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________________ ९० प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० २ **************************************************************** और पाप से, पुणोवि - फिर भी, अहिगरणकिरिया - अधिकरण क्रिया के, पवत्ता - प्रवर्तक, बहुविहंबहुत प्रकार से, अणत्थं - अनर्थ, अवमई - विनाश, अप्पणो परस्स- अपना और दूसरों का, करेंतिकरते हैं। भावार्थ - जिनका आशय ही मिथ्या है, ऐसे झूठे लोग अपने प्रिय की झूठी प्रशंसा करते हैं। उनमें जो गुण नहीं है, वे बताकर उन दुर्गुणियों को गुणवान् कहते हैं और गुणवानों को निर्गुणी या दुर्गुणी बताकर सद्गुणों का विनाश करते हैं। अथवा दुर्गुणों को गुण और गुणों को दुर्गुण बता कर सद्गुणों का विनाश करते हैं। जिन वचनों के बोलने से प्राणियों की हिंसा होकर विनाश होता है, ऐसा घातक एवं पापकारी वचन बोलने में वे मिथ्याभाषी लोग तत्पर रहते हैं। जो वचन अहितकारी हैं, सज्जनों द्वारा गर्हित (निन्दित) हैं, अधर्म के उत्पादक हैं, ऐसे मिथ्या वचन बोलते हैं। वे पाप और पुण्य से अनभिज्ञ और अधिकरणों (पापोपार्जन के साधनों) की क्रिया में प्रवृत्ति करने-कराने के प्रवर्तक, बहुत प्रकार से अनर्थ एवं विनाश करते हैं। विवेचन - जिनका अभिप्राय ही मिथ्या एवं पापपूर्ण है, ऐसे झूठे लोग, सच्चे को झूठा और झूठे को सच्चा, सदाचारी को दुराचारी और दुराचारी को सदाचारी, साधु को असाधु और असाधु को साधु, . पाप को पुण्य और पुण्य को पाप, धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म-इस प्रकार बुरे को भला और . भले को बुरा कहते-प्रचारित करते रहते हैं। . सद्गुणों का नाश - मृषावादी सद्गुणों का नाशक होता है। वह दुराचारियों को सदाचारी बताकर प्रचारित करता है। भोले लोग उसकी बातों में आकर उस दुराचारी पर विश्वास करके श्रद्धा करते हैं। परन्तु जब उन्हें वास्तविकता का पता लगता है, तो उनके मन से सद्गुणों के प्रति रही हुई आस्था नष्ट हो जाती है। पीतल को सोना बताकर ठगने वाले के प्रति श्रद्धा कब तक रह सकती है? वह ठगाई उसे सच्चे और सदाचारी से भी दूर रखती है। इस प्रकार मृषावादी सद्गुणों का नाशक होता है। . उभय घात - मृषावादी यदि यह समझता हो कि मेरे झूठ बोलने से दूसरे की ही हानि होती है, मेरी कुछ भी हानि नहीं होती, मैं तो लाभ में ही रहता हूँ, तो उसकी ऐसी समझ भी मिथ्या है। सर्वप्रथम उस झूठे एवं खोटे आशय वाले की आत्मा ही मलिन होती है। जिस आत्मा में पापपूर्णवंचनायुक्त भाव उठे, वह तो उसी समय पाप का अर्जन करके भारी हो चुकी। दूसरों का अपकार तो उसके बाद की बात है और निश्चित नहीं है। यदि विपक्षी का अहित नहीं होना है, तो वह झूठे मनुष्य की चालबाजी और वाक्-छल में नहीं आ कर बच जाएगा। किन्तु वह मनुष्य तो पापपूर्ण भावना से अपनी आत्मा को भारी बना ही लेगा और उभय-घातक हो जायेगा। पाप का परामर्श देने वाले एवमेयं जंपमाणा महिससूकरे य साहिति घायगाणं, ससयपसयरोहिए य साहिति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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