए प्राणियों का वध करना, झूठ बोलना, ठगाई करना, वस्तु में मिलावट करके बेचना, दूसरे के धन को लेने के लिए ललचाना, इत्यादि प्रकार के दुष्कार्य करते हैं। वे इच्छा एवं महा-तृष्णा रूपी प्यास से सतत प्यासे ही रहते हैं। अपनी स्त्री का सेवन करके आयास (शारीरिक खेद) प्राप्त करते हैं और पर-स्त्री को प्राप्त करने के लिए चिन्तित रहते हैं। धनासक्त प्राणी क्लेश. भण्डण-निन्दा. वैर और अपमान तथा तिरस्कार प्राप्त करते हैं। तृष्णा, गृद्धता तथा लोभ में ग्रस्त जीव, असहाय एवं अत्राण रहते हैं। अपने मन और इन्द्रियों को वश में नहीं रखने वाले मनुष्य निन्दनीय होते हैं। धन के लिए क्रोध, मान, माया और लोभ करते हैं। परिग्रह के कारण नियम से शल्य, दुष्कृत्य, ऋद्धि आदि गर्व, कषाय, संज्ञा,, शब्दादि कामगुण, आश्रव, इन्द्रिय-लम्पटता तथा अशुभ लेश्या प्राप्त होती है। परिग्रह के लिए मनुष्य स्वजनादि का सहयोग चाहते हैं और सचित्त, अचित्त और मिश्र ऐसे अनन्त द्रव्यों को संचय करने की इच्छा रखते हैं। देव, मनुष्य और असुरलोक में सर्वत्र लोभ रूपी परिग्रह संचय किया जाता है। जिनेश्वर भगवंत ने कहा है कि परिग्रह के समान दूसरा कोई बन्धन नहीं है। समस्त लोक में सभी जीवों के लिए यह परिग्रह महाबन्धन है। विवेचन - धन प्राप्त करने के साधन रूप सैकड़ों प्रकार के शिल्प और बहत्तर प्रकार की पुरुष सम्बन्धी तथा चौसठ प्रकार की स्त्री सम्बन्धी कलाएँ हैं। शिल्प - हाथ की कारीगरी से वस्तु का निर्माण करना। घर, कुआँ, तालाब, भवन, वस्त्र, बरतन आदि बनाने का कार्य। पुरुष की बहत्तर कलाएँ - समवायांग सूत्र में पुरुष की बहत्तर कलाएँ इस प्रकार बतलाई हैं 1. लेखनकला 2. गणितकला 3. रूपकला (चित्र मूर्ति आदि बनाने की विद्या) 4. नाट्य अभिनय 5. गीत (गायनकला) 6. वादनकला 7. स्वरगत (स्वर ज्ञान) 8. पुष्करगत (मृदंगादि वादन) 9. समताल (गीत का ताल मिलाना) 10. द्युत (जूआ) खेलना 11. जनवाद (द्युत विशेष) 12. पौरपत्य (नगर रक्षण-कला) 13. अष्टापद (द्युत विशेष) 14. दकमृतिका (मिट्टी में जल मिलाकर वस्तु निर्माण करना) 15. अन्नविधि (भोजन बनाने की कला) 16. पानविधि (पानी के गुण दोष जानने एवं शुद्ध करने की विद्या) 17. वस्त्रविधि (वस्त्र बुनने, बनाने, धोने और संस्कारित करने की कला) 18. शयनविधि (शयन के उपकरण तथा शयन करने विषयक विज्ञान) 19. आर्या (आर्यावृत्त आदि छन्द-काव्य निर्माण कला) 20. प्रहेलिका (गूढार्थ काव्य निर्माण कला) 21. मागधिका (मगध की भाषा) 22. गाथा (प्राकृत गाथा निर्माण) 23. श्लोक (संस्कृत श्लोक बनाना) 24. सुगन्धी युक्ति (इत्रादि सुगन्धित वस्तु बनाना) 25. मधुसिक्थ (मोम से वस्तुएं बनाना ) 26. आभरण विधि (गहने बनाने और पहनने की कला) 27. प्ररुणी प्रतिकर्म (युवती को वश में करने आदि की कला) 28. स्त्री For Personal & Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 199 ********************************************** विविध कलाएँ भी परिग्रह के लिए ******** लक्षण 29. पुरुष लक्षण 30. अश्व लक्षण 31. गज लक्षण 32. गो लक्षण 33. कुर्कुट लक्षण 34. मेढ (भेड़) लक्षण 35. चक्र लक्षण 36. छत्र लक्षण 37. दण्ड लक्षण 38. असि (खड्ग) लक्षणं 39. मणि लक्षण 40. काकिणी लक्षण 41. चर्म लक्षण 42. चन्द्र लक्षण (ग्रहणादि फल) 43. सूर्य लक्षण 44. राहु चरित 45. ग्रह चरित्र 46. सौभाग्य वृद्धिकर 47. दौर्भाग्य 48. विद्यागत 49. मन्त्रगत 50. रहस्य 51. स्वभाव ज्ञान 52. चार (ज्योतिष विद्या) 53. प्रतिचार (प्रतिकूल ग्रहों की चाल विषयक) 54. व्यूह (युद्ध रचना) 55. प्रतिव्यूह 56. स्कन्धावार (सेना का पड़ाव लगाना) 57. नगरमान (नगर निर्माण) 58. वास्तुमान (गृह विज्ञान) 59. सैन्य निवेश परिज्ञान 60. वास्तु निवेश (गृह निर्माण) 61. नगर निवेश 62. इषुशास्त्र (नागपाशादि दिव्य-शस्त्रों का ज्ञान) 63. त्सरुकला (खड्ग चलाना)/६४. अश्वशिक्षा 65. हस्तिशिक्षा 66. धनुर्वेद 67. पाक (धातु आदि पचाना) 68. युद्ध-कला 69/ खेल (क्रीड़ा) 70. छेद्य (निशाना साधना) 71. सजीव निर्जीव करण और 72. शकुन शास्त्र। स्त्रियों की 64 कलाएँ - 1 से.१५ नृत्य, चित्र वादिन्त्र, मन्त्र, वर्षा, शकुन गज अश्वपरीक्षा, स्त्री-पुरुष लक्षण, वैद्यक, अंजनयोग, वाणिज्य, कार्य, सर्वभाषा ज्ञान और वीणादि वादन। 16. औचित्य ज्ञान (उचितानुचित का विचार) 17. ज्ञान 18. विज्ञान 19. दम्भ 20. जलस्तंभ 21. गायन 22. तालमेल 23. आराम रोपण (बगीचा लगाना) 24. आकार गोपन (पति को सहायक बनने में विविध प्रकार के भावों को धारण करना) 25. धर्म विचार 26. नीति विचार 27. प्रसादकला (मधुर भाषणादि) 28. संस्कृत जल्पन 29. सुवर्ण वृद्धि 30. सुगन्धीकरण 31. लीला संचारण (क्रीड़ा) 32. काम-क्रिया 33. लिपि-छेद 34. तात्कालिक सावधानी 35. वस्तु शुद्ध 36. स्वर्ण-रत्न शुद्धि 37. चूर्ण योग 38. हस्त-लाघव 39. वचन पटुता 40. भोज्य विधि 41. व्याकरण 42. शालिखण्डन 43. मुख-मण्डलन 44. कथा कथन 45. कुसुम-गुंथन (पुष्प के आभूषणादि बनाना) 46. श्रृंगार कला 47. अभिधान (वस्त्र परिधान आदि की कला) 48. आभरण विधि 49. भृत्योपचार (सेवक-सेविका के साथ व्यवहार करने की शिक्षा) 50. गृह्याचार (घर. सम्बन्धी नीति) 51. संचयकरण (वस्तु का संग्रह कर रखने की कला) 52. भोजन बनाना 53. केश बन्धन 54. वितण्डावाद 55. अंक विचार 56. लोक-व्यवहार 57. प्रश्न-प्रहेलिका 58. अन्त्याक्षरी 59. क्रियाकल्प (कार्य करने या वस्तु बनाने-सुधारने की कला) 60. वर्णिका-वृद्धि (वस्तु को आकर्षक बनाने की कला) 61. घटभ्रमण (?) 62. सार परिश्रम (व्यर्थ परिश्रम नहीं करके सारभूत परिश्रम करना) 63. पर-निराकरण (विपक्षी या विरोधी को हटाने की कला) और 64. फल-बुद्धि। पुरुषों और स्त्रियों की शिक्षा के उपरोक्त विषय देख कर, उस समय की शिक्षा की उच्चता सार्वदेशीयता एवं उपयोगिता का आभास मिल सकेगा। इससे वर्तमान समय की शिक्षा की क्षुद्रता का भी पता चल सकेगा। पुरुषों की 72 कलाओं का उल्लेख समवायांग के मूल पाठ से लिया है। अन्य ग्रन्थों में पाठ-भेद भी है। स्त्रियों की कलाओं का उल्लेख मूलसूत्र में देखने में नहीं आया। ये सभी For Personal & Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 1 अ०५ **************************************************************** कलाएँ सम्यग्दर्शन के अभाव में मिथ्यात्व एवं आश्रव-वर्द्धक तो है ही। सूत्रकार ने इनका सम्बन्ध परिग्रह प्राप्ति से जोड़ा है। वैसे ये प्रतिष्ठा प्राप्ति की साधन भी होती हैं और मोहवर्द्धक भी। बिना आत्मोत्थान के सभी कलाएँ संसार-वर्द्धक होती है। किसी विद्वान ने ठीक ही कहा है कि - . "कला बहत्तर जगत में, जा में दो सिरदार। एक जीव की जीविका, एक जीव उद्धार॥" जीवन-निर्वाह की कला भी वैसी हो, जो अल्प आरम्भ युक्त हो। आसक्ति भी अल्प हो और आत्मोत्थान में बाधक भी नहीं हो, अन्यथा सभी कलाएँ क्षणिक सुख और चिर दु:खदायक हैं। . . परिग्रह पाप का कटुफल .. .. परलोगम्मि य णट्ठा तमं पविट्ठा महयामोहमोहियमई तिमिसंधयारे तसथावरसुहुमबायरेसु पज्जत्तमपज्जत्तग-साहारण-पत्तेय सरीरेसु य अण्डय-पोययजराउय-रसय-संसेइम-सम्मुच्छिम-उब्भिय-उववाइएसु य णरय-तिरिय-देव-मणुस्सेसु जरामरणरोगसोगबहुलेसु पलिओवम-सागरोक्माइं अणाइयं अणवयग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियटुंति जीवा लोहवससण्णिविट्ठा। एसो सो परिग्गहस्स फलविवागो इहलोइओ परलोइओ अप्पसुहो बहुदुक्खो महब्भओ बहुरयप्पगाढो दारुणो कक्कसो असाओ वाससहस्सेहिं मुच्चइ ण अवेयइत्ता अस्थि हु मोक्खोत्ति, एवमाहंसु णायकुलणंदणो महप्पा जिणो उ वीरवरणामधिज्जो कहेसी य परिग्गहस्स फलविवागं। एसो सो परिग्गहो पंचयो उ णियमा णाणामणिकणगरयण-महरिह एवं जाव इमस्स मोक्खवरमोत्तिमग्गस्स फलहभूओ। चरिमं अहम्मदारं सम्मत्तं॥त्ति बेमि॥ शब्दार्थ - परलोगम्मि - परलोक में भी, णट्ठा - विनाश को प्राप्त होते हैं, तमं - अंधकारमय नरक में, पविट्ठा - प्रवेश करते हैं, महयामोहमोहियमई - महामोहनीय से मोहित मति वाले जीव, तिमिसंधयारे - जिनमें अज्ञान रूपी अंधकार भरा हुआ है, तसथावरसुहुमबायरेसु - त्रस, स्थावर, सूक्ष्म और बादर, पज्जत्तमपज्जत्तगसाहारणपत्तेयसरीरेसु - पर्याप्त, अपर्याप्त, साधारण शरीर और प्रत्येक शरीर में, अण्डयपोययजराउयरसयसंसेइमसमुच्छिमउबिभयउववाइएसु - अण्डज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदिम, सम्मूर्च्छिम, उद्भिज और औपपातिक में, णरयतिरियदेवमाणुस्सेसु - नरक, तिर्यंच,' देव और मनुष्य आदि योनियों में, जरामरणरोगसोगबहुलेसुः- जरा, मरण, रोग और शोक की बहुलता वाला, पलिओवमसागरोवमाई - पल्योपम और सागरोपम तक, अणाईयं - इस अनादि, अणवयग्गं - For Personal & Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 201 ************ परिग्रह पाप का कटुफल *********************************************** अनन्त, दीहमद्धं - बहुत लम्बे समय तक, चाउरंतसंसारकंतारं - चार गति वाले संसार रूपी घोर वन में, अणुपरियति - परिभ्रमण करते रहते हैं, जीवा - जीव, लोहवससण्णिविट्ठा - लोभ के वश परिग्रह के संचय में अत्यन्त आसक्त, एसो सो - यह, परिग्गहस्स - परिग्रह का, फलविवाओ - फल विपाक है, इहलोइओ - इहलौकिक, परलोइओ - पारलौकिक, अप्पसुहो - अल्प सुख, बहुदुक्खो - बहुत दुःखों से परिपूर्ण, महब्भओ - महाभयंकर, बहुरयप्पगाढो - बहुत पापों से युक्त, दारुणो - दारुण, कक्कसो - कर्कश, असाओ - असंगत रूप हैं, वाससहस्सेहिं - हजारों वर्षों के पश्चात्, मुच्चई - छुटकारा, अवेयइत्ता - इसका फल भोगे बिना, मोक्खोत्ति ण अस्थि - छुटकारा नहीं हो सकता, णायकुलणंदणो - ज्ञातकुलनन्दन, जिणो - भगवान् ने, वीरवरणामधिज्जो - वीरवर नाम वाले अर्थात् भगवान् महावीर, कहेसी - कहा है, परिग्गहस्स - परिग्रह का, फलविवागं - फल-विपाक, मोक्खवरमोत्तिमगस्वस - श्रेष्ठ मोक्षमार्ग का, फलिहभूओ - अर्गला रूप हैं, चरिमं - अंतिम, अहम्मदारं - अधर्मद्वार, सम्मत्तं - समाप्त हुआ, त्ति बेमि - ऐसा मैं कहता हूँ। .. भावार्थ - परिग्रही जीव परलोक में भी नष्ट होता है। उसकी सुख-शान्ति नष्ट हो जाती है। वह कारमय नरक स्थान में प्रवेश करता है। उस महामोहनीय से मोहित मति वाले जीव में अज्ञानरूपी अन्धकार भी गाढ़रूप से छाया रहता है। ऐसे महापरिग्रही जीव त्रस, स्थावर, सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त, साधारण शरीर, प्रत्येक शरीर, अण्डज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदिम, सम्मूर्छिम, उद्भिज और औपपातिक में तथा तरक, तिर्यंच, देव और मनुष्यादि योनियों में बार-बार जन्म-मरण करते रहते हैं। लोभ के वशीभूत होकर और परिग्रह के संचय में अत्यन्त आसक्त होकर जीव इस चार मति वाले अनादि अनन्त संसार रूपी घोर अटवी में दीर्घकाल पर्यन्त परिभ्रमण करते रहते हैं। परिग्रह के पाप का यह इहलौकिक और परलौकिक फलविपाक है। परिग्रह में सुख तो अत्यन्त अल्प है, किन्तु दुःख अत्यन्त घोर है और अधिकाधिक है। यह पाप महान् भयानक बहुत से पापों से भरा हुआ, दारुण, कर्कश एवं अशांति कारक है। हजारों वर्षों तक दुःख भोगने के बाद इससे छुटकारा होता है। बिना फल-भोग के छुटकारा नहीं होता। ___ इस प्रकार परिग्रह के पाप का कटुतम फल-विपाक, ज्ञातृकुल-नन्दन, महान् आत्मा जिनेश्वर भगवान् महावीर ने कहा है। अनेक प्रकार के मणि, रत्न और स्वर्णादि रूप द्रव्य संचयरूप परिग्रह / नामक पाँचवाँ आस्रवद्वार है। यह परिग्रह का पाप उत्तमोत्तम ऐसे मोक्ष मार्ग के लिए अर्गला के समान बाधक है। - यह परिग्रह नामक पाँचवा अधर्मद्वार समाप्त हुआ। ऐसा मैं कहता हूँ। For Personal & Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 1 अ०५ ****************************************************************' आस्त्रवों का उपसंहार एएहिं पंचहिं असंवरेहि, रयमादिणित्तु अणुसमयं। चउविहगइपरंतं, अणुपरियटृति संसारे॥१॥ शब्दार्थ - एएहिं - इन, पंचहिं - पाँच, असंवरेहिं - आस्रवद्वारों से, रयं - कर्म रूपी रज का, अदिणित्तु - संग्रह करके, अणुसमयं - प्रति समय, चउविहगइपेरंतं - चार गति रूप, संसारे - संसार में, अणुपरियटृति - परिभ्रमण करता रहता है। भावार्थ - इन पाँच आस्रवद्वारों से आत्मा प्रतिसमय कर्म रूपी रज का संग्रह .करके, चार गति रूप संसार-सागर में परिभ्रमण करती रहती है॥ 1 // सव्वगइपक्खंदे, काहिंति अणंतए अकयपुण्णा। जे यण सुणंति धम्मं, सोऊण य जे पमायंति॥२॥ शब्दार्थ - सव्वगइपक्खंदे - सभी गतियों में गमनागमन, काहिंति - करते रहते हैं, अणंतए:अनन्त काल तक, अकयपुण्णा - पुण्य कार्य नहीं करने वाले, जे - जो, य - और, ण सुणंति - श्रवण नहीं करते, धम्मं - धर्म, सोऊण - सुन करके, पमायंति - प्रमाद करने वाले। भावार्थ - जो धर्म का श्रवण नहीं करते हैं जो सुन कर भी प्रमाद करते हैं, वे पाँच आस्रवों का निरोध रूप पुण्य-कार्य नहीं करने वाले जीव, अनन्त काल तक सभी गतियों में गमनागमन करते रहते हैं // 2 // अणुसिटुं वि बहुविहं, मिच्छदिट्ठिया जे णरा अहम्मा। . बद्धणिकाइयकम्मा, सुगंति धम्म ण य करेंति॥३॥ शब्दार्थ - अणुसिटुं - कही गई शिक्षा, बहुविहं - गुरु के द्वारा अनेक प्रकार से, मिच्छदिट्ठिया - मिथ्यादृष्टि, णरा अहम्मा - अधर्मी पुरुष, बद्धणिकाइयकम्मा - निकाचित कर्म बाँधने वाले, सुणंतिसुनते हैं, धम्म - धर्म, ण करेंति - आचरण नहीं करते। भावार्थ - जो मिथ्यादृष्टि और अधर्मी पुरुष हैं और निकाचित-कर्म बांधते हैं, वे गुरु के द्वारा * अनेक प्रकार से कही हुई शिक्षा सुन कर भी धर्म का आचरण नहीं करते। वे गुरु की शिक्षा की उपेक्षा करते हैं // 3 // 'आसवेहिं' पाठ भी है। For Personal & Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *********** आस्रवों का उपसंहार 203 ************************************************ किं सक्का काउं जे, णेच्छह ओसहं मुहा पाउं। जिणवयणं गुणमहुरं, विरेयणं सव्वदुक्खाणं॥४॥ शब्दार्थ - किं - कैसे, सक्का - समर्थ हो सकती है, काउं - उनके दुःखों को दूर करने में, णेच्छह - नहीं चाहते हैं, ओसहं - औषधि, मुहा - नि:स्वार्थ भाव से दी जाने वाली, पाउं - पीना, जिणवयणं - तीर्थंकर भगवान् के वचन रूप, गुणमहुरं - गुणों में मधुर, विरेयणं सव्वदुक्खाणं - समस्त दुःखों को दूर करने वाली। भावार्थ - जो रोगी, वैद्य की दवा नहीं लेना चाहता, उसकी व्याधि दूर नहीं हो सकती, इसी प्रकार जो तीर्थंकर भगवान् के वचन रूपी औषध का सेवन नहीं करते, उनका भवभ्रमण रूप दुःख दूर नहीं सकता॥४॥ पंचेव य उज्झिऊणं, पंचेक्य रक्खिऊणं भावेणं। कम्मरय-विप्पमुक्कं, सिद्धिवर-मणुत्तरं जंति॥५॥ शब्दार्थ - पंचेव - इन पाँच का, उज्झिऊणं - त्याग करके, य - और, पंचेव - आगे कहे जाने वाले पांच संवर द्वारों का, भावेणं - भावपूर्वक, रक्खिऊणं - पालन करके, कम्मरयविप्पमुक्कं - कर्म-रज से रहित, सिद्धिवरं - उत्तम सिद्धगति, अणुत्तरं - सर्वश्रेष्ठ, जंति - प्राप्त करते हैं // 5 // भावार्थ - इन पाँच आस्रवद्वारों का त्याग करके और आगे कहे जाने वाले पाँच संवरद्वारों का भावपूर्वक पालन करके जीव, कर्मर ज से रहित होकर सर्वश्रेष्ठ उत्तम सिद्ध गति को प्राप्त करते ॥आस्त्रव द्वार समाप्त॥ - यहाँ तक प्रश्नव्याकरण सूत्र के पाँचों आस्रवद्वार और उसके दुःखद फल-विपाक का स्वरूप बंतला कर सूत्रकार ने आस्रव का त्याग करके आगे कहे जाने वाले संवर का सेवन करने का उपदेश किया है। .. ॥आस्त्रव द्वार नामक प्रथम श्रुतस्कन्ध समाप्त॥ For Personal & Private Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवर नामक दूसरा श्रुतस्कंध अहिंसा संवर द्वार नामक.प्रथम अध्ययन ___ जंब! एत्तो संवरदाराई, पंच वोच्छामि आणुपुव्वीए। जह भणियाणि भगवया, सव्वदुक्खविमोक्खणट्ठाए॥१॥ शब्दार्थ - एत्तो - यहाँ से, संवरदाराई - संवर द्वारों को, पंच - पाँच, वोच्छामि - मैं कहूँगा, आणुपुब्बीए - अनुक्रम से, जह - जिस प्रकार, भणियाणि - कहा था, भगवया - भगवान् ने, सव्वदुक्खविमोक्खणट्ठाए - समस्त दुःखों का विनाश करने के लिए। भावार्थ - श्री सुधर्मास्वामी कहते हैं कि हे जम्बू! अब मैं उन पाँच संवरद्वारों को अनुक्रम से कहूंगा कि जिन्हें भगवान् महावीर स्वामी ने समस्त दुःखों को नष्ट करने के लिए कहा था। पढमं होइ अहिंसा, बिइयं सच्चवयणं ति पण्णत्तं। दत्तमणुण्णाय संवरो य, बंभचेरमपरिग्गहत्तं य॥२॥ शब्दार्थ - पढमं - प्रथम, होइ - है, अहिंसा - हिंसा नहीं करना, बिइयं - दूसरा, सच्चवयणं - सत्य वचन, पण्णत्तं - कहा गया है, दत्तं - जो दिया जाए, अणुण्णाय - स्वामी की आज्ञा से, संवरोसंवर, य - और, बंभचेर - ब्रह्मचर्य, अपरिग्गहत्तं - अपरिग्रह। भावार्थ - पहला संवरद्वार अहिंसा है। दूसरा सत्य वचन, तीसरा स्वामी की आज्ञा से दिया हुआ, चौथा ब्रह्मचर्य और पाँचवाँ अपरिग्रह कहा गया है। तत्थ पढमं अहिंसा, तस-थावर-सव्वभूय-खेमकरी। तीसे सभावणाओ, किंचिवुच्छंगुणुद्देसं // 3 // शब्दार्थ - तत्थ - इनमें, पढमं - प्रथम, तस-थावर-सव्वभूय-खेमकरी - त्रस और स्थावर सभी प्राणियों का क्षेम करने वाली, तीसे - उसके, सभावणाओ - भावनाओं सहित, किंचि - कुछ, वुच्छं - वर्णन करूँगा, गुणुद्देसं - गुणदेश को। भावार्थ - पाँच संवर द्वारों में पहला संवर अहिंसा है। यह अहिंसा, त्रस और स्थावर सभी प्राणियों का क्षेम करने वाली है। मैं अहिंसा का भावनाओं सहित कुछ गुणों का वर्णन करूंगा। ताणि उ इमाणि सुव्वय! महव्वयाई लोयहियसव्वयाई सुयसागरदेसियाई तवसंजममहब्बयाई सीलगुणवरव्वयाइं सच्चज्जवव्वयाइं णरय-तिरिय-मणुय-देवगइविवज्जगाई सव्वजिणसासणगाई कम्मरयविदारगाइं भवसयविणासगाई For Personal & Private Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा भगवती के साठ नाम 205 **************************************************************** दुहसयविमोयणगाइं सुहसयपवत्तणगाइं कापुरिसदुरुत्तराई सप्पुरिसणिसेवियाई णिव्वाणगमणसग्गप्पयाणगाइं संवरदाराइं पंच कहियाणि उ भगवया। शब्दार्थ - ताणि - वे, इमाणि - ये, सुव्वय - है सुव्रत-अच्छे व्रतों के धारक, महव्वयाइं - महाव्रत कहलाते हैं, लोयहियसव्वयाई - समस्त लोक के लिए हितप्रद, सुयसागरदेसियाई - शास्त्र रूपी सागर से उपदिष्ट, तवसंजममहव्वयाइं - ये तप संयम और महाव्रत रूप हैं, सीलगुणवरव्वयाई - शील और उत्तम गुणों में प्रधान, सच्चज्जवव्वयाइं - सत्य भाषण और आर्जव-सरलता रूप, णरयतिरियमणुयदेवगइविवजगाई - नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति को वर्जित करने वाले-मोक्ष देने वाले, सव्वजिणसासणगाइं - सभी जिनेश्वर भगवंतों ने इनकी शिक्षा दी है, कम्मरयविदारगाइं - कर्मरूपी रज को नष्ट करने वाले, भवसयविणासगाई - सैकड़ों भवों को नाश करने वाले, दुहसयविमोयणगाई - सैकड़ों दुःखों को मिटाने वाले, सुहसयपवत्तणगाइं - सैकड़ों सुखों के दाता, कापुरिसदुरुत्तराई - कायर पुरुषों के लिए दुस्तर है, सप्पुरिसणिसेवियाई - सत्पुरुषों द्वारा सेवित, णिव्वाणगमणसग्गप्पयाणगाई - मोक्ष तथा स्वर्ग के दाता, संवरदाराई - संवर द्वार, पंच - पाँच, कहियाणि.- कहे हैं, भगवया - भगवान् महावीर स्वामी ने। ... भावार्थ - गणधर भगवान् सुधर्मा स्वामीजी म० श्री जम्बू स्वामीजी से कहते हैं कि-हे उत्तम व्रतों के धारक जम्बू! ये पाँच संवर रूपी महाव्रत, समस्त लोक के लिए हितकारी एवं मंगलकारी हैं। श्रुतसागर में इन महाव्रतों का उपदेश हुआ है। ये पांचों तप संयम और. महाव्रत रूप हैं। शील एवं उत्तम गुणों का समूह इनमें रहा हुआ है। सत्य वचन एवं आर्जवता (सरलता) युक्त ये व्रत नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव गति को रोककर मुक्ति प्रदान करने वाले हैं। सभी जिनेश्वर भगवंतों ने इनकी शिक्षा प्रदान की है। ये संवर, कर्म रूपी रज को नष्ट करने वाले हैं। ये सैंकड़ों भवों का छेदन कर सैकड़ों दुःखों को मिटाने वाले हैं और सैकड़ों प्रकार के सुखों को प्रदान करते हैं। इन महाव्रतों को कायर जन धारण नहीं कर सकते। इनका पालन सत्पुरुष ही कर सकते हैं। ये पाँचों महाव्रत मोक्ष एवं स्वर्ग के प्रदाता हैं। इन पाँच महाव्रतों का उपदेश भगवान् महावीर स्वामी ने दिया है। विवेचन - प्रश्नव्याकरण सूत्र के संवर द्वार' नामक दूसरे श्रुतस्कंध का प्रारम्भ करते हुए तीन गाथाओं और उपरोक्त सूत्र में संवर द्वार का संक्षिप्त कथन करके संवर आराधना का महत्त्व बताया है। आत्मोत्थान का अमोघ उपाय सूत्रकार ने इन थोड़े शब्दों में व्यक्त कर दिया है। अहिंसा भगवती के साठ नाम - तत्थ पढमं अहिंसा जा सा सदेवमणुयासुरस्स लोयस्स भवइ दीवो ताणं सरणं गई पइट्ठा 1. णिव्वाणं२. णिव्वुई 3. समाही 4. सत्ती 5. कित्ती 6. कंती 7. रई य 8. विरई य 9. सुयंग 10. तित्ती 11. दया 12. विमुत्ती 13. खंती 14. सम्मत्ताराहणा For Personal & Private Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 ********************* ********************************** ___ . प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ० 1 ********** 15. महंती 16. बोही 17. बुद्धी 18. धिई 19. समिद्धी 20. रिद्धी 21. विद्धी 22. ठिई 23. पुट्ठी 24. णंदा 25. भद्दा द. विसुद्धी 27. लद्धी 28. विसिदिट्ठी 29. कल्लाणं 30. मंगलं 31. पमोओ 32. विभूई 33. रक्खा 34. सिद्धावासो 35. अणासवो 36. केवलीण ठाणं 37. सिवं 38. समिई 39. सीलं 40. संजमोत्ति य 41. सीलपरिघरो 42. संवरो य 43. गुत्ती 44. ववसाओ 45. उस्सओ 46. जण्णो 47. आययणं 48. जयणं 49. अप्पमाओ 50. अस्सासो 51. वीसासो 52. अभओ 53. सव्वस्स वि अमाघाओ 54. चोक्ख 55. पवित्ता 56. सूई 57. पूया 58. विमल 59. पभासा य 60. णिम्मलयर त्ति एवमाईणि णिययगुणणिम्मियाई पज्जवणामाणि होति अहिंसाए भगवईए। शब्दार्थ - तत्थ - पाँच संवरद्वारों में, पढमं - पहला, जा - जो, सा - वह, सदेवमणुयासुरस्स लोयस्स - देव, मनुष्य और असुरों सहित समस्त लोक के लिए, भवइ - है, दीवो - दीपक के समान प्रकाशदात्री अथवा संसार-सागर में डूबते हुए प्राणियों के लिए दीप के समान, ताणं - रक्षा करने वाली, सरणं - आश्रय देने वाली, गई - गति, पइट्ठा - प्रतिष्ठा रूप, 1. णिव्वाणं - निर्वाण, 2. णिव्वुई - निवृत्ति, 3. समाही - समाधि, 4. सत्ती - शक्ति या शान्ति देनेवाली, 5. कित्ती - कीर्ति, 6. कंती - कान्ति, 7. रई - रति, 8. विरई - विरति, 9. सुयंग - श्रुतांग, 10. तित्ती - तृप्ति, 11. दया - रक्षा रूप दया-अनुकम्पा, 12. विमुत्ति - मुक्त कराने वाली, 13. खंती - शान्ति, 14. सम्मत्ताराहणा - सम्यक्त्वाराधन, 15. महंती - महती, 16. बोहो - बोधि, 17. बुद्धी - बुद्धि, 18. धिई - धृति, 19. समिद्धी - समृद्धि, 20. रिद्धी - ऋद्धि, 21. विद्धी - वृद्धि, 22. ठिई - स्थिति, 23. पुट्ठी - पुष्टिसमृद्धि, 24. णंदा - नन्दा, 25. भद्दा - कल्याण करने वाली, 26. विसुद्धी - विशेष शुद्ध बनाने वाली, 27. लद्धी - लब्धि, 28. विसिट्ठदिट्ठी - विशिष्ट-दृष्टि, 29. कल्लाणं - कल्याण, 30. मंगलं - मंगल करने वाली, 31. पमोओ - प्रमोद दाता, 32. विभूई - विभूति, 33. रक्खा - रक्षा, 34. सिद्धावासो - मोक्ष के अक्षय निवास की दाता, 35. अणासवो - अनास्रव, 36. केवलीण ठाणं - केवली भगवान् का स्थान, 37. सिवं - शिव-मोक्ष का हेतु, 38. समिई - सम्यग् प्रवृत्ति कराने वाली, 39. सील - सदाचार, 40. संजमो - संयम, 41. सीलपरिघरो - शीलपरिगृह-चारित्र का घर, 42. संवरो - संवर, 43. गुत्ति - गुप्ति, 44. ववसाओ - व्यवसाय, 45. उस्सओ - शुभभावों को उन्नत करने वाली, 46. जण्णो - यज्ञ रूप, 47. आययणं- आयतन, 48. जयणं - यजना, 49. अप्पमाओअप्रमाद, 50. अस्साओ - आश्वासन रूप, 51. वीसासो - विश्वास देने वाली, 52. सव्वस्स वि अभओ - सभी को अभय देने वाली, 53. अमाघाओ - अमाघात या अमारी, 54. चोक्ख - चोक्षापवित्र, 55. पवित्ता - अतिशय पवित्र, 56. सूई - शुचि, 57. पूया - पूया अर्थात् पवित्र, 58. विमल For Personal & Private Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ************************************************* अहिंसा भगवती के साठ नाम 207 ************************** निर्मल, 59. पभासा - प्रभासा-दीप्ति रूप और ६०.णिम्मलयर - निर्मलतर, एवमाईणि - इस प्रकार, अहिंसाए - अहिंसा, भगवईए - भगवती के, णिययगुणणिम्मियाइं - गुण निष्पन्न, पज्जवणामाणिपर्यायवाची नाम, होति - हैं। विवेचन - इन पाँच संवरद्वारों में अहिंसा प्रथम संवर द्वार है। यह अहिंसा देव, मनुष्य और असुर युक्त समस्त लोक के लिए द्वीप के समान आधारभूत है अथवा दीपक के समान प्रकाश देने वाली है। शरणागत को आश्रय देने वाली है और प्रतिष्ठा रूप है। समस्त गुणों की प्रतिष्ठा अहिंसा में होती है। अहिंसा स्वतः अन्य सभी गुणों के लिए आधारभूत है। इस अहिंसा के गुण-निष्पन्न नाम इस प्रकार हैं - 1. निर्वाण - मोक्ष की हेतु। 2. निवृत्ति - समस्त पाप, दुर्ध्यान एवं दुःखों से निवृत्त करके शान्ति एवं प्रसन्नता प्रदान करने वाली। 3. समाधि - चित्त को शान्त एवं एकाग्र रखने वाली। 4. शक्ति - परमपद प्राप्त करने की शक्ति देने वाली अथवा शान्ति-परम शान्ति देने वाली। 5. कीर्ति - ख्याति प्राप्त कराने वाली, प्रशंसाजनक। 6. कान्ति - दीप्ति, तेज, प्रताप एवं सौन्दर्य वर्धिका। 7. रति- आनन्ददायिका। 8. विरति - हिंसादि पाप से हटाने वाली। - 9. सुयंग - श्रुतांग-ज्ञान ही जिसका अंग है ऐसे श्रुतज्ञान से उत्पन्न। 10. तृप्ति - तुष्टि-दायिका-संतोषप्रद। 11. दया - दुःखी जीवों पर अनुकम्पा करने वाली। 12. विमुक्ति - कर्म-बन्धनों से मुक्त करने वाली। १३:क्षान्ति - क्षमा से क्रोध का निग्रह करने वाली। 14. सम्यक्त्वाराधना - सम्यक्त्व की आराधिका (अपने अनुकम्पा गुण से सम्यक्त्व की विशिष्ट रूप से आराधना करने वाली)। . 15. महंती या महती - सभी व्रतों में विशेष महत्त्व रखने वाली, यथा-"निद्दिढे एत्थ वयं इक्कं चिय जिणवरेहिं पाणाइवायवेरमण मवसेसा तस्स रक्खट्ठा" (सभी जिनेश्वरों ने इस एक प्राणातिपात विरमण-अहिंसा व्रत का ही उपदेश किया है, अन्य व्रत तो इसकी रक्षा के लिए है)। . 16. बोधि - सम्यग्-धर्म प्रदायिका-यथार्थ बोधोत्पादिका यथा "अणुकम्पअकामणिज्जरबालतवे दाणविणयविब्भंगे, संजोग-विप्पजोगे वसणूसवइड्डिसक्कारे" - अनुकम्पा, अकाम निर्जरा, बालतप, दान, विनय, विभंग ज्ञान, सुसंयोग, दुःखानुभव, उत्सव दर्शन, ऋद्धि एवं सत्कार की आकांक्षा, इनसे बोधि की प्राप्ति होती है (आवश्यक नियुक्ति, गा० 845) / 17. बुद्धि - विमल मति रूप। For Personal & Private Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०१ ************************************** 18. धृति - धैर्य-दृढ़ता। 19. समृद्धि- सभी प्रकार की सम्पन्नता से युक्त। 20. ऋद्धि- लक्ष्मी प्राप्ति की हेतुभूत।। 21. वृद्धि - पुण्य-प्रकृति का सम्पादन कर सुख-सामग्री बढ़ाने वाली। 22. स्थिति - स्थायी निवास-शाश्वत-मुक्ति दायिका। 23. पुष्टि - पूर्व पाप रूप दुर्बलता को नष्ट कर पुण्य संचय रूप पुष्टि देने वाली शक्तिदायिनी। 24. नन्दा - स्व-पर को आनन्द देने वाली। 25. भद्रा- स्व-पर का कल्याण करने वाली। 26. विशुद्धि - पाप रूप मल को दूर कर आत्मा को निर्मल बनाने वाली। 27. लब्धि - अमर्षोषधादि लब्धियाँ देने वाली। 28. विशिष्ट-दृष्टि - अन्य दर्शनों की अनुपादेयता बतला कर सम्यग्दर्शन रूपी स्याद्वादमय प्रधान दृष्टि देने वाली। 29: कल्याण - आत्मा की स्वस्थता-आरोग्यता प्राप्त कराने वाली। 30. मंगल - अनिष्ट की निवृत्ति करने वाली-मंगलदायिनी। 31. प्रमोदा - हर्षोत्पादिका। 32. विभूति - सभी प्रकार का वैभव प्रदान करने वाली। 33. रक्षा - मारे जाते हुए जीवों की रक्षा करने के स्वभाव वाली। 34. सिद्धावास - मोक्ष का अक्षय निवास देने वाली। 35. अनास्त्रव - आस्रव द्वारों (कर्मबन्ध के द्वारों) को रोकने वाली। 36. केवली स्थान - केवली प्ररूपित धर्म का मुख्य स्थान अथवा केवलज्ञान की प्राप्ति का : मुख्य आधार। 37. शिव - उपद्रव रहित ऐसी स्थायी शान्ति को देने वाली। 38. समिति - सम्यक् एवं निर्दोष प्रवृत्ति कराने वाली। . 39. शील - सदाचार रूप। 40. संयम - हिंसा से सर्वथा निवृत्ति रूप। 41. शील परिगृह - शुद्ध चारित्र रूपी सदाचार का घर।। 42. संवर - कर्मों के आगमन को रोकने वाली। 43. गुप्ति - मन, वचन और काया की अशुभ प्रवृत्ति को रोकने वाली। 44. व्यवसाय - विशिष्ट शुभ अध्यवसाय-शुभ भाव सम्पन्नता। 45. उच्छय - शुभ भावों में वृद्धि (उन्नति) कराने वाली। For Personal & Private Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा की महिमा 209 46. यज्ञा - भाव-पूजा रूप। .47. आयतन - गुणों की घर। " 48. यजना - अभयदान-दात्रि अथवा यतना-प्राण-रक्षा रूप। 49. अप्रमाद - प्राणी-रक्षा के लिए प्रमाद को हटाने वाली। 50. आश्वासन - परम संतोष रूपा-कष्ट में धैर्य बंधाने वाली। 51. विश्वास - स्व-पर के लिए विश्वासदायिनी। ... . 52. सबके लिए अभय - संसार के सभी प्राणियों को निर्भय बनाने वाली। ..53. आमाघात - किसी भी प्राणी की घात का निवारण करने वाली-अमारी। 54. चोक्षा - पवित्र। 55. पवित्र - अत्यन्त पवित्र-विशुद्ध। .... 56. शुचि - भाव शुचि-शुद्धि रूप (हिंसादिमलिन भावों से रहित) यथा - ... सत्यं शौचं तपः शौचं, शौचमिन्द्रियनिग्रहः।... सर्वभूतदया शौचं, जलशौचं च पञ्चमम्॥ 57. पूता - पूजा अथवा पवित्रता रूप या भावों के द्वारा देव-पूजा रूप। .. . 58. विमला - निर्मल (स्वच्छ)। .- . 59. प्रभासा - दीप्ति-तेज युक्त। 60. निर्मलतर - जीव को अत्यन्त विशुद्ध बनाने वाली। इस प्रकार अहिंसा भगवती के निज-गुण निर्मित-गुण-निष्पन्न पर्यायवाची 60 नाम हैं। - अहिंसा की महिमा एसा सा भगवई अहिंसा जा सा भीयाण विव सरणं, पक्खीणं विव गमणं, तिसियाणं विव सलिलं, खुहियाणं विव असणं, समुद्दमझे व पोयवहणं चउप्पयाणं व आसम्पयं दुहट्ठियाणं व ओसहिबलं अडवीमझे विसत्थगमणं एत्तो विसिट्ठतरिया अहिंसा जा सा पुढवी-जल-अगणि-मारुय-वणस्सइ-बीय-हरिय-जलयर-थलयरखहयर-तस-थावर-सव्वभूय-खेमकरी। - शब्दार्थ - एसा - यह, भगवई - भगवती, अहिंसा - अहिंसा, जो - जो, सा- वह, भीयाण विव सरणं - भयभीत के लिए शरण के समान, पक्खीणं - पक्षियों के लिए, विव गमणं - आकाश गमन के समान, तिसियाणं - प्यासे मनुष्यों के लिए, विव सलिलं - पानी के समान, खुहियाणं - भूखे मनुष्यों के लिए, विव असणं - भोजन के समान, समुहमाझे - समुद्र-मार्ग से यात्रा करने वालों के लिए, पोयवहणं - जहाज के समान, चउप्पयाणं - पशुओं के लिए, आसमपयं - पशुशाला के समान, For Personal & Private Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०१ ################ #######******************** ***** दुट्ठियाणं - रोनी मनुष्यों के लिए, ओसहिबलं - औषधि के समान, अडवीमाझे - घोर वन में चलने वालों के लिए, विसत्थगमणं - विश्वस्त मार्ग के समान, एत्तो - इससे भी, विसिद्रुतरिया - अधिक विशिष्ट है, अहिंसा - अहिंसा, पुढवीजलअगणिमारुयवणस्सइ बीयहरियजलयरथलयरखहयरतसथावरसव्वभूयखेमकरी - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, बीज, हरित जलचर, स्थलचर, खेचर, त्रस और स्थावर समस्त प्राणियों का कल्याण करने वाली है। भावार्थ - यह अहिंसा भगवती, संसार के भयभीत प्राणियों के लिए शरणभूत है, रक्षिका है। * जिस प्रकार पक्षियों के लिए आकाश में उड़ना-गमन करना हितकारी है। प्यास से पीड़ित मनुष्यादि के लिए जल प्राणाधार है, शान्तिदायक है, भूखे के लिए भोजन जीवनदायक है, समुद्र-यात्रा में जहाज पार पहुंचाने वाला है, चतुष्पद् पशुओं के लिए उनका स्थान आश्रयभूत है, रोगी के लिए औषधि हितकारी है और घोर अटवी में जाने वाले के लिए विश्वस्त मार्ग के समान है, उसी प्रकार वरन् जीवों के लिए इनसे भी अधिक अहिंसा भगवती, शरणभूत हैं, सुखदायिका, रक्षिका एवं पोषिका है। वह सर्वोत्तम एवं विशिष्टतर अहिंसा, पृथ्वी, जल, अग्नि, मारुत (वायु) वनस्पति, बीज, हरित, जलचर, स्थलचर, नभचर, त्रस और स्थावर, इन समस्त जीवों का क्षेम-कल्याण करने वाली है। विवेचन - अहिंसा अपने आप में अभया है-भय-विनाशिका है। जो भगवती अहिंसा का आश्रय लेता है, उसके भय दूर होते हैं। ऐसा जीव अन्य अनन्त जीवों के लिए अभयदाता हो जाता है और वह स्वयं भी भयातीत बन जाता है। . पक्षियों के लिए भूमिवास या पृथ्वी पर चलना भय युक्त होता है। कुत्ता बिल्ली आदि हिंसक पशु और पारधी आदि वधिक मनुष्य जीवन समाप्त करने के लिए तत्पर रहते हैं। किन्तु आकाश में गमन करते समय ये उपद्रव नहीं होते और वे निर्भयतापूर्वक गमन करते हैं, उसी प्रकार अहिंसा का आश्रय लेने वाला जीव इतना सुरक्षित हो जाता है कि फिर उसे हिंसा से उत्पन्न भय की भी आशंका ही नहीं रहती। उसके जीवन में हिंसा नहीं रहती, तो वैसा पाप-बन्ध भी नहीं होता और पूर्वबन्ध भी टूटते हैं। वह क्रमशः निर्भय बन जाता है। उसका शाश्वत निवास यह पृथ्वी नहीं, लोकाग्र हो जाता है। प्यासे व्यक्ति को पानी नहीं मिले तो वह जीवित नहीं रहता, पानी ही उसका जीवन बचा सकता है, तदनुसार मृत्यु-भय विकराल रूप से जीवों को भयभीत करता है। हिंसक जीव जिस प्रकार दूसरे जीवों को मारने में तत्पर रहता है, उसी प्रकार उसके पाप भी उसे मृत्यु-भय से भयभीत रखते हैं। किन्तु जिसने अहिंसा का आश्रय लिया, वह स्वयं दूसरों के लिए पानी के समान जीवनदाता बनता है और स्वयं भी अहिंसा रूपी अमृतपान करता हुआ अमर बन जाता है। यही बात भूखे के विषय में भी जाननी चाहिए। समुद्र में डूबते हुए के लिए जलयान रक्षक होकर पार पहुंचाता है, उसी प्रकार संसार रूपी समुद्र में डूब कर नष्ट होने वाले जीवों को अहिंसा भगवती पोत के समान रक्षिका एवं पार पहुंचाने वाली है। For Personal & Private Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा के विशुद्ध दृष्टा 211 गाय, भैंस आदि चतुष्पद पशुओं के लिए अटवी भयप्रद होती है, वहाँ सिंह-व्याघ्रादि हिंसक जीव उन्हें अपना भक्ष बना देते हैं। उन हिंसक भक्षकों से बचने के लिए ये पशु अपने आश्रय स्थानों पर आकर निर्भय होते हैं, उसी प्रकार अहिंसा भगवती भी अपने आश्रितों को निर्भय बनाती है। . ___ रोगी अपने रोग से मुक्त होने के लिए औषधि का सेवन करता है। औषधि सेवन से रोग दूर होकर आरोग्य-लाभ होता है, उसी प्रकार अहिंसा रूपी औषधि, हिंसा से उत्पन्न पाप रूपी रोग को नष्ट कर जीव को रोग मुक्त-दुःख-रहित बनाती है। दीर्घ भयानक एवं दुरूह अटवी में भटकने वाले मार्ग-भ्रष्ट मनुष्य का जीवन भी संकट में पड़ जाता है। यदि उसे कोई मार्ग पर लगा दे, तो वह उस भय से निकल सकता है, उसी प्रकार हिंसा के कुमार्ग में भटके हुए जीवों को अहिंसा का राजमार्ग प्राप्त हो जाये, तो उनका उद्धार हो सकता है। __ आगमकार महर्षि ने भगवती अहिंसा की महिमा उपरोक्त शब्दों में बतलाई, यह महत्त्वपूर्ण है। अहिंसा के आश्रय में सभी प्रकार के सत्यादि धर्म फूलते-फलते हैं। अहिंसा अमृत हैं। .. यों तो अहिंसा की बातें अन्य लोग भी करते हैं, किन्तु निर्दोष सर्वोत्तम एवं विशिष्टतर अहिंसा तो वही है जो पृथिव्यादि स्थावरकाय एवं द्वेन्द्रियादि त्रसकाय के समस्त जीवों का क्षेम करने वाली हो, सभी को अभय रूप शान्ति देने वाली है और विश्व के समस्त जीवों का कल्याण करने वाली है। ... इस विधान से यह भी सिद्ध होता है कि जैन धर्म एवं जिनेश्वरों का मार्ग-"बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय" कहा जाने वाला अजैन सिद्धान्त नहीं है। यह अजैन सिद्धान्त केवल मनुष्यों के लिए ही है, किन्तु जिनेश्वरों का घोष-"सर्वभूत क्षेमकर-" सर्वजीव हिताय रहा है। अहिंसा के विशुद्ध दृष्टा / एसा भगवइ अहिंसा जा सा अपरिमिय-णाणदसणधरेहिं सील-गुण-विणयतव-संयम-णायगेहि तित्थयरेहिं सव्वजगजीववच्छलेहिं तिलोयमहिएहिं जिणवरेहिं (जिणचंदेहि) सदिट्ठा ओहिजिणेहिं विण्णाया उग्जुमइहिं विदिट्ठा विउलमईहिं विविदिआ पुवीरेहि अहीया वेउब्दीहि पतिण्णा आभिणिबोहियणाणीहि सुयणाणीहि मणपज्जवणाणीहि केवलणाणीहि आमोसहिपत्तेहिं खेलोसहिपत्तेहिं जल्लोसहिपत्तेहि विप्योसहिपत्तेहिं सव्वोसहिपत्तेहिं बीयबुद्धीहिं कुटुबुद्धीहिं पयाणुसारीहिं संभिण्णसोएहिं सुयधरेहिं मणबलिएहिं वयबलिएहिं कायबलिएहिं णाणबलिएहिं दंसणबलिएहिं चरितबलिएहिं खीरासवेहिं महुआसवेहिं सप्पियासवेहिं अक्खीणमहाणसिएहिं चारणेहिं विज्जाहरेहि। शब्दार्थ - एसा - यह, भगवई - भगवती, अहिंसा - अहिंसा, अपरिमियणाणदसणधरेहिं - For Personal & Private Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०२ अ०१ * *************************************************** अपरिमित ज्ञान-दर्शन के धारक, सीलगुणविणयतवसंयमणायगेहिं - उत्कृष्ट शील, गुण, विनय, तप और संयम को धारण करने वाले, तित्थयरेहिं - तीर्थंकरों द्वारा, सव्वजगजीववच्छलेहिं- संसार के समस्त प्राणियों के वत्सल, तिलोयमहिएहिं - तीन लोक के पूज्य, जिणवरेहिं - जिनेश्वरों द्वारा, सुहृदिट्ठाभली-भांति देखी गई, ओहिजिणेहिं - अवधिज्ञान वाले महात्मा पुरुषों ने, विण्णाया - भली-भाँति देखा, उज्जुमइहिं - ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान वालों ने, विदिट्ठा - भली-भाँति देखा, विउलमइहिं -विपुलमति वाले महात्माओं ने, विविदिया - रहस्य को समझा, पुव्वधरेहिं - पूर्वधारी महात्माओं ने, अहिया - इसका अध्ययन किया, वेउव्वीहिं - वैक्रिय लब्धि वाले महात्माओं ने, पतिण्णा - आजन्म इसका पालन किया है, आभिणिबोहियणाणीहिं- आभिनिबोधिक ज्ञानी, सुयणाणाहि- श्रुतज्ञानी, मणपज्जवणाणीहिंमन:पर्यवज्ञानी, केवलणाणीहिं - केवल ज्ञानी महापुरुषों ने, आमोसहिपत्तेहिं - आम!षधि लब्धि वाले, खेलोसहिपत्तेहिं - खेलौषधि लब्धि वाले, जल्लोसहिपत्तेहिं - जल्ल-मैल औषधि रूप लब्धि वाले, विप्योसहिपत्तेहिं - विपुषौषधि लब्धि वाले, सव्वोसहिपत्तेहिं - आमर्ष आदि सभी लब्धियाँ जिनको प्राप्त हैं ऐसे सर्वोषधि लब्धि वाले, बीयबुद्धीहिं - जिनकी बुद्धि बीज के समान है, कुतुबुद्धीहिं - जिनकी बुद्धि कोठे के समान है, पयाणुसारीहिं - पदानुसारी, सभिण्णसोएहिं - सम्भिन्न श्रोत लब्धि वाले, सुयधरेहिं - श्रुतधर, मणबलिएहिं - दृढ़ मनोबल वाले, वयबलिएहिं - वचन-बल वाले, कायबलिएहिं - काय बल वाले, णाणबलिएहिं - दृढ़ ज्ञान-बल वाले, दंसणबलिएहिं - दर्शन-बल वाले, चरितबलिएहिं - चारित्र-बल वाले, खीरासवेहिं - क्षीर अर्थात् दूध के समान मधुर वचन बोलने वाले, महुआसवेहिं - मधु अर्थात् शहद के समान मधुर वचन वाले, सप्पियासवेहि - घृत के समान स्निग्ध वचन वाले, अक्खीणमहाणसिएहिं - अक्षीण महानसिक लब्धिधारी महात्मा, चारणेहिं - आकाश में गमन करने वाले चारण मुनि, विज्जाहरेहिं - विद्याचारणलब्धि वाले। भावार्थ - यह अहिंसा भगवती, अपरिमित (असीम) ज्ञान-दर्शन के धारक, उत्तम शील, गुण, विनय, तप और संयम के नायक-अधिपति, समस्त जीवों के वत्सल एवं तीनों लोक के पूज्य जिनेश्वर भगवंतों, जिनचन्द्र (गगन में चन्द्रमा के समान) तीर्थंकरों द्वारा देखी गई (एवं सेक्न की गई) है। अवधिज्ञानी महात्माओं ने इसे भली भाँति जानी है, ऋजुमति मन:पर्यव ज्ञानियों और विपुलमति मनः पर्यवज्ञानियों ने इसके रहस्य को समझा है। पूर्वधरों ने इसका अध्ययन किया है। वैक्रिय-लब्धि वाले महात्माओं ने इसका पालन किया है। आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी महापुरुषों ने इसका आचरण किया है। आमाँषधि लब्धिधारी, खेलौषधि लब्धि वाले, जल्लौषधि लब्धि सम्पन्न, 'विप्रौषधि लब्धि वाले, सर्वोषधि लब्धिधारी, बीजबुद्धि वाले, कोष्ठबुद्धि सम्पत्र, पदानुसारी बुद्धि युक्त, सम्भिन्न-श्रोत लब्धि वाले और श्रुतधर, मनोबली, वचनबली, कायबल वाले, ज्ञानबली, दर्शनबली, चारित्रबल से पूर्ण, क्षीरास्रवी, मधुरास्रवी, सर्पिरास्रवी अक्षिणमहानसिक लब्धि वाले और जंघाचारण, विद्याचारण महात्माओं ने अहिंसा का पालन किया है। For Personal & Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- अहिंसा के विशुद्ध दृष्टा 213 *************************** विवेचन - जिन महापुरुषों, ऋषि-महर्षियों और जिनेश्वर भगवंतों ने अहिंसा भगवती का आचरण किया, उनकी विशिष्टता का परिचय इस सूत्र में दिया गया है। आमाषधि लब्धिधारी - उत्तम साधन से जिनमें ऐसी विशिष्ट शक्ति उत्पन्न हुई कि जिनके शरीर के स्पर्श से ही रोगी के समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं, ऐसी विशिष्ट शक्ति के धारक महात्मा। खेलौषधिधारी - जिनका श्लेष्म सुगन्धित होता है और रोगनाशक भी। . जल्लोषधि लब्धिधारी - जिनके कान, मुख आदि का मैल ही रोगनाशक हो। विप्रौषधि लब्धिधारी - विप्रौषधि (अथवा विपुडौषधि)-जिनका मल-मूत्र सुगन्धित एवं रोगनाशक होता है। सर्वांषधि लब्धिधारी - जिनके शरीर के आँख, कान, नाक आदि सभी इन्द्रियों को मैल औषधिरूप हो। बीजबुद्धि वाले - बीज के समान फलित होने वाली बुद्धि के धारक। एक बीज से सैकड़ों, हजारों और लाखों बीज उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार एक अर्थ को जानकर अनेक अर्थों के जानने की क्षयोपशमजन्य शक्ति वाले। . कोष्ठबुद्धि वाले - कोठे में भरा हुआ धान्य, बहुत काल तक सुरक्षित रहता है, तदनुसार प्राप्त अर्थबोध को चिरकाल तक धारण करने को बुद्धि वाले। पदानुसारी बुद्धि वाले - एक पद सुनकर बिना सुने ही अनेक पदों को जान लेने की बुद्धि वाले। सूत्र के अवयव रूप एक ही पद प्राप्त होने पर अनेक पदों को स्वत: जानने की बुद्धि वाले। सम्भिन्न-श्रोत लब्धि वाले- शरीर के सभी अवयवों से सुनने की शक्ति वाले। श्रुतधर - आचारांगादि आगमों के धारक। सरि - मनोबली- दृढ़ मनोबल वाले-जिनका मन अत्यन्त दृढ़ एवं शक्ति वाला है। वचनबली-जिनके वचन, दुर्वादि के तर्क हेतु आदि को नष्ट करने की शक्ति वाले हैं। कायबली - कठोरतम परीषह उत्पन्न होने पर भी जो शान्ति से सहन करते हैं। इन जानबली-मति आदि ज्ञान से जिनका आत्मबल बढा है। दर्शनबली - सम्यग्दर्शन से जिनकी आत्मा बलवान् है। चारित्रबली- विशुद्ध चारित्र के बल से जिनकी आत्मा बलवान् है। खीरास्त्रवी- जिनके वचन, श्रोता को दूध समान मधुर लगे। मधुरास्त्रवी- जिनकी वाणी श्रोताओं को मधु (शहद) के झरने के समान मीठी लगे। सर्पिरास्त्रवी - जिनके वचन श्रोताओं को घृत-पान के समान पुष्टिकारक लगे। अक्षिणमहानसिक लब्धि वाले - समाप्त नहीं होने वाले भोजन की लब्धि के धारक-इस लब्धि वाले मुनि, अपने अकेले के लिए लाए हुए भोजन के पात्र में से अन्य लाखों मनुष्यों को तृप्ति पर्यन्त आहार करा सकते हैं। उस पात्र का आहार तब समाप्त होता है, जबकि स्वयं भोजन कर लेते हैं। For Personal & Private Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 . प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ० 1 ***** ******* ************************************ चारण - आकाश में गमन करने की शक्ति वाले-जंघाचारण। . विद्याचारण - विद्या के बल से आकाश में गमन करने की शक्ति वाले। चउत्थभत्तिएहिं एवं जाव छम्मासभत्तिएहिं उक्खित्तचरएहिं णिक्खित्तचरएहिं अंतचरएहिं पंतचरएहिं लूहचरएहिं समुयाणचरएहिं अण्णइलाएहिं मोणचरएहिं संसट्ठकप्पिएहिं तज्जायसंसट्ठकप्पिएहिं उवणिएहिं सुद्धेसणिएहि संखादत्तिएहिं दिट्ठलाभिएहिं पुटुलाभिएहिं आयंबिलिएहिं पुरिमडिएहिं एक्कासणिएहिं णिविइएहिं भिण्णापिंडवाइएहिं परिमियपिंडवाइएहिं अंताहारेहिं पंताहारेहिं अरसाहारेहिं विरसाहारेहि लूहाहारेहिं तुच्छाहारेहिं अंतजीविहिं पंतजीविहिं लूहजीविहिं तुच्छजीविहिं उवसंतजीविहिं पसंतजीविहिं विवत्तजीविहिं अखीरमहसप्पिएहिं अमञ्जमंसासिएहिं ठाणाइएहिं पडिमंठाईहिं ठाणुक्कडिएहिं वीरासणिएहिं णेसज्जिएहिं डंडाइएहिं लगंडसाईहिं एगपासगेहिं आयावएहिं अप्पावरहिं अणिटुभएहिं अकंडुयहेहिं धुयकेसमंसुलोमणएहिं सव्वगायपडिकम्म-विप्पमुक्केहिं समणुचिण्णा सुयहरविइयत्थकायबुद्धीहिं धीरमइबुद्धिणो य जे ते आसीविसउग्गतेयकप्पां णिच्छयववसायपज्जतकयमईया णिच्चं सज्झायज्झाणअणुबद्धधम्मज्झाणा पंचमहव्वयचरित्तजुत्ता समियासमिइसु समियपावा छव्विहजगवच्छला णिच्चमप्पमत्ता एएहिं अण्णेहिं य जा सा अणुपालिया भगवई। शब्दार्थ - चउत्थभत्तिएहिं एव जाव छम्मासभत्तिएहिं - उपवास से लेकर छह मास तक की तपस्या करने वाले, उक्खित्तचरएहिं - उत्क्षिप्तचरक, णिक्खित्तचरएहिं - निक्षिप्त चरक, अंतचरएहिं पंतचरएहिं लूहचरएहिं - अत, प्रान्त और रूक्ष आहार से ही अपना निर्वाह करने वाले, समुयाणचरएहिंसामुदानिक भिक्षा लेने वाले, अण्णइलाएहिं - अज्ञात घरों से भिक्षा लेने वाले, मोणचरएहिं - मौन रहकर आहार लेने वाले, संसट्ठकप्पिएहिं - जिस हाथ में या पात्र में अन्न लगा हुआ है, उसी हाथ या पात्र से आहार लेने वाले, तज्जायसंसट्ठकप्पिएहिं - जो अन्न लेना है, वही अन्न यदि हाथ और पात्र में लगा हुआ हो, तो उसके यहाँ अन्न लेने का अभिग्रह करने वाले, उवणिएहिं - निकटवर्ती आहार लेने का , अभिग्रह करने वाले, सुद्धेसणिएहिं - शंकित आदि दोषों को टाल कर शुद्ध आहार ग्रहण करने वाले, संखादत्तिएहिं - दत्तियों की संख्या से आहार लेने वाले, दिदुलाभिएहिं - दिखाई देते हुए स्थान से लाये हुए आहार को ग्रहण करने वाले, अदिट्ठलाभिएहि - पहले कभी न देखे हुए मनुष्यों से दिये जाने वाले आहार को ग्रहण करने वाले, पुटुलाभिएहिं - पूछने पर आहार ग्रहण करने वाले, आयंबिलिएहिंआयम्बिल तपस्या करने वाले, पुरिमडिएहिं - पुरिमड्ड आहार ग्रहण करने वाले, एक्कासणिएहिं - एकाशन तप करने वाले, णिव्विइएहिं - विगय-रहित आहार करने वाले, भिण्णपिंडवाइएहिं - टूटे हुए For Personal & Private Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अहिंसा के विशुद्ध दृष्टा 215 * * ******************** ********** पिण्ड की गवेषणा करने वाले, परिमियपिंडवाइएहिं - परिमित पिंड लेने वाले, अंताहारेहि-पंताहारेहिंअन्त-प्रान्त आहार लेने वाले, अरसाहारेहि-विरसाहारेहिं - अरस-विरस आहार लेने वाले, लूहाहारेहितुच्छाहारेहिं - रूक्ष और तुच्छ आहार लेने वाले, अंतजीविहिं - अन्तजीवी, पंतजीविहिं - प्रान्तजीवी, लूहजीविहिं - रूक्षजीवी, तुच्छजीविहिं - तुच्छ जीवी, उवसंतजीविहिं - उपशान्तजीवी, पसंतजीविहिप्रशान्त जीवी, विवित्तजीविहिं - विविक्तजीवी, अंखीरमहुसप्पिएहिं - खीर, मधु और घृत का सेवन नहीं करने वाले, अमज्जमसासिएहिं - मद्य-मांस के त्यागी, ठाणाइएहिं - उठने-बैठने के स्थान को अभिग्रहपूर्वक ग्रहण करने वाले, पडिमंठाइएहिं - एक मासिकी, द्विमासिकी आदि प्रतिमा अंगीकार . करने वाले, ठाणुक्कडिएहिं - एक स्थान पर उत्कटुक आसन से बैठने वाले, वीरासणिएहिं - वीरासन से बैठने वाले, सजिएहिं - दृढ़ आसन जमाकर बैठने वाले, डंडाइएहिं - डंडे की तरह एक आसन पर स्थित रहने वाले, लगंडसाईहिं - अपनी एड़ी और सिर मात्र से ही पृथ्वी का स्पर्श कर स्थित रहने वाले, एगपासगेहिं - एक ही करवट से शयन करने वाले, आयावएहिं - आतापना लेने वाले, अप्पावएहि - शरीर को कपड़े से बिना ढके ही कायोत्सर्ग करने वाले, अणिट्ठभएहिं - न थूकने वाले, अकंडुयएहिं - शरीर को नहीं खुजलाने वाले, धुयकेसमंसुलोमणहेहिं - अपनी दाढ़ी-मूंछ तथा बाल और नखों का संस्कार नहीं करने वाले, सव्वगायपडिकम्मविप्पमुक्केहिं - अपने शरीर के समस्त अंगों का संस्कार नहीं करने वाले, सुयहरविइयत्थकाय-बुद्धीहिं - सूत्रों को धारण करने वाले तथा अर्थराशि के ज्ञाता, समणुचिण्णा - इस अहिंसा का आचरण किया है, धीरमइबुद्धिणो - स्थिर मति वाले तथा औत्पातिकी आदि बुद्धि वाले, आसीविसउग्गतेयकप्पा - आशीविष सर्प के समान तीव्र प्रभाव वाले, णिच्छयववसायपज्जत्तकयमईया - जो वस्तु तत्त्व का निर्णय करने वाली बुद्धि तथा पौरुष से परिपूर्ण है, णिच्चं - सदा, सज्झायझाणअणुबद्धधम्मज्झाणां - स्वाध्याय एवं ध्यान में रत रहते हैं और धर्म-ध्यान में तल्लीन रहते हैं, पंचमहव्ययचरित्तजुत्ता - जो पाँच महाव्रतों के धारक हैं, समिइसु समियाईर्या-समिति आदि समितियों से सम्पन्न, समियपावा - जिन्होंने पापों का क्षय कर दिया है, छविहजगवच्छला- छह प्रकार के जगत् के वत्सल हैं, णिच्चं - सदा, अप्पमत्ता - अप्रमत्त हैं, एएहिंऐसे उत्तम पुरुषों द्वारा, अण्णेहिं - दूसरे महापुरुषों द्वारा, जा - जो, सा - इसका, अणुपालिया - पालन किया गया है, भगवई - इस अहिंसा भगवती का। भावार्थ - चौथ-भक्त यावत् छहमासिक तप वाले, उक्षिप्तचरक, निक्षिप्तचरक, अन्तचरक, प्रान्तचरक, रूक्षचरक, समुदानचरक, अन्नग्लायक, मौनचरक, संसृष्टकल्पिक, तज्जातसंसृष्टकल्पिक, . उपनिहितक, शुद्धैषणिक, संख्यादत्तिक, दृष्टलाभिक, अदृष्टलाभिक, आचाम्ल तपस्वी, पूर्वार्द्धक, एकासनिक, निर्विकृतिक, भिन्नपिण्डपातिक परिमितपिण्डपातिक, अन्तप्रान्त आहारक, अरसाहारक, विरसाहारक, रूक्षाहारक, तुच्छाहारक, अन्तजीविक, प्रान्तजीविक, रूक्षजीविक, तुच्छजीविक, उपशान्त जीवी, प्रशान्त जीवी, विविक्त जीवी, अक्षीरमधुसर्पिक, अमद्यमांसिक, स्थानातिक, प्रतिमास्थायिक, For Personal & Private Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ० 1 ******** *********************************** स्थानउत्कुटुक, वीरासनिक, नैषधिक, दण्डायतिक, लगण्डशायिक, एकपार्श्विक आतापक, अप्रावृतिक, अनिष्ठिवक, अकण्डूयक, धुर्त-केश-श्मश्रु-लोम-नख असंस्कारक, समस्त गात्र प्रतिकर्म विमुक्त और श्रुतधर, विदित अर्थ-काय बुद्धि-सम्पन्न, इन, सभी संयमी महात्माओं ने अहिंसा का आचरण किया है। - स्थिरमति एवं विशुद्ध बुद्धि वाले, आशीविष सर्प के समान तीव्र प्रभाव वाले वस्तुतत्त्व का निर्णय करने वाली बुद्धि तथा पौरुष से परिपूर्ण, नित्य स्वाध्याय-ध्यान में रत, धर्मध्यान में तल्लीन रहने वाले, पाँच महाव्रतों के धारक, समितियों से सम्पन्न, पाप-विनाशक, छह प्रकार के जगत् के वत्सल और नित्यअप्रमत्त रहने वाले। ऐसे उत्तम पुरुषों और अन्य महात्माओं ने भगवती अहिंसा का पालन किया है। विवेचन - उत्क्षिप्तचरक-पकाने के पात्र में से बाहर निकाले हुए भोजन में से आहार लेने के अभिग्रह वाले। निक्षिप्तचरक - पकाने के पात्र में निकले हुए भोजन को वापिस पात्र में डाला जाता हुआ लेने की प्रतिज्ञा वाले। * अन्तचरक - नीरस-छाछमिश्रित या वाल-चनादि निम्न कोटि का आहार लेने की प्रतिज्ञा वाले। प्रान्तचरक - खाने के बाद बचे हुए आहार में से लेने के अभिग्रह वाले या निःसार ऐसे छिलके आदि का आहार लेने वाले। रूक्षचरक- रूखा-सूखा आहार लेने की प्रतिज्ञा वाले। - समुदानचरक- समभाव से ऊंच-नीच मध्यम कुल से आहार लेने वाले। अन्नग्लायक - प्राप्त अप्राप्त भिक्षा में भी दीनता नहीं लाने वाले अथवा प्रात:काल में ही बासी आहार की गवेषणा करने वाले। .. मोनचरक - मौनपूर्वक आहार के लिए जाने वाले। संसृष्टकल्पिक - दाता का जो हाथ या पात्र, पहले से ही आहार से (परोसने या किसी को देने के कारण) लिप्त है, उसी से लेने का अभिग्रह रखने वाले।। तज्जात संसृष्टकल्पिक - जो आहार लेना है, उसी से दाता का हाथ या पात्र लिप्त हो, तो लेने के अभिग्रह वाले। उपनिहितक - निकटवर्ती स्थान से आहार लेने के संकल्प वाले अथवा दाता के निकट रहे हुए आहार में से दे, तो लेने के नियम वाले। शबैषणिक - दोषरहित शुद्ध आहार की गवेषणा करने वाले। संख्यादत्तिक - दत्तिओं की संख्या निर्धारण करके भिक्षा के लिए जाने वाले। दृष्टलाभिक - दिखाई देते हुए स्थान से लाए हुए आहार को ग्रहण करने वाले। अदृष्टलाभिक - पहले कभी नहीं देखे हुए मनुष्य से आहार लेने के नियम वाले। आचाम्ल तपस्वी - बिना घृत, तेल, दुग्धादि चिकनाई और लवणादि मसाले के केवल रूखे और स्वादरहित अन्न का आहार करने वाले। For Personal & Private Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा के विशुद्ध दृष्टा 217 *************************************************************** पूर्वार्द्धक - दिन का प्रथम आधा हिस्सा व्यतीत होने के बाद-दोपहर दिन चढ़ने के बाद आहार लेने वाले। एकासनिक - सदैव एक आसन से बैठकर ही आहार करने वाले। निर्विकृतिक - विकृति-दुग्ध, दही, घृत, तेल आदि स्निग्ध तथा गुड़, शक्कर युक्त मिष्ट पदार्थ को छोड़कर आहार लेने वाले। ___भिन्नपिण्डपातिक - टूटे और बिखरे हुए चूरे की गवेषणा करने वाले। साबित रोटी, लड्ड आदि नहीं लेकर टुकड़े होकर पृथक् हो चुके ऐसे या दाता द्वारा पात्र में डालते समय बिखर जाये ऐसे आहार के याचक। परिमित पिण्डपातिक - वृत्ति संक्षेप कर, निर्धारित स्वल्प घरों में ही आहार के लिए जाना अथवा वस्तु को संक्षेप मात्रा में लेने का निर्धारित करके जाना। अरसाहारक - रस-स्वादरहित, हींग आदि के बघार रहित वस्तु का आहार करने वाले। . विरसाहारक - पुराना होकर विरस-निःसार बने हुए धान्य का आहार करने के अभिग्रह वाले। - उपशान्तजीवी - प्राप्त-अप्राप्त में समभाव रखकर उद्विग्न नहीं होने, वचन और वदन की भृकुटी से भी रोष व्यक्त नहीं होने देने वाले। प्रशान्त जीवी - मन में क्रोध रोष या ईर्षा को उत्पन्न नहीं होने देने वाले। विविक्त जीवी - निर्दोष जीवन वाले, एकत्वादि भावना युक्त जीवन वाले। अक्षीरमधुसर्पिक - दूध, मधु और घृतरहित आहार करने वाले। अमद्यमांसिक - मद्य और मांर नहीं लेने वाले। स्थानातिक - उठने-बैठने के स्थान को संक्षिप्त करके मर्यादित स्थान रखने वाले। . प्रतिमास्थायिक -भिक्षुकी एक मासिकी आदि प्रतिमा के पालक। स्थान उत्कुटुक - एक स्थान पर उकडु आसन से बैठने वाले। वीरासनिक - वीर आसन से बैठने वाले। सिंहासन पर बैठे हुए पुरुष के नीचे से सिंहासन निकाल लेने पर, पुरुष की जैसी बैठक रहती है, उसी आसन से रहने वाले। केवल पाँवों पर ही शरीर को टिका कर सिंहासन के आकार से बैठने वाले। नैषधिक - दृढ़ आसन से बैठने वाले। दण्डायतिक - दण्ड के समान एक स्थान पर लम्बे रहकर ध्यान करने वाले। लगण्डशायिक - उस प्रकार शयन करना कि जिससे दोनों पाँवों की एड़ियाँ और मस्तक पर ही सारा शरीर टिका रहे और शेष भाग पृथ्वी को स्पर्श नहीं करे। एकपाश्विक - एक ही करवट से शयन करने वाले। आतापक - शीतकाल में खुले स्थान में रात को और उष्णकाल में दिन में, शीत और उष्ण का परीषह सहन करते हुए ध्यान करने वाले। For Personal & Private Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ० 1 अप्रावृत्तक - वस्त्ररहित खुले शरीर से शीत, उष्ण, दंशमशकादि परीषह सहने वाले। अनिष्ठीवक - मुंह में आये पानी को नहीं थूकने वाले। अकण्डूयक - खाज नहीं खुजलाने वाले। धुर्त-केश-श्मश्रु-लोम-नख-असंस्कारक - शरीर के अंगोपांग, दाढ़ी, मूंछ आदि के बाल / और नख आदि को शोभित नहीं करने वाले। समस्त गात्र प्रतिकर्म विमुक्त - समस्त शरीर एवं अंगोपांग की शोभा शुश्रूषा से रहित जीवन वाले। षड्विध जगत्वत्सल - पृथिवी कायादि छहकाय जीवों के हितैषी। . . इस प्रकार शरीर से निरपेक्ष रह कर, संयम एवं तप की साधना में तत्पर और स्वाध्याय ध्यान में . रत रहने वाले महात्माओं ने, भगवती अहिंसा का सेवन किया है। आहार की अहिंसक-निर्दोष विधि इमं च पुढविदगअगणि-मारुय-तरुगण-तस-थावरसव्वभूयसंजम दयट्ठयाएं सुद्धं उंछं गवेसियव्वं अकयमकारियमणाहूयमणुद्दिटुं अकीयकडं णवहिं य कोडिहिं सुपरिसुद्धं दसहिं य दोसेहिं विप्यमुक्कं उग्गमउप्यायणेसणासुद्धं ववगयचुयचावियचत्तदेहं च फासुयं च ण णिज्जकहापओयणक्खासुओवणीयं ति ण तिगिच्छामंतमूलभेसज्जकज्जहेडं ण लक्खणुप्पायसुमिणजोइसणिमित्तकहकप्पउत्तं, ण वि डंभणाए, ण वि रक्खणाए, ण वि सासणाए, ण वि डंभण-रक्खण-सासणाए भिक्खं गवेसियव्वं, ण वि वंदणाए, ण वि माणणाए, ण वि पूयणाए, ण वि वंदण-माणण-पूयणाए भिक्खं गवेसियव्वं / शब्दार्थ - इमं - इस, पुढविदगअगणि-मारुय-तरुगण-तस-थावरसव्यभूयसंयमदयट्ठाए - पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय तथा ऋस और स्थावर, सभी प्राणियों के प्रति संयम और दया करने के लिए साधु को, सुद्धं - शुद्ध, उञ्छं - भिक्षा, गवेसियव्वं - गवेषणा करना, अकयं - अकृत अर्थात् जो आहार साधु के लिए न बनाया गया हो, अकारियं - न अन्य से बनवाया गया हो, अणाहूयं - निमंत्रण देकर नहीं बुलाया हो, अणुदिटुं - उद्देशिक न हो, अकीयकडं - साधु के निमित्त खरीदा हुआ नहीं हो, ण्वहिं - नौ, कोडिहिं - कोटियों से, सुपरिसुद्धं - शुद्ध, दसहिं - दस, दोसेहिं - दोषों से, विप्पमुक्कं - रहित, उग्गमउप्पायणेसणासुद्धं - उद्गम उत्पादन और एषणा के दोषों से रहित शुद्ध आहार, ववगयचुयचावियचत्तदेहं - जिसके जीव स्वयं अथवा पर के द्वारा चव गये हैं, फासुयं - प्रासुक, णिसंग्जकहापओयणक्खासुओवणीयं - साधु गृहस्थ के घर आसन पर बैठकर धर्मोपदेश का कार्य करके एवं कहानी आदि कहकर दाता का चित्त प्रसन्न करके, ण- नहीं लेवे, तिगिच्छामंतमूलभेसज्जकहेउं - आहार प्राप्ति के लिए चिकित्सा कर्म, मन्त्र-प्रयोग और औषध For Personal & Private Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 219 **** आहार की अहिंसक-निर्दोष विधि * MARRIA **************************************** भैषज आदि करके, लक्खणुप्पायसुमिण जोइस णिमित्तकहकप्पउत्तं - स्त्री-पुरुष के लक्षण, उत्पात, स्वप्नफल, ज्योतिष, निमित्त कथा और विस्मयोत्पादक बातें कहकर, ण - नही लें, डंभणाए - दम्भ अर्थात् माया का प्रयोग करके, रक्खणाए - रखवाली करके, सासणाए - दाता को किसी विद्या की शिक्षा देकर, डंभणरक्खणसासणाए - दम्भ, रक्षण और शिक्षा, इन तीनों का साथ ही प्रयोग करके, भिक्खं - भिक्षा की, ण गवेसियव्वं - गवेषणा नहीं करनी चाहिए, वंदणाए - वन्दना करके, माणणाए - मान-सम्मान देकर, पूयणाए - पूजा-सत्कार करके, वंदणमाणणपूयणाए - वन्दन, मान और पूजा, इन तीनों को एक साथ करके, भिक्खं - भिक्षा की, ण गवेसियव्वं - गवेषणा न करनी चाहिए। - भावार्थ - अहिंसा के पालक साधुओं को पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वाउकाय, वनस्पतिकाय, ये स्थावर और त्रसकाय, इन सभी प्राणियों के प्रति दया लाकर संयमपूर्वक जीवन चलाने के लिए शुद्ध भोजन की गवेषणा करनी चाहिए। साधु को वैसा ही आहार लेना चाहिए जो साधु के लिए नहीं बनाया हो, न किसी दूसरे से बनवाया हो, न गृहस्थ द्वारा साधु निमन्त्रित किया गया हो, औद्देशिक न हो और मूल्य देकर लिया हुआ भी नहीं हो। वह आहार नौ-कोटि विशुद्ध हो। शंकितादि दस दोषों से रहित, उद्गम, उत्पादन और एषणा के दोषों से सर्वथा वर्जित हो। जिस आहार में से जीव स्वयं निकल गए हों या दूसरों के द्वारा जीव-रहित किए हों, ऐसा प्रासुक आहार लेना साधु के लिए उपयुक्त है। . गृहस्थ के घर गए हुए साधु को गृहस्थ के आसन पर बैठ कर धर्मोपदेश का कार्य करके और कहानी सुनाकर, दाता को प्रसन्न करके आहार नहीं लेना चाहिए। आहार के लिए रोग की चिकित्सा, मन्त्र-प्रयोग और औषधि भी नहीं करनी चाहिए। स्त्री-पुरुष के लक्षण, भूकम्प, रक्तवृष्टि आदि उत्पात स्वप्नफल, ज्योतिष, निमित्त, विस्मय कारक बातें और कहानी कहकर भोजन पाने का योग भी नहीं मिलाना चाहिए। दाम्भिकता अपनाकर, गृहस्थ के घर की रखवाली कर, किसी प्रकार की शिक्षा देकर या दाम्भिकता, रक्षा और शिक्षा, ये तीनों कार्य करके भिक्षा की गवेषणा नहीं करनी चाहि। गृहस्थ की स्तुति प्रशंसा कर, सम्मानित कर, पूजा-सत्कार करके या वन्दन, मान और पूजा करके आहार की गवेषणा नहीं करनी चाहिए। - विवेचन - इस सूत्र में साधु को निर्दोष जीवन व्यतीत करने की विधि बताई है। अहिंसा के पूर्ण पालक को, अपनी देह एवं संयम का निर्वाह करने के लिए आहार करना पड़ता है। वह आहार, पूर्ण रूप से अहिंसक एवं निर्दोष होना चाहिए। आहार के वे कौन-कौन से दोष हैं जो पूर्ण अहिंसक के लिए त्याज्य हैं। उनका दिग्दर्शन इस सूत्र में हुआ है। ___णवहिं य कोडिहिं परिसुद्धं - नौ-कोटि परिशुद्ध आहारादि। नौ कोटियाँ ये हैं - 1. आहारादि के लिए साधु स्वयं हिंसा नहीं करे 2. दूसरे से नहीं करावे 3. ऐसी हिंसा का अनुमोदन भी नहीं करे 4. स्वयं नहीं पकावे 5. दूसरों से नहीं पकवावे और 6. अनुमोदन नहीं करें 7. स्वयं नहीं खरीदे 8. दूसरों से क्रय नहीं करावे और 9. क्रय करते हुए या किए हुए का अनुमोदन नहीं करे। ये नौ कोटियाँ मन, वचन और काया के योग से हैं। For Personal & Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H 220 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०२ अ० 1 **************************************************************** दसहि य दोसेहिं विप्पमुक्कं - दस दोषों से मुक्त। ये दोष इस प्रकार हैं१. संकित - दोष की शंका होने पर लेना। 2. मक्षित - देते समय हाथ, आहार या भोजन का सचित्त पानी आदि से युक्त होना। 3. निक्षिप्त - सचित्त वस्तु पर रखी हुई अचित्त वस्तु देना। 4. पिहित - सचित्त वस्तु से ढकी हुई अचित्त वस्तु देना। 5. साहरिय-जिस पात्र में दूषित वस्तु हो, उसे पृथक् करके उसी बरतन से देना और साधु द्वारा लेना। 6. दायग - जो दान देने के लिए अयोग्य है, ऐसे बालक, अंधे, गर्भवती आदि के हाथ से लेना। 7. उन्मिश्र - मिश्र-कुछ कच्चा और कुछ पका आहारादि लेना। / 8. अपरिणत - जिसमें पूर्ण रूप से शस्त्र परिणत न हुआ हो। 9. लिप्त - जिस वस्तु के लेने से हाथ या पात्र में लेप लगे अथवा तुरन्त की लीपी हुई गीली भूमि को लांघते हुए देवे। 10. छर्दित - नीचे गिराते हुए देवे। इन दस दोषों को 'एषणा के दोष' कहते हैं। उग्गमउप्पायणेसणा सुद्धं - उद्गम के सोलह दोष, उत्पादन के सोलह दोष और एषणा के दस दोष। इन 42 दोषों से रहित शद्ध आहारादि। उद्गम के 16 दोष इस प्रकार हैं१. आधाकर्म - किसी साधु के निमित्त से आहार आदि बनाना। ......... 2. औद्देशिक - जिस साधु के लिए आहारादि बना है, उसके लिए तो वह आधाकर्मी है, किन्तु दूसरे के लिए वह औद्देशिक हैं। ऐसे आहार को दूसरे साधु लें अथवा अन्य याचकों के लिए बनाए हुए आहार में से या फिर अपने लिए बनते हुए आहार में साधुओं के लिए भी सामग्री मिला कर बनाया हो। 3. पूतिकर्म - शुद्ध आहारादि में आधाकर्मी आदि दूषित आहारादि का कुछ अंश मिलाना। 4. मिश्रजात - अपने और साधुओं-याचकों के लिए एक साथ बनाया हुआ। 5. स्थापना - साधु को देने के लिए अलग रख छोड़ना। 6. पाहुडिया - साधु को अच्छा आहार देने के लिए मेहमान अथवा मेहमानदारी के समय को आगे-पीछे करना। 7. प्रादुष्करण - अंधेरे में रखी हुई वस्तु को प्रकाश में ला कर देना। 8. क्रीत - साधु के लिए खरीद कर देना। 9. प्रामीत्य - उधार लेकर साधु के देवे।। 10. परिवर्तित - साधु के लिए अदल-बदलकर ली हुई वस्तु। 11. अभिहत - साधु के लिए वस्तु को अन्यत्र अथवा साधु के सामने ले जाकर देना। For Personal & Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार की अहिंसक-निर्दोष विधि 221 ************************************************************* 12. उद्भिन्न - बरतन का लेप, छांदा आदि खोलकर देवे। ... 13. मालापहृत - ऊंचे माल पर नीचे भूमिगृह में तथा तिरछे, ऐसी जगह वस्तु रखी हो कि जहाँ से निसरणी आदि पर चढ़ना पड़े। 14. अच्छेद्य - निर्बल से छिनकर देना। 15. अनिसष्ठ - भागीदारी की वस्तु, किसी भागीदार की बिना इच्छा के दी जाये। 16. अध्यवपूरक - साधुओं का ग्राम में आगमन सुनकर बनते हुए भोजन में कुछ सामग्री बढ़ाना। ... उत्पादन के 16 दोष- 1. धात्री-कर्म- बच्चे की साल-संभाल करके अथवा धाय की नियुक्ति करवा कर आहारादिलेना। 2. दूती-कर्म - एक का सन्देश दूसरे को पहुँचा कर आहारादि लेना। 3. निमित्त - भूत, भविष्य और वर्तमान के शुभाशुभ निमित्त बताकर लेना। 4. आजीव- अपनी जाति अथवा कुल आदि बता कर लेना। ५.वनीपक-दीनता प्रकट करके लेना। ... 6. चिकित्सा - औषधी करके या बताकर लेना। 7. क्रोध- क्रोध करके लेना। 8. मान- अभिमानपूर्वक लेना। 9. माया - कपट का सेवन करके लेना। 10. लोभ - लोलुपता से अच्छी वस्तु अधिक लेना। 11. पूर्वपश्चात् संस्तव - आहारादि लेने के पूर्व या बाद में दाता की प्रशंसा करना। 12. विद्या- चमत्कारिक विद्या का प्रयोग करके लेना। 13. मन्त्र-मन्त्र-प्रयोग से आश्चर्य उत्पन्न करके लेना। 14. चूर्ण - चमत्कारिक चूर्ण का प्रयोग करके लेना। ...15. योग- योग के चमत्कार बताकर लेना। 16. मूल कर्म- गर्भ-स्तंभन, गर्भाधान अथवा गर्भपात जैसे पापकारी औषधादि बताकर प्राप्त करना। .मूलकर्म - अति गहन भव-वन में भटकने का मूल कारण। गर्भस्तम्भन, गर्भाधान, गर्भपात गर्भ आदि विशेष पापकारी औषधादि बताना। यथा - "अति गहन भववनस्यमूलं कारणं सावधक्रिया मूलकर्म, तत्र गर्भस्थंभन-गर्भाधान-गर्भपातगर्भशात-उत्क्षिप्तयोनित्वकरणादिना उपाय॑तेपिण्डः।" / मूलकर्म - वृक्ष-लतादि से औषध-प्रयोग बतला कर आहार लेना। ण वि हीलणाए ण वि शिंदणाए ण वि गरहणाए ण वि हीलणणिंदणगरहणाए भिक्खं गवेसियव्वं, ण वि भेसणाए ण वि तज्जणाए ण वि तालणाए ण For Personal & Private Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०१ ************************************************************ वि भेसणतज्जणतालणाए भिक्खं गवेसियव्वं, ण वि गारवेणं ण वि कुहणयाए ण वि वणीमयाए ण वि गारवकुहणवणीमयाए भिक्खं गवेसियव्वं, ण वि मित्तयाए ण वि पत्थणाए ण वि सेवणाए ण वि मित्तपत्थणसेवणाए भिक्खं गवेसियव्वं, अण्णाए अगढिए अदुढे अदीणे अविमणे अकलुणे अविसाई. अपरितंतजोगी जयणघडणकरणचरियविणयगुणजोगसंपउत्ते भिक्खू भिक्खेसणाए णिरए।.. शब्दार्थ - हीलणाए - हीलना करके, शिंदणाए - निन्दा करके, गरहणाए - गर्हणा करके, हीलणणिंदणगरहणाए - हीलना, निन्दा और गर्दा, तीनों एक साथ करके, भिक्खं -- भिक्षा की, गवेसियव्वं - गवेषणा नहीं करे, भेसणाए - भय दिखाकर, तज्जणाए - तर्जन, डांट-फटकार बतलाकर, तालणाए - थप्पड़ आदि मारकर, भेसणतज्जणतालणाए - भय, तर्जना और ताड़ना, भिक्खं - भिक्षा की, ण गवेसियव्वं - गवेषणा नहीं करे, गारवेण - जाति आदि का गर्व करके, कुहणयाए. - दरिद्रता दिखाकर, वणीमयाए - भिखारी के समान दीन वचन उच्चारण करके, गारवकुहणवणीमयाएगर्व, दरिद्रता और रंकपना करके, भिक्खं - भिक्षा की, ण गवेसियव्वं - गवेषणा नहीं करे, मित्तयाए - मित्रता बतलाकर, पत्थणाए - प्रार्थना करके, सेवणाए - सेवा करके, मित्तपत्थणसेवणाए - मित्रता, प्रार्थना और सेवा करके, भिक्खं - भिक्षा की, ण गवेसियव्वं - गवेषणा नहीं करे, अण्णाए - अपना परिचय न देते हुए, अगढिए - आहार में आसक्त नहीं होता हुआ, अदुढे - आहार और दाता पर द्वेष नहीं करता हुआ, अदीणे- दीनता रहित, अविमणे - उदासीनता रहित, अकलुणे - करुणा जनक शब्द न बोलता हुआ, अविमाई - विषाद न करता हुआ, अपरितंतजोगी,- धर्मकार्य में अश्रान्त मन वचन काया का योग वाला, जयण - संयम में प्रयत्नशील, घडणकरण - अप्राप्त गुणों की प्राप्ति के लिए उद्योग करने वाला, चरियविणयगुणजोगसंपउत्ते - विनय और क्षमा आदि गुणों से युक्त होकर, भिक्खू - साधु, भिक्खेसणाए णिरए - भिक्षा की गवेषणा करे। भावार्थ - दाता की हीलना, निन्दा और गर्दा करके या तीनों एक साथ करके आहार लेने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। गृहस्थ यदि आहार देना नहीं चाहे, तो उसे भयभीत करके या डाँट-फटकार कर और मार-पीट कर या तीनों एक साथ करके आहार पाने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए। अपनी जाति आदि का गर्व करके या दरिद्रता का प्रदर्शन कर अथवा भिखारी के समान दीनता दिखाकर अथवा ये तीनों करके तथा मित्रता बतला कर, प्रार्थना कर और सेवा करके, या तीनों करके आहार लेने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। अज्ञात रह कर (अपना परिचय नहीं देता हुआ) अनासक्त रह कर, आहार और दाता पर द्वेष नहीं रखता हुआ, दीनता, उदासीनता, दयनीयता और विषाद-रहित होकर, साधना में बिना खेदित हुए और बिना रुके चलता रहे। अप्राप्त गुणों की प्राप्ति के लिए उद्योग करता हुआ, विनय एवं क्षमादि गुणों से युक्त होकर, भिक्षु को आहार की गवेषणा करनी चाहिए। For Personal & Private Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा महाव्रत की प्रथम भावना 223 **************************************************************** प्रवचन का उद्देश्य और फल . इमं च णं सव्वजगजीव-रक्खणदयट्टयाए पावयणं भगवया सुकहियं अत्तहियं पेच्चाभावियं आगमेसिभद्धं सुद्धं णेयाउयं अकुडिलं अणुत्तरं सव्वदुक्खपावाणविउसमणं। शब्दार्थ - इमं - ये, सव्वजगजीवरक्खणदयट्ठयाए - समस्त जगत् के जीवों की रक्षा रूप दया के लिए, पावयणं - प्रवचन, भगवया - भगवान् ने, सुकहियं - उत्तम कहा है, अत्तहियं - आत्मा के लिए हितकारी, पेच्चाभावियं - जन्मान्तर में शुभ फल के दाता, आगमेसिभद्ध - भविष्य में कल्याण के हेतु, सुद्धं - शुद्ध, णेयाउयं - न्याययुक्त, अकुडिलं - कुटिलता से रहित-सरल, अणुत्तरं - प्रधान, सव्वदुक्खपावाण - समस्त दुःख और पापों को, विउसमणं - शान्त करने वाला। .. .. भावार्थ - समस्त जगत् के जीवों की रक्षा रूप दया के लिए भगवान् ने यह प्रवचन फरमाया है। भगवान् का यह प्रवचन अपनी आत्मा के लिए तथा समस्त जीवों के लिए हितकारी है। जन्मान्तर में शुभ फल का दाता है, भविष्य में कल्याण का हेतु है। इतना ही नहीं, वरन् यह प्रवचन शुद्ध, न्याययुक्त, मोक्ष के प्रति सरल, प्रधान और समस्त दुःखों तथा पापों को शान्त करने वाला है। विवेचन - जिनेश्वर भगवान् के प्रवचन-धर्मोपदेश का कारण इस सूत्रांश में बताया है। भगवान् के प्रवचन का उद्देश्य, विश्व के समस्त जीवों की रक्षा और दया है। कोई जीव, किसी को पीड़ित नहीं करे, दया भाव रखे और जीवों की रक्षा करे। इस अहिंसा के पालन से, पालक की आत्मा, पाप-कर्म से बचती हुई अपनी खुद की रक्षा करती है और अन्य प्राणियों की भी रक्षा करती है। भगवान् ने इस ' अहिंसा धर्म को शुद्ध एवं न्याययुक्त बताया है। ... अहिंसा महाव्रत की प्रथम भावना .. तस्स इमा. पंच भावणाओ पढमस्स वयस्स होति। पाणाइवायवेरमणपरिरक्खणट्ठयाए पढमं ठाण-दमण-गुणजोगजुंजणजुगंतरणिवाइयाए दिट्ठिए ईरियव्वं कीड-पयंग-तस-थावर-दयावरेण णिच्चं पुप्फ-फल-तय-पवाल-कंद-मूल-दगमट्टिय-बीय-हरिय-परिवज्जिएण सम्म। एवं खलु सव्वपाणा ण हीलियव्वा ण प्रिंदियव्वा ण गरहियव्वा ण हिंसियव्वा ण छिंदियव्वा ण भिंदियव्वा ण वहेयव्वा ण भयं दुक्खं च किंचि लब्भा पावेडं एवं ईरियासमिइजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा असबलमसंकिलिट्ठणिव्वणचरित्तभावणाए अहिंसए संजए सुसाहू। शब्दार्थ - तस्स -. उस, पंच - पाँच, भावणाओ.- भावनाएँ, पढमस्स - प्रथम, वयस्स - For Personal & Private Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०२ अ० 1 ************************************************************* महाव्रत, होति - है, पाणाइवाय-वेरमण-परिरक्खण-दयट्ठयाए - प्राणातिपात विरमण रूप पहले महाव्रत की रक्षा रूप दया के लिए, ठाणगमणगुणजोगजुंजणजुगंतरणिवाइयाएं - स्व पर गुणवृद्धि के लिए साधु को ठहरने में और चलने में भूमि पर एक युग मात्र, दिट्टिए - दृष्टि रखना, ईरियव्वं - ईर्यासमिति पूर्वक, कीडपयंगतसथावरदयावरण - कीट, पतंग, त्रस और स्थावर जीवों की रक्षा करना, णिच्च - सदैव, पुष्फफलतयपवालकंदमूलदगमट्टियबीयहरियपरिवज्जिएण - फूल, फल, त्वचा, प्रवाल, क्रंद, मूल, पानी, मिट्टी, बीज और हरीकाय को वर्जित करना, सम्मं - सम्यक् प्रवृत्ति, एवं - इस प्रकार, सव्वपाणा - सभी प्राणियों की, ण हीलियव्वा - अवज्ञा न करे, ण णिंदियव्वा - निंदा नहीं करे, ण गरहियव्वा - गर्हा न करे, ण हिंसियव्या - हिंसा न करे, ण छिंदियव्या - छेदन नहीं करे, ण भिंदियव्वाभेदन न करे, ण वहेयव्या- वध न करे, किंचि - किंचित् मात्र भी, भयं- भय, य - और, दुक्खं - दुःख, ण लब्भा पावेड - न दे, एवं - इस प्रकार, ईरियासमिइजोगेण - ईर्यासमिति द्वारा, अंतरप्पा - अन्तरात्मा, भाविओ भवइ:- भावित होती है, असबलमसंकिलिट्ठणिव्वणचरित्तभावणाए - उसका चारित्र और परिणाम निर्मल, विशुद्ध और अखण्डित होता है, अहिंसए - अहिंसक, संजए - संयमधारी, सुसाहू - मोक्ष का साधक उत्तम साधु। . . भावार्थ - इस अहिंसा महाव्रत की पाँच भावनाएं हैं। प्राणातिपातविरमण' नामक प्रथम महाव्रत की रक्षा'रूप दया के लिए और स्व-पर गुण-वृद्धि के लिए साधु चलने और ठहरने में युग-प्रमाण भूमि पर दृष्टि रखता हुआ ईर्यासमितिपूर्वक चले, जिससे उसके पाँव के नीचे दब कर कीट, पतंगादि त्रस और स्थावर जीवों की घात न हो जाए। चलते या बैठते समय साधु सदैव पुष्प, फल, त्वचा, प्रवाल, कन्द, मूल, पानी, मिट्टी, बीज और हरीकाय को वर्जित करता-टालवा-बचाता हुआ सम्यक् प्रवृत्ति करे। इस प्रकार ईर्यासमितिपूर्वक प्रवृत्ति करते हुए साधु सभी प्राणियों, या किसी भी प्राणी की, अवज्ञा या हीलना नहीं करे, न निन्दा करे, हिंसा भी नहीं करे और न छेदन, भेदन और वध करे। किसी भी प्राणी को किञ्चित् मात्र भी भय और दुःख नहीं दे। इस प्रकार ईर्यासमिति से अन्तरात्मा भावित-पवित्र होती है। उसका चारित्र और परिणति निर्मल, विशुद्ध एवं अखण्डित होती है। वह अहिंसक होता है। ऐसा अहिंसक संयत, उत्तम साधु होता है। माना विवेचन - अहिंसा महाव्रत की पाँच भावनाओं में से प्रथम भावना-ईर्यासमिति रूप है। चलने, फिरने, बैठने आदि आवश्यक कार्यों में बहुत सावधानीपूर्वक जीवों की यतनाः करने का इस प्रथम भावना में विधान किया है। इस भावना में शारीरिक प्रवृत्ति को नियन्त्रित करने का उपदेश दिया है। . - द्वितीय भावना - मन-समिति बिइयं च मणेण पावएणं पावगं अहम्मिय दारुणं णिस्संसं वह-बंधपरिकिलेसबहुलं भयमरणपरिकिलेससंकिलिटुं ण कयावि मणेण पावएणं पावगं For Personal & Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . तृतीय भावना-वचन-समिति . 225 . ***** * ********************* ******************** किंचि वि झायव्वं / एवं मणसमिइजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा असबलमसंकिलिट्ठणिव्वणचरित्तभावणाए अहिंसए संजए सुसाहू। शब्दार्थ - बिइयं - दूसरी, मणेण - मन से, पावएणं - पापकारी, पावगं - पापयुक्त विचार, अहम्मियं - अधार्मिक, दारुणं - दारुण, णिस्संसं - नृशंस, वहबंधपरिकिलेसबहुलं - प्राणियों का वध, बन्धन, अत्यंत परिताप, भयमरणपरिकिलेससंकिलिट्ठ - भय, मरण और क्लेश इत्यादि हिंसा सम्बन्धी, ण कयावि - कदापि नहीं, मणेण - मन से, पांवएणं - पापकारी, पावगं - पापयुक्त विचार नहीं करे, किंचि वि - किंचित् मात्र भी, ण झायव्वं - चिंतन नहीं करना, एवं - इस प्रकार, मणसमिइजोगेणं - मन समिति के व्यापार से, भाविओ - भावित, भवइ - होता है, अंतरप्पा - अन्तरात्मा - असबलमसंकिलिट्ठणिव्वणचरित्तभावणाए - उसका चारित्र और परिणाम निर्मल, विशुद्ध और . अखंडित होता है, अहिंसए - अहिंसक, संजए - संयमधारी, सुसाहू - उत्तम साधु / भावार्थ - अहिंसा महाव्रत की दूसरी भावना 'मन-समिति' है। साधु, अपने मन को पापकारीकलुषित बनाकर पापी विचार नहीं करे, न मलिन मन बनाकर अधार्मिक, दारुण एवं नृशंसता पूर्ण विचार करे, तथा वध-बन्धन और परितापोत्पादक विचारों में लीन भी नहीं बने। जिनका परिणाम भय, क्लेश और मृत्यु है-ऐसे हिंसा युक्त पापी विचारों को अपने मन में किञ्चित् मात्र भी स्थान नहीं दे। ऐसा पापी ध्यान कदापि नहीं करे। इस प्रकार मन समिति की प्रवृत्ति से अन्तरात्मा भावित-पवित्र होती है। ऐसी विशुद्ध मन वाली आत्मा का चारित्र और भावना निर्मल-विशुद्ध तथा अखण्डित होती है। वह साधु अहिंसक, संयमी एवं मुक्ति साधक होता है। उसकी साधुता उत्तम होती है। . * विवेचन - मन को हिंसाकारी पाप-पूर्ण विचारों से कलुषित नहीं करना। यह अहिंसा महाव्रत की. दूसरी भावना है। मन-समिति का पालन करने से भाव अहिंसकता आती है। बिना मन-समिति के भाव-अहिंसकता एवं भाव-संयम नहीं होता। शरीर और वचन से अहिंसा का पालन करते हुए भी यदि मन में हिंसा के परिणाम हों, तो वह द्रव्य-अहिंसक, द्रव्य-संयमी या द्रव्य-महाव्रती होगा। उसकी मानसिक पापी परिणति उसे स्वदया से वंचित रख कर पापकर्मों के बन्धन में बाँधती रहेगी। पापपूर्ण विचारों से अन्य प्राणियों की हिंसा तो नहीं होती, परन्तु खुद की आत्मा की हिंसा होती रहती है। पापपूर्ण विचार, खुद की आत्मा के लिए दुःखों का मूलारोपण है। मन-समिति के पालक की आत्मा उज्ज्वल, पवित्र एवं विशुद्ध होती। उसकी साधुता उत्तम है। वह मुक्ति के निकट होता रहता है। तृतीय भावना - वचन-समिति - तइयं च वइए पावियाए पावगं ण किंचिवि भासियव्वं। एवं वइ-समियजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा सबलमसंकिलिट्ठणिव्वण-चरित्तभावणाए अहिंसए संजए सुसाहू। For Personal & Private Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०२ अ०१ *************************************************************** शब्दार्थ - तइयं - तीसरी, वइए - वचन से, पावियाए - पापकारी, पावगं - पापयुक्त वचन, ण भासियव्वं - नहीं बोलना चाहिए, वइसमिइजोगेण - वचन-समिति के व्यापार से, भाविओ भवइ - भावित होना, अंतरप्या - अन्तरात्मा, असबलमसंकिलिट्ठणिव्वणचरित्तभावणाए - उसका चारित्र और परिणाम निर्मल, विशुद्ध और अखण्डित होता है, अहिंसए-अहिंसक, संजए-संयमधारी, सुसाहू-सुसाधु। भावार्थ - अहिंसा महाव्रत की तीसरी भावना वचन-समिति है। कुवचनों से किंचित् मात्र भी पापकारी-आरंभकारी वचन नहीं बोलना चाहिए। वचन-समितिपूर्वक वाणी के व्यापार से अन्तरात्मा निर्मल होती है। उसका चारित्र एवं भाव निर्मल विशुद्ध एवं परिपूर्ण होता है। वचन-समिति (भाषा-समिति) का पालक अहिंसक, संयमी तथा मोक्ष का उत्तम साधक होता है। उसकी साधुता प्रशंसनीय होती है। विवेचन - वचनों से भी जीवों में क्लेश, परिताप एवं दुःख उत्पन्न किया जाता है। वचनों के बाण से बिंधे हुए जीव, आत्मघात कर लेते हैं। वचनों के दुष्ट व्यापार से जाति, समाज, देश और राष्ट्र में लड़ाई-झगड़े, उपद्रव एवं युद्ध तक हो सकते हैं। सत्य होते हुए भी कटु, आघातकारक, छेद-भेद एवं वधकारक वचनों का प्रयोग, हिंसाकारी तथा मृषावाद है। मिथ्या उपदेश एवं सावध प्रचार भी वचन-समिति के पालक के लिए त्याज्य हैं। अतएव अहिंसा के पालक को वचनगुप्ति का पालक बन, कर आवश्यकतानुसार निर्दोष वाणी का उच्चारण करना चाहिए। चतुर्थ भावना - आहारैषणा समिति चउत्थं आहारएसणाए सुद्धं उंछं गवेसियव्वं अण्णाए अगढिए अदुढे अदीणे अकलुणे अविसाई अपरितंतजोगी जयणघडणकरणचरियविणयगुणजोगसंपओगजुत्ते भिक्खू भिक्खेसणाए जुत्ते समुदाणेऊण भिक्खचरिय उंछं घेत्तूण आगओ गुरुजणस्स पासं गमणागमणाइयारे पडिक्कमणपडिक्कंते आलोयणदायणं य दाऊण गुरुजणस्स गुरुसंदिट्ठस्स वा जहोवएसं णिरइयारं च अप्पमत्तो, पुणरवि अणेसणाए पयओ पडिक्कमित्ता पसंते आसीणसुहणिसण्णे मुहुत्तमित्तं य झाणसुहजोगणाणसज्झायगोवियमणे धम्ममणे अविमणे सुहमणे अविग्गहमणे समाहियमणे सद्धासंवेगणिज्जरमणे पवयणवच्छलभावियमणे उद्विऊण य पहठ्ठतढे जहारायणियं णिमंतइत्ता य साहवे भावओ य विइण्णे य गुरुजणेणं उपविढे। शब्दार्थ - चउत्थं - चतुर्थ भावना, आहारएसणाए - आहार की गवेषणा के लिए, सुद्धं - शुद्ध, उंछं - थोड़े-थोड़े, गवेसियव्वं - गवेषणा करे। अण्णाए - अज्ञात रहता हुआ, अगढिए - गृद्ध नहीं होता हुआ, अदुढे - द्वेषभाव नहीं लाता हुआ, अदीणे - दीन-भाव रहित, अकलुणे - करुण भाव नहीं बताता हुआ, अविसाई - विषाद नहीं करे, अपरितंतजोगी - मन वचन और काया के योगों को अखिन्न For Personal & Private Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . चतुर्थ भावना-आहारैषणा समिति 227 ************ * ************** ************** *********** रखता हुआ, जयण - संयम में प्रयत्नशील, घडणकरण - अप्राप्त गुणों की प्राप्ति के लिए उद्योग करने वाला, चरियविणयगुणजोगसंपउत्ते - विनय और क्षमा आदि गुणों से युक्त होकर, भिक्खू - साधु, भिक्खेसणाए - भिक्षा की गवेषणा के लिए, जुत्ते - प्रवृत्ति करे, समुदाणेऊण - सामुदानिक, भिक्खचरियं - भिक्षाचरी द्वारा, उंछं - थोड़ा-थोड़ा, घेत्तुण - ग्रहण करके, आगओ - अपने स्थान आया हुआ, गुरुजणस्स - गुरुजन के, पासं - पास, गमणागमणाइयारे - गमनागमन के अतिचारों की, पडिक्कमणपडिक्कंते - निवृत्ति के लिए ईर्यापथिक प्रतिक्रमण, य - और, आलोयणदायणं - आहार पानी का क्रम दिखाना, दाऊण - दिखलाकर, गुरुजणस्स - गुरु महाराज के निकट, गुरुसंदिट्ठस्स - गुरु महाराज द्वारा आदेश दिए हुए गीतार्थ के पास, वा - अथवा, जहोवएसं - यथोपदेश, णिरइयारं - निरतिचार, अप्पमत्तो - प्रमाद रहित होकर, पुणरवि - फिर, अणेसणाए - अनेषणा जनित दोषों की निवृत्ति के लिए, पयओ - प्रयत्नपूर्वक, पडिक्कमित्ता - कायोत्सर्ग करना, पसंते - शान्त चित्त होकर, आसीणसुहणिसण्णे - सुखपूर्वक बैठे, मुहुत्तमित्तं - एक मुहूर्तमात्र, जाणसुहजोगणाणसल्झायगोवियमणे - ध्यान करे तथा शुभयोग का आचरण करे, एवं पूर्व पठित ज्ञान का चिंतन और . स्वाध्याय करे, धम्ममणे - मन को धर्म में स्थापित करे, अविमणे - विशाद का भाव नहीं आने दे, सुहमणे- शुभ मन-युक्त, अविग्गहमणे- कलह का भाव उत्पन्न न होने दे, समाहियमणे- समाधित मन वाला, सद्धासंवेगणिज्जरमणे - मन में धर्म की श्रद्धा, मोक्ष की अभिलाषा और निर्जरा की भावना करे, पवयणवच्छलभावियमणे - प्रवचन वत्सलता में मन को लगाता हुआ, य - और, पहठ्ठतुडे - अत्यन्त हर्ष एवं तुष्ठि के साथ, उट्ठिऊण - उठकर, जहारायणियं - यथारत्नाधिक (संयम में अपने से बड़े) साहवे-साधुओं को क्रमानुसार, णिमंतइत्ता-भोजनार्थ आमन्त्रित करे, भावओ-भावपूर्वक, विइण्णेउनकी इच्छानुसार देने के पश्चात्, गुरुजणेणं - गुरु की आज्ञा पाकर, उपविठू-उचित स्थान पर बैठ जाये। - भावार्थ - अहिंसा महाव्रत की चौथी भावना 'एषणा समिति' है। आहार की गवेषणा के लिए गृहसमुदाय में गया हुआ साधु, थोड़े-थोड़े आहार की गवेषणा करे। आहार के लिए गया हुआ साधु, अज्ञात रहता हुआ अर्थात् अपना परिचय नहीं देता हुआ, स्वाद में गृद्धता, लुब्धता एवं आसक्ति नहीं रखता हुआ गवेषणा करे। यदि आहार तुच्छ, स्वादहीन या अरुचिकर मिले, तो उस आहार पर या उसके देने वाले पर द्वेष नहीं लाता हुआ, दीनता, विवशता या करुणा भाव न दिखाता हुआ, समभावपूर्वक आहार की गवेषणा करे। यदि आहार नहीं मिले, कम मिले या अरुचिकर मिले, तो मन में विषाद नहीं लावे और अपने मन वचन और काया के योगों को अखिन्न-अखेदित रखता हुआ संयम में प्रयत्नशील रहे। अप्राप्त गुणों की प्राप्ति में उद्यम करने वाला एवं विनयादि गुणों से युक्त साधु भिक्षा की गवेषणा में प्रवृत्त होवे। सामुदानिक भिक्षाचरी से थोड़ा-थोड़ा आहार लाकर, अपने स्थान पर आया हुआ साधु, गुरुजन के समीप गमनागमन सम्बन्धी अतिचारों की निवृत्ति के लिए ईर्यापथिकी प्रतिक्रमण करे। इसके बाद जिस क्रम से आहार-पानी की प्राप्ति हुई हो, उसकी आलोचना करे और आहार दिखावे। फिर For Personal & Private Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 ** प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०१ ******************************************** ** ****** गुरुजन के निकट या गुरु के निर्देशानुसार गीतार्थादि मुनि के पास अप्रमत्त होकर विधिपूर्वक, अतिचार रहित होकर, अनेषणा जनित दोषों की निवृत्ति के लिए पुनः प्रतिक्रमण (कायोत्सर्ग) करे। इसके बाद शान्त चित्त सुखपूर्वक बैठे और मुहूर्त मात्र ध्यान करे तथा ध्यान और शुभयोग का आचरण करता हुआ ज्ञान का चिंतन एवं स्वाध्याय करे और अपने मन को श्रुत-चारित्र रूप धर्म में स्थापित करे। फिर आहार करता हुआ साधु मन में विषाद एवं व्यग्रता नहीं लाता हुआ मन को शुभ योग युक्त रखे। समाधि युक्त रखे। मन में धर्म की श्रद्धा, मोक्ष, अभिलाषा एवं कर्म-निर्जरा की भावना रखे। निग्रंथ-प्रवचन के प्रति वात्सल्य भाव को धारण करे, फिर हर्षपूर्वक उठ कर यथा-रत्नाधिक (जो अपने से संयम में बड़े हों उन) को क्रमानुसार भोजन करने के लिए आमन्त्रित करे और उनकी इच्छानुसार उन्हें भावपूर्वक भोजन देने के पश्चात् गुरुजन की आज्ञा प्राप्त होने पर उचित स्थान पर बैठे। विवेचन - अण्णाए - अज्ञात-"अज्ञातो-अनवगतो दायकजनेरयं श्रीमान् प्रव्रजितोऽस्ति इति म ज्ञातः अकथितः स्वयमेव यथाहं श्रीमान् पूर्वमभूवं इति।" अर्थात्-साधु अज्ञात रहे। दाता यह न जानता हो कि यह साधु श्रीमंत कुल से निकला है (या इसमें कोई विशेषता है) साधु भी अपना परिचय नहीं दे कि मैं गृहस्थवास में कोई दरिद्र या नंगा-भूखा नहीं, परन्तु श्रीमंत (या अधिकारी था) अथवा मैं ऐसा तपस्वी आदि हूँ। अपनी जाति सम्बन्ध आदि का परिचय नहीं दे। आहार करने की विधि संपमन्जिऊण ससीयं कायं तहा करयलं अमुच्छिए अगिद्धे अगढिए अगरहिए.. अणझोववण्णे अणाइले अलुद्धे अणत्तट्ठिए असुरसुरं. अचवचवं अदुयमविलंबियं अपरिसाडियं आलोयभायणे जयं पयत्तेण ववगय-संजोग-मणिंगालं च विगयधूमं अक्खोवंजणाणुलेवणभूयं संजमजायामायाणिमित्तं संजमभारवहणट्ठयाए भुंजेज्जा पाणधारणट्ठयाए संजएण समियं एवं आहारसमिइजोगेणं भाविओ भवइ अंतरप्या असबलमसंकिलिट्ठणिव्वणचरित्तभावणाए अहिंसए संजए सुसाहू। शब्दार्थ - ससीयं - मस्तक सहित, कायं - शरीर को, तहा - तथा, करयलं - करतल को, संपमज्जिऊण - भली प्रकार से पूँज कर आहार करे, अमुच्छिए - मूर्छित न हो, अगिद्धे - गृद्ध न हो, अगढिए - आसक्त न हो, अगरहिए - गर्दा न करे, अणज्झोववण्णे - रस में मन को एकाग्रं न करे, अणाइले - भावों को दूषित न करे, अलुद्धे - लुब्ध न हो, अणत्तट्ठिए - स्व-स्वार्थ के साथ परार्थ पर भी ध्यान रखे, असुरसुरं - सुरसुर का शब्द नहीं करे, अचवचवं - चवचव की ध्वनि नहीं करे, अदुयं - बहुत शीघ्र आहार न करे, अविलंबियं - बहुत विलम्बपूर्वक भी आहार न करे, अपरिसाडियं - आहार के कण को नीचे नहीं गिरावे, आलोयभायणे - दिखाई देने वाले पात्र में, जयं पयत्तेण - यतनापूर्वक योगों को वश में रखे, ववगयसंजोगमणिंगालं - संयोजना तथा इंगाल दोष से रहित, विगयधूमं - धूम-दोष For Personal & Private Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमी भावना-आदान निक्षेपण समिति 229 ************************************************************* वर्जित, अक्खोवंजणाणुलेवणभूयं - गाड़ी के पहियों की धुरा में अंजन तथा घाव पर लेप के समान, संजमजायामायाणिमित्तं - संयम-यात्रा के निर्वाह के लिए, संजमभारवहणट्ठायाए - संयमभार वहन करने के लिए, य - और, पाणधारणट्ठयाए - प्राण धारण करने के लिए, भुंजेज्जा - भोजन करे, एवं - इस प्रकार, आहारसमिइजोगेणं - आहार-समिति का, समियं - सम्यक् पालन करने वाले, संजएण - साधु की, अंतरप्पा - अन्तरात्मा, भाविओ भवई - भावित होती है, असबलमसंकिलिट्ठणिव्वणचरित्तभावणाए - उसका चारित्र और परिणाम निर्मल, विशुद्ध और अखण्डित होता है, अहिंसए - अहिंसक, संजए - संयमधारी, सुसाहू - मोक्ष का साधक उत्तम साधु। भावार्थ - फिर मस्तक सहित शरीर तथा करतल को भली प्रकार से पूँज कर आहार करे। आहार करता हुआ साधु, आहार के स्वाद में मूर्च्छित नहीं होवे, गृद्ध, लुब्ध एवं आसक्त नहीं बने। अपना ही स्वार्थ नहीं सोचे। विरस या रस-रहित आहार हो, तो उसकी निन्दा नहीं करे। मन को रस में एकाग्र नहीं करे। मन में कलुषता नहीं लावे। रस लोलुप नहीं बने। भोजन करता हुआ 'सुरसुर' या 'चव चव' की ध्वनि नहीं होने दे। भोजन करने में न तो अति शीघ्रता करे और न अति धीरेविलम्बपूर्वक करे। भोजन करते समय आहार का अंश नीचे नहीं गिरावे। ऐसे भाजन में भोजन करे जो भीतर से भी पूरा दिखाई देता हो अथवा भोजन-स्थान अन्धकार युक्त नहीं हो। भोजन करता हुआ साधु अपने मन, वचन और काया के योगों को वश में रखे। भोजन को स्वादयुक्त बनाने के लिए उसमें कोई अन्य वस्तु नहीं मिलावे अर्थात् 'संयोजना दोष' और 'इंगाल दोष' नहीं लगावे। अच्छे आहार की सराहना भी नहीं करे। अनिच्छनीय आहार की निन्दा रूप 'धूम-दोष' भी नहीं लगावे। जिस प्रकार गाड़ी को सरलतापूर्वक चलाने के लिए उसकी धुरी में अंजन, तेल आदि लगाया जाता है और शरीर पर लगे हुए घाव को ठीक करने के लिए लेप-मरहम लगाया जाता है, उसी प्रकार संयम-यात्रा के निर्वाह के लिए, संयम के भार को वहन करने के लिए तथा प्राण धारण करने के लिए भोजन करे। इस प्रकार आहार-समिति का सम्यक् रूप से पालन करने वाले साधु की अन्तरात्मा भावित होती है। उसकी चारित्र और भावना निर्मल विशुद्ध एवं अखण्डित है। वह संयमवंत अहिंसक साधु, मोक्ष का उत्तम साधक होता है। ... . विवेचन - इस चौथी भावना में आहार प्राप्ति और भोजन करने की कैसी उत्तम विधि बताई गई है ? ऐसी निर्दोष, उत्तम एवं परिपूर्ण विधि भी निग्रंथ-धर्म की ही विशेषता है। पंचमी भावना - आदान निक्षेपण समिति .. पंचमं आयाणणिक्खेवणसमिइ पीढ-फलग-सिज्जा-संथारग-वत्थ-पत्त-कंबलदंडग-रयहरण-चोलपट्टग-मुहपोत्तिय-पायपुंछणाई एयं वि संजमस्स उवबूहणट्ठयाए For Personal & Private Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०२ अ०१ ****************** ****** ************** वायातवदंसमसगसीयपरिरक्खणट्ठयाए उवगरणं रागदोसरहियं परिहरियव्वं संजमेणं णिच्चं पडिलेहण-पप्फोडण-पमज्जणयाए अहो य राओ य अप्पमत्तेण होइ सययं णिक्खियव्वं च गिहियव्वं च भायणभंडोवहिउवगरणं एवं आयाणभंडणिक्खेवणा समिइजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा असबलमसंकिलिट्ठणिव्वणचरित्तभावणाए अहिंसए संजए सुसाहू। शब्दार्थ - पंचमं - पाँचवीं, आयाणणिक्खेवणसमिइ - आदाननिक्षेप-समिति, पीढ-फलगसिज्जा-संथारग-वत्थ-पत्तकंबल-दंडग-रयहरण-चोलपट्टग-मुहपोत्तिय-पायपुंछणाई - पीठ, फलक, शय्या संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कम्बल, दण्ड, रजोहरण, चोलपट्टा, मुंहपत्ति, पादप्रौंच्छन, एयंवि -- इन, संजमस्स - संयम की, उववूहणट्ठायाए - वृद्धि के लिए, वायातवदंसमसगसीयपरिरक्खणट्ठयाए.वायु, आतप, दंशमशक और शीत निवारण के लिए, उवगरणं - उपकरण, रागदोसरहियं - राग-द्वेष रहित / हो, परिहरियव्वं - धारण करना, संजएण - साधु को, णिच्चं - सदा, पडिलेहणपष्फोडणपमजणयाए- : प्रतिलेखना, प्रस्फोटन और रजोहरण द्वारा प्रमार्जन, अहो - दिन में, य - और, राओ - रात में, अप्पमत्तेण होइ - अप्रमत्त होकर, सययं - सतत्-सदाकाल, णिक्खियव्वं - रखे, गिहियव्यं - ग्रहण करे, भायणभंडोवहिउवगरणं - भण्डोपकरणों को, एवं - इस प्रकार, आयाणभंडणिक्खेवणासमिइजोगेणआदन-भंड-निक्षेपणा समिति का यथावत् पालन करे, भाविओ - भावित, भवइ - होता है, अंतरप्पा - अन्तरात्मा, असबलमसंकिलिणिव्वणचरित्तभावणाए - उसका चारित्र और परिणाम निर्मल विशुद्ध . और अखण्डित होता है, अहिंसए - अहिंसक, संजए-संयमधारी, सुसाहू - मोक्ष का साधक उत्तम साधु। भावार्थ - अहिंसा महाव्रत की पांचवीं भावना 'आदान-निक्षेपण' समिति है। संयम साधना में उपयोगी ऐसे उपकरण (साशन) को यतनापूर्वक ग्रहण करना एवं यतनापूर्वक रखना-'आदान-निक्षेपणं' समिति है। साधु को पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कम्बल, दण्ड, रजोहरण, चोलपट्टक, मुखवस्त्रिका, पादप्रौंच्छन आदि उपकरण, संयमवृद्धि के लिए तथा वायु, आतप, दंशमशक और शीत से बचाव करने के लिए हैं। इन्हें राग-द्वेष रहित होकर सदैव धारण करना चाहिए। इन उपकरणों की प्रतिलेखना (देखना-निरीक्षण करना) प्रस्फोटना (झटकना-फटकना) प्रमार्जना (रजोहरण से पूँजना) करनी चाहिए। दिन और रात में-सदैव अप्रमत्त रहता हुआ मुनि, पात्र और भण्डोपकरण ग्रहण करे और रखे। इस प्रकार आदान-निक्षेपणा समिति का यथावत् पालन करने से, साधु की अन्तरात्मा अहिंसा धर्म से प्रभावित होती है। उसका चारित्र और आत्म-परिणाम निर्मल, विशुद्ध होता है और महाव्रत अखण्डित रहता है। वह संयमवान् अहिंसक साधु मोक्ष का उत्तम साधक होता है। एवमिणं संवरस्स दारं सम्मं संवरियं होइ सुप्पणिहियं इमेहिं पंचहिं वि कारणेहिं मणवयणकायपरिरक्खिएहिं णिच्चं आमरणंतं य एस जोगो णेयव्वो धिइमया मइमयां अणासवो अकलुसो अच्छिद्दो असंकिलिट्ठो सुद्धो सव्वजिणमणुण्णाओ। For Personal & Private Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमी भावना-आदान निक्षेपण समिति 231 Wwwwwwwwww w ************************************ शब्दार्थ - एवमिणं - इस प्रकार यह, संवरस्स दारं - संवर द्वार, संवरियं - सेवन किया हुआ, सुप्पणिहियं - सुप्रणिहित, होइ - होता है, इमेहिं - इन, पंचहिं - पाँच, कारणेहिं - कारणों से, मणवयकायपरिरक्खिएहिं - मन, वचन और काया को गुप्त रखने रूप, णिच्चं - सदा, आमरणंतं - मरण पर्यन्त, एस - इस, जोगो - योग का, णेयव्यो - पालन करना, धिइमया - धैर्यवान्, मइमया - बुद्धिमान्, अणासवो - अनाश्रव, अकलुसो - पाप-रहित, अच्छिद्दो - छिद्र-रहित, असंकिलिट्ठो - संक्लेश-रहित, सुद्धो- शुद्ध, सव्वजिणमणुण्णाओ - समस्त तीर्थंकरों द्वारा आज्ञापित।। - भावार्थ - इस प्रकार सम्यक् रूप से सेवन किया हुआ यह प्रथम संवर द्वारा सुरक्षित होता है। बुद्धिमान् और धैर्यवान् मनुष्य को चाहिए कि वह अपने मन, वचन और काया को सुरक्षित रखने के लिए सदैव इन पाँच कारणों (भावनाओं) से जीवनपर्यन्त इस अहिंसा योग का पालन करे। यह अनास्त्रव है, अकलुष, निष्पाप है। आश्रव रूपी छिद्र से रहित है। मानसिक संक्लिष्टता से वंचित है। यह शुद्ध है और सभी जिनेश्वरों द्वारा आज्ञापित है। एवं पढमं संवरदारं फासियं पालियं सोहियं तिरियं किट्टियं आराहियं आणाए अणुपालियं भवइ। एवं णायमुणिणा भगवया पण्णवियं परूवियं पसिद्धं सिद्धं सिद्धवरसासणमिणं आघवियं सुदेसियं पसत्थं। ॥पढमं संवरदारं सम्मत्तं।त्तिबेमि॥ शब्दार्थ - एवं - इस प्रकार, पढमं - प्रथम, संवरदारं - संवरद्वार, फासियं - स्पृष्ट, पालियं - पालित, सोहियं - शोभित, तिरियं - अन्तिम ध्येय तक पहुँचाया, किट्टियं - कीर्तित, आराहियं - आराधित, आणाए - आज्ञा का, अणुपालियं - अनुपालित, भवइ - होता है, णायमुणिणा भगवयाज्ञात-कुलोत्पन्न भगवान् महावीर स्वामी ने, पण्णवियं - कहा है, परूवियं - प्ररूपणा की है, पसिद्धंप्रसिद्ध, सिद्धं - प्रमाण संगत, सिद्धवरसासणमिणं - अपने कार्य को सिद्ध करने वाले तीर्थंकर भगवान् की प्रधान आज्ञा, आघवियं - सम्यक् प्ररूपण, सुदेसियं - भली प्रकार उपदेशित, पसत्यं - प्रशस्त, पढमं - प्रथम, संवरदारं - संवरद्वार, सम्मत्तं - समाप्त हुआ, त्तिबेमि- ऐसा मैं कहता हूँ। . भावार्थ - इस प्रकार पाँचों भावनाओं का पालन करने से प्रथम संवरद्वार स्पर्शित, पालित, शोभित (या शोधित) होता है, पार पहुंचाया जाता है, कीर्तित होता है, आराधित होता है और तीर्थंकर भगवान् की आज्ञानुसार पालित होता है। इस प्रकार ज्ञात-कुलोत्पन्न भगवान् महावीर ने कहा है, प्ररूपणा की है। जिनेश्वर भगवंतों का यह अहिंसा धर्म सिद्ध है, प्रसिद्ध है। कृतकृत्य ऐसे जिनेश्वर भगवान् ने इसकी आज्ञा दी है। यह भगवान् द्वारा प्ररूपित है, उपदेशित है। यह निग्रंथ प्रवचन प्रशस्त है। प्रथम संवर-द्वार समाप्त हुआ। ऐसा मैं कहता हूँ। ।।अहिंसा नामक प्रथम संवर द्वार समाप्त॥ For Personal & Private Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य-वचन नामक द्वितीय संवर द्वार / सत्य की महिमा जंबू! बिइयं य सच्चवयणं सुद्धं सुचियं सिवं सुजायं सुभासियं सुव्वयं सुकहियं सुदि8 सुपइट्ठियं सुपइट्ठियजसं सुसंजमिय-वयण-बुइयं सुरवर-णरवसभ-पवरबलवगसुविहियजणबहुमयं, परमसाहुधम्मचरणं, तवणियमपरिग्गहियं सुगइपहदेसगं य लोगुत्तमं वयमिणं। विज्जाहरगगणगमणविज्जाणसाहकं सग्गमग्ग-सिद्धि-पहदेसगं अवितहं तं सच्चं, उज्जुयं अकुडिलं भूयत्थं अत्थओ विसुद्धं उज्जोयकरं पभासगं भवइ सव्वभावाण जीवलाए, अविसंवाइ जहत्थमहुरं। __ शब्दार्थ - जंबू - हे जम्बू, बिइयं - द्वितीय, सच्चवयणं - सत्य वचन, सुद्धं - शुद्ध, सुचियं - पवित्र, सिवं - कल्याणकारी, सुजायं - शुभ अर्थ का कथन करने वाला, सुभासियं - सुभाषित, सुव्वयं - सुव्रत, सुकहियं - भली प्रकार कथित, सुदि8 - सुदृष्ट, सुपइट्ठियं - सुप्रतिष्ठित, सुपइट्ठियजसंसुप्रतिष्ठित यश वाला, सुसंजमियवयणबुइयं - वचन पर पूर्ण नियन्त्रण रखने वाले पुरुषों द्वारा भाषित, सुरवर-णरवसभपवरबलवगसुविहियजणबहुमयं - उत्तम देव तथा नर-श्रेष्ठ बलवानों में उत्तम तथा नियमित जीवन व्यतीत करने वाले पुरुषों द्वारा भाषित, परमसाहुधम्मचरणं - उत्तम साधुओं का धर्माचरण रूप, तवणियमपरिग्गहियं - तप और नियमों से स्वीकृत, सुगइपहदेसगं - सुगति मार्ग का उपदेश करने वाला, विज्जाहरगगणगमणविज्जाणसाहकं - विद्याधर तथा आकाश-गमन विद्या का साधन, सग्गमग्गसिद्धिपहदेसगं - स्वर्ग-मार्ग तथा सिद्धि-मार्ग का प्रवर्तक, अवितहं - मिथ्यावाद का अभाव, तं - यह, सच्चं - सत्य वचन, उग्जुयं - सरल, अकुडिलं - कुटिलता रहित, भूयत्थं - सत् पदार्थ का कहने वाला, अत्थाओ - अर्थ, विसुद्धं - विशुद्ध, उज्जोयगरं - सत् पदार्थों को प्रकाशित करने वाला, पभासगं - कथन करने वाला, सव्वभावाण - समस्त पदार्थों का, जीवलोए - संसार में, अविसंवाइ - विसंवाद के दोष-रहित, जहत्थमहुरं - यथार्थ मधुर। भावार्थ - गणधर भगवान् सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि-हे जम्बू! दूसरा संवर-द्वार सत्य वचन है। सत्य वचन शुद्ध है, पवित्र है, कल्याण का कारण है, शुभ अर्थ का प्रकाशक है, सुभाषित है, सुव्रत, सुकथित, सुदृष्ट, सुप्रतिष्ठित एवं सुप्रतिष्ठित-यश युक्त है। सुसंयमशील मनुष्यों द्वारा बोला जाने वाला, उत्तम जाति के देवों, नरवृषभों एवं बलवानों में उत्तम तथा नियमित जीवन वाले महानुभावों द्वारा भाषित है। उत्तम साधुओं का धर्माचरण रूप है। तप और नियम के लिए परमावश्यक है। विद्याधर तथा आकाशगामिनी-विद्या का साधन भी सत्य वचन है। सत्य भाषण लोक में उत्तम है, स्वर्ग एवं मोक्षमार्ग दिखाने वाला है, एवं मिथ्यावाद से रहित है। सत्य-वचन सरल है, कुटिलता से रहित है, सत्य For Personal & Private Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य की महिमा 233 *************** ******************************************* वस्तु का प्ररूपक है, विशुद्ध अर्थ बताने वाला है। सत्य तत्त्व को प्रकाशित करने वाला है। इस जीव लोक के समस्त पदार्थों का प्रकाशक सत्य वचन ही है। सत्य-भाषण किसी भी प्रकार के विसंवाद से रहित है। यथार्थ एवं मधुर है। विवेचन - प्रथम अहिंसा नामक संवरद्वार के बाद दूसरा सत्यभाषण नामक संवरद्वार है। यदि सत्यभाषण नहीं हो, तो अहिंसा-संवर अपूर्ण रह जाता है। मिथ्यावाद स्व और पर का अहितकर्ता है, जो अहितकारी हो, वह पूर्ण अहिंसक कैसे हो सकता है ? अतएव पूर्ण अहिंसक के लिए सत्यवादी होना अति आवश्यक है। इसके बिना सर्वविरति नहीं हो सकती। इसीलिए सूत्रकार ने सत्यव्रत नामक दूसरे धर्मद्वार का प्रतिपादन किया है। सत्य वचन शुद्ध है, क्योंकि सत्यभाषी के मन में मृषावाद का मल नहीं होता। उसकी आत्मा असत्य के पाप से मलिन नहीं होती। अतएव सत्य शुद्ध है और जो शुद्ध है, वह पवित्र है, हितकारी है यावत् मुक्ति का हेतु है। उत्तम मनुष्य ही सत्य-भाषण करते हैं। यह सत्य-वचन, जाति आदि से अधम कहे जाने वाले मनुष्य को भी उत्तम बना देता है। जो उत्तम पुरुष हो गए हैं, उन सभी ने सत्य का आचरण किया था। असंख्य देवों के स्वामी इन्द्र और मनुष्यों के स्वामी नरेन्द्र-चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव आदि तथा संतजनों ने सत्य-भाषण का आदर किया है। जो उत्तम साधु हैं, उनका तो यह महाव्रत है। वे इसका पालन जीवन पर्यन्त त्रिकरण-त्रियोग से करते हैं। तपस्या भी सत्याचरण युक्त होने पर शुद्ध होती है। नियम भी सत्यता युक्त हो, तभी प्रशस्त होते हैं। जिस तप और नियम में सत्य नहीं, वे असम्यक् एवं अकल्याणकारी होते हैं। स्वर्ग एवं मुक्ति रूपी सुगति का उपदेश भी सत्य-वचन से ही होता है। मृषावाद एवं मिथ्या-भाषण से सुगति का उपदेश नहीं हो सकता। विद्याधर मनुष्य, आकाशगामिनी-विद्या की साधना करते हैं, वह आकाशगामिनी विद्या भी सत्य. भाषी के ही सिद्ध होती है। इस विद्या के प्रभाव से वे आकाश-मार्ग से यथेच्छ विचरण करते हैं। सत्यभाषण ही स्वर्ग एवं मुंक्तिमार्ग का प्रदर्शक है। .. सत्यभाषी सरल होता है, क्योंकि उसके मन में माया-कूट-कपट एवं छल रूपी वक्रता नहीं होती। ठय़ाई या वंचना रूपी कुटिल-भाव नहीं होते। इसलिए सत्य सरल होता है। वस्तु स्वरूप को यथातथ्य बताने वाला भी सत्य-वचन ही है। असत्य-भाषण के द्वारा न तो सम्यक् अर्थ प्रकाशित होता है और न तत्त्व ही। जहाँ असत्य का निवास हो, वहाँ तत्त्व अथवा लोक... का स्वरूप सत्य एवं यथार्थ रूप से प्रकट नहीं हो सकता, फिर वह असत्य भले ही उस व्यक्ति का अपना हो या उसे किसी अन्य व्यक्ति से प्राप्त हुआ हो-अनन्तर या परम्पर। पच्चक्खं दयिवयं व जं तं अच्छेरकारंग अवत्यंतरेसु बहुएसु मणुसाणं, सच्चेण महासमुहमज्झे वि मूढाणिया वि पोया सच्चेण य उदगसंभमम्मि वि ण वुज्झइ ण य मरंति थाहं ते लहंति। सच्चेण य उदगसंभमम्मि वि ण वुज्झइ ण य मरंति थाहं ते For Personal & Private Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०२ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww******************####### लहंति। सच्चेण य अगणिसंभमम्मि वि ण डझंति उज्जुगा मणुस्सा। सच्चेण य तत्ततेल्लतउलोहसीसगाई छिवंति धरेंति ण य डझंति मणुस्सा। पव्वयकडकाहिं. मुच्चंते ण य मरंति सच्चेण य परिग्गहिया, असिपंजरगया समराओ वि णिइंति अणहा य सच्चवाई, वहबंधभियोगवेर-घोरेहिं पमुच्चंति य अमित्तमज्झाहिं णिइंति अणहा य सच्चवाई, सादेव्वाणि य देवयाओ करेंति सच्चवयणे रत्ताणं। शब्दार्थ - पच्चक्खं - प्रत्यक्ष, दयिवयं व - देव के समान, अच्छेरकारगं - आश्चर्यकारक, अवत्थंतरेसु बहुसु - बहुत-सी विपत्तियों के आने पर भी, मणुस्साणं - मनुष्यों के लिए, सच्चेणं - सत्य के प्रभाव से, महासमुहमाझे - महान् समुद्र के मध्य में, मूढाणिया - दिशा-भ्रमित नाविक की, पोया- नौका, सच्चेण - सत्य के प्रभाव से, उदगसंभमम्मि वि - जलावर्त में पड़ी हुई, ण वुज्झइडूबती नहीं, ण मरंति- मरते नहीं, थाहं- थाह को. ते- वे. लहंति - प्राप्त करते हैं. सच्चेण- सत्य के प्रभाव से, अगणिसंभम्मि - अग्नि के उपद्रव में भी, ण डझंति - नहीं जलते, उज्जुगा - सरल, मणुस्सा - मनुष्य, सच्चेण - सत्य के प्रभाव से, तत्ततेल्लतउलोहसीसगाई - तप्त तेल, रांगा, लोहा. और शीशा को, छिवंति - स्पर्श करते, धरेंति - धारण करते, ण डझंति - जलते नहीं, मणुस्सा - मनुष्य, पव्वयकडकाहिं - पर्वत के अग्रभाग से, मुच्चंते - गिरा दिये जाने पर भी, ण मरंति - मरते नहीं, सच्चेण - सत्य के प्रभाव से, परिग्गहिया - चारों ओर से घेर लिया जाने पर भी, असिपंजरगया - तलवारों से युक्त शत्रुओं के समूह द्वारा, समराओ - संग्राम में, णिइंति - निकल आते हैं, अणहा - अक्षत शरीर, सच्चवाई - सत्यवादी मनुष्य, वहबंधभियोगवेरघोरेहिं - वध, बन्धन, बलात्कार और घोर उपद्रवों से भी, पमुच्चंति - मुक्त होते हैं, अमित्तमझाहिं - शत्रुओं के बीच से, णिइंति - निकल आते हैं; अणहा - अक्षत, सच्चवाई - सत्यवादी मनुष्य, सादेव्वाणि - समीपता, देवयाओ - देव भी, करेंति - करते हैं, सच्चवयणे रत्ताणं - सत्य-वचन में अनुरक्त रहने वाले मनुष्यों की। भावार्थ - सत्यभाषी मनुष्य पर यदि विपत्तियाँ आकर घेरा डाल दें, तो भी उसका सत्यव्रत उसके लिए देव के समान आश्चर्यकारी प्रत्यक्ष सहायक होता है। दिग्मूढ़ नाविक की महासमुद्र के जल-भ्रमर में पड़ी हुई नौका भी सत्य के बल से डूबती नहीं और नौका-विहारी मरते नहीं। वे अथाह जल से निकल कर थाह प्राप्त कर लेते हैं। सत्य के प्रभाव से अग्नि का उपद्रव-दावानल भी नहीं जला सकता। सत्य का आचरण करने वाले सरल मनुष्य यदि उबलते हुए तेल रांगा, लोह और शीशे को हाथों में पकड़ लें, तो भी नहीं जलते। सत्य पालक को यदि कोई पर्वत-शिखर से गिरा दे, तो भी वह नहीं मरता और बच जाता है। सत्यव्रती मनुष्य संग्राम में शत्रु-समूह द्वारा घिरकर भी सुरक्षित निकल जाता है। सत्यभाषी मनुष्य, वध, बन्धन, आक्रमण, बलप्रयोग एवं घोर शत्रुदल की विपत्ति से भी मुक्त हो जाता है। सत्यवाद में अनुरक्त रहने वाले मनुष्य का देव भी सान्निध्य करते हुए सेवा करते हैं। यह सत्य-व्रत की महिमा है। For Personal & Private Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 235 सत्य की महिमा ************************************************************** विवेचन - सत्यव्रती, सत्य के आराधक और सत्य के बल से अपनी आत्मा-को बलवान् बनाने वाली भव्यात्मा, प्रथम तो सभी प्रकार की विपत्तियों से सुरक्षित रहती है। यदि पूर्वकर्म के उदय से कभी विपत्ति आ भी जाये, तो वह सत्यव्रती आत्मा का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती। उसका सत्यव्रत उसकी इस प्रकार रक्षा करता है, जिस प्रकार किसी देव ने आकर आश्चर्यजनक रूप से रक्षा की हो। सत्यव्रत का पालक, समुद्र के भंवरचक्र, वायुप्रकोप, बड़वानल या किसी भी प्रकार के भयानक उपद्रव से घिर कर भी सुरक्षित रहकर किनारे आ जाता है। उसे दावानल भी नहीं जला सकता और शत्रु सेना भी क्षति नहीं पहुंचा सकती। उस सत्यधर्मी सत्पुरुष को पर्वत-शिखर से गिरा देने पर भी अंग-भंग नहीं होता। वह सभी प्रकार की आपत्ति-विपत्तियों से बचा रहता है। देव भी उसके प्रशंसक और सहायक " होते हैं। कहा भी है कि - "सत्येनाऽग्निर्भवेच्छीतोऽगाधाम्बुधिरपि स्थलम्। नाऽसिः छिनत्ति सत्येन, सत्यान्न दशते फणी।" - सत्यवादी के समक्ष अग्नि भी शीतल हो जाती है। अगाध समुद्र भी स्थल के समान हो जाता है। तलवार की धार भी भोंथरी हो जाती है और सर्प भी नहीं डसता। यह सत्यव्रत की महिमा है। . .. तं सच्चं भगवं तित्थयरसुभासियं दसविहं चोहसपुचीहिं पाहुडत्थविइयं महरिसीण य समयप्पइण्णं देविंदणरिदभासियत्थं वेमाणियसाहियं महत्थं मंतोसहिविजासाहणत्थं चारणगणसमणसिद्धविजं मणुयगणाणं वंदणिजं अमरगणाणं अच्चणिजं असुरगणाणं य पूयणिजं अणेगपासंडिपरिग्गहियं जं तं लोगम्मि सारभूयं, गंभीरयरं महासमुद्दाओ, थिरयरगं मेरुपव्वयाओ, सोमयरगं चंदमंडलाओ, दित्तयरं सूरमंडलाओ विमलयरं सरयणहयलाओ, सुरभियरं गंधमादणाओ जे वि य लोगम्मि अपरिसेसा मंतजोगा जवा य विज्जा य जंभगा य अत्थाणि य सत्याणि य सिक्खाओ य आगमा य सव्वाइं वि ताई सच्चे पइट्ठियाई। __शब्दार्थ - तं - यह, सच्चं - सत्य, भगवं - भगवान्, तित्थयरसुभासियं - तीर्थंकरों ने बड़ी उत्तमता के साथ वर्णन किया, दसविहं - दस भेद, चोइसपुचीहिं - चौदह पूर्वधारियों ने, पाहुडत्थविइयंपूर्व के एक विशिष्ट भाग में इसे भली-भांति जाना था, महरिसीण - बड़े-बड़े महर्षियो ने, य - और, समयप्पइण्णं - सिद्धान्त रूप से उपदेश दिया, देविंदणरिंदभासियत्थं - देवेन्द्र तथा नरेन्द्रों ने सत्य भाषण के प्रयोजन का अनुभव किया है, वेमाणियसाहियं - वैमानिक देवों को भी उपादेय, महत्थं - महान् अर्थ वाला, मंतोसहिविज्जासाहणत्थं - मंत्र तथा औषधी और विद्याओं की सिद्धि का साधन, चारणगणसमणसिद्धविजं - चारणगण और श्रमणों को आकाशगमन और वैक्रिय विद्याओं की सिद्धि, मणुयगणाणं - मनुष्यगण का, वंदणिजं - वन्दनीय, अमरगणाणं - देवगण का, अच्चणिजं For Personal & Private Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ० 2 **************************************************************** अर्चनीय, असुरगणाणं - असुरगण का, य - और, पूणिजं - पूजनीय, अणेगपासंडिपरिग्गहियं - अनेक पाखण्डियों द्वारा स्वीकृत, लोगम्मि - जगत् में, सारभूयं - सारभूत, गंभीरयरंमहासमुहाओ - महान् समुद्र से भी अत्यन्त गम्भीर है, थिरयरगंमेरुपव्वयाओ - मेरुपर्वत से भी अधिक स्थिर है, सोमयरगंचंदमंडलाओ - चन्द्रमण्डल से भी अधिक सौम्य है, दित्तयरंसूरमंडलाओ - सूर्य-मंडल से भी अधिक प्रकाशवान् है, विमलयरंसरयणहयलाओ - शरत्काल के आकाश से भी अधिक निर्मल है, सुरभियरं गंधमादणाओ - गन्धमादन पर्वत से भी अधिक सुगन्धिमय है, जे वि - दूसरे जितने भी, लोगम्मि - लोक में, अपरिसेसा - विशेष-समस्त, मंतजोगा - वशीकरण आदि मंत्र-योग, जवा - मंत्रविद्या का जाप, विजा - प्रज्ञप्ति आदि विद्याएं, जंभगा - जृम्भक देव, अत्थाणि - अस्त्र, सत्याणिशस्त्र, सिक्खाओ - शिक्षा, आगमा - आगम, सव्वाइं - सभी, ताई - वे, सच्चे - सत्य में, पइट्ठियाई - प्रतिष्ठित हैं। ___ भावार्थ - तीर्थंकर भगवंतों ने सत्य का बड़ी उत्तमता के साथ वर्णन किया है। सत्य वचन के दस भेद हैं। चौदह पूर्वधर, श्रुतकेवली महापुरुषों ने सत्य को सत्यप्रवाद पूर्व से प्रकाशित किया है। महर्षियों ने सत्य को सिद्धान्त के रूप में प्रचारित किया है। देवेन्द्रों और नरेन्द्रों ने सत्य-भाषण रूप धर्म के प्रयोजन एवं परिणाम का अनुभव किया है। वैमानिक देवों ने भी सत्य की साधना का फल. पाया और सत्य वचन का आदर किया है। यह सत्य महान् अर्थ वाला है। जीवों के लिए अत्यन्त आवश्यक है। यह मंत्र, औषधि और विद्याओं को सिद्ध करने का साधन है। सत्य वचन के प्रभाव से ही चारणगण और श्रमणों को आकाश-गमन एवं वैक्रिय-विद्या की सिद्धि होती है। सत्य, मनुष्यगणों के लिए वन्दनीय है, देवगण के लिए अर्चनीय तथा असुरगण के लिए पूजनीय है। अनेक प्रकार के व्रतों का पालन करने वाले पाखण्डियों ने भी सत्य को स्वीकार किया है। यह सत्य, लोक में सारभूत है। सत्य, महासमुद्र से भी अति गम्भीर है, मेरुपर्वत से भी अत्यधिक स्थिर है, चन्द्रमण्डल से भी अत्यन्त सौम्य है, सूर्य-मंडल से भी अधिक तेजस्वी (प्रकाशमान्) है, शरदकाल के आकाश से भी अत्यन्त निर्मल है और गन्धमादन पर्वत से भी अधिक सुगन्धित है। इस लोक में जितने भी वशीकरणादि मंत्र, योग, जाप, विद्याएं, मुंभक देव, अस्त्र-शस्त्र, शिक्षा एवं आगम हैं, वे सभी सत्य में प्रतिष्ठित हैं अर्थात् सत्यवादी - को ही मंत्रयोगादि सिद्ध होते हैं। विवेचन - सत्य वचन के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए सूत्रकार ने सत्य के दस भेद बतलाए हैं। सत्य तो एक ही है, किन्तु विवक्षा भेद से वह दस प्रकार का बताया गया है। यथा - 1. जनपद सत्य - जो वस्तु जिस देश में, जिस नाम से पुकारी जाती है, वह वहाँ का जनपद सत्य है- उस देश का सत्य है। जैसे - कोकण देश में 'जल' को 'पच्छ' कहते हैं, पंजाब में मक्की को 'कूकड़ी' और बंगाल में गाय को 'गाभी' कहते हैं, क्योंकि यह देश-भाषा है और रूढ़ है। इसमें आशय असत्य नहीं है। अतएव यह 'जनपद सत्य' है। For Personal & Private Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य की महिमा . 237 **************************************************************** 2. सम्मत सत्य - प्राचीन आचार्यों , विद्वानों अथवा लोक-समूह ने जिस शब्द का जो अर्थ मान लिया, वह 'सम्मत सत्य है ' है। जैसे - 'पंकज' शब्द का योगिक अर्थ तो है - कीचड़ में उत्पन्न होने वाला और कीचड़ में उत्पन्न होते हैं-मेढ़क, शैवाल, कुमुद, कुवलय, तापरस और कमल आदि। किन्तु विद्वानों ने पंकज शब्द का अर्थ केवल-'कमल' मान लिया है। अतएव यह सम्मत सत्य है। 3. स्थापना सत्य - किसी वस्तु में किसी दूसरी वस्तु का आरोपण करना। सदृश या असदृश आकार वाली वस्तु में किसी अन्य वस्तु की स्थापना करके उसे उस स्थापित नाम से पुकारनास्थापना सत्य है। जैसे - शतरंज के मोहरों को हाथी, घोड़ा, बादशाह, वजीर आदि कहना, 1 के ऊपर दो बिन्दी 00 लगाकर सौ 100 कहना, क ख आदि अक्षरों की आकृति भी ध्वनि की स्थापना रूप है। पत्र या पुस्तक में ध्वनि की आकृति 'क ख' आदि रूप में होती है, यह स्थापना सत्य है तथा किसी के नाम से स्थापित अनघड़ स्थापना और मूर्ति-चित्र आदि भी स्थापना सत्य है। 4. नाम सत्य - गुण रहित अथवा गुणहीन वस्तु का गुणयुक्त नाम रखना। जैसे-'कुलवर्द्धन' नाम उस व्यक्ति का दिया गया कि जिसके जन्म के बाद कुल का ही क्षय हो गया। वह अपुत्र ही मरा और वंश-परम्परा नष्ट हो गई। लक्ष्मीचन्द नाम दरिद्र का, अमरचन्द नाम बाल-अवस्था में ही मृत्यु पाने वाले का तथा सौभाग्यवती बाल विधवा का होना, गुणयुक्त नहीं होते हुए भी 'नामतः सत्य' है। 5. रूप सत्य - रूप की मुख्यता से किसी को सम्बोधन करना रूप सत्य है। जैसे - साधु का वेश धारण करने वाले किसी असाधु को भी 'सोधु' कहना, स्त्री वेशधारी पुरुष को 'स्त्री' कहना, नाटक के पात्र को वेश के कारण 'राजा' या 'इन्द्र' कहना।। 6. प्रतीत सत्य - किसी वस्तु की अपेक्षा दूसरी वस्तु को छोटी या बड़ी आदि कहना। जैसेमध्यमा अंगुली की अपेक्षा अनामिका को छोटी और अनामिका की अपेक्षा मध्यमा को बड़ी कहना। इस प्रकार की अपेक्षावाची वाणी प्रतीत सत्य है। 7. व्यवहार सत्य - व्यावहारिक बात। जैसे - जलता तो है पर्वत पर रहा हुआ घास या.. लकड़ियाँ, किन्तु कहा जाता है - 'पर्वत जलता है।' चूता है पानी, परन्तु कहा जाता है - 'मटका चूता है', स्थिर पथ के लिए कहना कि - 'यह मार्ग अमुक नगर जाता है।' यह सब व्यावहारिक वचन है, इसे 'व्यवहार सत्य' कहते हैं। . ८..भाव सत्य - भाव की विशेषता से वचन व्यवहार करना। जैसे तोते में गौण रूप में अन्य रंग होने पर भी उसे हरे रंग का कहना, आम में कुछ न कुछ खट्टापन होता हैं, किन्तु मधुरता की मुख्यता से उसे मीठा कहना। . 9. योग सत्य - किसी वस्तु का संयोग देख कर उसकी मुख्यता से पुकारना। जैसे - हाथ में दण्ड देख कर 'दण्डी' छत्रयुक्त को छत्री', घुड़सवार को घोड़े वाला, गाड़ीवान् आदि। 10. उपमा सत्य - किसी अमुक गुण की समानता से किसी दूसरी वस्तु से उसकी तुलना करना, For Personal & Private Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०२ *********************************************************** जैसे - मुख की सुन्दरता एवं सौम्यता से स्त्री चन्द्रमुखी', तालाब को 'समुद्र' के.समान और ज्वार को 'मोती' के समान कहना-उपमा सत्य' है। उपरोक्त दस प्रकार की भाषा, विविध अपेक्षाओं से युक्त होने और बोलने वाले के मन में मृषावाद के भाव नहीं होने से-सत्य-भाषा है। - देविंदनरिंदभासियत्थं - देवेन्द्र और नरेन्द्र का भासित अर्थ। देवेन्द्र और नरेन्द्र को सत्य भाषण का परिणाम भासित हो चुका है। देवेन्द्र-पद और चक्रवर्ती तथा वासुदेव का उत्तम पद, उन साधनों को ही प्राप्त होता है, जिन्होंने धर्म की साधना की है, सत्यव्रत का पालन किया है और वर्तमान में भी वे सत्य का आदर करने वाले हैं। वेमाणियसाहियं - वैमानिक देवों द्वारा साधित। वैमानिक देवों ने भी सत्य का साधन किया है। चार जाति के देवों में वैमानिक देव उत्तम हैं और उनमें भी क्रमशः उच्च स्थानों के देव, उच्च साधना के फलस्वरूप होते हैं। सम्यग् दृष्टि, देश-विरत और सर्वविरत आत्माएं धर्माचरण के फलस्वरूप उच्चकोटि के वैमानिक देवों में उत्पन्न होती है। उनके लिए वहाँ भी सत्य-भाषण उपादेय होता है। इसलिए सत्य-साधकों में वैमानिक देवों की मख्यता बताई गई है। अणेगपासंडिपरिग्गहियं - 'अनेकपाखण्डिभिः परिगहितं तेऽपि सत्यभाषिणा चरणशरणं कर्वन्ति. नानाविधव्रतिभिरंगीकत' - अनेक पाखण्डियों ने भी सत्य का ग्रहण किया है। वे भी सत्यभाषी के चरण की शरण लेते हैं। नाना प्रकार के व्रतियों ने सत्य को अंगीकार किया है। 'पाषंड' शब्द का अर्थ / 'व्रतधारी' भी होता है और 'अन्ययूथिक' भी। अन्ययूथिकों ने भी सत्य को स्वीकार किया है। जैसे आजीवक मत के उपासक भी त्रसजीवों की हिंसा नहीं करते, बड़, पीपल, गूलर आदि के फल नहीं खाते और कर्मादान का सेवन नहीं करते (भगवती 8-5) वैसे वे और अन्य मत वाले भी सत्य को : स्वीकार करते हैं-यद्यपि वे असम्यग्दृष्टि हैं। प्रथम गुणस्थान में भी मन और वचन के आंठों योग माने.. ही हैं और 'सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्' का उनका घोष भी है ही। अतएव अपनी मान्यता के अनुसार अन्य-मतावलम्बियों को सत्य का ग्राहक मानना अनुचित नहीं होगा। तत्त्व ज्ञानीगम्य। - सदोष सत्य का त्याग सच्चं वि य संजमस्स उवरोहकारगं किंचि ण वत्तव्वं हिंसा सावजसंपउत्तं भेयविकहकारगं अणत्थवायकलहकारगं अणज्जं अववाय-विवायसंपउत्तं वेलंब ओजधेजबहुलं णिल्लज लोयगरहणिजं दुद्दिष्टुं दुस्सुयं अमुणियं, अप्पणो थवणा परेसु णिंदा ण तंसि मेहावी, ण तंसि धण्णो, ण तंसि पियधम्मो, ण तंसि कुलीणो, ण तंसि दाणवई, ण तंसि सूरो, ण तंसि पडिरूवो, ण तंसि लट्ठो, ण पंडिओ, ण बहुस्सुओ ण वि य तंसि तवस्सी, ण यावि परलोयणिच्छयमई असि, सव्वकालं For Personal & Private Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 239 सदोष सत्य का त्याग * HARRRRRRRRRRRR************************************** जाइकुलरूववाहिरोगेण वावि जं होई वजणिजं दुहओ उवयारमइक्कंतं एवं विहं सच्चं वि ण वत्तव्वं। शब्दार्थ - सच्चं वि - जो सत्य, संजमस्स - संयम में, उवरोहकारगं - बाधक होता हो, किंचिकिचिंत् भी कदापि, ण - नहीं, वत्तव्वं - बोलना, हिंसासावजसंपउत्तं - हिंसा तथा अन्य कोई पाप, भेयविकहकारगं - चारित्र-नाशक और स्त्री आदि की विकथा, अणत्यवायकलहकारगं - नि:सार वचन, कलहकारी वचन, अणजं - अनार्य-न्याय-रहित, अववाय-विवायसंपउत्तं - अपवाद और विवाद युक्त, वेलंब - दूसरों के हृदय में क्लेश उत्पन्न करने वाला, ओजधेजबहुलं - बल प्रयोग और ढिठाई परिपूर्ण, जिल्लज - रजा-रहित, लोयगरहणिजं - लोक-निन्दित, दुद्दिढ़ - विकृत दृष्टि से देखा हुआ, दुस्सुयंदुःश्रुत-भली-भांति न सुना हुआ, अमुणियं - भली-भांति न जाना हुआ-विकृत रूप से जाना हुआ, अप्पणो-थवणा - स्वयं की स्तुति रूप, परेसु - दूसरों की, जिंदा - निंदा, ण तंसि मेहावी - तुम बुद्धिमान नहीं हो, ण तंसि धण्णो - तुम धन्य अथवा धनवान् नहीं हो, ण तंसि पियधम्मो - तुम प्रियधर्मी नहीं हो, ण तंसि कुलीणो - तुम कुलीन नहीं हो, ण तंसि दाणवई - तुम दानदाता नहीं हो, ण तंसि सूरो - तुम शूरवीर नहीं हो, ण तंसि पडिरूवो - तुम सुन्दर नहीं हो, ण तंसि लट्ठो - तुम सौभाग्यवान् नहीं हो, ण पंडिओ - तुम पंडित नहीं हो, ण बहुस्सुओ - तुम बहुश्रुत नहीं हो, ण वि य तंसि तवस्सीन तुम तपस्वी हो, ण यावि परलोयणिच्छयमई - परलोक के विषय में तुम्हारी बुद्धि निश्चित नहीं है, सव्वकालं - सर्वदा, जाइकुलरूववाहिरोगेण - जाति, कुल, रूप, व्याधि और रोग को प्रकाशित करना, वज्जणिज्ज - वर्जनीय, दुहओ- दोनों प्रकार से, उवयारमइक्कंतं - उपकारक नहीं है, एवं विहंइस प्रकार का, सच्चं वि - सत्य होते हुए भी, ण वत्तव्वं - नहीं बोलना चाहिए। भावार्थ- आत्मा के लिए सत्य परम हितकारी है। किन्तु वह होना चाहिए निर्दोष। जिस सत्य से संयम में क्षति पहुँचती हो, जिस भाषण से हिंसादि पाप होता हो या पाप का समर्थन होता हो, जिससे अहिंसादि संयम एवं सामायिकादि चारित्र की कुछ भी हानि होती हो, जो स्त्री-कथादि राग-द्वेष तथा मिथ्यात्व, अविरति आदि पाप-कथा से युक्त हो, नि:सार वचन, क्लेशोत्पादक, न्याय रहित, अपवाद (निन्दा) रूप, विसंवाद (झगड़ा) उत्पन्न करने वाला, दूसरों के मन में क्लेश उत्पन्न करने वाला, बलप्रयोग एवं ढिठाई से भरा हुआ, लज्जा-रहित, लोक-निन्दित, भली प्रकार से नहीं देखा, नहीं सुना, नहीं जाना और नहीं समझा हुआ, अपने-आपकी प्रशंसा और दूसरे की निन्दा रूप वचन आदि सत्य भी हो, तो कभी भी नहीं बोलना चाहिए। दूसरों को हीन बताने वाले वचन, जैसे कि - 'तू बुद्धिमान नहीं (बुद्धिहीन) है, तू धन्य (धन्यवाद का पात्र अथवा धनवान्) नहीं है, तू पण्डित नहीं, बहुश्रुत नहीं, तपस्वी नहीं और परलोक के विषय में तुम्हारी मति निश्चित नहीं है। इस प्रकार जो वचन सत्य होते हुए भी निन्दित हो, जाति, कुल, रूप, व्याधि और रोग से हीनता प्रकट करने वाला हो, दूसरे के मन में पीड़ा उत्पन्न करने वाला हो, तो इस प्रकार का वचन त्यागने योग्य है। जो द्रव्य और भाव अथवा For Personal & Private Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ० 2 **************************************************************** लौकिक और लोकोत्तर दोनों प्रकार से उपकारी नहीं है, इस प्रकार का वचन सत्य हो, तो भी नहीं बोलना चाहिए। विवेचन - सत्य-भाषण का महत्त्व बताने के बाद आगमकार महर्षि उस सदोष सत्य से सावधान करते हैं, जो दुःखदायक हो, आघातकारी हो, पापवर्द्धक हो यावत् पीड़ाकारी हो। 'असत्य-भाषण नहीं करना' इस प्रकार असत्य-त्याग रूप विरति तो होती है, परन्तु सभी प्रकार का सत्य बोलना ही चाहिएऐसी बात नहीं। बोलने की आवश्यकता हो, तंब निर्दोष सत्य बोलना चाहिए। आगमकार भगवंत ने निर्दोष-वाणी बोलने के विषय में आचारांग, सूयगडांग, दशवैकालिक आदि में विस्तृत विधान किये हैं। . बोलने योग्य वचन अह केरिसगं पुणाइ सच्चं तु भासियव्वं? जं तं दव्वेहिं पजवेहिं य गुणेहिं कम्मेहिं बहुविहेहिं सिप्पेहिं आगमेहिं य णामक्खाय-णिवाय-उवसग्ग तद्धियसमाससंधिपदहेउ-जोगियउणाइकिरियाविहाण-धाउसरविभत्तिवण्णजुत्तं तिकल्लं दसविहं वि सच्चं जह भणियं तह य कम्मुणा होइ दुवालसविहा होइ भासा, वयणं वि य होइ : सोलसविहं। एवं अरहंतमणुण्णायं समिक्खियं संजएण कालम्मि य वत्तव्वं। . . शब्दार्थ - अह - तब, केरिसगं - कैसा, पुणाइ - पुनः, सच्चं - सत्य-वचन, भासियव्वं - बोलना चाहिए, जंतं - वह सत्य-वचन, दव्येहिं - द्रव्य से, पज्जवेहिं - पर्याय से, गुणेहिं - गुण से, कम्मेहिकर्म से, बहुविहेहिं - सिप्पेहिं - अनेक प्रकार के शिल्प तथा चित्रकर्म से, आगमेहिं - आगमयुक्त, णामक्खाय - नाम, आख्यात, णिवाय - निपात, उवसग्ग - उपसर्ग, तद्भिय - तद्धित, समास - समास, संधि - संधि, पद - पद, हेउ - हेतु, जोगिय - यौगिक, उणाइ - उणादि-कृदन्त, किरियाविहाण - क्रिया-विधान, धाउ - धातु, सर - अकारादि स्वर, विभत्ति - विभक्ति, वण्णजुत्तं - वर्णों से युक्त, तिकल्लं - भूत, भविष्य और वर्तमान से युक्त, दसविहं - दस प्रकार का, सच्चं - सत्य, भणियं - बोलना, जह - जैसा, तह - वैसा, कम्मुणा - क्रिया द्वारा, दुवालसविहा - बारह प्रकार की, भासा - भाषा, होई- है, य- और, सोलसविहं- सोलह प्रकार का, वयणं - वचन, एवं - इस प्रकार, अरहंतअरिहंतों ने, अणुण्णायं - आज्ञा दी, संजएण - संयमधारी को, समिक्खियं - सोच-विचार कर, कालम्मि - अवसर में, वत्तव्वं - भाषण करना चाहिए। भावार्थ - अब किस प्रकार के वचन बोलना चाहिए, यह बताते हुए आगमकार स्वयं निर्देशित करते हैं कि जो सत्य-वचन द्रव्य, पर्याय, गुण, कर्म, अनेक प्रकार के शिल्प, आगम (सिद्धान्त) नाम, आख्यात, निपात, उपसर्ग, तद्धित, समास, सन्धि, पद, हेतु, यौगिक, उणादि, क्रियाविधान, धातु, स्वर, विभक्ति एवं व्यंजनों से युक्त, भूत, भविष्य और वर्तमान-इन तीनों कालों से युक्त और दस प्रकार के सत्य बोलना चाहिए। जिस प्रकार बोला जाये उसी प्रकार हाथ आदि की क्रिया से भी सूचित करना For Personal & Private Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोलने योग्य वचन' . 241 ****** ***************************************************** चाहिये अथवा कार्य होना चाहिये। भाषा, बारह प्रकार की है और सोलह प्रकार के वचन हैं। इस प्रकार अरिहंतों ने सत्य के स्वरूप को निर्णय करके निर्दोष सत्य बोलने की आज्ञा दी है। संयमी आत्माओं को चाहिए कि सम्यक् विचार-पूर्वक बोलने के समय निर्दोष सत्य बोलना चाहिए। विवेचन - इस सूत्र में निर्दोष सत्य-भाषण की अनुज्ञा दी गई है। द्रव्य-जो त्रिकालवर्ती-शाश्वत हो, नित्य हो, जैसे जीव पुद्गल आदि द्रव्य हैं। पर्याय-द्रव्य की नवीन-पुरातन आदि क्रमवर्ती अवस्था। गुण-जीव-द्रव्य के ज्ञानादि और पुद्गल-द्रव्य के वर्णादि गुण। कर्म-कृषि, शिल्प आदि व्यापार रूप। नाम-व्युत्पन्न अव्युत्पन्न भेद से दो प्रकार का है। जिनदास आदि नाम व्युत्पन्न हैं और डित्थ आदि नाम अव्युत्पन्न हैं। आख्यात- क्रियापद जो भत, भविष्य और वर्तमान भेद से तीन प्रकार का है। . निपात - अर्थ में विशेषता लाने वाले 'खलु''इव' 'च' 'वा' आदि शब्द। उपसर्ग - धातु के साथ लगने वाले 'प्रो' 'परा' 'सम्' 'अपि' आदि। इनसे धातु के अर्थ में भित्रता आती है। जैसे-'हार' शब्द के आगे 'प्र' उपसर्ग लगने से 'प्रहार' और 'आ' लगने से आहार बन जाता है। तद्धित - जिस शब्द के अन्त में प्रत्यय हो। जैसे - गो शब्द के प्रत्यय लगने पर 'गव्य' और . नाभि शब्द से 'नाभेय' बनता है। " . समास - परस्पर सम्बन्धित दो या अधिक पदों के मध्य की विभक्ति का लोप करके मिलाये हुए . अनेक पद। अनेक पदों को मिलाकर एक करना जैसे-राजपुरुष, गोदुग्ध आदि। - सन्धि-मेल-मिलन। वर्गों के मिलने से जो ध्वनि होती है। जैसे-'श्रावकः अत्र' 'श्रावकोऽत्र' 'कवलाहार' 'दुग्धपान' आदि। पद-विभक्ति का अन्तिम शब्द। वाक्य का एक विभाग। हेतु-साध्य के साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखने वाला। जैसे धूम के हेतु से अग्नि का अनुमान करना। साध्य रूप अग्नि को बताने वाला हेतु 'धुओं' है। यौगिक-योग से सम्बन्धित शब्द। जैसे-पद्मनाभ, नीलकान्त दण्डी आदि। उणादि-जिस शब्द के अन्त में उण् प्रत्यय हो, जैसे-साधु, भिक्षु, स्वादु, कारु आदि। क्रियाविधान - जिस शब्द में क्रियाविधान मुख्य हो। जैसे-पाचक, पाठक, कुंभकार, बुनकर, कृषक आदि। . धातु - शब्दों का वह मूल जिससे क्रियाएं बनी या बनती हैं। संस्कृत में भू, कृ, घृ आदि धातु। स्वर - अकार आदि अक्षर अथवा षडज आदि स्वर। For Personal & Private Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०२ **************************************************************** विभक्ति - शब्द के आगे लगा हुआ वह प्रत्यय या चिह्न जिससे शब्द का क्रियापद से सम्बन्ध जाना जाता है। प्रथमा से सप्तमी तथा सम्बोधन रूप। व्यंजन - 'क' से 'ह' तक के अक्षर, जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते। भाषा के बारह भेद-१. प्राकृत 2. संस्कृत 3. मागधी 4. पैशाची 5. सौरसेनी और 6. अपभ्रंश। इनके गद्य और पद से 12 भेद हुए। वचन के सोलह प्रकार - 1. एकवचन 2. द्विवचन 3. बहुवचन 4. पुल्लिंग 5. स्त्रीलिंग 6. नपुंसकलिंग 7. भूतकाल, 8. भविष्यकाल 9. वर्तमानकाल 10. परोक्ष 11. प्रत्यक्ष 12. उपनीत वचन (गुणवाचक) 13. अपनीत वचन (दूषण बताने वाला) 14. उपनीत-अपनीत वचन (कुछ गुण और कुछ दोष बताने वाला) 15. अनीतोपनीत वचन (पहले दोष बता कर फिर कोई गुण बताने. वाला) और 16. अध्यात्म वचन। भगवतोपदेशित सत्य महाव्रत का सुफल इमं य अलिय-पिसुण-फरुस-कडुय-चवलवयण-परिरक्खणट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं अत्तहियं पेच्चाभावियं आगमेसीभदं सुद्धं णेयाउयं अकुडिलं अणुत्तरं सव्वदुक्खपावाणं विउसमणं। शब्दार्थ - इमं - ये, अलिय-पिसुण-फरुस-कडुय-चवल-वयण-परिरक्खणट्ठयाए - झूठ, चुगली, कठोर, कटु और चपल वचनों से प्राणियों की रक्षा के लिए, पावयणं - प्रवचन, भगवया - भगवान् ने, सुकहियं - भली-भांति प्रतिपादन किया, अत्तहियं - आत्मा के लिए हितकारी, पेच्चाभावियंजन्मांतर में शुभ फल देने वाला, आगमेसिभई - भविष्य में कल्याण का हेतु सुद्धं - शुद्ध, णेयाउयं - न्याययुक्त, अकुडिलं - कुटिलतारहित, अणुत्तरं - प्रधान, सव्वदुक्ख-पावाणं - समस्त दुःख और पापों को, विउसमणं - शान्त करने वाला। - भावार्थ - झूठ, चुगली, कठोर, कटु एवं चपल वचनों और उसके कटुफल से प्राणियों की रक्षा करने के लिए भगवान् ने उत्तम प्रकार से यह सत्य-भाषण रूप प्रवचन कहा है। यह जिन-प्रवचन आत्मा के लिए हितकारी है, भवान्तर में शुभ फल देने वाला है, भविष्य में कल्याणकारी है, शुद्ध है, न्याययुक्त है, अकुटिल (सरल) है, अनुत्तर-उत्तमोत्तम है और समस्त दुःखों और पापों को शान्त करने वाला है। विवेचन - झूठ चुगली आदि सदोष सत्य और उससे उत्पन्न पाप के कटुफल से होने वाले दुःख से बचाने के लिए जिनेश्वर भगवंत ने निर्दोष सत्य-भाषण का विधान करने वाला यह प्रवचन कहा है, जो जीवों के लिए हितकारी, सुखकारी और कल्याणकारी है। For Personal & Private Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 243 प्रथम भावना-बोलने की विधि ******************************* ****************************** सत्य महाव्रत की पांच भावनाएं प्रथम भावना-बोलने की विधि तस्स इमा पंच भावणाओ। बिइयस्स वयस्स अलियवयणस्स वेरमणपरिरक्खणट्ठयाए। पढमं सोऊण संवरटुं परमटुं सुटु जाणिऊणं ण वेगियं ण तुरियं ण चवलं ण कडुयं ण फरुसंण साहसं ण य परस्स पीडाकरं सावजं सच्चं च हियं च मियं च गाहगं च सुद्धं संगयमकाहलं च समिक्खियं संजएण कालम्मि य वत्तव्वं / एवं अणुवीइ-समिइ-जोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा संजयकरचरणणयणवयणो सूरो सच्चजवसंपुण्णो। शब्दार्थ - तस्स - इस, इमा- ये, पंच - पांच, भावणाओ - भावनाएं, बिइयस्स - दूसरे, वयस्समहाव्रत, अलिय-वयणस्स - मिथ्या वचन की, वेरमण - निवृत्ति रूप, परिरक्खणट्ठयाए - रक्षा के लिए, पढमं - प्रथम, सोऊणं - श्रवण करना, संवरटुं - मोक्षदायक, परमटुं - परम अर्थ युक्त, सुट्ट - भली प्रकार. जाणिऊण - जान कर. ण - नहीं. वेगियं - वेगपर्वक. तरियं - शीघ्रतापूर्वक चवलं - चपलतापूर्वक, कडुयं - कटु, फरुसं - कठोर, साहसं - बिना सोचे-विचारे, य - और, परस्स - दूसरों को, पीडाकरं - पीड़ाकारी, सावजं - सावध-पापयुक्त, सच्चं - सत्य-वचन, हियं - हितकारी, मियं - मितकारी, गाहगं - कथित अर्थ को स्पष्ट बताने वाला, सुद्धं - शुद्ध, संगयं - संगत, अकाहलंस्पष्ट वचन, समिक्खियं - विचार पूर्वक, संजएण - साधु को, कालम्मि - अवसर पर, वत्तव्वं - बोलना चाहिए, अमुविइ-समिइ-जोगेण - अनुवीचि समिति के योग से, भाविओ - भावित, भवइ - * होता है, अंतरप्पा - अन्तरात्मा, संजय-कर-चरण-णयण-वयणो - कर, चरण, नेत्र और मुख का संयम वाला, सूरो - शूरवीर, सच्चजवसंपण्णो - सत्य तथा सरलता से परिपूर्ण। .. __ भावार्थ - मिथ्या-भाषण से निवृत्त होने रूप दूसरे महाव्रत की रक्षा करने के लिए पांच भावनाएं हैं। इनमें से पहली भावना-सम्यक् प्रकार से विचारपूर्वक बोलना है। गुरु से सम्यक् प्रकार से श्रवण करके, संक्र के प्रयोजन को सिद्ध करने वाला, परमार्थ (मोक्ष) का साधक ऐसे सत्य को भली प्रकार से जानने के बाद बोलना चाहिए। बोलते समय न तो वेगपूर्वक (व्याकुलता युक्त) बोलना चाहिए, न त्वरित (शीघ्रतापूर्वक) और न चपलता से बोलना चाहिए। कटुवचन, कठोर वचन, साहसपूर्ण (अविचारी) बचन, दूसरे जीवों को पीड़ित करने वाले वचन और सावध (पापकारी) वचन नहीं बोलना चाहिए-भले ही वे वचन सत्य हों। ऐस सावध वचनों का त्यागकर, हितकारी, परिमित, अपने अभिप्राय को स्पष्ट करने वाले, शुद्ध, हेतुयुक्त और स्पष्ट वचन, विचारपूर्वक बोलना चाहिए। इस प्रकार इस 'अनुविचि समिति' रूप प्रथम भावना से साधक की अन्तरात्मा प्रभावित होती है। इससे For Personal & Private Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 . प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ० 2 ***************************************************** ***** साधक के हाथ, पांव, आँखें और मुंह संयमित रहते हैं। इसका साधक शूरवीर होता है। वह सत्य एवं सरलता से सम्पन्न होता है। विवेचन - दूसरे महाव्रत की पांच भावनाएं हैं। इनमें से प्रथम भावना-अनुविचिन्त्य भाषा समिति-सम्यक् विचारपूर्वक-समझ-सोचकर वचन-व्यवहार करने सम्बन्धी है। सूत्रकार कहते हैं कि दूसरे संवर के आराधक श्रमण का वचन-व्यवहार भी संवरट्टे' संवर साधना में उपयोगी 'परमट्टे' - मोक्ष साधना के अनुकूल होता है। ___वचन योग से युक्त मनुष्य को प्रयोजनवश दूसरे मनुष्यों से बोलना पड़ता है। संसार-त्यागी साधु को भी गृहस्थों से वचन-व्यवहार करना पड़ता है। वह वचन-व्यवहार यदि बिना सोचे-समझे किया जाये, तो पापकारी होता है। सोच-समझकर विवेक पूर्वक बोला हुआ सत्य ही निर्दोष होकर संवर का साधक हो सकता है। सदोष सत्य मारक भी हो जाता है, किन्तु निर्दोष सत्य तो तारक ही होता है। दूसरी भावना-क्रोध-त्याग . बिइयं कोहो ण सेवियव्वो, कद्धो चंडिक्किओ मणओ अलियं भणेज, पिसणं भणेज, फरुसं भणेज, अलियं पिसुणं फरुसं भणेज, कलहं करिज्जा, वेरं करिज्जा, विकहं करिज्जा, कलहं वे विकहं करिजा, सच्चं हणेज, सीलं हणेज, विणयं हणेज, सच्चं सीलं विणयं हणेज, वेसो हवेज, वत्थु हवेज, गम्मो हवेज, वेसो वत्थु गम्मो हवेज, एयं अण्णं च एवमाइयं भणेज कोहग्गिसंपलित्तो तम्हा कोहो ण सेवियव्यो। एवं खंतीइ भाविओ भवइ अंतरप्या संजय-कर-चरण-णयण-वयणो सूरो सच्चजवसंपण्णो। शब्दार्थ - बिइयं - द्वितीय, कोहो - क्रोध, ण सेवियब्यो - नहीं करना, कुद्धो - क्रोधी, चंडिक्किओ - चाण्डाल रूप, मणुसो - मनुष्य, अलियं भणेज - झूठ बोलता है, पिसुणं भणेज - पिशुनकारी अथवा चुगली करने वाला वचन बोलता है, फरुसं भणेज - कठोर वचन बोलता है, अलियं पिसुणं फरुसं भणेज्ज - मिथ्या, पिशुन और कठोर तीनों एक साथ बोलता है, कलहं करिज्जा - कलह करता है, वेरं करिज्जा - वैर करता है, विकहं करिज्जा - विकथा करता है, कलह वेरं विकहं करिजा - कलह, वैर और विकथा तीनों एक साथ करता है, सच्चं हणेज - सत्य का हनन करता है, सीलं हणेज - शील का हनन, विणयं हणेज्ज - विनय का हनन, सच्चं सील विणयं हणेज - सत्य, शील और विनय-तीनों का एक साथ हनन, वेसो हवेज - अप्रिय होता है, वत्थु हवेज - दोषों का निवास-स्थल होता है, गम्मो हवेज - गम्य अर्थात् अनादरणीय होता है, वेसो वत्थु गम्मो हवेज - अप्रिय, दोषों का स्थान और तिरस्कार का पात्र होता है एयं - ये, अण्णं - अन्य, एवमाइयं - इस तरह For Personal & Private Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरी भावना-लोभ-त्याग 245 *#######################******************************* की, भणेज - कहता, कोहग्गिसंपलित्तो - क्रोधाग्नि से जलता है, तम्हा - इसलिए, कोहो - क्रोध, ण सेवियव्यो - नहीं करना, एवं - इस प्रकार, खंतीइ - क्षमा गुण, भाविओ - भावित, भवइ - होना, अंतरप्पा - अन्तरात्मा, संजय-कर-चरण-णयण-वयणो - वह पुरुष कर, चरण, नेत्र और मुख का संयम वाला, सूरो - शूरवीर, सच्चजवसंपण्णो - सत्य तथा सरलता से सम्पन्न। भावार्थ - दूसरी भावना 'क्रोध-निग्रह' है। साधक को क्रोध नहीं करना चाहिए। क्रोधी-मनुष्य चांडिक्य-प्रचण्ड-रौद्र रूप हो जाता है। क्रोधावेश में वह झूठ भी बोलता है, पिशुनता-चुगली भी करता है और कटु एवं कठोर वचन भी बोलता है। वह मिथ्या, पिशुन और कठोर ये तीनों प्रकार के वचन एक साथ बोलता है। क्रोधी-मनुष्य क्लेश करता है, वैर करता है, विकथा करता है। क्लेश, वैर और विकथा-ये तीनों एक साथ भी करता है। वह सत्य का हनन करता है। शील का हनन करता है। क्रोधी-मनुष्य दूसरों के लिए द्वेष का.पात्र (अप्रिय) होता है, दोषों का घर होता है और तिरस्कृतअपमानित होता है। वह अप्रिय, दोषों का घर और तिरस्कृत-इन तीनों का पात्र होता है। क्रोधाग्नि से जलता हुआ मनुष्य, उपरोक्त दोष और ऐसे अन्य अनेक दोषपूर्ण वचन बोलता है। इसलिए दूसरे महाव्रत के पालक को क्रोध नहीं करना चाहिए। क्रोध का त्याग कर, क्षमा को धारण करने से अन्तरात्मा प्रभावित होती है। इस प्रकार क्रोध का निग्रह कर क्षमा-गुण को धारण करने वाले साधक के हाथ, पांव, आँखें और वचन, संयम में स्थित-पवित्र रहते हैं। ऐसा शूरवीर साधक सत्यवादी एवं सरल होता है। यह क्रोध-निग्रह रूप दूसरी भावना है। क्रोधावेश में बोला हुआ सत्य भी पापाश्रव का कारण होता है। तीसरी भावना-लोभ-त्याग - तइयं लोभोण सेवियव्वो, 1. लुद्धो लोलो भणेज अलियं खेत्तस्स व वत्थुस्स व कएण 2. लुद्धो लोलो भणेज अलियं, कित्तीए लोभस्स व कएण 3. लुद्धो लोलो भणेज अलियं, इड्डीए व सोक्खस्स व कएण 4. लुद्धो लोलो भणेज अलियं, भत्तस्स व पाणस्स व कएण 5. लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं, पीढस्स व फलगस्स व कएण 6. लुद्धो लोलो भणेज अलियं, सेज्जाए व संथारगस्स व कएण 7. लुद्धो लोलो भणेज अलियं, वत्थस्स व पत्तस्स व काएण 8. लुद्धो लोलो भणेज अलियं, कंबलस्स व पायपुंछणस्स व कएण 9. लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं, सीसस्स व सिस्सीणी व कएण, लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं, अण्णेसु य एवमाइसु बहुसुकारणसएसु लुद्धो लोलो भणेज अलियं, तम्हा लोभो ण सेवियव्वो, एवं मुत्तिए . भाविओ भवइ अंतरप्पा संजयकर-चरण-णयण-वयणो सूरो सच्चजवसंपण्णो। For Personal & Private Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०२ . .. *****************************************************-*-*-*-*-*-*-***** शब्दार्थ - तइयं - तृतीय, लोभो - लोभ का, ण सेवियव्यो - सेवन नहीं करना, लुद्धो - लोभी, लोलो - चंचल, भणेज - बोलता है, अलियं - झूठ, खेत्तस्स - क्षेत्र, य - और वत्थुस्स - वास्तु-मकान, कित्तीए - कीर्ति, लोभस्स - लोभ, इड्डीए - ऋद्धि, सोक्खस्स. - सुख, भत्तस्स - भात-आहार, पाणस्स - पानी, पीढस्स - पीठ, फलगस्स - फलक, सेजाए - शय्या, संथारगस्स - संस्तारक, वत्थस्स - वस्त्र, पत्तस्स - पात्र, कंबलस्स - कम्बल, पायपुंछणस्स - पादपोंछन, सीसस्सशिष्य, सिस्सीणीए - शिष्यणी, अण्णेसु - अन्य बहुत-से, एवमाइसु - इसी प्रकार के, बहुसु - बहुत-से, कारणसएसु - सैकड़ों कारणों से, भणेज - बोलता है, अलियं - झूठ, तम्हा - इसलिए, लोभो - लोभ का, ण सेवियव्यो - सेवन नहीं करना, एवं - इस प्रकार, मुत्तीए - मुक्त अर्थात् लोभत्याग, भाविओ - भावित, भवइ - होती है, अंतरप्पा - अन्तरात्मा, संजय-कर-चरण-णयण-वयणोहाथ, पैर, नैत्र और मुख का संयम वाला, सूरो-शूरवीर, सच्चजवसंपण्णो - सत्य तथा सरलता से सम्पन्न। भावार्थ - लोभ-त्याग रूप तीसरी भावना है। सत्य महाव्रत के पालक को लोभ से दूर रहना चाहिए। लोभ से प्रेरित मनुष्य का सत्य व्रत टिक नहीं सकता। वह झूठ बोलने लगता है। लोभ से ग्रसित मनुष्य क्षेत्र, वास्तु, कीर्ति (मान-प्रतिष्ठा) ऋद्धि, सुख, खान-पान, पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक, आसन, शयन, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोंछन, शिष्य और शिष्या के लिए और इसी प्रकार के अन्य सैकड़ों कारणों से झूठ बोलता है। इसलिए मिथ्या-भाषण के मूल इस लोभ का सेवन कदापि नहीं करना चाहिए। इस प्रकार लोभ का त्याग करने से अन्तरात्मा पवित्र होती है। उस साधक के हाथ, पाँव, नेत्र और मुख संयम से शोभित होते हैं। वह शूरवीर शाधक, सत्य एवं सरलता से सम्पन्न होता है। विवेचन - लोभ-साधक वचन भी सत्य व्रत का घातक होता है। अतएव लोभ-त्यागी ही सच्चा महाव्रती हो सकता है। चाहे क्रोध हो या लोभ, भावों में क्रोधादि का प्रवेश होते ही आँखों एवं चेहरे पर उसका संग झलक उठता है और हाथ-पांव एवं शरीर में कम्पन भी होती है। क्रोधादि भावों का हाथों के संकेत और वचन से उच्चारण होता है तथा तदनुरूप चरण भी उठते हैं। . चौथी भावना-भय त्याग चउत्थं ण भीइयव्वं, भीयंखु भया अइंति लहुयं, भीओ अबितिजओ मणूसो, भीओ भूएहिं धिप्पड़, भीओ अण्णं वि हु भेसेज्जा, भीओ तवसंजमं वि हु मुएज्जा, भीओ य भरं ण णित्थरेजा सप्पुरिसणिसेवियं य मग्गं भीओ ण समत्थो अणुचरित्रं, तम्हा ण भीइयव्वं / भयस्स वा वाहिस्स वा रोगस्स वा जराए वा मच्चुस्स वा अण्णस्स वा एवमाइयस्स एवं धेजेण भाविओ भवइ अंतरप्पा संजयकर-चरण-णयण-वयणो सूरो सच्चजवसंपण्णो। For Personal & Private Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवीं भावना-हास्य-त्याग 247 ******************* ***************** शब्दार्थ - चउत्थं - चतुर्थ, ण - नहीं, भीइयव्वं - भयभीत, भीयं - हरे हुए, भया - भय, अइंतिआता है, लहुयं - शीघ्र, भीओ - भयभीत, अबितिजओ - किसी का सहायक न होना, मणूसो - मनुष्य, भूएहिं - भूत, घिप्पिइ - ग्रहण करना, अप्पं वि - दूसरों को भी, भेसेज्जा - भयभीत करता है, तवसंजमं - तप-संयम, मुएज्जा - छोड़ देता है, भरं - भार को, ण णित्थरेजा - पार पहुंचाने में असमर्थ, सप्पुरिसणिसेवियं - सत्पुरुषों द्वारा सेवित, मग्गं - मार्ग में, ण समत्थो - समर्थ नहीं होता, अणुचरिउंविचरण करने में, तम्हा - इसलिए, भयस्स - भय से, वाहिस्स - व्याधि, रोगस्स - रोग, वा - और, जराए.- बुढ़ापा, मच्चुस्स - मृत्यु से, अणस्स - अन्य, एवमाइयस्स - इस प्रकार के, धेज्जेण - धैर्य से, भाविओ - भावित. भवड - होता है, अंतरप्पा - अन्तरात्मा, संजयकर-चरण-णयण-वयणो - हाथ, पैर, नैत्र और मुख का संयम वाला, सूरो - शूरवीर, सच्चज्जवसंपण्णो - सत्य तथा सरलता से सम्पन्न होता है। भावार्थ - चौथी भावना भय-त्याग से निष्पन्न होती है। भय को त्याग कर निर्भय बनने वाला साधक, सत्य-महाव्रत का पालक होता है। भयग्रस्त मनुष्य के सामने सदैव भय के निमित्त उपस्थित रहते हैं। भयाकुल मनुष्य किसी का सहायक नहीं बन सकता। भयाक्रांत मनुष्य, भूतों के द्वारा ग्रसित हो जाता है। एक डरपोक मनुष्य दूसरे को भी भयभीत कर देता है। डरपोक मनुष्य डर के मारे तप और संयम को भी छोड देता है। वह उठाये हए भार को बीच में ही पटक देता है-पार नहीं पहँचाता। भयभीत मनुष्य सत्पुरुषों द्वारा सेवित मार्ग में विचरण करने में समर्थ नहीं होता। इस प्रकार भय को पाप का कारण जान कर त्याग करके निर्भय होना चाहिए। भय के कारण-व्याधि, रोग, बुढ़ापा, मृत्यु और ऐसे अन्य प्रकार के भयों से साधु को भयभीत नहीं होना चाहिए। धैर्य धर कर निर्भय होने से अन्तरात्मा प्रभावित होती है-निर्मल रहकर बलवान् बनती है। निर्भय साधक के हाथ, पांव, नेत्र और मुख आदि संयमित रहते हैं। वह शूरवीरं साधक, सत्य-धर्मी होता है एवं सरलता के गुण से सम्पन्न होता है। .. पांचवीं भावना-हास्य-त्याग ___पंचमगं हासंण सेवियव्वं अलियाइं असंतगाइं जपंति हासइत्ता परपरिभवकारणं च हासं, परपरिवायप्पियं च हासं, परपीलाकारगं च हासं, भेयविमुत्तिकारगं च हासं, अण्णोण्णजणियं च होज हासं, अण्णोण्णगमणं च होज मम्मं, अण्णोण्णगमणं च होज कम्मं, कंदप्पाभियोगगमणं च होज हासं, आसुरियं किव्विसत्तणं च जणेज हासं, तम्हा हासंण सेवियव्वं / एवं मोणेण भाविओ भवइ अंतरप्पा संजय-करचरण-णयण-वयणो सूरो सच्चजवसंपण्णो। शब्दार्थ - पंचमगं - पांचवीं, हासं.- हास्य, ण सेवियव्वं - सेवन नहीं करना, अलियाई - मिथ्या, For Personal & Private Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ० 2 असंतगाई - असद्भूत, जंपंति - बोलता है। हासइत्ता - हास्यकारी, परपरिभवकारणं - दूसरे के अपमान का कारण होता है, परपरिवायप्पियं - पर-परिवादप्रिय है, परपीलाकारगं - पर-पीड़ा का कारण बनता है, भेयविमुत्तिकारगं - साधु के चारित्र का नाश करने का कारण, अण्णोण्णजणियं होज - परस्पर-ठट्टा मजाक करने से उत्पन्न, हासं - हास्य, अण्णोण्णगमणं - परस्पर की गुप्त बातें, य - और, मम्मं - मर्म, होज - प्रकट होते हैं, अण्णोण्णगमणं - परस्पर गमन सम्बन्धी, कम्मं - निंदितकर्म, कंदप्पाभियोगगमणं - कान्दर्पिक और आभियोगिक में गमन, आसुरियं - असुर जाति के देवों में, किष्विसत्तणं - किल्विषी देवों में, तम्हा - इसलिए, हास - हास्य का, ण सेवियव्वं - सेवन नहीं करना, एवं - इस प्रकार मोणेण - मौन से, भाविओ - भावित, भवइ - होता है, अंतरप्पा - अन्तरात्मा, संजय-कर-चरण-णयण-वयणो - हाथ, पैर, नेत्र और मुख के संयम वाला, सूरो - शूरवीर, सच्चजवसंपण्णो - सत्य तथा सरलता से सम्पन्न। भावार्थ - पांचवीं भावना हास्य का त्याग है। इसलिए दूसरे महाव्रत के पालक को चाहिए कि वह हास्य (हँसी) नहीं करे। हँसी करने वाला मनुष्य मिथ्या और असत्य-भाषण करता है। हँसी, दूसरे ..व्यक्ति का अपमान करने में कारणभूत बन जाती है। पराई निन्दा करने में रुचि रखने वाले भी हँसी का अवलम्बन लेते हैं। हंसी, दूसरों के लिए पीड़ाकारी होती है। हँसी से चरित्र का भेदन (विनाश) होता है। हंसी एक दूसरे के मध्य होती है और हँसी-हंसी में परस्पर की गुप्त बातें प्रकट होती हैं। एक दूसरे, के गर्हित कर्म प्रकट होते हैं। हँसी करने वाला व्यक्ति कान्दर्पिक और आभियोगिक भाव को प्राप्त होकर वैसी गति का बन्ध करता है। हँसोड़ मनुष्य आसुरी एवं किल्विषी भाव को प्राप्त कर वैसे देवों में उत्पन्न होता है। इस प्रकार हास्य को अहितकारी जानकर त्याग करना चाहिए। मौन के द्वारा हास्य का त्याग करना चाहिए। इससे अन्तरात्मा पवित्र होती है। ऐसे साधक के हाथ पांव, नेत्र और मुख संयमित रहते हैं। वह हास्य-त्यागी शूरवीर, सच्चाई और सरलता से सम्पन्न होता है। विवेचन - हंसी भी सत्य-महाव्रत को नष्ट करने वाली है। इसलिए शास्त्रकार पांचवीं भावना में हँसी का त्याग करने का उपदेश करते हैं। भेयविमुत्तिकारगं - इसका अर्थ किया है - चारित्र का भेदन (विनाश) तथा निस्पृहता का लुप्त होना तथा 'विमूर्ति'-विकृतनयनवदनादित्वेन विकृतशरीराकृतिः तद्भेदकारकं हास्यं (हास्य से मुख-नेत्र आदि शरीर की आकृति विकृत हो जाती है) अथवा 'उपहासेन संग्रामोजात इति सम्प्रदायः" - उपहास से ऐसा भेद भी उत्पन्न हो जाता है कि जिससे संग्राम तक छिड़ जाता हैऐसा अर्थ भी करते हैं। 'भेद विमुक्ति कारक' का अर्थ-हँसी के परिणामस्वरूप मैत्री-सम्बन्धी भी टूट जाते हैं-भी हो सकता है। For Personal & Private Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार 249 **************************************************************** उपसंहार एवमिणं संवरस्स दारं सम्मं संवरियं होइ सुप्पणिहियं, इमेहिं पंचहिं वि कारणेहिं मण-वयण-काय-परिरक्खिएहिं णिच्चं आमरणत च एस जोगो णेयव्यो धिइमया मइमया अणासवो अकलुसो अच्छिद्दो अपरिस्सावी असंकिलिट्ठो सव्व-जिणमणुण्णाओ। शब्दार्थ - एवमिणं.- यह, संवरस्स - संवर का, दारं - द्वार, सम्मं - भली-भांति, संवरियं - पालन करने से, सुप्पणिहियं - सुप्रणिहित-सुरक्षित, होइ - होता है, इमेहिं - इन, पंचहिं - पांच, कारणेहिं- कारणों से, मण-वयण-काय-परिरक्खिएहिं - मन, वचन और काया द्वारा रक्षण करता हुआ, णिच्चं - सदैव, आमरणंतं - मरण-पर्यन्त, एस - इस, जोगो - व्रत का, णेयव्यो - पालन करना, धिइमया - धैर्य सम्पन्न, मइमया - बुद्धिमान्, अणासवो - आस्रव रहित, अकलुसो - कलुषता-रहित, अच्छिद्दो - छिद्र-रहित, अपरिस्सावी - कर्मों के प्रवेश से रहित, असंकिलिट्ठो - संक्लेश-रहित, सव्वजिणमणुण्णाओ - सभी जिनेश्वरों द्वारा आज्ञापित है। . भावार्थ - इस प्रकार पांच भावनाओं से युक्त इस संवरद्वार का सम्यक् रूप से पालन करने से महाव्रत सुरक्षित रहता है। इसलिए धैर्य सम्पन्न बुद्धिमान् साधु को चाहिए कि मन, वचन और काया से दूसरे महाव्रत की रक्षा करता हुआ, इन पांच भावनाओं का जीवन-पर्यन्त पालन करता रहे। यह महाव्रत आस्रव का निरोधक, कलुषित भावों से रहित-शुभ भावों से युक्त, छिद्र रहित, कर्मों के आगमन का अवरोधक तथा संक्लेश से रहित है। भूत, भविष्य और वर्तमान के सभी जिनेश्वर भगवंतों द्वारा आज्ञापित-उपदिष्ट है। ___ एवं बिइयं संवरदारं फासियं पालियं सोहियं तीरियं किट्टियं अणुपालियं आणाए आराहियं भवइ। एवं णायमुणिणा भगवया पण्णवियं परूवियं पसिद्धं सिद्धं , सिद्धवरसासणमिणं आघवियं सुदेसियं पसत्थं। ॥बिइयं संवरदारं सम्मत्तं॥त्ति बेमि॥ शब्दार्थ - एवं - इस प्रकार, बिइयं - द्वितीय, संवरदारं - संवर-द्वार, फासियं - स्पृष्ट, पालियंपालित, सोहियं - शोभित, तीरियं - तीरित, किट्टियं - कीर्तित, आराहियं - आराधित, भवइ - होता है, णायमुणिणा भगवया - ज्ञातृ-कुलोत्पन्न भगवान् महावीर स्वामी द्वारा पण्णवियं - फरमाया, परूवियंप्ररूपित, पसिद्धं - प्ररिद्धि, सिद्धं - सिद्ध, सिद्धवरसासणं - अपने कार्य को सिद्ध करने वाले तीर्थंकर For Personal & Private Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 . प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०२ **************************************************************** भगवान् की प्रधान आज्ञा, आघवियं - सम्यक् प्ररूपित, सुदेसियं - भली प्रकार उपदेशित, पसत्थं - प्रशस्त, बिइयं - द्वितीय, संवरदारं - संवर-द्वार, सम्मत्तं - समाप्त हुआ, त्तिबेमि - ऐसा मैं कहता हूँ। भावार्थ - इस प्रकार यह दूसरे संवर-द्वार का स्पर्श, पालन एवं शोधन होता है, पार पहुँचाया जाता है, कीर्तित एवं आराधित होता है और जिनेश्वर की आज्ञा के अनुसार अनुपालित एवं आराधित होता है। इस प्रकार ज्ञातृ कुलोत्पन्न भगवान् महावीर स्वामी ने कहा है। प्ररूपित किया है। यह मार्ग विश्व में प्रसिद्ध एवं प्रमाणों से सिद्ध है। समस्त प्रयोजन सिद्ध करने वाले ऐसे तीर्थंकर भगवंत की यह प्रधान आज्ञा है, उनके द्वारा प्ररूपित है, उत्तम प्रकार से उपदेशित है और प्रशस्त है। यह दूसरा संवरद्वार पूर्ण हुआ, ऐसा मैं कहता हूँ। ॥सत्य-वचन नामक द्वितीय संवर द्वार समाप्त॥ For Personal & Private Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दत्तानुज्ञात नामक तृतीय संवर-द्वार अस्तेय का स्वरूप जंबू! दत्तमणुण्णाय-संवरो णाम होइ तइयं सुव्वया! महव्वयं गुणव्वयं परदव्वहरणपडिविरइ-करणजुत्तं अपरिमिय-मणंत-तण्हाणुगय-महिच्छ-मण-वयण-कलुस आयाण-सुणिग्गहियं सुसंजमिय-मण-हत्थपायणिहुयं णिग्गंथं णिट्ठियं णिरुत्तं णिरासवं णिब्भयं विमुत्तं उत्तमणर-वसभ-पवर-बलवग-सुविहियजण-सम्मत्तं परमसाहुधम्मचरणं। शब्दार्थ - जंबू - हे जम्बू!, दत्तमणुण्णायसंवरो - दत्तानुज्ञात संवर अर्थात् विधिपूर्वक दिया हुआ, णाम - नाम, होइ - है, तइयं - तृतीय, सुव्वया - हे सुव्रत!, महव्वयं - महाव्रत, गणव्वयं - गुणों में प्रधान, परदव्व-हरण-पडि-विरइ-करणजुत्तं - परद्रव्य हरण करने की विरति से युक्त, अपरिमियमंणंत- अपरिमित अनन्त, तण्हाणु-गय-महिच्छ - तृष्णापूर्वक अत्यन्त इच्छा से, मण-वयणकलस न और वचन कलषित होते हैं, आयाणसणिग्गहियं - उसका इस व्रत से सर्वथा निग्रह ससंजमियमणहत्थपायणिहयं - मन, हाथ और पांव संयम से रत रहते हैं. णिग्गंथं - ग्रन्थियों से रहित, णिट्ठियं - प्रधान, णिरुत्तं - परम उपादेय, णिरासवं - आस्रव-रहित, णिब्भयं - भय-रहित, विमुत्तं - मुक्त, उत्तम पर-वसभ-पवर-बलवग-सुविहियजण-सम्मत्तं - मनुष्यों में उत्तम वृषभ के समान श्रेष्ठ एवं परम बलवान् महापुरुषों द्वारा सम्मान्य, परमसाहुधम्मचरणं- परम धर्म समझकर उत्तम साधु पुरुषों द्वारा आचरित। भावार्थ - श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं - 'हे सुव्रती जम्बू! दत्तानुज्ञात (दत्त-दिये हुए आहारादि, अनुज्ञात-'ले लो'-इस प्रकार आज्ञा प्राप्त पीठ-फलकादि) नामक यह तीसरा संवर द्वार है। यह महान् . व्रत है, सदगणों का प्रधान हेत है। यह संवर पराये द्रव्य को हरण करने की दवत्ति से रोक करने वाला है। जो मनुष्य अविरत हैं और जिनके मन में, संसार में रही हुई अनन्त वस्तुओं को प्राप्त करने की अपरिमित इच्छा है और प्राप्त द्रव्य को बिना व्यय किये दबाये रखने रूप महान् तृष्णा रही हुई है। उस जीव के मन में सदा कलुष बना रहता है। उसके वचन भी कलुष एवं तृष्णा से युक्त होते हैं। किन्तु जो व्यक्ति इस व्रत को धारण करके पालन करता है। उसके यह अपरिमित इच्छा और तृष्णा रूपी महापाप रुक जाता है.। इच्छा और तृष्णा के रुक जाने से उस आत्मा का मन भी स्वच्छ एवं संयम में रत रहता है और वचन तथा हाथ-पांव आदि की प्रवृत्ति भी पाप से विरत रह कर संयमित रहती है। यह महाव्रत बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थ-लोभ की गाँठ से रहित है। समस्त धर्मों में प्रकर्ष उत्पन्न करने वाला-निष्ठायुक्त है। सर्वज्ञ भगवन्तों से उपदिष्ट है। आस्रव-रहित है, निर्भय बनाने वाला है और कने-विरत For Personal & Private Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252 ******* प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०३ ********************************************* विमुक्त-लोभ रूपी बन्धन से रहित है। यह अदत्त-त्याग महाव्रत, केवल सामान्यजनों द्वारा ही आचरित नहीं, अपितु उत्तम नर-वृषभ (जिनेश्वर भगवंत) बलवान् (चक्रवर्त्यादि) एवं श्रेष्ठ महापुरुषों तथा साधुजनों द्वारा सम्मान्य है तथा परम साधु-सन्त महानुभावों का उत्तम धर्माचरण है। विवेचन - दूसरे महाव्रत का पालन एवं रक्षण तभी हो सकता है जबकि अदत्तत्याग रूप तीसरा महाव्रत का पालन किया जाये। अदत्तग्राही को असत्याचरण भी करना पड़ता है। अतएव अदत्त-त्याग के लिए सूत्रकार ने तीसरे महाव्रत का विधान किया है। दत्तानुज्ञात व्रत का अर्थ-स्वामी द्वारा हाथ से दिया हुआ और लेने की अनुज्ञा प्राप्त वस्तु है। अनुज्ञात-आज्ञा में स्वामी की आज्ञा के अतिरिक्त देवाज्ञा-आगमाज्ञा का समावेश भी किया जाता है। . जत्थ य गामागर-णगर-णिगम-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-संबाह-पट्टणासमगयं च किंचि दव्वं मणि-मुत्त-सिलप्पवाल-कंस-दूस-रयय-वरकणग-रयणमाइं पडियं पम्हुटुं विप्पणटुं ण कप्पइ कस्सइ कहेउं वा गिहिउँ वा अहिरण्णसुवणियेण समलेट्टकंचणेणं अपरिग्गहसंवुडेणं लोगम्मि विहरियव्वं। .. शब्दार्थ - जत्थ - जहाँ कहीं, गामागर-णगर-णिगम-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-संबाहपट्टणासमगयं - ग्राम, आकर, नगर, निगम, खेट, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमुख, संबाध, पत्तन और आस्रव / .