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________________ इस आवृत्ति के विषय में - [7] निवेदन जैन दर्शन के अनुसार जिन महापुरुषों ने अपने प्रबल पुरुषार्थ से तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन किया उन्हें तीर्थंकर नाम कर्म के उपार्जन के तीसरे भव में तीर्थंकर पद की प्राप्ति होती है । वे अपनी साधना आराधना के बल से चारघाती कर्मों को क्षय करके केवल ज्ञान-दर्शन प्राप्त : करते। इसके पश्चात् चतुर्विध संघ के हित के लिए धर्मोपदेश देकर तीर्थं की स्थापना करते हैं। उनका वह धर्मोपदेश अर्थ रूप में होता है जिसे गणधर भगवन्त सूत्र रूप में गूंथित करते हैं। उनकी वह विमल वाणी जिसे आगम ( सूत्र ) कहा जाता है। चूंकि यह वाणी राग द्वेष के विजेता सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतराग प्रभु द्वारा भाषित है, अतएव इसमें किंचित् मात्र भी दोष की संभावना नहीं रहती और न ही पूर्वापर विरोध या युक्तिबाध ही होती है। आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यक नियुक्ति में लिखा है " तप, नियम, ज्ञान रूप वृक्ष पर आरूढ़ होकर अनन्त ज्ञानी केवली भगवान् भव्य आत्माओं के बोध के लिए ज्ञान कुसुमों की वृष्टि करते हैं। गणधर प्रभु अपने बुद्धि पट में उन सभी कुसुमों को झेल कर प्रवचन माला गूंथते हैं। जैसा कि ऊपर बतलाया कि तीर्थंकर भगवन्त अर्थ रूप ही उपदेश फ़रमाते हैं, जिसे गणधर भगवन्त सूत्र बद्ध अथवा ग्रन्थ बद्ध करते हैं । अर्थात्मक सूत्र के प्रणेना तीर्थंकर प्रभु हैं । इसीलिए आगमों को तीर्थंकर -प्रणीत कहा है। प्रबुद्ध पाठकों को यह स्मरण रखना होगा कि आगम साहित्य की जो प्रामाणिकता है उसका मूल कारण गणधरकृत होने से नहीं, किन्तु उसके अर्थ के प्ररूपक तीर्थंकर की वीतरागता और सर्वज्ञता के कारण है। गणधर केवल द्वादशांगी की रचना करते हैं किन्तु अंग बाह्य आगमों की रचना स्थविर करते हैं । Jain Education International ****** आचार्य मलयगिरि आदि का अभिमत है कि गणधर तीर्थंकर भगवन्त के सन्मुख जब यह जिज्ञासा व्यक्त करते हैं कि तत्त्व क्या है ? उत्तर में तीर्थंकर "उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा " इस त्रिपदी का प्रवचन करते हैं । इस त्रिपदी के आधार पर जिन आगम साहित्य का निर्माण होता - है, वह आगम साहित्य अंग प्रविष्ट के रूप में विश्रुत होता है और अवशेष जितनी भी रचनाएं For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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