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________________ 242 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०२ **************************************************************** विभक्ति - शब्द के आगे लगा हुआ वह प्रत्यय या चिह्न जिससे शब्द का क्रियापद से सम्बन्ध जाना जाता है। प्रथमा से सप्तमी तथा सम्बोधन रूप। व्यंजन - 'क' से 'ह' तक के अक्षर, जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते। भाषा के बारह भेद-१. प्राकृत 2. संस्कृत 3. मागधी 4. पैशाची 5. सौरसेनी और 6. अपभ्रंश। इनके गद्य और पद से 12 भेद हुए। वचन के सोलह प्रकार - 1. एकवचन 2. द्विवचन 3. बहुवचन 4. पुल्लिंग 5. स्त्रीलिंग 6. नपुंसकलिंग 7. भूतकाल, 8. भविष्यकाल 9. वर्तमानकाल 10. परोक्ष 11. प्रत्यक्ष 12. उपनीत वचन (गुणवाचक) 13. अपनीत वचन (दूषण बताने वाला) 14. उपनीत-अपनीत वचन (कुछ गुण और कुछ दोष बताने वाला) 15. अनीतोपनीत वचन (पहले दोष बता कर फिर कोई गुण बताने. वाला) और 16. अध्यात्म वचन। भगवतोपदेशित सत्य महाव्रत का सुफल इमं य अलिय-पिसुण-फरुस-कडुय-चवलवयण-परिरक्खणट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं अत्तहियं पेच्चाभावियं आगमेसीभदं सुद्धं णेयाउयं अकुडिलं अणुत्तरं सव्वदुक्खपावाणं विउसमणं। शब्दार्थ - इमं - ये, अलिय-पिसुण-फरुस-कडुय-चवल-वयण-परिरक्खणट्ठयाए - झूठ, चुगली, कठोर, कटु और चपल वचनों से प्राणियों की रक्षा के लिए, पावयणं - प्रवचन, भगवया - भगवान् ने, सुकहियं - भली-भांति प्रतिपादन किया, अत्तहियं - आत्मा के लिए हितकारी, पेच्चाभावियंजन्मांतर में शुभ फल देने वाला, आगमेसिभई - भविष्य में कल्याण का हेतु सुद्धं - शुद्ध, णेयाउयं - न्याययुक्त, अकुडिलं - कुटिलतारहित, अणुत्तरं - प्रधान, सव्वदुक्ख-पावाणं - समस्त दुःख और पापों को, विउसमणं - शान्त करने वाला। - भावार्थ - झूठ, चुगली, कठोर, कटु एवं चपल वचनों और उसके कटुफल से प्राणियों की रक्षा करने के लिए भगवान् ने उत्तम प्रकार से यह सत्य-भाषण रूप प्रवचन कहा है। यह जिन-प्रवचन आत्मा के लिए हितकारी है, भवान्तर में शुभ फल देने वाला है, भविष्य में कल्याणकारी है, शुद्ध है, न्याययुक्त है, अकुटिल (सरल) है, अनुत्तर-उत्तमोत्तम है और समस्त दुःखों और पापों को शान्त करने वाला है। विवेचन - झूठ चुगली आदि सदोष सत्य और उससे उत्पन्न पाप के कटुफल से होने वाले दुःख से बचाने के लिए जिनेश्वर भगवंत ने निर्दोष सत्य-भाषण का विधान करने वाला यह प्रवचन कहा है, जो जीवों के लिए हितकारी, सुखकारी और कल्याणकारी है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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