आदि स्थानों में, किंचिवि - कुछ भी, दव्वं - द्रव्य, मणि-मुत्त-सिलप्पवाल-कंस-दूस-रययवरकणगरयणमाई - मणि, मोती, शिला, प्रवाल, कांसा, वस्त्र, पीतल, चांदी, सोना तथा रत्न आदि पडियं - पड़े हों, पम्हुटुं - उसका स्वामी भूल गया हो, विप्पणटुं - खोज करने पर भी उसे मिली न हो, तो वह वस्तु, ण कप्पइ - नहीं कल्पती, कस्सइ - किसी को, कहेउं - कहना, गिहिउ - ग्रहण करना, अहिरण्णसुवण्णियेण - हिरण्य और सुवर्ण के त्यागी होकर, समलेट्टकंचणेणं - मिट्टी और सोने को समान समझने वाले, अपरिग्गह संवुडेणं - परिग्रह-रहित और गुप्तेन्द्रिय होकर, लोगम्मि - लोक में, विहरियव्वं - विचरना चाहिए। . __भावार्थ - जहाँ कहीं ग्राम, आकर, नगर, निगम, खेड़, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमुख, संबाध, पत्तन और आश्रम में मणि, मोती, शिला, प्रवाल, कांसा, वस्त्र, चांदी, सोना और रत्नादि कुछ भी द्रव्य पड़ा हो, उस वस्तु का स्वामी भूल गया हो या उसके खोजने पर भी नहीं मिली हो, तो उस वस्तु के विषय में किसी को कहना अथवा स्वयं ग्रहण करना साधु के लिए अकल्पनीय-अकृत्य है। साधु, चांदी-सोना आदि का त्यागी होता है। उसे मिट्टी और सोने को समान समझ कर तथा निष्परिग्रही एवं संवृत रहकर लोक में विचरना चाहिए। / जं वि य हुज्जाहि दव्वजायं खलगयं खेत्तगयं रण्णमंतर-गयं वा किंचि पुप्फफल-तयप्पवाल-कंद-मूल-तण-कट्ठ-सक्कराइ अप्पं च बहुं च अणुं च थूलगं वा For Personal & Private Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तेय का स्वरूप 253 ***** **************************************************** ण कप्पइ उग्गहम्मि अदिण्णम्मि गिहिउंजे, हणि हणि उग्गहं अणुण्णविय गिण्हियव्वं वज्जेयव्वो सव्वकालं अचियत्तघरप्पवेसो अचियत्तभत्तपाणं अचियत्तपीढ-फलग-सिजा संथारग-वत्थ-पत्त-कंबल-दंडग-रयहरण-णिसिज-चोलपट्टग-मुहपोत्तिय-पायपुंछणाइ भायण-भंडोवहि-उवगरणं परपरिवाओ परस्स दोसो परववएसेणं जं च गिण्हइ परस्स णासेइ जांच सुकयं दाणस्स य अंतराइयं दाणविप्पणासो पिसुण्णं चेव मच्छरियं च। शब्दार्थ - जं - जो, हुजाहि - पड़ी हो, दव्वजायं - वस्तु, खलगयं - खलिहान में, खेत्तगयं - खेत में, रण्णमंतरगयं - वन में, वा - अथवा, पुष्फ-फल-तयप्पवाल-कंद-मूल-तण-कट्ट-सक्कराइ- . फूल, फल, वृक्ष की छाल, प्रवाल, कंद, मूल, तृण, काष्ठ और कंकर आदि, अप्प - अल्पमूल्य की, बहुबहुमूल्य की, अणुं - छोटी, थूलगं - बड़ी, ण कप्पइ - नहीं कल्पती, उग्गहम्मि - अपने अवग्रह में-. उपाश्रय में भी, अदिण्णम्मि - बिना दी हुई, गिहिउं - ग्रहण करना, हणि हणि - प्रतिदिन, उग्गहं - गृहस्थ की, अणुण्णविय - आज्ञा लेकर, गिहियव्वं - ग्रहण करना, वज्जेयव्यो - वर्जना चाहिए, सव्वकालं - सदा, अचियत्तंघरप्पवेसो - अप्रतीतकारी घर में प्रवेश करना, अचियत्तभत्तपाणं - अप्रतीतकारी घर से आहार पानी, अचियत्तपीढफलग सिजा-संथारग वत्थ-पत्त-कंबल-दंडगरयहरणणिसिज्ज-चोलपग-महपोत्तियपाय-पंछणाड - अप्रतीतकारी घर से पीढ. फलक. शय्या. संस्तारक, वस्त्र, पात्र कम्बल, दण्ड, रजोहरण, आसन, चोलपट्टा, मुंहपत्ति और पादपोंछन, भायणभंडोवहि-उवगरणं - भाजन, भण्डोपकरण और उपधि, परपरिवाओ - परपरिवाद-दूसरों की निंदा, परस्स - दूसरे के, दोसो - दोषों का, परववएसेणं - परनिमित्त, ण गिण्हइ - ग्रहण न करे, परस्स - दूसरे के, णासेई- छिपाना, सुकर्य-सुकृत, दाणस्स-दान में, अंतराइयं - अन्तराय देना, दाणविप्पणासोदान का अपलाप करना, पिसुणं - चुगली करना, मच्छरियं - मात्सर्य करना-ईर्षा करना। भावार्थ - साधु को ग्रामानुग्राम विचरते हुए कहीं खेत में खलिहान में अथवा वन में-फूल, फल, / वृक्ष की छाल, प्रवाल (अंकुर) कन्द, मूल, तृण, काष्ठ और कंकर आदि कुछ भी वस्तु पड़ी हो। वह अल्प हो या अधिक, अल्प मूल्य वाली हो या बहुमूल्य हो, छोटी हो या बड़ी, बिना गृहस्थ के दिये (अथवा गृहस्थ की आज्ञा के बिना) ग्रहण करना नहीं कल्पता है, भले ही वह वस्तु अपने अंवग्रह (उपाश्रय) में हो। साधु को आवश्यक ग्राह्य वस्तु प्रतिदिन गृहस्थ की आज्ञा लेकर ही ग्रहण करनी चाहिए। साधु के लिए अप्रतीतिकारक घर में प्रवेश करना सदैव वर्जनीय है और ऐसे अप्रतीतिकारक घर से आहार, पानी, पीढ़, फलक, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र कम्बल, दण्ड, रजोहरण, आसन, चोलपट्टक, मुंहपत्ती, पादपोंछन, भाजन, भण्डोपकरण और उपधि आदि कुछ भी नहीं लेना चाहिए। साधु को दूसरों की निंदा नहीं करनी चाहिए और दूसरे के दोषों को किसी से कहना भी नहीं चाहिए। For Personal & Private Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०२ अ०३ ****** ****************************************************** अन्य साधुओं (आचार्य अथवा रोगी आदि) के लिए जो आहारादि लाये हों, उसका स्वयं उपभोग नहीं करना चाहिए। दूसरों के सुकृत-उत्तम आचार (सद्गुणों अथवा उपकार) को छिपाना, किसी को प्राप्त होते हए दान में बाधक बनना, दिये हए दान का अपलाप करना. किसी की चगली करना तथा गुणीजनों को देखकर मात्सर्य भाव-ईर्षा करना, इन सभी दुर्गुणों का त्याग करना चाहिए। विवेचन - इस सूत्र में साधु को अल्पमूल्य अथवा अमूल्य (जो बिकती नहीं है और यों ही पड़ी हुई मिल जाती है) जैसे-सूखे हुए पत्ते, फूल, घास का तिनका, कंकर, मिट्टी आदि ऐसी नगण्य वस्तु को भी बिना आज्ञा के ग्रहण नहीं करने का आदेश दिया गया है। ऐसी वस्तु यदि उपाश्रय में हो (जिसकी आज्ञा लेकर ही साधु ठहरते हैं) तो भी बिना आज्ञा के नहीं लेनी चाहिए। यह विधान 'दत्तानुज्ञात' महाव्रत को सम्पूर्ण रूप से सुरक्षित रखता है और अदत्त-त्याग व्रत को परिपुष्ट करता है। शंका- साधु ग्रामादि में हो, तब तो गृहस्थ की आज्ञा ले सकता है। किन्तु वन में जा रहे हों और वहाँ सूखे पत्र, तिनके, मिट्टी या कंकर अथवा कांटा लेने की आवश्यकता हो, तब उस निर्जन वन में किस की आज्ञा प्राप्त करे? हर किसी गृहस्थ की आज्ञा तो ली भी नहीं जा सकती। जो वस्तु जिसके अधिकार-क्षेत्र की नहीं, उसकी आज्ञा उससे कैसे प्राप्त की जा सकती है? समाधान - आगम में इसकी विधि बताई है, जिसमें अनुज्ञा देने वाले- 1. देवेन्द्र 2. राजा 3. गृहपति (मण्डलेश, ठाकुर या जागीरदार) 4. सागारी (गृहस्थ) और 5. साधर्मिक। भगवती सूत्र श० . 16 उ० 2 में इसका उल्लेख है। जहाँ कोई आज्ञा देने वाला नहीं हो, वहाँ देवेन्द्र की आज्ञा लेकर वैसी उपेक्षणीय वस्तु ली जा सकती है। - जो वस्तु सदा से उपेक्षणीय रही, जिस पर कभी किसी ने अधिकार नहीं जमाया, जिसका कोई मूल्य ही नहीं और जिसे लेने पर कोई कभी टोंकता भी नहीं, ऐसे,सूखे पान, घास का तिनका, पत्थर आदि के लिए गृहस्थों को तो किसी से आज्ञा लेने की आवश्यकता ही नहीं होती, परन्तु साधु अदत्तत्यागी होने से निकटस्थ किसी भी गृहस्थ की आज्ञा ले सकता है। जिस वस्तु पर किसी एक का अधिकार नहीं, उस पर सब का अधिकार होता है। इसलिए ऐसी वस्तु की अनुज्ञा कोई भी व्यक्ति दे सकता है। मनुष्य का योग नहीं मिलने पर देवेन्द्र की आज्ञा से भी काम चल सकता है-जो भगवान् महावीर प्रभ को उनके शासन के साध-साध्वी के लिए प्राप्त हो चकी है। ___'अचियत्तघरप्पवेसो' - का टीका में-'अप्रीतिकारक घर में प्रवेश' अर्थ किया है। यह अर्थ दो प्रकार से बनता है। यथा-साधु उस घर में प्रवेश नहीं करे कि जिसके प्रति स्वयं का विश्वास नहीं हो अथवा लोक में अप्रतीतकारी माना जाता हो। दूसरा अर्थ यह भी है-जिसके हृदय में साधु के प्रति प्रीति अथवा विश्वास नहीं, उस घर में साधु को प्रवेश नहीं करना चाहिए। दंडग - दण्ड-ओघनियुक्ति गा० 730 में लट्ठी, विलट्ठी दंड और विदंड का स्वरूप बतलाया है। दण्ड का प्रमाण-'दंडो बाहुपमाणो'-बाहु-कन्धे तक लम्बा होता है। इसका उपयोग 'दुद्रुपसुसाणसावयचिक्खलविसमेसु उदगमझे। लट्ठी सरीररक्खा तवसंजमसाहिया भणिया'॥७३९॥ For Personal & Private Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्रत विराधक और चोर 255 **************************************************************** - दुष्ट पशु श्वान सिंहादि से रक्षा करने के लिए, कीचड़ एवं दलदल, विषम (उबड़खाबड़ भूमि) और जल में प्रवेश करते समय शरीर रक्षार्थ तथा तप-संयम की साधना में लाठी उपयोगी कही गई है। दण्ड साधारणतया रोगी, वृद्ध एवं दुर्बल शरीरी के लिए आवश्यक हो सकता है, सभी साधुओं के लिए, रजोहरण के समान सदैव रखना आवश्यक नहीं है। चोलपट्टक - नग्नता ढकने के लिए, धोती के स्थान पर पहिनने का साधुओं का अधोवस्त्र। .: पादपोंछन - पांवों की धूल दूर करने का-पांव पोंछने का वस्त्र या ऊनी साधन-प्रमार्जनी। . उपधि - 'उप सामीप्येन संयम धारयति पोषयति चेत्यर्थः स च पात्रादिरूप। संयम के समीप रहे, संयम में सहायक बने, संयम का पोषण करे, वह पात्रादि रूप उपधि है (ओघनियुक्ति भा० गा० 14 पत्र 12) इसके दो भेद हैं - औधिक और औपग्रहिक। सामान्य रूप से सभी के सदैव उपयोग में आने वाले साधन को 'औधिक' और कारण से किसी के कभी काम में आने वाले को 'औपग्रहिक' कहते हैं। औधिक उपधि - 1. पात्र 2. पात्रबन्ध 3. पात्रस्थापन (पात्र के नीचे बिछाने का कपड़ा) 4. पात्रकेसरिका (पात्र पोंछने का कपड़ा) 5. पैटल (पात्र ढकने का वस्त्र) 6. रजस्त्राण (पात्र पर लपेटने का वस्त्र) 7. गोच्छक (पात्रादि साफ करने का वस्त्र) 8-10. तीन चादरें 11. रजोहरण 12. मुखवस्त्रिका 13. मात्रक और 14. चोलपट्टक। इन में से जिनकल्पी मुनि कम से कम रजोहरण और मुखवस्त्रिका, ये दो और अधिक से अधिक 1 से लगाकर 12 तक के उपकरण रख सकते हैं। अन्त के दो सहित 14 स्थविरकल्प साधु के लिए औधिक उपकरण हैं। साध्वियों के विशेष हैं (औघनि० गा० 666 से 722 तक) ___ औपग्रहिक - संस्तारकोत्तरपट्ट, वर्षाकाल में विशेष उपकरणं लेना पड़े, दण्ड, यष्टि, चर्म, .. चर्मकोश, नखशोधनी, चिलिमिली आदि। ___ उपकरण - जो ज्ञानादि में उपयोगी हो, ज्ञान-दर्शन चारित्र के धारक शरीर एवं ज्ञानादि साधना में उपकारी हो, वह 'उपकरण' है। यदि ज्ञानादि में उपकारी नहीं हो, तो वह उपकरण नहीं होकर 'अधिकरण'-शस्त्र या कर्मबन्ध का कारण होता है (ओघनि० गा०७४०-७४१)। "दाणविप्पणासो' का अर्थ-'दत्तादानलोपः' - दिये हुए दान का अपलाप करना (दाता के नाम को छिपाना) किया है। इसका दूसरा अर्थ-'दान-भावना नष्ट करना' भी हो सकता है। जैसे- 'साधु के अतिरिक्त अन्य किसी को दान देना, पाप का पोषण करना है, 'जो किसी को देता है, उसे दान का फल वापिस लेने के लिए जन्म धारण करना पड़ता है' आदि असत्य प्रचार करके श्रोता की दान-भावना नष्ट करना। यह अर्थ भी हो सकता है। व्रत विराधक और चोर जे वि य पीढ-फलग-सिज्जा-संथारग-वत्थ-पाय-कंबल-मुहपोत्तिय-पायपुंछणाइ भायण भंडोवहिउवगरणं असंविभागी असंगहरुई तवतेणे य वइतेणे य रूवतेणे य .. For Personal & Private Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256 प्रश्नव्याकरण सत्र 2 अ०३ . ********************************** ********* ** ****** आयारे चेव भावतेणे य सहकरे झंझकरे कलहकरे वेरकरे विकहकरे असमाहिकरे सया अप्पमाणभोइ सययं अणुबद्धवेरे य णिच्चरोसी से तारिसए णाराहए वयमिणं। शब्दार्थ - जे - जो, पीढ-फलग-सिज्जा-संथारग-वत्थ-पाय-कंबल-मुहपोत्तिय पायपुंछणाइपीढ़, फलक, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कम्बल, मुंहपत्ति और पादपोंछन आदि, भायण भंडोवहिउवगरणं - भोजन, भंडोपकरण और उपधि, असंविभागी - संविभाग नहीं करता, असंगहरुईपरिमित उपकरणों का और यथायोग्य शिष्यादि का यथोचित संग्रह नहीं करता, तवतेणे - तप का चोर, वइतेणे - वचन का चोर, रूवतेणे - रूप का चोर, य - और, आयारे - आचार का, भावतेणे - . भाव का चोर, सद्दकरे - रात्रि के समय जोर-जोर से शब्द करने वाला, झंझकरे - सावध वचन बोलने वाला या गच्छ में फूट डालने वाले वचन बोलने वाला, कलहकरे - कलह करने वाला, विकहकरे - विकथा करने वाला, असमाहिकरे - असमाधि करने वाला, सया - सदा, अप्पमाणभोइ - अपरिमाण भोजी, सययं - सदा, अणुबद्धवेरे - वैर बढ़ाने वाला, य - और, णिच्चरोसी - सदा कोप करने वाला, से - वह, तारिसए - ऐसा साधु, ण आराहए - आराधक नहीं हो सकता। भावार्थ - जो साधु, पीढ, फलंक, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कम्बल, मुंहपत्ति, पादपोंछनादि / तथा भण्डोपकरण और उपधि आदि का संविभाग नहीं करता और संयमोपकारक उपकरण तथा शिष्य के संग्रह की रुचि नहीं रखता. जो तप का चोर है. वचन का चोर है. रूप का चोर है. आचार का चोर है और भाव का चोर है, जो प्रहरभर रात व्यतीत होने पर भी जोर-जोर से बोलता है, गच्छ में भेद उत्पन्न करता है, क्लेश करता है, वैर उत्पन्न करता है, विकथा करता है, अशान्ति उत्पन्न करता है, जो सदैव अपरिमाण भोजी (प्रमाण से अधिक खाता) है, वैर बढ़ाने में सदैव संलग्न रहता है और रोष में सदा तप्त रहता है (कुपित रहता है) ऐसा साधु, इस व्रत का आराधक नहीं होता। विवेचन - तपस्तेन - तप का चोर। शारीरिक दुर्बलता देखकर कोई पूछे-"तपस्वी संत आप ही होंगे?' तब वह - 'साधु तो तपस्वी होते ही हैं, कहे या मौन रहकर पूछने वाले के मन में अपने कों 'निरभिमानी तपस्वी' मनवाने का दंभ करे अथवा तपस्वी नहीं होते हुए भी अपने को तपस्वी बतावे, तो वह तप का चोर है। वचनस्तेन - वचन-सिद्धि के अभाव में अपने को वचन-सिद्ध बताने वाला अथवा वाक्-छल से लोगों को छलने वाला। . रूपस्तेन - रूप का चोर। साधु का रूप धारण करके असाधुता का सेवन करने वाला-दुराचारी। आचारस्तेन - शिथिलाचारी और अनाचारी होकर भी अपने को उत्तम आचारवान् के रूप में प्रसिद्ध करने वाला। ___भावस्तेन - श्रुतज्ञानादि विशिष्ट गुणों का सद्भाव न होने पर भी अपने को बहुश्रुत, गीतार्थ, विशिष्ट ज्ञानी एवं उत्तम आराधक बतलाने वाला। For Personal & Private Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____ आराधक की वैयावृत्य विधि 257 ******** ************************* __ आराधक की वैयावृत्य विधि अह केरिसए पुणाई आराहए वयमिणं? जे से उवहि-भत्त-पाण-संगहण-दाणकुसले-अच्चंतबाल-दुब्बल-गिलाण-वुड्ड-खवग-पवत्ति-आयरिय-उवज्झाए सेहे साहम्मिए तवस्सी-कुल-गण-संघ-चेइयढे य णिज्जरट्ठी वेयावच्चं अणिस्सियं दसविहं बहुविहं करेइ, ण य अचियत्तस्सगिहं पविसइ, ण य अचियत्तस्स गिण्हइ भत्तपाणं, ण य अचियत्तस्स सेवइ पीढ-फलग-सिज्जा-संथारग-वत्थ-पाय-कंबल-दंडगरयहरण-णिसिज्ज-चोलपट्टय-मुहपोत्तियं पायपुंछणाइ-भायण-भंडोवहिउवगरणं ण य परिवायं परस्स जंपइ, ण यावि दोसे परस्स गिण्हइ पर ववएसेण वि ण किंचि गिण्हइ ण य विपरिणामेइ किंचि जणं ण यावि णासेइ दिण्णसुकयं दाऊणं य ण होइ पच्छाताविए संभागसीले संग्गहोवग्गहकुसले से तारिसए आराहए वयमिणं। शब्दार्थ - अह - अब, केरिसए - कैसा साधु, पुणाई - फिर, आराहए - आराधना, वयमिणं - इस व्रत की, जे - जो, उवहि-भत्त-पाण-संगहण-दाण-कुसले - उपधि ग्रहण करने और आहारपानी का संग्रह तथा संविभाग करने में कुशल, अच्चंतबाल दुब्बल गिलाण वुड्ड खवग - अत्यन्त दुर्बल, बालक, ग्लान, वृद्ध, क्षपक-उत्कट तपस्वी, पवत्ति-आयरिय-उवज्झाए - प्रवर्तक, आचार्य, उपाध्याय, सेहे - शैक्ष-नवदीक्षित, साहम्मिए - साधर्मिक, तवस्सी - तपस्वी, कुल - कुल, गण - गण, संघसंघ, चेइयढे - ज्ञान के लिए अथवा चित्त की शांति के लिए, य - और, णिज्जरट्ठी - निर्जरा के लिए, वैयावच्चं - वैयावृत्य, अणिस्सियं - कीर्ति आदि की इच्छा से रहित, दसविहं - दस प्रकार की, बहुविहंबहुत प्रकार की, अचियत्तस्स - अप्रतीतकारी, गिहं - घर में, ण पविसइ - प्रवेश नहीं करता, भत्तपाणंआहार पानी, गिण्हइ - ग्रहण करना, पीढ - पीठ, फलग - फलक, सिज्जा - शय्या, संथारग - संस्तारक, वत्थ - वस्त्र, पाय - पात्र, कंबल - कम्बल, दंडग - दण्डक, रयहरण - रजोहरण, णिसिजनिषद्या-आसन, चोलपट्टय - चोलपट्टा, मुहपोत्तिय - मुंहपत्ति, पायपुंछणाइ - पादपोंछन, भायण - भाजन, भंडोवहिउवगरणं - भण्ड, उपधि और उपकरणों का, ण सेवइ - सेवन नहीं करता, परिवायं - परिवाद, परस्स - दूसरों का, ण जंपई - नहीं कहता, दोसे - दोषों को, परववएसे ण - दूसरों के बहाने से, ण विपरिणामेइ - विमुख नहीं करता, दिण्णसुकयं - दान और सुचारित्र को, ण णासेइ - नहीं छिपाता, दाऊण - देकर या वैयावृत्य करके, पच्छाताविए - पश्चात्ताप, संभागसीले - यथायोग्य विभाग करने वाला, संग्गहोवग्गहकुसले - योग्य शिष्यों का संग्रह करने, भात-पानी देने में और शास्त्राध्ययन कराने में कुशल, तारिसए - इस प्रकार का, से - वह, आराहय - आराधना, वयमिणं - व्रत की। भावार्थ - कैसा साधु इस तीसरे महाव्रत की आराधना कर सकता है? इस प्रश्न के उत्तर में For Personal & Private Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258 - प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०३ बताया है कि - जो साधु, संयम-साधना में आवश्यक ऐसे उपकरण के संग्रह और आहार-पानी प्राप्त कर साधर्मी-साधुओं को देने में कुशल है। जो अत्यन्त दुर्बल, बाल, ग्लान (रोगी) वृद्ध, क्षपक (जो मास-खमणादि उत्कट तप करता है) प्रवर्तक, आचार्य, उपाध्याय, नवदीक्षित शिष्य, साधर्मिक, तपस्वी, कुल, गण, संघ की दस प्रकार अथवा बहुत प्रकार की वैयावृत्य, कीर्ति आदि की इच्छा के बिना चैत्यार्थ (ज्ञान प्राप्ति के लिए) और निर्जरा के लिए करता है, जो अप्रीति वाले घर में प्रवेश नहीं करता, अप्रीतिकारी घर से आहारादि नहीं लेता और न अप्रीतिकारी घर के पीढ़, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कम्बल, दण्डक, रजोहरण, निषद्या, चोलपट्टक, मुंहपत्ति, पादपोंछन, भाजन, उपधि, भण्डोपकरण का सेवन नहीं करता, दूसरों की निन्दा नहीं करता, दूसरों के दोषों को ग्रहण नहीं करता, आचार्य अथवा रोगी आदि के बहाने से कोई वस्तु नहीं लेता, किसी व्यक्ति को दानादि धर्म से विमुख नहीं बनाता, किसी के दान और सदाचरण को छुपाता नहीं, जो आहारादि लाकर देने (वैयावृत्य करने) के बाद पछतावा नहीं करता, जो प्राप्त आहारादि का यथायोग्य विभाग करता है, जो योग्य शिष्य तथा उपकरणादि का संग्रह करने, आहारादि देने और अध्ययन कराने में कुशल है-ऐसा साधु, इस व्रत की आराधना करता है। विवेचन - शरीरधारियों के लिए आहारादि पर वस्तुओं की आवश्यकता होती ही है-साधुओं के . लिए भी। गृहस्थ लोगों की साधन-प्राप्ति निर्दोष नहीं होती, किन्तु साधुओं का जीवन निर्दोष होता है। उन्हें आवश्यक सामग्री निर्दोष रीति से ही प्राप्त करनी होती है। इस सूत्र में विविध स्थिति वाले साधुओं और उनकी आवश्यकताओं का उल्लेख कर तदनुकूल वैयावृत्य करने का निर्देश किया है। अत्यंतबाल - आठ वर्ष की उम्र वाला साधु। - क्षपक-"क्षपको विकृष्ट तपस्वी मासक्षपणादि निरन्तर कर्ता'-मासखमणादि निरन्तर उत्कट तप करने वाले। प्रवर्तक - 'सीदन्त प्रतिचरणधर्मप्रवर्तते प्रवर्तावयति स प्रवर्तक:-चारित्र धर्म में प्रवृत्ति करने और साधुओं से यथायोग्य प्रवृत्ति कराने वाले। कुल - एक गुरु के शिष्यों का समुदाय अथवा-एक ही वाचनाचार्य से ज्ञानाध्ययन करने वाले शिष्यों का समूह। गण-अनेक कुलों से बना हुआ समूह। संघ-गण-समूह का संग्राहक तथा साधु-साध्वी, श्रावक और श्राविका-यह चतुर्विध संघ। ... चेइयढे - चैत्यार्थ चैत्य के लिए। टीकाकार चैत्य शब्द का अर्थ करते हैं-'जिन प्रतिमा'। यह अर्थ पंचम काल में उत्पन्न, अपने समय में बहु विकसित और व्यापक बनी हुई मूर्तिपूजा के प्रभाव से हुआ होगा, जबकि साधु मन्दिर-मूर्ति के लिए स्वयं आरम्भ-समारम्भ करवाते थे। स्थान-स्थान पर मंदिर बनवाना, मूर्ति स्थापित करना, प्रतिष्ठा करवाना, महापूजा का आरम्भ करना, संघ निकाल कर For Personal & Private Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आराधक की वैयांवृत्य विधि 259 **************************************************************** यात्रा करना आदि अनेक कार्य करते थे। धर्म-साधना का मुख्य आधार मंदिर-मूर्ति बन चुका था। अन्यथा यह अर्थ यहाँ लागू ही कैसे हो सकता है? क्योंकि इस सूत्र में वैयावृत्य के पात्रों और वैयावृत्य के साधनों का उल्लेख किया गया है। वैयावृत्य के पात्र हैं - 'अच्चंतबाल-दुब्बल..........संघ' और वैयावृत्य के साधन हैं-'उवहिभत्तपाण........।' सोचना चाहिए कि उपधि और भातपानी-आहारादि की आवश्यकता मानव शरीरधारी अत्यन्तबाल से लगाकर संघ तक के साधुओं को होती है, मूर्ति को नहीं। "भत्तपाणपीढ यावत् उवगरण" में से कोई भी वस्तु मूर्ति के लिए आवश्यक या व्यवहार के योग्य नहीं है। ये सब साधुओं के लिए ही उपयोगी हैं। अतएव यहाँ मूर्ति अर्थ उचित नहीं होगा। स्थानांग सूत्र स्थान 10, भगवती श० 25 उ० 7 तथा व्यवहार सूत्र उ० 10 में वैयावृत्य करने योग्य पात्र दस ही बताये हैं। यथा - 1. आचार्य 2. उपाध्याय 3. स्थविर 4. तपस्वी 5. ग्लान 6. शैक्ष 7. कुल 8. गण 9. संघ और 10. साधर्मिक। तत्त्वार्थ सूत्र अ० 9 सूत्र 24 में भी ये ही पात्र बताये हैं। इसमें से किसी में भी जिन-प्रतिमा का उल्लेख नहीं है। इस प्रकार वैयावृत्य के स्थान पर मूर्ति अर्थ अनुचित, असंगत एवं असत्य है। यहाँ ज्ञान प्राप्त्यर्थ-ज्ञान प्राप्ति. के लिए अर्थ ठीक रहता है। उत्तराध्ययन अ० 1 गा० 46 में लिखा है कि - 'पसण्णा लाभइस्संति विउलं अट्ठियं सुयं' - वैयावत्यादि गण से प्रसन्न हुए गरु, विपुल अर्थयुक्त श्रुतज्ञान का लाभ देते हैं। अतएव ज्ञानार्थी के लिए वैयावृत्य आवश्यक है और वैयावृत्य निर्जरा का भी कारण है। 'चेइय?' का अर्थ- आचार्यादि की प्रसन्नता के लिए भी किया है। उनकी प्रसन्नता श्रुत-दान का कारण होती है। रायपसेणी सूत्र में भगवान् महावीर के वर्णन में 'चेइय' का अर्थ टीकाकार ने-'चैत्यं . सुप्रशस्त मनोहेतुत्वात्' - शुभ एवं प्रशस्त मन के हेतु किया है। साधर्मिक - 'एक श्रद्धारुचिः साधर्मिकः श्रुतलिंग प्रवचनैक: रीति।' जिनकी श्रद्धा एक हो, जिनका श्रुत, लिंग और प्रवचन एक प्रकार का हो, जिनका आचार-विचार एक समान हो। व्यवहार सूत्र उ० 2 भाष्य गाथा 10 में साधर्मी के 12 भेद इस प्रकार किये हैं - . 1. नाम साधर्मिक - समान नाम वाला, दो व्यक्तियों का एक ही-सा नाम होना। जैसे देवदत्त नामक मनुष्य से दूसरे देवदत्त नाम वाले व्यक्ति का नाम एक ही समान होता है। (अथवा-नाममात्र का साधर्मी। वास्तविक जैन से नाममात्र के जैन की जैन कहलाने मात्र की साधर्मिकता होती है।)। 2. स्थापना साधर्मिक - साधर्मी के चित्र-मूर्ति आदि सद्भाव या किसी अक्ष (पासा) वराट (कौड़ी) में साधर्मी की असद्भाव स्थापना करना। 3. द्रव्य साधर्मिक - जिसमें भविष्य में साधर्मिकता के गुण प्रकट होंगे अथवा जिसमें भूतकाल में साधर्मिकता के गुण थे (वर्तमान में साधर्मिकता के भाव से रहित)। 4. क्षेत्र साधर्मिक - समान क्षेत्रिय-एक देश के निवासी। 5. काल साधर्मिक - एक काल में उत्पन्न अथवा समकालीन। For Personal & Private Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०२ अ०३ **************************************************************** 6. प्रवचन साधर्मिक - एक सिद्धान्त को मानने वाले, एक प्रकार की श्रद्धा वाले ऐसे साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका। 7. लिंग साधर्मिक - एक ही प्रकार के वेश वाले-रजोहरण और मुखवस्त्रिका युक्त साधुसाध्वी तथा श्रमणभूत श्रावक। 8. दर्शन साधर्मिक - समान दर्शनी क्षायोपशमिक, ओपशमिक और क्षायिक सम्यग्दृष्टि की अपने हो समान दृष्टि वाले से समानता होना। 9. ज्ञान साधर्मिक - मति आदि ज्ञान की समानता युक्त। 10. चारित्र साधर्मिक - सामायिकादि समान चारित्र वाले साधु-साध्वी.।. . . 11. अभिग्रह साधर्मिक - समान अभिग्रह वाले-जिन्होंने तप-साधना करके आहारांदि ग्रहण में एक समान नियम लिया हो। : 12. भावना साधर्मिक - अनित्यादि भावना में समान रूप से बरतने वाले। उपरोक्त बारह प्रकार के साधर्मिकों में श्रावक भी साधु का साधर्मिक है-प्रवचन, दर्शन और ज्ञान की अपेक्षा। आराधना का फल इमंच परदव्व-हरण-वेरमण-परिरक्खणट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं अत्तहियं पेच्चाभावियं आगमेसिभई सुद्धं णेयाउयं अकुडिलं अणुत्तरं सव्वदुक्खपावाणं विउवसमणं। ___ शब्दार्थ - इमं - ये, परदव्व-हरण-वेरमण-परिरक्खणट्ठयाए - पर-द्रव्य हरण त्याग व्रत की रक्षा के लिए, पावयणं - प्रवचन, भगवया - भगवान् ने, सुकहियं - कहे हैं, अत्तहियं - आत्म-हितार्थ, पेच्चाभावियं - जन्मान्तर में शुभ फल देने वाले, आगमेसिभदं - भविष्य में कल्याण का हेतु, सुद्धं - शुद्ध, णेयाउयं - न्याययुक्त, अकुडिलं - कुटिलतारहित सरल, अणुत्तरं - प्रधान, सव्वदुक्खपावाणं - समस्त दु:ख और पापों को, विउवसमणं - शान्त करने वाले। ___भावार्थ - पराये द्रव्य के हरण रूप पापकृत्य से विरत करने वाले इस महाव्रत की रक्षा के लिए भगवान् ने उत्तम प्रवचन कहा है। यह व्रत आत्मा के लिए हितकारी है, परभव में शुभ फल देने वाला है और भविष्य में कल्याणकारी है। यह प्रवचन शुद्ध है, न्याय से युक्त है, कुटिलता-रहित सरल है, उत्तमोत्तम है और समस्त दुःखों और पापों को शान्त करने वाला है। अस्तेय व्रत की पांच भावनाएं तस्स इमा पंच भावणाओ होंति परदव्व-हरण-वेरमण-परिरक्खणट्ठयाए। For Personal & Private Use Only | Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रथम भावना-निर्दोष उपाश्रय 261 **************************************************************** प्रथम भावना-निर्दोष उपाश्रय पढमं देवकुल-सभा-प्पवा-वसह-रुक्खमूल-आराम-कंदरागर-गिरि-गुहाकम्मउज्जाण-जाणसाला-कुवियसाला-मंडव-सुण्णघर-सुसाण-लेण-आवणे अण्णम्मि य एवमाइयम्मि दग-मट्टिय-बीज-हरिय-तसपाण असंसत्ते अहाकडे फासुए विवित्ते पसत्थे उवस्सए होइ विहरियव्वं / आहाकम्मबहुले य जे से आसिय-सम्मजियउस्सित्तसोयि-छायण-दूमण-लिंपण-अणुलिंपण-जलण-भंडचालणं अंतो बहिं च असंजमो जत्थ वड्डइ संजयाण अट्ठा वज्जियव्वो हु उवस्सओ से तारिसए सुत्तपडिकुटे। एवं विवत्तवासवसहिसमिइजोगेण भाविओ भवइ * अंतरप्पा णिच्चअहिगरणकरणकारावणपावकम्मविरओ दत्तमणुण्णाय उग्गहरुई। शब्दार्थ - तस्स - उसकी, पंच - पांच, भावणाओ - भावनाएं, तइयस्स - तीसरे की, होति - हैं, परदव्वहरणवेरमण - पर-द्रव्य के हरण से विरमण रूप, परिरक्खणट्ठाए - रक्षा के लिए। पढमं - प्रथम, देवकुल - मंदिर, सभा - सभा, प्पवा - प्रपा-प्याऊ, आवसह - संन्यासी लोगों का मठ, रुक्खमूल - वृक्ष का मूल, आराम - बगीचा, कंदरा - गुफा, आगर - खान, गिरिगुहा - पर्वत की गुफा, कम्म - चूना आदि बनाने का स्थान, उज्जाण - उद्यान, जाणसाला - रथशाला, कुवियसाला - घर का सामान रखने का स्थान, मंडव - मण्डप, सुण्णघर - शून्य घर, सुसाण - श्मशान, लेण - पर्वत के नीचे का घर, आवणे - आपण-दुकान, अण्णम्मि - अन्य स्थान में, एवमाइयम्मि - इसी प्रकार के, दग-मट्टिय-बीज-हरिय-तसपाणअसंसत्ते - जल, सचित्त, मिट्टी, बीज, हरी वनस्पति और बेइन्द्रिय आदि त्रस प्राणी से रहित, अहाकडे - गृहस्थ ने निज के लिए बनाया हो, फासुए - प्रासुक, विवित्ते - विविक्त, पसत्थे - प्रशस्त, उवस्सए - उपाश्रय में, विहरियव्वं - ठहरना, आहाकम्मबहुले - आधाकर्म दोष की बहुलता वाला हो, आसिय - जल के छींटे डाला हुआ, सम्मज्जिय - झाडू से कचरा निकाला हुआ, उस्सित्त - उत्सिक्त-जल का विशेष रूप से छिड़काव किया गया हो, सोहिय - शोभित , छायण - छप्पर आदि से छाया गया हो, दूमण - चूना आदि लगाकर सफेद किया गया हो, लिंपण - लीपा हुआ, अणुलिंपण - बार-बार लीपा गया, जलण - अग्नि जलाई हो, भंडचालण - बरतन आदि हटाये हों, जत्थ - जहाँ, अंतो - भीतर, य - तथा, बहिं - बाहर, असंजमो - असंयम की, वड्डइ - वृद्धि, संजयाणअट्ठा - साधु के लिए, वज्जियव्यो - वर्जित करना, तारिसए - ऐसा, उवस्सओ - उपाश्रय, सुत्तपडिकुट्टे - शास्त्र से वर्जित, एवं - इस प्रकार, णिच्चं - सदा, विवत्तवासं - विविक्तवास, वसहि - स्थान, समितिजोगेण - समिति का पालन करने से, अंतरप्पाअन्तरात्मा, भाविओ - भावित, भवइ - होता है, अहिगरणकरणकारावणपावकम्मविरओ - दुर्गतिजनक कार्यों के करने और कराने रूप पाप-कर्म से निवृत्त होना, दत्तमणुण्णायउग्गहरुई - दिये हुए और अनुज्ञा किये हुए पदार्थ को ही ग्रहण करने की रुचि वाला। For Personal & Private Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 'प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०२ अ०३ **************************************************************** भावार्थ - दूसरों के द्रव्य के हरण रूप पाप कर्म से निवृत्त करने वाले इस तीसरे महाव्रत की रक्षा करने के लिए पांच भावनाएं होती हैं। प्रथम भावना - साधुओं को ठहरने के लिए निर्दोष स्थान (उपाश्रय) का निर्देश करने वाली यह पहली भावना है। वे स्थान ये हैं - देवकुल-व्यंतरादि के मंदिर, सभा (जहाँ लोग एकत्रित होकर मंत्रणा करते है) प्याऊ, आवसथ (सन्यासियों का मठ) वृक्ष के नीचे, आराम (बगीचा), कन्दरा (गुफा) आकर (खान) पर्वत की गुफा, कर्म (लोहार आदि की शाला, जहाँ लोह पर क्रिया की जाती है, कुंभकार आदि के स्थान) उद्यान (उपवन) यानशाला (रथ, गाड़ी आदि वाहन रखने के स्थान) कुप्यशाला (घर के बरतन आदि रखने का स्थान) मण्डप (उत्सव का स्थान या विश्राम-स्थल) शून्य घर, श्मशान, लयन (पर्वत की तलहटी में बना हुआ) आपण (दुकान) और इसी प्रकार के अन्य स्थानों में, जो सचित्त जल, मिट्टी, बीज, हरी वनस्पति और बेइन्द्रियादि त्रस प्राणियों से रहित हों, गृहस्थ ने अपने लिए बनाये हो, प्रासुक (निरवद्य) हो, विविक्त (स्त्री, पशु और नपुंसक से रहित) हो और प्रशस्त (निर्दोष एवं शुभ) हों, ऐसे उपाश्रय में साधु को ठहरना चाहिए। ऐसे स्थान में नहीं रहना चाहिए जो आधाकर्म बहुल (साधु के लिए आरम्भ करके बनाया) हो, साधु के रहने के लिए जल छिटक कर धूल दबाई हो, झाडू लगाकर साफ किया हो, विशेष रूप से. जल छिटका हो. सशोभित किया हो. ऊपर छाया हो. चना आदि पोता हो. लीपा हो. विशेष रूप से लीपा हो, शीत निवारण के लिए अग्नि जलाई हो या दीपक जलाया हो, बरतन आदि हटाकर अन्यत्र रखे हों, जहाँ भीतर या बाहर रहने से असंयम की वृद्धि होती हो, तो ऐसे स्थान साधु के लिए वर्जित हैं। ऐसे स्थानों का त्याग करना चाहिए। ऐसे उपाश्रय साधु के लिए सूत्र के प्रतिकूल हैं। इस प्रकार विविक्त-वसित रूप समिति का पालन करने से अन्तरात्मा प्रभावित होती है और . दुर्गति के कारण ऐसे पापकर्म करने, कराने से निवृत्ति होती है तथा दत्तानुज्ञात स्थान की रुचि होती है। विवेचन - साधु 'अनगार' होता है। साधु का अपना कोई घर नहीं होता, फिर भी उसे किसी स्थान पर ठहरना ही पड़ता है। प्रथम भावना में वैसे निर्दोष स्थानों का उल्लेख किया है जो पूर्णतया निर्दोष हो कर संयम के अनुकूल हों। द्वितीय भावना-निर्दोष संस्तारक - बिइयं आराम उजाणकाणणवणप्पदेसभागे किंचिइक्कडं व कठिणगंचजंतुगं च परा-मेर-कुच्च-कुसुडब्भ-पलाल-मूयगवक्कय पुष्फ-फल-तय-प्पवाल-कंदमूल-तण-कट्ठ-सक्कराइ गिण्हइ सेजोवहिस्स अट्ठा ण कप्पएं उग्गहे अदिण्णम्मि गिहिउँ जे हणि हणि उग्गहं. अणुण्णवियं गिहियव्वं एवं उग्गहसमिइजोगेण भाविओ भवइअंतरप्याणिच्चंअहिगरण-करणकारावण-पावकम्मविरएदत्तमणुण्णायउग्गहरुई। .अन्य प्रतियों में 'वक्कय' के स्थान पर 'पव्वय' तथा 'वलय' पाठ हैं। , For Personal & Private Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 263. तृतीय भावना-शय्या-परिक वर्जन **************************************************************** शब्दार्थ-बिइयं - द्वितीय, आराम - बगीचा, उज्जाण - उद्यान, काणण - नगर का निकटवर्ती वन, वणप्पदेसभागे - वन प्रदेश, इक्कडं - सूखा घास, कठिणगं - कठिनक-तृण विशेष, जंतुगं - जलाशय में उत्पन्न होने वाला तृण विशेष, परा - एक प्रकार का घास, मेर - मुंज, कुच्च - कुर्च-जिससे कूची आदि बनाई जाती है, कुसु - कुश, डब्भ - डाभ, पलाल - पलाल, मूयग - मूयक-एक प्रकार का तृण विशेष, वक्कय - वल्कल, पुष्फ - फूल, फल - फल, तय - त्वचा, प्पवाल - प्रवाल, कंद - कन्द, मूल - मूल, तण - तृण, कट्ठ - काष्ठ, सक्कराइ - शर्करा, सेज्जोवहिस्सअट्ठा - बिछाने तथा अन्य कार्य के लिए, गिण्हइ - ग्रहण करना, उग्गहे - अवग्रह, अदिण्णम्मि - बिना आज्ञा, ण कप्पएनहीं कल्पता, हणि हणि - प्रतिदिन, जे - जो, अणुण्णविय - आज्ञा लेकर, गिण्हियव्वं - ग्रहण करना, एवं - इस प्रकार, णिच्चं - सदा, उग्गहसमिइजोगेण - अवग्रह समिति का पालन करने से, अंतरप्पा - अन्तरात्मा, भाविओ - भावित, भवई - होती है, अहिगरण-करण-कारावण-पावकम्म-विरए - दुर्गतिजनक कार्यों के करने और कराने रूप पापकर्मों से रहित, दत्तमणुण्णाय उग्गहरुई - प्रदत्त और अनुज्ञा की हुई वस्तु को ही ग्रहण करने वाला। भावार्थ - दूसरी भावना अनुज्ञात-संस्तारक है। आराम, उद्यान, कानन और वन-प्रदेश में सूखा घास, कठिनक (तृण विशेष) जलाशयोत्पन्न तृण, परा (तृण विशेष) मेरर (मुंज) कूर्च, कुश, डाभ, पलाल, मूयक, वल्कल, पुष्प, फल, त्वचा, प्रवाल, कन्द, मूल, तृण, काष्ठ और कंकरादि बिछाने या अन्य कार्य के लिए ग्रहण करना हो और वह वस्तु उपाश्रय के भीतर हो, तो भी आज्ञा प्राप्त किये बिना ग्रहण करना साधु के लिए कल्पनीय नहीं है। जिस स्थान में मुनि ठहरा है, उसमें रहे तृण आदि के ग्रहण करने की भी प्रतिदिन आज्ञा लेनी चाहिए। इस प्रकार अवग्रह-समिति का सदैव पालन करने से अन्तरात्मा पवित्र होती है और दुर्गति-दायक पाप-कर्मों के करने-कराने से निवृत्त होती है तथा दत्तानुज्ञात वस्तुं ही ग्रहण करने की रुचि होती है। .तृतीय भावना-शय्या-परिकर्म वर्जन तइयं पीढ-फलग-सिजा-संथारगट्ठयाए रुक्खा ण छिंदियव्वा ण छेयणेण भेयणेण सेजा कारियव्वा जस्सेव उवस्सए वसेज सेनं तत्थेव गवेसिज्जा, ण य विसमं समं करेजा ण णिवायपवायउस्सुगत्तं ण डंसमसगेसु खुभियव्वं अग्गी धूमो ण कायव्वो, एवं संजमबहुले संवरबहुले संवुडबहुले समाहिबहुले धीरे काएण फासयंतो सययं अज्झप्पज्झाणजुत्ते समिए एगे चरिज धम्मं, एवं सेजासमिइजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा णिच्चं अहिगरण-करणकारावण-पावकम्मविरए दत्तमणुण्णाय उग्गहरुई। शब्दार्थ - तइयं - तृतीय, पीढ-फलग-सेज्जा-संथारगट्ठयाए - पीढ, फलक, शय्या और संस्तारक के लिए, रुक्खा - वृक्ष, ण छिंदियव्वा - छेदन नहीं करना, छेयणेण - छेदन, भेयणेण - भेदन, सिज्जा For Personal & Private Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 ****** प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०३ ************************************************** शय्या, कारियव्वा - करवाना, जस्सेव - जिसके, उवस्सए - उपाश्रय, वसेज - ठहरे, सिजं - शय्या, तत्थेव - वहीं, गवेसिज्जा - गवेषणा करे, विसमं समंण करेज्जा - विषम को सम नहीं करे, ण णिवायपवाय उस्सुगत्तं - वायु सहित या रहित स्थान में उत्सुकता न करे, ण डंसमसगेसु खुभियव्वंडाँस और मच्छर आदि के विषय में क्षुब्ध नहीं होंवे, अग्गी धूमो ण कायव्वो - अग्नि अथवा धुंआ नहीं करे एवं इस प्रकार, संजमबहुले - संयम की प्रधानता वाला, संवरबहुले - संवर की प्रधानता वाला, संवुडबहुले - संवृत्तपन की प्रचुरता वाला, समाहिबहुले - समाधि- सम्पन्न, धीरे - धैर्यशाली, काएण फासयंतो - शरीर से पालन करता हुआ, सययं - निरन्तर, अज्झप्पज्झाणजुत्ते - अध्यात्म-ध्यान से युक्त, समिए - समिति वाला, एगे - अकेला, चरिज - आचरण करे, धम्मं - धर्म का, सेज्जासमिइजोगेण - शय्या-समिति के योग से, भाविओ - भावित, भवइ - होती, अंतरप्या - अन्तरात्मा, णिच्चं - सदा, अहिगरण-करणकारावण-पावकम्मविरए - दुर्गतिजनक कार्यों के करने-कराने रूप पाप-कर्म से विरत, दत्तमणुण्णायउग्गहरुई - दत्त और आज्ञा प्राप्त अवग्रह की रुचि वाला। भावार्थ - तीसरी "शय्या-परिकर्म वर्जन" भावना है। साधु, पीढ, फलक, शय्या और संस्तारक के लिए वक्षों का छेदन नहीं करे और वक्षों का छेदन-भेदन कराकर शय्या नहीं बनवावें. किन्त जिस गहस्थ के उपाश्रय (घर) में साध ठहरे वहीं शय्या की गवेषणा करे। यदि वहाँ ठहरने की भमि विषम (ऊबड़-खाबड़) हो, तो उसे सम (बराबर) नहीं करे। यदि वहाँ वायु का संचार न हो या अधिक हो, तो उत्सुकता (अरुचि) नहीं रखकर समभाव पूर्वक रहे। यदि डांस-मच्छरों का परीषह उत्पन्न हो जाए, तो क्षुभित नहीं होकर शान्त रहे। उन डांस-मच्छरों का निवारण करने के लिए न तो अग्नि प्रज्वलित करे और न धुआं ही करे। इस प्रकार निर्दोष चर्या से उस साधु के जीवन में अत्यधिक संयम, विस्तृत संवर, कषायों और इन्द्रियों पर विशेष, विजय, चित्त में प्रसन्नता एवं शांति की बहुलता होती है। वीतराग-भाव की वृद्धि करने वाला धीर-वीर श्रमण, उत्पन्न परीषहों को अपने शरीर पर झेलता हुआ अध्यात्म ध्यान से सतत सम्पन्न रहे और समितियों का पालन करता हुआ, स्वयं अकेला (रागादि रहित) होकर धर्म का आचरण करे। इस प्रकार सदैव शय्या समिति के योग से (शय्या परिकर्म वर्जित करने से) अन्तरात्मा विशुद्ध होती है और दुर्गतिदायक कृत्यों के करण-करावन रूप पापकर्मों से वंचित रहती है। वह प्रशस्तात्मा दत्तमनुज्ञात अवग्रह ग्रहण करने की रुचि वाला होता है।' - चतुर्थ भावना-अनुज्ञात भक्तादि . चउत्थं साहारण-पिंडपायलाभे सति भोत्तव्वं संजएणं समियं ण सायसूपाहियं ण खद्धं ण वेगियं ण तुरियं ण चवलं ण साहसं ण य परस्स पीलाकारसावजं तह भोत्तव्वं जह से तइयवयं ण सीयइ साहारणपिंड-पायलाभे सुहुमं अदिण्णादाणवयणियम-विरमणं एवं साहारणपिंडपायलाभे समिइजोगेण भाविओ भवड़ अंतरप्पा णिच्चं अहिगरण-करणकारावण-पावकम्मविरए दत्तमष्णुण्णाय उग्गहरुई। For Personal & Private Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवीं भावना-साधर्मिक विनय 265 . **************************************************************** शब्दार्थ - चउत्थं - चतुर्थ, साहारण-पिंडपायलाभे - सब साधुओं के लिए सम्मिलित आहार आदि के मिलने पर. भोत्तव्वं- आहार करना. संजएणं- साध को. समियं- सम्यक यतनापर्वक. ण सायसूपाहियं - न शाक और सूप की अधिकता वाला, ण खद्धं - साथ बैठकर स्वयं अधि या जल्दीजल्दी नहीं खाना, ण वेगियं - वेग युक्त नहीं, ण तुरियं - शीघ्रतापूर्वक, ण चवलं - चंचलतापूर्वक नहीं, ण साहसं - बिना विचारे नहीं, ण य परस्स पीलाकारसावजं - और दूसरों को पीड़ाकारक तथा सदोष रीति से नहीं, तह भोत्तव्यं - इस प्रकार खाना चाहिए, जह से तइयवयं - जिस प्रकार तीसरा व्रत, ण सीयइ - नष्ट नहीं हो, साहारण पिंडपायलाभे - साधारण पिण्डपात के लाभ में, सुहमं - सूक्ष्म, अदिण्णादाणवयणियसविरमणं - अदत्तादान विरमण व्रत से आत्मा का नियमन करने वाला, एवं - इस प्रकार, साहारणपिंडपायलाभे - साधारण पिण्डपात के लाभ से, समिइजोगेण - समिति के योग से, भाविओ - भावित, भवइ - होती है, अंतरप्पा - अन्तरात्मा, णिच्चं - सदैव, अहिगरण करण कारावण पावकम्मविरए - अधिकरण रूप पाप-कर्म के करने-कराने रूप कर्म से विरत, दत्तमणुण्णाय उग्गहरुई - दत्त और अनुज्ञात अवग्रह की रुचि वाला। भावार्थ - अनुज्ञातभक्तादि चौथी भावना है। साधु का कर्त्तव्य है कि वह गुरु आदि रत्नाधिकों की आज्ञा प्राप्त करके ही अशन-पानादि का उपभोग करे। साथ के सभी साधुओं के लिए जो आहारादि सम्मिलित रूप में प्राप्त हुआ है, उसे सभी के साथ समिति एवं शांतिपूर्वक खाना चाहिए। खाते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि जिससे अदत्तादान का पाप नहीं लगे। उस सम्मिलित आहार में से शाक तथा दाल स्वयं अधिक नहीं खावे। अपने भाग के आहार से न तो अधिक खावें और न शीघ्रतापूर्वक खावें। खाने में चपलता नहीं लावें। खाते समय असावधानी नहीं रखें, किन्तु सोच समझकर उचित रीति से खावें। बोजन करने में इस बात का विवेक रखें कि जिससे दूसरे साधु को पीड़ा उत्पन्न नहीं हो। सम्मिलित रूप से प्राप्त आहार का भोजन इस प्रकार करें कि जिससे तीसरे महाव्रत में किसी प्रकार का दोष नहीं लगे। यह अंदत्तादान-विरमण रूप महाव्रत बड़ा सूक्ष्म है। साधारण रूप से आहार और पात्र का लाभ होने पर समिति पूर्वक आचरण करने से अन्तरात्मा विशुद्ध होती है और दुर्गति-दायक कुकृत्यों के करने-कराने रूप पाप-कर्म से दूर रहती है। वह पवित्रात्मा दत्तमनुज्ञात आहारादि ग्रहण करने की रुचि वाली होती है। पंचमी भावना-साधर्मिक विनय पंचमगं साहम्मिए विणओ पउंजियव्वो उवगरणपारणासु विणओ पउंजियव्वो वायणपरियट्टणासु विणओ पउंजियव्वो दाणगहण-पुच्छणासु विणओ पउंजियव्वो णिक्खमणपवेसणासु विणओ पउंजियव्वो, अण्णेसु य एवमाइसु बहुसु कारणसएसु विणओ पंउजियव्वो। विणओ वि तवो, तवो वि धम्मो तम्हा विणओ पउंजियव्वो। गुरुसु साहुसु तवस्सीसु य, एवं विणएण भाविओ भवइ अंतरप्पा णिच्चं अहिगरणं करण-कारावण-पावकम्मविरए दत्तमणुण्णाय उग्गहरुई। For Personal & Private Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266 ** * प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ० 3 ******************************** ** ************************************** शब्दार्थ - पंचमगं - पांचवीं, साहम्मिए - साधर्मिक, विणओ - विनय, पउंजियव्यो - करना चाहिए, उवगरणपारणासु - ग्लान तपस्वी एवं ज्ञानी साधु का, विणओ पउंजियव्यो - विनय करना चाहिए, वायणपरियट्टणासु - सूत्र ग्रहण रूप वाचना में और आवृत्ति में, विणओ पउंजियव्यो - विनय करना चाहिए, दाणगहणपुच्छणासु- देने में, ग्रहण करने में और पृच्छा में, विणओ पउंजियव्योविनय करना चाहिए। णिक्खमण-पवेसणासु - स्थान से निकलने व प्रवेश करने में आवश्यकीय आदि, विणओ पउंजियव्यो - विनय करना चाहिए, अण्णेसु य एवमाइसु - अन्य और इसी प्रकार मकाणसास- बहुत से सैंकड़ों कारणों से विणओपडंजियलो - विनय करना चाहिए विणओ वि तवो - विनय भी तप है, तवो वि धम्मो - तप भी धर्म है, तम्हा - इसलिए, विणंओ पउजियव्वोविनय करना चाहिए, गुरुसु साहुसु तवस्सीसु - गुरु, साधु और तपस्वियों का, विणएण - विनय करने से, भाविओ - भावित, भवइ - होती है, अंतरप्पा - अन्तरात्मा, णिच्चं - सदैव, अहिगरण-करणकारावणपावकम्मविरए - अधिकरण रूप पाप के करने व कराने से विरत होता है, दत्तमणुण्णाय उग्गहरुई- दत्त और अनज्ञात अवग्रह में रुचि वाला। भावार्थ - साधर्मिक विनय रूप पांचवीं भावना है। साधर्मिक साधुओं का विनय करे, ज्ञानी तपस्वी एवं ग्लान साधु का विनय एवं उपकार करने में तत्पर रहे। सूत्र की वाचना तथा परावर्तना करते समय गुरु का वन्दन रूप विनय करे। आहारादि दान प्राप्त करने और प्राप्त दान को साधुओं को देने तथा सूत्रार्थ की पुनः पृच्छा करते समय गुरु महाराज की आज्ञा लेने एवं वन्दना करने रूप विनय करे। उपाश्रय से बाहर जाते और प्रवेश करते समय आवश्यकी तथा नैषेधिकी उच्चारण रूप विनय करे। इसी प्रकार अन्य अनेक सैंकड़ों कारणों (अवसरों) पर विनय करता रहें मात्र अनशनादि ही तप नहीं है, किन्त विनय भी तप है। केवल संयम ही धर्म नहीं. किन्त तप भी धर्म है। इसलिए गरु साध और तपस्वियों का विनय करता रहे। इस प्रकार सदैव विनय करते रहने से अन्तरात्मा पवित्र होती है और दुर्गति के कारण ऐसे पापकृत्यों के करने-कराने रूप पापकर्म से रहित होती है। इससे दत्तअनुज्ञात पदार्थ को ग्रहण करने की रुचि होती है। उपसंहार एवमिणं संवरस्स दारं सम्मं संवरियं होइ, सुप्पणिहियं, इमेहिं पंचहिं वि कारणेहिं मण-वयण-काय-परिरक्खिएहिं णिच्चं आमरणंतं य एस जोगो णेयव्वो धिइमया मइमया अणासवो अकलुसो अछिद्दो अपरिस्सावी असंकिलिट्ठो सव्व जिणमणुण्णाओ। शब्दार्थ - एवमिणं - ऐसा करने से, संवरस्स दारं - संवर-द्वार का, सम्म - भली-भांति, संवरियंपालन करना, होइ - होता है, सुप्पणिहियं - सुप्रणिहित-सुरक्षित, इमेहिं - इन, पंचहिं - पांच, कारणेहिंकारणों से, मण-वयण-काय-परिरक्खिएहिं - मन, वचन और काया द्वारा रक्षण करना, णिच्चं - सदैव, For Personal & Private Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार 267 **************************************************************** आमरणंतं - मरण पर्यंत, एसजोगो - इस व्रत का, णेयव्यो - पालन करना, धिइमया - धैर्य सम्पन्न, मइमया - बुद्धिमान्, अणासवो - अनाश्रव, अकलुसो - अकलुषता रहित, अच्छिदो - छिद्र रहित, अपरिस्सावी - कर्मों के प्रवेश से रहित, असंकिलिट्ठो - संक्लेश रहित, सव्व जिणमणुण्णाओ - सभी जिनेश्वरों द्वारा आज्ञापित। . भावार्थ - इस प्रकार पांच भावनाओं से युक्त इस संवर-द्वार का सम्यक् रूप से पालन करने से महाव्रत सुरक्षित रहता है। इसलिए धैर्य-सम्पन्न, बुद्धिमान् साधु को चाहिए कि मन वचन और काया से इस महाव्रत की रक्षा करता हुआ, इन पांच भावनाओं का जीवन पर्यंत पालन करता रहे। यह महाव्रत आस्रव का निरोधक, कलुषित भावों से रहित शुभ भावों से युक्त, छिद्र-रहित, कर्मों के आगमन का अवरोधक तथा संक्लेश से रहित है। यह भूत, भविष्य और वर्तमान के सभी जिनेश्वर भगवंतों द्वारा आज्ञापित (उपदिष्ट) है। ___ एवं तइयं संवरदारं फासियं पालियं सोहिय तीरियं किट्टियं आराहियं आणाए अणुपालियं भवइ। एवं णायमुणिणा भगवया पण्णवियं परूवियं पसिद्धं सिद्धं सिद्धवरसासणमिणं आंधवियं सुदेसियं पसत्थं। . .. ॥तइयं संवरदारं सम्मत्तं त्तिबेमि। : शब्दार्थ - एवं - इस प्रकार, तइयं - तृतीय, संवरदारं - संवर-द्वार, फासियं - स्पृष्ट, पालियं - पालित, सोहियं - शोभित, तीरियं - तीरित, किट्टियं - कीर्तित, आराहियं - आराधित, भवइ - होता है, एवं - इस प्रकार, णायमुणिणा भगाया - ज्ञात कुलोत्पन्न भगवान् महावीर स्वामी ने, पण्णवियं - कहा है, पंरूवियं - प्ररूपणा की, पसिद्धं - प्रसिद्ध, सिद्धं - सिद्ध, सिद्धवरसासणमिणं - अपने कार्य को सिद्ध करने वाले तीर्थंकर भगवान् की प्रधान आज्ञा युक्त है, आघवियं - सम्यक् प्ररूपित है, सुदेसियं- / भली प्रकार उपदेशित है, पसत्यं - प्रशस्त है, तइयं - तृतीय, संवरदारं - संवरद्वार, सम्मत्तं - समाप्त हुआ, त्तिबेमि- ऐसा मैं कहता हूँ। भावार्थ - इस प्रकार यह तीसरे संवरद्वार का स्पर्शन, पालन एवं शोधन होता है, पार पहुंचाया जाता है, कीर्तित एवं आराधित होता है और जिनेश्वर की आज्ञा के अनुसार अनुपालित होता है। इस प्रकार ज्ञातकुलोत्पन्न भगवान् महावीर स्वामी ने कहा है, प्ररूपित किया है। यह मार्ग विश्व में प्रसिद्ध एवं प्रमाणों से सिद्ध है। समस्त प्रयोजन सिद्ध करने वाले ऐसे तीर्थंकर भगवंत की यह प्रधान आज्ञा है। भगवान् द्वारा प्ररूपित है। उत्तम प्रकार से उपदेशित है और प्रशस्त है। यह तृतीय संवरद्वार पूर्ण हुआ, ऐसा मैं कहता हूँ। ॥दत्तानुज्ञात नामक तृतीय संवरद्वार समाप्त॥ For Personal & Private Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य नामक चतुर्थ संवरद्वार ब्रह्मचर्य की महिमा जंबू! इत्तो य बंभचेरं उत्तम-तव-णियम-णाम-दंसण-चरित्त-सम्मत्त-विणयमूलं यमनियमगुणप्पहाणजुत्तं हिमवंतमहंततेयमंतं पसत्थगंभिर-थिमियमझं अजवसाहुजणाचरियं मोक्खमग्गं विसुद्धसिद्धिगइणिलयं सासयमव्वाबाहमपुणब्भं पसत्थं सोमं सुभं सिवमयलमक्खयकरं जइवर-सारक्खियं सुचरियं सुभासियं णवरि मुणिवरेहिं महापुरिसधीरसूर-धम्मियधिइमंताण य सया विसुद्धं सव्वं भव्वजणाणुचिण्णं णिस्संकियं णिब्भयं णित्तूसं णिरायासं णिरुवलेवं णिव्वुइघरं णियमणिप्पकंपं तवसंजममूलदलियणेम्मं पंचमहव्वयसुरक्खियं समिइगुत्तिगुत्तं। .. शब्दार्थ - जंबू - हे जम्बू!, इत्तो य - यहाँ से आगे, बंभचेरं - ब्रह्मचर्य व्रत, उत्तम-तव-णियमणाण-दसण-चरित्त-सम्मत्त-विणय-मूलं - उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र सम्यक्त्व और विनय का मूल, यमनियमगणप्पहाणजुत्तं-यम, नियम और उत्तमोत्तम गुणों से युक्त, हिमवंतमहंततेयमंतंहिमवान् पर्वत के समान महान् और तेजस्वी, पसत्थगंभीरथिमियमझं - जिसका मध्य-अंत:करण प्रशस्त, गंभीर और स्थिर है, अजवसाहुजणाचरियं - सरल भाव युक्त साधु पुरुषों से आसेवित, मोक्खमग्गं - मोक्ष का मार्ग, विसुद्धसिद्धिगइणिलयं - विशुद्ध मोक्ष गति के स्थानभूत, सासयमव्वाबाहमपुणब्भवं - शाश्वत, बाधा रहित और पुनर्जन्म को रोकने वाला, पसत्थं - प्रशस्त, सोमं - सौम्य, सुभं - शुभ, सिवमयलमक्खयकरं-शिव-निरुपद्रव अचल और अक्षय या पूर्णता प्रदान करने वाला, जइवरसारक्खियंप्रधान मुनियों से सुरक्षित, सुचरियं - भली प्रकार से आचरण किया हुआ, सुभासियं - सम्यक् प्रकार से उपदिष्ट, णवरि - केवल, मुणिवरेहिं - उत्तम मुनियों ने, महापुरिसधीरसूरधम्मियधिइमंताण - उत्तम महापुरुषों, अत्यन्त साहसी, शूर, धार्मिक एवं धृतिमंत पुरुषों से, सया - सदा, विसुद्धं - पूर्ण विशुद्धि के साथ, भव्वं - भव्य, भव्वजणाणुचिण्णं - भव्यजनों द्वारा पालित, णिस्संकियं - शंका-रहित, णिब्भयंभय-रहित, णित्तुसं - तुष-निस्सारता से रहित, णिरायासं - खेद-रहित, णिरुवलेवं - स्नेह के उपलेप से रहित, णिव्वुइधरं - निवृत्ति-घर-चित्त-शांति का घर, णियमणिप्पकंपं - नियम से अविचल, तवसंजममूलदलियणेम्मं - तप और संयम के मूल-दल के समान, पंचमहव्वय सुरक्खियं - पांच महाव्रतों में विशेष सुरक्षित, समिइगुत्तिगुत्तं - पांच समिति और तीन गुप्तियों से गुप्त। "सुसाहियं' पाठ भी है। For Personal & Private Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य की महिमा **************************************************************** भावार्थ - गणधर भगवान् सुधर्मा स्वामीजी महाराज कहते हैं कि हे जम्बू! अब ब्रह्मचर्य नामक चतुर्थ संवरद्वार का वर्णन किया जाता है। अनशनादि उत्तम तप और पिण्डविशुद्धि आदि नियम तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व और विनय का मूल ब्रह्मचर्य है अर्थात् ब्रह्मचर्य का पालक ही ज्ञानादि उत्तम गुणों को प्राप्त कर सकता है। ब्रह्मचर्य व्रत, यम-नियम और उत्तमोत्तम गुणों से युक्त है। जिस प्रकार सभी पर्वतों में हिमवान् पर्वत महान् और प्रभावशाली है, उसी प्रकार सभी व्रतों में ब्रह्मचर्य व्रत महान् भी है और प्रभावशाली भी है। ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने से अन्त:करण प्रशस्त, गंभीर और स्थिर होता है। सरल हृदय वाले साधुजन इसका आचरण करते हैं। ब्रह्मचर्य व्रत मोक्ष का मार्ग है। सिद्धगति प्राप्ति के लिए अप्रशस्तरागादि रहित और विशुद्ध स्थान है। शाश्वत है - विशुद्ध एवं दोष रहित पाला हुआ ब्रह्मचर्य शाश्वत जीवन देने वाला है। फिर वह ब्रह्मचर्य शाश्वत हो जाता है। (विशुद्ध ब्रह्मचर्य व्रत का पालक, यदि देवलोक में जाता है, तो उच्च वैमानिक देव होता है-जिससे उसका ब्रह्मचर्य (मैथुन-रहित जीवन, बिना विरति के भी) स्थिर रहता है और उसके बाद मनुष्य भव में बाल ब्रह्मचारी अवस्था में ही प्रव्रजित होकर सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार उसका ब्रह्मचर्य शाश्वत-सादि-अपर्यवसित हो जाता है) अव्याबाध है, पुनर्जन्म का अवरोधक है। प्रशस्त है, सौम्य है, शुभ है, शिव (सभी प्रकार के उपद्रवों से रहित) है, अचल (स्थिर) है, अक्षय (पूर्णता प्रदान करने-स्थिर रखने वाला) है। श्रेष्ठ यतिवर्यो- श्रमणश्रेष्ठों द्वारा रक्षित है। ब्रह्मचर्य का पालन करना श्रेष्ठ है। महर्षियों ने ब्रह्मचर्य का उत्तम उपदेश दिया है। जो महापुरुष धीर, वीर, गंभीर, धैर्यवान् और धार्मिक हैं, वे ही शुद्ध रूप से सदैव ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। ब्रह्मचर्य भव्य है और भव्यजनों द्वारा आचरित है। नि:शंक है-ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला महानुभाव कामभोग के त्यागी होने के कारण शंका-रहित होते हैं। उन्हें किसी का भी भय नहीं होता। जिस प्रकार तुस (छिलके) रहित चावल स्वच्छ होता है, उसी प्रकार ब्रह्मचारी भी दोष रहित शुद्ध होते हैं। ब्रह्मचारी खेद से भी रहित होते हैं। ब्रह्मचारी भव्यात्मा निर्लिप्त होते हैं। उनमें मोह की लिप्तता नहीं होती। ब्रह्मचर्य निर्वृत्ति (चित्तशान्ति) का घर है। नियम से निष्प्रकम्प (अचल-अटल) है। तप और संयम का तो यह मूल ही है। पांच महाव्रतों में ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षा का प्रमुख स्थान है। समिति और गुप्ति (नव वाड़ रूप ब्रह्मचर्य गुप्ति) से गुप्त-रक्षित है। .. झाणणवरकवाडसुकय* मज्झप्पदिण्णफलिह सण्णद्धो * च्छइयदुग्गइपहसुगइपहदेसगं च लोगुत्तमं च वयमिणं पउमसरतलागपालिभयं महासगडअरगतुंबभूयं * 'सुकय' के आगे 'रक्खण' पाठ भी है। * 'सण्णद्धो' के स्थान 'सण्णद्धबद्धो' भी है। For Personal & Private Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रृ०२ अ. 270 *************************************************************** महाविडिमरुक्खक्खंधभूयं महाणगरपागार-कवाडफलिहभूयं रज्जु पिणिद्धो य इंदकेऊ विसुद्धणेगगुणसंपिणद्धं जम्मि य भग्गम्मि होइ सहसा सव्वं संभग्गमथियचुण्णियकुसल्लियं-पल्लट्ट-पडिय-खंडिय-परिसडिय-विणासियं विणय-सीलतवणियमगुण समूह। शब्दार्थ - झाणवरकवाडसुकयमांझप्पदिण्णफलिहं - रक्षा के लिए उत्तम ध्यान रूप सुविरचित कपाट वाला और अध्यात्म-सद्भावनामय चित्त रूप अर्गलामय, सण्णद्धोंच्छइयदुग्गईपहं - दुर्गति के मार्ग का अवरोधक-प्रतिबंधक, सुगइपहदेसगं - सुगति के मार्ग को दिखाने वाला, य - और, लोगुत्तमंलोक में सर्वोत्तम, वयमिणं - यह व्रत, पउमसरतलागपालिभूयं - पद्म-सरोवर की पाल तुल्य, महासगडअरगतुंबभूयं-बड़े रथ के चक्र में लगे हुए आरक-लट्ठों के नाभि तुल्य, महाविडिमरुक्खक्खंधभूयंअतिशय विस्तार वाले बड़े वृक्ष के स्कन्ध समान, महाणगरपागारकवाडफलिहभूयं - बड़े नगर के प्राकार में कपाट की आगल के समान, रज्जुपिणिद्धोइंदकेऊ - डोरी से बंधे हुए इन्द्र-ध्वज की तरह, विसुद्धणेगगुणसंपिणद्धं - अनेक विशुद्ध गुणों से युक्त, जम्मिय भग्गम्मि - जिसके भंग होने पर, सहसासव्वं - सहसा सभी, संभग्गमथियचुण्णियकुसल्लियं-पल्लट-पडिय-खंडिय-परिसडियविणासियं - संभग्न, मथा हुआ, चूर्ण किया हुआ, शल्ययुक्त, पर्वत के ऊपर से शिला की तरह धर्म से लुढका हुआ, गिरा हुआ, खण्डित बुरी हालत में पहुँचा हुआ, विणयसीलतवणियमगुण समूहं - विनय, शील, तप और नियम आदि गुण-समूह / भावार्थ - ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए धर्म-ध्यान रूपी कपाट है, जिससे विकार रूपी चोर प्रवेश ही नहीं कर सकते। उस कपाट के उत्तम-भावना रूपी अर्गला है, जो कपाट को खुलने ही नहीं देती। ब्रह्मचर्य व्रत दुर्गति के द्वार को बन्द करके पूर्णरूप से रोक देता है और सुगति के मार्ग को प्रदर्शित करता है। ब्रह्मचर्य व्रत इस लोक में सर्वोत्तम व्रत है। जिस प्रकार पद्म सरोवर एवं तालाब की रक्षा, उसकी पाल से होती है, उसी प्रकार अन्य सभी व्रतों की रक्षा ब्रह्मचर्य से होती है। अतएव ब्रह्मचर्य धर्म रूपी सरोवर की रक्षिका पाल के समान है। जिस प्रकार गाड़ी या रथ के पहिये के आरों को चक्र की नाभि धारण करती है, उसी प्रकार क्षान्ति आदि गुणों को ब्रह्मचर्य धारण करता है। जिस प्रकार पथिकों और पशु-पक्षियों के लिए विस्तृत एवं विशाल वृक्ष आधारभूत होता है, उसी प्रकार ब्रह्मचर्य भी सभी व्रतों का आधारभूत है। धर्म रूपी महानगर की रक्षा करने के लिए ब्रह्मचर्य व्रत, प्रकोट के कपाट की दृढ़ अर्गला के समान है। जिस प्रकार अनेक रस्सियों से बंधा हुआ इन्द्रध्वज, महोत्सव की शोभा बढ़ाता है, उसी प्रकार ब्रह्मचर्य व्रत भी अनेक विशुद्ध गुणों से सुशोभित है। ब्रह्मचर्य के खण्डित होने पर विनय, शील, तप और नियमादि समस्त गुणों का समूह, उसी प्रकार नष्ट हो जाता है, जिस प्रकार कठोर भूमि पर पटका हुआ मिट्टी का घड़ा फूट जाता है। ब्रह्मचर्य नष्ट होने पर सभी गुण दही के समान मथित हो जाते हैं और चने के समान चूर्ण-विचूर्ण हो जाते हैं। शरीर For Personal & Private Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 271 **************************************************************** ब्रह्मचर्य की 32 उपमाएं में पैठे हुए शल्य के समान विदारित हो जाते हैं। ब्रह्मचर्य के नष्ट होने पर अन्य व्रत उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं, जिस प्रकार पर्वत-शिखर से गिरा हुआ पाषाण-खण्ड नष्ट होता है-खण्डित हो जाता है। जिस प्रकार कुष्टादि महारोग से शरीर घृणित एवं विद्रूप हो जाता है, उसी प्रकार ब्रह्मचर्य खण्डित होने पर सभी गुण दूषित हो जाते हैं। ब्रह्मचर्य के विनाश से समस्त गुणों का विनाश हो जाता है। अतएव ब्रह्मचर्य व्रत को सावधानी के साथ सुरक्षित रखना चाहिए। ब्रह्मचर्य की 32 उपमाएं ___तं बंभं भगवंतं 1. गहगणणक्खत्ततारगाणं वा जहा उडुवई, 2. मणिमुत्तसिलप्पवालरत्तरयणागराणं य जहा समुद्दो, 3. वेरुलिओ चेव जहा मणीणं, 4. जहा मउडो चेव भूसणाणं, 5. वत्थाणं चेव खोमजुयलं, 6. अरविंदं चेव पुप्फजेटुं, 7. गोसीसं चेव चंदणाणं, 8. हिमवंतो चेव ओसहिणं, 9. सीतोदा चेव णिण्णगाणं, 10. उदहीसु जहा सयंभूरमणो, 11. रुयगवर चेव मंडलियपव्वयाणं पवरे, 12. एरावण इव कुंजराणं, 53. सीहोव्व जहा मियाणं पवरे, 14. पवगाणं चेव वेणुदेवे, 15. धरमो जहा पण्णगिंदराया, 16. कप्पाणं चेव बंभलोए, 17. सभासु य जहा भवे सुहम्मा 18. ठिइसु लवसत्तमव्व पवरा, 19. दाणाणं चेव अभयदाणं, 20. किमिराउ चेव कंबलाणं 21. संघयणे चेव वज्जरिसहे, 22. संठाणे चेव समचउरंसे, 23. झाणेसु य परमसुक्कज्झाणं, 24. णाणेसु य परमकेवलं तु पसिद्धं, 25. लेसासु य परमसुक्कलेस्सा, 26. तित्थयरे चेव जहा मुणीणं, 27. वासेसु जहा महाविदेहे, 28. गिरिराया चेव मंदरवरें, 29. वणेसु जहा णंदणवणं पवरं, 30. दुमेसु जहा जंबू, सुदंसणा विसुयजसा जीयणामेण य अयं दीवो, 31. तुरगवई गयवई रहवई णरवई जह विसुए चेव, 32. राया रहिए चेव जहा महारहगए, एवमणेगा गुणा अहीणा भवंति एग्गम्मि बंभचेरे जम्मि य आराहियम्मि आराहियं वयमिणं सव्वं सीलं तवो य विणओ य संजमो य खंती गुत्ती मुत्ती तहेव इहलोइय-पारलोइयजसे य कित्ती य पच्चओ य, तम्हा णिहुयण बंभचेरं चरियव्वं सव्वओ विसुद्धं जावजीवाए जाव सेयट्ठिसंजओ त्ति एवं भणियं वयं भगवया। . शब्दार्थ - तं - यह, बंभं - ब्रह्मचर्य, भगवंतं - भगवान् है, गहगणणक्खत्ततारगाणं - ग्रहगण, नक्षत्र और तारागण में, वा जहा उडुवई - जैसे चन्द्रमा, मणिमुत्तसिलप्पवालरत्तरयणागराणंमणि, मोती, शिला, प्रवाल-विद्रुम मणि स्क्तरन अर्थात् पद्मराग आदि रत्नों की उत्पत्ति स्थान, य जहा For Personal & Private Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 3deg2 अ०४ 272 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०२ अ०४ **************************************************************** समुद्दो - जैसे समुद्र है, वेरुलिओ चेव जहा मणिणं - मणियों के बीच जैसे वैडुर्य मणि प्रधान है, जहा मउडो चेव भूसणाणं - आभूषणों के बीच जैसे मुकुट, वत्थाणं चेव खोमजुअलं - वस्त्रों में जैसे क्षौमयुगल कपास का वस्त्र, अरविंदं चेव पुष्फजेटुं - फूलों में जैसे अरविन्द कमल, गोसीसं चेव चंदणाणं - चन्दनों में जैसे गोशीर्ष, हिमवंतो चेव ओसहीणं - औषधियों की उत्पत्ति-स्थान में हिमवान् के समान, सीतोदा चेव णिण्णगाणं - नदियों में शीतोदा नदी के समान, उदहीसु जहा सयंभूरमणो - समुद्रों में स्वयंभूरमण समुद्र के समान, त्यगवर चेव मंडलियपव्वयाणं पवरे - माण्डलिक गोल पर्वतों में रुचकवर गिरि के समान, एरावण इव कुंजराणं - हाथियों में एरावत हाथी, सीहोव्व जहा मियाणं पवरे - मृगों में जैसे सिंह प्रधान है, पवगाणं चेव वेणुदेवे - सुवर्ण-कुमारों के बीच जैसे वेणुदेव, धरणो जहा पण्णगिंदराया - नागकुमारों में जैसे धरणेन्द्र, कप्पाणं चेव बंभलोए - कल्प-देवलोक में जैसे ब्रह्मलोक, सभासु य जहा भवे सुहम्मा - सभाओं में जैसे सुधर्मा-देवसभा, ठिइसु.लवसत्तमव्व पवरास्थितियों में जैसे अनुत्तर विमानवासी देवों की स्थिति, दाणाणं चेव अभयदाणं - दानों में अभयदान, किमिराउ चेव कंबलाणं - कम्बलों में कृमिरागा-रक्त कम्बल, संघयणे चेव वजरिसहे - संहननों में वज्रऋषभ-नाराच संहनन, संठाणे व समचउरंसे - संस्थानों में समचतुरस्र संस्थान, झाणेसु य परमसुक्कज्झाणं - ध्यानों में परम शुक्लध्यान, णाणेसु य परम केवलं पसिद्ध - ज्ञानों में केवल परम ज्ञान प्रसिद्ध है, लेसासु य परमसुक्कलेसा - लेश्याओं में परम शुक्ललेश्या, तित्थयरे चेव जहा मुणीणंमुनियों में तीर्थंकर, वासेसु जहा महाविदेहे - क्षेत्रों में महाविदेह, गिरिराया चेव मंदरवरे - पर्वतों में जैसे मन्दर-मेरु पर्वत, वणेसु जहा णंदणवणं पवरं - वनों में जैसे नन्दन वन श्रेष्ठ है, दुमेसु जहा जंबू सुदंसणा विसुय जसा - वृक्षों में जैसे जम्बू सुदर्शन वृक्ष विश्रुत-विख्यात कीर्ति वाला है, जीय णामेण य अयं दीवो - जिसके नाम से यह द्वीप-जम्बूद्वीप कहा जाता है, तुरगवई गयवई रहवई णरवई जह वीसुए.चेव - अश्वपति, गजपति, रथपति और नरपति राजाओं के समान विख्यात, राया रहिए चेव जहा महारहगए - महारथ पर चढ़ा हुआ रथिक राजा,.एवमणेगा गुणा अहीणा भवंति - इस प्रकार अनेक गुण, पूर्ण और स्वाधीन होते हैं, एग्गम्मि बंभचेरे जम्मि य आराहियम्मि - एक ब्रह्मचर्य की आराधना करने पर, आराहियं वयंमिणं सव्वं - यह सब निर्ग्रन्थव्रत पालित होता है, सीलं - शील, तवो - तप, विणओ - विनय, संजमो - संयम, खंतिं गुत्ति मुत्ति - क्षमा, गुप्ति और मुक्ति, तहेव - इसी प्रकार, इहलोइयपारलोइयजसे य कित्ती य - इस लोक और परलोक में यश और कीर्ति, पच्चओ - विश्वास का कारण, तम्हा - इसलिए, णिहुएण- स्थिर चित्त से, बंभचेरं चरियव्वं - ब्रह्मचर्य का पालन करना .. चाहिए, सव्वओ विसुद्धं - सर्वथा विशुद्ध, जावज्जीवाए - आजीवन, जाव सेयट्ठि - यावत् श्वेतास्थि अर्थात् मृत्यु पर्यन्त, संजओ - साधु को, एवं भणियं वयं भगवया - इस प्रकार भगवान् महावीर ने प्रतिपादन किया है। भावार्थ - यह ब्रह्मचर्य भगवान् (ऐश्वर्य सम्पन्न) है। इसकी उपमाएं इस प्रकार हैं - For Personal & Private Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाव्रतों का मूल 273 *************************************************************** 1. जिस प्रकार ग्रहगण, नक्षत्र और तारों के समूह में चन्द्रमा श्रेष्ठ एवं प्रधान है, उसी प्रकार समस्त व्रतों में ब्रह्मचर्य व्रत श्रेष्ठ एवं प्रधान है। 2. जिस प्रकार मणि, मोती, शिला, प्रवाल और रक्त-रत्न आदि रत्नों का उत्पत्ति स्थान समुद्र है, उसी प्रकार समस्त व्रतों का उत्पत्ति स्थान ब्रह्मचर्य है। 3. जैसे मणियों में वैडुर्यमणि 4. भूषणों में मुकुट 5. वस्त्रों में क्षोमयुगल 6. पुष्पों में ज्येष्ठ अरविन्द पुष्प 7. चन्दनों में गोशीर्ष चन्दन 8. औषधियुक्त पर्वतों में हिमवान पर्वत 9. नदियों में शीतोदा 10. समुद्रों में स्वयंभूरमण- 11. गोल पर्वतों में रुचकवर 12. हाथियों में ऐरावत 13. मृगों में श्रेष्ठ मृगराज-सिंह 14. सुपर्णकुमार देवों में वेणुदेव 15. नागकुमारदेवों में धरणेन्द्र 16. कल्प-विमानों में ब्रह्मदेव लोक 17. सभाओं में इन्द्र की सुधर्म सभा 18. स्थिति में उत्तम लवसप्तम देवों की स्थिति 19. दानों में अभयदान 20. कम्बलों में किरमची रंग का कम्बल 21. संहननों में वज्र-ऋषभनाराच संहनन 22. संस्थानों में समचतुरस्र संस्थान 23. ध्यानों में परम शुक्ल-ध्यान 24. ज्ञानों में प्रसिद्ध परम केवलज्ञान 25. लेश्याओं में परम शुक्ल लेश्या 26. मुनियों में तीर्थंकर 27. क्षेत्रों में महाविदेह 28. पर्वतों में गिरिराज मेरु पर्वत 29. वनों में श्रेष्ठ नन्दन वन और 30. वृक्षों में सुदर्शन नामक जम्बू वृक्ष विख्यात एवं यशस्वी है और उसी के नाम से यह द्वीप 'जम्बूद्वीप' कहलाता है। उसी प्रकार सभी व्रतों में श्रेष्ठ एवं उत्तम ब्रह्मचर्य व्रत है। 31. जिस प्रकार अश्वपति, गजपति, रथपति और नरपति विख्यात होते हैं। हयदल, गजदल, रथसेना और पदातिसेना से नरेन्द्र सुशोभित होता है, उसी प्रकार व्रताधिराज ब्रह्मचर्य भी सभी व्रतों का अधिपति है। . 32. जिस प्रकार महारथ पर आरुढ़ महाराजा (वासुदेव) शत्रु-सैन्य को नष्ट करता है, उसी प्रकार ब्रह्मचर्य का पालक महात्मा, कर्म-समूह को नष्ट करता है। - एक ब्रह्मचर्य व्रत की आराधना करने वाले अनेक गुण अपने-आप आधीन हो जाते हैं। इसकी आराधना करने से शील, तप, विनय, संयम, क्षांति, गुप्ति, मुक्ति आदि सभी गुणों की आराधना हो जाती है। ब्रह्मचर्य का पालन करने से इसलोक और परलोक में यश और कीर्ति व्याप्त हो जाती है। लोगों में प्रतीति होती है। इसलिए निश्चलता से ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। साधु को चाहिए कि जीवनभर एवं मृत्युपर्यन्त सभी प्रकार से शुद्धतापूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन करे। इस प्रकार स्वयं भगवान् महावीर ने इस महाव्रत का महत्त्व बतलाया है। महाव्रतों का मूल तं च इमं - पंच महव्वयसुव्वयमूलं, समणमणाइलसाहुसुचिण्णं। वेरविरामणपजवसाणं, सव्वसमुद्दमहोदहितित्थं // 1 // For Personal & Private Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०४ **************************************************************** शब्दार्थ - तं - वह, इमं - यह, पंचमहव्वयसुव्वयमूलं - पांच महाव्रत रूप सुव्रतों का मूलं, समणमणाइलसाहुसुचिण्णं - शुद्ध भाव वाले साधुओं द्वारा सम्यक् प्रकार से भावपूर्वक सेवन किया गया, वेरविरामणपजवसाणं - वैरभावकी निवृत्ति और अन्त करने वाला, सव्वसमुद्दमहोदहितित्थं - सभी समुद्रों में बड़े ऐसे स्वयम्भूरमण समुद्र के समान दुस्तर-ऐसे संसार समुद्र से तिराने वाला तीर्थ। / भावार्थ - यह ब्रह्मचर्य व्रत, पांच महाव्रत रूपी सुव्रतों का मूल है। उत्तम आचार वालें शुद्ध स्वभावी संतों से सेवित है। वैर-विरोध की निवृत्ति करके शांति करने वाला है और सभी समुद्रों में अत्यन्त विशाल ऐसे स्वयंभूरमण महासमुद्र के समान जो संसार-समुद्र है, उसे पार करने के लिए . ब्रह्मचर्य तीर्थ के समान है। विवेचन - ब्रह्मचर्य का सम्यक् प्रकार से-नियमपूर्वक पालन करने वाले का पुद्गलानन्दीपन छूट जाता है। परिग्रह की लालसा का बड़ा कारण अब्रह्म है। जब स्त्री नहीं तो पुत्र-पौत्रादि भी नहीं, फिर धन की लालसा क्यों हो? वैर-विरोध और झगड़े का बड़ा कारण कनक और कामिनी (स्त्री और धन) होता है। ब्रह्मचारी के ये दोनों कारण नहीं रहते। अतएव वैर-विरोध का कारण भी नहीं रहता। ऐसे उत्तम ब्रह्मचारी के प्रभाव से दूसरों के वैर-विरोध भी नष्ट हो जाते हैं। ब्रह्मचारी की बलवान् आत्मा अपने आत्म बल से संसार-समुद्र को तिर कर मुक्त हो जाती है। तित्थयरेहि सदेसियमग्गं, णरयतिरिच्छविवज्जियमग्गं। सव्वपवित्तिसुणिम्मियसारं, सिद्धिविमाण अवंगुयदारं॥२॥ ___ शब्दार्थ - तित्थयरेहि - तीर्थंकरों से, सुदेसियमग्गं - उत्तम प्रकार से दिखाया हुआ मार्ग, णरयतिरिच्छविवजियमग्गं - नरक तथा तिर्यंच गति के मार्ग को बन्द करने वाला, सव्वपवित्ति सुणिम्मियसारं - सभी पवित्र अनुष्ठानों को सारयुक्त करने वाला, सिद्धि विमाणअवंगुयदारं - सिद्धि और वैमानिक गति के द्वार को खोलने वाला। भावार्थ - तीर्थंकर भगवंतों ने ब्रह्मचर्य गुप्ति का उत्तम मार्ग बतलाया है। इस लोकोत्तम मार्ग के पथिक के नरक और तिर्यंच गति के मार्ग रुक जाते हैं। इन दुर्गति के मार्गों को रोक कर जीवों को सुखी होने की उत्तम साधना ब्रह्मचर्य है। सभी प्रकार की पवित्र वस्तुओं में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ एवं सार रूप है। इसके पालक के लिए सिद्धगति और वैमानिक देवलोक के द्वार खुले रहते हैं। देव-णरिंद-णमंसियपूयं, सव्वजगुत्तममंगलमग्गं। दुद्धरिसं गुणणायगमेक्कं, मोक्खपहस्स वडिंसगभूयं // 3 // शब्दार्थ - देवणरिंदणमंसियपूर्य - देवों तथा नरेन्द्रों से नमस्कृत और पूजनीय, सव्वजगुत्तममंगलमग्गं - विश्व के सभी मंगल-मार्गों का प्रधान, दुद्धरिसं - किसी से पराभव नहीं पाने वाला, गुणणायगमेक्कं - अद्वितीय गुणों का एकमात्र नायक, मोक्खपहस्स - मोक्ष मार्ग का, वडिंसगभूयं - शिरोभूषण रूप। For Personal & Private Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 275 ब्रह्मचर्य के घातक निमित्त *************************************************************** भावार्थ - ब्रह्मचारी को देव और नरेन्द्र भी नमस्कार करते हैं, इतना ही नहीं देव और नरेन्द्र ब्रह्मचारी शुद्धात्मा की पूजा-सत्कार करते हैं। संसार के सभी प्रकार के मंगल-मार्गों में ब्रह्मचर्य उत्तमोत्तम मंगल-मार्ग है। विशुद्ध ब्रह्मचारी न तो किसी से दबता है और न कोई उसे डिगा सकता है। ब्रह्मचर्य महाव्रत अन्य सभी व्रतों और गुणों का एकमात्र नायक है और मोक्षमार्ग के लिए मस्तक के मुकुट के समान है। . - ब्रह्मचर्य के घातक निमित्त जेण सुद्धचरिएण भवइ सुबंभणो सुसमणो सुसाहू स इसी स मुणि स संजए स एव भिक्खू जो सुद्धं चरइ बंभचेरं। इमं च रइरागदोस-मोह-पवड्डणकरं किंमज्झपमाय दोसपासत्थ-सीलकरणं अब्भंगणाणि य तेल्लमजणाणी य अभिक्खणं कक्खसीस-कर-चरण-वयण-धोवण-संबाहण-गायकम्म-परिमद्धणाणुलेवण-चुण्णवासधुवण-सरीर-परिमंडण-बाउसिय-कहसिय-भणिय-णट्टगीयवाइय-णड-पट्टग-जल्लमल्ल-पेच्छण-वेलंबगंजाणिय सिंगारागाराणि य अण्णाणि य एवमाइयाणि तवसंजमबंभचेर-घाओवघाइयाई अंणचरमाणेणं बंभचेरं वजियव्वाइं सव्वकालं। शब्दार्थ - जेण सुद्धचरिएण - जिसके शुद्ध आसेवन करने से, भवइ - होता है, सुबंभणो - सच्चा ब्राह्मण, सुसमणो - यथार्थ तपस्वी, सुसाहू = सच्चा साधु, स इसी -वही ऋषि है, स मुणि - . वही मुनि है, स संजए - वही संयत है, स एव भिक्खू - वही भिक्षु है, जो सुद्धं चरइ बंभचेरं - जो शुद्ध रीति से ब्रह्मचर्य का पालन करता है, इमंच - और इस, रइरागदोसमोहपवड्डणकर - रति-विषय-राग, राग-स्नेह-राग, द्वेष और मोह को बढ़ाने वाला, किंमज्झपमायदोसपासत्थसीलकरणं - प्रमाद दोष और ज्ञानादि आचार से पृथक् करने वाला निस्सार, अब्भंगणाणि - घृत आदि की मालिश अथवा उबटन करना, तेलमजणाणि - तेल की मालिश कर स्नान करना, अभिक्खणं - बार-बार, कक्ख सीस-करचरण वयण - काँख-बगल शिर, हाथ, पांव और मख को, धोवण - धोना, संबाहण - पगचम्पी करना, गायकम्म परिमद्दण - शरीर का मर्दन करना, अणुलेवण - चन्दन आदि का लेपकरना, चुण्णवास - सुगन्धित द्रव्यों से शरीर को सुवासित करना, धूवण - अगर आदि से धूप देना, सरीरपरिमंडण - शरीर को मण्डित-सुशोभित करना, बाउसिय - चारित्र को बकुश बनाने वाली क्रिया, कहसिय - हास्य करना, भणिय - विकारयुक्त बोलना, णट्ट - नृत्य करना, गीय - गीत गाना, वाइय - बाजा बजाना, णडणट्टगनाच करने वाले नटों का खेल, जल्ल - रस्सी पर खेलने वाले, मल्ल - कुश्ती लड़ने वाले, पेच्छण - इन सब को देखना, वेलंबगं - विदूषक की हास्य-चेष्टाएं, जाणिय - और जो, सिंगारागाराणि - शृंगार-रस के स्थान हैं, अण्णाणि - अन्य, एवमाइमाइणि - इसी प्रकार के, तवसंजमबंभचेरघावोवघाइयाई - तप, संयम और ब्रह्मचर्य की घात व उपघात करने वाले, अणुचरमाणेणं - For Personal & Private Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276 . प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०२ अ०४ **************************************************************** पालन करने वाले को उपरोक्त बातें, बंभचेरे - ब्रह्मचारी को, वज्जियव्वाइं - वर्जना करना चाहिए, सव्वकालं - सदाकाल। भावार्थ - ब्रह्मचर्य के शुद्धतापूर्वक पालन करने से ही सुब्राह्मण, सुश्रमण और सुसाधु होते हैं। ब्रह्मचर्य व्रत का निर्दोष रीति से पालन करने वाला ही ऋषि है, मुनि है, संयत है और वही भिक्षु है। ब्रह्मचर्य महाव्रत के साधक को न तो इन्द्रियों के विषयों में रति (रुचि-आसक्ति) रखनी चाहिए न स्त्रियादि पर राग रखना चाहिए और न त्याग विरति आदि उत्तमगुणों तथा अमनोज्ञ वर्णादि पर द्वेष करना चाहिए, क्योंकि रति, राग और द्वेष से मोह की वृद्धि होती है। वैसा कार्य नहीं करना चाहिए. जिसमें कोई सार नहीं हो। प्रमाद को त्याग कर अप्रमत्त बने और शय्यातरपिण्ड ग्रहण आदि शिथिलाचार को छोड़ कर शुद्धाचारी बने। सुखशीलियापन को अपना कर शरीर पर घृत, तैल आदि का मर्दन, अभ्यंग, उबटन और स्नानादि नहीं करे। काँख, मस्तक, हाथ, पांव और मुख को बार-बार धोना, पगचम्पी कराना, शरीर का मर्दन करना, चन्दनादि का लेप करना, सुगन्धित चूर्णादि से शरीर को सुगन्धित करना, धूप से सुवासित करना, शरीर को अलंकृत एवं सुशोभित करना, नखकेशादि संवारना और चारित्र को बकुश (अचारित्र से मिश्रित) करना आदि दूषणों का त्याग करना चाहिए। हँसनाहँसाना, विकृत अथवा विकारोत्पादक वचन बोलना, गायन, वादन, नृत्य और नाटक करना आदि कार्य . और नटों के खेल, रस्सी पर चढ़ कर किया जाने वाला खेल, मल्लों की लड़ाई और भाँड आदि विदूषकों के चोचले और इसी प्रकार के अन्य दृश्य एवं शब्द आदि देखना-सुनना ब्रह्मचारी के लिए वर्जित है। ये तप-संयम और ब्रह्मचर्य के लिए घातक एवं उपघातक हैं। ये शृंगार-रस के स्थान हैं। ब्रह्मचर्य के पालक को इन सभी दोषों का सदा के लिए त्याग करना चाहिए। विवेचन - इस सूत्र में सूत्रकार महर्षि, ब्रह्मचर्य शुद्धि का उपदेश करते हुए कामवर्द्धक वासना जगाने वाले मोह-मद को उत्तेजित कर ब्रह्मचर्य का नाश करने वाले निमित्तों से बचने का उपदेश कर रहे हैं। जिस प्रकार धनवान् मनुष्य चोर-डाकुओं और जेबकतरों से सावधान रहता है। उसी प्रकार ब्रह्मचारी को भी इन विकारी दृश्यों, शब्दों, रसों, गन्धों और स्पर्शों से बचते ही रहना चाहिए। तभी ब्रह्मचर्य रूपी आत्म-धन सुरक्षित रहता है। ब्राह्मण - जो ब्रह्मचर्य का शुद्धतापूर्वक पालन करे। सूत्रकार इसी को 'सुबंभणो' - उत्तम ब्राह्मण कहते हैं। वैसे सर्वत्यागी महाव्रतधारी साधु को भी ब्राह्मण विशेषण लगाया है और श्रावक को भी। सुब्राह्मण तो ब्रह्मचर्य का विशुद्ध एवं पूर्णरूप से पालक ही हो सकता है। ब्रह्मचर्य रक्षक नियम भावियव्वो भवइ य अंतरप्या इमेहिं तव-णियम-सील जोगेहिं णिच्चकालं। किं ते? अण्हाणग-अदंतधावण-सेय-मल-जल्लधारणं मूणवयकेसलोए य खम-दम For Personal & Private Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य रक्षक नियम 277 **************************************************************** अचेलग-खुप्पिवास-लाघव-सीउसिण कट्ठसिजा-भूमिणिसिजा-परघरपवेसलद्धावलद्ध-माणावमाण-णिंदण-दसमसम-फास-णियम-तव-गुण-विणय-माइएहिं जहा से थिरतरगं होइ बंभचेरं। इमं च अबंभचेर-विरमण-परिरक्खणट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं अत्तहियं पेच्चाभावियं आगमेसिभदं सुद्धं णेयाउयं अकुडिलं अणुत्तरं सव्वदुक्ख-पावाणं विउसमणं। शब्दार्थ - भावियव्यो - भावित, भवइ - होता है, अंतरप्पा - अन्तरात्मा, इमेहिं - इन, तवणियमसीलजोगेहिं - तप, नियम और शील आदि गुणों के, णिच्चकालं - सदैव, किं ते - वे कौनसे हैं ? अण्हाणग - स्नान नहीं करना, अदंतधावण - दातुन न करना, सेयमलजल्लधारणं - पसीना और मैल को धारण करना, मूणवय - मौन व्रत धारणा करना, केसलोए - केश-लोच करना, खम-दमअचेलग - क्षमा, इन्द्रियों का निग्रह और वस्त्र रहित या अल्पवस्त्र रखना, खुप्पिवास - भूख-प्यास सहन करना, लाघव - उपधि से हल्कापन, सीउसिण - सर्दी और गर्मी, कट्टसिज्ज - काष्ठ-शय्या, भूमिणिसिज्जा - भूमि-शयन; परघरपवेस - पराये घर में जाना, लद्धावलद्धमाणावमाण - लाभ और अलाभ में तथा मान या अपमान, जिंदण - निन्दा, दंसमसगफास - डाँस, मच्छर आदि का कष्ट सहना, णियम-तवगुण-विणयमाइएहिं - नियम, तप, गुण और विनय आदि से, जहा से थिरतरगं होइ बंभचेरंजिससे उस व्रती का ब्रह्मचर्य अत्यन्त स्थिर हो, इमं य- और यह, अबंभचेर-विरमण-परिरक्खणट्ठयाएमैथुन से निवृत्ति रूप व्रत की रक्षा के लिए, पावयणं - प्रवचन, भगवया - भगवान् ने, सुकहियं - उत्तम प्रकार से कहा है, अत्तहियं - आत्मा के लिए हितकारी, पेच्चाभावियं - परलोक में शुभ-फलदायक, आगमेसिभई - भविष्य में कल्याण का कारण, सुद्धं - शुद्ध, णेयाउयं - न्याययुक्त, अकुडिलं - कुटिलता-रहित, अणुत्तरं - प्रधान, सव्वदुक्ख-पावाणं - समस्त दुःख और पापों को, विउसमणं - शान्त करने वाले। . . . . भावार्थ - जिन तप, नियम, शील और शुभयोग आदि गुणों का नित्य एवं निरन्तर सेवन करने से अन्तरात्मा पवित्र होती है, वे नियम कौन से हैं ? स्नान नहीं करना, दांतों को धोकर चमकीले नहीं बनाना, स्वेद (पसीना) और पसीने से मिश्रित मैल को शरीर से पृथक् नहीं करना, मौन रहना (अनावश्यक नहीं बोलना) केशों को लोच करना, क्षमा करना, इन्द्रियों का दमन करना, निर्वस्त्र या अल्प-मूल्य के अल्प वस्त्र से रहना, भूख-प्यास सहन करना, अल्प उपकरणों से हल्का रहना, शीत और उष्ण का परीषह सहन करना, लकड़ी के पटिये पर सोना या भूमि पर ही शयन करना, भिक्षा के लिए पराये घरों में जाना, लाभ और अलाभ, मान और अपमान तथा निन्दा को समभाव से सहन करना, डाँस-मच्छर के परीषह को सहना, अभिग्रहादि नियम और अनशनादि तप, मूलोत्तर गुण और विनयादि गुणों को धारण करना। जिन गुणों के धारण करने से ब्रह्मचर्य स्थिर हो, उन सभी गुणों का सेवन करना For Personal & Private Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278 - प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०२ अ०४।। **************************************************************** चाहिए। अब्रह्म त्याग व्रत की रक्षा के लिए भगवान् ने यह उत्तम प्रवचन कहा है। यह प्रवचन स्व-पर आत्मा के लिए हितकारी है। भवान्तर में शुभ-फल देने वाला है और भविष्य में कल्याणकारी है। शुद्ध है, न्याययुक्त है, अकुटिल (सरल) है, उत्तमोत्तम है और पापों का उपशमन करके समस्त दुःखों को दूर करने वाला है। विवेचन - जब तक जीव में वेदमोहनीय कर्म का उदय है, तब तक वैसे निमित्त सुप्त मोह को जाग्रत कर उद्दीप्त कर सकते हैं। आत्मा में सुखशीलियापन की भावना उत्पन्न होती है, तब शरीरसंस्कार की रुचि होती है और तभी दबे हुए विकारी भावों के उठने का अवकाश रहता है। 'स्नानं दर्पकर'-स्नान, कन्दर्प को जगाने वाला है। केश-विन्यास भी श्रृंगार है। शरीर एवं वस्त्रादि को सुशोभित करने से वेदमोहनीय कर्म में साधारण उदय को उत्तेजना मिलती है। जिस से ब्रह्मचर्य को क्षति पहुचने की संभावना रहती है। आत्म (धर्म) भावना से ब्रह्मचर्य सुरक्षित रहकर पुष्ट होता है. और उदय निष्फल होता है। परन्तु देह-भावना (विभूषा वृत्ति) व्रत को क्षति पहुँचाती है। इसीलिए परमोपकारी सूत्रकार भगवंत, शरीर-संस्कार की वृत्ति त्यागने का उपदेश देते हैं। इन नियमों का पालन . करने से ब्रह्मचर्य स्थिर होता है, पुष्ट होता है और उत्तमोत्तम फल देता है। ब्रह्मचर्य व्रत की पांच भावनाएं प्रथम भावना-विविक्त-शयनासन तस्स इमापंच भावणाओ चउत्थं वयस्स होंति अबंभचेरविरमण-परिरक्खणट्टयाए। पढमं सयणासण-घर-दुतार-अंगण-आगास-गवक्ख-साल-अभिलोयण-पच्छवत्थुगपसाहणग-ण्हाणिगावगाससा अवगासा जे य वेसियाणं अच्छंति य जत्थ इत्थियाओ अभिक्खणं मोहदोस-रइराग-वड्वणीओ कहिंति य कहाओ बहुविहाओ ते वि हु वजणिजा इत्थिसंसत्त-संकिलिट्ठा अण्णे वि य एवमाइ अवगासा ते हु वजणिज्जा। जत्थ मणोविब्भमो वा भंगो वा भंसणा (भसंगो) वा अट्ट रुदं य हुज्ज झाणं तं तं वजेजऽवज्जभीरु अणाययणं अंतपंतवासी एवमसंसत्तवास-वसही समिइ-जोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा, आरयमण-विरयगाम-धम्मे जिइंदिए बंभचेरगुत्ते। ___ शब्दार्थ - तस्स - उस, इमा - ये, पंच भावणाओ - पांच भावनाएं, चउत्थं वयस्स - चतुर्थ व्रत की, होति - होती है, अबंभचेर-विरमण-परिरक्खणट्ठयाए - अब्रह्मचर्य से निवृत्ति रूप व्रत की रक्षा के लिए, पढमं - प्रथम, सयणासण - शय्या और आसन, घरदुवार - गृहद्वार, अंगण - आँगन, आगासआकाश, गवक्ख - गवाक्ष, साल - शाला, अभिलोयण - अभिलोकन-बैठकर देखने का ऊँचा स्थान, ........ .. .... .. . . For Personal & Private Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 279 **************************************************************** ब्रह्मचर्य व्रत की पाँच भावनाएँ पच्छवत्थुग - पश्चाद् गृह-पीछे का घर, पसाहणग - प्रसाधन, ण्हाणिगावगासा - शरीर के मंडन और स्नान करने के स्थान, अवगासा - स्थानों पर, जे - जिन, य - और, वेसियाणं - वेश्याएं, अच्छंति - बैठती हैं, य - और, जत्थ - जहाँ, इत्थियाओ - स्त्रियाँ, अभिक्खणं - बार-बार, मोहदोसरइरागवड्डणीओ - मोह, द्वेष, रति और राग को बढ़ाने वाली, कहिंति - कहती है, कहाओ - कथाएँ, बहुविहाओ - बहुत प्रकार की, ते - उनको, वजणिज्जा - त्याग करे, इत्थिसंसत्तसंकिलिट्ठा - स्त्री सम्बन्ध से व्याप्त-संक्लिष्ट, अण्णे वि य - और दूसरे भी जो, एवमाइ - इस प्रकार के, अवगासा - स्थान, ते - हु, वज्जणिज्जा - वे भी वर्जनीय हैं, जत्थ - जहाँ, मणोविब्भमो - मन की भ्रांति, वा - अथवा, भंगो - सर्वथा भंग, वा - अथवा, भंसगो - देशतः भंग, वा - अथवा, अस॒रुदं व - आर्त और रौद्र, हुज झाणं - ध्यान हो, तं तं वज्जेजऽवज्जभीरु अणायतणं - उस-उस अनायतन-योग्य स्थान का पाप-भीरु त्याग करे, अंतपंतवासी - अन्त-प्रान्त स्थान अर्थात् दोष-रहित स्थान में निवास करे, एवमसंसत्त-वास-वसही-समिइ-जोगेण - इस प्रकार स्त्री आदि के संसर्ग से रहित स्थान में ठहरने रूप समिति के योग से, भाविओ - भावित, भवइ - होता है, अंतरप्पा - अन्तरात्मा, आरयमण-विरयगामधम्मे - ब्रह्मचर्य में मर्यादा से आरक्त मन वाला तथा इन्द्रिय-लोलुपता से रहित, जिइंदिए - जितेन्द्रिय, बंभचेरगुत्ते - ब्रह्मचर्य से गुप्त। __ भावार्थ - अब्रह्मचर्य रूप चौथे पाप की निवृत्ति रूप इस महाव्रत की रक्षा के लिए पांच भावनाएं हैं। इनमें प्रथम भावना यह है। जिस स्थान पर स्त्रियों का संसर्ग हो, उस स्थान पर साधु सोए नहीं, आसन लगाकर बैठे नहीं। जिस घर के द्वार का आँगन, अवकाश-स्थान (खली जगह-छत आदि) गवाक्ष (खिडकी-गोख आदि) शाला, अभिलोकन (दूरस्थ वस्तु देखने का) स्थान, पीछे का द्वार या पीछे का घर, शृंगार-गृह और स्नानघर आदि जहाँ स्त्रियाँ हो या दिखाई दे, उन स्थानों को वर्जित करे। जिस स्थान पर बैठकर स्त्रियाँ, मोह, द्वेष रहित और राग बढ़ाने वाली अनेक प्रकार की बातें करती हैं, वैसी कथा-कहानियें कहती हैं और जिन स्थानों पर वेश्याएं बैठती हैं, उन स्थानों को वर्जित करें। वे स्थान स्त्रियों के संसर्ग से संक्लिष्ट हैं, दोषोत्पत्ति के कारण हैं। ___ ऐसे अन्य सभी स्थानों का साधु त्याग कर दे। जहां रहने से मन में भ्रांति उत्पन्न होकर ब्रह्मचर्य को क्षति युक्त करे, ब्रह्मचर्य देशतः या सर्वत: नष्ट होता हो, आर्त और रौद्र ध्यान उत्पन्न हो, उन सभी स्थानों का त्याग करे। ब्रह्मचर्य को नष्ट करने वाले पाप से डरने वाले साधु के लिए ये स्थान रहने के / योग्य नहीं है। इसलिए साधु, अन्त-प्रान्त आवास (अन्त-इन्द्रियों के प्रतिकूल पर्ण-कुटि आदि, प्रान्त शून्यगृह श्मशानादि ऐसे निर्दोष स्थान में रहे। इस प्रकार स्त्री और नपुंसक) के संसर्ग रहित स्थान में रहने रूप समिति के पालन से अन्तरात्मा पवित्र होती है। जो साधु ब्रह्मचर्य के निर्दोष पालन में तत्पर होकर इन्द्रियों के विषयों से वंचित रहता है, वह जितेन्द्रिय एवं ब्रह्मचर्य-गुप्त कहलाता है। ' For Personal & Private Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०४ ****************************************************** विवेचन - ब्रह्मचर्य व्रत की सुरक्षा के लिए सर्वप्रथम आवश्यकता है-'विविक्त शयनासन' - स्त्री, नपुंसक और पशुओं से रहित एकान्त स्थान की। पुरुष के लिए मैथुन सेवन का प्रमुख साधन स्त्री है। अतएव सूत्रकार ने इस पाठ में पुरुष की अपेक्षा से स्त्रीयुक्त स्थान में रहने का निषेध किया है, किन्तु उपलक्षण से नपुंसक और पशु युक्त स्थान भी वर्जित समझना चाहिए। स्त्री की अपेक्षा यही पाठ, पुरुष नपुंसक और पशु युक्त स्थान निषिद्ध समझना चाहिए। मनुष्यों में मैथुन संज्ञा, अन्य जीवों से अधिक मानी गई है और मैथुन मुख्यतः स्त्री-पुरुष में होता है। वेदोदय के कारण एक दूसरे को देखते ही आकर्षित होते हैं, इसलिए सूत्रकार ने ब्रह्मचर्य रक्षा के लिए सर्वप्रथम स्त्रीयुक्त स्थान को वर्जित बताया है। यह ब्रह्मचर्य रक्षा की प्रथम वाड़ है। जो लोग स्त्री और पुरुष के विशेष सम्पर्क, अमर्यादित सह-निवास पर और सह व्यवसाय. पर जोर देते हैं, वे चारित्रिक विशुद्धि की उपेक्षा करते हैं। उन्हें विशुद्ध दृष्टि से सोचना चाहिए। द्वितीय भावना-स्त्री-कथा वर्जन बिइयं णारीजणस्स मज्झे ण कहियव्वा कहा विचित्ता विब्बोय-विलास-संपउत्ता हाससिंगार-लोइयकहव्व मोहजणणी ण आवाह-विवाह-वर-कहा विव इत्थीणं वा सुभग-दुभगकहा चउसंढेि य महिलागुणा ण वण्ण-देस-जाइ-कुल-रूव-णाम-णेवत्थपरिजण-कहा इत्थियाणं अण्णा वि य एवमाइयाओ कहाओ सिंगार-कलुणाओ तवसंजमबंभचेर-घाओवघाइयाओ अणुचरमाणेणं बंभचेरंण कहियव्वा ण सुणियव्वा ण चिंतियव्वा। एवं इत्थीकहविरइसमिइजोगेणं भाविओ भवइ अंतरप्या आरयमणविरयगामधम्मे जिइंदिए बंभचेर गुत्ते। शब्दार्थ - बिइयं - द्वितीय, णारी जणस्स - स्त्रियों के, माझे - बीच में, ण कहियव्वा - न कहनी चाहिए, कहा विचित्ता - विचित्र प्रकार की कथा, विब्बोय विलास संपउत्ता - विव्वोक-स्त्रियों की कामुक चेष्टा विलास-स्मित-कटाक्ष युक्त, हाससिंगार-लोइयकहव्व - हास्य और शृंगार-रस प्रधान लौकिक कथा की तरह, मोहजणणी - मोह उत्पन्न करने वाली, ण आवाह-विवण्ण वरकहाविव - द्विरागमन-गौना और विवाह की कथा भी न कहनी चाहिए, इत्थीणं वा सुभग-दुभग-कहा- स्त्रियों की सौभाग्य दुर्भाग्य की कथा, चउसट्ठीयं महिलागुणा - स्त्रियों की चौसठ कलाएं, ण वण्ण-देस-जाइकुल-रूव णाम-णेवत्थ-परिजण कहा - स्त्रियों के वर्ण-रंग, रूप, देश, जाति, कुल, रूप - सौन्दर्य, नाम, नेपथ्य और परिजन सम्बन्धी कथाएं, अण्णा वि य एवमाइयाओ - अन्य भी इसी प्रकार की, कहाओ सिंगार कलुणाओ- शृंगार और करुणा से युक्त कथाएँ, तव-संजम-बंभचेर-घाओवघाइयाओतप, संयम और ब्रह्मचर्य की घात और उपघात करने वाली, अणुचरमाणेणं बंभचेरं - ब्रह्मचर्य के पालन For Personal & Private Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय भावना-स्त्री-कथा वर्जन 281 **************************************************************** करने वाले को, ण कहियव्वा - न कहनी चाहिए, ण सुणियव्या - न सुननी चाहिए, ण चिंतियव्वा - न चिंतन करनी चाहिए, एवं - इस प्रकार, इत्थी कहविरइसमिइजोगेणं - स्त्री कथा से विरति रूप समिति के योग से, भाविओ - भावित, भवइ - होती है, अंतरप्पा - अन्तरात्मा, आरयमणविरयगामधम्मे - मैथुन से निवृत्त और इन्द्रिय लोलुपता से रहित, जिइंदिए - जितेन्द्रिय, बंभचेर गुत्ते - ब्रह्मचर्य गुप्त। भावार्थ - दूसरी भावना है-स्त्रियों के मध्य बैठकर विविध प्रकार की कथा-वार्ता नहीं कहना। स्त्रियों के विव्वोक (स्त्रियों की कामुक-चेष्टा) विलास (स्मित-कटाक्षादि) हास्य और शृंगार युक्त लौकिक कथा-कहानियाँ नहीं कहें। ऐसी कथाएं मोह उत्पन्न करती हैं। विवाह और द्विरागमन तथा वरवधू सम्बन्धी रसीली बातें और स्त्रियों के सौभाग्य-दुर्भाग्य के वर्णन भी नहीं करना चाहिए। महिलाओं के काम-शास्त्र वर्णित चौसठ गुण, उनके वर्ण, देश, जाति, कुल, रूप, नाम, नेपथ्य (वेश-: भूषा) और परिजन सम्बन्धी वर्णन भी नहीं करना चाहिए। स्त्रियों के शृंगार रस, करुणाजन्य विलाप आदि तथा इसी प्रकार की अन्य मोहोत्पादक कथा भी नहीं कहनी चाहिए। ऐसी कथाएँ तप, संयम और ब्रह्मचर्य की घात और उपघात करने वाली होती हैं। ऐसी कथाएँ ब्रह्मचर्य पालक को नहीं कहनी चाहिए और न किसी से सुननी ही चाहिए तथा मन में इस प्रकार का चिन्तन भी नहीं करना चाहिए। इस प्रकार स्त्री सम्बन्धी कथा से निवृत्त रहने रूप समिति का पालन करने से अन्तरात्मा पवित्र रहती है। इस प्रकार निर्दोषतापूर्वक ब्रह्मचर्य का पालक साधु, इन्द्रियों के विषयों से विरत रहकर जितेन्द्रिय तथा ब्रह्मचर्य-गुप्ति का धारक होता है। विवेचन - पुरुष के लिए 'स्त्रयों का संसर्ग ब्रह्मचर्य के लिए घातक है-यह जान कर यदि कोई कहे कि सभा में धर्मोपदेश देने और धर्म-कथा कहने में क्या दोष है ? इस विचारणा को भी अवकाश : नहीं देने के लिए सूत्रकार कहते हैं कि केवल स्त्रियों की सभा में किसी भी प्रकार की कथा-वार्ता नहीं करनी चाहिए। धर्म-कथा के लिए भी स्त्रियों का संसर्ग नहीं होना चाहिए। पुरुषयुक्त स्त्रियों की सभा में धर्म-कथा हो सकती है, केवल स्त्रियों की सभा में नहीं। स्त्रियों की सभा में तो साधु का उनसे साक्षात्कार होता है, इसलिए उन्हें देखने-निरखने और कदाचित् बोलने का प्रसंग आ सकता है, किन्तु स्त्रियों से दूर-परोक्ष रह कर भी स्त्रियों की कामचेष्टा, हास्य विलास, रूप-सौंदर्यादि का वर्णन और चिंतन भी नहीं करना चाहिए। वर्णन और चिंतन से अनुराग उत्पन्न होता है और यह अनुराग ही ब्रह्मचर्य के लिए हानिकारक बन सकता है। जब स्त्रियों से दूर रहकर, स्त्रीकथा एवं चिन्तन निषिद्ध है तब साक्षात् संसर्ग की तो बात ही कहाँ रही? सूत्रकार ने स्त्री सम्बन्धी उसी वर्णन और चिंतन का निषेध किया है-जो रागवर्द्धक-मोह को जगाने वाला हो। वैराग्य-वर्द्धक, मोह-शामक वर्णन-चिंतन का निषेध नहीं है, क्योंकि यह ब्रह्मचर्य-रक्षक है। . महिलाओं के 64 गुण - टीकाकार ने आलिंगनादि आठ गुण और उन आठ में प्रत्येक के For Personal & Private Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282 ******** प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ० 4 ************************************************* आठ-आठ भेद, इस प्रकार चौसठ गुण बतलाये। यथा - 'चतुःषष्टिश्च महिला-गुणा: आलिंगना दीनामष्टानां कर्मणां प्रत्येकमष्टाष्टभेदत्वेन चतुष्पष्टिर्जायते।' इसके बाद लिखा है"गीतनृत्योचित्यादयोऽपि नामतः चतुःषष्टिभेदा अपि संति।" ये गीत-नृत्यादि चौसठ कलाएँ हैं। जिनका उल्लेख पांचवें आस्रवद्वार में किया गया है। पूज्य श्री हस्तीमल जी म. सा. ने अपने प्रश्नव्याकरण के परिशिष्ट में इन चौसठ कलों को ही 'महिलागुण' नाम से दिया है। स्त्रियों की देशकथा - जैसे-कश्मीर, लाट आदि देश की स्त्रियाँ बहुत सुन्दर, मृदुभाषिणी, रतिनिपुण और उन्नत उरोजवाली होती हैं। यथा - "लाटदेशीयाः कोमलवचना रतिनिपुणाः सुस्तन्यो भवति।" . जाति कथा - उन ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जाति की स्त्रियों को धिक्कार है कि जो विधवा होने पर जीवनभर मृतक के समान निरानंद रहती हैं। यदि वे अपनी जाति की रीति के विपरीत थोड़ा भी कुछ करती हैं, तो निन्दित एवं बहिष्कृत हो जाती हैं। इसके विपरीत शूद्र जाति की स्त्रियाँ धन्य है कि जो लाख पति वाली होकर भी निन्दित नहीं होती। उन्हें न तो वैधव्य-दुःख होता है और न एक पति पर ही आश्रित रहना पड़ता है। यथा - 'धिग् ब्राह्मणी विधवा या, जीवन्ती मृता इव धन्ये मन्ये जने शूद्रा पतिलक्ष्येऽप्य-निन्दिता।' कुलकथा - चौलुक्यादि क्षत्रिय कुल की स्त्रियाँ बड़ी साहसी होती हैं। ये पति के मरने पर प्रेमविहीन हो, जीवित ही अपने पति के साथ अग्नि में जलकर मर जाती हैं। यथा - "अहो चौलुक्य-पुत्रीणां साहसो जगतोऽधिकं। पत्युर्मुत्यौ विशंत्यग्नौ या प्रेमरहिता अपि।" रूपकथा - अमुक स्त्री चन्द्रमुखी है। अमुक की आँखें हिरनी के समान आकर्षक हैं। गौरवर्णी होकर भी लम्बोतरे मुंह वाली युवती से तो लावण्यवती श्यामा अति मोहक होती है, आदि। कहा है कि - 'चन्द्रवक्त्रा सरोजाक्षी, सद्गी:पीनघनस्तनी। किं लाटीनामतः साऽस्य, देवानामपि दुर्लभा।' अर्थात् लाट-देशीय महिलाएं चन्द्रवदनी, कमलनयनी, मधुरभाषिणी और पुष्ट एवं उन्नत स्तन वाली होती हैं। ऐसी स्त्रियाँ किसे नहीं भाएंगी? वे तो देवों के लिए भी दुर्लभ होती हैं। नाम-कथा - अमुक युवती का नाम-'वसंतसेना' वास्तव में गुण-निष्पन्न है। उसकी बहिन 'प्रियदर्शना' भी नयनाभिराम है। किन्तु अमुक का 'मोहिनी' नाम तो निरर्थक ही है। जिसे देखते ही घृणा होती है। नेपथ्य-कथा - स्त्रियों की वेश-भूषा का वर्णन करना और कहना कि - अमुक प्रकार का वेश अच्छा है, शोभनीय है और अमुक पहनावा खराब है, भद्दा है। चूंघट निकालना और पर्दे में रहना बुरा है। खुले मुंह और चुस्त वस्त्र अच्छे हैं आदि। टीकाकार ने इस स्थान पर-"धिग्नारीरौदीच्या बहुवसनाच्छादितांगलतिकत्वात् यद्यौवनं न यूनां चक्षुर्मोदाय नो भवति"- उत्तर दिशा की स्त्रियों को धिक्कार है जो अनेक वस्त्रों में आच्छादित रहती हैं। इस प्रकार पूर्णरूप से ढकी हुई रहने से उनका यौवन और सौंदर्य युवकों की आंखों को आनन्दित नहीं कर सकता। For Personal & Private Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 283 तृतीय भावना-स्त्रियों के रूप-दर्शन का त्याग ***************************************************** परिजन-कथा - अमुक स्त्री दासी-सेविका होते हुए भी वह और उसकी पुत्रियाँ और परिवार बड़ा सुन्दर, मोहक, चतुर, स्नेहशील और आकर्षक है। व्यवहार कुशल हैं। यथा - "चेटिका परिवारोऽपि, तस्याः कान्तो विचक्षणः भावज्ञः स्नेहवान् दक्षो, विनीतः सुकुलस्तथा।" तृतीय भावना-स्त्रियों के रूप-दर्शन का त्याग तइयं णारीणं हसिय-भणियं चेट्ठिय-विपेक्खिय-गइ-विलास-कीलियं-विब्बोइयणट्ट-गीय-वाइय-सरीर-संठाण-वण्ण-कर-चरण-णयण-लावण्ण-रूव-जोव्वणपयोहरा-धर-वत्थालंकार-भूसणाणि य गुज्झोवगासियाई अण्णाणि य एवमाइयाई तव संजम बंभचेरघाओवघाइयाइं अणुचर-माणेणं बंभचेर ण चक्खुसा ण मणसा ण वयसा पत्थेयव्वाइं पावकम्माइयं एवं इत्थीरूवविरइ-समिइजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा आरयमण-विरयगामधम्मे जिइंदिए बंभचेरगुत्ते। शब्दार्थ - तइयं - तृतीय, णारीणं - स्त्रियों के, हसिय-भणियं - हास्य और विकारयुक्त भाषण, चेट्ठिय - चेष्टा, विपेक्खिय - विप्रेक्षण-कटाक्ष, गइ - गति-चाल, विलास-कीलियं - विलास और क्रीड़ा, विब्बोइय - कामोत्पादक शृंगार चेष्टा, णट्ट - नाच, गीय - गीत, वाइय - बाजा बजाना, सरीरसंठाण - शरीर का गठन, वण्ण - वर्ण, करचरणणयण - हाथ, पाँव और आँखों का, लावण्णरूव-जोव्वण - लावण्य रूप और यौवन, पयोहराधर - स्तन, अंधर, वत्थालंकार-भूसणाणि - वस्त्र, अलंकार और शरीर का मण्डन, य - और, गुज्झोवगासियाई - गुह्य एवं लज्जनीय अंगों को, अण्णाणि य एवमाइयाई - इसी प्रकार के अन्य, तवसंजमबंभचेर-घाओवघाइयाइं - तप, संयम और ब्रह्मचर्य की घात और उपघात करने वाली, अणुचरमाणेणं बंभचेरं - ब्रह्मचर्य पालक को, ण चक्खुसा ण मणसा ण वयसा - आंखों से न देखे, मन से न सोचे और वचनों से न बोले, ण पत्थेयव्वाइं पावकम्माई - पापयुक्त कर्मों की प्रार्थना-इच्छा भी नहीं करे, एवं - इस प्रकार, इत्थी-रूव-विरइसमिइजोगेण - स्त्रियों के रूप दर्शन की विरति रूप समिति के योग से, भाविओ- भावित, भवइ - / होती है, अंतरप्पा - अन्तरात्मा, आरयमण विरयगामधम्मे - मैथुन से निवृत्त और इन्द्रिय लोलपुता से रहित, जिइंदिए - जितेन्द्रिय, बंभचेरगुत्ते - ब्रह्मचर्य गुप्त। भावार्थ - तीसरा भावना रूपदर्शन-वर्जन है। ब्रह्मचारी पुरुष स्त्रियों की हास्य-मुद्रा, रागवर्द्धक वचन, विकारोत्पादक-चेष्टा, कटाक्षयुक्त दृष्टि, चाल, विलास (हावभाव) क्रीड़ा, कामोत्पादक शृंगारिक चेष्टाएं, नाच, गीत, वाद्य, शरीर का गठन एवं निखार, वर्ण (रंग) हाथ, पांव, आँखें, लावण्य, रूप, यौवन, पयोधर (स्तन), ओष्ठ, वस्त्र, अलंकार और आभूषण आदि से की हुई शरीर की शोभा और जंघा आदि गुप्त अंग तथा इसी प्रकार के अन्य दृश्य नहीं देखे। इन्हें देखने की चेष्टा, तप, संयम और ब्रह्मचर्य का घात एवं उपघात करने वाली है और पापकर्म युक्त है। ब्रह्मचर्य के पालक को स्त्रियों के For Personal & Private Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284. प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०४ **************************************************************** रूप आदि का मन से भी चिंतन नहीं करना चाहिए, न आँखों से देखना चाहिए और न वचन से रूप आदि का वर्णन करना चाहिए। इस प्रकार स्त्रियों के रूप-दर्शन त्याग रूप समिति का पालन करने से अन्तरात्मा प्रभावित होती है। वह साधु मैथुन से निवृत्त एवं इन्द्रिय-लोलुपता से रहित होकर जितेन्द्रिय तथा ब्रह्मचर्य-गुप्ति का धारक होता है। विवेचन - स्त्रियों के सौंदर्य का निरीक्षण वर्णन और चिंतन भी ब्रह्मचर्य का घातक होता है। रूप-निरीक्षण मानसिक विकास को बढ़ा कर ब्रह्मचर्य नष्ट कर देता है। अतएव रूप-दर्शन का त्याग अत्यावश्यक है। यह भावना मुख्यतः ब्रह्मचर्य की चौथी और गौणरूप से दूसरी और पांचवीं बाड़ का विधान करती है। चतुर्थ भावना-पूर्वभोग-चिंतन त्याग चउत्थं पुवरय-पुब्ब-कीलिय-पुव्व-संगंथगंथ-संथुया जे ये आवाह-विवाहचोल्लगेसु य तिहिसु जण्णेसु उस्सवेसु य सिंगारागार-चारुवेसाहिं हावभावपललियविक्खेव-विलास-सालिणीहि अणुकूल-पेम्मिगाहिं सद्धिं अणुभूया सयणसंपओगा उउसुहवरकुसुम-सुरभि-चंदण-सुगंधिवर वास-धूव-सुहफरिस-वत्थ-भूसण-गुणोववेया रमणिजा उज्जगेय-पउर-णड-णट्टग-जल्ल-मल्ल-मुट्ठिग-वेलंबग-कहग-पव्वगलासग-आइक्खग-लंख-मंख-तूणइल्लतुंब-विणिय-ताला-यर-पकरणाणि य बहूणि महुरसरगीय-सुस्सराइं अण्णाणि य एवमाइयाणि तवसंजमेबंभचेर-घाओवघाइयाई अणुचरमाणेणं बंभचेरं णं ताइं समणेण लब्भा दटुं ण कहेउं ण वि सुमरिउं जे एवं पुव्वरयं-पुव्वकीलिय-विरइ-समिइ-जोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा आरयमणविरयगामधम्मे जिइंदिए बंभचेरगुत्ते। शब्दार्थ - चउत्थं - चतुर्थ, पुव्वरय - पहले भोगे हुए विषय-भोग, पुव्वकीलिय - पूर्व क्रीड़ित, पुवसंगंथ - गृहस्थावस्था के सम्बन्ध, गंथसंथुया - पूर्व के परिचित, जे ये - जो ये लोग, आवाह विवाह-चोल्लगेसु - द्विरागमन-गौना-विवाह, चूड़ा-कर्म-प्रथम मुण्डन प्रसंग में, तिहिसु जण्णेसु उस्सवेसु य - पर्वतिथियों, यज्ञों नागादि पूजाओं और उत्सवों में, सिंगारागार-चारुवेसाहिं - शृंगार के घर के समान सुन्दर वेष वाली, हावभावपललिय-विक्खेव-विलास-सालिणीहिं - हाव-भाव, ललित, विक्षेप और विलास से सुशोभित, अणुकूल पेम्मिगाहिं - अनुकूल प्रेमिकाओं के, सद्धिं - साथ, अणुभूया सयणसंपओगा - अनुभव किये हुए शयन आदि विविध काम-शास्त्रोक्त प्रयोग, उउसुहवरकुसुम - ऋतुओं में सुखदायक फूल, सुरभि - सुगन्धित, चंदण - चंदन, सुगंधिवरवास - श्रेष्ठ सुगन्ध वाले सुवास, धूव - धूप, सुहफरिस वत्थ - सुखद स्पर्श वाले वस्त्र, भूसण - भूषण, गुणोववेया - गुणों से युक्त, For Personal & Private Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भावना-पूर्वभोग-चिन्तन त्याग 285 **************************************************************** रमणिज्जा'- रमणीय, उज्जगेय-पउर-णडणट्टग - आतोद्य-वाद्य ध्वनि, गान, बहुत-से नट तथा नर्तक, जल्ल - रस्सी पर खेलने वाले, मल्ल - कुश्ती करने वाले, मुट्ठिग - मुष्टि से प्रहार