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________________ 243 प्रथम भावना-बोलने की विधि ******************************* ****************************** सत्य महाव्रत की पांच भावनाएं प्रथम भावना-बोलने की विधि तस्स इमा पंच भावणाओ। बिइयस्स वयस्स अलियवयणस्स वेरमणपरिरक्खणट्ठयाए। पढमं सोऊण संवरटुं परमटुं सुटु जाणिऊणं ण वेगियं ण तुरियं ण चवलं ण कडुयं ण फरुसंण साहसं ण य परस्स पीडाकरं सावजं सच्चं च हियं च मियं च गाहगं च सुद्धं संगयमकाहलं च समिक्खियं संजएण कालम्मि य वत्तव्वं / एवं अणुवीइ-समिइ-जोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा संजयकरचरणणयणवयणो सूरो सच्चजवसंपुण्णो। शब्दार्थ - तस्स - इस, इमा- ये, पंच - पांच, भावणाओ - भावनाएं, बिइयस्स - दूसरे, वयस्समहाव्रत, अलिय-वयणस्स - मिथ्या वचन की, वेरमण - निवृत्ति रूप, परिरक्खणट्ठयाए - रक्षा के लिए, पढमं - प्रथम, सोऊणं - श्रवण करना, संवरटुं - मोक्षदायक, परमटुं - परम अर्थ युक्त, सुट्ट - भली प्रकार. जाणिऊण - जान कर. ण - नहीं. वेगियं - वेगपर्वक. तरियं - शीघ्रतापूर्वक चवलं - चपलतापूर्वक, कडुयं - कटु, फरुसं - कठोर, साहसं - बिना सोचे-विचारे, य - और, परस्स - दूसरों को, पीडाकरं - पीड़ाकारी, सावजं - सावध-पापयुक्त, सच्चं - सत्य-वचन, हियं - हितकारी, मियं - मितकारी, गाहगं - कथित अर्थ को स्पष्ट बताने वाला, सुद्धं - शुद्ध, संगयं - संगत, अकाहलंस्पष्ट वचन, समिक्खियं - विचार पूर्वक, संजएण - साधु को, कालम्मि - अवसर पर, वत्तव्वं - बोलना चाहिए, अमुविइ-समिइ-जोगेण - अनुवीचि समिति के योग से, भाविओ - भावित, भवइ - * होता है, अंतरप्पा - अन्तरात्मा, संजय-कर-चरण-णयण-वयणो - कर, चरण, नेत्र और मुख का संयम वाला, सूरो - शूरवीर, सच्चजवसंपण्णो - सत्य तथा सरलता से परिपूर्ण। .. __ भावार्थ - मिथ्या-भाषण से निवृत्त होने रूप दूसरे महाव्रत की रक्षा करने के लिए पांच भावनाएं हैं। इनमें से पहली भावना-सम्यक् प्रकार से विचारपूर्वक बोलना है। गुरु से सम्यक् प्रकार से श्रवण करके, संक्र के प्रयोजन को सिद्ध करने वाला, परमार्थ (मोक्ष) का साधक ऐसे सत्य को भली प्रकार से जानने के बाद बोलना चाहिए। बोलते समय न तो वेगपूर्वक (व्याकुलता युक्त) बोलना चाहिए, न त्वरित (शीघ्रतापूर्वक) और न चपलता से बोलना चाहिए। कटुवचन, कठोर वचन, साहसपूर्ण (अविचारी) बचन, दूसरे जीवों को पीड़ित करने वाले वचन और सावध (पापकारी) वचन नहीं बोलना चाहिए-भले ही वे वचन सत्य हों। ऐस सावध वचनों का त्यागकर, हितकारी, परिमित, अपने अभिप्राय को स्पष्ट करने वाले, शुद्ध, हेतुयुक्त और स्पष्ट वचन, विचारपूर्वक बोलना चाहिए। इस प्रकार इस 'अनुविचि समिति' रूप प्रथम भावना से साधक की अन्तरात्मा प्रभावित होती है। इससे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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