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________________ 219 **** आहार की अहिंसक-निर्दोष विधि * MARRIA **************************************** भैषज आदि करके, लक्खणुप्पायसुमिण जोइस णिमित्तकहकप्पउत्तं - स्त्री-पुरुष के लक्षण, उत्पात, स्वप्नफल, ज्योतिष, निमित्त कथा और विस्मयोत्पादक बातें कहकर, ण - नही लें, डंभणाए - दम्भ अर्थात् माया का प्रयोग करके, रक्खणाए - रखवाली करके, सासणाए - दाता को किसी विद्या की शिक्षा देकर, डंभणरक्खणसासणाए - दम्भ, रक्षण और शिक्षा, इन तीनों का साथ ही प्रयोग करके, भिक्खं - भिक्षा की, ण गवेसियव्वं - गवेषणा नहीं करनी चाहिए, वंदणाए - वन्दना करके, माणणाए - मान-सम्मान देकर, पूयणाए - पूजा-सत्कार करके, वंदणमाणणपूयणाए - वन्दन, मान और पूजा, इन तीनों को एक साथ करके, भिक्खं - भिक्षा की, ण गवेसियव्वं - गवेषणा न करनी चाहिए। - भावार्थ - अहिंसा के पालक साधुओं को पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वाउकाय, वनस्पतिकाय, ये स्थावर और त्रसकाय, इन सभी प्राणियों के प्रति दया लाकर संयमपूर्वक जीवन चलाने के लिए शुद्ध भोजन की गवेषणा करनी चाहिए। साधु को वैसा ही आहार लेना चाहिए जो साधु के लिए नहीं बनाया हो, न किसी दूसरे से बनवाया हो, न गृहस्थ द्वारा साधु निमन्त्रित किया गया हो, औद्देशिक न हो और मूल्य देकर लिया हुआ भी नहीं हो। वह आहार नौ-कोटि विशुद्ध हो। शंकितादि दस दोषों से रहित, उद्गम, उत्पादन और एषणा के दोषों से सर्वथा वर्जित हो। जिस आहार में से जीव स्वयं निकल गए हों या दूसरों के द्वारा जीव-रहित किए हों, ऐसा प्रासुक आहार लेना साधु के लिए उपयुक्त है। . गृहस्थ के घर गए हुए साधु को गृहस्थ के आसन पर बैठ कर धर्मोपदेश का कार्य करके और कहानी सुनाकर, दाता को प्रसन्न करके आहार नहीं लेना चाहिए। आहार के लिए रोग की चिकित्सा, मन्त्र-प्रयोग और औषधि भी नहीं करनी चाहिए। स्त्री-पुरुष के लक्षण, भूकम्प, रक्तवृष्टि आदि उत्पात स्वप्नफल, ज्योतिष, निमित्त, विस्मय कारक बातें और कहानी कहकर भोजन पाने का योग भी नहीं मिलाना चाहिए। दाम्भिकता अपनाकर, गृहस्थ के घर की रखवाली कर, किसी प्रकार की शिक्षा देकर या दाम्भिकता, रक्षा और शिक्षा, ये तीनों कार्य करके भिक्षा की गवेषणा नहीं करनी चाहि। गृहस्थ की स्तुति प्रशंसा कर, सम्मानित कर, पूजा-सत्कार करके या वन्दन, मान और पूजा करके आहार की गवेषणा नहीं करनी चाहिए। - विवेचन - इस सूत्र में साधु को निर्दोष जीवन व्यतीत करने की विधि बताई है। अहिंसा के पूर्ण पालक को, अपनी देह एवं संयम का निर्वाह करने के लिए आहार करना पड़ता है। वह आहार, पूर्ण रूप से अहिंसक एवं निर्दोष होना चाहिए। आहार के वे कौन-कौन से दोष हैं जो पूर्ण अहिंसक के लिए त्याज्य हैं। उनका दिग्दर्शन इस सूत्र में हुआ है। ___णवहिं य कोडिहिं परिसुद्धं - नौ-कोटि परिशुद्ध आहारादि। नौ कोटियाँ ये हैं - 1. आहारादि के लिए साधु स्वयं हिंसा नहीं करे 2. दूसरे से नहीं करावे 3. ऐसी हिंसा का अनुमोदन भी नहीं करे 4. स्वयं नहीं पकावे 5. दूसरों से नहीं पकवावे और 6. अनुमोदन नहीं करें 7. स्वयं नहीं खरीदे 8. दूसरों से क्रय नहीं करावे और 9. क्रय करते हुए या किए हुए का अनुमोदन नहीं करे। ये नौ कोटियाँ मन, वचन और काया के योग से हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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