करने वालों का दंगल, वेलंबग-कहग- विदूषकों का हास्य तथा उनके बोलने का ढंग, पव्वग- प्ल्वक-तैराक, लासगरास-लीला, आइक्खग - शुभाशुभ कहने वाले, लंख - लम्बे बांस पर खेलने वाले, मंख - चित्रमय पाटिया लेकर फिरने वाले भिक्षुक, तूणइल्ल - तूण नामक वाद्य बजाने वाले, तुंबवीणिय - वीणा बजाने वाला, तालायरपकरणाणि - तालचर आदि की क्रियाएँ, य - और, बहुणि महूरसरगीयसुस्सराई - बहुत-से मधुर ध्वनि वाले गायकों में गीत और सुन्दर स्वर, अण्णाणि य एवमाइयाणि - और इसी प्रकार के अन्य, तवसंजमेबंभचेरघाओवघाइयाइं - तप, संयम और ब्रह्मचर्य की घात और उपघात करने वाले, अणुचरमाणेणं बंभचेरं - ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले, ण ताई समणेण लब्भा द8 - उस साधु को कामोद्दीपन करने वाले वे सभी पदार्थ नहीं देखना, ण कहेउं - वर्णन नहीं करना, ण वि सुमरिउं - स्मरण भी नहीं करना चाहिए, एवं - इस प्रकार, पुव्वरयं-पुव्वकीलिय-विरइ-समिइ-जोगेणं - पूर्वरत, पूर्व क्रीड़ित-स्मरण विरति रूप समिति के योग से, भाविओ - भावित, भवइ - होता है, अंतरप्पाअन्तरात्मा, आरयमणविरयगामधम्मे - मैथुन से निवृत्त और इन्द्रिय लोलुपता से रहित, जिइंदिए - जितेन्द्रिय, बंभचेरगुत्ते - ब्रह्मचर्य से गुप्त। भावार्थ - चौथी भावना 'भोगस्मृति-विवर्जन' है। गृहस्थवास में रहे हुए स्त्री के साथ भोगे हुए कामभोग और की हुई क्रीड़ा तथा साली-साराहेली आदि के साथ हुए मोहक सम्बन्धों और स्त्रीपुत्रादि के स्नेहादि का स्मरण-चिंतन नहीं करे। वैवाहिक प्रसंग, पत्नी का द्विरागमन, पुत्र का चूडाकर्म (मुण्डन) अन्न प्रासनादि प्रसंगों को भी स्मरण नहीं करे। स्त्रियों के साथ मदनत्रयोदशी या वसंतोत्सवादि पर की हुई क्रीड़ा अथवा नाग आदि के यज्ञ और इन्द्र महोत्सवादि के समय स्त्रियों के विशिष्ट श्रृंगार * एवं उत्तम परिवेग, हाव-भाव, ललित-मोहक चेष्टाएं, कटाक्ष, विलास आदि से सुशोभित, अपने अनुकूल प्रेमिकाओं के साथ किये हुए शयनादि भोगों का स्मरण नहीं करे। ऋतुओं के सुगन्धित एवं सुखदायक पुष्पों, सुगन्धित द्रव्यों, चन्दन इत्रादि और धूप, सुखद स्पर्श, वस्त्र, आभूषण आदि गुणों से युक्त, रमणीय वाद्य, गीत, नटों का नाटक और नृत्य, रस्से पर किया जाता हुआ खेल, मल्लों की कुश्ती, मुष्टियुद्ध, विदूषकों की भांड-चेष्टाएं, तैराकी के दृश्य, रासलीला, श्रृंगार-रस युक्त कहानियाँ, बांस के अग्रभाग पर किये जाने वाले खेल, चित्र-फलक दिखाकर किया जाने वाला मनोरंजन, तूण नामक बाजा, वीणावाद्य, तालबद्ध नृत्य और इसी प्रकार के अन्य बहुत-से मधुर स्वर के गायन आदि का स्मरण नहीं करे। इनके स्मरण से तप-संयम और ब्रह्मचर्य का घातोपघात होता है। ब्रह्मचर्य के पालक साधु को वैसे दृश्य भी नहीं देखना चाहिए, न वैसी कथा-वार्ता करनी चाहिए और न मोहवर्द्धक बातों का स्मरण ही करना चाहिए। इस प्रकार पूर्वावस्था के काम-भोगों का स्मरण नहीं करने रूप समिति का पालन करने से अन्तरात्मा प्रभावित होती है। ऐसा साधक इन्द्रियों के : विकारों से रहित, जितेन्द्रिय एवं ब्रह्मचर्य गुप्ति का धारक होता है। For Personal & Private Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०४ **************************************************************** विवेचन - गृहस्थाश्रम में भोगे हुए काम-भोगों का स्मरण नहीं करने रूप इस चौथी भावना का मुख्य सम्बन्ध ब्रह्मचर्य की छठी वाड़ से है। पंचम भावना-स्निग्ध सरस भोजन-त्याग / पंचमगं आहार-पणीय-णिद्ध-भोयण-विवजए संजए सुसाहू ववगय-खीर-दहि सप्पि-णवणीय-तेल्ल-गुल-खंड-मच्छंडिग-महु-मज-मंस-खजग-विगइ-परिचियकयाहारे ण दप्पणं ण बहुसो ण णिइगंण सायसूपाहियं ण खद्धं तहा भोत्तव्वं जहा से जायामायाय भवइ, ण य भवइ विब्भमो ण भंसणा य धम्मस्स। एवं पणीयाहारविरइ-समिइ-जोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा आरयमण-विरयगामधम्मे जिइंदिए बंभचेरगुत्ते। शब्दार्थ - पंचमगं - पांचवीं, आहार-पणीय-णिद्ध-भोयण-विवजए - प्रणीत भोजन सरस आहार और स्निग्ध भोजन का परिहार करने वाला, संजए - संयमी, सुसाहू - सुसाधु, ववगय - दूर हुआ, खीर - दूध, दहि - दही, सप्पि - घी, णवणीय - नवनीत-मक्खन, तेल्ल - तेल, गुल - गुड़, खंड - खाँड, मच्छंडिग - मिश्री, महु - मधु, मज - मद्य, मंस - मांस, खजग - खाँड से लिप्त पकवान, विगइ - शरीर में विकार उत्पन्न करने वाला, परिचिय कयाहारे - त्याग करे, ण दप्पणं - दर्प कारक आहार न करे, ण बहुसो- बहुत बार नहीं खावे, ण णिइगं-नित्य सरस आहार न करे, ण सायसूपाहियंन दाल और शाक की अधिकता वाला, ण खद्धं - और अधिक भी नहीं, तहा भोत्तव्वं - उतना खाना चाहिए, जहा - जिससे, जायामायाय - संयम-यात्रा का निर्वाह, भवइ - हो जाय, ण य भवइ विब्भमोविभ्रम-मन की चंचलता नहीं हो, ण भंसणा य धम्मस्स - ब्रह्मचर्य-धर्म का नाश भी नहीं हो, एवं - इस प्रकार, पणीयाहार-विरइसमिइ-जोगेण - प्रणीताहार विरति रूप समिति के योग से युक्त, भाविओभावित, भवइ - होती है, अंतरप्पा - अन्तरात्मा, आरयमण-विरयगाम-धम्मे - मैथुन से निवृत्ति और इन्द्रिय-लोलुपता से रहित, जिइंदिए - जितेन्द्रिय, बंभचेरगुत्ते - ब्रह्मचर्य से गुप्त। भावार्थ - पांचवीं भावना प्रणीत-सरस आहार का त्याग करना है। जो आहार घृतादि स्निग्ध पदार्थों से पूर्ण हो, जिसमें रस टपकता हो, ऐसे विकारवर्द्धक आहार का साधु को त्याग करना चाहिए। खीर, दही, दूध, मक्खन, तेल, गुड़, शक्कर, मिश्री, मधु, मद्य, मांस और रस पिलाये हुए खाजे आदि मिष्टान्न का आहार करने से शरीर में विकार उत्पन्न होता है। इसलिए ऐसे प्रणीत रस का त्याग करना चाहिए। जिस आहार में खाने से दर्प-विकार उत्पन्न हो और वृद्धि हो, उसका नित्य सेवन नहीं करे, न For Personal & Private Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार 287 **************************************************************** दिन में ही अधिक बार भोजन करे तथा शाक दाल का भी अधिक सेवन नहीं करे, न प्रमाण से अधिक खावे। साधु उतना ही भोजन करे, जितने से उसकी संयम-यात्रा का निर्वाह हो, चित्त में विभ्रम नहीं हो और धर्म से भ्रष्ट भी नहीं हो। सरस आहार के त्याग रूप इस समिति का पालन करने से साधक की अन्तरात्मा प्रभावित होती है। वह मैथुन-विरत मुनि इन्द्रिय-जन्य विकारों से रहित जितेन्द्रिय होकर . ब्रह्मचर्यगुप्ति का पालक होता है। विवेचन - खान-पान का शरीर पर प्रभाव होता है। पौष्टिक एवं विकार-वर्द्धक आहार से इन्द्रियाँ सशक्त होती हैं और विकार उत्पन्न होता है। यह विकार ब्रह्मचर्य का घातक बन जाता है। इसलिए ब्रह्मचारी को पौष्टिक आहार का त्याग करना आवश्यक है। यह प्रभावना मुख्यत: सातवीं वाड़ से सम्बन्ध रखती है। किन्तु अतिमात्रा में आहार करने रूप आठवीं वाड़ तथा उपलक्षण से नौवीं वाड़ से भी सम्बन्धित है, क्योंकि इस भावना का भाव शरीर पोषण त्याग से है। नौंवी वाड़ शरीर की शोभा बढ़ाने पर प्रतिबन्ध लगाती है। तात्पर्य यह की ब्रह्मचर्य की पाँच भावनाओं मे नौ वाड़ का समावेश हो जाता है। उपसंहार एवमिणं संवरस्स दारं सम्मं संवरियं होइ सुप्पणिहियं इमेहिं पंचहिं वि कारणेहिं मण-वयण-काय-परिरक्खिएहिं णिच्चं आमरणंतं च एसो जोगो णेयव्वो धिइमया मइमया अणासवो अकलुसो अच्छिद्दो अपरिस्सावी असंकिलिट्ठो सव्वजिणमणुण्णाओ।. शब्दार्थ - एवमिणं - यह, संवरस्स - संवर, द्वारं - द्वार, सम्मं - भली-भांति, संवरियं - पालन करना, होइ - होता है, सुप्पणिहियं - सुप्रणिहित-सुरक्षित, इमेहिं - इन, पंचहिं - पाँच, कारणेहिं - कारणों से, मण-वयण-काय-परिरक्खिएहिं - मन, वचन और काया द्वारा रक्षण करना, णिच्चं - सदैव, आमरणंतं - मरण पर्यंत, एस जोगो - इस व्रत का, णेयव्वो - पालन करना, धिइमयाधैर्य-सम्पन्न, मइमया - बुद्धिमान, अणासवो - अनाश्रवक, अकलुसो - कलुषता-रहित, अच्छिद्दो - छिद्र-रहित, अपरिस्सावी - कर्मों के प्रवेश से रहित, असंकिलिट्ठो - संक्लेश-रहित, सव्वजिणमणुण्णाओ - सभी जिनेश्वरों द्वारा आज्ञापित। भावार्थ - इस प्रकार पांच भावनाओं से युक्त इस संवरद्वार का सम्यक् रूप से पालन करने से महाव्रत सुरक्षित रहता है। इसलिए धैर्य सम्पन्न, बुद्धिमान् साधु को चाहिए कि मन, वचन और काया से इस चौथे महाव्रत की रक्षा करता हुआ, इन पांच भावनाओं का जीवनपर्यन्त पालन करता रहे। यह महाव्रत, आस्रव का निरोधक, कलुषित भावों से रहित शुभ भावों से युक्त, छिद्र-रहित, कर्मों के For Personal & Private Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०४ ********************************************************** ***** आगमन का अवरोधक तथा संक्लेश से रहित है। यह भूत, भविष्य और वर्तमान के सभी जिनेश्वरों भगवंतों द्वारा आज्ञापित-उपदिष्ट है। एवं चउत्थं संवरदारं फासियं पालियं सोहियं तीरियं किट्टियं आराहियं आणाए अणुपालियं भवइ। एवं णायमुणिणा भगवया पण्णवियं परूवियं पसिद्ध सिद्धं सिद्धवरसासणमिणं आघवियं सुदेसियं पसत्थं। तिबेमि॥ चउत्थं संवरदारं सम्मत्तं शब्दार्थ - एवं - इस प्रकार, चउत्थं - चतुर्थ, संवेरदार - संवरद्वार, फासियं - स्पृष्ट, पालियं - पालित, सोहियं - शोभित, तीरियं - तारित, किट्टियं - कीर्तित, आराहियं - आराधित, भवइ - होता है, एवं - इस प्रकार, णायमुणिणा भगवया - ज्ञातृकुलोत्पन्न भगवान् महावीर स्वामी ने, पण्णवियं - कहा है, परूवियं - प्ररूपणा की, पसिद्धं - प्रसिद्ध, सिद्धं - सिद्ध, सिद्धवरसासणमिणं - अपने कार्य को सिद्ध करने वाले तीर्थंकर भगवान् की प्रधान आज्ञा, आघवियं - सम्यक् प्ररूपणा, सुदेसियं - भली प्रकार उपदेशित, पसत्थं - प्रशस्त, चउत्थं - चतुर्थ, संवरदारं - संवरद्वार, सम्मत्तं - समाप्त हुआ, त्तिबेमि - ऐसा मैं कहता हूँ। भावार्थ - इस प्रकार इस चतुर्थ संवरद्वार का स्पर्शन, पालन एवं शोभन होता है, पार पहुंचाया जाता है, कीर्तित एवं आराधित होता है और जिनेश्वर की आज्ञा के अनुसार अनुपालित होता है। इस प्रकार ज्ञातृ-कुलोत्पन्न भगवान् महावीर स्वामी ने कहा है, प्ररूपित किया है। यह मार्ग विश्व में प्रसिद्ध है, प्रमाणों से सिद्ध है। समस्त प्रयोजन सिद्ध करने वाले ऐसे तीर्थंकर भगवंत की यह प्रधान आज्ञा है। भगवान् द्वारा प्ररूपित है, उपदेशित है एवं प्रशस्त है। यह चतुर्थ संवरद्वार पूर्ण हुआ-ऐसा मैं कहता हूँ। // ब्रह्मचर्य नामक चतुर्थ संवरद्वार समाप्त॥ For Personal & Private Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्रहत्याग नामक पंचम संवरद्वार हेय-ज्ञेय और उपादेय के तेतीस बोल जंबू! अपरिग्गहसंवुडे य समणे आरंभ-परिग्गहाओ विरए, विरए कोह-माणमाया-लोहा। एगे असंजमे, दो चेव रागदोसा, तिण्णि य दंड-गारवा य गुत्तीओ तिण्णि-तिण्णि य विराहणाओ, चत्तारि कसाया झाण-सण्णा-विकहा तहा य हुंति चउरो, पंच य किरियाओ समिइ-इंदिय-महव्वयाइंच, छज्जीवणिकाया, छच्च लेसाओ, सत्त भया, अट्ठ य मया, णव चेव य बंभचेर-वयगुत्ती, दसप्पगारे य समणधम्मे, एग्गारस य उवासंगाणं, बारस य भिक्खुपडिमा, तेरस किरियाठाणा य चउद्दस भूयगामा, पण्णरस परमाहम्मिया, गाहा सोलसया, सत्तरस असंजमे, अट्ठारस अबंभे, एगुणवीसइ णायज्झयणा, वीसं असमाहिट्ठाणा। . शब्दार्थ - जंबू - हे जंबू!, अपरिग्गहसंवुडे - मूर्छा-रहित और इन्द्रिय तथा कषाय के संवरण वाला, समणे- श्रमण, आरंभपरिग्गहाओ- आरम्भ और परिग्रह से, विरए - निवृत्त, कोह-माण-मायालोहा - क्रोध, मान, माया और लोभ से, एगे - एक, असंजमे - असंयम, दो चेव रागदोसा - राग और द्वेष रूप दो बन्ध, तिण्णि य दंडगारवा - तीन दण्ड और तीन गारव, गुतीओ तिण्णि - तीन गुप्तियाँ, तिण्णि य विराहणाओ - तीन विराधनाएं, चतारि कसाया - चार कषाय, झाणसण्णा - ध्यान, संज्ञा, विकहा तहा य हुंति चउरो - और ऐसे ही चार विकथाएं, पंच य किरियाओ - पांच क्रियाएं, समिइइंदिय महव्वयाई - समितियाँ, इन्द्रिएँ और महाव्रत भी पांच हैं, य - और, छज्जीवणिकाया - छह जीवनिकाय, छच्च लेसाओ - छह लेश्याएं, सत्त भया - सात भय, अट्ठ य मया - आठ मद-स्थान, णव चेव य बंभचेरवयगुत्ती - ब्रह्मचर्य व्रत की नौ गुप्तियाँ, दसप्पगारे य समणधम्मे - दस प्रकार का श्रमण-धर्म, एग्गारस य उवासगाणं - श्रावकों की ग्यारह पडिमा, बारस य भिक्खुपडिमा - साधु की बारह पडिमा, तेरस किरिया ठाणा - क्रिया स्थान तेरह, चउद्दस भूयगामा - जीवों के चौदह भेद, पण्णरस परमाहम्मिया - परमाधार्मिक पन्द्रह, गाहासोलसया - सोलह गाथा, सत्तरस असंजमे - सतरह प्रकार का असंयम, अट्ठारस अबंभे - अठारह प्रकार का अब्रह्मचर्य, एगुणवीसइ णायझयणा - ज्ञाताधर्मकथा सूत्र के उन्नीस अध्ययन, वीसं असमाहिट्ठाणा - असमाधि स्थान बीस। भावार्थ - गणधर सुधर्मा स्वामीजी महाराज कहते हैं कि हे जंबू! श्रमण वही है जो परिग्रह से रहित और इन्द्रियों के विषयों तथा कषाय से वंचित हो। आरम्भ और परिग्रह तथा क्रोध, मान, माया For Personal & Private Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 290 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०२ अ०५ * और लोभ से विरत संयती, एक प्रकार के असंयम से रहित होता है। राग और द्वेष, ऐसे दो प्रकार के बन्ध, तीन प्रकार के दण्ड और तीन गौरव से रहित हो, तीन गुप्ति से गुप्त हो। तीन विराधना से बचा हुआ, चार कषाय को नष्ट करने वाला, चार ध्यान में से आर्त और रौद्र का वर्जक तथा धर्म और शुक्ल का सेवी, आहारादि चार संज्ञा, चार विकथा और पांच क्रिया से विरत, पांच समिति का पालक, पांच इन्द्रियों का शासक, पांच महाव्रतों का पालक, छह जीवनिकाय का रक्षक, छह लेश्यों में अशुभ लेश्याओं का त्यागी, सात भय और आठ मद से रहित, नौ प्रकार की ब्रह्मचर्य-गुप्ति और दस प्रकार के श्रमण-धर्म का पालक हो। उपासक की ग्यारह प्रतिज्ञा, भिक्षु की बारह प्रतिज्ञा, तेरह क्रिया-स्थान, चौदह भूतग्राम (जीव समुदाय), पन्द्रह परमाधार्मिक देव, सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के सोलह अध्ययन, सतरह असंयम, अठारह अब्रह्मचर्य, ज्ञातासूत्र के उन्नीस अध्ययन, बीस अंसमाधि स्थान। विवेचन - इस पांचवें संवरद्वार में सूत्रकार महर्षि ने बहुत ही गंभीर भावों का समावेश किया है। अपरिग्रह महाव्रत का द्रव्य और भाव से पालन करने वाले के सभी महाव्रत अपने आप पलते हैं। जो द्रव्य और भाव से अपरिग्रही है, वह स्त्री का परिग्रह नहीं रख सकता और वेदोदय के वशीभूत नहीं होता। इस प्रकार अपरिग्रही से ब्रह्मचर्य व्रत अपने-आप पलता रहता है। जो अपरिग्रही है, वह अदत्तग्रहण क्यों करेगा? अपरिग्रही के झूठ बोलने और हिंसा करने का प्रयोजन ही क्या रहता है ? क्रोधादि आभ्यन्तर कषायों के त्यागियों के मन में दुराशय या हिंसा-मृषादि का भाव ही नहीं आ पाएगा। इस प्रकार अपरिग्रही सर्वसंयत की आत्मा से सभी दुर्गुण दूर हो जाते हैं और सभी सद्गुण में निवास करने लगते हैं। अपरिग्रह महाव्रतधारी द्रव्य-भाव श्रमण की श्रद्धा, त्याग और चारित्र का स्वरूप . बताते हुए, एक से लगाकर तेतीस भेदों का उल्लेख किया गया है। यथा - 1. एक प्रकार का असंयम - वह अनियंत्रित अवस्था, जिसमें विरति का सर्वथा अभाव हो और मात्र असंयम ही हो। प्रथम से चतुर्थ गुणस्थान तक के जीवों की असंयमी परिणति। भेद-विवक्षा से असंयम के सतरह प्रकार समवायांगसूत्र में बताये हैं। वे सभी भेद संग्रहनय से एक असंयम में समाविष्ट होते हैं। भेद स्वरूप का प्रतिपादन संयमी के हित के लिए होता है। असंयमी के लिए तो असंयम या अविरति ही पर्याप्त है। 2. बन्ध के दो भेद-राग और द्वेष। मोहनीय की 28 और सभी कर्मों की 148 या 158 प्रकृतियों के बन्धक, मुख्यतया ये दो भेद ही हैं। अठारह पापों का विस्तार भी इन दो भेदों से ही होता है। 3. दंड तीन - मन, वचन और काया के अशुभ योग से अपराध करके दण्ड का भागी बनना। . गारव तीन - ऋद्धि, रस और सुख का घमण्ड करना। ये सभी भेद हेय हैं, त्यागने योग्य हैं। तीन गुप्ति - मन, वचन और शरीर को पापमय प्रवृत्ति से रोक कर शुभ प्रवृत्ति में स्थित रखना। For Personal & Private Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 291 **************************************************************** हेय-ज्ञेय और उपादेय के तेंतीस बोल तीन विराधना - ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना नहीं करके विराधना करना। 4. चार कषाय- संसार एवं पाप को बढ़ाने वाले-ऐसे क्रोध, मान, माया और लोभ का सेवन करना। चार ध्यान-आर्त और रौद्र - इन दो दुानों में रमण करना हेय है और धर्म तथा शुक्ल-ये दो उत्तम ध्यान उपादेय हैं। चार संख्या - 1. आहार 2. भय 3. मैथुन और 4. परिग्रह की इच्छा - आसक्ति। यह त्यागने योग्य हैं। 5. पांच क्रिया - 1. कायिकी 2. आधिकरणिकी 3. प्राद्वेषिकी 4. पारितापनिकी और 5. ' प्राणातिपातिकी। अथवा 1. आरम्भिकी 2. पारिग्रहिकी 3. मायाप्रत्यया 4. अप्रत्याख्यान-प्रत्यया और 5. मिथ्यादर्शन प्रत्यया। ये सभी क्रियाएँ कर्मबन्ध की कारण हैं, अतएव त्यागनीय हैं। पांच समिति - 1. ईर्या समिति 2. भाषा समिति 3. एषणा समिति 4. आदानभण्डमात्र निक्षेपणा समिति और 5. उच्चार-प्रस्रवण-खेल-जल्ल-संघाण परिस्थापनिका समिति। ये पांचों समितियाँ आवश्यक प्रवृत्ति के लिए उपयोगी हैं, उपादेय हैं। पांच इन्द्रियाँ - 1. श्रोत 2. चक्षु 3. घ्राण 4. रसना और 5. स्पर्श। इन्हें अपने-अपने विषयों में जाने से रोक कर संयम में रखना चाहिए। * पांच महाव्रत - प्राणातिपात-विरमणादि पांचों महाव्रतों का पालन करना। 6. छह जीवनिकाय - पृथ्वीकायादि छह प्रकार के जीवों की हिंसा का त्याग करना। छह लेश्या - 1. कृष्ण 2. नील 3. कापोत 4. तेजो 5. पद्म और 6. शुक्ल। इनमें से प्रथम की तीन लेश्याएं अप्रशस्त (अशुभ) हैं और बाद की तीन लेश्याएं प्रशस्त (शुभ) हैं। 7. सात भय - 1. इहलोक भय 2. परलोक भय 3. आदान भय. 4. अकस्मात् भय 5. आजीविका भय 6. अपयशं भय और 7. मृत्यु भय। ये सभी भय त्याज्य हैं। .. 8. आठ मद - 1. जाति मद 2. कुल मद 3. बल मद 4. रूप मद 5. तप मद 6. लाभ मद.७. श्रुत मद और 8 ऐश्वर्य मद। सभी मद त्याज्य हैं। 9. ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियाँ - 1. विविक्त शयनासन सेवन 2. स्त्रीकथा विवर्जन 3. स्त्री युक्त आसन परिहार 4. स्त्रियों का रूप दर्शन त्याग 5. स्त्रियों के श्रृंगार, करुण तथा हास्यादि शब्द श्रवण त्याग 6. पूर्वभोग स्मृति त्याग 7. प्रणीत आहार त्याग 8. अति आहार वर्जन और 9. विभूषा त्याग।। श्रमणधर्म दस - 1. .क्षांति 2. मुक्ति (निर्लोभता) 3. आर्जव (ऋजुता) 4. मार्दव (नम्रता) 5. लघुता (अल्पोपधि) 6. सत्य 7. संयम 8. तप 9. त्याग और 10. ब्रह्मचर्य। श्रावक की ग्यारह प्रतिमा - 1. दर्शन प्रतिमा 2. व्रत 3. सामायिक 4. पौषध 5. कायोत्सर्ग For Personal & Private Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 292 .......... प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०२ अ०५ ************************************************************* 6. ब्रह्मचर्य 7. सचित्त त्यांग 8. आरम्भ त्याग 9. प्रेष्य त्याग 10. उद्दिष्ट त्याग और 11. श्रमण भूत प्रतिमा। विस्तृत स्वरूप दशाश्रुत स्कन्ध दशा 6 या मोक्षमार्ग में देखना चाहिए। बारह भिक्षु प्रतिमा का स्वरूप दशाश्रुत स्कन्ध अ०७ या मोक्षमार्ग में देखें। . . क्रिया स्थान तेरह - 1. अर्थदण्ड 2. अनर्थदण्ड 3. हिंसा 4. अकस्मात 5. दृष्टिविपर्यास 6. मृषावाद 7. अदत्तादान 8. आध्यात्म 9. मानदण्ड 10. मित्र दण्ड 11. माया 12. लोभ और 13. ईर्यापथिक। 'भूतग्राम चौदह - 1. सूक्ष्म एकेन्द्रिय 2. बादर एकेन्द्रिय 3. बेइन्द्रिय 4. तेइन्द्रिय 5. चतुरेन्द्रिय 6. असंज्ञी पंचेन्द्रिय और 7. संज्ञी पंचेन्द्रिय। इन सात के अपर्याप्त और पर्याप्त-यों कुल चौदहं भेद हुए। - परमाधर्मी देव पन्द्रह - नैरयिक जीवों को क्रूरतापूर्वक दण्ड देने वाले भवनपति जाति के महान् अधार्मिक देव। इनके भेद हैं - 1. आम्र 2. आम्र रस 3. शाम 4. सबल 5. रुद्र 6. वैरुद्र 7. काल 8. महाकाल 9. असिपत्र 10. धनुष 11. कुंभ 12. बालुक 13. वैतरणी 14. खरस्वर और 15. महाघोषं। ___ असंयम के सतरह भेद - 1. पृथ्वीकाय असंयम 2. अप्काय 3. तेजस्काय 4. वायुकायः५. वनस्पतिकाय 6. बेइन्द्रिय 7. तेइन्द्रिय 8. चौरेन्द्रिय 9. पंचेन्द्रिय, इनमें असंयमी होना 10. अजीवकाय असंयम 11. प्रेक्षा 12. उपेक्षा 13. परिस्थापनिका 14. अप्रमार्जना 15. मन असंयम 16. वचन, असंयम और 17. काय असंयम। इनके विपरीत संयम के भी 17 भेद हैं। अब्रह्मचर्य के अठारह भेद - औदारिक शरीर (मनुष्य तिर्यच) से अब्रह्म का सेवन 1. स्वयं करे 2. अन्य से करावे 3. अनुमोदन करे 1. मन 2. वचन और 3. काया से। इस प्रकार तीन करण का तीन योग से गुणन करने से औदारिक सम्बन्धी 9 भेद हुए, इसी प्रकार 9 भेद वैक्रिय शरीर सम्बन्धी है, कुल 18 भेद हुए। इनके विपरीत ब्रह्मचर्य के भी 18 भेद हैं। असमाधि के बीस स्थान - 1. द्रुत-द्रुत (शीघ्रातिशीघ्र) चलना 2. अप्रमार्जित चलना 3. दुष्प्रमार्जित चलना 4. अतिरिक्त शय्यासन 5. रानिक परिभाषण 6. स्थविरोपघात 7. भूतोपघात 8. ज्वलनशीलता 9. क्रोध करना 10. पृष्टमांसिकता 11. बार-बार निश्चयकारी भाषा बोलना 12. कलह उत्पन्न करना 13. शांत विवाद को उभारना 14. अकाल में स्वाध्याय करना 15. रजलिप्त हाथ-पांव से आसन-शयन करना 16. रात्रि में जोर से बोना 17. गण या गच्छ में भेद (फूट) डालना 18. क्लेशोत्पादक वचन बोलना 19. दिनभर खाना और 20. अनैषणीय लेना। (दशाश्रुतस्कन्ध दशा 1) एगवीसाय-सबला य, बावीसं परिसहा य, तेवीसए सूयगडज्झयणा, चउवीसविहा देवा, पण्णवीसाए भावणा, छव्वीसा दसाकप्पववहाराणं उद्देसणकाला, सत्तावीसा For Personal & Private Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेय-ज्ञेय और उपादेय के तेतीस बोल 293 **R RRRRRRRRRRRRRRRRRR************************************* अणगारगुणा, अट्ठावीसा आयारकप्पा, एगुणतीसा पावसूया, तीसं मोहणीयट्ठाणा, एगतीसाए सिद्धाइगुणा, बत्तीसा य जोगसंग्गहे सुरिंदा तित्तीसा आसायणा, एग्गाइयं करित्ता एगुत्तरियाए वुड्डिए तीसाओ जाव उ भवे तिगाहिया विरइपणिहीस * य एवमाइसु बहुसु ठाणेसु जिणपसत्थेसु* अवितहेसु सासयभावेसु अवट्ठिएस संकं कंखं णिराकरित्ता सहहए सासणं भगवओ अणियाणे अगारवे अलुद्धे अमूढमणवयणकायगुत्ते। शब्दार्थ - एगवीसा सबला - इक्कीस शबल दोष, बावीसं परिसहा - बाईस परीषह, तेवीसए सूयगडझयणा - सूयगडांग सूत्र के तेईस अध्ययन, चउवीसविहा देवा - चौबीस प्रकार के देव, पण्णवीसाए भावणा - पच्चीस भावना, छव्वीसा उद्देसणकाला - छब्बीस उद्देशन काल, सत्तावीसा अणगारगुणा - अनगार के सत्ताईस गुण, अट्ठवीसा आयारकप्पा - अट्ठाईस आचार-प्रकल्प, एगुणतीसा पावसूया- उनतीस पाप-श्रुत, तीसं मोहणीयट्ठाणा - तीस मोहनीय स्थान, एंगतीसाए सिद्धाइ गुणासिद्धों के इकत्तीस गुण, बत्तीसा, जोगसंग्गहे - बत्तीस योग-संग्रह, बत्तीसा सुरिदा - बत्तीस सुरेन्द्र, तित्तीसा आसायणा - तेतीस आशातना, एग्गाइयं - एक से लेकर, करित्ता एगुत्तरियाए वुड्डिए - क्रमशः एक-एक की वृद्धि करते हुए, तीसाओ जाव उ भवे तिगाहिया - यावत् तीन अधिक तीस अर्थात् तेतीस होते हैं, इन सब में तथा, विरइ पणिहीसु - निवर्त्तन योग्य स्थानों से निवृत्त होना, एवमाइसु बहुसु ठाणेसु - इस प्रकार के बहुत-से स्थानों में, जिणपसत्थेसु अवितेहसु सासयभावेसु अवट्ठिएसु - तीर्थंकरों के शासित, सत्य और शाश्वत-नित्य भाव अवस्थित-सदा समान रहने वाले हैं उनमें, संकं कंखं णिराकरित्ता - शंका और कांक्षा को हटाकर, सद्दहए सासणं भगवओ - भगवान् के शासन की श्रद्धा करना, अणियाणे - निदान-रहित, अगारवे - गारव-रहित, अलुद्धे - लोभ-रहित, अमूढमणवयणकायगुत्ते - मूर्खता-रहित और मन, वचन और शरीर से गुप्त। . यहाँ प्रतियों में पाठ भेद हैं - 'सुरिंदा' शब्द बीकानेर और पूज्य श्री घासीलालजी म. सा. वाली प्रति में 'जोग संगहे' के बाद है, किन्तु श्री ज्ञानविमलसूरि वाली प्रति और पूज्य श्री हस्तीमल जी म. सा. वाली प्रति में 'तित्तीसा आसायणा' के बाद आया है। इसमें तेतीस बोलों ने बत्तीस सुरेन्द्र और एक नरेन्द्र इस प्रकार तेतीस माने। पू० श्री हस्तीमल जी म. सा. के भावार्थ में तो 'बत्तीस या चौसठ इन्द्र' लिखा है, परन्तु अन्वयार्थ में तेतीस आशातना के बाद 'सुरेन्द्र आदि को एक आदि संख्या युक्त करके..........लिखा है। हमारी दृष्टि में 'सरिंदा' शब्द 'जोगसंगहे' के बाद और 'तित्तीसा आसायणा' के पूर्व होना चाहिए। सुरेन्द्रों में नरेन्द्र को मिलाकर तेतीस करना उचित प्रतीत नहीं होता। फिर बहुश्रुत कहें वही सत्य है। 'तिगाहिया' के स्थान पर 'एगाहिया' शब्द श्री ज्ञानविमलसूरि वाली प्रति में है जो समझ में नहीं आया। * "विरइपणिहीसु' के आगे 'अविरतीसु' - शब्द भी है। *"जिणपसाहिएसु"-पाठ भी है। For Personal & Private Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 294 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०५ **************************************************************** भावार्थ - इक्कीस सबल-दोष, बाईस परीषह, सूत्रकृतांग के तेईस अध्ययन, चौबीस प्रकार के देव, पच्चीस भावनाएं, दशा-कल्प-व्यवहार के उद्देशन काल छब्बीस, अनगार के सत्ताईस गुण, अट्ठाईस आचार-प्रकल्प, उन्नतीस पाप-श्रुत, महामोहनीय के तीस स्थान,सिद्धों के इकत्तीस गुण, बत्तीस योगसंग्रह बत्तीस देवेन्द्र और तेतीस आशातना। इस प्रकार एक से लगाकर क्रमश: एक-एक की वृद्धि करते हुए यावत् तेतीस तक के भेदों में श्रद्धान और हेयोपादेय में विवेक युक्त होकर, त्यागने योग्य स्थानों का त्याग करे और आराधने योग्य का पालन करे। इस प्रकार जिनेश्वर देवों से प्ररूपित सत्य एवं शाश्वत भाव वाले बहुत से अवस्थित स्थानों में संदेह और आकांक्षा को हटाकर निदान, गारव और लुब्धता से रहित तथा समझदारी से मन, वचन और काया से गुप्त (संयमी) बने और जिनेश्वर भगवान् के शासन में दृढ़ श्रद्धा रखे। . विवेचन - शबल दोष इक्कीस - 1. हस्त-कर्म करना 2. मैथुन-सेवन 3. रात्रि-भोजन 4. आधाकर्मी आहारादि सेवन 5. राजपिण्ड भोगना 6. क्रीत, प्रामित्य (उधार लिया) छिना हुआ, भागीदार की आज्ञा बिना और स्थान पर लाकर दिया हुआ लेना 7. प्रत्याख्यान भंग करना 8. छह महीने पूर्व गण बदलना 9. एक महीने में तीन बार नदी उतरना 10. एक महीने में तीन बार माया का सेवन करना 11. शय्यातर-पिण्ड लेना 12. जान-बूझकर हिंसा करना 13. जानकर झूठ बोलना 14. जानकर अदत्त लेना 15. जानकर सचित्त पृथ्वी पर बैठना-सोना 16. गीली और सचित्त भूमि पर बैठना 17. जानकर सचित्त रज वाली या जीव वाली, बीज, हरी आदि युक्त भूमि, शिला या पाट पर बैठना सोना या कायोत्सर्ग करना 18. जान-बूझकर कन्द, मूल, पत्रादि खाना 19. एक वर्ष में दस बार नदी उतरना वर्ष में दस बार माया का सेवन करना और 21. जानकर सचित्त हाथ पात्र आदि से दिया हुआ लेना और भोगना। (दशाश्रुतप्कन्ध 2) परीषह बाईस - 1. क्षुधा 2. पिपासा 3. शीत 4. उष्ण 5. दंशमशक 6. अचेल 7. अरति 8. स्त्री 9. चर्चा 10. निषद्या 11. शय्या 12. आक्रोश 13. वध 14. याचना 15. अलाभ 16. रोग 17. तृण-स्पर्श 18. जल्ल (मैल) 19. सत्कार-पुरस्कार 20. प्रज्ञा 21. अज्ञान (अल्प ज्ञान) और 22. दर्शन। (उत्तराध्ययन 2) देव चौबीस - 10 भवनपति, 8 व्यन्तर, 5 ज्योतिषी और 1 वैमानिक। अथवा-जिनेश्वर देव चौबीस। - भावना पच्चीस - पांच महाव्रतों की प्रत्येक की पांच-पांच भावना है। चार महाव्रत की बीस भावना का वर्णन इस सूत्र में चार अध्ययन में हो चुका और इस महाव्रत की पांच भावना आगे कही जायेगी। * अनगार के सत्ताईस गुण - 5 महाव्रतों का पालन, 5 इन्द्रियों का दमन, 4 कषाय का त्याग ये, 14 हुए। 15. भावसत्य 16. करणसत्य 17. योगसत्य 18. क्षमा 19. वैराग्य 20. मनसमाधारण 21. For Personal & Private Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 295 हेय-ज्ञेय और उपादेय के तेतीस बोल **************************************************** ********** वचन-समाधारण 22. काय समाधारण 23. ज्ञान 24. दर्शन 25. चारित्र 26. वेदना सहन और 27. मृत्यु सहन। आचार-प्रकल्प अठाईस - इसके स्वरूप में मत भेद हैं। एक मत से ये भेद इस प्रकार हैं - 1. एक मास का प्रायश्चित्त 2. एक मास पांच दिन का प्रायश्चित्त 3. एक मास दस दिन 4. एक मास पन्द्रह दिन 5. एक मास बीस दिन 6. एक मास पच्चीस दिन। इस प्रकार पांच-पांच दिन बढाते हुए पांच मास तक के प्रायश्चित्त के 25 भेद हुए। ये 25 उपघातिक हैं। २६वाँ अनुपघातिक आरोपण 27. कृत्स्न-सम्पूर्ण और 28. अकृत्सन-अपूर्ण। दूसरा मत है - आचारांग के 25 अध्ययन और निशीथ के तीन-उपघातिक, अनुपघातिक और आरोपण। 'आचार-प्रकल्प'-इसका अन्य कोई स्वरूप जानने में नहीं आया। पापश्रुत उनतीस - 1. भूमि के गुण-दोष अथवा भूकम्प आदि का फल बताने वाला शास्त्र 2. . उत्पातों का फल बताने वाले शास्त्र 3. स्वप्न-फल दर्शक 4. अन्तरिक्ष के चिह्नों का फल 5. अंगस्फूरण 6. स्वर 7. व्यंजन, तिल, मष आदि का फल 8. लक्षण शास्त्र। इन आठ प्रकार के पाप शास्त्रों के 1 सूत्र 2 वृत्ति और 3 वार्तिक इन तीन प्रकार से 24. भेद हुए। 25. विकथानुयोग 26. विद्यानुयोग 27. मंत्रानुयोग 28. योगानुयोग और 29. अन्यतीर्थिक प्रवृत्तानुयोग, विशेष विवरण समवायांग 29 की 'टीका में है। महामोहनीय स्थान तीस - 1. त्रस प्राणियों को क्रूरतापूर्वक पानी में डूबा कर मारना। . 2. श्वास रोंध कर मारना। 3. मनुष्यों या अन्य जीवों को घर में बंध कर धूएँ (या गैस) से घुटा कर मारना। 4. मस्तक पर घातक प्रहार करके मारना। 5. मस्तक पर गीला चमड़ा बांध कर मारना। 6. मनोरंजन के लिए किसी पागल को बार-बार मारना और उसकी दुर्दशा पर हँसना। 7. मायापूर्वक अपना दुराचरण ढक कर सद्गुणी बनने का दिखावा करना। 8. निर्दोष पर झूठा कलंक लगाना या अपना पाप दूसरों पर थोप कर निर्दोष बनना। 9: सत्य जानकर भी सभा में सच-झूठ मिलाकर-मिश्रित वचन बोलना। 10. राज्य का मंत्री हो और राजा का विश्वास प्राप्त कर उसकी राज्य-लक्ष्मी हस्तगत करे और रानी का भोग करे तथा राजा को राज्य-भ्रष्ट करके निन्दित करे। 11. ब्रह्मचारी नहीं होते हुए भी अपने को बाल ब्रह्मचारी जाहिर करे। 12. भोग-गृद्ध होते हुए भी ब्रह्मचारी बनने का ढोंग रच कर सम्मान प्राप्त करे। For Personal & Private Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 296 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०२ अ०५ 13. उपकारी के धन पर लुब्ध होकर हरण करे। 14. किसी स्वामी ने अथवा गांव की जनता ने एक सामान्य व्यक्ति को अपना अधिकारी या प्रतिनिधि बनाया अथवा रक्षक नियत किया और उनकी सहायता से वह विपुल सम्पत्ति का स्वामी हो गया। फिर वह अपने स्वामी या उस जनता का विश्वासघात करे। 15. अपने पालक, स्वामी, राजा, मंत्री, कलाचार्य और धर्माचार्य का घातक। 16. राष्ट्रनायक, ग्रामाधिपति, यशस्वी, परोपकारी सेठ को मारने वाला। 17. बहुजन समाज के नेता एवं लोगों के आश्रयदाता को मारने वाला। 18. संसार त्याग कर प्रवजित होने वाले या प्रव्रजित साधु तपस्वी को पतित करने वाला। 19. अनन्तज्ञानियों की निन्दा करने से। 20. सत्यमार्ग का लोपक, न्यायमार्ग का उत्थापक, अन्य को पथभ्रष्ट करने से। 21. उपकारी आचार्य-उपाध्याय की निन्दा करने से। 22. अभिमानी होकर आचार्यादि की सेवा नहीं करने से। 23. अल्पज्ञ होते हुए भी अपने को बहुश्रुत एवं रहस्यज्ञ जाहिर करने से। 24. तपस्वी नहीं होते हुए भी तपस्वी कहला कर सम्मान प्राप्त करने से। * 25. शक्ति होने पर भी रोगी की सेवा नहीं करने से। 26. हिंसाकारी एवं तीर्थभेदक प्रचार करने से। ' 27. मान-पूजा प्रतिष्ठा के लिए वशीकरणादि प्रयोग करने से। 28. देव एवं मनुष्य सम्बन्धी भोगों की तीव्र अभिलाषा रखने से। 29. देवों की ऋद्धि आदि की निंदा या निषेध करने से। 30. यश-लोलुप होकर भगवान् के समान पूजित होने के लिए देवदर्शन होने, अपने पास देव आने और उनके रहस्य जानने की झूठी डिगें हाँकने से। __(दशाश्रुतस्कन्ध 9) सिद्धों के इकत्तीस गुण - आठ कर्मों की 31 प्रकृतियों के क्षय होने से उत्पन्न इकत्तीस आत्मगुण। 5 ज्ञानावरणीय, 9 दर्शनावरणीय, 2 वेदनीय, 2 मोहनीय (दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय) 4 आयुष्य, 2 नाम (शुभ और अशुभ) 2 गोत्र और 5 अन्तराय। इनके नष्ट होने से प्रकट होने वाले ज्ञानादि 31 गुण। योग-संग्रह बत्तीस-१. आलोचना 2. निरपलाप 3. दृढ़धर्मिता 4. निराश्रित तप 5. शिक्षा 6. निष्प्रतिकर्म 7. अज्ञात तप 8. निर्लोभता 9. तितिक्षा 10. आर्जव 11. शुचि 12. सम्यग्दृष्टि 13. समाधि 14. आचार 15. विनयोपगत 16. धैर्यवान् 17. संवेग 18. प्रणिधि 19. सुविहित 20. संवर 21. दोष-निरोध 22. सर्वकाम विरक्तता 23. मूल-गुण प्रत्याख्यान 24. उत्तरगुण प्रत्याख्यान 25. सा For Personal & Private Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेय-ज्ञेय और उपादेय के तेतीस बोल 297 **************************************************************** व्युत्सर्ग 26. अप्रमाद 27. समयसाधन 28. ध्यान-संवर योग 29. मारणंतिय कष्ट सहन 30. संयोग ज्ञान 31. प्रायश्चित्त और 32. अंतिम आराधना। (समवायांग 32) __सुरेन्द्र बत्तीस - दस भवनपति के 20 इन्द्र, ज्योतिषी के 2 और वैमानिक के 10 इन्द्र, यों 32 इन्द्र हुए। आशातना तेतीस - 1. रत्नाधिक के आगे चलना। 2. बराबर चलना। 3. पीछे चलते हुए सट कर चलना। 4-6. इसी प्रकार आगे-पीछे और बराबर खड़ा रहना। 7-9. इसी प्रकार बैठना। 10. रत्नाधिक के साथ शौच जावे और एक ही पात्र में पानी हो, तो पहले शौच करे। .. 11. बाहर से लौटने पर अथवा स्वाध्याय के लिए बाहर जाने पर गुरु से पहले ही ईर्यापथिकी करे। . 12. आगत व्यक्ति से गुरु को ही पहले बात करनी है, उससे शिष्य पहले बात करे। 13. रात्रि में गुरु पुकारे, तो जागता हुआ भी नहीं बोले। 14. आहारादि लाने के बाद आलोचना पहले अन्य साधुओं के पास करे और बाद में गुरु के पास करे। 15. आहारादि ला कर पहले अन्य साधुओं को दिखावे और रत्नाधिक को बाद में दिखावे। 16. आहारादि के लिए अन्य साधुओं को निमन्त्रित करने के बाद रत्नाधिक को निमन्त्रित करे। . 17. रत्नाधिक को पूछे बिना ही दूसरे साधुओं को उनकी इच्छानुसार आहार दे। 18. रत्नाधिक के साथ आहार करने पर अच्छी और मनोज्ञ वस्तु शीघ्रतापूर्वक और अधिक खावे। 19. रत्नाधिक के पुकारने पर सुना-अनसुना करे। 20. गुरु के पुकारने पर आसन पर बैठे हुए ही उत्तर दे। 21. गुरु के पुकारने पर प्रश्न पूछे कि 'क्या कहते हो।' 22. गुरु के तुच्छतापूर्वक 'तू''तुम' बोले। . 23. गुरु को कठोर वचनों से बोले और आवश्यकता से अधिक वचन बोले। 24. अपमान करने के लिए गुरु के वचन ही उन्हें सुनावें। 25. धर्म-कथा कहते समय गुरु को टोंके। 26. धर्म-कथा के बीच में भूल बतावे। 27. गुरु का धर्मोपदेश उपेक्षापूर्वक सुने। 28. गुरु का धर्मोपदेश चल रहा हो तब परिषद् भंग करने का प्रयत्न करे। For Personal & Private Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 298 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०५ **************************************************************** 29. गुरु के उपदेश को रोक कर स्वयं बोलने लगे। 30. गुरु की कही संक्षिप्त बात को उस सभा में ही बार-बार या विस्तार से कहने लगे।... 31. रत्नाधिक के आसन-शय्या को पांवों से ठुकराने पर क्षमा नहीं माँगे। 32. गुरु के आसन-शय्या पर खड़ा रहे, बैठे या सोवे। 33. गुरु से ऊँचे या समान आसन पर खड़ा रहे, बैठे या सोवे तो आशातना लगे। (दशाश्रुतस्कन्ध 3) __ धर्म वृक्ष का स्वरूप जो सो वीरवर-वयण-विरइ-पवित्थर-बहुविहप्पयारो सम्मत्त-विसुद्ध-मूलो धिइकंदो विणयवेइओ णिग्गय-तिल्लोक्क-विउलजस-णिविड-पीण-पवरसुजायखंधो पंचमहब्बय-विसालसालो भावणतयंतज्झाण सुहजोग-णाणपल्लवरंकुरधरो बहुगुणकुसुमसमिद्धो सील-सुगंधो अणण्हवफलो पुणो य मोक्खवरबीजसारो मंदरगिरि-सिहर-चूलिआ इव इमस्स मोक्ख-वर-मुत्तिमग्गस्स सिहरभूओ संवरवरपायवो चरिमं संवरदारं। . शब्दार्थ - वीरवर-वयण-विरइ-पवित्थर-बहुविहप्पयारो - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के वचन से की हुई परिग्रह निवृत्ति के विस्तार से जो धर्म-वृक्ष उत्पन्न हुआ वह अनेक प्रकार का है, सम्मत्त विसुद्धमूलो - सम्यकत्व रूप विशुद्ध मूल वाला, धिइकंदो - धैर्य रूपी कंद, विणयवेइओ - . विनय रूप वेदिका, णिग्गय-तिलोक्क विउल जस-णिविड पीणपवर-सुजाय-खंधो - तीनों लोकों में व्यापक विशाल यश रूप सघन मोटा और लम्बाई युक्त बड़े स्कन्ध वाला, पंचमहव्वय-विसालसालोपांच महाव्रत रूपी विशाल शाखा वाला, भावणतयंत झाणसुहजोगणाणपल्लवरंकुरधरो - अनित्यता आदि भावना रूप त्वचा और धर्म-ध्यान एवं शुभ योग तथा ज्ञान रूप प्रधान पल्लव के अंकुरों को धारण करने वाला, बहुगुणकुसुमसमिद्धो - बहुत-से उत्तम गुण रूपी फूलों से समृद्ध, सीलसुंगधो - शील के सुगन्ध वाला, अणण्हवफलो - अनाश्रव रूप फल वाला, मोक्ख-वरबीजसारो - मोक्ष रूप उत्तम बीज के सार वाला, मंदरगिरि-सिहर-चूलिआ - मन्दराचल पर्वत के शिखर की चोटी के, इव - समान, इमस्स - उसका, मोक्खवर-मुत्तिमग्गस्स - मोक्ष में जाने के लिए निर्लोभिता रूपी जो मार्ग है, सिहरभूओ - शिखर रूप, संवरवरपायवो - अपरिग्रह के उत्तम संवर रूप वृक्ष, चरिमं संवरदारं - अन्तिम संवरद्वार। भावार्थ - श्रमण भगवान् महावीर की आज्ञा से, परिग्रह से सर्वथा विरत होकर धर्म रूपी वृक्ष का आरोपण करना है। यह धर्मवृक्ष अत्यन्त विस्तृत है और इसकी भेद रूप शाखाएं बहुत हैं। इस अपरिग्रह रूपी धर्म वृक्ष का सम्यग् दर्शन रूपी विशुद्ध मूल है। धृति रूप कन्द है, विनय रूपी वेदिका से धर्मवृक्ष सुशोभित है। तीन लोक में व्याप्त यश, इस धर्मवृक्ष का स्थूल पुष्ट एवं सुदृढ़ स्कन्ध है। पांच महाव्रत For Personal & Private Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकल्पनीय-अनाचरणीय 299 **************************************************************** रूपी विशाल शाखाएं हैं। अनित्यादि भावनाएँ इस वृक्ष की त्वचा (छाल) धर्म-ध्यान तथा मन, वचन और काया के शुभ योग और सम्यक् ज्ञान रूपी अंकुरित पल्लव हैं। अनेक प्रकार के गुण रूपी कुसुमों से यह धर्मवृक्ष समृद्ध है। धर्मवृक्ष के गुण रूपी पुष्पों से निकली हुई शील रूपी सुगन्ध से समस्त वातावरण सुगन्धित हो रहा है। संवर रूपी फल से धर्मवृक्ष समृद्ध है। मोक्ष रूपी बीज, धर्म-वृक्ष का परमोत्तम सार है। मोक्ष रूपी सुमेरु पर्वत के शिखर की चूलिका पर पहुँचने के लिए अपरिग्रह महाव्रतनिर्लोभता-सुमार्ग है। अपरिग्रह महाव्रत इस संवर रूपी.धर्मवृक्ष के शिखरभूत हैं। यह महाव्रत संवर धर्म का अन्तिम द्वार है। __विवेचन - इस सूत्र में सूत्रकार महर्षि ने अपरिग्रह व्रत अथवा संवर-धर्म को वृक्ष की सुन्दर उपमा से उपमित किया है। धर्मरूपी कल्पवृक्ष का मूल सम्यग् दर्शन बतलाया है। सम्यग् दर्शन रूपी मूल से प्रारम्भ करके मोक्ष रूपी सार पदार्थ पर्यन्त अन्तिम परिणाम बड़ी उत्तमता के साथ प्रतिपादन किया है। बिना सम्यग् दर्शन रूपी मूल के न तो धर्म रूपी कल्पवृक्ष उत्पन्न हो सकता है और न पत्र, पुष्प यावत् मुक्ति रूपी सार पदार्थ मिल सकता है। नन्दी सूत्र में धर्म को सुदर्शन पर्वत की उपमा देते हुए सम्यग् दर्शन को पर्वतराज की पीठिका (नीव) के समान आधारभूत बतलाया है। सम्यक्त्व-संवर रूप मूल में विकसित होता हुआ धर्मवृक्ष, मुक्ति रूपी सम्पूर्ण संवर में परिपूर्ण होकर शाश्वत हो जाता है। . अकल्पनीय-अनाचरणीय ... जत्थ ण कप्पड़ गामागर-णगर-खेड-कब्बड-मंडब-दोणमुह-पट्टणा-समगयं च किंचि अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा तसथावरकायदव्वजायं मणसा वि परिघेत्तुं ण हिरण्ण-सुवण्ण-खेत्तवत्थु ण दासी-दास-भयग-पेस-हय-गय-गवेलगं च ण जाणजुग्ग-सयणासणाई म छत्तगं ण कुंडिया ण उवाणहा ण पेहुण-वीयण-तालियंटगाण या वि अय-तउय-तंब-सीसग-कंस-रयय-जाय-रूव-मणिमुत्ताहार-पुडग-संख-दंतमणि-सिंग-सेल-काय-वर-चेल-चम्मपत्ताई महरिहाई परस्स अज्झोववायलोहजणणाइं परियड्डेउं गुणवओ ण या वि पुष्फ-फल-कंद-मूलाइयाइं सणसत्तरसाइं सव्वधण्णाई तिहिं वि जोगेहिं परिघेत्तु ओसह-भेसज्ज-भोयणट्टयाए संजएणं किं कारणं? अपरिमियणाणदंसणधरेहिं सील-गुण-विणय-तव-संजमणायगेहिं तित्थयरेही सव्वजगज्जीववच्छलेहिं तिलोयमहिएहिं जिणवरिंदेहिं एस जोणी जंगमाणं दिट्ठाण कप्पड़ जोणिसमुच्छेओ त्ति तेण वजंति समणसीहा। For Personal & Private Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 300 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०२ अ०५ **************************************************************** शब्दार्थ - जत्थ - जहाँ, ण कप्पइ - नहीं कल्पता, गामागर-णगर-खेड-कब्बड-मडंबदोणमुह-पट्टणासमगयं - ग्राम, आकर, नगर, खेड़, कर्बट, मडंब, द्रोणमुख, पत्तन और आश्रम में पड़ा हुआ, किंचि - कुछ भी पदार्थ, अप्पं वा बहुं वा - मूल्य से अल्प हो या बहुत, अणुं वा थूलं वा - प्रमाण से छोटा हो या बड़ा, तस-थावर-काय-दव्वजायं - वह द्रव्य त्रसकाय रूप हो या स्थावरकाय रूप हो, मणसा वि - मन से भी, परिघेत्तुं - ग्रहण करने का, ण हिरण्ण-सुवण्ण-खेतवत्थु - चांदी, सोना, क्षेत्र और वास्तु-गृह भी ग्रहण करना नहीं कल्पता, ण दासीदास-भयग-पेसहयगयगवेलगं - दासी, दास, भृत्य, प्रेष्य, घोड़ा, हाथी और बैल आदि भी ग्रहण करना नहीं कल्पता, ण जाण-जुग्गसयणासणाइ ण छत्तगं - रथ, डोली, शयन आदि और छत्र ग्रहण करना भी नहीं, कल्पता, ण कुंडिया ण उवाणहा - कमण्डलू और जूते भी नहीं, ण पेहुण-वीयण-तालियंटगा - मोर-पिच्छी, बांस आदि का बीजना और तालपत्र के पंखों का ग्रहण करना भी नहीं कल्पता, ण यावि-अय-तउय-तंबसीसगकंस-रययजायसव - और लोहा/बंग, ताम्र, सीसा, कास्य, चांदी और सोना, मणिमुत्ताहार-पुडगसंखदंत-मणि-सिंग-सेल-काय-वरचेल चम्म-पत्ताइं महरिहाई - मणि, शंख, दन्तमणि, प्रधान दाँत, सींग, पाषाण, उत्तम काँच, वस्त्र और चर्मपात्र भी ग्रहण करना नहीं कल्पता, परस्स - दूसरे के हृदय में, अज्झोववाय - इच्छा उत्पन्न होना, लोह जणणाई - लोभ को उत्पन्न करने वालों, परियड्डेउं - इन्हें ग्रहण करने की, गुणवओ - अपरिग्रह रूप गुण वाले को योग्य नहीं, या वि पुष्फ-फल-कंद-मुलाइयाई - और पुष्प, फल, कन्द, मूल आदि तथा, सणसत्तरसाई - सण नामक धान जिनमें सत्तरहवाँ है ऐसे, सव्व-धण्णाइं - सभी धान्यों को भी, तिहिं वि जोगेहिं परिघेत्तुं - मन, वचन और काय रूप तीनों योगों से ग्रहण नहीं करे। ओसह-भेसज-भोयणट्ठयाए - औषध, भेषज्य और भोजन के लिए, संजएणं - संयति पुरुष के लिए, किं कारणं - इसका क्या कारण है? अपरिमियणाणदंसणधरेहिं - अपरिमित ज्ञान तथा दर्शन को धारण करने वाले, सीलगुण-विणय-तव-संजमणायगेहिं - शील, गुण, अहिंसा आदि विनय और तप-संयम की उन्नति करने वाले, तित्थयरेहिं - चार तीर्थों की स्थापना करने वाले, सव्वजगजीववच्छलेहिं - जगत् भर के जीवों के वत्सल, तिलोंयमहिएहिं - तीनों लोकों द्वारा पूजित, जिणवरिदेहिं - जिनेन्द्र देव ने, एसजोणी - यह पुष्प फल रूप योनि-उत्पत्ति स्थान, जंगमाणंत्रस जीवों को, दिट्ठा - देखा है, ण कप्पइ - मुनियों को नहीं कल्पता, जोणि समुच्छेओ - योनि का विनाश करना, तेण - इस कारण, वज्जति - वर्जन करते हैं, समणसीहा - श्रेष्ठ मुनि। भावार्थ - अपरिग्रह महाव्रत के धारक को ग्राम, आकर, नगर, खेड, कर्बट, मण्डप, द्रोणमुख, पत्तन और आश्रम में रही हुई कोई भी वस्तु लेना नहीं कल्पता है। वह वस्तु अल्प-मूल्य वाली हो या बहुमूल्य वाली, छोटी हो या बड़ी, त्रस रूप हो या स्थावर काय रूप, उसे लेने की साधु मन से भी इच्छा नहीं करे। चांदी, सोना, क्षेत्र, वास्तु, दास, दासी, भृत्स, प्रेष्य (बाहर भेजा जाने वाला सेवक) घोड़ा, हाथी, गाय, बकरियें, भेड़ आदि पालकी, रथ, शयन, आसन, छत्र, कमण्डलु, पगरखी, मोरपंखी, . For Personal & Private Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकल्पनीय-अनाचरणीय 301 **************************************************************** तालपंखा, लोहा, राँगा, ताँबा, शीशा, कांसा, चांदी, सोना, मणि, मोती वाले शीप, शंख, उत्तम (हाथी आदि के) दाँत, पत्थर, कांच, वस्त्र, चर्म आदि बहुमूल्य वस्तुएँ और इनसे बने हुए पात्र नहीं रखें। ये बहुमूल्य वस्तुएँ दूसरों के मन में लोभ उत्पन्न करती हैं और लोग इन्हें प्राप्त करने की इच्छा करते हैं। इसलिए गुणवान् साधु, ऐसी वस्तुएँ नहीं लेवे। इसी प्रकार पुष्प, फल, कन्द, मूल आदि और सण नामक सत्तरहवां धान्य एवं सभी प्रकार के धान्य, औषध भेषज तथा भोजन के लिए इन वस्तुओं का लेना और संग्रह रखना, निर्ग्रन्थों को मन, वचन और काया रूप तीनों योगों से नहीं कल्पता है। क्यों नहीं कल्पता है, क्या कारण है नहीं कल्पने का'? अपरिमित (अनन्त) ज्ञान-दर्शन के धारक, शील, गुण, विनय, तप और संयम के नायक, जगत् के समस्त जीवों के वत्सल, त्रिलोक-पूज्य तीर्थंकर जिनवरेन्द्र ने इन त्रस-स्थावर जीवों की योनि (उत्पत्ति) स्थान देखा है। उन जीवों के खेद को जाना है। इन जीवों की योनि का विनाश करना निषिद्ध है। अनाचरणीय है। श्रमणसिंह ने सजीव वस्तुओं को भोजनादि कार्य में लेना वर्जित किया है। - जंवि य ओयणकुम्मास-गंज-तप्पण-मंथु-भुजिय-पलल-सूव-सक्कुलि-वेढिमवरसरक-चुण्ण-कोसग-पिंड-सिहरिणि-वट्ट-मोयग-खीर-दहि-सप्पि-णवणीय-तेल्लगुड-खंड-मच्छंडिय-महु-मज-मंस-खजग-वंजण-विहिमाइयं पणीयं उवस्सए परघरे व रण्णे ण कप्पड़ तं वि सण्णिहिं काउं सुविहिया णं। - शब्दार्थ - ओयण - ओदन-भात, कुम्मास - उड़द, गंज - एक प्रकार का धान्य, तप्पण - सत्तू, मंथू- बोर का चूर्ण, भुजिय - भूना हुआ धान्य, पलल - तिल के फूणों का चूर्ण, सूव - दाल, क्कुलि - तिलपपड़ी, वेडिम - वेढमी पूरी, वरसरक - एक प्रकार का धान्य, चुण्णकोसग - चूर्णकोशक, पिंड.