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________________ [8] . ******** *********************************************** हैं, वे सभी अंग बाह्य हैं। द्वादशांगी त्रिपदी से उद्भूत है, इसीलिए वह गणधर कृत भी है। यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि गणधरकृत होने से सभी रचनाएं अंग नहीं होती, त्रिपदी के अभाव में युक्त व्याकरण से जो रचनाएं की जाती है, भले ही उन रचनाओं के निर्माता गणधर हो अथवा स्थविर हो वे अंग बाह्य ही कहलायेगी। __ आगम साहित्य के नंदी सूत्र में अंग प्रविष्ट और अंग बाह्य दो भेद किये हैं। उसके पश्चात्वर्ती साहित्य में अंग-उपांग, मूल और छेद के रूप में आगमों का विभाग किया है। प्रस्तुत "प्रश्नव्याकरण सूत्र" मूल अंग प्रविष्ट आगम है। इस आगम के दो श्रुत स्कन्ध हैं। प्रथम श्रुतं स्कन्ध में पांच आस्रव का वर्णन है। इसमें प्रत्येक आस्रव के भेद प्रभेद, किन कारणों से जीव आस्रव का सेवन आदि करते हैं। यह बतलाया गया है। इनके सेवन का कटु फल बतलाते हुए आगमकार फरमाते हैं कि "अन्तर्मुहूर्त" मात्र निकृष्ट मय परिणामों से आस्रव का सेवन करने वाले जीव को सागरोपमों तक दुःख भोगना पड़ता है। बड़ के एक बारीक बीज का वृक्ष कितना विशाल हो जाता है उसके कितने असंख्यात बीज उत्पन्न हो जाते हैं और उसकी परम्परा इतनी बढ़ती रहती है कि जिसका कोई अन्त भी नहीं आता। इसी प्रकार एक मनुष्य भव में किए गए आस्रव के सेवन से आत्मा इतनी अधम बन जाती है कि उस पाप का काला रंग परम्परा से बढ़ता ही जाता है। __ आगमकार ने प्रथम श्रुतस्कन्ध में पांच आस्रवों का स्वरूप एवं सेवन का कटु फल बताकर दूसरे श्रुतस्कन्ध में पांच संवर का स्वरूप एवं महत्व बतलाया है, इसकी आराधना का फल बतलाते हुए आगमकार फरमाते हैं "हे उत्तम व्रतों के धारक जम्बू! ये पांच संवर रूपी महाव्रत, समस्त लोक के लिए हितकारी एवं मंगलकारी है। श्रुतसागर में इन महाव्रतों का उपदेश हुआ है। .. ये पांचों तप संयम और महाव्रत रूप है। शील एवं उत्तम गुणों का समूह इनमें रहा हुआ है। सत्य वचन एवं आर्जवता (सरलता) युक्त ये व्रत नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव गति को रोक कर मुक्ति प्रदान करने वाले हैं। सभी जिनेश्वर भगवन्तों ने इनकी शिक्षा प्रदान की है। ये संवर, कर्म रूपी रज को नष्ट करने वाले हैं। ये सैकड़ों भवों का छेदन कर सैकड़ों दुःखों को मिटाने वाले हैं और सैकड़ों प्रकार के सुखों को प्रदान करते हैं। इन महाव्रतों को कायर जन धारण नहीं कर सकते। इनका पालन सत्पुरुष ही कर सकते हैं। ये पांचों महाव्रत मोक्ष एवं स्वर्ग के प्रदाता है। इन पांच महाव्रतों का उपदेश भगवान् महावीर स्वामी ने दिया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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