- गुड़ादि का पिंड, सिहरिणि - शिखरिणी-गुड़ मिश्रित दही, वट्टग - बड़ा, मोयग - मोदक-लड्डु, खीर - क्षीर, दही - दही, सप्पि - घृत, णवणीय - मक्खन, तेल्ल - तेल, गुड - गुड़, खंड - खाँड, मच्छंडिए - मिश्री, महु - मधु, मज - मद्य, मंस - मांस, खजग - खाजे, वंजणविहिमाइयं - साग आदि, पणीयं - प्रणीत आहार, उवस्सए - उपाश्रय में, परघरे - दूसरों के घर में, वा रणे - अथवा वन में, ण कप्पड़ - नहीं कल्पता है, सण्णिहिं काउं - संचय कर रखना, सुविहियाणं - श्रेष्ठ साधुओं को। भावार्थ - परिग्रह-त्याग महाव्रत के पाक साधु को आगे कहीं जाने वाली वस्तुओं का संग्रह नहीं करना चाहिए। यथा-ओदन (चावल) कुम्मास (कुल्माष-उड़द) गंज (धान्य विशेष) सत्तू, बोर का चूर्ण, भूना हुआ चना आदि धान्य, पलल (तिलपिष्ट), दालं, तिलपपड़ी, वेढिम पूरी, वरसरक (खाद्य विशेष) चूर्ण-कोशख (कचोड़ी जैसा) पिण्ड (गुड़ आदि) शिखरिनी (गुड़ मिश्रित दही या श्रीखण्ड) वट्टक (बड़ा) मोदक, क्षीर (दूध), दही, घृत, मक्खन, तेल, गुड़, खाँडसारी, मिश्री, मधु, मद्य, मांस, For Personal & Private Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 302 - प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०५ **************************************************************** खाजा, शाक आदि तथा प्रणीत आहार आदि का अपने उपाश्रय में या दूसरे के घर में अथवा वनप्रदेश में संग्रह करके रखना, सुव्रती साधुओं को नहीं कल्पता। जं वि य उद्दिट्ट-ठविय-रइयग-पज्जवजायं पकिण्णं पाउयरण-पामिच्चं मीसगजायं कीयगडं पाहुडं च दाणट्ठपुण्णपगडं समणवणीमगट्ठयाए वा कयं पच्छाकम्मं पुरेकम्मं णिइकम्मं मक्खियं अइरित्तं मोहरं चेव सयंग्गहमाहडं मट्टिउवलित्तं अच्छेजं चेव अणीसटुं जं तं तिहिसु जण्णेसु उस्सवेसु य अंतो वा बहिं वा होज समणट्ठयाए ठवियं हिंसा-सावजसंपउत्तं ण कप्पइ तं वि य परिघेत्तुं। . उहित - उद्दिष्ट-साध के उद्देश्य से बनाया हुआ। ठविय - स्थापित-साधु के लिए रखा हुआ। रइयगं - रचित-फिर से बनाया-बिखरे हुए चूरे को लड्डु जैसा बनाया हुआ। पजवजायं - पर्यवजात-साधु के निमित्त एक पर्याय से दूसरी पर्याय में बदला हुआ। पकिण्ण - प्रकीर्ण-जिसमें से बूंद या कण गिर रहे हों ऐसा गिराते हुए दिया जाता हुआ। पाउरयण - प्रादुष्करण-अन्धेरे में रहे हुए पदार्थ को दीपक आदि से प्रकाशित किया हुआ। पामिच्चं - प्रामित्य-साधु को देने के लिए उधार लाया हुआ। मीसगजायं - मिश्रजात-साधु और गृहस्थ दोनों के लिए सम्मिलित बना हुआ। कीयगडं - क्रीत-साधु के निमित्त खरीदा हुआ.। पाहुडं - प्राभृत-साधु के आगमन की संभावना से मेहमानों को पहले या पीछे भोजन कराना। दाणट्ठा - दान देने के लिए बनाया हुआ आहारादि। पुण्णपगडं - पुण्य के लिए बनाया हुआ।. समणवणीमगट्ठयाए कयं - शाक्यादि भिक्षु और गरीब भिखारियों के लिए बनाया हुआ। पच्छाकम्मे - पश्चात् कर्म-आहारादि देने के बाद हाथ अथवा पात्र धोने आदि से आरम्भ की संभावना हो। पूरेकम्मं - पूर:कर्म-देने के पूर्व हाथ आदि धोने या अन्य प्रकार से दोष लगावे। णिइकम्मं - नैत्यिक कर्म-सदैव एक घर से लेना। मक्खियं - मेक्षित-सचित्त जल आदि से संस्पृष्ट। अइरित्तं - अतिरिक्त-शास्त्र में बताये हुए प्रमाण से अधिक भोजन करना। मोहरं - मौखर्य-दाता की प्रशंसा करने से मिला हुआ आहारादि। सयग्गहं - स्वयं ग्रहण-दाता की इच्छा बिना अपने-आप ग्रहण किया हुआ। आहडं - आहृत-साधु को दान देने के लिए सामने लाया हुआ। For Personal & Private Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * ** * ** * * * * * कल्पनीय-आचरणीय 303 ******************************************** मट्टिउवलित्तं - मृतिकोपलिप्त-मिट्टी आदि से लीपकर बन्द किये हुए बरतन का वह लेप तोड़कर दिया हुआ। अच्छेज्जं - आच्छेद्य-नौकर-चाकर आदि से छीनकर दिया हुआ। तिहिसु - तिथि-मदन-त्रयोदशी आदि तिथियों में। जण्णेसु - नागपूजा आदि यज्ञों में। उस्सवेस- इन्द्र महोत्सवों आदि उत्सवों के समय। जं वि- जो आहार। अंतो - घर के अन्दर / बहिं - बाहर तैयार करके। . समणट्ठयाए - साधु के लिए। ठवियं - रखा जाता है। हिंसासावजसंपउत्तं - जो वस्तु हिंसा रूपी सावध कार्य से युक्त है। तं वि - ऐसी उपरोक्त वस्तु को। परिघेत्तु - ग्रहण करना। ण कप्पइ - साधु को नहीं कल्पता। भावार्थ - जो आहारादि साधु के लिए बनाया हो, साधु के लिए स्थापित करके रखा हो, बिखरे हुए चूरे को पिण्डभूत या लडु जैसा बनाया हो, आकृति आदि पलट कर रखा हो, जिसमें से रस की बूंद या कण गिर रहे हों, अन्धरे में रही हुई वस्तु को दीपक आदि से प्रकाशित किया हो, साधु के लिए उधार ली हो, साधु और गृहस्थ के लिए सम्मिलित बनाया हो, खरीदा हो, साधु की सुविधा के लिए मेहमानों को पहले या पीछे भोजन कराने की व्यवस्था हो, दान देने के लिए बनाई हुई वस्तु, पुण्यार्थ देने की वस्तु, शाक्यादि भिक्षु अथवा कंगाल या भिखारियों के लिए बनाया हुआ, देने के बाद हाथ पात्र आदि धोने रूप दोष लगने वाला हो, पहले ही हाथ आदि धोकर दे, सदैव एक घर से लेना, सचित्त जल आदि से स्पृष्ट, प्रमाण से अधिक, दाता की प्रशंसा करके प्राप्त करना, दाता की इच्छा के बिना अपने-आप ग्रहण करना, साधु के लिए सम्मुख लाया हुआ, मिट्टी आदि का लेप तोड़ कर दिया जाने वाला, किसी से छीन कर लिया हुआ, महत्त्वपूर्ण मानी गई तिथियों में, यज्ञ में और उत्सव में, जो आहारादि घर के भीतर या बाहर तैयार करके साधु के लिए रखा जाये और जो हिंसादि सावद्य कार्य से युक्त हो, उसे ग्रहण करना साधु के लिए निषिद्ध है। कल्पनीय - आचरणीय * अह केरिसयं पुणाइ कप्पइ? जं तं एक्कारस-पिंडवायसुद्धं किणण-हणणपयण-कय-कारियाणुमोयण-णवकोडीहिं सुपरिसुद्धं दसहिं य दोसेहिं विप्पमुक्कं For Personal & Private Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 304 . प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०५ - **************************************************************** उग्गम-उप्पायणेसणाएं सुद्धं वरगय-चुयचवियचत्तदेहं च फासुयं वरगय-संजोगमणिंगालं विगयधूमं छट्ठाण-णिमित्तं छक्काय-परिरक्खणट्ठा हणि हणि फासुएणभिक्खेणं वट्टियव्वं। शब्दार्थ - अह - अब, केरिसयं - कैसा आहार ग्रहण करना, पुणाइ - पुनः, कप्पइ - कल्पता है, जं तं - जो, एक्कारस पिंडवायसुद्धं - ग्यारह पिंडपात से शुद्ध, किणण-हणण-पयण - खरीदना, हिंसा करना और पकाना, कयकारियाणुमोयण - कृत, कारित और अनुमोदित, णवकोडिहिं सुपरिसुद्धं - नव कोटियों से पूर्ण शुद्ध, दसहि य दोसेहिं विप्पमुक्कं - एषणा के दस दोषों से रहित, उग्गम-उप्पायणेसणाए सुद्धं - उद्गम और उत्पादन रूप सोलह-सोलह दोषों से शुद्ध, ववगयचयचविय-चत्तदेहं - जिसमें से जीव चव गये हैं. फासयं - प्रासक. ववगय-संजोगमणिंगालं - संयोग और इंगाल दोष से रहित, विगय धूम - धूम दोष से रहित, छट्ठाण णिमित्तं - छह कारणों के निमित्त वाला, छक्कायपरिरक्खणट्ठा - छह काय के जीवों की रक्षा के लिए, हणि हणि फासुएणभिक्खेणं वट्टियव्वं - प्रतिदिन निर्दोष भिक्षा से निर्वाह करना चाहिए। ___ भावार्थ - अकल्पनीय आहारादि के त्याग का उल्लेख करने के बाद कल्पनीय आहारादि का विधान करते हुए सूत्रकार बतलाते हैं कि - अब किस प्रकार का आहारादि ग्रहण करने योग्य है? जो आहार ग्यारह प्रकार से पिण्डपात से विशुद्ध हो, नव-कोटि से परिशुद्ध हो, दस दोषों से रहित हो, उद्गम, उत्पादन और एषणा के दोषों से वंचित होकर शुद्ध निर्दोष हो, निर्जीव, चेतना-रहित-प्रासुक हो। मिश्र भी नहीं हो, परिभोगैषणा संयोजना, अंगार और धूम दोषों से रहित और छह कारण से लिया जाता हो, तो ऐसा आहार कल्पनीय है। छह काय जीवों की रक्षा के लिए साधु को प्रतिदिन निर्दोष भिक्षा से प्राण धारण करना चाहिए। विवेचन - आहारादि के दोषों को टालकर निर्दोष आहारादि लेने का निर्देश इस सूत्र से किया गया है। इस सूत्र में थोड़े शब्दों में ही विशिष्ट नियमों का सूचन किया है। जैसे - ___ ग्यारह प्रकार के पिण्डपात से विशुद्ध - आचारांग सूत्र श्रु० 2 के 'पिण्डैषणा' नामक प्रथम अध्ययन के ग्यारह उद्देशकों में आहार की जो विधि बताई है, उसके अनुसार निर्दोष आहार लेना। . नौ कोटि परिशुद्ध - दस प्रकार के दोषों से मुक्त, एषणा उद्गम और उत्पादन दोषों से रहित। इनका स्वरूप पृ० 219 पर है, वहाँ से देख लेना चाहिए? संयोग - संयोजना दोष-स्वाद बढ़ाने के लिए लाई हुई भिन्न भोज्य-वस्तु में वस्तु को मिलाना, जैसे-दाल आदि में नींबू आदि का आचार, मसाला आदि। ___अंगार-दोष - रस-लोलुप होकर निर्दोष आहार को भी आसक्तिपूर्वक खाना। इससे संयम में आग लग जाती है। - For Personal & Private Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 305 कल्पनीय-आचरणीय **************************************************************** धूम-दोष - स्वाद-रहित आहार को खेदपूर्वक तथा दाता की निन्दा करते हुए खाना। मूल में इन तीन दोषों का उल्लेख है। उपलक्षण से यहाँ - प्रमाण से अधिक खाने और अकारण खाने के दो दोष और मिलाकर परिभोगैषणा के पांच दोष भी टालने चाहिए। छह स्थान निमित्त - आहार करने के छह कारण ठाणांग 6 और उत्तराध्ययन अ० 26 में इस प्रकार बताये हैं - 1. क्षुधा-वेदनीय का शमन करने के लिए 2. वैयावृत्य करने के लिए 3. ईर्या-समिति का पालन करने के लिए 4. संयम-पालन करने के लिए 5. अपने प्राणों की रक्षा के लिए और 6. धर्म-चिंतन के लिए। जं वि य समणस्स सुविहियस्स उ रोगायंके बहुप्पकारंमि समुप्पण्णे वायाहिगपित्तसिंभअइरित्तकुविय-तहसण्णिवायजाए व उदय-पत्ते उज्जल-बल-विउलतिउल * कक्खडपगाढदुक्खे असुभकडुयफरुसे चंडफलविवागे महब्भये जीवियंतकरणे सव्वसरीरपरितावणकरे ण कप्पइ तारिसे वि तह अप्पणो परस्स वा ओसहभेसज्जं भत्तपाणं चतं पि सण्णिहिकयं * / शब्दार्थ - जं - जो, वि य - यदि, समणस्स सुविहियस्स - सुव्रतधारी श्रमण के, रोगायंके - रोग या आतंक, बहुप्पकारंमि - अनेक प्रकार के समुप्पण्णे - उत्पन्न हो जाये, वायाहिग - वात की अधिकता हो, पित्त-सिंभ-अइरित्तकुविय - पित्त और कफ अत्यन्त कुपित हो जायें, तह - तथा, सण्णिवायजाए - सन्निपात हो जाय, उदयपत्ते.- उदय प्राप्त, उज्जल-बल-विउल-तिउल-कक्खडपगाढ-दुक्खे - सुख से सर्वथा रहित और महान् वेग से विशेष प्रमाण में कठोर और मन वचन और काया के तीनों योग से पूर्ण प्रगाढ़ दुःख में, असुभकडुय-फरुसे - अशुभ और कटु-कठोर स्पर्शयुक्त, चंडफलविवागे - जिसका फलविपाक भयंकर है, महब्भये - महान् भयकारी, जीवियंतकरणे - . जीवन का अन्त करने वाला, सव्वसरीरपरितावणकरे - सारे शरीर में परितापना उत्पन्न करने वाला, ण कप्पई - नहीं कल्पता, तारिसे वि - ऐसे रोगातंक में भी, अप्पणो - अपने, परस्स वा - या दूसरे के लिए, ओसहभेसजं - औषध-भैषज्य, भत्तपाणं - आहार-पानी, तं पि सण्णिहिकयं - यह सब संग्रह करके रखना। भावार्थ - यदि इस उत्तम व्रत को धारण करने वाले सुश्रमण के शरीर में किसी एक प्रकार का या अनेक प्रकार के भयंकर रोग उत्पन्न हो जाये, वात, पित्त और कफ उग्ररूप से कुपित हो जाये और *'तिउल' शब्द न तो शास्त्रोद्धार समिति की प्रति में है, न ज्ञानविमलसूरि वाली प्रति में, किन्तु इसकी टीका में इस शब्द का अर्थ दिया है और पू० श्री हस्तीमल जी म. सा. सम्पादिक मूलपाठ में भी यह शब्द है। * बीकानेर वाली प्रति में यह पूरा पाठ ही नहीं है। कदाचित् भूल से छूट गया हो। For Personal & Private Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 306 ********* प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०.२ अ०५ *************************** सन्निपात होकर असह्य, भयंकर एवं प्रगाढ़ वेदना भड़के उठे, जिससे जीवन का अन्त निकट दिखाई दे और समस्त शरीर उग्र परितापना से पीड़ित हो जाये, तो भी उस श्रमण को अपने लिए या वैसे किसी भयंकर रोगी श्रमण के लिए आहार-पानी और औषध-भेषज्य संग्रह करके नहीं रखना चाहिए। . विवेचन - अपरिग्रह महाव्रतधारी श्रमण को अपना व्रत सुरक्षित रखने के लिए खाना पानादि ऐसी कोई भी वस्तु जो उसी दिन काम में लेने की हो, भविष्य में काम में लेने के लिए संग्रह करके नहीं रखनी चाहिए, भले ही भयंकर रोग उत्पन्न हो जाये और मृत्यु हो जाने जैसी देशा हो जाये, ऐसी विकट स्थिति में भी आहार-पथ्य, पानी या औषधि, सूर्यास्त के बाद नहीं रखनी चाहिए। इस प्रकार जो अपने महाव्रत को सुरक्षित रखते हैं, उनका संयम निर्दोष होता है। साधु के उपकरण जं वि य समणस्स सुविहियस्स उ पडिग्गहधारिस्स भवइ भायणभंडोवहिउवगरणं पडिग्गहो पायबंधणं पायकेसरिया पायठवणं य पडलाइं तिण्णेव रयत्ताणं च गोच्छओ तिण्णेव य पच्छागा रयहरण चोल-पट्टग-मुहणंतगमाइयं एवं वि य संजमस्सं . उववूहणट्ठयाए वायायव-दंस-मसग-सीय-परिक्खणट्ठयाए उवगरणं रागदोसरहियं परिहरियव्वं, संजएण णिच्चं पडिलेहण-पप्फोडण-पमजणाए अहो य राओ य अप्पमत्तेण होइ सययं णिक्खिवियव्वं च गिहियव्वं च भायणभंडोवहि उवगरणं। .. ... शब्दार्थ - जं वि य - और जो भी, समणस्स सुविहियस्स - सुविहित साधु के, पडिग्गहधारिस्सपात्रादि रखने वाले, भवइ - होता है, भायणभंडोवहिउवगरणं भोजन-पात्र भाण्ड आदि उपधि रूप उपकरण, पडिग्गहो - पात्र, पायबंधण - पात्र बांधने का कपड़ा, पायकेसरिया - पात्र-केसरिका-पात्र पोंछने का वस्त्र, पायठवणं - पात्र को स्थापित करने का वस्त्र का टुकड़ा, पडलाई - पात्र ढकने का वस्त्र, तिण्णेव - ये तीन, रयत्ताणं - रजस्त्राण-पात्र लपेटने का वस्त्र, गोच्छओ - गोच्छक-पात्र वस्त्र आदि प्रमार्जन करने के लिए पूजनी, तिण्णेव - तीन, य - और, पच्छागा - पछेवड़ी-चादर, रयहरण - रजोहरण, चोलपट्टग - चोलपट्टा, मुहणंतगं - मुखवस्त्रिका, आइयं - आदि, एयं वि - ये सभी, संजमस्स-संयम की, उववूहणट्ठयाए - उपबृंहण अर्थात् वृद्धि के लिए, वायायवदंसमसगसीयं परिरक्खणट्ठयाए - वायु, धूप, डांस, मच्छर और शीत से रक्षा के लिए, रागदोसरहियं - राग-द्वेष रहित होकर, संजएण - साधु को, उवगरणं - उपकरणों का, परिहरियव्वं - उपभोग करना चाहिए, णिच्चं - सदा, पहिलेहणपप्फोडणपमज्जणाए - पडिलेहण, प्रस्फोटन और प्रमार्जन रूप क्रिया में, सययं - सतत, अप्पमत्तेण - प्रमाद-रहित होकर, अहो य राओ - दिन-रात, भायण-भंडोवहिउवगरण - भाजन-पात्र, भांड और उपधि रूप उपकरणों को, णिक्खियव्वं - रखना चाहिए, गिहियव्वं होइ - ग्रहण करना चाहिए। For Personal & Private Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 307 ************************************** साधु के उपकरण ************************* भावार्थ - निष्ठा के साथ विधिपूर्वक संयम का पालन करने वाले पात्रधारी श्रमणों के लिए जो भाजन और भंड-उपधि तथा उपकरण होते हैं, वे इस प्रकार हैं - पात्र, पात्र-बन्धन, पात्र-केसरिका, पात्र-स्थापन, तीन पटल, रजस्त्राण, गोच्छक, तीन चादरें, रजोहरण, चोलपट्टक और मुखवस्त्रिका आदि। ये सभी उपकरण संयम की वृद्धि के लिए ग्रहण करने चाहिए तथा राग-द्वेष से रहित होकर वायु, धूप, डांस, मच्छर और शीत से रक्षण पाने के लिए इन उपकरणों को रखना चाहिए। साधु को अपने उपकरणों का सदैव प्रतिलेखन, प्रस्फोटन और प्रमार्जन करना चाहिए और सतत अप्रमत्त रह कर भण्डोपकरण को रखना और ग्रहण करना-उठाना चाहिए। - विवेचन - साधु को आहार-पानी आदि लाने के लिए पात्र भी चाहिये और पात्र सम्बन्धी वस्त्र भी चाहिए। शरीर-रक्षा के लिए आवश्यक वस्त्र और जीव-रक्षा के लिए रजोहरणादि भी आवश्यक है। इस सूत्र में विशिष्ट जिनकल्पी के सिवाय पात्रधारी साधुओं के उपकरणों के नाम बताये हैं। यथा - .' पात्र-आहारादि लाने के लिए काष्ठ, मिट्टी या तुम्बे के पात्र। पात्र-बन्धन - पात्रों को बाँधने का वस्त्र। पात्र-केसरिका - पात्र पोंछने के लिए वस्त्र का टुकड़ा। पात्र स्थापन - पात्र के नीचे बिछाने का वस्त्र। पटल - पात्र ढंकने का वस्त्र। रजस्त्राण - पात्र पर लपेटने का वस्त्र। गोच्छक - पात्र आदि साफ करने का वस्त्र का टुकड़ा। प्राच्छादक - पछेवड़ी-ओढ़ने की चादरें। रजोहरण - भूमि, शय्या, पाट आदि प्रमार्जन करने का ओघा। चोलपट्टक - गुप्तांग ढकने का अधो-वस्त्र। मुखवस्त्रिका - वायुकायादि जीवों की रक्षा के लिए मुंहपत्ति। प्रतिलेखन, प्रमार्जन और प्रस्फोटन का स्वरूप उत्तराध्ययन अ० 26 गा० 24 से 28 तक से जान लेना चाहिए। उपरोक्त उपकरणों के सिवाय 'आदि' शब्द से मात्रक भी ग्रहण किया जाता है। इन उपकरणों को आवश्यकतानुसार संयम-वृद्धि एवं रक्षा के लिए और असह्य वायु, शीत, उष्णादि से अपने को बचाने के लिए, राग-द्वेष रहित होकर ग्रहण करना चाहिए और इनकी प्रतिलेखना, प्रमार्जना और ग्रहण-स्थापन सदैव सावधानीपूर्वक होनी चाहिए, जिससे विराधना से बचा जा सके। - (प्रथम संवरद्वार पृ० 229 तथा तृतीय संवरद्वार पृ० 255 में भी उपकरणों का उल्लेख हुआ है)। For Personal & Private Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 308 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०२ अ०५ . **************************************************************** निर्ग्रन्थों का अन्तर्दर्शन एवं से संजए विमुत्ते णिस्संगे णिप्परिग्गहरुइ णिम्ममे णिण्णेहबंधणे सव्वपावविरए वासीचंदणसमाणकप्पे समतिणमणिमुत्तालेढुकंचणे समे य माणावमाणणाए समियरए समियरागदोसे समिए समिइसु सम्मदिट्टि समे य जे सव्वपाणभूएसु से हु समणे सुयधारए उज्जुए संजए स साहु सरणं सव्वभूयाणं सव्वजगवच्छले सच्चभासए य संसारंतट्ठिए य संसारसमुच्छिण्णे सययं मरणाणुपारए पारगे य सव्वेसिं संसयाणं पवयणमायाहिं अट्ठहिं अट्ठकम्म-गंठी-विमोयगे अट्ठमय-महणे ससमयकुसले य भवइ सुहदुहणिव्विसेसे अभिंतरबाहिरम्मि सया तवोवहाणम्मि सुटुजुए खंते दंते य हियणिरए ईरियासमिए भासासमिए एसणासमिए आयाण-भंड-मत्त-णिक्खेवणा-समिए उच्चारपासवण-खेल-सिंघाण-जल्ल-परिठावणिया समिए मणगुत्ते वयगुत्ते कायगुत्ते गुत्तिंदिए गुत्तबंभयारी चाई लज्जू धण्णे तवस्सी खंतिखमे जिइंदिए सोहिए अणियाणे अबहिल्लेस्से. अममे अकिंचणे छिण्णगंथे णिरुवलेवे।। शब्दार्थ - एवं - इस प्रकार, से संजए - वह संयमी, विमुत्ते - विमुक्त-परिग्रह-रहित, णिस्संगेसंग-वर्जित, णिप्परिग्गहरुइ - परिग्रह-रुचि से दूर, णिम्मणे - ममत्व-रहित, णिण्णेहबंधणे - स्नेह-बंधन से रहित, सव्वपावविरए - समस्त पापों से रहित, वासीचंदणसमाणकप्पे - वसूला से मारने वाले और चन्दन का लेप करने वाले दोनों पर समभाव रखने वाला, समतिणमणिमुत्ताले?कंचणे - तृण और मणि, मोती तथा पत्थर व स्वर्ण में समान भाव रखने वाला, समे य माणावमाणणाए - मान और अपमान में समभाव रखने वाला, समियरए - पाप रूपी रज अथवा काम-भोग रूपी रज को शान्त करने वाला, समियरागदोसे - राग-द्वेष को शान्त करने वाला, समिएसमिइसु - पांच समितियों में सम्यक् प्रवृत्ति वाला, सम्मदिट्ठी - सम्यग्दृष्टि, समे य जे सव्वपाणभूएसु - जो समस्त त्रस-स्थावर जीवों में समभाव रखता है, से हु समणे- वही श्रमण, सुयधारए - श्रुत-धारक, उज्जुए - सरल स्वभावी, संजएसंयमी, से साहु सरणं सव्वभूयाणं - वह साधु सर्वभूत-छह-काय जीवों का शरण-रक्षक है, सव्वजगवच्छले - समस्त जगत् का वत्सल, सच्चभासए - सत्य भाषण करने वाला, य - और, संसारतहिए - संसार के अंत में स्थित, य - तथा, संसारसमुच्छिण्णे - संसार का समुच्छेद करने वाला, सययं मरणाणुपारए - सतत मृत्यु के पार जाने वाला, पारगे य सव्वेसिं संसयाणं - सभी संशयों का पारगामी, पवयणमायाहिं अट्ठहिं - आठ प्रवचन-माता, अट्ठकम्मगंठीविमोयगे - आठ कर्म-ग्रंथियों का छेदन करने वाला, अट्ठमयमहणे - आठ प्रकार के मद का मंथन करने वाला, ससमयकुसले - अपने सिद्धान्तों में कुशल, भवई - होता है, सुहदुह-णिव्विसेसे - सुख-दुःख को समान मानने वाला, For Personal & Private Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्ग्रन्थों का अन्तर्दर्शन 309 **************************************************************** अब्भिंतर-बाहिरम्मि - आभ्यंतर तथा बाह्य, तवोवहाणाम्मि - तपस्याओं में, सुटुज्जुए - भलीभांति उद्यम करने वाला, खंते दंते य - क्षमावान् और जितेन्द्रिय, हियणिरए - अपना और पर का हित करने वाला, ईरियासमिए - ईर्यासमिति युक्त, भासासमिए - भाषा-समिति युक्त, एसणासमिए - एषणासमिति युक्त, आयाणभंडमत्त-णिक्खेवणा-समिए - आदान-भाण्डमात्र निक्षेपणा समिति युक्त, उच्चार-पासवणखेलसिंघाण-जल्ल-परिठावणिया-समिए - उच्चार-प्रश्रवण-खेल-सिंघाण-जल्ल परिस्थापनिका समिति से युक्त, मणगुत्ते वयगुत्ते कायगुत्ते - मनोगुप्त, वचनगुप्त और कायगुप्त, गुत्तिंदिए - इन्द्रियों का गोपनकरने वाला, गुत्तबंभयारी - ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला, चाई - त्यागी, लजू - लज्जाशील, धण्णे - धन्य, तवस्सी - तपस्वी, खंतिखमे - क्षमाशील, जिइंदिए - जितेन्द्रिय, सोहिए - शोभा सम्पन्न, अणियाणे - निदान-रहित, अबहिल्लेस्से - शुभ लेश्याओं से युक्त, अममे - ममत्व-रहित, अकिंचणेपरिग्रह-रहित, छिण्णगंथे - ग्रंथियों को छेदन करने वाला, णिरुवलेवे - कर्म-लेप से रहित होने वाला। भावार्थ - इस प्रकार धर्म में स्थित साधु सभी प्रकार के संग-सम्बन्ध और परिग्रह से विमुक्त होता है। परिग्रह में उसकी रुचि भी नहीं रहती। वह मोह-ममता और स्नेह-बन्धन से मुक्त रहता है। निरारम्भी और निष्परिग्रही निर्ग्रन्थ समस्त पापों से विरत होता है। वह 'वासी चन्दन समान कल्प' वाला होता है। जिस प्रकार चन्दन का वृक्ष, उसे काटने वाली वसूले की धार को भी अपनी सुगन्ध देता है, उसी प्रकार मानापमान से रहित निर्ग्रन्थ, अपने निन्दक, ताड़ना-तर्जना और वध करने वाले के प्रति भी द्वेष नहीं रखता और चन्दन का विलेपन कर अर्चन करने वाले अनुरागी के प्रति राग नहीं करता। वह दोनों पर समभाव रखता है। ऐसे निर्ग्रन्थं के लिए तृण और मणि-मुक्ता तथा मिट्टी का ढेला और स्वर्ण एक समान होता है। उनका न तो तृण और पत्थर पर द्वेष है तथा न मणि मुक्ता और स्वर्ण में राग है। वह सम्मान और अपमान में भी भेद-भाव नहीं कर समभाव रखता है। जिस की पापकर्म अथवा भोगवासना रूपी रज शांत हो चुकी है, जिसने राग और द्वेष को उपशान्त कर दिया है, जो ईर्यादि पांच समितियों से सम्पन्न है, सम्यग्दृष्टि से युक्त है और समस्त प्राण, भूत, जीव और सत्व में समभाव रखता है, वह 'श्रमण' होता है। ऐसे उत्तम गुणों का धारक सन्त, श्रुतज्ञान का धारक और सरलस्वभावी होता है। वह निर्ग्रन्थ-श्रमण, संसारी जीवों के लिए शरणभूत-रक्षक है। समस्त जीवों के प्रति उसके हृदय में वात्सल्य भाव (हित-कामना) रहती है। वह सत्यभाषी मुनि, अनन्त संसार-सागर को तैर कर किनारे पहुंच चुका है। ऐसा शुद्ध संयमी श्रमण, दीर्घतम संसार भ्रमण कराने वाले मोह के तन्तु को काट कर नष्ट कर देता है। वह मृत्यु का पार पाकर मृत्युंजय बनने के लिए सतत आगे बढ़ रहा है। वह समस्त संशयों से मुक्त होकर संशयातीत हो चुका है। पांच समिति और तीन गुप्ति रूपी आठ प्रवचन-माता के बल से आठ कर्मों की ग्रंथी को तोड़ने में वह समर्थ होता है। मोह महारिपु के सुभट रूप जाति आठ मद का मंथन करके वह नष्ट कर देता है। वह स्व-समय-अपने सिद्धान्त-निर्ग्रन्थप्रवचन में कुशल होता है। वह सुख और दुःख को निर्विशेष-हर्ष-शोकादि रहित-समान अनुभव करता For Personal & Private Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 310 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०५ *#############**************************** है। वह बाह्य और आभ्यन्तर तपोपधान में सदैव भली प्रकार से उद्यत रहता है। वह क्षमाशीलदमितेन्द्रिय मुनि स्व-पर हितकारी होता है। ईर्या-समिति, भाषा-समिति, एषणा-समिति, आदान-भांडमात्र निक्षेपणा-समिति और उच्चार-प्रस्रवण-खेल-जल्ल-सिंघाण परिस्थापनिका समिति, इन पांच समितियों से वह युक्त है। मन-गुप्ति, वचन-गुप्ति और काय-गुप्ति-इन तीन गुप्तियों से वह सदैव गुप्त (आत्म-रक्षित) रहता है। अपनी इन्द्रियों को सदैव गुप्त रख कर विषयों की ओर जाने और विकारी बनने से रोक रखता है। उसका ब्रह्मचर्य सुरक्षित है। वह समस्त संग-सम्बन्ध का त्यागी है, वह लज्जावान् (पाप एवं अनाचार से असंयमी प्रवृत्ति से लजित होने वाला) है। ऐसे श्रमण, संयम रूपी धन से धनवान्-धन्य हैं, तपस्वी हैं, क्षमावंत हैं, जितेन्द्रिय हैं, उत्तम गुणों से सुशोभित अथवा शुद्ध हैं, निदान से रहित हैं, शुभ लेश्या से युक्त हैं, ममत्व रहित हैं और अकिंचन-परिग्रह से रहित हैं। ऐसे निष्परिग्रही निर्दोष निर्ग्रन्थ, बाह्य एवं आभ्यन्तर ग्रंथियों को नष्ट कर देते हैं और कर्म-लेप से रहित हो जाते हैं। विवेचन - इस सूत्र में निर्ग्रन्थ साधकों का अन्तर्दर्शन कराया गया है। कितना भव्य एवं उदात्त है-उन श्रमण-श्रेष्ठों का चरित्र? कैसे आदर्श निर्ग्रन्थ होते हैं-जिन धर्म में? णिस्संगे - निस्संगता-संसार के संयोग-सम्बन्धों से रहित होकर साधना में अनुरक्ति रखने वाले ही सच्चे निर्ग्रन्थ होते हैं। जो आत्म-साधना की उपेक्षा कर के लोक-साधना राष्ट्र सेवा या लौकिक प्रवत्ति में लग जाये. स्नेह एवं प्रेम सम्बन्ध बनाते फिरें, वे न तो नि:संग होते हैं और न निर्ग्रन्थ साध हो सकते हैं। निर्ग्रन्थ-श्रमणत्व की प्रथम शर्त है-लौकिक संयोग-सम्बन्ध का त्याग। उत्तराध्ययन का प्रारम्भ ही "संजोगाविप्पमुक्कस्स" पद से हुआ है। विनयधर्म की सर्वसाधना, नि:संगत्व की प्राप्ति पर ही हो सकती है। जिसकी साधना आत्म-शुद्धि के लिए-संसार से विमुक्त होने के लिए हैं, उसे तो संसार से नि:संग ही रहना चाहिए। ऐसा पवित्र साधक ही संसार से पार हो सकता है। .. णिम्ममे णिण्णेहबंधणे - चाहे माता, पिता, भाई, भगिनी हो या पत्नी-पुत्रादि हो, किसी भी जीव और धन-धान्य, वस्त्रालंकार यावत् शब्दादि अजीव द्रव्य तथा स्थान एवं काल के प्रति ममत्व भाव एवं स्नेह बंधन भी नि:संगता में बाधक होता है। मुक्ति की साधना में ममत्व और स्नेह बाधक है, विरोधी है और बन्धन रूप है। मुक्ति-पथ का पथिक, इन बन्धनों को तोड़ कर ही मुक्त हो सकता है। वासीचंदणसमाण कप्पे - जिस प्रकार वसूले से छेदने-काटने पर भी चन्दन वसूले की धार को भी.सुगन्ध ही देता है, उसी प्रकार साधु भी म्लेच्छ लोगों से मार-पीट, अंगच्छेद या मृत्यु के समान भयंकर कष्ट होने पर भी द्वेष नहीं करे और अनुरागी उपासक से वंदना-स्तुति और सत्कार-सम्मान पाकर भी उस पर राग-रहित होकर समभाव में ही रहे। न तो अनुकूल पर राग करे और न प्रतिकूल पर द्वेष करे। राग-द्वेष नष्ट होने पर ही वीतरागता प्रकट होती है। ___ संसारंतट्ठिए - निर्ग्रन्थता की यथातथ्य साधना करने वाला श्रमण अनादि संसार-सागर को पार For Personal & Private Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निग्रन्थी की 31 उपमाए 311 **************************************************************** कर किनारे तक पहुंच जाता है और थोड़े समय में ही संसार से उत्तीर्ण होकर सिद्धि नामक शाश्वत स्थान पर पहुंच कर अनन्त जीवन प्राप्त कर लेता है। उसके संसार का सर्वथा अन्त हो जाता है। उसके समस्त दुःख नष्ट हो जाते हैं। वह परमानन्द में लीन-परमात्मा हो जाता है। छिण्णगंथे - ग्रंथी-मन में पड़ी हुई ममत्व की गाँठ, स्नेह-पाश अथवा अनन्तानुबन्धी कषाय की गाँठ को तोड़-फोड़ कर नष्ट करने वाला, पाठान्तर में, 'छिण्णसोए'-शब्द है। इसका अर्थ है-छिन्नशोक-जिसका शोक (चिन्ता. खेद, प्रिय-वियोग और अप्रिय संयोग से होने वाला रंज) नष्ट हो चका अथवा छिन्न-श्रोत-जिसका संसार में भटकाने वाला आस्रव का श्रोत नष्ट हो चुका है। णिरुवलेवे - निरुपलेप-उपलेप रहित। कर्म के उपलेट से रहित। साधक अवस्था में ऐसा निर्ग्रन्थ, कर्म-लेप से सर्वथा रहित या अबन्धक नहीं होता। उसके सातों कर्मों का बन्ध होता रहता है, किन्तु वह बन्ध हल्का, अल्प प्रकृति, स्थिति, रस और प्रदेश वाला और शीघ्र नष्ट होने योग्य होता है। बन्ध की अपेक्षा निर्जरा अत्यधिक होती है तथा वह शीघ्र ही सर्वथा निर्लेप होने वाला होता है। इसीलिए उसे निर्लिप्त कहा गया है। इस सूत्र में निर्ग्रन्थ-श्रमण की मोह-मारक साधना का ही विविध गुण-दर्शक शब्दों में बहुत ही उत्तमता के साथ यथातथ्य वर्णन किया गया है। ऐसे उत्तम साधक विश्व-पूज्य होते हैं। इनका आदर्श एवं उद्दात्त चरित्र भव्यात्माओं के लिए प्रेरणास्पद होता है। . . निर्ग्रन्थों की 31 उपमाएं - सुविमलवरकंसभायणं व मुक्कतोए, संखे विव णिरंजणे, विगयरागदोसमोहे, कुम्मो विव इंदिएसुगुत्ते, जच्चकंचणगं व जायरूवे, पोक्खरपत्तं व णिरुवलेवे, चंदो विव सोमभावयाए, सूरोव्व दित्ततेए, अचले जह मंदरे गिरिवरे, अक्खोभे सागरोव्व थिमिए, पुंढवी व्व सव्व-फाससहे, तवसा च्चिय भासरासि-छण्णिव्व जायतेए, जलिययासणेविव तेयसा जलंते, गोसीसं चंदणं विव सीयले सुगंधे य, हरयो विव समियभावे, उग्घोसियसुणिम्मलंव्व आयंसमंडलतलं व्व पागडभावेण सुद्धभावे, सोंडीरे कुंजरोव्व, वसभेव्व जायथामे सीहेव्व जहा मियाहिवे होइ दुप्पधरिसे, सारयसलिलंव्व सुद्धहियये, भारंडे चेव अप्पमत्ते, खग्गिविसाणं व्व एगजाए, खाणुं चेव उड्ढकाएं, सुण्णागारेव्व अपडिकम्मे, सुण्णागारावणस्संतो णिवायसरणप्पदी-वज्झाणमिव णिप्पकंपे, जहा खुरो चेव एगधारे, जहा अही चेव एगदिट्ठि, आगासं चेव णिरा-लंबे, विहगे विव सव्वओ विप्पमुक्के, कयपरणिलए जहा चेव उरए, अप्पडिबद्धे अणिलोव्व, जीवोव्व अपडिहयगई। For Personal & Private Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 312 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रृं० 2 अ०५ **************************************************************** . शब्दार्थ - सुविमलवरकंसभायणं व - निर्मल, उत्तम, कांस्य भाजन के समान, मुक्कतोए - स्नेह-बंधन से रहित, संखे विवणिरंजणे- शंख के समान निर्मल, विगयरागदोसमोहे - राग, द्वेष और मोह से दूर, कुम्मो विव इंदिएसुगुत्ते - कछुए के समान इन्द्रियों के विषय में गुप्त, जच्चकंचणगं व जायसवे - जाति सम्पन्न सुवर्ण के समान अपने शुद्ध स्वरूप में रहे, पोक्खरपत्तं व णिरुवलेवे - पद्म-पत्र के समान भोग के लेप से रहित, चंदो विव सोमभावयाए - चन्द्र के समान सौम्य भाव वाले, सूरोव्व दित्ततेए - सूर्य के जैसे तपस्या के तेज वाले, अचले जह मंदरे गिरिवरे - मेरु पर्वत के समान अचल, अक्खोभे सागरो व्व थिमिए - क्षोभ-रहित सागर के समान शान्त-भाव वाले, पुढवी व्व सव्वफाससहे - पृथ्वी के समान सभी स्पर्शों को सहने वाले, तवसा च्चिय भासरासि छण्णिव्व जायतेएभस्म की ढेर से ढकी हुई तपस्या रूपी अग्नि के सदृश-बाहर से म्लान परन्तु अन्दर से प्रदीप्त, जलियहुयासणेविवतेयसाजलंते - जलती हुई अग्नि के समान ज्ञान रूप तेज से जलते हुए, गोसीसचंदणं वित्र सीयले - गोशीर्ष-चन्दन के समान शीतल और शील रूपी सुगन्ध वाले, हरयो विव समियभावेसरोवर के समान समभाव वाले, उग्घोसिय सुणिम्मलं व्व आयसमंडलतलं व्व - अच्छा घिसा हुआ अत्यन्त निर्मल दर्पण के तल के समान, पागडभावेण सुद्धभावे - प्रकट-निष्कपट भाव से शुद्ध हृदय वाले, सोंडीरे कुंजरोव्व - हाथी के समान परीषह सैन्य के लिए शूर, वसभेव्व जायथामे - वृषभ के समान जात-स्थाम, सीहेव्व जहा मियाहिवे - मृगपति सिंह के समान, होइ दुप्पधरिसे - दुष्प्रवर्ण्य होता है, सारय सलिलं व्व सुद्धहियए - शरद् काल के पानी के समान शुद्ध हृदय वाला, भारंडे चेव अप्पमत्ते - भारंड पक्षी के समान प्रमाद रहित, खग्गिविसाणं व एगजाए - गेंडे के सींग के समान एक भूत, खाणुंचेव उड्डकाए - खूटे के समान कायोत्सर्ग में शरीर को स्थिर खड़ा रखने वाले, सुण्णागारेव्व अप्पडिकम्मे - शून्य घर के समान देह की संभाल नहीं करने वाले, सुण्णांगारावणस्संतो - शून्य-घर में वर्तमान-रहा हुआ, णिवायसरणप्पदीवज्झाणमिव णिप्पकंप्पे - वायु-रहित घर में दीप की बत्ती की तरह अकम्प, जहा खुरो चेव एगधारे - छुरे के जैसे एकधार वाले, जहा अही चेव एगदिट्ठी - सर्प के जैसे मोक्ष साधन रूप एक दृष्टि वाले, आगासं चेव णिरालंबे - आकाश के समान बाह्य आलम्बन-रहित, विहगे विव सव्वओ विप्पमुक्के - विहग-पक्षी के समान सबसे विमुक्त, कयपरणिलए जहा चेव उरए - सर्प के समान पर गृह में रहने वाला, अपडिबद्धे अणिलोव्व - वायु के समान प्रतिबंध रहित, जीवोव्य अपडिहयगई - जीव के समान अप्रतिहत गति वाले। विवेचन - द्रव्य और भाव परिग्रह से रहित निर्ग्रन्थ महात्माओं के उदात्त चरित्र का वर्णन करने के बाद अब आगमकार, विविध उपमाओं से उपमित करते हुए इस सूत्र में उन महात्माओं की महानता बता रहे हैं। 1. सुविमलवरकंसभायणं व मुक्कतोए - कांस्य-पात्र के समान निर्लिप्त शुद्ध। जिस प्रकार कांसी के पात्र पर पानी नहीं ठहरता और उस पर से फिसल जाता है, उसी प्रकार मुनिराज भी स्नेह For Personal & Private Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्ग्रन्थों की 31 उपमाएं 313 **************************************************************** रहित होते हैं। मोह को जीतने के लिए स्नेह-रहित होना आवश्यक है। स्नेही जीव, निर्मोही नहीं हो सकता और बिना मोह नष्ट हुए वीतरागता भी प्राप्त नहीं हो सकती। 2. संखे विव णिरंजणे - शंख के समान निरंजन-शुद्ध। राग-द्वेष-मोह से रहित। जिस प्रकार शंख पर किसी भी प्रकार का दूसरा रंग नहीं चढ़ सकता, उसी प्रकार संत भी राग-रंग से वंचित होते हैं। संसारियों और भौतिक वस्तुओं तथा अपने शरीर के प्रति भी उनका राग नहीं होता। 3. कुम्मो विव इंदियेसु गुत्ते - कूर्म (कछुए) के समान गुप्तेन्द्रिय। जिस प्रकार कछुए के . अंगोपांग की रक्षा उसकी ढाल करती है, उसी प्रकार चारित्र रूपी ढाल के नीचे उन पवित्रात्माओं की इन्द्रियाँ सुरक्षित रहती हैं। मन पर अधिकार कर लेने से उनकी इन्द्रियाँ भी उनके अधीन रहती है। 4. जच्चकंचणगं व जायरूवे - उत्तम स्वर्ण के समान शुद्ध-दोष रहित। जिस प्रकार सोने को कीट नहीं लगता और वह सुन्दर दिखाई देता है, उसी प्रकार निर्मोही संत पर कर्म रूपी कीट नहीं चढ़ता। उनका चारित्र सोने के समान निर्मल एवं निष्कलंक रहता है। 5. पोक्खर पत्तं वणिरुवलेवे - पुष्कर पत्र पद्मदल के समान निर्लिप्त। जिस प्रकार कमल का पत्र, कीचड़ से उत्पन्न होकर भी कीचड़ से अलिप्त रहता है। कीचड़ तो ठीक, पर पानी से भी लिप्त नहीं होता. उसी प्रकार उन महर्षियों की उत्पत्ति विषय-विकार रूपी कीचड़ से होते हुए भी, वे उस कीचड़ से अलिप्त-भिन्न रहते हैं। माता-पितादि के स्नेह रूप पानी से भी वे ऊपर उठ चुके हैं अर्थात् कमल-पत्र के समान वे विषय-विकार रूपी कीचड़ और स्नेह रूपी पानी से ऊपर उठ कर अलिप्त हो चुके हैं। 6. चंदो विव सोमभावयाए - चन्द्रमा के समान सौम्य भाव वाले। जिस प्रकार चन्द्रमा सौम्य और शीतल होता है। उसका शीतल प्रकाश, रात्रि को सुहावनी बना देता है। गरमी के दिनों में सूर्य के भीषण ताप से जब हम घबड़ा जाते हैं, तब चन्द्रमा के शीतल प्रकाश वाली रात्रि हमें बहुत ही शान्ति देती है, उसी प्रकार उन अनगार भगवन्तों की पवित्र लेश्या-शुभ परिणाम सभी जीवों के लिए सुखदायक होते हैं। संसार के त्रि-ताप से तपे हुए घबराए हुए और झुलसे हुए जीवों के लिए वे संतप्रवर, चन्द्रमा के समान शांति प्रदायक हैं। उनके चेहरे और वाणी से झरती हुई सुधा में सराबोर होकर भव्य प्राणी अनुपम शान्ति का अनुभव करते हैं। ___ अंधेरी रात में चन्द्रमा का प्रकाश, पथिकों के लिए आधारभूत होता है, उसी प्रकार मिथ्यात्व एवं अज्ञान रूपी भाव अन्धकार से भरे हुए इस भयानक संसार में, उन शीतल स्वभाव वाले संतों के ज्ञान का शीतल प्रकाश, मोक्ष-मार्ग के पथिकों के लिए शान्तिदायक होता है। 7. सुरोव्व दित्ततेए - सूर्य के समान दीप्ततेज। जिस प्रकार सूर्य अपने तेज से प्रकाशित हो रहा है, उसी प्रकार वे तपोधनी महात्मा अपने तप के तेज से देदीप्यमान होते हैं। तपस्या के प्रभाव से दुर्बल और निर्बल होते हुए भी उनका आत्म-तेज बढ़ जाता है और उस आत्म-तेज के प्रभाव से तपस्वी के चेहरे का तेज भी बढ़ता है। For Personal & Private Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 314 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०२ अ०५ ******************************************** ***** सूर्य का प्रकाश अन्धकार को मिटाता है, उसी प्रकार उन ज्ञानी महात्माओं का ज्ञान प्रकाश भी अज्ञान रूपी अन्धकार को मिटाने वाला है। 8. अचले जह मंदरे गिरिवरे - नगाधिराज सुमन्दर के समान अचल। जिस प्रकार सुमेरु पर्वत - भयंकर बवण्डर से भी कम्पित नहीं होता और स्थिर रहता है, उसी प्रकार वे दृढ़ संयमी अनगारसिंह, संयम साधना में उपस्थित होते हुए भयंकर उपसर्ग से भी नहीं डिगते और संयम में अधिकाधिक स्थिर रहकर मृत्यु का भी सामना करते रहते हैं। उन्हें न तो अनुकूल (स्त्री एवं सत्कार) परीषह डिगा सकते हैं और न प्रतिकूल (रोगादि) परीषह डिगा सकते हैं। वे परीषहों और उपसर्गों के सामने धीर-वीर / होकर डट जाते हैं। 9. अक्खोभे सागरोव्व थिमिए - अक्षुब्ध-शान्त समुद्र के समान स्तिमित-निस्तरंग। जिस प्रकार समुद्र गम्भीर होता है, वह क्षुद्र नाले की तरह छलक कर खाली नहीं हो जाता उसी प्रकार निर्ग्रन्थ अनगार भी उदार और गम्भीर होते हैं। वे अनुकूल निमित्तों से प्रसन्न नहीं होते और प्रतिकूल निमित्तों से खिन्न नहीं होते तथा अनार्यों और म्लेच्छजनों द्वारा दिये हुए कष्टों को शान्तिपूर्वक सहन करते हैं। / उनकी गम्भीरता को भंग करने की शक्ति किसी देव-दानव में भी नहीं है। वे 'नागश्री' का दिया हुआ हलाहल विष के समान प्राणघातक तुम्बीपाक भी शांतिपूर्वक खा सकते हैं और सोमिल द्वारा सिर पर आग भी रखवा सकते हैं। 10. पुढवीव्व सव्व फाससहे - पृथ्वी के समान सभी स्पर्श सहने वाले। जिस प्रकार पृथ्वी सर्दी, गर्मी, कूड़ा-करकट, विष्ठा, मूत्र तथा हल-कुदालादि के प्रहार सहती हुई भार-वहन करती है, उसी प्रकार निर्ग्रन्थ मुनिराज भी अपने को वन्दना करने वालों तथा गाली देने और प्रहार करने वालों के प्रति समभाव रखते हुए सभी प्रकार के कष्टों को सहन करते हैं। 11. तवसा च्चिय भासरासि छण्णिव जायतेए - भस्म के ढेर से आच्छादित अग्नि के समान। राख में दबी हुई अग्नि ऊपर से दिखाई नहीं देती। ऊपर तो केवल राख ही दिखाई देती है, किन्तु उसके नीचे जाज्वल्यमान प्रकाश देने वाली अग्नि है। ऊपर राख आ जाने से अग्नि का तेज नष्ट नहीं होता। उसी प्रकार तपस्वी संत का शरीर दुर्बल, रूक्ष और निस्तेज होते हुए भी उस तेजस्वी आत्मा में तप का तेज विद्यमान रहता है। अग्नि पर राख आ जाने से उसका तेज बाहर नहीं निकलता भीतर ही दबा रहता है, फिर उन भी उन तपोधनी महात्माओं का आत्म-तेज, दुर्बल देह पर भी झलकता है। प्रातः स्मरणीय श्री धना अनगार का शरीर, तपस्या की भट्टी में जल कर निस्तेज हो गया था किन्तु उनका आत्म-तेज इतना बढ़ गया था कि उसकी आभा, कृश शरीर पर भी प्रकट हो रही थी। 12. जलियहुयासणे विव तेयसा जलंते - घृत-सिंचिंत अग्नि के समान तप के तेज से जाज्वल्यमान जिस प्रकार घृत से सिंचन की हुई अग्नि विशेष रूप से जाज्वल्यमान होती है, उसी प्रकार वे उत्तम श्रमणवर, ज्ञान और तपस्या के तेज से देदीप्यमान होते हैं। For Personal & Private Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्ग्रन्थों की 31 उपमाएं 315 **************************************************************** अग्नि अपने को और दूसरों को प्रकाशित करती है वह किसी दूसरे से प्रकाशित नहीं होती, उसी प्रकार तपोधनी निर्ग्रन्थ अपने ज्ञान और तप के प्रभाव से स्वयं देदीप्यमान होकर दूसरे भव्य प्राणियों को भी प्रभावित करते हैं। उन्हें कोई दूसरा प्रभावित नहीं कर सकता। 13. गोसीसचंदणं विव सीयले सुगंधे य - गोशीर्ष-चन्दन के समान शीतल और सुगन्धयुक्त। गोशीर्ष चन्दन शीतल और सुगन्धित होता है। उसके विलेपन से शरीर शीतल और सुगन्धित होता है। उसी प्रकार उत्तम मुनिराज, कषायाग्नि के शान्त हो जाने से शीतल होते हैं और उनके पवित्र चारित्र की सुयश रूपी मिष्ट सुगन्ध चारों और फैलती है। तपस्वी होते हुए भी वे स्वभाव से उग्र नहीं होते। तपस्या की पवित्र अग्नि में कषाय का कचरा भस्म हो जाता है। उनके आत्म-तेज का प्रकाश, उष्ण एवं ज्वलन गुण वाला नहीं, किन्तु चन्द्रमा के समान शीतल प्रकाश देता है। उपासकों में उनके चारित्र की बहुत प्रशंसा होती है। यह उनके चारित्र की सुगन्ध का प्रभाव है। 14. हरयो विव समियभावे - सरोवर के समान शांत। जिस प्रकार हवा के नहीं चलने से सरोवर का जल स्थिर और सम रहता है, उसमें लहरें नहीं उठतीं। उसी प्रकार कषायें उपशांत हो जाने से उन महात्माओं में समत्व आ जाता है। परिस्थिति की विषमता उन्हें उत्तेजित नहीं कर सकती। उनके परिणामों में विचलितता नहीं आती। ... सरोवर के उदाहरण में एक चौभंगी भी बताई जाती है। यथा - . 1. कुछ सरोवर ऐसे भी हैं कि उनमें से पानी निकल कर बाहर बहता है, किन्तु बाहर से भीतर नहीं आता। उसी प्रकार त्यागी-तपस्वी मुनिराज की ज्ञान-गंगा बाहर बहती रहती है। वे दूसरों को ज्ञानामृत पिलाते हैं, किन्तु स्वयं कि ती से ज्ञान ग्रहण नहीं करते। अपने विशिष्ट क्षयोपशम से पूर्ण श्रुतज्ञान प्राप्त करके वे श्रुतकेवली होते हैं या अपने समय के बहुश्रुतत एवं गीतार्थ होते हैं। वे दूसरों को ज्ञानदान देते हैं, परन्तु दूसरे से लेते नहीं। 2. समुद्र में बाहर से पानी आता है, परन्तु बाहर नहीं जाता। उसी प्रकार कई मुनि ऐसे होते हैं : कि वे ज्ञान ग्रहण करते हैं, परन्तु किसी को देते नहीं। सतत ज्ञानाभ्यास में ही लगे रहते हैं। 3. कुछ सरोवर ऐसे भी होते हैं कि जिनमें बाहर से पानी आता भी है और बाहर जाता भी है। उसी प्रकार कई मुनिवर, ग्यारह अंगों का ज्ञान दूसरे मुनियों को भी पढ़ाते हैं और स्वतः भी ज्ञान पढ़ते हैं। 4. ढाई द्वीप के बाहर ऐसे सरोवर हैं कि जिनमें में न तो पानी बाहर से सरोवर में आता और न सरोवर में से बाहर निकलता। उसी प्रकार कई अनगार भगवंत, जिनकल्प धारण करके विचरते हैं। कई श्रुत पढ़ लेने के बाद स्वाध्याय, ध्यान और तपादि में लीन रहते हैं। वे न तो नया ज्ञान पढ़ते हैं और न किसी को पढ़ाते हैं। 15. उग्घोसिय सुणिम्मलं व्व आयंसमंडलतलं व्व पगडभावेण सुद्धभावे - घिस कर कोमल बनाये हुए निर्मल दर्पण के समान प्रकट एवं शुद्ध भाव वाले। जिस प्रकार स्वच्छ दर्पण में जैसा रूप For Personal & Private Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 316 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०५ **************************************************************** . होता है, वैसा ही दिखाई देता है, उसमें अन्तर नहीं आता। उसी प्रकार निर्ग्रन्थ मुनिवरों का हृदय स्वच्छ होता है-भीतर और बाहर एक समान। उनमें छुपाने जैसी कोई बात ही नहीं होती। उनके सरल एवं निष्कपट हृदय का दर्शन, उनके चेहरे, उनकी वाणी और उनकी चर्या से ही हो जाता है। 16. सोंडीरे कुंजरोव्व - गजराज के समान शूर। जिस प्रकार हाथी युद्ध में डट जाता है और भयंकर घाव लगने पर भी पीछे नहीं हटता. उसी प्रकार वे शरवीर मनिवर भी परीषह रूपी सेना के सामने डट जाते हैं। वे विपत्तियों से घबड़ा कर पीछे पांव नहीं रखते। . 17. वसभे व्व जायथामे - वृषभ के समान भारक्षम। जिस प्रकार मारवाड़ का धोरी वृषभ, उठाये हुए भार को उत्साहपूर्वक यथास्थान पहुंचाता है, उसी प्रकार वे उत्तम श्रमण स्वीकार किये हुए संयम का, चढ़ते हुए भावों से यथाविधि जीवन पर्यन्त निर्वाह करते हैं। उनके परिणामों में शिथिलता नहीं आती। वे गलियार बैल जैसे नहीं होते, अपितु जातिवंन्त वृषभ के समान होते हैं। 18. सीहेव्व जहा मियाहिवे होइ दुप्पहरिसे - मृगाधिपति सिंह के समान दुष्प्रधर्ष। जिस प्रकार सिंह किसी भी वनचर पशु से पराजित नहीं होता, उसी प्रकार वे श्रमण-सिंह न तो परीषहों से पराजित होते हैं, न मिथ्यात्व और अज्ञान के आक्रमण से भयभीत होते हैं। पाखण्डियों के प्रहार भी उन्हें विचलित नहीं कर सकते। वे सिंह के समान निर्भीक होकर अपनी संयम-यात्रा को आगे बढ़ाते ही रहते हैं। 19. सारय सलिलं व सुद्धहियए - शरद ऋतु के पानी के समान स्वच्छ एवं निर्मल हृदयी। जिस प्रकार वर्षा के समाप्त हो जाने के बाद शरद ऋतु में जल निथर कर निर्मल हो जाता है, उसमें वर्षा के कारण बह कर आई गंदगी और कूड़ा-करकट नहीं रहता, उसी प्रकार संसार-त्यागी श्रेष्ठ श्रमणवरों का हृदय भी निर्मल रहता है। उदय-भाव के प्रवाह के कारण संसारावस्था में विषय-विकार रूपी आई हुई गंदगी, उन संतप्रवरों के हृदय से दूर होकर शुद्धता आ जाती है। उनके पवित्र हृदय में अप्रशस्त राग-द्वेष के लिए स्थान नहीं रहता है। जिस प्रकार शरीर का मैल, निर्मल जल से दूर होता है, उसी प्रकार वे निर्मल आत्माएं, भव्यात्माओं के आत्म-मैल को दूर करने में सहायक होती हैं। 20. भारंडे चेव अप्पमत्ते - भारण्ड पक्षी के समान अप्रमत्त / शास्त्रों में आया है कि भारंड पक्षी आकाश में ही उड़ता रहता है। जब वह आहार के लिए पृथ्वी पर आता है, तो पूरी सावधानी के साथ अपने पंखों को फैला कर ही बैठता है और जहाँ खतरे की आशंका हुई कि फौरन उड़ जाता है। उसी प्रकार निर्ग्रन्थ-श्रमण भी अपने ज्ञान-ध्यान रूपी धर्मोद्यान में ही विचरते हैं। वे गृहस्थों के संसर्ग में नहीं रहते। जब उन्हें आहारादि की आवश्यकता होती है, तभी गृहस्थों के घरों में जाते हैं और कार्य होते ही शीघ्र लौट आते हैं। गृहस्थों के यहाँ वे अप्रमत्त-सावधान होकर यह ध्यान रखते हैं कि कहीं उनकी पवित्र साधुता एवं विशुद्ध समाचारी में कोई दोष नहीं लग जाये। जहाँ दोष की आशंका होती है, वहाँ से वे उसी समय चल देते हैं। इस प्रकार वे अपनी संयम-साधना में सदा सावधान रहते हैं। For Personal & Private Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्ग्रन्थों की 31 उपमाएं 317 ************************* 21. खग्गिविसाणं व्व एगजाए - गेंडे के सींग के समान एकाकी। जिस प्रकार गेंडे के एक ही सींग होता है। वह उस एक ही सींग से अपनी रक्षा करता है, उसी प्रकार निर्ग्रन्थ-अनगार भी राग-द्वेष से रहित एवं आत्मनिष्ठ होकर विचरते हैं। उनका आत्मनिष्ठा रूपी एकाकीपन, रक्षक बन कर उनकी विजय-कूच को आगे बढ़ाता है। 22. खाणुं चेव उड्डकाए - ढूंठ के समान खड़े रहे हुए। जिस प्रकार सूखे हुए वृक्ष का दूँठ, निश्चल खड़ा रहता है। हवा के प्रचण्ड वेग से भी वह नहीं हिलता। उसी प्रकार कायोत्सर्ग में अडोल खड़े हुए मुनिराज, भयंकर उपसर्ग आने पर भी निश्चल और अडिग ही रहते हैं। 23. सुण्णागारे व्व अप्पडिकम्मे - शून्य घर के समान शरीर-संस्कार से रहित। जिस प्रकार सूना और वीरान घर, अस्वच्छ रहता है। उसकी सफाई नहीं होती। उसी प्रकार आत्मार्थी मुनिवर, अपने शरीर की सार-संभाल नहीं करते। देह की सफाई-सजाई की ओर वे ध्यान ही नहीं देते। उनका ध्यान आत्मा की सफाई की ओर रहता है। वे आत्मा को अधिकाधिक स्वच्छ करने में लगे रहते हैं। देहदृष्टि का तो वे गृह-त्याग के साथ ही त्याग कर देते हैं। 24. सुण्णागारावणस्संतो - णिवायसरणप्पदीवज्झाणमिव णिप्पकंपे - शून्य और वायुरहित बन्द गृह में रहे हुए दीपक की तरह अकम्पित। जिस प्रकार वायु-रहित स्थान में दीपक की लौ बुझती नहीं और निष्कम्प होकर जलती रहती है, उसी प्रकार उत्तम संत, शून्य घर आदि में ध्यान धरकर निश्चल खड़े रहते हैं। वे परीषहों के उत्पन्न होने पर भी नहीं डिगते। 25. खुरो चेव एगधारे - उस्तरे की एक धार के समान। जिस प्रकार उस्तरे के एक ही ओर धार होती है, वह एक ओर से ही चलता है, उसी प्रकार निर्ग्रन्थ अनगार की प्रवृत्ति भी एक उत्सर्गमार्ग पर ही होती है। वे अपवाद का आश्रय ही नहीं लेते, क्योंकि अपवाद मार्ग, कमजोरी-विवशता से अपनाया जाता है। उत्तम श्रमण मृत्यु को स्वीकार कर लेते हैं, परन्तु अपने मार्ग से पीछे हटना स्वीकार नहीं करते। ... . 26. अही ब्रेव एगदिट्ठी - सर्फ के समान एक दृष्टि वाले। जिस प्रकार सर्प अपने लक्ष्य की ओर ही दृष्टि रखता है। अलग-बगल की ओर नहीं देखता, उसी प्रकार सुसाधु केवल मोक्ष की ओर ही दृष्टि रख कर आराधना करते रहते हैं। उनका ध्यान मोक्ष की ओर ही रहता है। देव अथवा मनुष्य सम्बन्धी सुख या संसार की ओर उनका ध्यान ही नहीं जाता। . 27. आगासं चेव णिरालंबे - आकाश के समान आलम्बन-रहित। अन्य द्रव्यों के लिए आकाश आधारभूत है, किन्तु आकाश के लिए कोई आधार नहीं है। वह स्वतः अपना और दूसरों का आधार है। इसी प्रकार श्रेष्ठ मुनिवर भी अपने ही ज्ञान, दर्शन और चारित्र के आश्रय * से ही मोक्ष-मार्ग में विचरण करते हैं। पहाडगता *"तत्थ आलम्बणं णाणं दंसणं चरणं तहा"-(उत्तरा० 24) For Personal & Private Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 318 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०५ **************************************************************** 28. विहगे विव सव्वओ विप्पमुक्के - पक्षी के समान सभी से सर्वथा विमुक्त। जिस प्रकार पक्षियों के आकाश-विहार में कोई प्रतिबन्ध नहीं होता। वे स्वेच्छा से जहाँ चाहे चले जाते हैं, उसी प्रकार अप्रतिबद्ध विहारी अनगार भी क्षेत्र विशेष के प्रतिबन्ध से रहित होते हैं। वे अपनी मुनिमर्यादानुसार विचरते रहते हैं। स्वजनादि अथवा स्थान या क्षेत्रमोह के बन्धन से वे मुक्त होते हैं। अनुयायिओं का प्रेम भी उन्हें नहीं रोक सकता। जब तक जंघाबल साथ देता है, तब तक वे अपने कल्प के अनुसार बिना किसी प्रतिबन्ध के विहार करते रहते हैं। 29. कायपरिणलए जहा चेव उरए - सर्प के समान पर-गृह में रहने वाले। जिस प्रकार सर्प अपने रहने का घर (बिल) नहीं बनाता। वह दूसरे के बनाये हुए बिल में रहता है, उसी प्रकार गृहत्यागी अनगार भगवंत भी अपने लिए घर का निर्माण नहीं करते। गृहस्थों ने अपने लिए जो घर बनाए हैं, उसी में वे ठहरते हैं। सर्प तो बिल बनाने वाले की इच्छा के बिना, उसे दुःखी करकेजबरदस्ती कब्जा कर लेता है। किन्तु अनगार भगवंतों में यह विशेषता रही हुई है कि वे किसी पर बलजबरी नहीं करते। किसी का दिल नहीं दुखाते। वे प्रसन्नता पूर्वक दिये हुए प्रासुक स्थान का उपयोग करते हैं और इसी प्रकार निर्दोष आहारादि ग्रहण करते हैं। 30. अपडिबद्धे अणिलोव्व - वायु के समान बन्धन-रहित। जिस प्रकार वायु एक स्थान पर .. * नहीं ठहरता। उसका कोई नियत स्थान ही नहीं होता, उसी प्रकार निर्ग्रन्थ-श्रमण के भी कोई घर नहीं होता। वे एक स्थान पर नहीं रह कर ग्रामानुग्राम विचरते हैं। वे किसी क्षेत्र, संघ अथवा व्यक्ति विशेष से बंधे हुए नहीं होते। वायु, गरीब और अमीर सब को स्पर्श करता है, उसी प्रकार वे निष्पही संत, गरीब-अमीर का भेद रखे बिना सबको धर्मोपदेश देते हैं। . 31. जीवो व्व अपडिहय गई - जीव के समान अप्रतिहत गति वाले। जिस प्रकार पर-भव जाते हुए जीव की गति किसी से भी नहीं रुक सकती, उसी प्रकार वे महात्मा जिस दिशा की ओर विहार करते हैं, उस दिशा में चले ही जाते हैं। शहर, गाँव, अच्छे-बुरे क्षेत्र, उनकी गति अथवा दिशा को मोड़ नहीं सकते। यदि मार्ग में भयानक वन आ जाये अथवा आहारादि की अनुकूलता नहीं हो, तो वे इस प्रतिकूलता से भी नहीं रुक सकते और आर्यदेश में विचरते रहते हैं। वे आत्मिक पथ-मोक्ष मार्ग पर बिना रुके आगे बढ़ते रहते हैं। गामे गामे एगरायं णयरे णयरे य पंचरायं दुइजंते य जिइंदिए जियपरीसहे णिब्भओ विऊ सच्चित्ता-चित्त-मीसगेहिं दव्वेहिं विरायं गए, संचयाओ विरए, मुत्ते, लहुए, णिरवकंखे, जीवियमरणासविप्पमुक्के णिस्संधि णिव्वणं चरित्तं धीरे काएण फासयंते सययं अज्झप्पज्झाणजुत्ते, णिहुए, एगे चरेज धम्म। ____ शब्दार्थ - गामे गामे एगरायं - गाँव-गाँव में एक रात, णयरे-णयरे य पंच रायं - नगर-नगर में पांच रात, दुइजंते य - विचरता हुआ, जिइंदिए - जितेन्द्रिय, जियपरीसहे - परीषहों को जीतने वाला, For Personal & Private Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भावना-श्रोत्रेन्द्रिय-संयम 319 **************************************************************** णिभओ - निर्भय, विऊ - विद्वान, सचित्ताचित्तमीसगेहिं दव्वेहिं - सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्यों से, विरायं गए - विरागता प्राप्त, संचयाओ तिरए - संग्रह से दूर, मुत्ते - मुक्त, लहुए - लघु-हल्का, णिरवकंखे - आकांक्षा रहित, जीवियमरणासविप्पमुक्के - जीवन-मरण की आशा से दूर, णिस्संधिणिव्वणं चरित्तं - सन्धि-चारित्र परिणाम के विच्छेद से रहित, धीरे - धीर, काएण फासयंते - शरीर से पालन करता हुआ, सययं - सदा, अज्झप्पझाणजुत्ते - अध्यात्म ध्यान से युक्त, णिहुरा - दृढ़ता पूर्वक, एग - राग-द्वेष रहित होकर एकाकी, चरेज धम्मं - धर्म का आचरण करे। विवेचन - - गामे गामे एगरायं णयरे णयरे पंचरायं - गांवों में एक रात और नगरों में पांच रात। इस पाठ को व्याख्याकार ने भिक्षु प्रतिमा वाले महात्मा से सम्बन्धित बतलाया है। किन्तु प्रतिमाधारी और जिनकल्पी तो शेषकाल में दो रात्रि से अधिक नहीं ठहरते (दशाश्रुतस्कन्ध)। अतः यह पाठ स्थविरकल्पी के विषय में होना चाहिए और रात्रि का अर्थ - एक वार से लगा कर उसी वार (सप्ताह) तक एक रात्रि मानने की धारणा से पांच रात्रि का मास-कल्प हो जाता है। आगे ज्ञानी कहे वही ठीक है। इमं च परिग्गहवेरमण-परिरक्खणट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं अत्तहियं पेच्चाभावियं आगमेसिभई सुद्धं णेयाउयं अकुडिलं अणुत्तरं सव्वदुक्खपावाणं विउवसमणं। शब्दार्थ - इमं च - इस, परिग्गहवेरमण-परिरक्खणट्ठयाए - परिग्रह-त्याग व्रत की रक्षा के लिए, पावयणं भगवया सुकहियं - भगवान् ने उत्तम प्रकार से प्रवचन कहा, अत्तहियं - आत्महित करने वाला, पेच्चाभावियं - पर-भव में उत्तम फल देने वाला, आगमेसिभदं - भविष्य में कल्याणकारी, सुद्धं - शुद्ध, णेयाउयं - न्याय युक्त, अकुडिलं - कुटिलता-रहित-सरल, अणुत्तरं - श्रेष्ठ, सव्वदुक्खापावाणं विउवसमणं - समस्त पाप और दुःख को उपशांत करने वाला। / भावार्थ - इस परिग्रह-त्याग व्रत की सुरक्षा के लिए भगवान् ने उत्तम प्रवचन-उपदेश दिया है। यह प्रवचन आत्महितकारी है, परभव में उत्तम फल देने वाला है, भविष्य के लिए कल्याणकारी है, शुद्ध है, न्याययुक्त है, सरल है, उत्तमोत्तम है और सभी प्रकार के पाप और दुःख का शमन करने वाला है। अपरिग्रह व्रत की पांच भावनाएं प्रथम भावना-श्रोत्रेन्द्रिय-संयम . तस्स इमा पंच भावणाओ चरिमस्स वयस्स होंति परिग्गह-वेरमणपरिरक्खणट्ठयाए। पढमं सोइंदिएणं सोच्चा सहाई मणुण्णभद्दगाई। किं ते? वरमुरयमुइंग-पणव-ददुर-कच्छभि-वीणा-विपंची-वल्लयि-वद्धीसग-सुघोस-णंदि For Personal & Private Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 320 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०५ **************************************************************** सूसरपरिवाइणि-वंस-तूणग-पव्वग-तंती-तल-ताल-तुडिय-णिग्योसगीय-वाइयाइं। णड-गट्टग-जल्ल-मल्लग-मुट्ठिग-वेलंबग-कहग-पवग-लासग-आइक्खग-लंखमंख-तुणइल्ल-तुंबवीणिय-तालायर-पकरणाणि य बहुणि महुरसरगीय-सुस्सराई कंचीमेहला-कलाव-पत्तरग-पहेरग-पायजालग-घंटिय-खिंखिणि-रयणोरुजालिय-छुद्दियणेउर-चलण-मालिय-कणग-णियल-जालभूसणसद्दाणि, लीलचंकम्ममाणाणूदीरियाई तरुणीजणहसिय-भणिय-कलरिभिय-मंजुलाई गुणवयणाणि व बहूणि महूरजणभासियाई अण्णेसु य एवमाइएसु सद्देसु मणुण्णभद्दएसु ण तेसु समणेण-सज्जियव्वं, ण रजियव्वं, ण गिझियव्वं ण मुज्झियव्वं ण विणिग्घायं आवजियव्यं, ण लुभियव्वं ण तुसियव्वं, ण हसियव्वं, ण सइंच मइं च तत्थ कुज्जा। शब्दार्थ - तस्स - उस, इमा - ये, पंच भावणाओ - पांच भावनाएं, चरिमस्स - अंतिम, वयस्सव्रत की, होति - हैं, परिग्गहवेरमण-परिरक्खणट्ठयाए - परिग्रह व्रत की रक्षा के लिए, पढमं - प्रथम, सोइंदिएणं - श्रोत्रेन्द्रिय से, सोच्चा - सुन कर, सद्दाई - शब्दों को, मणुण्णभद्दगाइं - मनोज्ञ और प्रिय, किं ते - कौन-से हैं, वरमुरय - श्रेष्ठ मुरज, मुइंग - मृदंग, पणव - पणव-छोटा ढोल, ददुर - दर्दुर, कच्छभि - कच्छपी, वीणा - वीणा, विपंची - विपंची, वल्लयि - वल्लकी, वद्धीसग - बद्धीसक, सुघोसणंदि - उत्तम शब्द वाला नन्दी नामक बाजा, सूसरपरिवाइणि - श्रेष्ठ स्वर वाली परिवादिनी, वंस - वंशी, तूणग - तूणक, पव्वग - पर्वक, तंती - तंती, तल - हाथ की ताली, ताल - ताल, तुडियणिग्योसगीय-वाइयाइं - इन बाजों के शब्दों को सुन कर, णड - नट, णट्टग - नर्तक, जल्ल - रस्सी बांध कर उस पर नाच करने वाले, मल्लग - मल्ल-पहलवान, वेलंबग- विदुषक, कहगकथक, पवग - प्लवक, लासग - रास गाने वाले, आइक्खग - आख्यायक, लंख - लंख, मंख - मंख. तणडल्ल- तणइल्ल. तंब - तम्ब, वीणिय- वीणिक, य- और, तालायर-तालाचर, पकरणाणिइनके द्वारा किये जाने वाले, बहुणि - अनेक प्रकार के, महुरसरगीय-सुस्सराई - मधुर स्वर वाले गीत आदि सुन कर, कंची - कांची, मेहला - मेखला-कन्दोरा, कलाव - कलापक-गले में पहनने का आभूषण, पत्तरग - प्रतारक-आभूषण विशेष, पहेरग - प्रहेरक, पायजालग - पैर में पहनने की पायल, घंटिय - घण्टिका, खिंखिणि - किंकिणी, रयणोरूजालिय - रत्नों का बना हुआ विशाल जालक, छुद्दिय - क्षुद्रिका, णेउर - नुपुर, चलणमालिय - चरणमालिका, कणगणियल - सोने के कड़े, जालएक आभूषण विशेष, भूसणसहाणि - इन सभी आभूषणों के शब्द सुन कर, लीलचंकम्माण - लीलापूर्वक गमन करने वाली युवतियों के, अणूदीरियाई - कहे हुए शब्द, तरुणीजणहसिय - तरुण स्त्रियों का हास्य, भणिय - शब्द, कलरिभिय - मधुरता पूर्वक उच्चारण किये गये शब्द, मंजुलाई - मंजुल शब्द, गुणवयणाणि - प्रशंसा के शब्द, महुरजणभासियाई - मधुर शब्दों को, एवमाइएसु - For Personal & Private Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भावना-श्रोत्रेन्द्रिय-संयम 321 MAHA ******************************-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-* .... ...... इसी प्रकार के, अण्णेसु - दूसरे, मणुण्णभद्दएसुसहेसु - मनोज्ञ एवं मनोहर शब्द सुन कर, समणेण - साधु को, तेसु- उनमें, ण सजियव्वं - आसक्त न होना चाहिए, ण रज्जियव्वं - राग न करना चाहिए, ण गिग्झियव्वं - गृद्ध नहीं होना चाहिए, ण मुज्झियव्वं - मूर्च्छित नहीं होना चाहिए, ण विणिग्यायआवज्जियव्वं - अपनी और दूसरों की घात नहीं करनी चाहिए, ण लुभियव्वं - लुब्ध नहीं होना, ण तुसियव्वं - तुष्ट नहीं होना, ण हसियव्वं - हँसना नहीं, ण सई - स्मरण नहीं करना, ण मइ कुज्जा - विचार नहीं करना, तत्थ - उनका। भावार्थ - परिग्रह-त्याग नामक अन्तिम महाव्रत की रक्षा के लिए पांच भावनाएं हैं। उनमें में प्रथम भावना श्रोत्रेन्द्रिय-संयम है। प्रिय एवं मनोरम शब्द सुन कर उनमें राग नहीं करना चाहिए। वे मनोरम शब्द कैसे हैं? लोगों में बजाये जाने वाले मृदंग, पणव, दर्दुर, कच्छपी, वीणा, विपंची. वल्लकी, बद्धीसक, सुघोषा, नन्दी, उत्तम स्वर वाली परिवादिनी, बंसी, तूणक, पर्वक, तंती, तल, ताल। इन वाद्यों की ध्वनि, इनके निर्घोष और गति सुन कर इन पर राग नहीं करे तथा-नट, नर्तक, रस्सी पर किये जाने वाले नृत्य, मल्ल, मुष्टिक (मुक्के से लड़ने वाले)विलम्बक (विदूषक) कत्थक, प्लवक (उछलकूद करने वाले) लासक (रास गाने वाले) आख्यापक (कहानी सुनाने वाले) लंख (बांस पर ... खेलने वाले) मंख (चित्रपट बताने वाले) तूणइल्ल, तुम्बवीणिक और तालाचर से किये जाने वाले अनेक प्रकार के मधुर स्वर वाले गीत सुनकर आसक्त नहीं बने। ____कांची, मेखला, कलापक, प्रतारक, प्रहेरक, पायजालक (पायल) घण्टिका किंकिणी, रत्नजालक, क्षुद्रिका, नूपुर, चरणमालिका, कनकनिगड (स्वर्ण निर्मित भूषण) और जाल की शब्द-ध्वनि सुन कर तथा लीलापूर्वक गमन करती हुई युवतियों के आभूषणों के टकराने से उत्पन्न ध्वनि, तरुणियों के हास्य वचन, मधुर एवं मंजुल कण्ठ-स्वर, प्रशंसा युक्त मीठे शब्द और ऐसे ही अन्य मोहक शब्द सुन कर साधु, आसक्त नहीं बनें, रंजित नहीं होवे, गृद्ध एवं मूञ्छित नहीं बने, स्व-पर घातक नहीं होवे, लुब्ध और प्राप्ति पर तुष्ट नहीं हो, न हंसे और उनका स्मरण तथा विचार भी नहीं करे। . विवेचन - प्रथम भावना में सूत्रकार ने श्रोत्रेन्द्रिय संयम का उपदेश दिया है। इनमें विविध वादिन्त्रों के स्वर, ताल, नृत्य-नाटकादि में होने वाली शब्द-ध्वनियाँ, गीत कथा-कहानी, रास, युवती स्त्रियों के मोहक कण्ठ-स्वर, आभूषणों के हिलने या परस्पर टकराने से उत्पन्न रणकारादि ध्वनि और हास्य-विनोदादि सुनने का निषेध किया है। यदि अकस्मात् वैसे शब्द सुनाई दे, तो उनमें प्रीति, राग एवं आसक्ति नहीं करने का उल्लेख किया है। इस भावना के उपरोक्त पर्व-भाग में श्रोत्रेन्द्रिय के द्वारा होने वाले राग. से बचने की शिक्षा दी गई है। आगे द्वेष-निवारण विधान किया जाता है। पुणरवि सोइंदिएण सोच्चा सहाई अमणुण्णपावगाइं। किं ते? अक्कोस-फरुसखिंसण-अवमाणण-तजण-णिब्भंछण-दित्तवयण-तासण-उक्कूजिय-रुण्ण-रडियकंदिय-णिग्घुट्ठरसिय-कलुण-विलवियाई अण्णेसु य एवमाइएसु सद्देसु अमणुण्ण For Personal & Private Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम्मा प्रश्नव्याकरण सत्र श्र०२ अ०५ ********** ** *************wwwwwwwwwwwwww पावएसु ण तेसु समणेण रूसियव्वं ण हीलियव्वं ण प्रिंदियव्वं ण खिंसियव्वं ण छिंदियव्वं ण भिंदियव्वं ण वहेयव्वं ण दुगुंछावत्तियाए लब्भा उप्याएर एवं सोइंदियभावणा-भाविओ भवइ अंतरप्पा मणुण्णाऽमणुण्ण सुब्भिदुब्भिराग-दोसप्पणिहियप्पा साहू मणवयणकायगुत्ते संवुडे पणिहिइंदिए चरेज धम्म। शब्दार्थ - पुणरवि - फिर भी, सोइदिएण - श्रोत्रेन्द्रिय से, सोच्चा - सुन कर, सद्दाई - शब्दों कों, अमणुण्णपावगाइं. - अमनोज्ञ और पापकारी, किं ते - वे कौन से हैं, अक्कोसफरुस - आक्रोशकारी और कठोर, खिंसण - निन्दाजनक, अवमाणण - अपमान कारक, तजण - तर्जना रूप, शिब्भंछणनिर्भत्सना रूप, दित्तवयण - दीप्त-वचन, तासण - त्रास उत्पन्न करने वाले, उक्कूजिय - अव्यक्त शब्द, रुण्ण - रुदन का शब्द, रडिय- इष्ट-वियोग से उत्पन्न दीनतायुक्त शब्द, कंदिय - आक्रन्दनकारी शब्द णिग्घुटु - निर्घोष रूप शब्द, रसिय - रसित-सूअर के समान शब्द, कलुण - करुणाजनक, विलयाईविलाप के शब्द, अण्णेसु - दूसरे, एवमाइसु - इसी प्रकार के, सद्देसु - शब्दों को सुन कर, अमणुण्णपावएसु - अमनोज्ञ और पापकारी, तेसु- उनके विषय में, समणेणं- साधु को, ण रूसियव्वंक्रोध नहीं करना चाहिए, ण हीलियव्वं - हीलना नहीं करनी चाहिए, ण णिंदियव्वं - निन्दा नहीं करनी चाहिए, ण खिंसियव्वं - खिसना नहीं करनी चाहिए, ण छिंदियव्वं - छेदन नहीं करना चाहिए, ण भिंदियव्वं - भेदन नहीं करना चाहिए, ण वहेयव्वं - वध नहीं करना चाहिए, ण दुगंछावत्तियाए लब्भा उप्पाएउं - न जुगुप्सा उत्पन्न करना उचित है, एवं - इस प्रकार, सोइंदिय भावणा - यह श्रोत्रेन्द्रिय की भावना है, अंतरप्पा - अंतरात्मा, भाविओ - भावित, भवइ - होता है, मणुण्णामणुण्णसुब्भिदुन्भिरागदोसप्पणिहियप्या - मनोज्ञ और अमनोज्ञ तथा शुभ और अशुभ शब्द को सुन कर आत्मा में रागद्वेष की उत्पत्ति नहीं होने दे, साहू - साधु, मणवयणकायगुत्ते - मन बचन और काया से गुप्त होकर, संवुडे-शुद्ध संयम वाला, पणिहिइंदिए-इन्द्रियों का निग्रह करता हुआ, चरेजधम्म-धर्म का आचरण करे। ___ भावार्थ - इस प्रकार कानों से अरुचिकर लगने वाले अशुभ शब्द सुनाई दे, तो द्वेष नहीं करे। वे कटु लगने वाले शब्द कैसे हैं ? आक्रोशकारी, कठोर, निन्दायुक्त, अपमानजनक, तर्जन, निर्भर्त्सना, दीप्त (कोपयुक्त) त्रासोत्पादक, अव्यक्त, रुदन (अश्रुपात) रटन (जोर से रोने रूप) आक्रन्दकारी, निर्घोष, रसित (सूअर की बोली के समान) कलुण (करुणाजनक) विलाप के शब्द और इसी प्रकार के अन्य अमनोज्ञ अशुभ शब्द सुनाई देने पर, साधु को रुष्ट नहीं होना चाहिए। ऐसे शब्दों की हीलना, निन्दा, खिंसना भी नहीं करनी चाहिए। ऐसे अप्रिय शब्द,एवं शब्द करने वालों पर घृणा, छेदन, भेदन और वध नहीं करना चाहिए। यह श्रोत्रेन्द्रिय सम्बन्धी भावना है। इस भावना का यथातथ्य पालन करने से अन्तरात्मा प्रभावित होती है। शब्द मनोज्ञ हो या अमनोज्ञ, शुभ हो या अशुभ सुनाई दे, उनके प्रति रागद्वेष नहीं करने वाला संवृत्त साधु, मन, वचन और काया से गुप्त होकर, इन्द्रियों का निग्रह करता हुआ दृढ़तापूर्वक धर्म का आचरण करे। For Personal & Private Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *** ** *** ** ** * द्वितीय भावना-चक्षुरिन्द्रिय-संयम 323 *********************************************** द्वितीय भावना-चक्षुरिन्द्रिय-संयम 'बिइयं चक्खुइंदिएण पासिय रूवाणि मणुण्णाई भद्दगाई - सचित्ताचित्तमीसगाई कटे पोत्थे य चित्तकम्मे लेव्यकम्मे सेले य दंत-कम्मे य पंचहिं वण्णेहिं अणेगसंठाणसंठियाइं गंठिम-वेढिम-पूरिम-संघाइमाणि य मल्लाइं बहु विहाणि य अहियं णयणमणुसुहयराइं वणसंडे पव्वए य गामागरणयराणि य खुहिय-पुक्खरिणि-वावीदीहिय-गुंजालिय-सरसरपंतिय सायर बिल-पंतिय खाइयणई-सर-तलाग-वप्पिणीफुल्लुप्पल-पउमपरिमंडियाभिरामे अणेगसउणगण-मिहुण-वियरिए वरमंडव-विविहभवण-तोरण-वेइय-देवकुल-सभा-प्पवा-वसह-सुकय-सयणासण-सीय-रह-सयडजाण-जुग्ग-संदण-णरणारिगणे य सोमपडिरूव-दरिसणिज्जे अलंकिय-विभूसिए पुवकयतवप्पभाव-सोहग्गसंपउत्ते णड-णट्टग-जल्ल-मल्ल-मुट्ठिय-वेलंबग-कहगपवग-लासग-आइक्खग-लंख-मंख-तूणइल्ल-तुंब-वीणिय-तालायर-पकरणाणि य बहूणि सुकरणाणि अण्णेसु य एवमाइएसु रूवेसु मणुण्णभद्दएसु ण तेसु सभणेण सज्जियव्यं ण रजियव्वं जाव ण सइंच मई तत्थ कुजा। . - शब्दार्थ - बिइयं - द्वितीय, चक्खुइंदिएण- चक्षु-इन्द्रिय से, पासिय - देख कर, रूवाणि - रूपों को, मणुण्णाई - मनोज्ञ, भद्दगाई - मनोहर, सचित्ताचित्तमीसगाई - सचित्त अचित्त और मिश्र, कडे - काष्ठ, पोत्थे - पुस्तक या वस्त्र पर, चित्तकम्मे - चित्र कर्म में, लेव्वकम्मे - लेप से बनाये हुए, सेले य - पाषाण पर, दंतकम्मे - हाथी के दांत पर बने हुए, पंचहिं - पांच, वण्णेहिं - वर्णों वाले, अणेगसंठाणसंठियाई - अनेक प्रकार के आकार वाले, गंठिम - माला के समान गूंथे हुए, वेढिम - . गेंद की भांति वेष्टित किये हुए, पूरिम - चपड़ी-लाक्षादि भर कर बनाये हुए, संघाइमाणि - फूल आदि को एक दूसरे से मिला कर उनके समूह से बनाये हुए, मल्लाइं बहुविहाणि य - बहुत प्रकार के माला सम्बन्धी रूप, अहियं णयणमणसुहयराइं - नेत्र तथा मन को अधिक सुखकारी, वणसंडे - वनखण्ड, पव्वए - पर्वत, गामागरणयराणि - ग्राम आकर तथा नगरों को, खुद्दिय - छोटा जलाशय, पुक्खरिणिपुष्करणी, वाणी - बावड़ी, दीहिय - दीर्घिका, गुंजालिय - गुंजालिका, सर - सरोवर, सरपंतिय - सरोवरों की पंक्ति, सायर - सागर, बिलपंतियं - धातुओं की खानों की पंक्ति, खाइय - खाई, णई - नदी, सर - तालाब, वप्पिणी - नहर, फुल्लप्पलपउम - विकसित उत्पल नील कमल और रक्त कमल, परिमंडियाभिरामे - उनकी शोभा बहुत बढ़ी हुई है, अणेगसउणगणमिहुणवियरिए - अनेक प्रकार की - 'भद्दगाई' शब्द बीकानेर वाला प्रति में नहीं है। For Personal & Private Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ******************************************** 324 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०५ ******* पक्षी और उनके जोड़े क्रीड़ा कर रहे हैं, वरमंडव - उत्तम मण्डप, विविह - विविध प्रकार के, भवण - भवन, तोरण - तोरण, चेइय - चैत्य, देवकुल - देवकुल, सभा - सभा, प्पवा - प्याऊ, आवसह - परिव्राजकों के मठ, सुकयसयणासण - सुन्दर शय्या और आसन, सीय - पालकी, रह - रथ, सयड - शकट-गाड़े, जाण - यान, जुग्ग - युग्म, संदण - स्यन्दन, णरणारिगणे - स्त्री-पुरुषों के समूह, * सोमपडिरूव-दरिसणिज्जे - जो सौम्य और दर्शनीय हों, अलंकिय-विभूसिए - अलंकृत और विभूषित हों, पुवकयतवप्पभाव-सोहग्गसंपउत्ते - जो पूर्वकृत तप के प्रभाव से मनुष्यों के द्वारा माननीय हों, णड - नट, णट्टग - नर्तक, जल्लमल्ल - जल्लमल्ल, मुट्ठिय - मौष्टिक मल्ल, वेलंबग - विडम्बक, कहग - कथक, पवग - प्लवक, लासग - लासक, आइक्खग - आख्यायक, लंख - लंख, मंख - मंख, तुणइल्ल - तूणइल्ल, तुंबवीणि य - तुम्बवीणिक, तालयरपकरणाणि - तालचर आदि, बहुणि'विविध प्रकार के, सुकरणाणि - मनोहर खेल, अण्णेसु - दूसरे, एवमाइएसु - इसी प्रकार के, मणुण्णभद्दएसु - मनोज्ञ और मनोहर, रूवेसु - रूपों को, तेसु - उनमें, समणेणं - साधु को, ण सजियव्वं - आसक्त नहीं होना चाहिए, ण रजियव्वं - अनुरक्त नहीं होना चाहिए, जाव - यावत्, सई च मई - स्मरण और विचार, तत्थ - उनका, ण कुज्जा - नहीं करे। - भावार्थ - दूसरी भावना चक्षु-इन्द्रिय संवर है। सचित्त-स्त्री, पुरुष, बालक और पशु-पक्षी आदि, अचित्त-भवन, वस्त्राभूषण एवं चित्रादि, मिश्र-वस्त्राभूषण युक्त स्त्रीपुरुषादि के मनोरम तथा आह्लदकारी रूप आँखों से देख कर उन पर अनुराग नहीं लावे। काष्ठ, वस्त्र और लेप से बनाये हुए चित्र पाषाण और हाथी दाँत की बनाई हुई पांच वर्ण और अनेक प्रकार के आकार युक्त मूर्तियाँ देख कर मोहित नहीं बने। इसी प्रकार गूंथी हुई मालाएं, वेष्टित किये हुए गेंद आदि चपड़ी लाख आदि भर कर और एकदूसरे से जोड़ कर समूह रूप से बनाये हुए गजरे आदि और विविध प्रकार की मालाएँ देख कर आसक्त नहीं बने। नेत्र और मन को अत्यन्त प्रिय एवं सुख कर लगने वाले वनखंड, पर्वत, ग्राम, आकर, नगर, छोटे जलाशय, पुष्करिणी, बावड़ी, दीर्घिका, गुंजालिका, सरोवरों की पंक्ति, सागर, धातुओं की खानों की पंक्तियाँ, खाई, नदी, सरोवर, तालाब और नहर आदि तथा उत्पल-कमल, पद्म-कमल आदि विकसित एवं सुशोभित पुष्प, जिन पर अनेक प्रकार के पक्षियों के जोड़े क्रीड़ा कर रहे हैं, सजे हुए मण्डप, विविध प्रकार के भवन, तोरण, चैत्य, देवकुल, सभा, प्याऊ, मठ, सुन्दर शयन-आसन, पालकी, रथ, शकट, यान, युग्म, स्यन्दन, स्त्रीपुरुषों का समूह जो अलंकृत एवं विभूषित हों, सौम्य एवं दर्शनीय हों और पूर्वकृत तप के प्रभाव से सौभाग्यशाली तथा आकर्षक हों, जनमान्य हों, इन सबको देख कर, साधु उनमें आसक्त नहीं बने। इसी प्रकार नट, नर्तक, जल्लमल्ल मौष्टिक, विडम्बक, कथक, प्लवक, लासक, आख्यायक, लंख मंख, तूणइल्ल, तूम्बवीणक और तालचर आदि अनेक प्रकार के मनोहर खेल करने वाले और इसी प्रकार के अन्य मनोहरी रूप देख कर साधु को आसक्त नहीं होना चाहिए, न उसमें लीन होना चाहिए यावत् उन रूपों का स्मरण एवं चिन्तन भी नहीं करना चाहिए। For Personal & Private Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 325 द्वितीय भावना-चक्षुरिन्द्रिय-संयम **************************************************************** विवेचन - दूसरी भावना चक्षु-इन्द्रिय का विषय-रूपासक्ति का त्याग करना है। रूप आँखों का विषय है दृष्टि के सामने विविध प्रकार के रूप सहज ही आते रहते हैं। किन्तु सुन्दर एवं मनोहर रूपों को चाह कर देखना, देखने के लिए जाना और देख कर अनुरक्त होना-रूप-रंजित होना, इस पांचवें महाव्रत को दूषित करना है। अतएव इस महाव्रत की रक्षा के लिए सुन्दरता पर किंचित् भी नहीं लुभाना चाहिए। पुणरवि चक्खिदिएण पासयिरूवाइं अमणुण्णपावगाइं। किं ते? गंडि-कोढिककुणि-उयरि-कच्छुल्ल-पइल्ल-कुज्ज-पंगुल-वामण-अंधिल्लग-एगचक्खु-विणिहयसप्पिसल्लग-वाहिरोगपीलियंविगयाणि मयगकलेवराणि सकिमिणकुहियं च दव्वरासिं अण्णेसु य एवमाइएसु अमणुण्णपावगेसु ण तेसु समणेणं रूसियव्वं जाव ण दुगुंछावतिया वि लब्भा उप्पाएउं एवं चक्खिंदिय-भावणा भाविओं भवइ अंतरप्पा जाव चरेज धम्म। - शब्दार्थ - पुणरवि - फिर, चक्खिदिएण - चक्षु-इन्द्रिय के द्वारा, पासिय - देखकर, रूवाई - .रूपों को, अमणुण्णपावगाइं - अमनोज्ञ और पापकारी, किं ते - वे कौन-से हैं, गंडि - गंडमाला का रोगी, कोढिक - कोढ़-ग्रस्त, कुणि - जिसका एक हाथ कटा हुआ हो, उयरि - जलोदर रोग वाला, कच्छुल्ल - जिसके सारे शरीर में दाद हो रहे हैं, पइल्ल - पैर के श्लीपद रोग वाला, कुज्ज - कूबड़ा, पंगुल - लंगड़ा, वामण - वामन-बौना, अंधिल्लग - जन्मान्ध, एगचक्खु - काना, विणिहय - फूटी आँखों वाला, सप्पि - पीठ में सर्पि रोग वाला, सल्लग - शूल रोग वाला, वाहिरोगपीलियं - व्याधि और रोगों से पीड़ित, विगयाणि - विकृत, मयग-कलेवराणि - मुर्दा-शरीर, सकिमिणकुहिक-जिसमें कीड़े . पड़ गये हैं और सड़ गया है ऐसा, दव्वरासिं - द्रव्यों के ढेर को, अण्णेसु - दूसरे, एवमाइएसु - इसी प्रकार के, अमणुण्णपावएसु - अमनोज्ञ और घृणाजनक पदार्थ, तेसु - उनमें, समजेणं - साधु, ण रूसियव्वं - द्वेष नहीं करे, जाव - यावत्, ण दुगुंछावतिया वि लब्भा उप्पाएउं - घृणा उत्पन्न नहीं करना * चाहिए, एवं - इस प्रकार, चक्खिदियभावणा भाविओ - चक्षुइन्द्रिय की भावना से भावित, भवइ - होता है, अंतरप्पा - अन्तरात्मा, चरेज धम्म - धर्म का आचरण करे। भावार्थ - मन को बुरे लगने वाले अशुभ दृश्यों को देखख कर मन में द्वेष नहीं लावे। वे अप्रिय रूप कैसे हैं? - गण्डमाला का रोगी, कोढ़ी, कटे हुए हाथ वाला या जिसका एक हाथ या एक पाँव छोटा हो, जलोदरादि उदर रोग वाला, दाद से विकृत शरीर वाला, पाँव में श्लीपद रोग हो, कूबड़ा, बौना, लंगड़ा, जन्मान्ध, काना, फूटी आँख वाला, सर्पिरोग वाला, शूल रोगी, इन व्याधियों से पीड़ित, विकृत-शरीरी, मृतक-शरीर जो सड़ गया हो, जिसमें कीड़े कुलबुला रहे हों और घृणित वस्तुओं के ढेर तथा ऐसे अन्य प्रकार के अमनोज्ञ पदार्थों को देख कर, साधु उनसे द्वेष नहीं करे यावत् घृणा नहीं लावे। इस प्रकार चक्षुइन्द्रिय सम्बन्धी भावना से अपनी अन्तरात्मा को प्रभावित करता हुआ-पवित्र रखता हुआ धर्म का आचरण करता रहे। For Personal & Private Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 326 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०.२ अ०५ **************************************************************** तीसरी भावना-घ्राणेन्द्रिय-संयम तइयं घाणिदिएण अग्घाइय गंधाइं मणुण्णभद्दगाई। किं ते? जलय-थलयसरस-पुष्फ-फल-पाण-भोयण-कुट्ठ-तगर-पत्त-चोयदमणग-मरुय-एला-रसपिक्कमंसि-गोसीस-सरस-चंदण-कप्पूर-लवंग-अगर-कुंकुम-कक्कोल-उसीरसेयचंदण-सुगंधसारंग-जुत्तिवर-धूववासे उउय-पिंडिम-णिहारिमगंधिएसु अण्णेसु य एवमाइएसु गंधेसु मणुण्णभद्दएसु ण तेसु समणेण सजियव्वं जाव ण सई च मइं च तत्थ कुज्जा। __ शब्दार्थ - तइयं - तीसरी, पाणिदिएण - घ्राणेन्द्रिय से, अग्याइय - सूंघ कर, गंधाई - गन्धों को, मणुण्णभद्दगाई - मनोज्ञ और उत्तम, किं ते - वे कौन से हैं, जलय-थलय-सरस-पुष्फ - जल और स्थल में उत्पन्न होने वाले उत्तम फूल, फल-पाण-भोयण - फल पानी और भोजन, कुट्ठ - कमल का पराग, तगर - तगर, पत्त - तमाल पत्र, चोय - छिलका, दमणग - दमनक-एक प्रकार का फूल, मरुयमरुआ, एणारस - इलायची का रस, पिक्कमंसि - पकी हुई मांसी, गोसीस-सरस-चंदण - गोशीर्ष नामक सरस चन्दन, कप्पूर - कपूर, लवंग - लौंग, अगर - अगर, कुंकुम - कुंकुम, कक्कोल - कक्कोल, उसीर - वीरण-खश, सेयचंदण - श्वेत चन्दन-मलय चन्दन, सुगंधसारंगजुत्तिवरधूववासे - इन उत्तम गंध वाले पदार्थों का जिसमें सम्मिश्रण है ऐसे धूप की सुगन्ध को, उउयपिंडिमणिहारिमगंधिएसु- ऋतु के अनुसार उत्पन्न फूल जिनका गन्ध बहुत दूर तक फैलता है उनके गंध को, अण्णेसु - दूसरे, य - और, एवमाइएसु - इसी प्रकार के, गंधेसु - गन्ध वाले पदार्थों को सूंघ कर, मणुण्णभद्दएसु - मनोज्ञ और श्रेष्ठ, ण तेसु समणे सज्जियव्वं - उनमें साधु को आसक्त नहीं होना चाहिए, जाव - यावत्, सइ-स्मरण, य-और, मई - विचार, तत्थ - उनका, ण कुज्जा-नहीं करना चाहिए। ___भावार्थ - तीसरी भावना घ्राणेन्द्रिय-संवर है। मनोहर उत्तम सुगन्धों में आसक्त नहीं होना चाहिए। वे सुगन्ध कौन-से हैं ? जल और स्थल में उत्पन्न सरस पुष्प और फल तथा भोजन, पानी, कमल का पराग, तगर, तमाल-पत्र, छाल, दमनक, मरुआ, इलायची, पक्वमांसी (एक सुगन्धित द्रव्य) गोशीर्ष नामक सरस चन्दन, कपूर, लोंग, अगर, कुंकुम (केसर) कक्कोल, वीरण (खश) श्वेत चन्दन, (मलय चन्दन) उत्तम गन्धवाले पदार्थों के मिश्रण से बने हुए धूप की सुगन्ध, ऋतु के अनुसार उत्पन्न पुष्प, जिनकी गन्ध दूर तक फैलती है, इसी प्रकार के अन्य मनोज्ञ एवं श्रेष्ठ गन्ध वाले पदार्थों की गन्ध पर साधु को आसक्त नहीं होना चाहिए यावत् उन गन्धों का स्मरण एवं चिन्तन भी नहीं करना चाहिए। .. पुणरवि घाणिदिएण अग्याइय गंधाइं अमणुण्णपावगाई। किं ते? अहिमडअस्समड-हत्थिमड-गोमड-विग-सुणग-सियाल-मणुय-मजार-सीह-दीविय-मय For Personal & Private Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 327 चतुर्थ भावना-रसनेन्द्रिय-संयम **************************************************************** कुहिय- विट्ठ-किविण-बहुदुरभिगंधेसु अण्णेहु य एवमाइएसुगंधेसु अमणुण्ण पावगेसु ण तेसु समणेण रूसियव्वं जाब पणिहियपंचिंदिए चरेज धम्म। शब्दार्थ - पुणरवि - पुन:, घाणिदिएण - घ्राणेन्द्रिय से, अग्घाइय - सूंघ कर अपने मन में द्वेष न लावे, गंधाइं - गन्धों को, अमणुण्णपावगाइं - अमनोज्ञ और बुरे, किं ते - वे कौन-से हैं, अहिमडमरा हुआ सर्प, अस्समड - मरा हुआ घोडा, हत्थिमड - मरा हुआ हाथी, गोमड - मरा हुआ बैल, विगभेड़िया, सुणग - कुत्ता, सियाल - शृगाल, मणुय - मनुष्य, मज्जार - बिल्ली, सीह - सिंह, दीविय - द्वीपी-चीता, मय - मृत कलेवर, कुहिय - जो सड़ गये हैं, विट्ठ - विकृत हो गये हैं, किविण - जिनमें कीड़े पड़ गये हैं, बहुदुरभिगंधेसु - अत्यन्त दुर्गन्ध वाले हैं, अण्णेसु- दूसरे, य-और एवमाइएसुइसी प्रकार के, गंधेसु- गन्ध वाले पदार्थ, अमणुण्णपावगेसु - अमनोज्ञ और बुरे, तेसु - उनमें, समणेणसाधु, ण रूसियव्वं - द्वेष नहीं करे, जाव - यावत्, पणिहियपंचिंदिए - पाँचों इन्द्रियों को वश में रखता हुआ, चरेज धम्मं - धर्म का आचरण करे। भावार्थ - घ्राणेन्द्रिय से अप्रिय लगने वाली दुर्गन्ध के प्रति द्वेष नहीं करना चाहिए। वे दुर्गन्धित पदार्थ कौन से हैं ? मरे हुए सर्प का कलेवर, मरा हुआ घोड़ा, हाथी, बैल, भेड़िया, कुत्ता, शृंगाल, मनुष्य, बिल्ली, सिंह, चीता इत्यादि के शव सड़ गए हों, उनमें कीड़े पड़ गए हों, जिनकी दुर्गन्ध अत्यन्त असह्य एवं दूर तक फैली हो और अन्य भी दुर्गन्धमय पदार्थों की गन्ध प्राप्त होने पर, साधु उस पर द्वेष नहीं करे यावत् अपनी पांचों इन्द्रियों को वश में रखता हुआ धर्म का आचरण करे। . चतुर्थ भावना-रसनेन्द्रिय-संयम चउत्थं जिब्भिदिएणसाइयरसाणि मणुण्णभद्दगाई। किं ते? उग्माहिमविविहपाणभोयण-गुलकय-खंडकय-तेल्ल-घयकय-भक्खेसु-बहुविहेसु लवणरससंजुत्तेसु महुमंस-बहुप्पगारमजिय-णिट्ठाणगदालियंब-सेहंब-दुद्धदहि-सरयमज्जवरवारुणी-सीहुकाविसायण-सायट्ठारस-बहुप्पगारेसु भोयणेसु य मणुण्ण-वण्णगंधरसफास-बहुदव्वसंभिएसु अण्णेसु य एवमाइएसु रसेसु मणुण्णभद्दएसु ण तेसु समणेण सज्जियव्वं जावण सइंच मइं च तत्थ कुजा। ... शब्दार्थ - चउत्थं - चतुर्थ, जिब्भिंदिएण - जिह्वेन्द्रिय द्वारा, साइय - आस्वाद लेकर, रसाणि - रसों का, मणुण्णभद्दगाई- मनोज्ञ और उत्तम, किं ते - वे कौन-सै हैं, उग्गाहिय - घेवर आदि पक्वान्न, विविह पाण - विविध प्रकार के पीने योग्य पदार्थ, भोयण - भोजन, गुलकयखंडकय - गुड़ और शक्कर से निर्मित, तेल्लघयकय - तेल और घी में पकाये हुए, भक्खेसु - खाद्य पदार्थों में, बहुविहेसुविविध प्रकार के, लवणरससंजुत्तेसु - नमकीन स्वाद वाले पदार्थों में, महु - मधु, मंस - मांस, For Personal & Private Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०५ **************************************************************** बहुप्पगारमज्जिय- बहुत प्रकार की मदिरा, णिहाणग - बहुमूल्य चीजों से बनाया हुआ द्रव्य, दालियंबकांजी बड़े, सेहंब - आम आदि का अचार अथवा इमली की चटनी, दुद्ध - दूध, दही - दही, सरय - सिरका, मज - मद्य, वरवारुणि - उत्कृष्ट मदिरा, सीहु - सिधु, काविसायण - कापीशायन मदिरा विशेष, सायट्ठारस - शाक है अठारहवां जिनमें ऐसे, बहुप्पगारेसु - बहुत प्रकार के, भोयणेसु - भोजन, य - और, मणुण्ण-वण्णगंधरसफास-बहुदव्व-संभिएसु - जिनका वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श बहुत ही उत्तम है और उत्तम पदार्थों से संस्कारित किये गये हैं ऐसे, अण्णेसु - दूसरे, य - और, एवमाइएसु- इसी प्रकार के, रसेसु - रसों का स्वाद ले कर, मणुण्णभद्दएसु - मनोज्ञ और स्वादिष्ट, तेसु - उनमें, समणेण - साधु, ण सज्जियव्वं - आसक्त नहीं हो, जाव - यावत्, सई - स्मरणं, य - और, मई - विचार, तत्थ - उनका, ण कुज्जा - नहीं करे। . भावार्थ - चौथी भावना जिह्वेन्द्रिय का निग्रह है। साधु रसनेन्द्रिय द्वारा मनभावने एवं उत्तम रसों का आस्वादन करके आसक्त नहीं बने। वे रस कौन-से हैं? . उत्तर - घृत में तल कर बनाये गए घेवर खाजा आदि और विविध प्रकार के भोजन-पान, गुड़ और शक्कर से बनाये हुए तिलपट्टी लड्डू, मालपूआ आदि भोज्य पदार्थों में, अनेक प्रकार की लवणयुक्त (नमकीन-मशालेदार) वस्तुओं में, मधु, मांस, बहुत प्रकार की मदिरा बहुमूल्य सामग्री से निर्मित पदार्थ कांजी बडे. आम आदि का अचार या इमली आदि की चटनी. दध, दही, सिरका, मद्य, वरवारुणी (उत्तम मदिरा) सिधु (आसव विशेष-गन्ना आदि से बनाया हुआ मद्य) कपिशायन (मदिरा विशेष) अठारह प्रकार के शाक (अथवा अठारहवाँ शाक है जिस भोजन में ऐसा) और विविध प्रकार के भोजन तथा वे द्रव्य कि जिनका वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श उत्तम है और उत्तम वस्तुओं के योग से संस्कारित किये गये हैं, इस प्रकार के सभी उत्तम एवं मनोज्ञ स्वादिष्ट रसों में साधु आसक्त नहीं बने . यावत् उनका स्मरण-चिन्तन भी नहीं करे। . विवेचन - उपरोक्त भावना में मन-मोहक उत्तम रसों का वर्णन करते हुए शास्त्रकार ने 'मधु मद्य और मांस' का भी उल्लेख किया है। जैन मात्र के लिए इनका सेवन निषिद्ध है। ये वस्तुएँ आसक्ति बढ़ाने और लुब्धता में वृद्धि करने वाले पदार्थों में सम्मिलित है, इसलिए मनोज्ञ रस वाले पदार्थों में इनकी भी गणना की गई है अथवा जिसने गृहस्थावस्था में इनका आस्वादन किया हो और उनके देखने या स्मृति में आने से रसाकर्षण उत्पन्न हो, तो उससे बचने के लिए साधु को रसनेन्द्रिय निग्रह करने का उपदेश दिया है। पुणरवि जिब्भिंदिएण साइय रसाइं अमणुण्णपावगाइं किं ते? अरस-विरससीय-लुक्ख-णिज्जप्पपाण-भोयणाई दोसीण-वावण्ण-कुहिय-पूइय-अमणुण्णविणट्ठप्पसूय-बहुदुब्भिगंधियाइं तित्त-कडुय-कसाय-अंबिलरस-लिंडणीरसाइं अण्णेसु य एवमाइएसु रसेसु अमणुण्णपावगेसुण तेसु समणेण रूसियव्वं जाव चरेज धम्म। For Personal & Private Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम भावना-स्पर्शनेन्द्रिय-संयम 329 **************************************************************** शब्दार्थ - पुणरवि - पुनः जिब्भिंदिएण - जिह्वेन्द्रिय द्वारा, साइय - स्वाद लेकर, रसाइं - रसों का, अमणुण्णपावगाइं - अमनोज्ञ और बुरे, किं ते - वे कौन-से हैं, अरस - अरस, विरस-विरस, सीयठंडा, लुक्ख - रूखा, णिजप्प - निस्सार, पाणभोयणाई - पानी तथा आहार, दोसीण - रात्रि का पकाया हुआ अन्न, वावण्ण - विकृत स्वाद वाला, कुहिय - सड़ा हुआ, पूइयं - अपवित्र, अमणुण्ण - अमनोज्ञ, विण?- अत्यन्त विकृत अवस्था को प्राप्त, पसूय बहुदुब्भिगंधियाई - जिससे अत्यन्त दुर्गन्ध निकल रही है ऐसा, तित्त - तीखा, कडुय - कडुआ, कसाय - कषैला, अंबिलरस - खट्टा, लिंडणीरसाइं - बिल्कुल नीरस आहार-पानी, अण्णेसु - दूसरे, य - और एवमाइएसु - इसी प्रकार के, रसेसु- रसों का, अमणुण्णपावगेसु - अमनोज्ञ और बुरे, तेसु - उनमें, समणेण - साधु, ण रूसियव्वंद्वेष भाव नहीं लावे, जाव - यावत्, चरेज धम्म - धर्म का आचरण करे। भावार्थ - रसनेन्द्रिय के द्वारा अमनोज्ञ-अरुचिकर-बुरे रसों का आस्वाद लेकर उनमें द्वेष नहीं करे। वे अनिच्छनीय रस कौन-से हैं? उत्तर - अरस, विरस; शीत (ठंडा), रूक्ष और निस्सार आहारपानी, रात्रि में पकाया हुआ, विकृत रस वाला, सड़ा हुआ, बिगड़ा हुआ, घृणित, अत्यन्त विकृत बना हुआ, जिससे अत्यन्त दुर्गन्ध आ रही है ऐसा तीखा; कडुआ, कषैला, खट्टा और अत्यन्त नीरस आहार पानी और इसी प्रकार के अन्य घृणित रसों पर, साधु द्वेष नहीं करे, रुष्ट नहीं होवे और रसना पर संयम रख कर धर्म का पालन करे।। पंचम भावना-स्पर्शनेन्द्रिय-संयम - पंचमगं फासिदिएण फासिप फासाइं मणुण्णभद्दगाई। किं ते? दग-मंडव-हारसेयचंदणा-सीयल-विमल-जल-विविहकुसुम-सत्थर-ओसीर-मुत्तिय-मुणालदोसिणापेहुणउक्खेवग-तालियंट-वीयणगजणियसुहसीयले य पवणे गिम्हकाले सुहफासाणि य बहुणि सयणाणि आसणाणि य पाउरणगुणे य सिसिरकाले अंगारपयावणा य आयवणिद्धमउयसीय-उसिणलहुआ य जे उउसुहफासा अंगसुहणिव्वुइगरा ते अण्णेसु य एवमाइएसु फासेसुमणुण्णभद्दगेसुण तेसु समणेण सजियव्वं ण रजियव्वं ण गिझियव्वं ण मुमझियव्वं ण विणिग्घायं आवज्जियव्वं ण लुब्भियव्वं ण अज्झोववजियव्वं ण तूसियव्वं ण हसियव्वं ण सइंच मइंच तत्थ कुज्जा। . शब्दार्थ - पंचमगं - पांचवीं, फासिंदिएण - स्पर्शनेन्द्रिय से, फासिय - स्पर्श करके, फासाई - स्पर्शों का, मणुण्णभहगाई - मनोज्ञ और सुखकारी, किं ते - वे कौन से हैं, दगमंडव - जिनमें से जल झर रहा है ऐसे मंडप, हार - हार, सेयचंदण - श्वेत चन्दन, सियलविमलजल - शीतल और निर्मल जल, विविह कुसुमसत्थर - विविध प्रकार के फूलों की शय्या, ओसीर - खश, मुत्तिय - मोतियों की For Personal & Private Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 330 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०५ **************************************************************** माला, मुणाल - कमल की माल, दोसिणा - रात्रि की चांदनी, पेहुणउक्खेवग - मोर के पिच्छों का पंखा, तालियंटवीयणग - ताड़ का पंखा, जणियसुहसीयले - इन वस्तुओं से उत्पन्न होने वाला सुखदायक शीतल, य - और, पवणे - पवन, गिम्हकाले - ग्रीष्मकाल में, सुहफासाणि - सुखदायक स्पर्श वालें, बहूणि - बहुत-से, सयणाणि - शयन, य - और, आसणाणि - आसन, पाउरणगुणे - शीत हरण करने वाला शाल-दुशाला, सिसिरकाले - शीतलकाल में, अंगारपयावणा - अग्नि से तापना, य - और, आयव - सूर्य की धूप का सेवन करना, णिद्ध - स्निग्ध-चिकना, मउय - मृदु, सीय - शीतल, उसिण - उष्ण, लहुय - हल्का, य - और, जे - जो, उउसुहफासा - उन-उन ऋतुओं में सुखदायक स्पर्श वाले पदार्थ, अंगसुहणिव्वइगरा - अंग को सुख देने वाले पदार्थों का स्पर्श करके, अण्णेसु - दूसरे, य - और, एवमाइएसु - इसी प्रकार के, फासेसु - स्पर्श वाले पदार्थों का स्पर्श करके, मणुण्णभद्दगेसु - मनोज्ञ और सुखकारी, तेसु - उनमें, समणेण - साधु को, ण सज्जियव्वं - आसक्त नहीं होना चाहिए, ण रज्जियव्वं - अनुरक्त नहीं होना चाहिए, ण गिज्झियव्वं - गृद्ध नहीं होना चाहिए, ण मुज्झियव्वं - मूच्छित नहीं होना चाहिए, ण विणिग्यायं आवज्जियव्वं - उन स्पर्शों के लिए किसी जीव की घात नहीं करनी चाहिए, ण लुब्भियव्वं - लुब्ध नहीं होना चाहिए, ण अज्झोववज्जियव्वं - उनके लिए चिन्तित नहीं रहना चाहिए, ण तूसियव्वं - संतोष एवं हर्ष नहीं करना चाहिए, ण हसियव्वंहँसना नहीं चाहिए, सइं- स्मरण, य - और, मई - विचार, तत्थ - उनका, ण कुजा - नहीं करना चाहिए। भावार्थ - पांचवीं भावना स्पर्शनेन्द्रिय संवर है। साधु स्पर्शनेन्द्रिय से,मनोज्ञ और सुखदायक स्पर्शों को स्पर्श कर उनमें आसक्त नहीं बने। वे मनोज्ञ स्पर्श वाले द्रव्य कौन-से हैं ? जिनमें से जलकण बरस रहे हैं, ऐसे मण्डप (फव्वारा युक्त मण्डप) हार (मालाएँ) श्वेत चन्दन, निर्मल शीतल जल, विविध प्रकार के फूलों की शय्या, खश, मोतियों की माला, कमल की माल, इनका स्पर्श करना, रात्रि में निर्मल चांदनी में बैठकर, सो कर या विचरण कर सुखानुभव करना, ग्रीष्मकाल में मयूरपंख का और ताड़पत्र का पंखा झल कर शीतल वायु का सेवन करना और कोमल स्पर्श वाले वस्त्र, बिछौने और आसन का उपयोग करना, शीतकाल में उष्णता उत्पन्न करने वाले वस्त्र-शाल-दुशाले आदि ओढ़ना तथा अग्नि के ताप या सूर्य के ताप का सेवन करना तथा ऋतुओं के अनुसार स्निग्ध, मृदु, शीतल, उष्ण, लघु आदि सुखदायक पदार्थों का और इसी प्रकार के अन्य सुखद स्पर्शों का अनुभव करके आसक्त नहीं होना चाहिए। अनुरक्त, लुब्ध, गृद्ध एवं मूर्च्छित भी नहीं होना चाहिए और उन स्पर्शों को प्राप्त करने की चिंता तथा प्राप्ति पर प्रसन्न, तुष्ट एवं हर्षित नहीं होना चाहिए, इतना ही नहीं, इन्हें प्राप्त करने का विचार अथवा पूर्व प्राप्त का स्मरण भी नहीं करना चाहिए। विवेचन - स्पर्शनेन्द्रिय के वश होकर साधु-साध्वी, संयमधर्म की उपेक्षा नहीं कर दें, इसलिए सूत्रकार भगवंत ने उपरोक्त उपदेश दिया है। सुखशीलिए बने हुए साधु, संयम को दूषित करते हैं। सुखशीलियापन से संयम में क्षति होती है। मुलायम एवं उज्वल वस्त्र, अकारण सुगन्धित तेल की For Personal & Private Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम भावना-स्पर्शनेन्द्रिय-संयम 331 **************************************************************** मालिश, टूथपेस्ट सेवन, स्नान, अकारण वस्त्र-धोवन आदि प्रवृत्ति भी इस महाव्रत और इस भावना का उल्लंघन करके ही की जाती है। आत्मार्थियों को इससे बचना चाहिए। पुणरवि फासिदिएण फासिय फासियाइं अमणुण्णपावगाइं। किं ते? अणेगवह-बंध-तालणंकण-अइभारारोवणए अंगभंजण-सूईणखप्पवेस-गायपच्छणणलक्खारसखारतेल्ल कलकलंत-तउय-सीसग-काललोह-सिंचण-हडिबंधणरज्जुणिगल संकल-हत्थंडुय-कुंभिपागदहण-सीहपुच्छण-उब्ब-धण-सूलभेयगयचलण-मलण-करचरण-कण्ण-णासोट्ठ-सीसच्छेयण जिब्भच्छेयण-वसण-णयणहियय-दंतभंजण-जोत्तलय-कसप्पहार-पाय-पण्हि-जाणु-पत्थर-णिवाय-पीलणकविकच्छु-अगणि-विच्छुयड़क्क-वायाततव-दंसमसग-णिवाए दुट्टणिसजदुण्णिसीहिय-दुब्भि-कक्खड-गुरु-सीय-उसिण-लुक्खेसु बहुविहेसु अण्णेसु य एवमाइएसु फासेसु अमणुण्णपावगेसु ण तेसु समणेण रूसियव्वं ण हीलियव्वं ण णिंदियव्वं ण गरहियव्वं ण खिसियव्वं ण छिंदियव्वं ण भिंदियव्वं ण वहेयव्वं ण दुगंछावत्तियव्वं य लुब्भाउप्पाएउं एवं फासिंदियभावणा भाविओ भवइ अंतरप्या, मणुण्णामणुण्ण-सुब्भि-दुब्भिरागदोसपणिहियप्पा साहू मणवयणकायगुत्ते संवुडेणं पणिहिइंदिए चरिज धम्म। शब्दार्थ - पुणरवि - फिर, फासिदिएण - स्पर्शनेन्द्रिय द्वारा, फासिय - स्पर्श करके, फासियाइंस्पर्शों का, अमणुण्णषावगाइं - अमनोज्ञ और बुरे, किं ते - वे कौन से हैं, अणेग - विविध प्रकार से, वह - वध करना, बंध - बाँधना, तालण - ताड़ना, अंकण - दाग देना, अइभारारोहण - बहुत भार लादना, अंगभंजण - अंगों को मरोड़ कर तोड़ना, सूईणखप्पवेस - नखों में सूई चुभाना, गायपच्छणणशरीर को छिलना, लक्खारसखारतेल्लकलकलंत - लाख के रस को और कडुए तेल को अति तप्त करके उसके द्वारा शरीर का सेंकना, तउय - रांगा, सीसग - शीशी, काललोह - तप्त लोहे द्वारा, सिंचणसींचना, हडिबंधण - हड्डी-बंधन, रज्जुणिगलसंकल - रस्सी या बेड़ी से बन्धन, हत्थंडुय - हाथों को बांध देना, कुंभिपाग - कुम्भि में पकाया जाना, दहण - अग्नि से जलाया जाना, सीहपुंच्छण - अंडकोश निकालना, उबंधण - उद्बन्धन-गले में रस्सी बांध कर लटना देना, सूलभेय - शूली पर चढ़ा कर भेदन करना, गयचलणमलण - हाथी के पांव के नीचे डाल कर मसल डालना, करचरण-कण्णणासोट्ठसीसच्छेयण - हाथ, पांव, कान, नाक, ओष्ठ और सिर का छेदन, जिब्भछेयण - जीभ को उखाड़ना, वसणणयण-हिययदंत-भंजण - अण्डकोश, नेत्र, हृदय और दाँतों को उखाड़ लेना, जोत्तलयकसप्पहार - चमड़े की चाबुक, हण्टर और लता द्वारा ताड़न, पायपण्हिजाणुपत्थरणिवाय - For Personal & Private Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 332 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०५ *************************************************** पांव, एड़ी और घुटना पर पत्थर मारना, पीलण - कोल्हू में डाल कर पीड़न करना, कविकच्छु - तीव्र खाज उत्पन्न करने वाले फल विशेष द्वारा ताड़ना, अगणि - अग्नि में तपाना, विच्छुयडक्क - बिच्छू का डंक मारना, वायातवदंसमसगणिवाय - वायु, धूप, डांस और मच्छर आदि से होने वाला कष्ट, दुइणिसज्जसीहिय - कष्टदायक शय्या और आसन, दुब्भिकक्खड - अत्यन्त कर्कश, गुरु - भारी, सीयशीत, उसिण - उष्ण, लुक्खेसु - रूक्ष, बहुविहेसु - विविध प्रकार के, अण्णेसु - दूसरे, य - और, एवमाइएसु - इसी प्रकार के, फासेसु - स्पर्श करके, अमणुण्णपावगेसु - अमनोज्ञ और बुरे, तेसुउनमें, समणेण - साधु को, ण रूसियव्वं - द्वेष नहीं करना चाहिए, णं हीलियव्वं - हीलना नहीं करनी . चाहिए, ण णिंदियव्वं- निन्दा नहीं करनी चाहिए, ण गरहियव्वं- गर्दा नहीं करनी चाहिए, ण खिंसियव्वंखिंसना नहीं चाहिए, ण छिंदियव्वं - छेदन नहीं करना चाहिए, ण भिंदियव्वं - भेदन नहीं करना; ण वहेयव्वं - वध नहीं करना, य - और, ण दुगुच्छावत्तियं उप्पाएउंण लब्भा - उनमें घृणा भी उत्पन्न नहीं करनी चाहिए, एवं - इस प्रकार, फासिंदिय भावणा भाविओ - स्पर्शनेन्द्रिय की भावना से भावित, अंतरप्पा - अन्तरात्मा, भवई - होता है, मणुण्णामणुण्ण-सुब्भि-दुब्भिरागदोसपणिहियप्पा - मनोज्ञ, अमनोज्ञ, सुगन्धित और दुर्गन्धित पदार्थों में अपनी आत्मा को राग-द्वेष रहित रखता हुआ, मणवयणकायगुत्ते - मन, वचन और काया से गुप्त, संवुडे - संवरधारी, पणिहिइंदिए - जितेन्द्रिय, साहू - साधु, चरिज धम्म- धर्म का आचरण करे। भावार्थ - मनोज्ञ स्पर्श की रुचि, आसक्ति एवं लुब्धता का निषेध करने के बाद अमनोज्ञ स्पर्श के प्रति द्वेष का निषेध किया जा रहा है। साधु, स्पर्शनेन्द्रिय से अमनोरम स्पर्श करके उन पर क्रोध या द्वेष नहीं करे। वे अमनोज्ञ स्पर्श कौन से हैं? उत्तर - विविध प्रकार से कोई वध करे, रस्सी आदि से बांधे, थप्पड़ आदि मारकर ताड़ना करे, अंकन-उष्ण लोह-शलाका से दाग-कर अंग पर चिह्न बनावे, शक्ति से अधिक भार लादे, अंगों को तोड़े-मरोड़े, नखों में सूई चुभावे, शरीर को छिले, उबलता हुआ लाख का रस, क्षारयुक्त तेल, रांगा, शीशा और तप्त लोह-रस से अंग सिंचन करे (शरीर पर ऊँडेले) हड्डिबन्धन (खोड़े में पाव फँसाकर बन्दी बनावे) रस्सी या बेड़ी से बांधे, हाथों में हथकड़ी डाले, कुंभी में पकाया जाय, अग्नि में जलावे, सिंहपुच्छन (शिश्न भंग करे या अण्डकोश निकालकर नपुंसक करे) उद्बन्धन-वृक्ष आदि पर बांध कर लटकावे, शूल भोंके या शूली पर चढ़ावे, हाथी के पैरों में डाल कर कुचले, हाथ, पाँव, कान, ओष्ठ, नासिका और मस्तक का छेदन करे। जीभ उखाड़ले, अण्डकोश, नेत्र, हृदय और दाँतों को उखाड़ दे, चाबुक, बेंत या लता से प्रहार करे, पांव, ऐड़ी, घुटना और जानु आदि पर पत्थर से प्रहार करे, कोल्हू आदि में डाल कर पीले, करेंच फल के बुरे या अन्य साधन से तीव्र रूप से खुजली उत्पन्न करे, आग में तपावे या जलावे, बिच्छू से डंक लगवावे, वायु धूप, डांस-मच्छर आदि से होने वाले कष्ट, ऊबड़ For Personal & Private Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम संवरद्वार का उपसंहार 333 **************************************************************** . खाबड़ शय्या एवं आसन तथा अत्यन्त कठोर, भारी, शीत, उष्ण, रूक्ष और इस प्रकार के अन्य अनिच्छनीय एवं दुःखदायक स्पर्श होने पर साधु को उन पर द्वेष नहीं करना चाहिए। हीलना, निन्दा, गर्हा और खिंसना नहीं करनी चाहिए। क्रोधित होकर उनका छेदन-भेदन और वध नहीं करना। उन पर घृणा भी नहीं करनी चाहिए। इस प्रकार स्पर्शनेन्द्रिय सम्बन्धी भावना से भावित आत्मा वाला साधु, निर्मल होता है। उसका चारित्र विशुद्ध रहता है। मनोज्ञ और अमनोज्ञ, सुगन्धित या दुर्गन्ध युक्त पदार्थों में आत्मा को राग-द्वेष रहित रखता हुआ साधु, मन, वचन और काया से गुप्त एवं संवृत्त रहे और जितेन्द्रिय होकर धर्म का आचरण करे। पंचम संवरद्वार का उपसंहार एवमिणं संवरस्स दारं सम्मं संवरियं होइ सुप्पणिहियं इमेहिं पंचहिं वि कारणेहिं मणवयकायपरिरक्खिएहिं णिच्चं आमरणंतं च एस जोगो णेयव्यो धिइमया मइमया, अणासवो अकलुसो अच्छिद्दो अपरिस्सावी अंसकिलिट्ठो सुद्धो सव्वजिणमणुण्णाओ। . शब्दार्थ - एवमिणं - इस प्रकार, संवरस्स - संवर का, दारं - द्वार, सम्मं - भली-भाँति, संवरियंपालन किया हुआ, होइ - होता है, सुप्पणिहियं - सुप्रणिहित-सुरक्षित, इमेहिं - इन, पंचहिं - पांच, कारणेहिं - कारणों से, मणवयकायपरिरक्खिएहिं - मन, वचन और काया से रक्षित करता हुआ, णिच्चं - सदैव, आमरणंतं - मरण-पर्यन्त, एस - इस, जोगो - योग का, णेयव्वो - पालन करना चाहिए, धिइमया - धैर्य-सम्पन्न, मइमया - बुद्धिमान्, अणासवो- आस्रव-रहित, अकलुसो - कलुषता-रहित, अच्छिद्दो - छिद्र-रहित, अपरिस्सावी - कर्म प्रवेश से रहित, असंकिलिट्ठो - संक्लेश रहित, सुद्धो - शुद्ध, सव्वजिणमणुण्णाओ - सभी जिनेश्वरों द्वारा आज्ञापित। . भावार्थ - इस प्रकार विशुद्धता पूर्वक आचरण करने से इस संवर द्वार का सम्यक् रूप से पालन होकर सुरक्षित होता है। धृतिमन्त और सुमतिवान् साधु इन पांच कारणों (भावनाओं) से, मन, वचन और काया से इस योग (व्रत) की रक्षा करता हुआ मृत्युपर्यन्त पालन करे। .. यह व्रत, आस्रव-रहित, कलुष-रहित, छिन्द्र-रहित, कर्म-प्रवेश के मार्ग से रहित और संक्लेश से रहित है। यह सभी जिनेश्वरों द्वारा अनुज्ञापित है। अकलुष - निर्मल-रज-रहित। अच्छिद्र - किसी भी दोष के लिए जहाँ छिद्र-अवकाश नहीं हो। . अपरिस्रावी - समस्त गुणों का धारक, विशुद्ध परिणाम। असंक्लिष्ट - संक्लेशन-रहित, शुद्ध भावपूर्वक। For Personal & Private Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 334 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०५ **************************************************************** एवं पंचमं संवरदारं फासियं पालियं सोहियं तीरियं किट्टियं अणुपालियं आणाए आराहिए भवइ / एवं णायमुणिणा भगवया पण्णवियं परूवियं पसिद्धं सिद्धं सिद्धवरसासणमिणं आघवियं सुदेसियं पसत्थं / त्ति बेमि। ॥पंचमं संवरदारं सम्मत्तं॥ शब्दार्थ - एवं - इस प्रकार, पंचमं - पाँचवां, संवरदारं - संवरद्वार, फासियं - स्पृष्ट, पालियं - पालित, सोहियं - शोभित एवं शोधित, तीरियं - तीरित, किट्टियं - कीर्तित, अणुपालियं - अनुपालित, आणाए - आज्ञानुसार, आराहियं - आराधित, भवइ - होता है, णायमुणिणा भगवया - ज्ञातकुलोत्पन्न भगवान् महावीर स्वामी ने, पण्णवियं - कहा है, परूवियं - प्ररूपणा की है, पसिद्धं - प्रसिद्ध, सिद्धं - सिद्ध, सिद्धवरसासणं - अपने कार्य को सिद्ध करने वाले तीर्थंकर भगवान् की प्रधान आज्ञा है, इणं- इसके लिए, आघवियं - सम्यक् प्रकार से निरूपण, सुदेसियं - भली प्रकार उपदेशित, पसत्यं - प्रशस्त, सम्मत्तं - समाप्त हुआ, त्ति बेमि - ऐसा मैं कहता हूँ। - भावार्थ - इस प्रकार पंचम संवरद्वार का स्पर्श किया जाता है, पालन और शोधन होता है, पार पहुंचाया जाता है, कीर्तित होता है, आराधना होती है, जिनेश्वर की आज्ञानुसार अनुपालना एवं आराधना होती हैं। ऐसा ज्ञातकुलोत्पन्न भगवान् महावीर स्वामी ने कहा है। प्ररूपित किया है। यह मार्ग सिद्ध है, प्रसिद्ध है। इसके लिए अपने समस्त कार्य को सिद्ध करने वाले तीर्थंकर भगवंत की मुख्य रूप से आज्ञा है। भगवान् ने इसका निरूपण किया है, भली प्रकार से उपदेश दिया है। भगवान् का यह उपदेश प्रशस्त (मंगलमय) है। ऐसा मैं कहता हूँ। // यह पांचवां संवर द्वार समाप्त हुआ। * "वायणंतरे पुण-एयाणि पंचावि सुव्वय-महव्वयाणि 'लोगधिइकरणाणि, सुयसागरदेसियाणि संजमसीलव्वयसच्चजवमयाणि णरयतिरियदेवमणुयगइविवज्जयाणि सव्वजिणसासणाणि कम्मरयवियारयाणि भवसयविमोयगाणि दुक्खसयविणासगाणि सुक्खसयपवत्तयाणि कापुरिससुदुरुत्तराणि सप्पुरिसजणतीरियाणि णिव्वाणगमणजाणाणि कहियाणि सग्गपवायगाणि पंचावि महब्वयाणि कहियाणि।". For Personal & Private Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पूर्ण संवरद्वार का उपसंहार एयाइं वयाइं पंच वि सुव्वय महब्बयाई हेउसयविचित्त-पुक्कलाई कहियाई अरिहंतसासणे पंच समासेण संवरा वित्थेरण उ पणवीसइ-समियसहिय-संवुडे सया जयण-घडण-सुविसुद्ध-दंसणे एए अणुचरियं संजए चरमसरीरधरे भविस्सइ। शब्दार्थ - एयाइं - ये, वयाई - व्रत, पंच - पाँच, सुव्वय - सुन्दर व्रत के धारण करने वाले, महव्वयाई - महाव्रत रूप, हेउसय-विचित्त पुक्कलाई - ये सैकड़ों विचित्र निर्दोष और पुष्ट युक्तियों द्वारा, कहियाई - कहे गये हैं, अरिहंतसासणे - तीर्थंकर भगवान् के शासन में, पंच - पाँच, समासेणसंक्षेप से, संवरा - संवर है, वित्थरेण - विस्तार से, पणवीसइ - पच्चीस होते हैं, समियसहिय - समिति आदि पांच-पांच भावनाओं सहित, संवुडे - कषाय तथा इन्द्रियों का निरोध, सया - सदा, जयणघडण - प्राप्त योग में प्रयत्न और अप्राप्त की प्राप्ति का उपाय करता रहता है, सुविसुद्धदंसणे - विशुद्ध ज्ञान-दर्शन संयुक्त होकर, एए - इस संवरों का, अणुचरिय - सेवन करके, संजए - साधु, चरमसरीरधरे - चरम शरीरी, भविस्सइ - हो जाएगा। भावार्थ - ये पांच सुव्रत, महाव्रत रूंप हैं / आहत-दर्शन में ये सैकड़ों निर्दोष एवं शुद्ध युक्तियों से परिपुष्ट हुए हैं। ये पांच संवरद्वार संक्षेप में कहे गये हैं। विस्तार से (भावनाओं से) ये ही पच्चीस होते हैं। जो सुसंयती, समिति आदि भावनाओं से युक्त होकर इनका पालन करते हैं, वे विशुद्ध ज्ञान और दर्शन युक्त होकर अपनी इन्द्रियों और कषाय का निरोध करते हैं तथा प्राप्त योग-महाव्रत के पालन और रक्षण में प्रयत्नशील रहते हैं। जो सुसंयत इनका पालन करेंगे, वे चरिमशरीरी हो जायेंगे। पण्हावागरणे णं एगो सुयक्खंधो दस अज्झयणा एक्कसरगा दससु चेव दिवसेसु उद्दिसिजंति एगंतरेसु आयंबिलेसु णिरुद्धेसु आउत्त-भत्तपाणएणं अंगं जहा आयारस्स। ॥इइ पण्हवागरणं सुत्तं सम्मत्तं॥ . शब्दार्थ - पण्हवागरणे - प्रश्नव्याकरण सूत्र में, एगो - एक, सुयक्खंधो - श्रुतस्कन्ध है, दस - दस, अज्झयणा - अध्ययन, एक्कसरगा - एक समान, दससु- दस, दिवसेसु - दिनों में, उद्दिसिजति - उपदेश किया जाता है, एगंतरेसु - एकान्तर, आयंबिलेसु - आयम्बिल, णिरुद्धेसु - करते हुए, आउत्तभत्तयाणएणं - अन्तप्रान्त आहार करते हुए, इइ - यह, पण्हवागरणं - प्रश्नव्याकरण, सुत्तं - सूत्र, सम्मत्तं - समाप्त हुआ। For Personal & Private Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 336 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०५ **************************************************************** भावार्थ - प्रश्नव्याकरण में एक श्रुतस्कन्ध और दस अध्ययन हैं। इसका एक समान दस दिनों में एकान्तर आयंबिल करते हुए अथवा अन्त-प्रान्त आहार करते हुए उपदेश करना चाहिए। विशेष वर्णन आचारांग के समान जानना चाहिए। यह प्रश्नव्याकरण सूत्र पाप और धर्म का विवेचन करने वाला है। आत्मा से परमात्मा बनाने वाली विशिष्ट एवं सर्वोत्तम साधना का उपदेश करने वाला परमोपकारी सूत्र है। इसका रुचि प्रतीति एवं श्रद्धायुक्त पठन-मनन करके स्पर्शन करने वाले भव्य जीव, निश्चय ही मुक्ति लाभ करेंगे। . जयइ सव्वण्णु सासणं। परमसंबोहिए सुहिणो भवंति जीवा, सुहिणो भवंति जीवा। जिनेश्वर भगवंत की जय हो। निर्ग्रन्थ गुरुवर की जय हो। निर्ग्रन्थ धर्म को जय हो॥ // प्रश्नव्याकरण सूत्र समाप्त॥ For Personal & Private Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावयण जग्गथ पाल सच्चं जो गयरं वंदे niORA "ज्वमिज्जर श्री अ.भा.सुध संघ गणाय जइ सयय उधर्म जैन संस्कृति ययं तं सब + संघ जोधपुर स्कृति रक्षक संघ नरक्ष खिल नरक्षक अखिल नरक्षक संघ संघ अखिल निरक्षक संघ अखि रक्षक संघ अखिल ने रक्षक संघ अखिल भारत स्कृति रक्षक संघ अखिल नरक्षक संघ अखिल भारतीय सुधा जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल ने रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन सस्काटा भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल नरक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल नरक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल नरक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल नरक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल नरक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल नरक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल नरक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल नरक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल नरक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल नरक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल नरक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सधर्म जैन संस्कति रक्षक संघ अखिल नरक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल नरक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल नरक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल नरक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल